देवेन्द्र राज अंकुर के साथ तिथि दानी |
प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व निदेशक
देवेन्द्र राज अंकुर का साक्षात्कार
उनसे बात कर रही हैं ,
युवा कवयित्री और कथाकार 'तिथि दानी'
कला अनिवार्यतः सामाजिक होती है ----देवेन्द्र राज अंकुर
तिथि- अभिनय और रंगमंच से
जुड़ने का रुझान कब और कैसे पैदा हुआ?
दे.रा.अ. जब स्कूल कॉलेज में पढ़ रहे
थे तो कुछ सांस्कृतिक गतिविधियाँ, वाद-विवाद होते रहते थे, अब भी होते हैं तो
बुनियादी शुरूआत वहीं से हुई। हमारे पिता एक छोटे से कस्बे में स्टेट बैंक ऑफ
इंडिया में काम करते थे। उनका स्थानांतरण जब उत्तर प्रदेश में हुआ, तब मैं आठवीं
कक्षा में पढ़ता था, तभी सही मायनों में अभिनय से जुड़ा। इसी समय प्रत्यक्ष तौर पर
नाटक की यात्रा शुरू हुई। उस दौर में जितना हो सका उतना साहित्य पढ़ा। फिर पब्लिक
इंटर कॉलेज में अध्ययन के दौरान कुछ ऐसे प्राध्यापक मिले जो सांस्कृतिक गतिविधियों
में काफी दिलचस्पी लेते थे। खुद ही नाटक देखने और करने की शुरूआत हुई,
प्राध्यापकों ने भी सहयोग किया। हमारे बड़े भाई दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाते थे।
गर्मी की छुट्टी में वह आते थे, हम जो किताबों की लिस्ट उन्हें थमाते थे, वह सारी
ले आते थे। जो भी महत्वपूर्ण कहानियाँ और उपन्यास थे हमने सारे पढ़ डाले थे। इस
तरह एक पृष्ठभूमि तैयार होनी शुरू हो गयी थी। उसके कुछ समय बाद मैं खुद दिल्ली आ
गया। जनवरी 2012 में दिल्ली में रहते हुए मुझे 50 वर्ष हो गए। ज़ाहिर है, यहाँ इन
गतिविधियों में तेज़ी आई। इससे और आगे जाने का मौका भी मिला।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से जो लोग
निकले थे, उनमें ओम शिवपुरी, सुधा शिवपुरी, रामगोपाल बजाज आदि ने मिलकर 1967 में ‘देशांतर’ नाम से एक नाट्य मंडली शुरू
की। उस समय मैं डी.यू. में पढ़ रहा था। दिनेश ठाकुर जो अभी मुंबई में हैं, वह
किरोड़ीमल कॉलेज में थियेटर में काफी सक्रिय थे, जहाँ से अमिताभ बच्चन, सतीश कौशिक
आदि ने अपनी पढ़ाई पूरी की थी। इनसे संपर्क के बाद से ही मैं रंगमंच की तरफ़ आया। लोगों
के काम को देखते, दिन-रात नाटकों को करते हुए, बातचीत करते हुए कि कैसे उनको और
बेहतर ढंग से किया जाए, इस तरह यहीं से गंभीरता से एक नियमित काम की शुरूआत हुई।
इससे पहले हमारा इतिहास स्कूल-क़ॉलेज का था जिसमें डायलॉग याद कर लो, टीचर की तरह
किताब हाथ में लेकर मंच पर खड़े हो जाओ... बस यही था। उसके पीछे कोई सोच संलग्न नहीं
थी। लेकिन जब इन लोगों से मिला, इनके साथ काम शुरू किया, तब लगा कि अब इसी में काम
करना है। फिर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में 1969 में मैंने आवेदन किया और मेरा
चुनाव हुआ। फिर तीन वर्ष मैं वहाँ रहा। 1972 में वहाँ से निर्देशन में पास होकर
बाहर आया।अभिनय मेरी पहली प्राथमिकता कभी नहीं रही। निर्देशन में सक्रिय रहा। अगर
मैं निर्देशन में न आया होता तो हिन्दी या अंग्रेज़ी का प्राध्यापक होता और
प्राध्यापक में एक जो ऑब्जेक्टिविटी और सारी चीज़ों को साथ लेकर चलने का अंदाज़
होता है, उसी ने निर्देशन की ओर प्रेरित किया। 1972 में निर्देशन में विशेषज्ञता
हासिल की।
उन दिनों कोई दूरदर्शन नहीं था। दिल्ली
के लगभग 25 किलोमीटर के दायरे में दूरदर्शन ब्लैक एंड व्हाइट दिखाई देना शुरू हुआ
था। कोई सीरियल, वीडियो, ऑडियो प्लेयर नहीं था। इन सारे माध्यमों का उस समय चलन
नहीं था। ज़ाहिर सी बात है कोशिश यही रही कि सीधे-सीधे रंगमंच से जुड़े रह कर ही
उसे कैसे अपने जीवन यापन का साधन बनाया जाए। मुख्य रूप से यही संघर्ष था। 1972 से
1988 तक मैंने पूरी तरह से एक फ्रीलांसर के तौर पर काम किया। अलग-अलग शहरों में जा
कर अलग-अलग नाटक मंडलियों के साथ काम किया।
मुझे जिस वजह से लोग ज़्यादा जानते हैं वह
है, कहानी को कहानी की ही तरह से यानि, बिना उसका रूप परिवर्तित किए मंचित करना।
इसकी शुरूआत निर्मल वर्मा की कहानी से 1975 में हुई और आज तक यह सिलसिला जारी है।
इसी वजह से मैं एकदम से लोगों की नज़रों मे आया। मेरी भरपूर प्रशंसा भी की गई और
ज़बरदस्त आलोचना का शिकार भी होना पड़ा। लेकिन मैंने अपना यह काम लगातार जारी रखा।
आज हिन्दुस्तान का हर छोटा-बड़ा निर्देशक, हर छोटी-बड़ी मंडली, हर छोटे-बड़े शहर
में इस काम को करने में लगे हैं। यह एक पूरा दौर है।
तिथि- कहानी के साथ आपने
न्याय करने की कोशिश की क्योंकि आपने इसका रूप परिवर्तित नहीं किया। इसके बावजूद आलोचना
के लिए आधार कैसे बने?
