रविवार, 11 मार्च 2012

डायरी के पन्नों में ---विश्व पुस्तक मेला







विश्व पुस्तक मेले की डायरी के पन्नों से


पहला दिन -------28-02-2012 


विश्व पुस्तक मेले में भाग लेने के लिए आज ही दिल्ली पहंचा हूँ | यहाँ आने से पहले मन में एक तरफ जहाँ उत्साह भी है कि किताबों के साथ साथ फेसबुक और ब्लाग की दुनिया के मित्रों से मिलना भी संभव हो सकेगा , तो दूसरी ओर यह डरभय भी सता रहा है कि मेरा हश्र भी उस दिल्ली में कमलेश्वर की कहानी खोयी हुई दिशाएंके पात्र सरीखा न हो जाए , जो प्रतिदिन  इस आशा में घर से निकलता है कि काश ! ,इस शहर में उसे भी कोई पहचान लेता | आज 28 फ़रवरी को जब पहली बार मैं मेले में पहुंचा , तो सबसे पहले मेरी मुलाकात गार्गी प्रकाशन के अरविन्द से हुई | वे मेरे ही जिले बलिया के रहने वाले हैं | मार्क्सवादी विचारधारा और साहित्य पर जिस गहनता और सरलता के साथ अपनी बात रखते हैं , वह चकित करने वाला है | हमेशा लो-प्रोफाइल में रहने वाले अरविन्द और उनकी टीम ने सोवियत संघ और चीन में साम्यवाद के पतन के कारक दस्तावेजों को जिस प्रकार से संकलित और प्रकाशित किया है , वह अनूठा है | अरविन्द से हुई मुलाकात ने मेरे भीतर आशा और उर्जा को जो संचार पैदा किया ,वह मानीखेज है | फिर समयांतरके स्टाल पर उस पत्रिका के सहयोगी संपादक सुभाष गौतम से मुलाकात होती है | समयांतर जैसी महत्वपूर्ण वैचारिक पत्रिका को सहयोग करने वाले सुभाष भाई भी उसी सादगी और ईमानदारी से काम करते हैं , जैसी कि खुद समयांतर | वे अपने स्टाल पर एक विक्रेता के बजाय एक सहयोगी और मार्गदर्शक की भूमिका निभाते नजर आते हैं | और तभी हमारी मुलाकात बी.एच.यू. के शोधार्थी मित्र रविशंकर और उनके मित्रों से होती है | वे भी आज ही बनारस से यहाँ पहुचे हैं | मेले को देखने ,घूमने और खरीदारी करने का उनका टिप बहुत काम लायक है | “पहले दिन हम लोग सभी स्टालों से पुस्तक-सूची एकत्रित करेंगे , शाम को घर जाकर उसमे अपने काम लायक किताबों को अलग छाटेंगे और अगले दिन खरीदारी पर उतरेंगे” | रविशंकर की यह युक्ति मुझे बहुत भाती है | हां ...उनके पास किताबों पर छूट लेने की भी मौलिक युक्ति है |..सभी बड़े स्टालों पर पहले ही दिन वे अपने लायक परिचय भी ढूंढ लेते हैं | खरीदारी करते समय यह इतना काम लायक सिद्ध होता है कि 5000  मूल्य की किताबो से भरे बैग की बिल 3000  की ही बनती है | अब इसे आप चांहे तो छूट के बजाय कम्यूटर की गडबडी भी मान सकते हैं , लेकिन यह गडबडी हर स्टाल पर होती है | ऐसे में अपनी प्रिय किताबों को खरीदने  का उत्साह कई गुना बढ़ जाता है |


