बुधवार, 1 अगस्त 2012

आखिर वे उनके बच्चे हैं --- मनोज पाण्डेय

मनोज पाण्डेय 

                          
                    प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर युवा साहित्यकार
                       'मनोज पाण्डेय' का यह विचारोत्तेजक लेख 

                  आखिर वे उनके बच्चे हैं....

                जिन पाठकों ने रुसी उपन्यासों को पढ रखा है , उनको अच्छी तरह याद होगा कि जिन उपन्यासों में रुसी सामंती समाज का चित्रण हुआ है, उनमें रुस के सामंती परिवारों की भाषा से जुड़ी एक महत्त्वपूर्ण विषमता सामने आती है । रुस के सामंती परिवारों में रुसी भाषा का चलन घरों से बाहर की बातचीत तक ही जुडा हुआ था । उनके खेतों ,घरों और बागीचों में काम करने वालों से बातचीत करते समय ही उन मालिकों को जाहिलो- गवारों की भाषा की जरुरत पडती थी। मालिक और उनका परिवार तो यूरोप की फ्रेन्च जैसी सबसे आभिजात्य भाषा का ही व्यवहार सुबह से शाम तक अपनी सामंती ठसक के साथ करता था।
                भारत में भी तत्कालीन समाज के ताकतवर वर्ग की भाषा को ‘देवभाषा' के उच्चतम स्थान पर स्थापित कर दिया गया , जो आज भी आमजन की भाषा परिधि में दूर दूर तक नजर नहीं आ पाती है। यद्यपि एकाध गॉंवों में प्रचलन का उदाहरण देते हुए देवभाषा प्रेमियों का सीना जरुर चौडा हो जाता है। संस्कृत आमजन की भाषा से किस तरह देवभाषा' तक पहुँची ,  यह हमें संस्कृत में ही लिखे नाटकों से पता चलता है। इन नाटकों की संवाद योजना में भाषा वर्गों का स्पष्ट निर्धारण है। राजकुल के पुरुष,ब्राह्मण और उच्च कुलोत्पन्न पात्र ही संस्कृत भाषा में संवाद बोल सकते थे। स्त्री, सेवक और निम्न कुलोत्पन्न पात्रों की भाषा प्राकृत या अपभ्रन्श होती थी। आगे चलकर इसकी छाप हमें हिन्दी फिल्मों में रामू काका या घर के खानदानी सेवक के लिए तय की भाषा में भी दिखाई देती है।
              यहॉं हम जिस रुसी या भारतीय समाज और उसकी भाषा की चर्चा कर रहे है,वह समाज पूरी तरह सांमती और वर्णवादी रहा। किसी भी तरह का बॅंटवारा तत्कालीन समाज के राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक स्थितियों के अनिवार्य परिणाम के तौर ही हमारे सामने आता है।जबकि आज दुनिया भर में लोकतान्त्रिक व्यवस्था का डंका पीटा जा रहा है , इसके बाद भी , जब किसी भी स्तर पर असमान व्यवहार या उसकी मानसिकता या उसके लिए स्वीकृति की स्थिति दिखाई देती है, तब उसके बारे में गंभीरता से सोचना जरुरी हो जाता है। असमान व्यवहार की एक बडी घटना हमारे देश के भीतर ही भाषायी स्तर पर उच्च वर्ग द्वारा घटित हो रही है।
              दिल्ली के उच्च वर्गीय इलाकों यानि पाश कालोनियों' के ‘संवेदनशील अभिभावक' अपनी अगली पीढ़ी को हिन्दी या उसके जैसी किसी भी देशज भाषा से पूरी तरह अलगा देने की कोशिश कर रहे है।आपको लग सकता है कि इसमें कौन सी नयी बात है। उनके बच्चे ही नही एक सामान्य आय वाले  अभिभावक के बच्चे भी हैसियत के स्तर के पब्लिक स्कूलों में अंग्रेजी ही पढ़ने जा रहे है। आगे बढ़ने और बने रहने के लिए देशी भाषाओं से काम नहीं चलने वाली मानसिकता का निर्माण करने का काम इसी वर्ग ने किया है। इन अभिभावकों ने अपने बच्चों के खेलने और मजे करने की स्थितियों को भी भाषा के स्तर पर नियन्त्रित करना शुरु कर दिया है। इसको ऐसे भी कहा जा सकता है कि इस बात का पता हमें अब चला है कि वे हमारी भाषा से किस कदर घृणा करते है।
             ऐसे अभिभावकों ने अपने बच्चों के साथ पार्कों में खेलने के लिए निम्न-मध्य मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चों को सांस्थानिक रुप से ''हायर करना शुरु किया है। इन बच्चों को बाकायदे हर विजिट' के लिए तयशुदा रकम दी जाती है। मध्यवर्गीय स्कूलों से ऐसे प्रतिभासम्पन्न' बच्चों को व्यवस्थित ढंग से ‘हंट’ किया जा रहा है। स्कूल भी अपने प्रतिभाशाली होनहारों के लिए इस तरह के ‘हंट' को बेहतरीन अवसर के रुप मे मानते हुए अपनी उपलब्धियों के खातों में चुने गये बच्चों का नाम जोडने में मगन हो रहे हैं। मनपसन्द बच्चों का समूह बन जाने के बाद नामी गिरामी संस्थाओं के व्यक्तिव प्रशिक्षण कक्षाओं मे एटीट्‌यूड और ऐटीकेट्‌स' का पाठ पढाया जाता है , जिससे रही सही कमी पूरी हो जाये। बच्चों को चुने जाने की प्राथमिक शर्त अंग्रेजी से जुडी हुयी है। इस भाषा पर पकड है तो मध्यवर्गीय परिवार के बच्चे के चुने जाने की शतप्रतिशत सम्भावना होती है।बाकी चीजें तो हायर' करने वाला अभिभावक वर्ग खुद विकसित करवा लेता है।निम्न मध्यवर्गीय परिवार का अभिभावक इस बात में खुश हो जाता है कि उसका बच्चा खेल के भी कमा रहा है।
             संविधान में अपनी भाषा के विकास के लिए अवसर देने का जिक्र है | मान भी लिया जाये कि हमारी भाषा उनकी भाषा नही बन पायी है या इससे आगे बढकर कभी बन भी नहीं पायेगी ,  तो भी क्या हम इस तरह की बनते समाज को जायज ठहरा सकते है ..? एक ही समय में दो बच्चों की मानसिकता के विकास की दिशाए किस ओर होती होंगी ..?  इसी तरह के तमाम प्रश्न आज हमारे सामने आ खडे हुए है , जिनका जबाव लिया जाना जरुरी है।


