मंगलवार, 31 जनवरी 2012

यह क्रिकेट और बाजार की हार है , देश की नहीं....|



वे जब भी क्रिकेट -क्रिकेट चिल्लाते हैं
हमें देश-देश क्यों सुनाई देता है ..?

एक कवि-मित्र की इन पंक्तियों से अपनी बात आरम्भ करना चाहता हूँ | कल भारत -आस्ट्रेलिया टेस्ट श्रृंखला अपने चिर -परिचित परिणाम के साथ समाप्त हो गई | देश के क्रिकेट प्रेमियों का दिल टूटा हुआ है | उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा |टी.वी.चैनलों पर थोक के भाव मौजूद क्रिकेट-विश्लेषकों के होठों पर फेफरी पड़ी हुयी है | चेहरे पर उडती हवाईयों के मध्य चट्टी-चौराहों ,गलियों-बाजारों और  स्कूलों-कार्यालयों सहित क्रिकेट प्रेमियों के बीच हर कहीं उदासी पसरी हुयी है | इतनी महत्वपूर्ण श्रृंखला के चलते होने के बावजूद भी कोई किसी से क्रिकेट पर बात नहीं करना चाहता | अगल-बगल से वे टीम के घुटने टेक प्रदर्शन की जानकारियां तो लेते हैं , लेकिन जैसे ही कोई उस पर बात करने की कोशिश करता है , वे मुँह फेरते हुए उसे चुप करा देते हैं | उनका दुःख इतना भारी है कि वे उसकी तरफ देख कर ही दहल जाते हैं कि मैं इसे कैसे उठाऊंगा | ऐसी घड़ी में मैं उन सबका दिल नहीं दुखाना चाहता | हम सब जानते हैं कि खेल में अच्छा और बुरा दौर आता रहता है और दुनिया में कोई भी टीम ऐसी नहीं रही , जिसने उतार -चढाव नहीं देखा हो | वर्ष 2011 में इसी टीम ने जब विश्व कप क्रिकेट का ख़िताब जीता था, तब रात के ग्यारह बजे की आतिशबाजी और जश्न ने पुरे देश को सराबोर कर दिया था | हम उन अच्छे दिनों में भी टीम के साथ थे और आज भी उनके साथ खड़े होना चाहते हैं  ,लेकिन मन में कुछ ऐसे सवाल तो उठ ही रहे है, जिसे इस देश के खेल-प्रेमियों की तरफ से मैं अपनी टीम से पूछना चाहता हूँ | कि क्या यह प्रेम और समर्थन एकतरफा ही चलता रहेगा ? क्या इस टीम की यह जिम्मेदारी नहीं कि वह अपने अच्छे दिनों में हम आम देशवासियों का साथ दे ?                                                               
                  
                      आज हमसे कहा जाता है कि टीम के इस बुरे दौर में उन्हें हमारे समर्थन की सख्त आवश्यकता है , तो हमें यह सवाल उनसे नहीं पूछना चाहिए कि अपने अच्छे दौर में वे क्यों माल्या , अम्बानी ,  जिंटा , और खान जैसे बाजीगरों के पताकों को थामे घूमने लगते  हैं ? महान लेखक तोलस्ताय के इस सवाल के तर्ज पर कि "एक आदमी को आखिर कितनी जमीन चाहिए ?" , उनसे यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि एक आदमी को आखिर कितना पैसा चाहिए ? | बी.सी.सी.आई. द्वारा प्रति वर्ष लाखों-करोड़ों देने के बाद भी उन्हें इस देश की बृहत्तर जनता के हित में अनैतिक प्रचारो से अपने आप को नहीं हटा लेना चाहिए ? क्या वे यह नहीं जानते कि कोक और पेप्सी सरीखे उत्पाद  इस देश को बर्बाद करते जा रहे हैं | जब हम उन्हें प्यार से पलकों पर बिठाते है, तब वे हमारे जेब की बची-खुची चवन्नी को भी हमसे छीनकर कारपोरेट घरानों की तिजोरियों में क्यों जमा कर आते हैं ? वे प्रत्येक जीत के बाद आतताईयों के कंधे पर सवार होकर हमें ही रौंदने पर क्यों उतारू हो जाते हैं ? क्या उस जीत के समय वे हमारे साथ खड़े नहीं हो सकते , जिस तरह आज हमसे अपनी हार पर साथ खड़े होने की अपील कर रहे हैं....?.. 

