आज सिताब दियारा ब्लॉग पर युवा कथाकार
नवनीत नीरव की कहानी
एगो देवी माई बाड़ी हमरा गाँव में
(यह कहानी मैंने जितनी बार लोगों
को सुनाई है, हर बार सुनने वालों के मन में यहधारणा प्रबल होती गयी है कि यह कोई
कहानी न होकर, मेरे किसी जान-पहचान वाले की आप बीती है. कहानियां भी तो हमारे
आस-पड़ोस, हमारे परिवेश में जन्म लेती हैं, पलती-बढ़ती हैं. जिसे कहानीकार अलग-अलग ढंग
से, उसे पढ़ने या फिर सुनने वालों के हिसाब से लिखकर या गढ़कर प्रस्तुत करता है.
यहाँ मैंने भी एक कोशिश की है, जो अब आपके सामने है.)
इस घटना को तकरीबन एक दशक बीत गए हैं.तब से लेकर
आज तक गाँव अपनी चाल में चलते रहे हैं. काम, नौकरी, मजदूरी और पढ़ाई की खातिर गाँव
से लोगों का पलायन जारी रहा, जो आज भी
द्रुत गति से कायम है. विगत वर्षों में ग्रामीणों का शहर के प्रति आकर्षण तनिक भी
कम नहीं हुआ, बल्कि मोबाईल और डिश टी०वी० के प्रकोप से बढ़ ही गया है. कई रूपों में
बदलतेहुए गांवोंका जो नुकसान होना था, वो अभी भी ज़ारी है. इस
नुकसान का भविष्य में रूप-प्रारूप कैसा होगा? कुछ स्पष्ट नहीं है. हर वर्ष नई पीढ़ी
की एक खेप गाँवों से चली जाती है, जिसे गाँव एक-डेढ़ दशकों से खड़े होने,
गिरने-सँभलने का हुनर सिखाता है. शहरों के तर्ज़ पर छोटे परिवारों की बहुतायत अब गाँवों में भी
मिलती है. न पुराने दालान नज़र आते हैं, न किसी पेड़ के नीचे लगने वाले कहकहे. नज़र
आते हैं कुछ सूने फीके पक्के मकान...जिसके बाशिंदे एक-दूसरे के बारे में अब कम ही
जानते हैं. रिश्तों के बीच का तरल सूख चला है.
बाईस-तेईस साल का एक नौजवान एक गाँव में आया है.
बिलकुल अजनबी है वो इस गाँव के लिए. अजनबी इसलिए क्योंकि आज के पहले उसे किसी ने इस
गाँव में नहीं देखा. हो सकता है किसी गाँव वाले की रिश्तेदारी में पड़ता हो, या फिर
आन गाँव का हो और रास्ता भटक कर यहाँ चला आया हो. बहुत सारी बातें थोड़े से लोगों के
मन में ज़रूर ही उमड़-घुमड़ रही थीं. कुछ लोग अचरज भरी निगाहों से उसे देखते ज़रूर थे,
लेकिन किसी ने उससे पूछने की ज़ेहमत नहीं उठाई कि वह कौन है? कहाँ से आया है?
पुराने दिनों की बात होती तो गाँव का सीवान लाँघते ही,लोग उससे सौ ज़िरह करते मसलन,
वह कहाँ से आया है? किसके यहाँ हितई पड़ती है? कवन जात है...आदि-इत्यादि. आज किसी को
फ़ुर्सत नहीं है गाँव में इस अजनबी से कुछ पूछने की. लोग किसी भी अजनबी को मुंह
लगाने सेडरते हैं. विगत एक-आध दशक में यहाँ के हालात ऐसे बिगड़े कि एक गहरा
अविश्वास घर कर गया है. पता नहीं कौन है? कोई चोर-उचक्का तो नहीं है, पुलिस का
ख़ुफ़िया, रणवीर सेना का आदमी, माले का कामरेड, तमाम तरह की आशंकाएं! किसी को किसी
से विशेष मतलब नहीं. चाहे वह आदमी बाहर गाँव से नुकसान के लिए ही क्यों न भेजा गया
हो!सब चुपचाप बचकर निकलना चाहते हैं.
खैर, शाम का वक्त था. गाँव के लोग अपनी
गाय-भैसों को बधार से चरा कर वापस गाँव की तरफ लौट रहे थे. आहरके पास पहुँचते ही लोगों
ने मवेशियों को पानी में छोड़ दिया ताकि वे पानी पी सकें औरउनकी धुलाई हो सके.अज़नबी
नौजवान उसी आहर के किनारे बने कच्चे रास्ते के बायीं ओर खड़े होकर देर तक डूबते
सूरज को निहारता रहा. आहर का पानी पुरवैया की थाप पर हिलोरे ले रहा था. आहर के एक
किनारेखड़ी बँसवारी बीच-बीच में चरर-मरर की ध्वनि के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही
थी. किनारे खड़े दो पुराने पीपल के वृक्षों की पत्तियां बधार की तरफ से आती हवा के
साथ खड़खड़ा रहीथीं. पक्षी कतारों में अपने आश्रय की तरफ़ लौट रहे थे. पीपल के पेड़ों
से बगुलों के पंख फड़फड़ाने की आवाज़ें आ रही थीं.शाय दबगुलों ने सांझ गहराने की
उम्मीद में पेड़ों पर डेरा डालना शुरू कर दिया था. परवो नौजवान ढलती शाम में एक
अनजाने गाँव में क्या कर रहा है? किसी के यहाँ रिश्तेदारी होती तो कब का गाँव के
अन्दर चलागयाहोता. पर वह तक़रीबन पौने घंटे से खड़ा पता नहीं शून्य में क्या निहार
रहा था. काफी देर तक लौटते पक्षियों की कतारें और आहर का लहराता हुआ पानी देखने के
बाद नौजवान की नज़र अचानक से पास ही पीपल के नीचे बनी छोटी सी चाहरदीवारी से घिरे
हुए एक चबूतरे पर गयी. जहाँ तकरीबन चार से बारह साल के लड़के-लड़कियों का झुण्ड पूजा
के लिए आवाजाही कर रहा था. नौजवान एकटक नज़रों से वहां हो रही आवाजाही का मुआयना
करने लगा.
शाम ढलने को आतुर तो थी ही. गाँव के बहुत सारे
लड़के-लड़कियां नहा-धो कर रंग-बिरंगे कपड़ों में उस चबूतरे पर आ रहे थे. उनके हाथों
में कुश की बनी डालियाँ थीं जिनमें अक्षत, रोली, दूब और कुछ दीये थे. वे बारी-बारी
अहाते के भीतर जाते. पूजा करते, फिर मत्था टेकते हुए बाहर की तरफ निकलते. इसी तरह
के कौतुक नौजवान की उत्सुकता बढ़ा रहे थे. नौजवान ने पहले सोचा कि हो सकता है कि यह
किसी बरहमबाबा का चबूतरा हो. क्योंकि इस तरह के चबूतरे तक़रीबन हर गाँव में दिख
जाते हैं. वह दूर से ही वहां हो रही सारी गतिविधियों को निहारता रहा. फिर
उत्सुकतावश चाहरदीवारी से घिरे चबूतरे के पास चला आया. सामने गेट से झाँकने पर उसे
अहाते के अन्दर ढेर सारी रंग-बिरंगी चुनरियाँ चाहरदीवारी में बने ईंटों की जालियों
में बंधी हुई दिखाई दीं. अन्दर बने चबूतरे पर एक पंक्ति से सिन्दूर का ढेर सारा
टीका किया हुआ था. बगल में तुलसी के कई पौधे लगे हुए थे जिनकी श्यामल पत्तियों पर
सिन्दूर दमक रहा था.
-“ये तो कोई देवी मइया लगती हैं!”उसने मन ही मन
अनुमान लगाया.
देवी मइया के सामने प्यार से सिर झुका कर नमन
करते, रोली और अक्षत चढ़ाकर चबूतरे की परिक्रमा करते सुन्दर-सुन्दर, प्यारे बच्चों
और उनके कौतुक को देखकर उससे रहा नहीं गया. उसकी भी इच्छा हो आई कि वह भी
चाहरदीवारी के अन्दर जाकर देवी मइया का दर्शन करे. लेकिन अन्दर बच्चे-बच्चियों की
संख्या ज्यादा देखकर उसने थोड़ी देर बाहर ही इंतजार करना मुनासिब समझा. धीरे-धीरे
बच्चों का झुण्ड पूजा समाप्त कर गाँव की ओर रुखसत हो चला. नौजवान ने उसी झुण्ड से
एक बच्ची को अपने पास बुलाया. उसके बुलाने पर वह बच्ची पहले तो झिझकी. फिर शर्माती
हुई उसके पास चली आई. नौजवान ने बड़े प्यार से चबूतरे की ओर इशारा करते हुए पूछा,
-“ई देवी मइया कौन हैं?”
लड़की चुपचाप सिर झुकाए पैर के अंगूठे से मिट्टी
कुरेदती रही. नौजवान ने दुहराया
- “घबराओ नहीं. मुझे सिर्फ जानना है कि ये कौन
सी देवी मइया हैं जिसकी पूजा तुम सभी बच्चे करते हो?”
बच्ची से कुछ जवाब देते नहीं बन रहा था.वह थोड़ी
देर शरमाते हुए मुस्कुराती रही. उसका लगातार नीचे की ओर देखना जारी रहा. नौजवान
अपने सवाल के जवाब में उसका मुंह टुकुर-टुकुर देखता रहा. लड़की कुछ सोच रही थी
शायद. फिर अचानक से वह धीमी आवाज में बोल उठी
-“इ जोगमाया मइया हैं. हर अमावस्या के इनकर पूजा
हमलोग करते हैं.”