दे.रा.अ..... इसका आधार यह रहा कि लोगों ने आक्षेप
लगाने शुरू कर दिए कि हिन्दी में नाटक नहीं हैं, इसलिए अंकुर कहानी का मंचन करने
में लगे हैं। यह एक मौसमी फ़ेज़ है जो समाप्त हो जाएगा। लेकिन मैं लगातार नाटक
करता रहा। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में नौकरी करते हुए भी अपने किस्म का काम करने
का मौका मिला। मुझे अच्छा लगा कि विद्यालय में कहानियों के मंचन को पाठ्यक्रम का
हिस्सा बना दिया गया। अब वहाँ एक बार लोक नाटक की, एक बार शेक्सपियर के नाटक की,
तो एक बार यथार्थवादी नाटक की प्रस्तुति होती है।
एक प्रस्तुति ऐसी रचना को लेकर जो मूलत: नाटक नहीं है, उसको कैसे
मंचित किया जाए, इसके लिए 1975 में मैंने एक शीर्षक ढूंढ लिया था - कहानी रंगमंच। शुरू से लेकर आख़िरी तक
देखें तो कहानी से रिश्ता सुनने-सुनाने का है, दूसरा पढ़ने का। लेकिन इस काम ने एक
तीसरा रास्ता खोला कि अब कहानी देखी जा सकती है। इस पर लोगों ने बातें की, सवाल भी
उठता रहा कि कहानी तो दूरदर्शन पर भी देखते हैं। कहानी का नाट्य रूपांतरण होता रहा
और उपन्यास का भी तो सवाल यह पैदा होता है कि इसमें अंतर क्या है तो मैं यही
कहूँगा उदाहरण के तौर पर कि, दूरदर्शन पर हम रंगमंच नहीं देख रहे होते बल्कि
प्रस्तुति देख रहे होते हैं क्योंकि रंगमंच एक जीवंत माध्यम है। जहाँ तक नाट्य
रूपांतरण की बात है तो कहानी को कच्चे माल की तरह उपयोग करते हुए एक नए माध्यम में
परिवर्तित किया जाता है, कहानी का एक नया रूप बनाया जाता है जिसे नाटक कहते हैं।
सचमुच अगर कला के अनुभव में और माध्यमों के अनुभवों में अंतर नहीं तो हमें अलग-अलग
नाम देने की क्या ज़रूरत थी जैसे लोक संगीत, शास्त्रीय नाटक आदि। हम सब एक ही शब्द
से काम चला सकते थे। ये सारी बातें होती रहीं लेकिन अब सारे विवाद ख़त्म हो चुके
हैं क्योंकि अब वे लोग खुद ऐसा काम कर रहे हैं जो एसा कहा करते थे। इस तरह के काम
का एक लंबा इतिहास है। मैंने अपना पहला प्रदर्शन 1 मई से 6 मई तक किया था। अब तक
सैंतीस साल बीत चुके हैं और मैंने 500 के लगभग कहानियाँ और 15-20 उपन्यासों पर काम
किया है। मज़े की बात यह है कि हिन्दुस्तान की हर भाषा में काम करने का मौका मिला।
तिथि- सबसे ज़्यादा आनंद का
अनुभव किसके मंचन से मिला, कहानी के या उपन्यास के?
दे.रा.अ. .....दोनों में ही आनंद का अनुभव
मिला। कहानी का अपना एक कलेवर होता है और उपन्यास निरंतरता में रहता है। कहानी
थोड़ी छोटी होती है। कहानियाँ दो तीन मिलायी जाती हैं और उपन्यास अपने आप में एक
संपूर्ण रचना है। इन दोनों में अवधि का फ़र्क है। कहानी में मज़ा तब आता है जब
अलग-अलग लेखकों की अलग-अलग कहानियां होती हैं लेकिन उनकी विषयवस्तु एक ही होती
है।मैंने निर्मल वर्मा की कहानियों पर भी काम किया। एक प्रस्तुति ऐसी की जिसमें
तीन अलग-अलग लेखकों की कहानियां थीं जिसमें सबसे पहली कहानी में, महानगर में आदमी
औरत के बीच बहुत दोस्ती होती है और तीसरी कहानी तक आते-आते टूट चुकी होती है।
मन्नू भंडारी का उपन्यास ‘महाभोज’ , जिसे मैंने ही मंचित किया था उसे बाद में नाटक का रूप दिया
गया।
तिथि- कहानी या उपन्यास के
मंचन में से आपको क्या ज़्यादा चुनौतीपूर्ण लगा ?
दे.रा.अ. ....दोनों में अलग तरह की
चुनौतियाँ हैं। जब हम यह तय करते हैं कि रूप में परिवर्तन नहीं करेंगे तो
चुनौतियाँ ज़्यादा बढ़ जाती हैं। कहानी तृतीय पुरुष में लिखी जाती है तो अक्सर
अभिनेताओं के ज़ेहन में यह सवाल पैदा होता है कि हम खुद अपने ही बारे में, अपना
नाम लेकर आख़िर बात कैसे कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में मैं उन लोगों को समझाता हूँ
कि, क्या हम अपने आप से बाहर खड़े हो कर अपने बारे में बात नहीं कर सकते? इस तरह मैं उनको आश्वस्त
करता हूँ।
दूसरे तरह की चुनौती यह मिलती है कि
कहानी के विवरणात्मक पक्ष का क्या किया जाए? नाटक में बहुत सुविधा है कि आप या तो उसे हटा
दीजिए या सीनिक एलीमेंट मे तब्दील कर दीजिए। यदि बुलवाना पड़ जाए तो आप सूत्रधार
जैसा आदमी लाते हैं जो उसे आगे तक निभा सके। मैंने अपने काम को करते हुए कभी
सूत्रधार जैसी युक्ति का इस्तेमाल नहीं किया। तब मुझे लगता था कि क्या विवरण हमारे
लिए संवाद बन सकता है। यह भी हो सकता है कि कोई कहानी आपको बहुत अच्छी लगे लेकिन
उसमें कोई संवाद न हो लेकिन वह कोई ऐसी बात कह रही हो जो गहराई से महसूस हो रही हो,
तो उसे छोड़ा नहीं जा सकता। जब हम इसे मंचित करने का निर्णय लेते हैं तब प्रश्न यह
पैदा होता है कि उसकी प्रस्तुति का क्या रूप होगा, तो ज़ाहिर है जो विवरण का फॉर्म
है, वह हमारे लिए संवाद बनता चला जाएगा। फिर भी मैं एक स्पष्ट बात कहना चाहूँगा कि
हमने इतना काम किया फिर भी हम इसकी कोई व्याकरण तैयार नहीं कर सके।
इतनी लंबी यात्रा में, मैंने अपने लिए
यह तय किया कि, कहानी नहीं बदलेगी, कोई सूत्रधार नहीं आएगा। इसके अलावा एक बेयर
स्पेस और अगर कुछ सजैस्टिव आना है तो आएगा, इससे ज़्यादा की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
इसके लिए अभिनेता की मंडली तैयार है और तब एक्सप्लोर करने के लिए जहाँ तक जा सकते
हैं जाएँगे। इसके लिए यात्रा की सारी तैयारी है। जब हम कहानी पर काम करते हैं तो हम सभी
मिल कर कहानियाँ पढ़ते हैं। इस दौरान कुछ को चुनते है, कुछ को रद्द करते हैं और इस
तरह अंतत: एक कहानी का चुनाव करने में सफल हो ही जाते हैं। हालांकि स्थितियां बदलती
रहती हैं क्योंकि रंगमंच में कुछ भी अंतिम नहीं है। पहले शो के बाद भी कुछ
परिवर्तन हो सकते हैं।
तिथि- आजकल एक चलन बन गया
है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के कई उम्दा कलाकार बॉलीवुड का रुख़ कर रहे हैं,
क्या ऐसे में वहाँ अच्छे कलाकारों का अभाव नहीं हो जाता?