हमारी मुलाकात फेसबुक के सबसे चर्चित चेहरे अशोक कुमार पाण्डेय से होती है | फेसबुक के हमारे मित्र जानते ही हैं कि अशोक के सोचने-समझने का दायरा कितना विस्तृत है | शिल्पायन के स्टाल पर , जहाँ से उनका कविता संग्रह लगभग अनामंत्रितआया है, वे अपनी आगामी योजनाओं पर जमकर बात करते हैं | आपसे राय लेते हैं और आपको अपनी राय देते भी हैं | वहीँ मृत्युंजय , हरीश पंड्या और सत्य नारायण पटेल से भी मुलाकत होती है कि तभी मनोज पटेल का आगमन होता है | सब लोग कहते है , “अपना परिचय देकर हमें शर्मिंदा मत कीजिये , ‘पढते-पढतेको फेसबुक और ब्लॉगों की दुनिया का कौन आदमी नहीं जानता है” | मनोज जिस संजीदगी से पढते-पढतेब्लाग का काम करते है , उसी संजीदगी से बात भी करते हैं | फिर दुबला-पतला छरहरा सा युवक , जिसके चेहरे पर मुस्कराहट स्थाई वास करती है , अवतरित होता है | अशोक कहते है ये कुमार अनुपमहैं | ओह ....कुमार अनुपम | अपनी कविताओं की ही तरह उनके मिलने में भी आत्मीयता साफ़ झलकती है | शाम को वापस गेस्ट-हॉउस लौटता हूँ.., पूरे उत्साह के साथ | आखिर कल खरीददारी भी तो करनी है |......
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दूसरा दिन ----29.02.2012


साहित्य पढ़ने के शुरूआती दिनों में मैं यही सोचता था कि यदि पचास प्रतिष्ठित पुस्तकों का अध्ययन कर लिया जाए , तो काफी कुछ जाना जा सकता है | लेकिन जैसेजैसे उन्हें पढ़ने का सिलसिला आगे बढ़ता गया , साहित्य रूपी पेड़ में भाषाओँ और विधाओं की कंछिया फूटती चलीं गयीं और तब एक भाषा की एक विधा में ही पचास पुस्तकों की यह संख्या नाकाफी लगने लगी | जिस कवि ने कहाकी बीस पुस्तकों की सीरीज के जरिये मैं आधुनिक कविता को समझ लेने का स्वप्न देख रहा था , इस पुस्तक मेलें में आने के बाद यह एहसास हुआ कि वह सीरीज इस महासागर में एक नदी से अधिक की औकात नहीं रखती | मन में किसी का कहा हुआ कौंधने लगा कि आप जितना अधिक जानते जाते हैं , आपको यह लगने लगता है कि आप कितना कम जानते हैं और यह भी कि आपके सामने जानने के लिए कितना कुछ बाकी पड़ा है


आज का दिन मेले में हमारे लिए खरीददारी का दिन है | रविशंकर और उनके साथियों के पास पुस्तकों की लंबी सूची है जिसे मैं उपस्थित होकर थोडा और फ़ैला देता हूँ | मुलाकातों के हिसाब से आज का दिन भी काफी घटना प्रधान साबित होता है | लीना मल्होत्रा , जिनका पहला कविता संकलन मेरी यात्रा का जरुरी सामानअभी कुछ ही दिन पहले आया है , से मुलाकात होती है | अपनी कविताओं की बेबाकी और तेवर के विपरीत वे काफी सरल, संकोची और मृदुभाषी हैं | अपनी प्रशंशा पर झेंपने का उनका अंदाज बिलकुल हमारे और आप ही जैसा है | आगे बढ़ता हूँ तो ज्योति चावला मिल जाती हैं | वे मुस्कुराते हुए उलाहना देती हैं कि आपने लीना की खबर तो ली , लेकिन मुझे नजरंदाज कर दिया | “अरे नहीं...आप ऐसा क्यों सोचती हैं ..?” मैं हर तरह से उन्हें आश्वस्त करता हूँ कि मैंने आपको पहचाना नहीं , अन्यथा जब मैं लीना से मिला (वे उस समय लीना से बातचीत कर रही होती हैं) तभी मैं आपसे भी मिलता | ज्योति तुरंत ही मुझे सहज कर देती है | मैं उमाशंकर चौधरी के बारे में पूछता हूँ | “साहित्य अकादमीके युवा पुरस्कार के लिए उन्हें बधाई देनी है” | ‘तो मुझे ही दे दीजिए’ , ज्योति मुस्कुराते हुए कहती हैं | “नहीं ...क्या पता कल ये आपको मिल जाए ...तब ...? ...तब के लिए इसे बचाकर रखना चाहता हूँ” | मैं उस बधाई को वापस जेब में रख लेता हूँ