नौजवान उसकी बातें सुन रहा था. कुछ जानकारी तो
उसे मिली थी लेकिन तसल्ली नहीं हुई. वह कुछ और पूछना चाहता था लेकिन उसने महसूस
किया कि वह बच्ची उससे बात करने में हिचकिचा रही है...तो उसने बात आगे बढ़ाने से
खुद को रोक लिया. शायद उस बच्ची को घर जाने की जल्दी थी. उसके झुण्ड के अन्य
बच्चे-बच्चियां आहर के किनारे बने कच्चे रास्ते पर थोड़ी दूर खड़े उसके आने का
इंतजार कर रहे थे. उन्हें अजीब- सा लग रहा था कि ये आदमी उनकी दोस्त के साथ क्या
बातें कर रहा है? बच्ची जब चली गयी तो नौजवान का ध्यान अहाते के अन्दर ही दीवार से
सट कर बैठी एक कालीबूढी औरत की तरफ गया. जिसने अचानक से ढोल बजाना शुरू कर दिया
था. ढम...ढम...ढम. उसने अन्दर झाँका. वह देवी मइया के चबूतरे के ठीक बायीं ओर की
दीवार से सहारा लेकर बैठी हुई थी.शरीर पर मटमैली कोर वाली साड़ी थी जो कभी सफ़ेद रही
होगी. आँखों पर पुराना मोटा चश्मा...और सामने बिल्कुल ही काला पड़ चुका ढोल. उम्र
अंदाजन अस्सी साल से ऊपर की होगी.देवी की पूजा कर चुकने के बाद अहाते से बाहर
निकलने से पहले कई लड़के-लड़कियां उसे एकाध रुपये देकर जा रहे थे.
- “अगर ये औरत ढोल बजाना शुरू नहीं करती तो मेरा
ध्यान इनकी तरफ जाता ही नहीं.”- नौजवान ने मन ही मन सोचा.
उसके मन में उम्मीद जगी. शायद इनसे कुछ जानकारी
मिले. नौजवान ने अपनेजूते बाहर सीढ़ी के समीप उतारे और बूढ़ी औरत को प्रणाम करके
उसके बगल में जाकर बैठ गया. बूढ़ी औरत थोड़ा हडबड़ाई. एक अनजान आदमी उसकी बगल में आकर
क्यों बैठ गया है? उसने पहले तो अपना चश्मा सँभालते हुए उसे गौर से देखा. शायद
पहचानने की कोशिश कर रही थी कि कोई अपने गाँव का नौजवान तो नहीं. थोड़ी देर तकउसे
ध्यान से देखने के बाद उसने पूछ ही लिया
-“केकरा किहाँ आइल बाड़ बबुआ?”
- “आन गाँव के हई दादी.”नौजवान ने बड़े प्रेम से
उत्तर दिया .
नौजवान के मुंह से ‘दादी’ सुनकर वह बुढ़िया
मुस्कुराई . लेकिन नौजवान के उत्तर से शायद वह संतुष्ट नहीं हुई.उसने दूसरा प्रश्न
पूछ लिया.
-“कौनों गाँव त जरूर होइबे करी तोहार?”
-“हाँ दादी..गांवे के हई..गोपालपुर के नाम त जनते
होखब.”
- “हाँ बबुआ, सुनले त बानी...ई गाँव के ढेर हितईबा
उ गाँव-जवार में.”बुढ़िया ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया.
नौजवान इससे पहले कुछपूछता, बुढ़िया ने उससे फिर
एक सवाल पूछ लिया
-“अइजवा केकरा किहाँ आइल बाड़?”
- “केहू किहाँ ना दादी...अइसहीं घूमे के खातिर”
-“खाली घूमे...आ अतना दूर से...ई कौनों शहर-उहर तनाह.”
बुढ़िया को कुछ समझ में नहीं आ रहा था.जिज्ञासाएं
उसके मन में उमड़-घुमड़ रही थीं.वह कुछ और पूछना चाह ही रही थी कि नौजवान ने तपाक से
अपना सवाल दुहराया, जो उसने अभी थोड़ी देर पहले उस बच्ची से पूछा था.
-“ई कवन देवी मइया हईदादी? ढेर देर से देखत रहीं
कि गाँव के लइका-लइकी सब इनकर पूजा करे आइल रहन स.”
इस सवाल पर बूढ़ी औरत पहले खामोश हुई. फिर कुछ
सोचते हुए उस नौजवान की तरफ मुखातिब हुई.
- “इ एहीगाँव के एगो मइया हई.”
- “एही गाँव के मइया ....?”नौजवान हैरान हुआ.
- “हाँ, बेटा! मइया एही गाँव के रही...रमावती के
बेटी ” बुढ़िया ने थोड़ा गंभीर होते हुए कहा.
- “एही गाँव के...रमावती के बेटी...? कुछ समझ
में ना आइल दादी.तनी विस्तार से बतावल जाय.” नौजवानने अपनी दुविधा बुढ़िया के सामने
रखी.
- “बड़ी लम्बी कहानी हबेटा!... उ जन्माष्टमी के
रात कैसे भोर पड़ी! खूब पानी बरसल रहे ओह दिन....”
बुढ़िया की धुंधली आँखों में जैसे एक-एक दृश्य
सजीव होने लगा!
(ज़िंदगीकी डायरी में असंख्य सुबहें, रातें दर्ज
थीं. ज़िंदगी थी, पर ज़िंदगी से ज्यादा ज़िंदगी की स्मृतियाँ थीं. एकखास पड़ाव के
पश्चात आगे की कल्पनाएँ नहीं बचतीं. रातों, सुबहों, शामों की स्मृतियाँ बचीं रह
जाती हैं. जैसे अपनी आत्मा स्मृतियों का गट्ठर होती है. एक-एक रेशा उधड़ता है,
गूँथता है, उधड़ता है...लेकिन विलग नहीं हो पाता गट्ठर से.)
रुनुक-झुनुक बाजे पायल तोरा पउंवा,
बड़ा नीक लागे ननद तोरा गऊँवा....( जगदीश‘पंथी’)
रमावती को जब भी उसका पति रामकुमार, रमा कहकर
पुकारता है, तो उसके मन में एक गुदगुदी-सी होने लगती है. उसे लगता है किताउम्र
अपने पति के सीने से लगी रहे. परऐसा हो नहीं पाता. रामकुमार ठहरा नया-नया कारोबारी
आदमी. कई वर्षों तक बड़े शहरों की खाक छानने के बाद हाल ही में उसने अपने गाँव से
दूर पटना शहर में अपना नया कारोबार शुरू किया है. कामबड़ी ही ज़िम्मेदारी वाला है,
जिसमें जरा सी भी चूक हुई तो फ़ायदा दूसरे लोग ले जाते हैं. उसे कम ही फ़ुर्सत मिलती
है, अपने गाँव आने और घर-परिवार से मिलने जुलने की. साल के कुछेक तीज-त्योहारों और
खास मौकों को छोड़ दिया जाय तो उसका तकरीबन पूरा साल ही बाहर गुजरता है. पांच वसंत
बीते रमावती की शादी को. शादी के बाद के कुछेक मौकों को छोड़ दिया जाए तो शुरू से
ज्यादातर ससुराल में ही रहतीआई है वह. रमावतीको याद है, शादी के वक्त उसकी किसी
नजदीक की बुआ ने बड़े प्यार से समझाया था
- “सादी-बियाह दोसरका जनम होला बिटिया.नयारिश्ता
बनेला.आ ओकर परछाहींमन के एतना सुहाला कि सबे कुछ नया लागे लागेला.नया जगह, आपन जन, नयाघर-दुआर!
बियाह के बाद समय चाहे कतनो ख़राब हो जाए, ख़ुशी कौनो न कौनो बहाने भाग्यके दुआर पर
सीकरी जरूर बजावेले.”
शादी के
वक्त रमावती सोलह की ही हुई थी. बुआ की बातें उसे ज्यादा समझ में तो नहीं आई. किन्तुउनबातों
को कहते वक्त बुआ के उम्रदराज चेहरे परझलकआयेआत्मविश्वास नेउसकीदेहमें एकसिहरन सीपैदा
कर दी. बुआ की बातें उसे स्नेह से पगी लगीं थीं..जिसे सुनकर वह असीम खुशी से भर
उठी थी. मानों बुआ की बातों का मीठापन उसके शरीर के नस-नस में घुलते हुए, त्वचा के
असंख्य नन्हें रोमछिद्रों से निकल रहा हो और तन-मन में नए एहसास की मिठास भर रहा
हो. लगन से पहले रमावती और रामकुमार ने एक दूसरे को देखा नहीं था. पर रमावती के घर
में रामकुमार के परिवार और व्यक्तित्व की चर्चा हरेक की जुबान पर थी, जिसने रमावती
के मन-मंदिर में अपने भावी पति का एक अनगढ़ स्केच खींच दिया था. रमावती को महसूस होता
है कि अपने भावी पति की जैसी कल्पना उसने की थी, रामकुमार उससे भी बढ़कर है. शादीके
बाद के कुछेक मौकों को छोड़ दिया जाय तो रामकुमार ने उसे कभी निराश नहीं किया है.
ससुराल में रमावती को लेकर पांच जने हैं- सास, ससुर, देवर और उसका पति रामकुमार.
रामकुमार ने अपने युवावस्था के कम ही साल गाँव में बिताये हैं. दसवीं में पढ़ रहा
था वह, जब अपने दोस्तों की देखा-देखी पढ़ाई छोड़कर बाहर कमाने के लिए निकल गया था.
घर में भगवान की दया से खाने खाने-पीने की कमी न थी कि असमय उसे नौकरी करनी पड़े.