                           क्रिकेट दरअसल आज सिर्फ एक खेल नहीं रह गया है | वह एक बाजार है , जिसे हमारे दौर की बहुराष्ट्रीय कम्पनियां नियंत्रित और संचालित करती हैं | वह एक ऐसा सुरसा बन गया है ,जो न सिर्फ अन्य सारे खेलों को लीलता चला जा रहा है, वरन उसके निशाने पर इस देश का मेहनतकश अवाम भी है , जो अपनी गाढ़ी कमाई से आज किसी तरह अपना जीवन यापन कर रहा  है | इसलिए आज जब वे मुंह के बल गिरे हैं , तो हम क्यों नहीं माने कि हमारे जेब की चवन्नी सलामत बच गई...? हमारे इसी देश में फुटबाल, हाकी, तैराकी , बालीबाल, बास्केटबाल, तीरंदाजी ,कबड्डी और एथेलेटिक्स अन्य खेलों की कभी धूम हुआ करती थी | इन्हें  शारीरिक और मानसिक विकास के साथ–साथ स्वस्थ प्रतियोगितात्मक वातावरण के लिए आवश्यक माना जाता था | ये बहुरंगी खेल हमारी सतरंगी सामाजिक विरासत के प्रतीक भी हुआ करते थे | आज क्रिकेट के इस बाजार ने खेल के स्तर पर इस देश को भी एकरंगी और पैसा कमाने के बाजार के रूप में तब्दील कर दिया है | क्रिकेट संघों पर वे लोग काबिज हैं , जो क्रिकेट छोड़ दूसरा ही खेल खेलने के माहिर हैं | वे इस खेल को मैदान के भीतर नहीं , वरन बाहर खेल रहे हैं , जिसे  समझने के लिए सिर्फ क्रिकेट विशेषज्ञ होना पर्याप्त नहीं है | उन सबके लिए यह कामधेनु गाय बन गया है , जिसका वे दूध ही नहीं , वरन खून भी चूस लेना चाहते हैं | वे देश के लिए जब खेलते ही नहीं तो देश से समर्थन किसलिए माँग रहे हैं | देश हार तो बर्दाश्त कर सकता है , बशर्ते उसके लिए कोई खेले तो ...|

                           सो , मित्रों ...! इस हार को दिल से मत लगाईये .....यह हमारे और आपके दुखी होने का समय नहीं है ..|यह समय है उन लोगो के मुँह के बल गिरने का , जिनके लिए ये सितारे अश्वमेधी घोड़े बने हुए हैं | आज खेल नहीं , उसका बाज़ार हारा है |  इसलिए देश को नहीं , उसके बाजार को ही दुखी भी होना चाहिए ...|.....फिर भी आप उन्हें चाहें तो समर्थन दे सकते हैं | बस उन सितारों से इतना पूछ लीजियेगा , कि अपने अच्छे दिनों में वे आपका साथ देंगे या बहुराष्ट्रीय कंपनियों और कारपोरेट घरानों का ..?....

                                             

                                       रामजी तिवारी
                                              
                                          


रविवार, 15 जनवरी 2012

जिसकी मीडिया -उसका लोक ...............




दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका "रचना-क्रम" का "मीडिया और लोक" केंद्रित अंक प्रकाशित हुआ है | इसी पत्रिका में छपा मेरा यह लेख उसके स्थानीय पक्ष कि पड़ताल करता है | आप भी इसे देखें और संभव हो तो अपनी बेबाक प्रतिक्रिया भी दें..........................................रामजी .............................