                                                      मनोज पाण्डेय 

  परिचय .....                      

-- लेखक पेशे से शिक्षक है
--- कवितायें लिखते हैं  
--- दिल्ली में रहते है 
     और 
--- साहित्यिक - सांस्कृतिक गतिविधियों में गहरी दिलचस्पी रखते है 

3 टिप्‍पणियां:

  1. मनोज भाई ने एक बहुत ज़रूरी विषय उठाया है लेकिन मुझे लगता है कि इसे वह जल्दबाजी में समेत गए.

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  2. सामन्तवादी मानसिकता के कीटाणु अभी रक्त में प्रवाहित हो रहे हैं |लेकिन विचारणीय तथ्य ये है कि शिक्षा विभाग क्या कर रहा है क्या उसका मौन ही उसकी स्वीकारोक्ति नहीं,तब जबकि स्कूल (जैसा कि आपने कहा )इस योजना में शामिल हैं ?दरअसल ऐसे किसी मुद्दे पर जब मानव संसाधन या शिक्षा विभाग को कटघरे में खड़ा किया जाता है तो उनका तर्क इस प्रकार की योजना को एक सकारात्मक (निम्न मध्यम वर्ग के लिए)और फायदेमंद नीति के रूप में प्रदर्शित करता है |महिला बाल विकास द्वारा संचालित गरीब बच्चों के लिए आंगन बाडियां कितनी सफल हैं ?

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  3. भाई टीवी पर स्‍कूली बच्‍चों की जितनी प्रतियोगिताएं हैं, वे सब इसी ओर इशारा करती हैं... लेकिन जिन गहरे चिंताजनक पहलुओं पर मनोज भाई को और विस्‍तार से कहना चाहिये था, वे शायद जल्‍दबाजी में छोड़ गये या कि सांकेतिकता में...

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