पर उम्र नयी थी और उसपर से शहर में रहने-घूमने का आकर्षण. घर में उस वक्त
पढ़ाई-लिखाई के प्रति जागरूकताभी नहीं थी. परन्तु लोगों ने समझाया था कि इतनी कम
उम्र में बाहर कमाने जाने की क्या जरूरत है? घर पर ही रहे. पर उसने किसी की एक न
सुनी और चला आया गाँव के नवही छोकरोंके संग कलकत्ते. उसके बाद मुम्बई, सूरत,
दिल्ली, लुधियाना और न जाने कितने शहरों में काम की तलाश करता रहा वह.पर कहीं भी
पाँच-छः महीनों से ज्यादा टिक नहीं सका. रामकुमार के परिवार की गाँव में ठीक-ठाक
खेती बाड़ी थी. जब भी उसे ढंग का काम नहीं मिलता या फिर वह परेशान हो जाता शहरों के
तंग जीवन से...अपने गाँव वापस चला आता. तीन-चार महीने गाँव में रहकर वहां के कुछ
काम-धाम मसलन रोपनी-डोभनी करवाता फिर वापस काम की खोज में नई उम्मीद के साथ किसी
नए शहर का रुख करता. शहर उसे शुरू से ही खींचता रहा था. शहर से गाँव, गाँव से
शहर.ये सब लगा ही हुआ था कि रामकुमार की शादी हो गई. बमुश्किल अठारह-उन्नीरस बरस
का रहा था वह. उम्र का असर कहा जाय या फिर नए रिश्ते के आकर्षण का. शादी के बाद
उसके ज्यादातर समय गाँव पर ही गुजरने लगे. नई नवेली और सुंदर दुल्हन का प्यार उसे
ज्यादा वक्त तक गाँव पर ही रोके रहता.उसके साथ गाँव से बड़े-शहरों की ओर पलायन किये
हरिजन टोली के कुछ लड़कों ने अच्छी कमाई की और गाँव में अपने कच्चे मकान पक्के करा
लिए. रामकुमार का मकान तो शुरू से ही आधा पक्के का था. बाहर से बिना प्लास्टर वाले
दो कमरे और शेष मकान कच्चा-मिट्टी, घास-फूस और खपरैल का बना हुआ. दो कमरे उस वक्त
पक्के हुए थे, जब इस गाँव में गिने-चुने ईट के मकान थे. खैर,सिरपर ठोस छत थी और घर
में गुजारे लायक साधन भी. सो उसे ज्यादा गंभीरता से काम करने की और कुछ बचाने की
जरूरत महसूस नहीं हुई. वह तो दुनिया देखना चाहता था, साथ ही कुछ कमाई भी. शादी के
बाद रमावती ने कई बार उससे निहोरा किया था कि वह यहीं पास के शहर में कुछ काम-वाम
क्यों नहीं देख लेता? रामकुमार उसकी बातें सुनकर मुस्कुरा देता. उसकी मुस्कुराहट
का सीधा-सीधा मतलब तो यही होताकि- जैसे छोटे शहरों में काम धरा हुआ है औरवह शौक से
बड़े-बड़े नगरों में मारा-मारा फिर रहा है. उसे लगता कि रमावती ने कभी बाहर की
दुनिया नहीं देखी है , इसलिए ऐसी बातें करती है. फिर उसे लगता कि वो उससे बहुत
प्यार करती है...शायद बिछोह सहन नहीं कर पाती. जिसकी वजह से रमावती उससे ये सब
कहती रहती है. शुरू-शुरू में रामकुमार रमावती की बातें यूँ ही टालता रहा. उन पर
ध्यान नहीं देता. परन्तु शादी के बाद कुछ साल बाहर रहने पर जब मुश्किलें बढीं तब
उसे महसूस होने लगा कि कुछ पक्की कमाई-धमाई करनी चाहिए, नहीं तो बड़े शहरों में
रहकर घिसट-घिसट कर कमाने और शहर में ही रहने की जद्दोजहद में उसको उड़ाने-पड़ाने से
परिवार के गुजारे में मुश्किलें आन पड़ेंगी. पढ़ाई-लिखाई तो उसने कुछ खास की नहीं थी
ज शहर में उसे कहीं बाबू या सुपरवाईजरका काम मिलता.शुरुआत में इधर-उधर मजदूरी करता
था अपने दोस्तों के साथ, फिर कई होटलों में बैरे का काम किया.बाद में जब होटल
बिजनेस में प्रशिक्षित और थोड़े पढ़े लिखेलोगों को रखने लगे तो उसको वहां नौकरी
मिलने से रही. कुछ महीनेतकइधर-उधर की खाक छाननी पड़ी थी तब उसे.जब शहर के अंदर और
बाहर कुछ और शहर बसने लगे तो प्राइवेट सिक्युरिटी की मांग अचानक से बढ़ गई.
रामकुमारने अपने तीन-चार सालों की मेहनत से जमा पैसे एक सिक्युरिटी एजेंसी में जमा
कराये और लग गया गार्ड की नौकरी पर. शादी के वक्त तक तो वहीं नौकरी करता रहा था.
जब रमावती ने उसे अपने गर्भवती होने की बात बताई...तबसे उसे रमावती के स्वास्थ्य
और अपने होने वाले बच्चे की चिंता कुछ ज्यादा ही सताने लगी. साल भर के अंदर ही
बिट्टू का जन्म हुआ. अब रामकुमार की परेशानियाँ बढ़ गयीं थीं क्योंकि जरूरतें पहले
से ज्यादा थीं, जिसे शहर में सिक्युरिटी गार्ड की नौकरी करने से पूरी कर पाना बहुत
ही मुश्किल था. पहले शादी फिर बिट्टू के जन्म बाद वह खुद ही ज्यादा समय गाँव में
बिताने लगा था जिससे कि उसकी पहले की कमाई अब आधी रह गई थी. लाख प्रयास करने बाद
जब उसके मन लायक शहर में कोई नौकरी नहीं मिली और जब उसे कोई उपाय न सूझा तो उसने
अपने गाँव के समीप कस्बेनुमा चट्टी भरतपुर में आनाज की खरीद-बिक्री का काम शुरू कर
दिया.भरतपुर चट्टी ही रामकुमार के गाँव का बाजार था जहाँ से उसके गाँव के लिए बसें
मिलती थीं. रामकुमारवहींअपने गाँव के मोड़ पर तराजू-बटखरे के साथ रोज बैठने लगा.
गाँव से जो भी लोग आनाज लेकर आते, वहउन्हेंभरतपुर मोड़ पर ही रोक लेता और नगदी देकर
खरीद लेता. इस तरहउसने अपने कारोबार की शुरुआत की. धीरे-धीरे उसकी समझ इस कारोबार
में बढ़ने लगी और उसे मुनाफ़ा नजर आने लगा. एक दो बार उसने एक सेठ के लिए तीन-चार
ट्रक चावल भरतपुर क्षेत्र से खरीदकर उत्तरी बिहार के खगड़िया की मंडी में बेचवाई
थी. जिसमें पहली बार उसे एक बड़ा मुनाफ़ा हुआ. बाहर-भीतर की समझ तो उसे पहले से ही
थी, लेकिन इस बड़े मुनाफ़े ने उसे आत्मविश्वास से भर दिया. डेढ़वर्षों तक उसने भरतपुर
में रखकर लगन से काम भी किया. नए व्यापार के तौर तरीके उसने सीखे भी और आजमाया भी.
उसकीमेहनत रंग लाने लगी थी. दो साल बीतते-बीतते उसने पटना में आनाज के थोक
खरीद-बिक्री का कारोबार शुरू कर लिया. अभीनिवेश ही ज्यादा है, उसका मुनाफ़ा शुरू भी
नहीं हुआ है. लेकिन उसे विश्वास है कि आने वाले कुछेक वर्षों में वह जरूर फ़ायदा
कमायेगा. नए कारोबार ने उसकी व्यस्तता बढ़ा दी है. पहली बार वह बिजनेस की
जिम्मेदारियों सेअवगत भी हुआ है. उसकेज्यादातर समय शहर के छोटे-बड़े व्यापारियों,
बाजार समिति के कर्मचारियों और गोदामों के अध्यक्षों से मिलने जुलने में बीतता है.
आनाज के बिजनेस में तो इन्हीं की चलती है न आजकल. गोदाम वालों ने तो करोड़ों बना
लिए सिर्फ दो-तीन सालों में आनाज भंडारण और खरीद-बिक्री के नाम पर. कैसे बनाये
करोड़ों...? रामकुमार धीरे-धीरे इन सभी बातों को समझ रहा है. अपने बिजनेस में वह इस
कदर डूब गया है कि उसका गाँव आना धीरे-धीरे कम होता गया है. वह आता भी है तो
कभी-कभार त्योहारों पर या फिर किसी काम के सिलसिले में. पर हाँ, जब कभी वह गाँव
आता है तो रमावती से जरूर वायदा करता है कि उसे कुछ महीनों में अपने साथ रहने के
लिए शहर ले जाएगा. उसकी बातों को सुनकर रमावती जैसे फूली नहीं समाती. दो-चार दिन
अपने गाँव में रहकर रामकुमार फिर वापस पटना लौट जाता है. उसके साथ गुजारे दो-चार
दिनों की यादें ही अगले चार-छः महीनों के लिए सहारा बनती हैं. रामकुमार के साथ
गुजारे उन्हीं दिनों के कुछ रेशे आज भी रमावती को फिर गुदगुदा रहे हैं. इसलिए
सुबह-सुबह आंगन बुहारते वक्त रमावती को अनायास ही अपने पति का “रमा” कहकर पुकारना
याद आ गया है.
कहनेको तो सावन का महीना शुरू हो चुका है. पर आज
तक वर्षा-मेघ का एक टुकड़ा नजर नहीं आया. आषाढ़तो छूछे ही बीत गया. इसी तरह कुछ
हफ्ते और गुजर गए तो अकाल के मंजर दिखने लगेंगे. गिरहत के बीया-बिहन तक का खर्चा
नहीं निकल पायेगा. इस जवार के किसानों को तो खरीफ़ की फ़सल का ही सहारा रहता है न!
सब्जी-तरकारी कुछ भी तो नहीं होता इस क्षेत्र में जो खरीफ़ के नुकसान को पूरा कर
पाएं. कौन जाने रबी का मिज़ाज कैसा हो?
सुबहसे ही गर्मी बहुत ज्यादा है. आसमान में
दूर-दूर तक आवारा बादलों के टुकड़े नज़र नहीं आ रहे. सूरज की किरणें जरूर तिरछी पड़
रही हैं. ओसारे से बाहर निकलो तो लगता है जैसे किसी तरकश के कुछ तीर एक साथ शरीर
में चुभ रहे हों. आँगनबुहार चुकने के बाद हर दिन की तरह आज भी रमावती आँगन के
बीचों-बीच लगे नीम के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठकर सुस्ता रही है. गर्मी की
वजह से उसका सारा बदन गीला हुआ जाता है. पसीने से उसकी साड़ी पूरी तरह से लथपथ है
और उसके लालब्लाउजदोनों काँखों के पास गाढ़े रंग के गोल-गोल चकते बन चुके हैं. अपने
पसीने से तर चेहरे को वह बार-बार अपनी साड़ी के पल्लू से पोंछती है. फिर उसे पंखे
की तरह झलती है. ऐसा करने से थोड़ा आराम-सा महसूस हटा है उसे. वह मन ही मन
बुदबुदाती है.
- “ओफ्फ...हवा त जइसेदम साधले बिया. नीम के पेड़
के एको पत्ता नइखे डोलत. अब भगवाने जानत होइहें कि अबकी कैसे ई जवार के लोग जिन्दा
रही. ई सब त अकाल के लक्षण बा..आ बेमारी के घर भी.”