फिर मेरी मुलाकात पंकज बिष्ट से होती है | वे जिस आत्मीयता और उर्जा के साथ हमसे फोन पर बात करते हैं , उसी तरह से मिलते भी हैं | समयांतर के मार्च अंक में छपने वाले मेरे लेख आस्कर विजेता फ़िल्में और हमारी दुनियाकी वे तारीफ़ करते हैं | मैं झेंपते हुए बात को दूसरी तरफ मोड़ता हूँ | समयांतर से होती हुई बात उनके यात्रा संस्मरण खरामा-खरामाऔर उपन्यास पंख वाली नावतक चली जाती है | वीरेन्द्र यादव , विजय गौड़ , अरुण कुमार असफल और विष्णु नागर से मिलते हुए सामयिक प्रकाशन की तरफ लौटता हूँ कि पाखीके संपादक प्रेम भारद्वाज से मुलाकात हो जाती है | यहीं से उनका कहानी संग्रह इन्तजार पांचवे सपने काआया है | उनसे काफी बातचीत होती है | फिर अंतिका प्रकाशन पर आता हूँ | यहीं नगर वधुएं अखबार नहीं पढ़तीऔर वह भी कोई देश है महाराजके लेखक अनिल यादव से मुलाकात होती है | आत्मीयता भरी इस मुलाकात के बाद मैं राजकमल की तरफ बढ़ता हूँ...| वहाँ सुशील सिद्धार्थ बैठे हुए हैं | उनसे भी मेरी पहली मुलाकात है | आर चेतन क्रांति से मिलता हूँ | नागार्जुन केंद्रित आलोचना के अंक में मुझे अपना लेख दिखाई नहीं देता | “तो क्या वह छंट गया ..?” मैं पूछता हूँ | हमारे जैसे दूर दराज में रहने और नए लिखने वाले इसी तरह से सोचते हैं | “नहीं ...इस अंक में सामग्री अधिक हो गयी थी..आपका लेख अगले अंक में आएगा” | चेतन क्रांति की बातों से आशा बंधती है | उनके बगल में एक सज्जन खड़े है | वे हमारा नाम पूछते हैं | ‘जी मैं ही हूँ’ , मैं हामी भरता हूँ | ‘और आप ...?’ “मैं अशोक मिश्र हूँ ...रचना क्रम का संपादक ...आपका लेख मेरी पत्रिका के मीडिया विशेषांक में छपा था” | ‘ओह....क्षमा कीजिये ....मैं पहचान नहीं पाया ’ |

मेले से वापसी में आज किताबों का बण्डल कंधो के साथ-साथ मेरे हौसले की भी परीक्षा ले रहे हैं | शाम के समय चार झोलों के साथ मेट्रो में किये जाने वाले सफर का सुख-दुःख क्या होता है , दिल्ली वाले ही बता सकते हैं ..| बहरहाल ...किताबों का सुख तो प्रेमिकाओं जैसा ही होता है , जिनके साथ चलते हुए सफर की तमाम दुश्वारियाँ भी भलीं ही लगने लगती हैं ....|


कनाट प्लेस की इनर सर्किल से होते हुए अपने अतिथि गृह की तरफ बढ़ता हुआ मैं , उन लोगो के भाग्य पर तरस खाता हूँ , जो मेरे द्वारा खरीदी गयी इन पचासों किताबों से अधिक के मूल्य का परिधान पहनें मैकडोनाल्ड और हल्दीराम के कबाड़ को अपने उदर में भरने के लिए उतावले हो रहे हैं ...|....तो क्या ईश्वर के दरबार में वाकई न्याय भी होता है , जो उसने इन बेचारों के दिमागों में विचारों के खाने ही नहीं बनाये ....?........