दे.रा.अ. .....इसके लिए हमें सांस्कृतिक
नीति में बहुत बदलाव लाने होंगे। 1959 में सरकार ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की
नींव रखी लेकिन उस समय कोई दूरगामी योजना नहीं बनायी गयी कि यहाँ से जो लोग तैयार
हो कर निकलेंगे, वो रंगमंच में कहाँ जाएँगे। दूसरे पेशों में देखा जाए तो ऐसा नहीं
है जैसे डॉक्टर है , तो अस्पताल हैं। इंजीनियर हैं तो उनके विकास के लिए इंडस्ट्री
है। हर प्रांत में एक रंगमंडल की स्थापना होनी चाहिए थी ताकि वहां से जो छात्र
निकलें, वे अपने-अपने प्रांतों मे जाएँ और वहाँ के रंगमंडल से जुड़ें। फिर वहीं
अपनी रोज़ी-रोटी का इंतज़ाम करें और अपनी पहचान बनाएँ। लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं
हो सका।
कहना काफी आसान है कि रंगमंच के कलाकारों
को वहीं रह कर अपना काम करना चाहिए लेकिन वो रंगमंच में कहाँ काम करें यही प्रश्न सबसे पहले एक ज्वलंत समस्या की तरह खड़ा होता
है। बाहर जितनी भी रंगमंडलियाँ हैं, उनका स्वरूप शौकिया है। बाद में राष्ट्रीय
नाट्य विद्यालय ने एक रंगमंडल की शुरूआत की। लेकिन एक रंगमंडल एक वक़्त में कितने
लोगों को काम पर रख सकता है, यह विचारणीय है। बच्चों के लिए काम करने वाला भी एक
रंगमंडल गठित किया गया। एक और रंगमंडल की
स्थापना भी की गयी जिसका नाम ‘यायावर’ है। यह दिल्ली से बाहर जा कर भी अपनी प्रस्तुति देता है।
इस तरह से एक वक़्त में 50 से 100 व्यक्ति एक साथ काम कर लेते हैं, लेकिन राज्य
सरकार यदि आगे नहीं आती हैं तो यह भी इस समस्या का कोई स्थायी हल नहीं है। जहां भी
पहल हुई, जैसे भारत भवन की स्थापना, और मध्य प्रदेश रंगमंडल बहुत समय तक चला। बाद
में उसमें अपने ही आंतरिक विरोध हुए लेकिन फिर काफी विचार विमर्श चला और सारे
विवादों का निपटारा हो गया। कुछ और भी सरकारी उपक्रम सामने आए जैसे कर्नाटक सरकार
का ‘रंगायन’ नाम से एक रंगमंडल है। जहाँ भी इस तरह की चीज़ें हैं वहाँ पर उत्तीर्ण हो कर
निकलने वाले छात्रों के लिए पर्याप्त अवसर हैं।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में सिर्फ़
हिन्दी भाषी लोग नहीं आते बल्कि हिन्दुस्तान के भाषा-भाषी लोग आते हैं और वे अपने
प्रदेश लौट जाते हैं। उनकी अपनी इंडस्ट्री, दूरदर्शन सब वहीं पर है। वे तीनों
माध्यमों में एक साथ वहाँ रह कर काम कर सकते हैं। उनको दिल्ली यानि अपना घर नहीं
छोड़ना पड़ता। सिर्फ़ जो हिन्दी भाषी हैं, यह समस्या मुख्य रूप से उन्हीं की है।
सारी इंडस्ट्री मुंबई में हैं, इसलिए अब दूसरी जगह जाना वहां सभी माध्यमों में काम
करना, काफी मुश्किलों से भरा होता है। यह समस्या सभी अभिनेताओं के साथ बनी रहती
है।हालांकि इस समस्या का हल धीरे-धीरे निकल रहा है जैसे, सरकार शिक्षा से साथ
प्राइमरी स्तर पर ही नाटक को एक विषय के तौर पर शामिल करने पर विचार कर रही है और
कुछ राज्यों में इसे लागू भी कर दिया गया है। स्कूल में विषय के रूप में पढ़ाए
जाने की बात बहुत अच्छी है। इस तरह से अवसरों के कई दरवाज़े खुल जाते हैं क्योंकि
नाटक को विषय के रूप में पढ़ाने के लिए लोगों की ज़रूरत पड़ेगी। इसलिए जो लोग
विशेषज्ञता हासिल कर के निकल रहे हैं, उनके लिए अच्छे अवसर पैदा हो रहे हैं। भारत
के विश्वविद्यालयों में भी अब थियेटर डिपार्टमेन्ट हैं। सरकार और यू.जी.सी. ने स्वीकार किया है
कि उनके लिए पीएचडी या नैट आवश्यक नहीं है ,
लेकिन उन्हें राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय या उसके समकक्ष किसी संस्थान से
प्रशिक्षित होना ज़रूरी है।
तिथि- अभिनेता कुछ प्रसंगों
में क्या अपने जीवन को भी प्रस्तुत करता है या हमेशा दूसरे पात्रों, चरित्रों और
लोगों के अनुभवों के माध्यम से ही प्रस्तुति देता है या अपनी इमोशनल मैमोरी के
आधार पर चरित्र गढ़ता है?
दे.रा.अ.... अभिनेता कभी भी अपने जीवन
को प्रस्तुत नहीं करता और न ही उसे ऐसा करना चाहिए। अभिनय एक कला है जिसे प्रस्तुत
किया जाता है। यदि अपना ही जीवन प्रस्तुत करना हो तो अभिनय की आवश्यकता नहीं पड़
सकती। यह ज़रूर कहा जा सकता है कि अभिनेता अपने जीवन की किसी घटना से प्रेरणा
ज़रूर ले सकता है। वह सुबह-शाम घूमता रहता है, लोगों को देखता रहता है, उनके
संपर्क में आता है। यह सब उसकी मैमोरी में दर्ज़ होता रहता है और उसको जब इससे
मिलते-जुलते इमोशन की ज़रूरत होती है तो वह उनका इस्तेमाल करता है। एक अभिनेता के
लिए अपने जीवन को या अपनी भावनाओं को प्रस्तुत करने की कोई संभावना नहीं होती। अब
जैसे मान लें कि सड़क पर कोई दुर्घटना हो जाती है तो यह एक वास्तविक घटना है लेकिन
अगर हम इसे मंच पर प्रस्तुत करते हैं तो वह वास्तविक घटना नहीं हो सकती, इसलिए
ज़ाहिर सी बात है कि इसे छोड़ना ही पड़ेगा। जीवन और नाटक के बीच यही भेद है।
वे अभिनेता जो अच्छे कलाकार होते हैं,
हमेशा एक भूमिका निभाने के बाद तुरंत उससे अलग हो जाते हैं लेकिन कुछ ऐसे अभिनेता
भी होते हैं जो कई दिनों तक एक ही भूमिका में खोए रहते हैं और रोमेंटिसिज़्म में
जीते हैं जो कि एक ग़लत सोच है। बस, इसी भेद को समझना ज़रूरी है।
तिथि- रंगकर्म के सबसे महत्वपूर्ण
और अपरिहार्य तत्व क्या हैं ?