                मीडिया और लोक---स्थानीय संदर्भ में


          आदर्श स्थिति तो यह है कि मीडिया और लोक एक दूसरे से अविभाज्य हों लेकिन आज परिदृश्य इसके उलट दिखाई देता है। खबरें वह बनती हैं, जिनसे आम आदमी का कोई वास्ता नहीं होता और ऐसी खबरें रह जाती है, जिससे हमारा अधिसंख्य समाज प्रतिदिन जूझता है। जाहिर है इसके अपवाद हो सकते हैं, जिन्हंे उपरोक्त बातों को काटने के लिए प्रयुक्त भी किया जा सकता है लेकिन स्थिति कुल मिलाकर यही है। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि सूचना तंत्र के फैलते जाल और तकनीकी विकास की ऊचाईयाँ छूते देश में आम आदमी अपनी समस्याओं के साथ मीडिया के बाहर ही कराह रहा है ? क्या यह अनायास है या सायास ?
          इस सवाल को जानने के लिए मीडिया के वर्तमान चरित्र को जानना परखना होगा। आखिर यह किसकी मीडिया है ? इसे कौन संचालित करता है ? इस संचालन के पीछे उसकी कौन सी प्रेरणा काम करती है ? और अन्ततः वह इस मीडिया से क्या हासिल करना चाहता है? ये कुछ ऐसे सवाल है, जिनका बिना सामना किये आप मीडिया और लोक के बीच की खाई को नहीं समझ पायेगें।
          वैसे तो यह परख आज सपूर्ण मीडिया पर ही लागू होती है लेकिन प्रिन्ट मीडिया के सन्दर्भ में यह पड़ताल आँखों को खोलने वाली हो सकती है, जिसका अपना लम्बा गौरवशाली इतिहास रहा है। इसके भीतर आये कुछ खास परिवर्तनों को रेखांकित करने से इस बदलाव की झांँकी मिल सकती है। पहला परिवर्तन तो यह है कि वर्तमान मीडिया के प्रेरक तत्व बदल गये हैं। वह समाज सेवा, उसे बदलने की ईच्छा और नैतिक आग्रहों के साथ अपनी समझ को साझा करने की पुरानी बात से विचलित हो गयी है। आज यह उद्योग है, व्यवसाय है और व्यापार है, जिसका सूत्र वाक्य मुनाफा है। यह मुनाफा पैसा, पद, प्रतिष्ठा और सत्ता किसी भी रूप में अर्जित किया जा सकता है। दूसरा बड़ा परिवर्तन केन्द्रीकरण और संलयन की अवधारणा है। आज पहले के उलट मीडिया पर कुछ बड़े घरानों का कब्जा है और यह कब्जा धीरे-धीरे बढ़ता चला जा रहा है। इसमें छोटे और स्थानीय संस्थान सिमटते और बन्द होते जा रहे हैं। तीसरा बड़ा परिवर्तन पूँजी की विशालता है। इस परिवर्तन ने यह तय कर दिया है कि इसका मालिकाना हक किसी पूँजीपति के हांथ ही में रहेगा। चौथा परिवर्तन मालिक और सम्पादक के बीच का मिटता अन्तर है। पहले दोनों की अलग-अलग पहचान होती थी। आज यह खत्म हो चली है। एक और बड़ा परिवर्तन यह हुआ है कि आज के पत्र पत्रिकाओं की लागत और उसके बिक्री मूल्य का अन्तर तर्कातीत हो गया है। 20 रूपये की लागत वाला अखबार 3 रूपये में बिकता है और शेष को पाटने का जिम्मा विज्ञापन उद्योग निभाता है।