एक अफ़सोस उसके चेहरे को अपनी आगोश में ले लेता
है.वह थोड़ी रुआंसी हो जाती है आजकल. जल्दी थक भी जाती है. दुबारा गर्भवती जो है.
आठवां महिना चल रहा है उसका. ज्यादा देर तक खड़ा हुआ नहीं जाता उससे. न जाने कमज़ोरी
सी लगती है उसे. इसके बावजूद उसे ही घर के सारे काम निपटाने होते हैं. अभी तक तो
वह घर की एकलौती बहू है. काम करने के अलावा और कोई चारा है क्या उसके पास? उसकी
छोटी सी भूल पर तमाशा बन जाता है इस घर में. सास और देवर दोनों ने जैसे तमाशा करने
का ठेका ले रक्खा है. एक बार तमाशा शुरू हुआ तो कई दिनों तक अलग-अलग पार्ट में
चलता रहता है. इधर एक-डेढ़ हफ़्ते से उनलोगों ने तमाशेको विराम दिया हुआ है. रमावती
को इस बात का डर लगा रहता है कि पता नहीं कब, किस बात पर ये लोग फिर शुरू हो जाएँ.
वह तो बिलकुल ही नहीं चाहती कि घर में हल्ला-हंगामा हो. उसे भय होता है इन सब
बातों से. आस-पड़ोस में होने वाली शिकायत से. दोष किसी का भी हो, इल्जाम तो उसी के
सिर आता है कि वह कामचोर है, आलसी है, काम ही नहीं करना चाहती वगैरह...वगैरह.
ज्यादा कुछ हुआ तो उसके नैहर की तमाम कमियाँ, शिकायत लेकर शुरू हो जाती हैं उसकी
सास. देवर उनकी हाँ में हाँ मिलाता रहता है. इन सब बखेड़ों से दूर ही रहना चाहती है
रमावती. इसलिए तमाम मुश्किलों के बावजूद वो उन्हें खुश करने की हरसंभव में लगी
रहती है. बड़ी तन्मयता से घर के काम निपटाती है.
पल्लू से पंखा झलने के बाद रमावती ने अपना
चेहरा, दोनों बाजुओं और गर्दन से टपक रहे बेतरतीब पसीने को फिर पोंछा. पसीना पोंछचुकने
के बाद उसने साड़ी के पल्लू को अपनी कमर में खोंसना चाहा ताकि झुक कर बिनाकिसी
परेशानी केबचे हुए आंगन में झाड़ू कर सके.पल्लू कमर में खोंसते वक्त उसके हाथउसके
उभरे हुए पेट को छू गए. उसकीआजन्मी संतान कोख में शायद बड़े प्रेम से, बड़े आराम से
सो रही थी. बाहर के किसी भी व्यवधान से बेफिक्र.उसका बिट्टू भी तो इसी तरह प्रेम
से सोता था न! सोते वक्त कितना मासूमदीखता था वह. उसके सामने घंटों बैठकर निहारा
करती थी वो उसे. बिट्टू का जाना उसके लिए सदमें से कम नहीं था. उसकी यादें दिल से
जैसे निकलती ही नहीं. एक अफ़सोस...किसी फांस सा हरवक्त उसके सीने में जैसे चुभता
रहता है. बिट्टू को याद करके उसकी आँखें अनायास ही बरसने लगती हैं और कलेजा भारी
हो जाता है.बिट्टू, रमावती की पहली औलाद...बेटा. डेढ़ साल कारहा होगा जब उसने इसी
नीम के पेड़ के नीचे चबूतरे पर उसकी गोद में दम तोड़ा था. छः महीनेसे ज्यादा हो गए
बिट्टू को गए हुए. पर आज भी उसकी यादें रमावती को घेरे रहती हैं. वह फूट-फूट कर
रोने लगती है. यादों के भँवर में डूबती-उतराती रहती है रमावती. आस-पड़ोस के लोग,
रिश्ते की ननदें, बुजुर्ग दादियाँ, चाचियाँ-ककियाँ.., सब तो समझाती रहती हैं उसे,
- “अब त रोवल-धोवल बंद कर दे, ना त तोर तबियत
ख़राब हो जाई.खाना पीना टाइम से खाइल कर ना तो आवेला वाला लइका के स्वास्थ्य पर
ख़राब असर पड़ी.”
रमावती तो माँ है न! लाख चाहने के बावजूद बिट्टू
की यादें दिल से जाती ही नहीं. सुबहआँगन बुहारते वक्त उसे महसूस होता कि वह उसके
सामने ही खेल रहा है, बीच-बीच में उसकी ओर देख कर शरारत से मुस्कुरा रहा है. शाम
को अलगनीसे कपड़े उतारते वक्त लगता है.जैसे वह उसका पल्लू पकड़े पीछे-पीछे चल रहा
है.रमावती को लगता जैसे वह उसकी साड़ी से उलझ कर गिर पड़ेगा.वह उसेसँभालने के लिए
पीछे की ओर पलटती...बिट्टू कहाँ है? उसका राजा बेटा! उसकालाडला! अब तो माँ-माँ भी
बोलने लगा था. दिन भर तो उसका पल्लू पकड़े घर-आंगन में पीछे-पीछे घूमता रहता था.
कभी कमरे में, कभी ओसारे तक, कभी आंगन में नीम के पेड़ वाले चबूतरे पर.रमावती जहाँ
जाती, बिट्टू उसके साथ ही रहता. जब रमावती रसोई में रोटियाँ सेंक रही होती, वह
उसके पास ही बैठा कठवत में गूँथे आंटे से खिलवाड़ करता रहता. अपनी माँ को आटे की
गोल-गोल रोटियाँ बनातेदेख कर उसे भी रोटी बनाने की इच्छा होती. वहअपने
नन्हें-नन्हें हाथों से छोटी-छोटी गोलियां बनाता.जिसकी छोटी-छोटी रोटियाँ बनाकर
रमावती बड़े प्यार से अपनी बड़ी रोटियों के साथ तवे पर सेंका करती थी. कितना खुश
होता था वो. अपनी छोटी-छोटी रोटियों को तवे पर उलटते-पलटते देख कर खड़े होकर मस्त
हाथी की तरह झूमने लगता था वो.बिट्टू के जन्म के बाद पति रामकुमार लगभग व्यस्त ही
रहने लगा था. गाँव कम ही आता था. उसकी अनुपस्थिति में तो जैसे हर सुख-दुःख को साझा
करने और बांटने का सहारा था वह. घर के कामों के साथ रमावती के और भी काम थे.मसलन
बिट्टू को नहलाना, धुलाना, पाउडर-काजल लगाकर तैयार करना.उसके ललाट के बायीं ओर
कोने पर रमावती काजल का टीका लगाना नहीं भूलती थी. ये सब करते हुए उसके दिन आराम
से अपने बेटे के साथ कटे. दुनिया भर की तमाम बातें किया करती थी वह उसके साथ. उसे
अच्छे सकूल में भेजने से लेकर उसे बड़ा आदमी बनाने तक.फिर उसकी शादी करवाने और
बहुरिया लाने की बातें. बहुतेरे सपने देख डाले थे उसे लेकर. आम आदमी के सपने भी आम
ही होते हैं. लेकिन अचानक से एक पल ऐसा आया जिसने उसके सपने बुरी तरह तहस-नहस कर
डाले.सपने मिट्टी के खिलौनों जैसे ही तो होते हैं. सुन्दर, सलोने, आकर्षक और
बिलकुल अपने से !लेकिन जब ये टूटते हैं तो इनका वजूद मिट्टी हो जाता है.
रमावती याद कर पा रही है कि उसदिन क्या हुआ था.
ब्याह कर ससुराल आने के बाद से घर का हर काम वही तो करती आई है, आज भी करती है.
लगभग पाँच साल होने को आये.ये तो उसकी नियमित दिनचर्या बन गयी है. सुबह-सुबह घर-
आँगन बुहारना,चूल्हे-चौके की लिपाई, रसोई के बर्तन धोकर लेवन लगाना(बर्तन की तली
में मिट्टी और राख का लेप लगाना ताकि चूल्हे पर वो जले नहीं), चूल्हे को सुलगाना,
ससुर –देवर के लिए चाय बनाना (सास चाय नहीं पीतीं), घर भर के कपड़े, चादर, बेडशीट
आदि धोना –सुखाना...सारा दिन तो काम में ही बीत जाताथा. फिर भी उसकी सास उससे कभी
संतुष्ट नहीं रहतीं.दिन भर नौकरानी जैसे खटने और घर का इतना सारा काम करने के
बावजूद उसे सास के ताने सुनने पड़ते. उनको लगता था कि आराम करती है रमावती. कई बार
उसने खुद अपने कानों से सास को अड़ोस-पड़ोस की औरतों से शिकायतउसकी शिकायतें करते सुना
था...
- “रामकुमार के बाबूजी से ठगहारी में पड़ गइलन.बड़ा
गलत घरे बियाह भइल.हमार त मने जुड़ा गइल बा पतोह से.बेमरिया हिय!पताना नाटक करेले
कि का त.दिन भर त इनकर तबीयते ख़राब रहेला...
‘नक जतनी बेटी आउर कख जतनी पतोह’
फलनवा बो के देखालुहा.कइसन सुभेख पतोह उतरल
बिया.बड़ा भाग से ओइसन पतोह मिलेली स..कौनोकाम ना करेदेवेलेउनका के.एगो हम बानी कि
बेटा जन्मा के पछता रहल बानी.”
रमावती की सास के हिसाब से बहू को कोल्हू के बैल
की तरह जुते रहना चाहिए. रामकुमार की शादी के वक्त लेन-देन को लेकर कुछ विवाद हुआ
था. रमावती को लगता है कि उसकी सास के बर्ताव की एक वजह यह भी है...बाकि जो है सो
है ही.
स्कूल की उम्र में पढ़ाई-लिखाई छुड़ा कर ब्याह दी
गई थी रमावती. पति की उम्र उससे दो-तीन साल ही ज्यादा थी. अभी खेलने-खाने के दिन
थे उसके. रमावती को तो शुरू में सास के सिर्फ ताने ही सुनने को मिलते थे. लेकिन
जैसे-जैसे दिन बीतते गए सास ने गाँव-देहात की मनोहर गालियाँ भी देनी शुरू कर दीं.