दे.रा.अ. ....स्वाभाविक है कि अभिनेता,
क्योंकि शेष को फिर भी छोड़ा जा सकता है लेकिन अभिनेता के बिना तो रंगमंच की
कल्पना ही मुश्किल हो जाएगी। अभिनेता के बिना साउंड लाइट लें, कठपुतली कर रहे हों
या माइम, लेकिन फिर भी अभिनेता के होने से जीवंतता को जो बढ़ावा मिलता है वह बाकी
सभी स्थितियों में अनुपस्थित रहता है। अभिनेता के साथ स्पेस, यानि इन दोनों
का होना तो अनिवार्य है। फिर दर्शक के बिना तो रंगमंच की कल्पना असंभव हो जाएगी। महत्ता के नज़रिए से देखा जाए तो सबसे ऊपर अभिनेता,
अभिनेत्री और निर्देशक होते हैं। फिर इसके बाद रंगमंच में काम करने वाले बाकी
लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
तिथि- रंगमंच के ऐसे कौनसे
तत्व हैं, जिन्हें रंगमंच का नितांत अपना हिस्सा कहा जा सकता है?
दे.रा.अ. ...अभिनेता और स्पेस या
परफॉर्मेन्स एरिया रंगमंच के लिए ज़रूरी हैं। बाकी सारे माध्यमों में आप अलग-अलग
जगह जा सकते हैं। रंगमंच एक जगह पर एक ही वक़्त में एक ही मंडली के लोगों के साथ
हो सकता है। पिछले दिनों ऐसी कोशिश मुंबई में हुई थी और एक प्रस्तुति की गयी थी।
बाद में उस पर फिल्म भी बनी जिसका नाम था ‘ऑल द बेस्ट’। इसकी प्रस्तुति पहले मराठी में हुई और जब काफी लोकप्रिय
हुई तो इसे गुजराती में भी तैयार किया गया। फिर हिन्दी में भी वही प्रस्तुति दी
गयी तो, बेशक तीनों प्रस्तुति वही है पर फिर भी वह एक-दूसरे से अलग इसलिए हैं
क्योंकि अभिनेता बदल गये हैं। हम कह सकते हैं कि रंगमंच के महत्वपूर्ण तत्वों में
अभिनेता, उसका परफॉर्मेन्स एरिया और दर्शक की जीवंत उपस्थिति शामिल हैं। दूसरे
माध्यमों में भी दर्शक जीवंत हैं लेकिन उनकी प्रतिक्रिया का अभिनेता पर कोई असर
नहीं पड़ता। इसे एक उदाहरण से समझें कि जैसे अगर आप रेडियो सुन रहे हैं और हँस रहे
हैं, तालियाँ बजा रहे हैं, लेकिन अभिनेता पर इसका कोई मानसिक और शारीरिक प्रभाव
नहीं पड़ता जबकि रंगमंच में दर्शकों की प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया का अभिनेता पर तुरंत
प्रभाव पड़ता है।
गायन और नृत्य कला में भी दर्शक
प्रत्यक्ष रूप से आनंद उठाते हैं और अपनी प्रतिक्रिया देते हैं लेकिन इसका एक
दूसरा पक्ष यह भी है कि आप इनका लुत्फ़ रिकॉर्डेड होने पर भी उठा सकते हैं। केवल
रंगमंच एक ऐसा जीवंत माध्यम है जिसे किसी और रूप में नहीं देखा जा सकता और इसमें
ज़िंदा दर्शक, ज़िंदा अभिनेता होते हैं जो कि इसके लिए बहुत ज़रूरी हैं।
तिथि- नाट्य संगीत क्या
होता है और नाटक को क्या मायने देता है?
दे.रा.अ. ... अक्सर लोग संगीत और नाट्य
संगीत को एक ही मान लेते हैं, जबकि दोनों में बहुत फ़र्क होता है। संगीत पूरी तरह
से सिर्फ़ संगीत होता है। नाटक एक ऐसी विधा है जिसमें दूसरी चीज़ें नाटक की शर्त
पर आती हैं। नाटक में संगीत कई तरह के काम करता है। सबसे पहले तो कथा सुनाने का
काम करता है और कई ऐसे नाटक भी हैं जिनमें संगीत के माध्यम से ही कथा आगे बढ़ती
है। फिर संगीत मूड तैयार करता है, कई बार विरोधी वातावरण भी तैयार करता है,
टिप्पणी भी करता है। नाट्य संगीत की अपनी भाषा को नाटक के पूरे कथ्य के साथ, उसकी
संरचना के साथ संगीतकार लगातार तैयार करता है। ऐसे नाटक जिनमें संगीत की माँग होती
है, उनमें तो संगीत आएगा ही, पर कहीं- कहीं वह प्रत्यक्ष तौर पर दिखाई नहीं देता,
लेकिन वह जिस रूप में आता है, वह ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है, जैसे नाटक में
मौन और इंटरवल भी अपने आप में एक संगीत है जो इस समय को भरता है।
संगीत समय और स्थान को भी बाँधता है।
संगीत के माध्यम से हम चौबीस घंटे, हज़ारों साल या फिर चारों कालों तक की बुनियाद
डाल सकते हैं। बरकॉल ब्रेस्त बीसवीं शताब्दी का बहुत बड़ा संगीत निर्देशक था। उसने
संगीत को बिल्कुल एक नया रूप दिया। आम तौर पर हम लोग संगीत को बहुत मधुर बनाने के
आदि हैं, लेकिन बरकॉल ने इस धारणा को बदल दिया। उसने नाटकों में एक हार्श लगने
वाला संगीत तैयार किया जो प्रहार करता हो ताकि दर्शक नाटक के साथ बह न जाए और वह
संगीत उन्हें सोचने के लिए जगाए। उसने जानबूझ कर ऐसा संगीत खोजा जिस पर काफी चर्चा
हुई। मुझे लगता है कि इससे नाटक में बहुत मदद मिली। चरित्र के मन में क्या चल रहा
है, उसे सामने लाने में मदद मिली। ये सारे संगीत के काम हैं।
तिथि- आजकल ज़्यादातर रिकॉर्डेड
म्यूज़िक का प्रयोग होता है जबकि पहले लाइव म्यूज़िक का होता था, तो इससे
प्रस्तुति में क्या अंतर पड़ता है?