          ऊपर के स्तर पर आये इन परिवर्तन को आप स्थानीय स्तर पर भी महसूस कर सकते हैं। एक छोटे शहर की प्रिंट-खासकर अखबारी मीडिया के सन्दर्भ में यह पड़ताल हमें यह बताती है कि शीर्ष पर आये सारे बदलावों ने इन स्थानीय परिदृश्यों में आमूल चूल परिवर्तन किया है।
          स्थानीय अखबारों की बन्दी या हासिये से बाहर चले जाने को आप किसी भी छोटे शहर में देख सकते हैं। बड़े घरानों के अखबार स्थानीय संस्करणों के साथ यहाँ उपस्थित है, जिनके पास संसाधनों की बड़ी ताकत है। इनको देखकर यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता कि ये राष्ट्रीय समाचार पत्र ही है। सोलह पेज के अखबार का चार पृष्ठ ही राष्ट्रीय होता है। मुख्य पृष्ठ, आर्थिक जगत, सम्पादकीय पृष्ठ और खेल जगत। शेष 12 पृष्ठ स्थानीय पृष्ठ भूमि के होते हैं। इन्हें आप एक से दूसरे पड़ोसी जिले में जाकर बदला हुआ पायेंगे। विरोधाभास यह है कि स्थानीय समाचारों की बाढ़ में भी आम आदमी की खबरें नदारद है। यह हैरान करने वाली बात है कि एक छोटे से जिले के लिए छ पेज निर्धारित होने के बावजूद भी जिले की मुख्य समस्यायें अनदेखी और अनकही कैसे रह जाती हैं ?
          यहाँ भी सारा मसला परिवर्तनों और प्रेरक तत्वों का ही है। प्रत्येक जिले में प्रत्येक अखबार का का एक जिला सम्वाददाता है, जो कि वितरक और जिला प्रसारक भी है। उसकी जिम्मेदारी अखबार को बेचने की भी है, खबरों को जुटाने की भी और विज्ञापनों के माध्यम से कमाने की भी। कहने के लिए एक व्यूरो प्रमुख है, जिसकी तनख्वाह 5 हजार के आसपास है। उसके पास 4 से 5 टाईप करने वाले लड़के हैं, जिन्हे 2 से 3 हजार का मासिक भुगतान किया जाता है। हर तहसील पर एक स्वनियुक्त संवाददाता है जो जिला संवाददाता की ही तर्ज पर कार्य करता है। वह पत्रकार भी है, वितरक भी और विज्ञापन जुटाने वाला भी।
                 इस तहसील स्तर वाले संवाददाता का कार्य प्रत्येक चट्टी-चौराहे पर अपने ही जैसा स्वघोषित पत्रकार नियुक्त करने का होता है। जिला संवाददाता , व्यूरो प्रमुख और कुछ टाईप करने वाले को छोड़कर किसी के भी पारिश्रमिक का भुगतान अखबार नहीं करता। नीचे की पूरी टीम अपने पैरों पर खड़ी है। वह अखबार का इस्तेमाल हथियार के रूप में करती है, जिसके माध्यम से छोटे-मोटे अधिकारियों,डाक्टरों, स्थानीय नेताओं, ठेकेदारों और व्यापारियों से विज्ञापन वसूला जाता है। इस विज्ञापन वसूली का सिद्धान्त भी बड़ा निराला है। वह सालों साल चलता है। राष्ट्रीय पर्व हो,धार्मिक त्यौहार हो, अखबार का स्थापना दिवस हो, जिले की महत्वपूर्ण तिथि हो और इन सबके न होने पर भी कुछ ऐसा ही गढ़ लिया जाता है, जिससे यह धन्धा जारी रख जा सके। विज्ञापन किससे लिया जायेगा और उसमें मूल्यों, मान्यताओं की क्या जगह होगी, यह बहस के बाहर का विषय है। अखबार स्वयं अपने पहले पृष्ठ पर ही नो आईडिया सर जी!की बात कह कर मानदण्ड को साफ कर देता है।