तीसरा और अंतिम दिन ---01.03.2012
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पता पूछने के लिए भारत में पूजा स्थलों का किया जाने वाला उपयोग मुझे भी पसंद आता है | किसी भी अजनबी इलाके में आप इनके सहारे अपनी मंजिल तक पहुच सकते है | अब यह अलग बात है कि उनके दरवाजे के भीतर दाखिल होते ही आपका सारा दिशाबोध जाता रहे | भारतीय ज्ञानपीठ के कार्यालय तक पहुचने में भी साईं मंदिर स्थल आपके काम आता है | जहाँ सामने मंदिर की सीढियां उतरते भक्तजन ईश्वर को मिठाई के डब्बों में बंद कर ले जा रहे हैं , उन्ही के बगल से भारतीय ज्ञानपीठ का रास्ता खुलता है | यहाँ कुणाल सिंह , कुमार अनुपम और महेश्वर से मिलना होता है | काम के दबाव के मध्य उन सबसे आधे घंटे की वह मुलाकात दिल को छू लेने वाली होती है | उनके सामने रचनाओं का ढेर लगा हुआ है | सोचकर दिल दहल जाता है कि एक लेखक कैसे इनके बीच से रास्ता बनाता हुआ नया ज्ञानोदयके पन्नों तक पहुचता होगा | एक संपादक के लिए भी रचनाओं का यह बड़ा ढेर किसी चुनौती से कम नहीं | कुणाल अपना दुःख रोते है मुझे अपनी प्रशंसा असहज कर देती है , ऐसे में कोई रचनाकार अपनी रचना भेजते समय जब मेरी तारीफों के पुल बांधना शुरू कर देता है , तो मन में एक खीझ पैदा होने लगती है | मेरा तो स्पष्ट मानना है कि यदि आपकी रचना में दम होगा , तो कोई भी उसे सामने आने से रोक नहीं सकता | फिर बेमतलब की चापलूसी क्यों ...?” 


कुणाल की बातों में दम है | “लेकिन क्या पत्रिकाओं में छपने वाली सारी रचनाये स्तरीय और उनमे नहीं छपने वाली सारी स्तरहीन ही होती हैं” | मन में उठते हुए इस सवाल को दबाता हुआ उन सबसे विदा लेता हूँ | जबकि महेश्वर अपने चश्मे में खूब जम रहे हैं , लेकिन यह सोचकर कि कहीं हमारी इस प्रशंसा को भी चापलूसी की श्रेणी में ही न रख लिया जाए , संकोचवश मैं इसे व्यक्त नहीं कर पाता | मेले में वापस लौटता हूँ | आज रामाज्ञा जी बनारस से पधारे है | उनके साथ विद्यार्थियों की पूरी टोली है | पेंग्युइन के स्टाल पर कथाकार राजेंद्र दानी मेरा हाथ थामते हुए मुझे नाम से पुकारते हैं | ‘जी मैं ही हूँ’ | लेकिन आप कैसे मुझे पहचानते हैं | “ आप फेसबुक पर मेरी बेटी के मित्र हैं , उसी ने आपसे मेरा परिचय कराया है” | वे राज खोलते हैं | तो फेसबुक इतने काम का हो सकता है | तब तक उनकी बेटी तिथि दानी भी आ जाती हैं | परिकथा के नवलेखन अंक में मेरे साथ-साथ उनकी कहानी भी छपी है | बातचीत काफी सुखद रहती है | राजेंद्र सच्चर , कमल नयन काबरा , लाल बहादुर वर्मा , नामवर सिंह , काशीनाथ सिंह , विभूति नारायण राय , अनामिका, निर्मला भुराडिया आदि बड़े नामो को देखने का सौभाग्य भी इस मेले में मिलता है | आज ही उमाशंकर चौधरी से भी मुलाकात होती है | जेब में रखी उनकी बधाई उन्हें सौंपता हूँ | जयश्री राय , मनीषा , गीता श्री , कविता , राकेश बिहारी आदि से मुलाकात के बाद फेसबुक के मेरे मित्र मनोज पाण्डेय और प्रेमचंद गाँधी भी मिलते हैं | आभासी दुनिया के मित्रों से यह मुलाकात जब हकीकत की गर्मजोशी में बदलती है , तो बहुत अच्छा लगता है |