कभी बाप, कभी खानदान की. वे देवर और ससुर को भी उकसाती थीं कि रामकुमार की
अनुपस्थिति में रमावती को मारे-पीटें. देवरउसके साथ अक्सर गाली-गलौज तो करता ही
था.कभी-कभी आवेश में हाथ भी उठा देताथा. ऐसा नहीं था कि रमावती ने अपने देवर की
शिकायत रामकुमार से नहीं की थी...लेकिन दबी जुबान में ही, थोड़ा सहमते
हुए.रामकुमारअपने छोटे भाई से बेहद प्यार करता था. रमावती की बातोंको उसने कभी
गंभीरता से लिया ही नहीं. वह हंस कर टाल देता और कहता
- “पहिले अपना के ठीक रख.सबके लायक बन,ना त देवर
के छोड़ तोर आपन बेटाबिट्टू भी तोर कदरना करी.खुद के संभाल के रखबे नु.त दोसर कोई
अपने आपे ठीक हो जाई.”
रमावतीहर संभव कोशिश कर रही थी कि सबको खुश रख
पाए. लेकिन उसके ससुराल के लोग मानों आँगन में लगे नीम के पत्ते जैसे थे, बिलकुल
ही छोटी मानसिकता के.पत्तों के जैसे अलग-अलग रूप तो थे ही.फितरत भी भिन्न थी. घर
में किसी न किसी बहाने रमावती को भला-बुरा सुनना ही था. रामकुमार रमावती से प्यार
जरूर करता था, लेकिन वो था कान का जरा कच्चा. सबसे बड़ी बात अपनी माँ की कुछ ज्यादा
ही सुनता था. किसी भी सच का उसको एक ही भाग दिखाई देता.वह भी जिसपर सामने वाला
प्रभावशाली ढंग से रौशनी डाल रहा होता.
रमावती को शादी के बाद की एक घटना अक्सर याद आते
ही उदास कर जाती है. जब सास नेउसका जीना हराम किया हुआ था.रामकुमार से उसे बहुत
उम्मीद थी.लेकिन उससे भी उसे कोई मदद नहीं मिल पाई.मायके से ब्याह कर आते ही सास
ने उसके सारे गहनों पर कब्जाकर लियाथा.पिछले साल जेठ में जब अपनी चचेरी बहन की
शादी में जाने से पहले रमावती ने सास से अपने कंगन मांगेतो पहले उन्होंने ना-नुकुर
की फिर साफ़ शब्दों में मनाकर दिया. उसे समझ में नहीं आया कि वह क्या करे! नइहर
जाने से पहले उसने रामकुमार से बात चलाई थी. सोचा था कि शायद रामकुमार उसे समझेगा
और माँ से कंगन कुछ दिनों के लिए दिला देगा. दोपहर के वक्त जब कोई भी घर में नहीं
था तो उसने रामकुमार से इस बात का जिक्र किया था. रामकुमार उसवक्त खाने पर बैठा
हुआ था और रमावती उसे पंख झल रही थी. रमावती के बातें सुनकर उसने तुनककर खाने की
थाली को झट से उठाकर आंगन में फेंक दिया और तिलमिला कर उठ खड़ा हुआ. उसका चेहरा
गुस्से से लाल हो उठा था. लगभग गरजते हुए उसने कहा,
- “देख रमा! इ सब बात तोहरा आउर माई के बीच के
ह.हमरा के ई सब झमेला में खींचे के कोशिश मत कर. माई तोर सब गहना सम्हार के रखले
ही बिया नु.खा त ना जाई तोर सब गहनवा! ” रामकुमार का क्रोध बोरसी के धुएं सा ऊपर
ही उठता जा रहा था.
-“गहनाना झमकइबु त का बियाह, बियाह नियन ना लाग
के मातम जइसन लागी का?”
रमावतीको तो जैसे काटो तो खून नहीं. वह चुपचापसब
सुनती रही. उसके पास रामकुमार के अगियाये हुए सवालों का कोई जवाब नहीं था. उस समय
उसके दिमाग में जैसे एक साथ कई बिजलियाँ चटकने लगीं थीं. मन रोने को हो आया. पति
के सामने वह रोती तो और भी भला बुरा सुनना पड़ता. उसके गुस्से को देखकर सहम गई थी
रमावती. उसने अपने पति से कुछ नहीं कहा और बिना कंगन लिए शादी का नेवता पुराने
नैहर चली गई. मायके में ठीक वैसा ही घटित हुआ जिसकाडर रमावती को था. उसकाडर
बेबुनियाद नहीं था. कारण कि वह अपने गाँव के गोतिया-पाटीदारों के स्वाभाव से वाकिफ़
थी. बारात के दिन एक भौजाई ने उससे पूछ ही लिया,
-“अरे रमावती! तोर हाथ में कंगन नइखे देखाई
देत.कहाँ रख अइलिस. गहना-गुरिया त काज-परोजन में पहिरे वाला चीज नु ह. वैसे तोर
कंगन बड़ा नीमन लागत रहे बियाह के समय. तोर ससुरार वाला सब त बियाह में ओकरा चढ़वला
के बाद बड़ा तमाशा कइले रहन स.”
रमावतीने मुस्कुराकर बात बदलने की कोशिश की. पर
उसकी भौजाई उसे कहाँ छोड़ने वाली थी. बोलते-बोलते वो थोड़ी देर रुक जरूर गई थीं
लेकिन चुप नहीं हुई थीं. उन्होंने कनखिया कर रमावती के उड़े हुए चेहरे का रंग
निरेखा फिर मुंह बनाते हुए बोलीं,
- कहीं अइसन त ना भइल नु कि गाँव में केहू से
उधारी मांग के चढ़ा देले होखिहन लोग.बड़का कहाय खातिर.हमनी पर आपन रॉब गाँठे खातिर.काहे
के कि अइसन बहुत हाली भइल बा हमरा गांव में! ”
तब तक रमावती और उसकी भौजाई के आस-पास कुछ औरतें
जमा हो गईं थीं. भौजाई की बात सुनकर सभी जोर से ठठाकर हंस पड़ीं. रमावती पर तो जैसे
सैकड़ों घड़े पानी पड़ गये थे. बहुत ही बुरा लगा था उसको. चाहा कि भौजाई को पलटकर
जवाब दे कि
-“इ सब तहरा गाँव पर होत होखी..हमरा ससुरारी नाहोला.”
पर बात के बतंगड़ बन जाने के भय से वह कुछ नहीं
कह सकी. वह मन मसोसकर रह गई. भौजाई अकेले रहती तो बात दूसरी थी. इसलिएरमावती को
लगता है कि रामकुमार उसे बिलकुल भी नहीं समझता. इस तरह की घटनाएं घर में कई बार हो
चुकी हैं जब रामकुमार ने उसका साथ नहीं दिया था. वह तक़रीबन अकेली, अलग-थलग पड़ जाती
थी. घर में रमावती के ससुर भले मानस थे. वो कभी-कभार हाल-चाल पूछ लेते थे, जब भी
रमावती उनके लिए नाश्ता या खाना लेकर जाती. ये बात और थीकि उनकी अपने घर में चलती
नहीं थी. रामकुमार के शहर में कारोबार से घर में रमावती की परेशानियाँ कई गुना बढ़
गयी हैं. बिट्टू के जन्म के बाद अपने परिवार के भविष्य को लेकर ज्यादा सोचने लगा
है वह. कारोबार में भी तमाम दिक्कतेंहैं. एक नए आदमी के लिए बिजनेस में असफल होना
कोई नयी घटना तो नहीं होती है न . इसलिए सबकुछ समझते हुए रामकुमार ने अपने ध्यान
कारोबार पर लगाया. रमावती ने बाद में कभी भी घर की बातों को उससे कहने की कोशिश नहीं
की. अब कौन भला बलाय मोल लेने जाय.
इधर घर में देवर की नजर कब ख़राब होने लगी, इसका
अंदाजा रमावती लगा ही नहीं पायी. वह तो घर के कामों से फुर्सत मिलते ही बिट्टू के
साथ व्यस्त हो जाती. उसकी अपने चिंताएं भी तो बहुतेरी थीं. इधर कुछ दिनों से देवरदबे
पाँव उसके कमरे में आने लगा था. कोठरी के अँधेरे में रमावती के शरीर को इधर-उधर
हाथ लगाता था. रमावती शोर करने की घुड़की देती तो वापस चला जाता. अपने सास से कई
बार कहने की कोशिश क्या था रमावती ने.पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया. इसी तरह से
चलता रहा. रमावती खुद को बचाये रखने की भरसक कोशिश कर रही थी. उसे याद है कि उस
रात वह तीन-चार बार कमरे में आया था. रमावती ने दरवाजाभी अच्छी तरह से लगाया था. पर
पता नहीं उसने कैसे खोल लिया और सीधे उसके बिस्तर के पास आकर उसके शरीर से खिलवाड़
करने लगा. रमावती की नींद तो पहले ही उड़ चुकी थी.रमावती ने उसका विरोध किया. लेकिन
वह नहीं माना. जबरन बदतमीजी पर उतर आया.रमावती और उसके देवर के बीच खींचतान शुरू
हो गई. कमरे में हल्का शोर होने लगा. कमरे में शुरू हुई इस अचानक की हलचल से
बिट्टू की नींद खुल गई. अपने चारों तरफ अँधेरा और खचर-पचर की आवाजें सुनकर वह रोने
लगा. बिट्टूकारोना सुनकर देवर को लगा कि हो सकता है बाबूजी और अम्मा जाग जाएँ और
उसकी करतूत उजागर हो जाए. तब तो बड़ी फ़ज़ीहत हो जायेगी. इस आशंका से वह घबरा गया और फ़ौरनउस
कोठरी से अपने कमरे में वापस लौट आया. देवर के जाने के बाद रमावती ने खुद को
संभाला और रोते हुए बिट्टू को चुप कराने लगी. उसका दिल जोरों से धड़क रहा था. जैसे
कोई टीन की छतको जोर-जोर से पीट रहा हो. रमावती उस रात ठीक से सो नहीं पायी. देवर
की हिमाकत बढ़ चुकी थी. उसने पहली बार इस तरहउसके साथ जोर-जबरजस्ती करने की कोशिश
की थी. रमावती का दूसरा महीना चल रहा था. भेड़िये के मुंह में अब खून लग गया था तो
वह चुप नहीं बैठेगा. रमावती इसकी कल्पना करके ही सिहर उठी थी. बिट्टू को थपकी दे
देकर वहकिसी तरह उसेसुलाकरसोने की कोशिश करने लगी थी, पर नींद जैसे आँखों से कोसों
दूरनिकल गयी थी.खुली आँखों के बीच हीरात का तीसरा पहर बीत गया.नींद नहीं आने की
वजह से आँखों में कुछ चुभ रहा था. पहले पहल उसने सोचा कि सुबह रामशक्ल बनिए के
दुकान से एक फ़ोन करके रामकुमार को सारी बात बता दे.जो कुछ भी उसके साथ हुआ है.