          अखबार इन स्थानीय खबरचियों को कुछ नहीं देता, फिर भी इनकी रोजी-रोटी चलती है, तो यह विज्ञापनों के विविध आयामों से ही सम्भव हो सका है। पहला आयाम है कि लोग स्वयं अपना विज्ञापन अखबार को देते हैं। इनमें बड़ी कम्पनियाँ, कोचिंग संस्थाए, सरकारी विभाग और अपराध से राजनीति में प्रवेश करता स्वघोषित समाजसेवी शामिल होता है। ये सभी विज्ञापन बड़े स्तर के होते हैं और छुटभैये पत्रकारों की भूमिका से बाहर ही तय कर लिये जाते हैं। बड़े शहरों के नामी-गिरामी पत्रकारों (?) की टीम इसका प्रबन्ध करती है।
          दूसरा आयाम बड़े और छोटे व्यक्तियों, संस्थाओं से सम्पर्क कर विज्ञापन जुटाने का होता है। इस कार्य को अखबार का प्रत्येक चरण सम्पादित करता है। वह छोटा-मोटा चट्टी-चौराहे वाला स्वनाम धन्य संवाददाता हो या फिर शीर्ष पर बैठे नामी-गिरामी पत्रकारों की टीम। विज्ञापन के आधार पर कमीशन दिया जाता है। तीसरा आयाम अधिकतर स्थानीय स्तर पर ही संचालित होता है। इसमें लोगों को उनकी जेब के  आधार पर चयनित किया जाता है और उनके नाम से विज्ञापन छाप दिया जाता है। बाद में अखबार की कटिंग और प्रकारान्तर से धौंस पट्टी दिखाकर वसूली कर ली  जाती है। इन सबसे अलग एक चौथा आयाम भी है। इसमें विज्ञापन के लिए सम्पर्क किया जाता है, जिसमें विज्ञापन देने वाला उनकी दरों की अधिकता का रोना रोता है और उस विज्ञापन को अपने लिए अनुपयोगी बताता है। यहाँ एक हजार के विज्ञापन की दर पाँच सौ में तय होती है, जिसे वह पत्रकार अपनी जेब में रख लेता है। अव्वल तो विज्ञापनदाता अपने विज्ञापन को देखता ही नहीं क्योंकि वह खुद ही अनिच्छुक रहता है और यदि कभी देखने का प्रयास भी करता है तो यह समझा दिया जाता है कि आपका विज्ञापन पड़ोसी जिले के संस्करण में चला गया है।
          स्थानीय संवाददाताओं/पत्रकारों की टीम विज्ञापनों के इसी कुटीर उद्योग के सहारे अपने पैरों  पर खड़ी रहती है। हाँ इसके अलावा छोटे-मोटे वैध-अवैध कार्य भी अखबार को हथियार बनाकर संपादित कराये जाते हैं। अब चूँकि वे संवाददाता भी है, तो लगे हाथ कुछ खबरे भी जिले तक पहुँचा दी जाती है। इन खबरों का भी अपना समाजशास्त्र और अर्थ शास्त्र है। प्राइवेट ट्रीटी और पेड न्यूज के सिद्धान्त को इन स्थानीय संवाददाताओं ने बखूबी समझा है। कुछ बड़े और रसूखदार लोगों से समझौता रहता है कि उनके खिलाफ कोई भी खबर इस जिले से नहीं जायेगी। यह प्राईवेट ट्रीटी का स्थानीय संस्करण होता है वहीं पेड न्यूज के अनुसार सौ, दौ सौ, हजार के हिसाब से भुगतान कर आप अपने मुताबिक खबरे अखबार में छपवा सकते हैं।