दे.रा.अ. ... यह सब साधनों पर निर्भर
करता है। लाइव म्यूज़िक कुछ प्रस्तुतियों में पहले भी हुआ करता था और अगर कोई
नाट्य मंडली खर्च वहन कर सकती है तो आज भी होता है। ज़्यादातर रिकॉर्डेड म्यूज़िक
का ही प्रयोग होता रहा है क्योंकि लाइव म्यूज़ीशियन को हर बार ले जाना शौकिया
नाट्य मंडलियों के लिए हर बार संभव नहीं है। उसका रास्ता यही खोज लिया गया है कि
आप संगीत रिकॉर्ड कर लेते हैं और अगर नहीं भी किया है तो पहले से रिकॉर्डेड जो
संगीत होता है ,उसी में से चयन कर लेते हैं। कुछ लोग कम्पोज़ भी करा लेते हैं
जिसमें सिर्फ़ एक आदमी की ज़रूरत होती है जो वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल करना जानता
हो, तो इस तरह आप अपना इकॉनोमिक्स भी नियंत्रित कर लेते हैं। यदि बहुत बड़ा
स्पॉन्सर मिल जाए तो वह नाट्य मंडलियों का खर्च भी वहन कर लेगा।
यहाँ इस तरह का कोई मतभेद नहीं है कि
संगीत लाइव हो या रिकॉर्डेड। उत्तर रामचरित, पारसी रंगमंच या कोई लोक नाटक कर रहे
हैं तो वाकई लाइव म्यूज़िक की ज़रूरत होती है। ओपनिंग शो में तो आप लाइव म्यूज़िक
का प्रयोग कर लेते हैं लेकिन यदि प्रस्तुति के लिए यात्रा करनी है तो इतने लोगों
को एक साथ ले जाना मुश्किल होता है। इसलिए बीच का रास्ता निकाला गया कि संगीत को
पहले ही रिकॉर्ड कर लिया जाए और फिर यात्रा की जाए।
तिथि- नाटक को साहित्यपरक
विधा कहा जा सकता है या प्रस्तुतिपरक?
दे.रा.अ. ......नाटक दोनों के बीच में है।
लिखित रूप में साहित्य है लेकिन वह साहित्य के रूप में संपूर्ण नहीं है क्योंकि
यही अकेली एक ऐसी विधा है जिससे प्रदर्शन की शर्त जुड़ी हुई है अन्यथा ऐसा कहानी
के साथ नहीं है। नाटक को खेला जाता है, इसलिए साहित्यिक रूप में उसका जो भी महत्व
है, उस पर चर्चा की जा सकती है लेकिन अंतत: नाटक को प्रस्तुति के माध्यम से ही उद्घाटित
होना है। यह आवश्यक नहीं है कि जब कोई नाटक लिखा जाए, तभी उसे मंचित भी कर दिया
जाए। ऐसा अक्सर इतिहास में होता रहा है। यदि वास्तव में लिखित रूप में ऐसी कोई
रचना जो एक सशक्त ,महत्वपूर्ण और अर्थवान कृति हो तो ऐसा नहीं हो सकता कि कभी न
कभी उसे खेला ना जाए। ऐसे बहुत से उदाहरण हमारे सामने हैं और यह चर्चा हमेशा से
चलती रही कि नाटक साहित्य में गिना जाए या प्रस्तुतिपरक कहा जाए। एक पूरा शोध बहुत
साल पहले लिख दिया गया था। जयशंकर प्रसाद की रचना का शास्त्रीय अध्ययन बहुत साल
पहले पाठ्यपुस्तकों के रूप में तब्दील कर दिया गया था। पहले सबको लगा कि इसे खेला
नहीं जा सकता लेकिन जब समय आया तो यह धारणा बदल गयी। फिर टैगोर के नाटकों के लिए
भी यही बात सामने आई जब लोगों ने कहा कि ये बहुत दार्शनिक हैं, मंचन के योग्य नहीं
हैं। लेकिन वे भी खेले गए, तो ऐसी घटनाएँ होती रहती हैं।
तिथि- लोक रंगमंच क्या है ? मंचसज्जा और दृश्यांकन की दृष्टि से इसका क्या महत्व
है?
दे.रा.अ. ..... लोक रंगमंच इतिहास के ख़ास
दौर में, विशेष रूप से मध्य काल में, जब शास्त्रीय नाटक परंपरा समाप्त होने को आई
थी, तभी अवतरित हुआ था। इसके ऐतिहासिक कारण हैं कि भारत की राजनैतिक व्यवस्था बदली और मध्य काल में
लोक भाषाओं का जन्म हुआ। पहले संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश भाषाएँ थीं। लेकिन हर
क्षेत्र की अपनी एक लोक भाषा का जन्म हुआ तो उसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए किसी
माध्यम की ज़रूरत पड़ी। इसलिए प्रारंभ में ही जब भाषाओं का जन्म हो रहा था, तभी
मौखिक नाट्य परंपरा की शुरूआत हुई। लोक नाटक बहुत दिनों तक लिखे ही नहीं गए
क्योंकि नयी-नयी भाषाएँ थीं और उनका खुले में ही मंचन होता था। तब छोटे-छोटे
गाँवों, कस्बों में नाट्य मंडलियाँ पहुँच जाती थीं। वहाँ के लोग उनका आतिथ्य करते
थे और रात भर बैठ कर देखते थे। अब वहाँ मंच की स्थिति चाहे जैसी हो पर लोग कभी
पेड़ों पर बैठ कर, तो कभी ज़मीन पर बैठ कर नाटक देखा करते थे। जहाँ तक दृश्यांकन
का सवाल है तो वह उस अर्थ में दृश्यांकन नहीं था जैसा आज एक परफॉर्मेंस के रूप मे
देखते हैं। आज के दौर में एक चलायमान दृश्यांकन होता है, जब-जब जिस भी चीज़ की
ज़रूरत होगी वह छोटी मोटी मंच प्रॉपर्टी से हाज़िर हो जाएगी जबकि लोक रंगमंच में
दृश्यांकन की इस तरह से कभी कोई ज़रूरत नहीं पड़ी, क्यों कि यह वाचिक हुआ करता था।
तिथि- कहते हैं कि आप कहानी
रंगमंच के जनक हैं, कहानी रंगमंच को किस तरह परिभाषित किया जा सकता है?
दे.रा.अ. ...कहानियों को अपने मूल तत्व
और मूल रूप के साथ ज्यों का त्यों मंच पर प्रस्तुत करना ताकि दर्शकों को एक
रंगमंचीय प्रस्तुति के रूप में दिखायी जा सकें, यही कहानी रंगमंच है।
तिथि- लिखित नाटक रूपांतरण
और कहानी रंगमंच के बीच क्या अंतर है?