मेरे लिए यह विश्व-पुस्तक मेला आज समाप्त हो रहा है | दिल्ली से बलिया लौटने के लिए ट्रेन पकडता हूँ तो मेले से खरीदी गयी किताबों के साथ-साथ स्मृतियों की गठरी भी होती है | एक ऐसी गठरी जिससे काफी कुछ सीखा जा सकता है , जिसको आजीवन संजोया जा सकता है | आभासी दुनिया की यह आत्मीयता सुखद और उत्साहवर्धक प्रतीत होती है | डायरी के पन्नों पर बेशक बहुत सारे मित्रों के नाम छूट गए हैं , लेकिन मन स्मृतियों में वे कहीं गहरे जरुर दर्ज हैं | फेसबुक को दिल से धन्यवाद देनें की इच्छा होती है , जिसने मेरे जैसे दूर-दराज और रिमोट में बैठे आदमी के लिए इस विस्तृत जहान में खड़ा होकर अपनी पहचान बनाने का अवसर प्रदा किया | शुक्रिया मित्रों ....| आप सबका बहुत आभार ,जिन्होंने इन स्मृतियों को सतरंगी बनाया , और उन सबसे सादर क्षमा , जिनसे चाहते हुए भी नहीं मिल पाया |
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रामजी तिवारी 