          यहाँ समाचार स्वयं चल कर आते हैं। जिनके पास यह ताकत होती है वे अखबारों के पन्नें तक पहुँच जाते हैं और जिनके पास यह क्षमता नहीं होती है, वे गलियों-कूचों में ही दम तोड़ देते हैं। इनके कुछ अपवाद भी है। जिनमें आपराधिक घटनाएँ, दुर्घटनाएँ, नेताओं और अधिकारियों के समाचार शामिल है। बीच-बीच में जनहित के समाचार भी लगाये जाते हैं। लेकिन यह तथ्य हमेशा ही याद रखा जाता है कि सरकारी नीतियों और व्यवस्था की विद्रूपताओं के उद्घाटन की सीमा क्या हो। अखबार की सम्पादकीय नीति भी चुभते और असहज कर सकने वाले सवालों से बचती है और वही काम यहाँ की स्थानीय पत्रकारिता भी करती है।
          कुल मिलाकर पूँजी और बाजार का खेल मीडिया में इस कदर हावी है, कि इस तक नहीं पहुँच सकने वाले लोगों के लिए यह खट््राग बन कर रह गया है। हमारे क्षेत्र के सभी स्थानीय अखबार आज लगभग बन्द पड़े हैं। इन्हंे चलाने के लिए ना तो वह पूँजी है ना ही वह तकनीक। फिर उनका सामना बड़े घरानों के अखबारों से है जिनके 10 पृष्ठ के जिला/स्थानीय संस्करण है। लाजिमी है कि ये अखबार अपनी अन्तिम साँस गिने। थोड़ी सी संख्या में इन्हंे छापकर सरकारी दफ्तरों में पहुँचाया जाता है, जिससे अखबार के चलते रहने का पता लग सके और उसको मिलने वाली सरकारी मदद को जारी रखवाया जा सके।
          ऐसी मीडिया से यदि आमजन गायब है तो यह अस्वाभाविक नहीं है। अखबार और टीवी मीडिया के अपने लोग और अपना व्यापार है। इनमें छपने/दिखने वाली खबरें उनकी ही होती है, जिसके बल पर ये चलते हैं। मुख्य धारा की पत्रिकाओं की स्थिति भी कमोवेश ऐसी ही है। लेकिन पत्रिकाओं में ही उम्मीद की किरण भी है। यहीं पर वह वैकल्पिक मीडिया दिखती है, जो अपने कम संसाधनों में भी पत्रकारिता के मूल्यों को जिन्दा रखे हुये है। इनमें छपने वाली खबरों का विस्तार और सरोकार न सिर्फ व्यापक होता है वरन लोकतांत्रिक और प्रगतिशील भी।
          हर समय और समाज की मुख्यधारा कुछ मिथकों को आधार बनाकर संचालित की जाती है। हमारे समय का एक मिथक मीडिया भी है, जिसे लोकतंत्र के चौथे खम्भे के रूप में पवित्र बना दिया गया है और इस पवित्रता की कीमत हमारा समाज चुका रहा है। वह उसे अपनी आवाज मानता है, जो दरअसल उसी के खिलाफ खड़ी है। तो क्या दोष मीडिया का ही है? नहीं। उसके लिए समाज और व्यवस्था दोनों जिम्मेदार है। जैसी व्यवस्था होगी, वैसा ही समाज होगा और वैसी ही मीडिया भी। हांलाकि यह मीडिया का बचाव नहीं हो सकता क्योंकि उसकी भूमिका उस समाज और व्यवस्था के निर्माण की भी होती है, जिसमें वह संचालित होती है। जरूरत व्यवस्था को ठीक करने की है, जो दरअसल लोकतांत्रिक हो | जाहिर तौर पर  इसे रास्ता दिखाने की जिम्मेदारी मीडिया की भी है। फिलहाल तो उस प्रश्न के उत्तर में कि यह किसकी मीडिया और किसका लोकहै ? यही कहा जा सकता है कि यह जिसकी मीडिया उसका ही लोकहै।