लेकिन उसके बनिए के नीयत के बारे में काफी कुछ सुन रखा था. वह चुपके से गाँव की
नयी नवेली दुल्हिनों और नयी-नयी शादी हुई लड़कियों की बातें सुना करता था.फिर उसने
सोचा कि इतनी जल्दीबाजी ठीक नहीं रहेगी. पहले घर में ही वह इस बात को लेकर
सास-ससुर से शिकायत करेगी. उसके बाद भी अगर देवर अपनी आदतों से बाज नहीं आया तो
रामकुमार के इस बार घर आने पर सारी बातें बता देगी. अभी फ़ोन कर देने से ये हो सकता
है कि वो अपना काम छोड़-छाड़ कर गाँव चले आयें. फिर एक अलग तमाशा यहाँ शुरू हो जाए
और बात उलझ जाए. इन सभी बातों के बीच एक अनहोनी की आशंका से भी वह डर रही थी.
रमावती कतई नहीं चाहतीथी कि उसका पति परेशान हो जाए. वैसे भी कारोबार का तनाव कम
नहीं थाउसपर. शंका-आशंका और इधर-उधर की बातें सोचते-सोचते रमावती को आखिरकार नींद
आ ही गयी. अँधेरे में वह अपने बिस्तर पर निढाल पड़ गयी.
सुबह देर तक सोती रही रमावती. एक भयानक सपना
देखकर उसकी नींद खुली. सपने में उसेअपने मायके का घर दिखा था. उसके दादी के कमरे
से तेज आग की लपटें उठ रहीं थीं. वे जोर-जोर से चीख रहीं थीं. उनको आग में घिरा
देख रमावती भी बदहवास चीखने की कोशिश कर रही थी. लेकिन उसके गले से आवाज नहीं निकल
पायी. इसीबीच उसकी नींद टूट गयी. वह अंदर से बहुत डर गयी थी. यह कैसा सपना था?रात
को जो भी हुआ था उसने उसे मानसिक रूप से प्रताड़ित कर दिया था और अब यह सपना...कौन
सा अमंगल समाचार अब सुनने को मिलने वाला था? वह आशंकित हो उठी और बेचैन भी...अचानक
से उसे रामकुमार का ख्याल आया. फिर उसे लगा कि रात को देर से सोने की वजह से तो
ऐसे बेढंगे विचार तो नहीं आ रहे ?उसका पति सलामत रहे...जाने कैसी-कैसी बातें सोचने
लगी हैवह?...रमावती मन ही मन बुदबुदाई.
तेज धूप रोशनदानों से उसके कमरे में आ रही थी.
लगभग उजाला-सा हो चुका था उसकी अंधेरी कोठरी में. उसे महसूस हुआ कि काफ़ी देर तक
सोती रही है वो. बिट्टूअभीतक सो रहा था. उसने बड़े प्यार से उसके चेहरे को चूमा.
फिरकोठरी से बाहर निकल आई. उसने अपने दरवाजे पर रखे झाड़ू को उठाया और बरामदे की
सफ़ाई करने के लिए झुकी, तभी उसकी नज़र अपनी सास पर पड़ी.सासबर्तन धोकर चाय बना रही
थीं.उनका मुंह फुला हुआ था. रमावती को देखते ही उनकी चढ़ी हुई त्योरियाँ कुछ और
तीख़ी हो गयीं. ससुर और देवर आँगन में ही पीढ़े पर बैठकर कुछ बातें कर रहे थे.
रमावतीथोड़ा सा ठिठकी फिर उसने बरामदे में झाड़ू लगाना शुरू कर दिया.देवर ने रमावती
को झाडू लगाते देखा तो पहले सकपकाया. रमावती अपने काम में लग गयी थी इस वजह से
उसने उसे देखा तक नहीं. वह थोड़ा संभल गया. उसे लगा कि रमावती उसे कल रात को लेकर
कुछ नहीं कहने वाली. लेकिन कब रमावती के मुंह से कुछ निकल जाए.ये बात उसे जरा
परेशान कर रही थी. वह कुछ देर तक तो चुप रहा. फिर अपनी माँ यानि रमावती की सास की
ओर मुखातिब हुआ.
- “ए माई! बियाह भइला पर तू कबो देर-सबेर उठत
रहिस की ना...आजी (दादी) तोरा के कबो कुछ बोलत रही की ना!”
रमावती की सास चूल्हे में गोइंठा तोड़कर लगा रही
थी. उसका ध्यान पूरी तरह चूल्हे पर ही था कि कहीं उसकी आंच कम हो गयी तो चाय
धूंअत्तु हो जाएगी. उसने कुछ कहा तो नहीं पर अपने बेटे की तरफ देख कर बड़ी कुटिलता
से मुस्कुरा दिया. रमावती अपने देवर को कभी मुंह नहीं लगाती थी. व्यंगात्मक लहजे
में छींटाकशीकरनाऔर बिखियाकर बोलना तो जैसा उसका हर दिन का ही नियम बन चुका था.
इसलिए देवर जब भी कुछ कहता वह चुप्पी साध लेती थी. उसका दिमाग जैसे इन सभी अनर्गल
बातों को सुनने या फिर ग्राह्य करने की अनुमति नहीं देता था. इसलिए अभी देवर के
ताने उसे विचलित नहीं कर पा रहे थे. उसे उसकी औकात मालूम थी. अपनी माई का पिट्ठू! वह चुपचाप भावहीनचेहरे सेअपने काम में
लगी रही. देवर ने देखा कि रमावती कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रही है, तो उसका छिछोरापन
बढ़ गया. इस बार वह रमावती को ठीक सामने से जाकर आँखे दिखाते हुए बोला,
-ए भौजाई! हमार माई के हतना उमिर हो गइल.तबो उ
समय से उठ जाले आ घर के सब काम करेले.तू का अपना के डुमरांव स्टेट के बेटी बुझेलू
का.कि रोज नया-नया चाल देखावत रहेलू.हमार माई दाई-उई त ना नुह.कि उ काम करी आ तू
पेट फुला के दिन भर सुतबु!”
देवर को इस तरह सामने सेआँखेंमिलाकर बोलतेहुए
देख रमावती के सब्र का जैसे बाँध हीटूट गया.उसके रोम-रोम में जैसे आग लग गयी.इतने
दिन से तो वह अपमान का घूँट पी ही रही थी लेकिन आज चरित्रहीन देवर का इस तरह से
बोलना उसे अखर गया.उसका मन हुआ कि अपने हाथों में पकड़े हुए झाड़ू से देवर कीअच्छीमरम्मत
कर दे.लेकिन वह यह सोच कर ही रह गयी, हिम्मत नहीं जुटा पायी.जिस देवर का कोई
चरित्र ही नहीं था वह उसे आँखें दिखा रहा था. उधर रमावती की सास अपने पति को चाय
दे चुकी थी. उसने देवर को भी आवाज दी कि वो भी आकर चाय ले ले.उनको चाय दे चुकने के
बाद वह ओसारे में पड़ी खाट पर अपने पति के ठीक सामने जाकर बैठ गयी. वह रमावती को
कितने दिनों से खरी-खोटी सुनाने का समय देख रहीं थीं पर कोई सही बहाना नहीं मिलने
से यह बकाया था अभी तक. आज रमावती के देर से उठने की वजह ने उन्हें यह मौका दे
दिया था. उन्होंने अपने बेटे की ओर देखते हुए आँखें मटकाई और अपने पति की ओर देखते
हुए हर बार की तरह तीखे लहजे में जोर से बोल उठीं,
- “हम त शुरू से कहत रहीं कि कुलच्छन
गाँव-घर के बेटी सब के आपन घर में ना ढुके देवे के. जन्मतुए बिगड़ल होली स. इहनी से
काम-धाम त कुछ होला ना.ओहपर से एक नम्बर के नकचढ़! अपना मरद के बहला-फुसिला के मति
फेर देवेली स.अलगा-बिलगी करावे के त जैसे पेट से ही सीख के आवेली स.इहनी के खनदनवे
ख़राब होला.देखनी हा नु कि रमकुमरवा पिछला दू-तीन बार से घरे त आइल हा, लेकिन हमनी
के कुछ दे के गइल हा का? बियाह से पहिलेकैसे माई-माई करके बतियावत रहे.”
फिर अपने पतिकीतरफ़ आँखें तरेरते हुए बोलीं- “हम
रउवा के पहिले ही समझइले रहीं कि इ सब गाँव में हितई ना बनावे के, लेकिन रउवाआँखिन
पर त जैसे माड़ चढ़ल रहे. हमार बात त न सुनले रहीं नु.अब देखीं तमासा !अगुअवा औरु
एकर बाप राउर मति फेर लेले रहन स. एक त एकर बाप दहेज़ में ठेंगा धरा देहलन.आ अब
बेटियो आपन निमनका रूप देखा रहल बिया.”
आज सब पुराना उघटा-पाईच कर रही थी रामकुमार की
माँ. रमावती को जैसे काठ मार गया था. उसकी बुराई.उसके पति की शिकायत, उसका मायका,उसके
पिता,उसका खानदान... कितने बाण चलाये जा रहे थे उसको निशाने पर लेकर! निशाना वो थी
लेकिन शिकार कोई और होरहाथा. रमावती को लगा जैसे उसकी हाथों में चल रहा झाडू जैसे
अचानक ही भारी हो गया था. फिर भी उसने झाड़ू करना जारी रखा. किसी न किसी बात को लेकर
रमावती के मायके की शिकायत इस घर में आम बात थी. वह जब से ब्याह करके यहाँ आई, तब
से किसी न किसी बहाने उसके मायके की बुराईहो ही जाती थी. वह चुपचाप सुन भी लेती
थी. लेकिन अब उससे सहन नहीं हो रहा था. उसे लगा कि अगर आज वह नहीं बोली तो ये
सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा. वह यूँ ही प्रताड़ित होतीरहेगी.रात में जो कुछ भी हुआ
उससे उसकी सहनशक्ति जवाब दे गई थी. अन्याय सहना भी तो पाप है. आखिर कब तक सुनेगी
वह सास-देवर के ताने, जबकि उसका कोई कसूर भी नहीं था. इन सभी बातों को सोचते-सोचते
उसने अचानक ही झाड़ू करना बंद कर दिया. वह रुक गई और धीमी आवाज में बोली
- “आजे नु खाली देर से उठानिहा. मानतानी कि गलती
हो गइल हमरा से..ओकरा खातिर क्षमा चाहब. लेकिन एगो निहोरा हम रउवा से करब
कि...बार-बार हमार गलती के दोष हमार नइहर पर मत मढ़ल जाए..इस बात ठीक नइखे.”