शनिवार, 3 मार्च 2012

हम बचे रहेंगे .. एक पाठकीय प्रतिक्रिया




"हम बचे रहेंगे" कवि-कथाकार विमलेश त्रिपाठी का प्रथम काव्य संकलन है। सबसे पहले मैं युवा कवि को अपनी ओर से हार्दिक बधाई देना चाहूंगा । कविताओं  के सच बोलते शब्दो के गांभीर्य को पढने के बाद समीक्षा लिखने की स्वयं की अर्हता पर मुझे संकोच होता है फिर भी, बतौर पाठक प्रतिक्रिया व्यक्त करना मेरा सौभाग्य और कर्तव्य है। हिन्दी के सरल, सीधे और सहज-आंचलिक, आसान भोजपुरिया शब्दों के समावेश के बाबजूद इस संकलन को एक नजर मे सरसरी तौर पर पढना मेरे जैसे एक पाठक के लिए संभव नही है, कई पंक्तियों पर नजरें ठहर जाती हैं। शब्दों के प्रतीक-बिम्बों से निकलते भाव, सच के सौंदर्य को महसूस करने के लिये विवश कर देते हैं। कई जगहों पर पर मैं इतना मंत्रमुग्ध हो जाता हूं कि वहाँ ठहरकर मैं शब्दों के भाव -सौंदर्य को देखता रह जाता हूं। ऐसा लगता है, कोई विवश निर्दोष प्रेममय प्रतिभा घोर उपेक्षा, पीडा, संत्रास, संघर्ष झेले, या जीवन के उतार-चढाव की कडी धूप में जले बगैर,..  मात्र कोरी कलात्मक कल्पनाओ, तर्क व अनुमान से इस प्रकार के सच को इतना स्पष्ट और बेबाक नही लिख सकता है। शब्द इतने तपे, तपाये हैं, जो कवि के उदगार के यथार्थ को एक सही वजन देते दिखते हैं। हिन्दी के शब्दो के साथ ठेठ भोजपुरिया शब्दों का मेल संकलन को एक पक्का रंग देकर, अनूठा बना देता है। सीधी, सरल और सपाट शैली मे लिखी पंक्तियों में एक अदभुत धार है, जो आज के एक पाठक के मन की भटकी नैराश्य मनोवृतियों को काटती हुई और उस पर, अपने पैर जमाती हुई चलती चली जाती है,.. जो एक नये सिरे से सोचने का एक साकार दृष्टिकोण देती है, नये आत्मविश्वास गढती है। इस दिशा मे यह संकलन एक सफ़ल और प्रभावी प्रयास है।
हिन्दी कविता, कई काल और वाद  के दौर से गुजरती हुई, मुक्तछंद के आज जिस मुकाम पर है, २१ वी सदी मे तेजी से बदलती परिस्थितियों मे जो बदलाव आया है उसमे साहित्य का बदलना भी लाजिमी है। जैसा कि हम जानते हैं, कविताओं का अपने तत्कालीन युग से एक गहरा संबंध होता है, अब इतना कुछ अधिक लिखा पढा जा रहा है, जो एक तरह से हिन्दी के प्रति, एक प्रेम को ही दर्शाता है, यह एक अच्छी बात है, पर इसी प्रक्रम में कहीं-कहीं, रोष, विखराव व भटकाव भी है, वहाँ यह संकलन साहित्य में एक आदर्श आयाम बनने में सहायक हो सकता है।
कम्पूटर पर पहली बार मैने दो पंक्तियाँ पढी -
जितने कम समय मे लिखता हू मै एक शब्द,
उससे कम समय मे मेरा बेरोजगार भाई आत्महत्या कर लेता है
उससे भी कम समय मे
बहन " औरत से धर्मशाला" मे तब्दील हो जाती है।
...
तभी से सोचता था कि वह कौन कवि है, जो इतनी पैनी और अलग सोच रख  सकता है, पहली बार मै ठहर गया था,.. खोजते, ढूँढते, विमलेश त्रिपाठी जी को पाया व आज उनका यह काव्य संकलन देखने का मौका भी उन्ही के प्रयासों से मिला। मेरा अनुमान सही निकला, यह काव्य संकलन, सच मे एक अलग-से, रंग मे है। इसमें एक अलग बात है।
कविताओं मे कई ऐसी पंक्तिया है, जो अत्यंत मर्मस्पर्शी, भावुकता पूर्ण सच देखती हुई, एक अकूत प्रेम को दर्शाती है, जहाँ  मेरे जैसे पाठक को देखने के लिये ठहरना पडता है-
बूढे इन्तजार नही करते .....
अपनी हड्डियों मे बचे रह गये अनुभव के सफ़ेद कैलसियम से
खीच देते है एक सफ़ेद और खतरनाक लकीर --
और एक हिदायत,
जो कोइ भी पार करेगा उसे बेरहमी से कत्ल कर दिया जायेगा....।
यहाँ कैलसियम और लकीर पर मै ठहर जाता हूँ,