                                                                                


                              रामजी तिवारी 
                              बलिया , उ.प्र.
          
          

मंगलवार, 10 जनवरी 2012

अनहद ....समकालीन सृजन का समवेत नाद




साहित्य को गतिशील बनाये रखने और उसे समाज के बड़े तबके तक पहुँचाने में लघु पत्रिकाओं कि भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है | हिंदी सहित भारत की  अन्य भाषाओं में इनका स्वर्णिम इतिहास उपरोक्त तथ्य की गवाही देता है | इन पत्रिकाओं में एक तरफ जहाँ साहित्य कि मुख्य विधाएं फली-फूली और विकसित हुयी है , वही उसकी गौड़ विधाओं  को भी पर्याप्त आदर और सम्मान मिला है | इनकी बहसों ने तो सदा ही रचनात्मकता के नए मानदंड और प्रतिमान स्थापित किये हैं | हिंदी में इन लघु पत्रिकाओं का लगभग सौ सालो का इतिहास हमें गर्व करने के बहुत सारे  अवसर उपलब्ध करता है |

इन पत्रिकाओं का वर्तमान परिदृश्य दो विपरीत ध्रुवों पर खड़ा नजर आता है | एक तरफ तो इस पूरे आंदोलन पर प्रश्न-चिन्ह खड़ा किया जा रहा है , वहीँ दूसरी ओर इन पत्रिकाओं की भारी उपस्थिति और उनमे गुड़वत्ता की  दृष्टि से रचे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य को भी स्वीकार्यता मिल रही  है | पत्रिकाएं प्रतिष्ठानों तक ही सीमित नहीं रही, वरन  व्यक्तिगत एवम सामूहिक प्रयासों तक भी फैलती चली गयी हैं | आज हिंदी में सौ से अधिक लघु पत्रिकाएं  निकलती हैं | मासिक, द्वी-मासिक , त्रय-मासिक और अनियतकालीन आवृत्ति के साथ उन्होंने साहित्यिक परिदृश्य की  जीवंतता बरक़रार रखी हैं | अनहद ऐसी ही एक साहित्यिक लघु पत्रिका है |

युवा कवि संतोष चतुर्वेदी के संपादन में इलाहाबाद से निकलने वाली इस पत्रिका का दूसरा अंक हमारे सामने है | इस अंक को देखकर यह कहा जा सकता है कि अनहद ने प्रवेशांक की  सफलता को चुनौती के रूप में स्वीकार करते हुए अपने ही प्रतिमानों को और ऊपर उठाया है | लगभग 350 पृष्ठों की इस पत्रिका का यह अंक वैसे तो एक साल के लंबे अंतराल पर प्रकाशित हुआ है , लेकिन उसकी भारी भरकम सामग्री ( गुड़वत्ता और मात्रा दोनों ही स्तरों पर ) और संपादक के व्यक्तिगत प्रयासों को देखते हुए यह तनिक भी अखरता नहीं है |यह पत्रिका हर प्रकार से बहु-आयामी कही जा सकती है |इसमें एक तरफ नए-पुराने साहित्यकारों का संगम है , वही दूसरी ओर साहित्य की  मुख्य और गौड़ विधाओं का विपुल साहित्य भंडार भी|

अनहद पत्रिका की  एक बानगी को यहाँ पर देखना समीचीन होगा | स्मरण स्तंभ में दो महान विभूतियों भीमसेन जोशी और कमला प्रसाद को गहराई के साथ नए-पुराने साथियों ने याद किया है | भीमसेन जोशी पर जहाँ विश्वनाथ त्रिपाठी और मंगलेश डबराल ने लिखा है , वहीँ कमला प्रसाद पर भगवत रावत, कुमार अम्बुज और उमाशंकर चौधरी ने अपनी लेखनी चलायी है| प.किशोरीलाल को याद करते हुए प्रदीप सक्सेना ने अदभुत स्मरण लेख लिखा है | हम चंद्रकांत देवताले की डायरी का आनंद उठाते है |फिर हमारे सामने राजेश जोशी अपनी पांच कविताओं के साथ उपस्थित होते हैं |आगे चलकर हमें भगवत रावत की  झकझोर देने वाली कविता का  दीदार होता है |इसी खंड में परमानन्द श्रीवास्तव ,केशव तिवारी और सुबोध शुक्ल ने भगवत रावत की कविताओं से हमारा बेहतरीन परिचय भी कराया है | हमारे समय के कवि शीर्षक में पांच युवा कवियों देवेन्द्र आर्य , अरुण देव , सुरेश सेन निशांत , अशोक कुमार पाण्डेय और शिरोमणि महतो को स्थान मिला है |