रमावती की सास को उसका इस तरह से जवाब देना नहीं
सुहाया.मुंह बिचकाते हुए वह बोली,
- “ठीक बात नईखे...? अंडा सिखइहन बाचा के कि
चेंव-चेंव कर! अब खरबकन के ख़राब न कहल जाई तो नीमन कहल जाई का.”
-“ राउर घर के लोग कवन बात में नीमन बा लोग? और
कवन ममिला में...? तनी हमहूँ सुनीं.”
आज रमावती जैसे रुकने वाली नहीं थी. वहएक ही
सांस में जैसे सब कुछ बोल देना चाहती थी. कई दिनों से मन के अन्दर जो भावनाओं का
अंधड़ चल रहा था,वह आज रिश्तों के छप्पर उड़ादेने वाला था. फ़िलहालरमावती के तेवरअभी
तो यही भान करा रहा था. वह बोलती चली गई,
- “ हमार बियाह राउर घर में करके हमरा नइहर के
लोग जैसे लाइसेंस दे देले बा का कि हमेशा उनकर शिकाइत करत रहीं.पाहिले आपन घर के
देखीं, ओकरा बाद हमर नइहर के शिकाइत बतियाइब!” गुस्से से लाल हो उठा था रमावती का
चेहरा.
इतना बोलकर उसने अपने सरकते हुए आंचल को फिर से
अपने सिर पर वापस खींचा और ढाबे के सफाई में पुनः जुट गयी. रमावती पहली बार इतने
गुस्से में बोली थी. सास और देवर में से किसी को अनुमान भी नहीं था कि रमावती
उन्हें पलट कर जवाब देगी. देवर तो कुछ नहीं बोला लेकिन सास को भक मार गया. थोड़ी
देर तक वो अचेतन रहीं.जैसे ही उनकी चेतना लौटी और महसूस हुआ कि रमावती कितना-कुछ
सुना गई है...सास गुस्से से पागल हो उठीं. लगभग भागते हुए वो उसके पास गयीं और
उसके बाल पकड़ कर जमीन पर लगभग घिसियाते हुए बोलीं
-“राणी! काहेना बोलीं रे? तोर भतार के ना
जन्मवले रहतीं त आज तोर अतना बोले के बेंवत नारहित नु. ठहर तोरमांग में लुकवारी
लगाइब आज.हई तोर जीभ जवान कैंची नियन फटर-फटर चले लागल बा नु, रुक एकरा के काट के
तोर नइहर भेजवावअतानी. खीस त देख एकर.एगो त गलती.ऊपर से आँख देखावतारी.अपना के
सम्हार के रख.न त पछताए के पड़ जाई.”
रमावती का देवर अपनी भौजाई को माँ के हाथों
अपमानित होता देख तथा आंगन में हो रहे कौतुक का बैठे-बैठे मजे ले रहा था. इन सब के
बीच उसका टपकना लाजिमी था. वहअचानक से आग लगाने वाले लहजे में बोल उठा
- “ठीक बोलअ तारे माई! हमनिए के बानी जा कि एकर
गुजारा हो रहल बा. हमरा के त इनकर चाल-चलन शुरुए से नीक ना बुझात रहे. भैअवा के त
आपन झांसा में रखके कहीं के त ना छोड़लस. बड़का बनावे के चक्कर में बाहर से काम-धाम
छोड़वादेलस. एकर शुरुए से बिचार होखी कि हमनी के साथे न रहित. ई त हमार भाई राम के
थोड़ा मोह ममता बा.आउर कमाई-धमाई से अतना नइखे बिटोराइल कि ओकर गर्मी चढ़ी.एही से
एकरा के हमनी के साथे रहल मजबूरी बा. मर्दमार कहीं की.छहित्तर...बढ़िया तिरिया चरित्र
देखावतारू...चरित्तरहीन!”
रमावतीकी सास गुस्से में थी. उसे अपने बेटे की
बात ठीक लगी. उसने उसके सुर में सुर मिलाया. रमावती का ससुर ओसारे में बैठकर तमाशा
देखते रहे, बोले कुछ नहीं. उनको मालूम था कि अगर वो कुछ बोलेंगे तो सारा गुस्सा
उनके ऊपर ही निकाल देगी रामकुमार की माई.उनकी हालत देखने के बाद ऐसा अंदाजा लगाया
जा सकता था कि जैसे उनको इन सभी मामलों में दखल देने और बोलने की इजाजत
नहींथी.रमावती अपमान बर्दाश्त कर ही रही थी इतने दिनों से.आगे भी करती.भले भी कोई
उसको कितना मारे, कितना पीटे, लेकिन अपने मायके की बुराई और चरित्र पर इल्जाम
नहीं. उसके दिमाग में देवर के बोले गए बोल गूंजने लगे थे...त्रिया
चरित्र...चरित्रहीन..उसे इनके मायने भली-भांति मालूम थे. देवर ने रामकुमार को
फुसलाने वाली बात कहने के साथ उसके चरित्रपर भी सवाल उठाया था. जिसे सुनकर उसके
सब्र का बाँध टूट गया. उसकेक्रोधका परावार न रहा. विगत कुछ सालों से चुपचाप सबकुछ
सहने वाली, बर्दाश्त करने वाली रमावती में अचानक से इतनी ताकत कहाँ से आ गयी थी.
घायल सिंहनी की तरह अपने दांत पीसती हुई वो अपने देवर की तरफ पलटी,
- “हमरा के चरित्तरहीन बोले वाला के हव तू.अपनाकेनादेखल
हाँ? रोजरात के हमरा कोठरी में दबल पाँव आवे और अन्हरिया में एने-ओने हाथ लगावे के
का मतलब होला?‘चलनी सिखावे सूप के कि तोरा में बहत्तरछेद’..काइहे सबहोलाचरित्रवान
होखे के लक्षण...बतावअ?” वह लगभग चीख रही थी.
-“ कवन मुंह से अतना सब कर के हमरा चरित्र पर
अंगुरी उठाव तारअ.पिछला कुछ महीना से तू लगातार कोशिश में बाड़ हमरा साथे खिलवाड़
करेके.”
रमावती अब कहाँ चुप रहने वाली थी. वह जैसे एक ही
सांस में सब कुछ बोल देना चाहती थी.
- “ का आपन महतारी से एकर इजाजत ले ले बाड़?उनका
के बतइले रह ई सब जवन तू करेलअ? ई सब बात हम केहू से नाकह पइनी काहे कि पता न कोई
विश्वास करी की ना.एह से तहार हिम्मत एतना बढ़ गइल कि तू नीचता पर उतर अइलअ.हमरे
चरित्र पर दाग देखाई दे रहल बा तहरा, आपन ना देखाई देलस हा का.”
फिर रमावती अपनी सास के तरफ मुंह घुमाते हुए बोली
-“इ बात नइखे कि हम रउवा के कबो काहे के कोशिश
ना कइले रहीं..लेकिन रउवा कबो आपन बेटा के शिकाइत सुने के तैयार न भइनी.इनकरतनजर
के पनिए गिर गइल बा”.
देवर को काटो तो जैसे खून नहीं. उसे तनिक भी
अंदाजा नहीं था कि उसकी पोल अचानक से और इस तरह खुल जाएगी. वह बुरी तरह झेंप गया.
उसे महसूस हो रहा था कि उसेसबके सामने नंगा खड़ाकर दिया गया है. क्षणिक ख़ामोशी जैसे
आंगन में पसर गयी थी. सभी के चेहरे अचानक सफ़ेद पड़ गए थे. निर्भीक एक ही चेहरा दिख
रहा था बाकि सब के भाव इस तरह के हो रखे थे जैसे वो कहीं छुपना चाह रहे हों. देवर
ने लजाई नजरों से अपनी माँ की तरफ देखा. माँ का हताश और थोड़ा लजाया हुआ चेहरा उसकी
नारों में अचानक कौंध गया. वह समझ नहीं पा रहा था कि उनसे क्या कहे? उसने एक आखिरी
कोशिश खुद को बचाने के लिए की. अपनी माँ की तरफ देखते हुए वह चिल्लाया
-“माई! इ साली झूठ बोल रहल बिया. आज एकरा साथे
एतना उघता पाइंच भइल हां नु एहिसे. तू एकर बात के विश्वास मत करिहे.”
वह भयानक गुस्से से बदहवास था. उसकी आवाज कांप
रही थी. उसे महसूस हुआ कि वह कमजोर पड़ रहा है. उसे उम्मीद थी कि उसकी माँ जरूर
उसके समर्थन में बोलेगी. लेकिन अभी तक संदेह में हीथा. क्योंकि मामला स्त्री की
इज्जत का था. रमावती की सास चुप थी. उधर रमावती दुबारा से झाडू करते-करते रुक गई
थी. आंगन के शोर की वजह से बिट्टू की नींद खुल गयी थी और वह उसकी साड़ी पकड़े खड़ा
हुआ रो रहा था. शायद भूखा था. रमावती उसे चुप कराने की कोशिश करने लगी. माहौल में
गर्मी बढ़ रही थी. अचानक से रमावती की सासनेअपने बेटे को बचाने की एक आख़िरी कमज़ोर
सी कोशिश की.
- “आपन नीच कर्म के इल्जाम हमार बेटा पर मत डाल
कुल्टा. तोरा नरक भी ना मिली.”