दे.रा.अ. .....जैसा मैंने पहले भी बताया
है कि जब नाटक लिखे जाते हैं तो ज़रूरी नहीं कि उसी वक़्त मंचित भी किए जाएँ, जो
ऐसा करने वाले लोग होते हैं वे बहुत रैस्टलैस होते हैं और लगातार कुछ दूसरी चीज़ों
को पढ़ते लिखते रहते हैं । काफी कुछ विदेशी नाटकों का हिन्दी में रूपांतरण हुआ और
दूसरी भाषाओं के नाटकों का भी हिन्दी में रूपांतरण हुआ और हिन्दी रंगमंच में यह
बहस छिड़ी कि, हिन्दी के नाटक या हिन्दी में नाटक। इन दोनों छोरों के बीच हम कहानी
के रंगमंच को रख सकते हैं। उसमें न तो रूपांतरण की बात है और न ही वह नाटक विधा का
हिस्सा है। एक शुरूआत की गयी थी कि क्या दूसरी विधा अपने स्वरूप को सुरक्षित रखते
हुए भी एक रंगमंचीय अनुभव में परिवर्तित की जा सकती है।
मैं समझता हूं कि लिखित नाटक हो या
रूपांतरित नाटक, वो तो प्रदर्शन की शर्त से जुड़े हैं लेकिन कहानी का रंगमंच एक
लिखित विधा को देखने के रूप में मंचन तक लेकर जाने की प्रक्रिया का नाम है।
तिथि- छोटे शहरों में जो
रंगटोलियाँ सक्रिय हैं, उन्हें प्रस्तुति की दृष्टि से छोटे शहरों का नाटक ही
क्यों कहा जाता है?
दे.रा.अ. ....मुझे भी लगता है कि यह एक
धारणा बना दी गयी है कि छोटे शहर का नाटक और बड़े शहर का नाटक। इसका एक कारण यह भी
है कि हमारे मन में बैठ गया है कि जो कुछ भी अच्छा हो रहा है , वह दिल्ली में ही
हो रहा है, जबकि ऐसा नहीं है। मुझे तो समूचे देश के विभिन्न क्षेत्रों में जाने का
मौका मिला है और मेरा अनुभव यह कहता है कि जितना अच्छे से अच्छा काम छोटे शहरों
में होता है, बड़े शहरों में उसकी कल्पना भी मुश्किल है। भले ही छोटे शहरों में
सुविधाएँ कम हैं, लेकिन लोगों में काम करने का जो जीवट और जज़्बा है वो बड़े शहरों
से बहुत अलग है। पिछले चौदह सालों से विद्यालय का महोत्सव चल रहा है, जिसमें
दिल्ली की प्रस्तुतियाँ तो कम होती हैं पर हिन्दुस्तान और उसके बाहरी क्षेत्रों से
आयी हुई प्रस्तुतियों की संख्या ज़्यादा होती हैं। कुछ प्रस्तुतियाँ तो ऐसी ही
मंडलियाँ तैयार कर के लाती हैं जो अज्ञात और अपरिचित होती हैं। इसलिए छोटे शहरों
में काम करने वाले लोगों को मैं यही मशविरा देना चाहूँगा कि वे किसी भी तरह से खुद
को कमतर ना आँकें। एक और बात जो उल्लेखनीय है वह यह है कि भारत महोत्सव तो दिल्ली
में होता है लेकिन हर साल रायपुर में मुक्तिबोध की स्मृति में एक नाट्य समारोह
होता है, जबलपुर में विवेचना की तरफ़ से भी समारोह होता है। इन समारोहों ने अपनी
एक विशिष्ट पहचान बनायी है और इसीलिए बड़ी से बड़ी मंडली, जैसे मुंबई से नादिरा
बब्बर की, कोलकाता से ऊषा गांगुली की मंडली आती हैं और हम लोग भी कई बार वहाँ गए
हैं। आख़िर हम लोग वहाँ क्यों जाना चाहते हैं? इसका जवाब एकदम स्पष्ट है कि अंतत: साहित्य, संस्कृति और
थोड़े से समाज के सकारात्मक पहलू कुछ हद तक इन्हीं शहरों में बचे हैं और इसलिए हर
बड़ी नाट्य मंडली वहाँ जाना सार्थक समझती है।
तिथि- हम लोग यह देखते हैं
कि रंगमंच में भावना एवं संवेदना की अपनी एक भाषा, शब्दों की बनाई सीमा को पीछे
छोड़ देती है तो आप इस विषय में क्या कहेंगे?
दे.रा.अ. ....संवेदना एवं भावना के बिना
रंगमंच का कोई महत्व नहीं है। वह संवेदना और भावना हमारे अपने अंदर होते हुए भी
रंगमंच के माध्यम से प्रस्तुत की जाती है।
तिथि- दर्शक की हैसियत से
देखने पर कभी-कभी यह समझ में आता है कि नाटक में जितनी
संवेदना और भावना उमड़ कर
आती हैं, शायद ही कभी उस तरह से फिल्म में आती हैं, ऐसा क्यों?
दे.रा.अ. ....फिल्म और रंगमंच दोनों अलग
तरह के माध्यम हैं। फिल्म एक तकनीकी माध्यम है। जो कुछ बोला जा रहा है, वह पहले से
ही शूट हो जाता है, फिर उसे डब किया जाता है। फिल्म में ज़ोर से चिल्ला कर बोलने
की ज़रूरत नहीं होती, हालांकि यह एक अलग बात है कि फिल्म अक्सर चिल्लाहट से भरी
होती हैं। रंगमंच में इमोशन और संवेदनाएँ, इसलिए थोड़ी ज़्यादा दिखाई पड़ती हैं ,
क्योंकि यह सब लाइव होता है। अभिनेता हमारे सामने खड़ा होता है और उसे आख़िरी
पंक्ति तक बैठे व्यक्ति तक अपनी बात पहुँचानी होती है। अगर वह विस्पर में भी कुछ
बोल रहा है तो भी वह सब को सुनाई देना चाहिए। रंगमंच पर अच्छा अभिनय करने वाले
हमेशा बिना माइक के ही बोलना पसंद करते हैं जबकि फिल्म में लोग माइक के बिना अभिनय
नहीं करते। फिल्म में मूलत: अगर शब्द न भी हों तो भी
आप उसका पूरा मज़ा ले सकते हैं जबकि रंगमंच में शब्दों के बिना दूर तक नहीं जा
सकते क्योंकि ऐसा करने से वह एक दूसरी ही विधा बन जाएगी। रंगमंच मूलत: शब्दों पर ही आश्रित है।
तिथि- कई बार हम लोग देखते
हैं कि गीत- संगीत, आकर्षक वेशभूषा और सैट हर नाटक में नहीं होते तो फिर सिर्फ़
शाब्दिक आधारित प्रस्तुति रह जाती है तो कभी किसी को प्रभावशाली लगती है और कभी
नहीं, तो आप इस बारें में क्या कहेंगे?