पत्रिका इन महत्वपूर्ण रचनाओं के सहारे तब अपनी ऊँचाई पर पहुंचती है , जब शताब्दी वर्ष शीर्षक के अन्तर्गत नागार्जुन के साहित्य और व्यक्तित्व को विभिन्न कोणों से जांचा-परखा जाता है | शेखर जोशी , शिव कुमार मिश्र , जवरीमल पारेख ,राजेंद्र कुमार , बलराज पाण्डेय, कमलेश दत्त त्रिपाठी , प्रफुल्ल कोलख्यान , कृष्ण मोहन झा , कर्मेंदु शिशिर , बलभद्र, वाचस्पति और उनके पुत्र शोभाकांत ने उस पर इतनी रोशनी डाली है ,कि बाबा का साहित्य और व्यक्तित्व हमारे सामने सम्पूर्णता में चमक उठा है | फिर विशेष लेख शीर्षक के तहत चित्रकार-लेखक अशोक भौमिक ने महान चित्रकार जैनुल आबेदीन को जिस संजीदगी से जांचा-परखा है , वह कमाल का है |पत्रिका में जैनुल के बनाये 35 चित्र भी उकेरे गए है , जो हर तरह से विलक्षण है |इसी ऊँचाई पर संजय जोशी और मनोज सिंह ने प्रतिरोध के सिनेमा की आहटें शीर्षक से एक लेख लिखा है | ज.स.म. की इकाई के रूप में 2005 गठित प्रतिरोध का सिनेमा आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है |

 
पत्रिका में दिनेश कर्नाटक, सुमन कुमार सिंह , विजय गौड़ और कविता की चार कहानियां भी पढ़ी जा सकती हैं | नवलेखन विमर्श में खगेन्द्र ठाकुर ने समकालीन कविता की पड़ताल की है, तो सरयू प्रसाद मिश्र ने नयी पीढ़ी के नए उपन्यासों को जांचा-परखा है | राकेश बिहारी कहानियों में डूबकर सार्थक टटोल रहे हैं, तो भरत प्रसाद आलोचना के प्रतिमानों के बीच खड़े है | यहाँ प्रख्यात आलोचक मधुरेश द्वारा शताब्दी के पहले दशक के उपन्यासों का किया गया मूल्यांकन विशेष महत्व का बन पड़ा है | कसौटी शीर्षक में किताबों की समीक्षा है , जिसमे हरिश्चंद्र पाण्डेय , मधुरेश, वैभव सिंह , अमीर चंद वैश्य , अभिषेक शर्मा, अनामिका , रघुवंश मणि , महेश चंद्र पुनेठा, आत्मरंजन , विमल चंद्र पाण्डेय, अरुण आदित्य , और रामजी तिवारी ने अपने अंदाज में हमारे दौर की 12 महत्वपूर्ण पुस्तकों से हमारा परिचय कराया है |

इस परिचय को पाकर आप स्वयं यह तय कर सकते है कि बिना किसी प्रतिष्ठान से जुड़े संतोष चतुर्वेदी के अनथक प्रयास ने अनहद के दूसरे अंक को किस  ऊँचाई पर स्थापित किया है |अब साहित्य प्रेमी मित्र/पाठक होने के नाते हम सबका यह कर्तव्य बनता है कि हम अनहद के इस गंभीर प्रयास को  मुक्तकंठ से सराहें/स्वागत करें | जाहिर तौर पर लघु-पत्रिकाओ का भविष्य इन व्यक्तिगत प्रयासों को सामूहिक प्रयासों में तब्दील करके ही संवारा जा सकता है

                                प्रस्तुतकर्ता - रामजी तिवारी 
 अनहद                            बलिया , उ.प्र.
वर्ष-2, अंक-2
मूल्य रु-80