कितना वजन आज भी इस लकीर में है, मै ठहर कर महसूस करता हूँ, रीति-रिवाजों और परंपराओ की ओट मे सदियों से रहते आए आदमी के लकीर के फ़कीर बनने पर, वहाँ अपने विवेक, साहस, और निर्णय लेने की न्याय- पूर्ण क्षमता से कवि मनुष्यता के सच को वरीयता  देता है।
कवि राजघाट पर राष्ट्रपिता से आज के वर्तमान निर्मम स्थिति से जुडे कुछ प्रश्न करता है, यहाँ एक भोजपुरी शब्द का प्रयोग है --"-ढठियाये-"- अर्थ है (बहला, फ़ुसलाकर या, फ़रेब से अथवा सुसुप्तावस्था मे, हत्या करना) इसके व्यापक अर्थ को जानकर मन सिहर उठता है, अदभुत है यह शब्द। जो आज की स्थिति के चित्रण भाव को उपयुक्त अर्थवत्ता देता है।
---
हत्यारे पहुँच रहे है,
सडक से संसद तक....
इन पंक्तियो से चलते -चलते मुझे कवि धूमिल की यादे भी कुछ ताजा हो गयी ।
कवि की संवेदना को  देखते ही बनता है, वह अपनी माँ के गँवई चेहरे पर की झुर्रिया देखता है, उससे महुए को टपकता देख कर सफ़ेद कागज पर अंकित करने का बिम्ब अत्यंत मर्मस्पर्शी है, कविता में देश काल और राष्ट्रचेतना मे शब्दों, बिम्बो का गठन बहुत सुन्दर है, जहाँ मै ठहर सा जाता हूँ।
कवि की दृष्टि एक दिहाडी मजदूर पर भी है जब वह रंगो के दर्द भुलाने के लिये मटर के चिखने के साथ पीता है बसन्त के कुछ घूँट। यहाँ भी मेरा ठहरना होता है।
कविता के प्रति कवि का सच भी अदभुत सच है।
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मैने लिखा--कविता
और मैने देखा
कि शब्द मेरी चापलुसी में
मेरे आगे पीछे घूम रहे है ..... ।
जहाँ कही भी मैं कविता मे देखता हूँ, कवि, तपे तपाए हुए शब्दो में कही भी किसी तरह का अभिनय, चाटुकारिता, दिखावा, अनर्गल प्रलाप या, व्यर्थ के अर्थ खोजता हुआ  नही लगता बल्कि, वह सीधे और सपाट शब्दों से केवल वह सच  देखता है, जो एक राष्ट्र के  परिपक्व जिम्मेदार जन साहित्य चेतना के प्रहरी कवि को देखना चाहिये। कविताओं मे  केवल एक प्रेम, और सच झलकता है, जो मन को छू जाता है जो मुझे एक  राहत दे जाता है।
....
एक ऎसे समय मे जब शब्दो को सजाकर,
नीलाम किया जा रहा है , रंगीन गलियो मे,
और कि नंगे हो रहे है शब्द,
कि हाँफ़ रहे है शब्द,
एक एसे समय मे शब्दो को बचाने की लड रहा हूँ लडाई.....।
देश, काल, साहित्य, समाज के सच को कवि एक खतरनाक और निर्मम समय के रूप मे व्यक्त करता है। इस बुरे समय मे भी विचलित उद्वेलित या रोष मे नही लगता वह तटस्थ भाव से गहरे पानी की तरह शांत होकर एक राह बनाता है।
कवि  के आत्मविश्वास से भरे उठे हाथ हमें बचे रहने के भविष्य का आगाह करते हैं।
कवि को यकीन है -----
एक उठे हुए हाथ का सपना,
मरा नही है,
जिन्दा है आदमी,
अब भी थोडा सा चिडियों के मन मे,
बस ये दो कारण काफ़ी है
परिवर्तन की कविता के लिये ..।
---
पुन: कुछ और भी मिला मुझे,...
कोइ भी समय इतना गर्म नही होता
कि करोडों मुठ्ठियों को एक साथ पिघला सके
न कोइ भयावह आंधी,
जिसमे बह जाये सभी
मैंने एक जगह और देखा ,...
---
शब्दों से मसले हल करने वालें बहरूपिये समय मे
.........
प्यार करते हुए
..............
पालतू खरगोश के नरम रोओं से
या आइने से भी नही कहूँगा
कि कर रहा हूँ मै सभ्यता का सबसे पवित्र और खतरनाक
कर्म----
काव्य संकलन मे अर्थ इतना साफ़ है जो हमे सोचने को बाध्य कर देता है कि कवि का अभिप्राय क्या हैं। एक जगह और कुछ पंक्तियाँ  मिली।
जहाँ सब कुछ खत्म होता है,
सब कुछ वही से शुरु होता है....
कि तुम्हारे हिस्से की हवा मे
एक निर्मल नदी बहने वाली है...
तुम्हारे लहु से
सदी की सबसे बडी कविता लिखी जानी है।
मै समय का सबसे कम जादुई कवि हूँ ।
किसानो की आत्महत्या के बाद भी
गुजरात के दंगो के बाद भी
बाकी बचे रहेगें ,