दे.रा.अ. जो अभिनेता करता है, यह उस
पर निर्भर करता है कि वह प्रस्तुति को कितना संवेदनात्मक अनुभव बनाता है। आप सारी
सुविधाओं के साथ रंगमंच करें और उसमें संवेदना ना हो तो इसका मतलब है कि आप ख़राब
अभिनय कर रहे हैं। इस तरह से आप चाहे जो करें ,उसका दर्शकों पर कोई प्रभाव नहीं
पड़ता। अगर अभिनेता सचमुच उन क्षणों को जीता है जो अभिनय का हिस्सा होते हैं, तो
बहुत कम चीज़ों के साथ भी मंच पर बहुत अच्छी प्रस्तुति दी जा सकती है। मेरा यह
व्यक्तिगत अनुभव रहा है कि जब मंच सज्जा के नाम पर कुछ भी नहीं था, तब भी ऐसी
प्रस्तुतियाँ हुई हैं, जिन्हें दर्शकों ने बहुत पसंद किया है क्योंकि वो दर्शकों
की कल्पना के लिए भी बहुत कुछ छोड़ती हैं। अभिनेता, उसकी गतियाँ, संवाद, ये सब अलग
तरह का अनुभव देता है और सोचने पर भी मजबूर करता है। दूसरी तरफ़ फिल्म में सब कुछ
परोस दिया जाता है, दर्शक वही देख पाता है जो निर्देशक चाहता है। रंगमंच में ऐसा
नहीं है, सब कुछ तय होने पर भी दर्शक की अपनी स्वतंत्रता क़ायम है।
तिथि- आज के समय में न तो
टी.वी. और सिनेमा को नकारा जा सकता है और न ही नाटक की मौजूदगी को, लेकिन फिर भी यह
सच है कि सिनेमा ने लोगों को काफी हद तक अपनी गिरफ़्त में रखा है, ऐसे में रंगमंच
की दशा और दिशा में क्या फ़र्क पड़ता है?
दे.रा.अ. ...जब इन माध्यमों का आगमन हुआ
था, उसके बाद एक दौर ऐसा आया था जब लोग तेज़ी के साथ इन माध्यमों की ओर भागे थे
लेकिन आज स्थिति ऐसी है कि लोग रंगमंच देखने में ज़्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं।
लोगों को अपने बंद कमरे में बैठ कर फिल्म को देखने में वह संतुष्टि नहीं मिलती जो
अपने सामने एक जीवंत अभिनेता को देखने पर मिलती है।
दूरदर्शन में अस्सी के बाद धारावाहिक का
दौर आया ,उसके बाद वीसीआर का और फिर सीडी, डीवीडी का दौर आ गया लेकिन अब मोबाइल
में ही सारी चीज़ें क़ैद की जा रही हैं। इतनी तेज़ी से टैक्नोलॉजी विकसित हो रही
है कि कोई भी दूर तक चलने वाला माध्यम नहीं नज़र आ रहा है। अंतत: रंगमंच ही एक ऐसा माध्यम
है जो तमाम उतार-चढ़ावों के बावजूद चल रहा है। इसके साथ भी एक ऐसा दौर आया था जब
लगा था कि यह ख़त्म हो रहा है और लोगों को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं रही। लेकिन
मुझे नहीं लगता कि ऐसी कोई बात है। इसका अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि इक्कीसवीं
सदी के बारहवें साल में एक ऐसी पत्रिका जिसका रंगमंच से कोई लेना-देना नहीं, वह
रंगमंच पर ही अपना एक पूरा अंक निकाल रही है अर्थात् सिद्ध हो जाता है कि माध्यम
की शक्ति और एक अलग तरह का अनुभव रंगमंच में मिलता है जिसका जायज़ा लेना शायद
पत्रिका ने भी ज़रूरी समझा। मैं समझता हूँ कि एक पूरी तरह से कथा विधा को समर्पित
पत्रिका यदि नाटक रंगमंच की ओर लौट रही है तो यह हमारे लिए बहुत ही सकारात्मक
लक्षण है। अब इस तरह के सवाल ख़त्म हो जाएँगे कि रंगमंच ख़त्म होने को है।
तिथि- कहानी रंगमंच की आपने
इतनी ज़्यादा प्रस्तुतियाँ दी हैं, उसमें क्या नए आयाम मिले?
दे.रा.अ. ...नाटक के आलेख का इंतज़ार
करने की अब ज़रूरत नहीं पड़ती और रंगमंच के लोग भी साहित्य से जुड़ने लगे। हर
दर्शक हर तरह की किताब नहीं खरीद सकता था, तो उस साहित्य को रंगमंच पर दिखाने
से एक संबंध बन गया। इसके अलावा अभिनेता को
अपनी ज़्यादा से ज़्यादा क्षमता को खोजने का अवसर मिला। उसने एक ऐसा टैक्सट जो
खाली है पर उसमें जो नैरेशन है उसको समझा। इस काम में ये अनुभव शामिल ना होते तो
शायद यह काम कब का ख़त्म हो गया होता जिसको करते हुए मुझे सैंतीस साल हो गए। अब जब
लोग मुझे बुलाते हैं और कहते हैं कि हम नाटक करेंगे तो मैं कहता हूं कि नहीं, हम
कहानी करेंगे। हालांकि बीच-बीच में बदलाव होते रहने चाहिए।
तिथि- जब हम फिल्म देख कर
आते हैं तो हमेशा उसमें कुछ तलाश करते हैं तो बात जब आती है रंगमंच के सामाजिक
सरोकारों की तो आपको क्या लगता है कि कितना प्रभाव पड़ता है?
दे.रा.अ. ... रंगमंच हो या कोई भी कला हो, वह समाज से ही पैदा
होती है तो उसमें सामाजिक सरोकार तो निश्चित तौर पर रहेगा। उसको अलग से ढूँढने की,
कोई कोशिश नहीं की जाती है। किसी भी नाटक या कहानी को जब कोई निर्देशक मंचन के लिए
तय करता है तो उसमें कुछ न कुछ ऐसा होता ही है जो वह दूसरों से शेयर करना चाहता है
अन्यथा यह भी संभव था कि वह उनकी तरफ देखना भी ज़रूरी नहीं समझता।जब दूसरों से कुछ
कहे जाने की ज़रूरत महसूस होती है तो उसमें सामाजिक सरोकार उसी दिन से शामिल हो
जाता है। निर्देशक के साथ और भी लोग इस प्रक्रिया में शामिल होते हैं जो उसका
समर्थन करते हैं। फिर इसके बाद दर्शक भी होते हैं जो नाटक देख कर बाहर जाते हैं और
दूसरे लोगों को बताते हैं। यानि यहाँ यह कहना ग़लत नहीं होगा कि सामाजिक सरोकार को
अलग से ढूँढे जाने की क़तई आवश्यकता नहीं है। जिस रचना में प्रत्यक्ष तौर पर
सरोकार नज़र ना आए, उसे एक अच्छी रचना नहीं कहा जा सकता। एक उदाहरण मैं यहाँ,
प्रेमचंद की रचना, ‘रंगभूमि’ का देना चाहूँगा क्योंकि जब इसे लिखा गया तो प्रेमचंद ने इसका
कोई प्रचार नहीं किया था कि यह समाज के दलित वर्ग के बारे में है और किसी तरह की
कोई चर्चा भी नहीं सुनाई दी थी लेकिन पिछले कुछ सालों में इस पर बहुत चर्चा हुई ,
इसमें इस्तेमाल शब्दों को ले कर काफी हंगामा खड़ा किया गया। कहने का अर्थ यह है कि
रचना तो रचना है, इसमें कोई संदेश न हो, ऐसा नहीं हो सकता।
तिथि- अक्सर यह सुनने में
आता है कि एनएसडी व्यावसायिकता को बढ़ावा दे रहा है और सामाजिक सरोकारों का प्रसंग
उसमें गौण होता जा रहा है, इस बारे में आपका क्या कहना है?
दे.रा.अ. ...दरअसल यह एक ऐसा संस्थान है
जिसमें बहुत कुछ सिखाया जाता है और किसी प्रशिक्षण संस्थान से बाहर निकल कर कोई
छात्र कैसा प्रदर्शन करता है, यह ज़िम्मेदारी संस्थान की नहीं होती, तो इसे एक
मंडली के रूप में न देखा जाए। इस नज़रिए की वजह से समस्या हो रही है। लोग एनएसडी
को एक नाट्य मंडली के रूप में देख रहे हैं ,जबकि इसे एक विशुद्ध प्रशिक्षण संस्थान
के रूप में देखें तो सारी समस्याएँ ख़त्म हो जाएँगी।
‘घासीराम कोतवाल’ नाम का एक नाटक था जो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय
ने किया था, उसके अगर दो सौ शो भी हो गये होंगे तो बहुत बड़ी बात होगी।
व्यावसायिकता तो वहाँ होती है जहां आप दर्शकों की मांग पर नाटक करें। राष्ट्रीय
नाट्य विद्यालय की सारी प्रस्तुतियाँ प्रशिक्षण का हिस्सा होती हैं। अगर किसी ख़ास वक़्त का
अनुभव देने के लिए भव्यता लायी जाती है और चीज़ें जुटाने की कोशिश होती है, तो हम
उसको व्यावसायिकता का रूप दे दें तो, यह एक ग़लत सोच का नतीजा होगा। उदाहरण के लिए
य़दि शेक्सपियर को कुर्ते पायजामे में ही कर दें तो वह भी एक प्रयोगशील काम हो सकता
है। लेकिन प्रशिक्षण के लिए वह पूरा दौर दिखाना, उसमें किस तरह से नाटक होते थे और
उनकी क्या वेशभूषा होती थी, इसे दिखाना भी विद्यालय का एक पक्ष है। जहाँ तक रंगमंच
का सवाल है , वहाँ व्यावसायिकता का कोई कोण नहीं है क्योंकि विद्यालय को फंड,
मिनिस्ट्री ऑफ कल्चर की ओर से मिलता है। इसे चलाने के लिए पैसा कमाने की ज़रूरत
नहीं है।
तिथि- रंगमंच में युवाओं की
भूमिका महत्वपूर्ण रही है, तो पहले और आज की भूमिका में क्या फ़र्क है?
दे.रा.अ. ... रंगमंच पूरी तरह से युवाओं
का ही माध्यम है। युवाओं के लिए ही संभव है कि वे एक बूढ़े का रोल भी निभा सकें और
जवान का भी। लेकिन आज के युवा के सामने बहुत से विकल्प खुल गए हैं। अब रंगमंच उसकी
प्राथमिकता नहीं है। आज का रंगकर्मी बहुत तेज़ी से सब कुछ हासिल कर लेना चाहता है।
रंगमंच में कोई शॉर्टकट नहीं है। यह एक ऐसा माध्यम है , जहां पहले तो नाटक को लिखा
जाना है, फिर मंडली चाहिए, उसमें लोग चाहिए, जिसके लिए जगह, फिर उसके बाद अभ्यास
भी बहुत ज़रूरी है। यह एक लंबी प्रक्रिया है। यह कविता, कहानी, उपन्यास की तरह घर
पर बैठ कर नहीं किया जा सकता। इसके लिए तो घर से बाहर निकलना ही पड़ता है और बहुत
से लोगों को अपने साथ जुटाना पड़ता है। इतना सब कुछ करने का धैर्य आज के युवा
रंगकर्मी में ख़त्म होता जा रहा है। पिछले पँद्रह सालों में ऐसा कोई युवा निर्देशक
सामने नहीं आया, जिसका नाम लिया जा सके। यह बात अलग है कि आप नाटक कर रहे हैं,
लेकिन आपकी पहचान नहीं बन पा रही है। ऐसा इसलिए है क्योंकि आप रुकने को तैयार नहीं
हैं। आप पूरी तरह से समय देना नहीं चाहते हैं। इस बारे में युवा रंगकर्मियों को
थोड़ा रुक कर सोचना चाहिए। आज हम जिस मोड़ पर खड़े हैं, वहाँ यह सवाल बहुत जायज़
है। इसका जवाब भी युवा रंगकर्मियों को ही देना होगा।
एक ऐसा भी समय था जब हम पूरे जज़्बे के
साथ अपने आप से सारा प्रबंध करते थे, पैसे भी खर्च करते थे। लेकिन अब यह सब शहरों
में नहीं बचा है। इसका एक बड़ा कारण यही है कि आज का युवा इसे टाइम वेस्ट से
ज़्यादा और कुछ नहीं समझता। उसकी कोई रुचि भी नहीं है तो यही चीज़ें बदलने की
ज़रूरत है। बहुत संभव है कि स्थितियाँ अपने पुराने स्वरूप में आ जाएँ। इसलिए
उम्मीद हमेशा रहेगी क्योंकि रंगमंच निराशा का माध्यम नहीं है।
नाम तिथि दानी
जन्म 3 नवंबर
स्थान जबलपुर( म.प्र.)
शिक्षा एम.ए.(अँग्रेज़ी साहित्य),बी.जे.सी.(बैचलर ऑफ़ जर्नलिज़्म एंड कम्युनिकेशन्स),पी.जी.डिप्लोमा इन इलेक्ट्रॉनिक एंड प्रिंट जर्नलिज़्म।
संप्रति विभिन्न महाविद्यालयों में पाँच वर्षों के अध्यापन का अनुभव, आकाशवाणी(AIR) में तीन वर्षों तक कम्पियरिंग का अनुभव। वर्तमान में पर्ल्स न्यूज़ नेटवर्क और P7 News Channel, नोएडा में पत्रकार.
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं(वागर्थ,शुक्रवार,परिकथा, पाखी, नई दुनिया आदि) में कविताएँ, कहानी, लेख प्रकाशित।
मोबाइल नं.-09958489639
पता- प्लॉट नं.15, के.जी. बोस नगर, गढ़ा, जबलपुर(म.प्र), पिन-482003
sitab diyara par ankur jee ka interview padhaa. aap vibhinna vidhaaon men behtar rachanayen prastut kar rahe hain. aapko badhaaee evam shubhkaamnayen.
जवाब देंहटाएंअंकुर जी और समकालीन रंगमंच, दोनों के कई वातायन खोलता है यह साक्षात्कार. तिथि का आभार कि उन्होंने यह ज़रूरी काम किया..अंकुर जी को सलाम!
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