रिश्तो के सफ़ेद खरगोश ,
जब उम्मीदे तक हमारी बाजार मे गिरवी पडी है,
कितना आश्चर्य है ,ऎसा लगता है, पूरब से एक ,
सूरज उगेगा.. ।
यह शर्म की बात है,
कि मै लिखता हूँ ,कविताएँ,
यह गर्व की बात है,
कि ऎसे खतरनाक समय मे मै,
कवि हूँ....कवि हूँ..।
---.
उपरोक्त पंक्तियाँ, काव्य संकलन की कविताओ के मात्र कुछ अंश है, इनसे पूरी कविता का भाव बगैर पूरी कविता पढे स्पष्ट नही होगा, यह मात्र एक बानगी या खाका खीचने भर का प्रयत्न है, पूरे संकलन की कविताओ को, प्रतिक्रिया के इस छोटे दायरे मे लाना संभव नही जान पडता है।
मै एक पाठक हूँ, मेरे भी कुछ निजी विचार है, जिसे व्यक्त करने के लिये स्वतंत्र हूँ। "हम बचे रहेगें "-- काव्य संकलन की, कविताएँ पढने के बाद मुझे लगा, यह एक  बहुत अच्छा, सम्मानित, संग्रह योग्य, काव्य साहित्य है, ऐसे संग्रह का सम्मान के साथ, मै  स्वागत करता हूं। जब पिसता है आदमी ,.. और पीसने वाला भी है आदमी,.. तो ऐसे क्रूर और बुरे समय में एक अच्छा साहित्य ही हमें राह दिखाता है, अगर यह विधा कविता हो तो बात और भी दमदार हो जाती है। यह संकलन, एक पिसते आदमी को राहत देता है, मेरा मतलब बिखरने और भटकने से बचाता है, प्यार सिखलाता है। और यह केवल हमें वर्तमान में ही नही राह दिखाता,.. बल्कि अच्छे साहित्यिक गुणो से हमारी आने वाली पीढियों की फसलों के दाने को भी पुष्ट, परिपक्व बनाने के इतिहास में एक उर्वरक का काम भी करता है। कभी- कभी हम यह भूल जाते हैं, यह भूल इस काव्य संकलन में नही है।
कवि के पास मानव जीवन के अनेक सरल और संगीन सामाजिक व राजनैतिक और वसुधा के प्रेम से भरी हुई सत्य के विहंगम दृश्य को देखने की एक परिपक्व अन्तर्द्ष्टि है, जो विशिष्ट है.. , और यह वैशिष्टय  प्राय: सभी कविताओ मे दिखता है, जो हमे सत्य के सौन्दर्य से सराबोर कर मन को झकझोर देती है, जो हमारे नैराश्य से सुप्त पडे मनुष्यता के प्रेम को जगाकर एक आत्मविश्वास की प्रेरणा देने की दिशा देती है। संकलन मे कविताए .., गाँव , गँवई ,जवार, बूढे गवाह बरगद, फुरगुदी, खेत, पगडंडी, खलिहान, छान्ही पर की चिडियाँ अनगराहित भाईसूकर जादो, सफ़ेद खरगोश, होरी और चईता के स्वर के धुनों सहित कई पात्र व माध्यम के एक सजीव रंगो, से वह प्रेम जगाते हैं, जो आज के समय की जरूरत है। जब तक, साहित्य में सच का सौन्दर्य जीवित रहेगा, शब्दो मे प्रेम, कविता मे चेतना का आत्मविश्वास, सौहार्द और सहिष्णुता की, सही दिशा रहेगी ,... रिश्तो के खरगोश बचें है, हम बचे है,..और रहेंगे हम,...यानी ,..."हम बचे रहेंगे ",.....
इस बात पर मुझे इकबाल साहब की, अपने देश की ही अपनी रागिनी की गुँज आ रही है।
...
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी,,, युनान, मिस्र रोंम्या सब मिट गये जहाँ से,... ,  सारे जहाँ से.........।
अगर कोइ मुझसे पूछे कि इसमे क्या बात है?.. तो मै कहूंगा, इसमें यही बात है।
विमलेश जी आपने मुझे इतना छुआ है कि क्या बताउं? बहुत दिनो के बाद कुछ अच्छा पढने को मिला।
अंत मे एक संदेश है,....., मेरा जो आपकी कविता का ही एक अंश है।
मुझे ,.. दूसरे संकलन, का इंतजार रहेगा,
ठीक वैसे ही ---
मन्दिर की घंटियो के आवाज के साथ
रात के चौथे पहर,
जैसे पंछियो की नींद को चेतना आती है।
जैसे लंबे इंतजार के बाद सुरक्षित घर पहुँचा देने का
मधुर संगीत लिये प्लेटफ़ार्म पर पैसेंजर आती है।
पुन: धन्यवाद और प्रिय कवि की दीर्घजीवी रचनात्मकता के लिए अशेष शुभकामनाएं.।

-------शिव शंभू शर्मा
(लेखक कविता के गंभीर पाठक हैं। प.बंगाल के मिदनापुर में रहते हैं।)