रमावती कहाँ चुप बैठने वाली थी आज.थोड़े व्यंग के
लहजे में बोली
-“दुनिया में सबसे बड़ सत्कर्मी दुए लोग त बा.एगो
रउवा और दूसरका राउरई चरित्तरहीन बेटा! हमरा के राउर जवाब मालूम रहे, एही से ना
बतावत रहीं.हम त आपन मरद के इंतजार करत रहीं.अब उनकरे अईला पर सब साफ़-साफ़
होखीत.लेकिन रउवा सभे आज हमरा के मजबूर कर देले बानी.सुनल चाहतानी त सुनी.कलरात के
ई सुचरित्तर बेटा हमार कोठरी में आइल रहन.एक बार न.तीन-चार हाली.एने-ओने हाथ भी लगावत
रहन.घर-परिवार के कुफुत के मारे नींद त ऐसे भी कम आवेले आजकल.कल रात के ज्यादे जोश
में रहन जोर जबरजस्ती करे के खातिर...अचानक से बिट्टू के नींद खुल गइलऔर ओकरा रोये
पर ईभय से उहाँ से भगलन. इनकर डर से हम रात भर सुते न पअइनीऔर सवेरे नींद देर से
खुलल...जेकरा वजह से आज एतना तमाशा भइल बा.”
सारी बात अब खुल चुकी थी. रमावती की सास पर
मानों घड़े भर पानी पड़ गया था. देवर को अपने बचाव में अपनी माँ का पक्ष भी कमजोर
होता हुआ लगा. अपने बाप के सामने उसकी इज्जत का फ़ालूदा बन गया था. वह कसमसा कर रह
गया. उसने एक आखिरी दांव लगाया. वही दांव जो हर पुरुष एक स्त्री से हारने पर लगाता
है. गांवों में तो यह आम बात है .क्योंकि वहां अपने नियम कानून चलते हैं. वह अचानक
से अपने बरामदे में रखीअपनी लाठी लेकर रमावती की तरफ लपका और आव देखा न
ताव..जोर-जोर से लाठी भांज दी...तड़ाक...तड़ाक...तड़ाक. रमावती को पाँच-छः लाठी जोर
से लगी. उसने खुद को बचाने की भरसक कोशिश की थी लेकिन कुछ वार तो उसपर पड़ ही गये
थे.एक ज्वार था जो अचानक गुजर गया था. एक पुरुषवादी मानसिकता का ज्वार, जिसमें एक
स्त्री की भी परोक्ष रूप से सहमति थी. जब सबकुछ शांत हुआ तो सबने देखा, बिट्टू
जमीन पर पड़ा तड़प रहा था. उसके नाक और मुंह से खून की पिचकारियाँ फूट पड़ी
थीं.बदहवास रमावती की चीख निकल गयी थी. उसके खुद के चोट पता नहीं कहाँ गायब हो गए
थे? उसने झट से बिट्टू को अपनी गोद में लिया और नीम के पेड़ के नीचे बैठ कर होश में
लाने की कोशिश करने लगी. उसकी आँखों से बेतरतीब आंसू बह रहे थे. वह मदद की गुहार
कर रही थी. अपने आंचल से बिट्टू के मुंह और नाक से निकल रहे खून को पोंछ रही
थी.सारा आंचल लाल हो उठा औरचबूतरे की मिट्टी कत्थई. सास दौड़ी-दौड़ी पानी ले आई.
बिट्टू का चेहरा पोंछा गया.ससुर गाँव के डाक्टर को देखने के लिए बाहर लपके. लेकिन
तब तक बहुत देर हो चुकी थी. बिट्टू के शरीरमें कोई हरकत न थी. उसका शरीर निढाल पड़
चुका था. देवर और सास को हत्यारी मार गयी थी. आंगनमें खड़े थे स्याहतीन चेहरे जिनपर
हवाईयाँ उड़ रहीं थी और एक बेचारी माँ जिसके रोने का कोई अंत नहीं था. उसके ह्रदय
को विदीर्ण कर देने वाली चीखें सवेरे-सवेरे ही टोले में दूर तक गूँजने लगीं.गाँव
का शांत वातावरण भयावह हो उठा.यह तो हत्या थी. इरादतन हो या गैरइरादतन. एक मासूम
की हत्या...वह भी दिन दहाड़े. अपने ही घर में. जिसका कोई दोष न था...इसी तरह की कई
बातें लोगों की जुबान पर थी. गाँवों में बात उड़ते देर नहीं लगती है. एक बात खुलती
नहीं कि सौ बातों के गट्ठर खुलकर बिखर जाते हैं. थोड़ी ही देर में रामकुमार के घर
पर लोगों का मजमा लगा था. क्या बच्चा..क्या बूढ़ा...क्या जवान..सबके चेहरे पर अफ़सोस
था. सभी रामकुमार के छोटे भाई को कोस रहे थे.
दिन बदरंग हो चुका था. भांय- भांय करता हुआ.
गाँव से गुजरने वाली हवा की सरसराहट सभी को स्पष्ट रूप से सुनाई दे रही थी. दोपहर
की धूप जैसे देहको छेदते हुए सीधे पार हो जाना चाहती थी. रमावती तो जैसे टूट चुकी
थी. उसे होश न था. वह बार-बार बेहोश हो जाती. उसका जैसे सबकुछ छिन गया था. वह बिट्टू
के शरीर से लिपट कर सुबकती रही. आज उसके भीतर का दरिया जैसे बह जाना चाहता था. इस
घटना ने रमावती के चेतन पर गहरा आघात किया था. इस घटना की खबर रामकुमार को फ़ोन से
दे दी गयी थी. सभी उसके आने का इंतजार कर रहे थे. गाँव के चौकीदार को भी इस घटना
की ख़बर मिल गयी थी. उसे थाने जाकर दरोगा को इत्तला दे दी थी. थाने वालों को
बैठे-बिठाये एक मुर्गा मिल गया था. वहभी देसी टाइप का. अब धीरे-धीरेपकाना था
उन्हें. उन्होंने गाँव आकर रामकुमार के भाई को गिरफ्तार किया और अपने साथ थाने ले
गए.
धीरे-धीरे उदास दिन गुजर गया. शाम होने को थी.
उपलों का धुआं एक घर से दूसरे घर तक परत दर परत फैलकर पूरे गाँव के ऊपर एक आवरण
बना रहा था. सांझ के धुंधलके आंगन में उतर आये थे. रामकुमार अभी तक नहीं आया था.
गोतिया के लोगों ने रामकुमार के पिता को सलाह की कि रात होने से पहले इस लाश को
दफ़नाने की क्रिया पूरी कर देनी चाहिए. रामकुमार के पिताजी गोतिया के दो तीन लोगों
के साथ बिट्टू की लाश को लेकर गाँव के डीह की तरफ जा ही रहे थे कि रामकुमार आता
दिखाई दिया. बस से उतरते ही उसे किसी ने यह खबर भी दे दी थी कि उसके भाई को पुलिस
पकड़ कर थाने ले गयी है. बिट्टू की लाश देखकर वह फफ़क-फफक कर रो पड़ा. लोगों ने किसी
तरह उसे संभाला. अंतिम संस्कार संपन्न हुआ.
अँधेरा गहराने लगा था.जब उन लोगों ने डीह से
गाँव में प्रवेश किया. रामकुमार ने घर में घुसते ही देखा आंगन में लालटेन फीकी
रौशनी के साथ जल रहा था. रमावती अपना सुध-बुध खोये ओसारे की दीवार से सहारा लेकर
बैठी थी.उसके बाल खुले और बिखरे हुए थे. धीमी रौशनी में उसकी साड़ी और बेरंगी,
बेतरतीब लग रही थी. उसकी माँ रमावती की चूड़ियाँ बदल रही थी.रमावती ने जब उसे देखा
तो रोहे हुए कोठरी के अंदर चली गयी. रामकुमार का दिल भर आया. अपनी माँ के सामने वह
फफ़क पड़ा
-“ई का हो गइल रे माई.”
उसकी माँ उसे ढाढसबंधाते हुए इस घटना को नियति
का खेल बताती रही.थोड़ी देर में रामकुमार कुछ शांत हुआ तो उसे आँगन में बिठाकर उसकी
माँ ने सारी बातें विस्तार से कह डालीं.इसे एक हादसा बताते हुए उन्होंने उसे
समझाने की कोशिश की
- “होनी के केहू टाल सकल बा आज तक. काल कवना भेष
में आई बेटा, केहू ना जान सकेला. बिट्टू के जाए के दुःख बा हमनी केबेटा रहे, आपन
कुल के चिराग रहे. पर हमनी के अब का कर सकेनी जा. तहार भाई के पुलिस पकड़ के ले गइल
बिया. पता न उ कईसन हाल में होखी थाना में.अब तहरे से कुछ होखी बेटा. तहार आपन भाई
ह ऊ. अनकर थोड़े न ह. दोसर कोई का समझी ई बात के.”
इतना कुछ कहते हुए वे अपने बेटे यानी रमावती के
देवर की करतूतों को बड़ी सफाई से छिपा गईं. रामकुमार अपनी माँ को बहुत प्यार करता
था. उसपर बहुत विश्वास था उसे.वह अपनी माँ के पास बैठा सुबकता रहा. बाद में माँ के
कहने पर ही कोठरी में रमावती के पास गया...उसे चुप कराने..दिलासा देने..ये दोनों
का दुःख था. एक गहरा दुःख..पर रमावती का दुःख कुछ ज्यादा ही था.
रामकुमार एक हफ़्ते तक घर में रहा. बहुत सदमें
में था वह. अपने मन को कड़ा करके रमावती को रोज समझाता रहा. रमावती उसकी बातें समझने
की कोशिश करती… फफक पड़ती. बिट्टू का चेहरा उसकी
आँखों से उतरता ही नहीं था. वह रामकुमार को सारी बातें बताना चाहती थी, लेकिन हालात उसे अनुमति नहीं दे रहे थे कि इस तरह की बातें इस वक्त कही
जाएँ. एक तो वह खुद इतनी घनी पीड़ा में थी, जहाँ उसे खुद पर हुई ज्यादतियां गौण लग
रही थीं.रामकुमार भी तो कष्ट में था. दूसरी बात, क्या रामकुमार उसकी बातों पर यकीन
करेगा? हालाँकि बिट्टू की मौत कोई सामान्य घटना तो नहीं थी, लेकिन रामवती के दुखों
में कई और परतें दुखों की ही बन चली थीं.रामकुमार उसकी बातों का यकीं जरूर करेगा,लेकिन
अगर उसने उसकी बातों को झुठला दिया तो? अगर, उसने कह दिया कि देवर ने जान बूझ कर
तो नहीं मारा है, वह तो उसकी पिटाई करने गया था, उसे क्या मालूम कि बिट्टू उसकी
आंचल में छुपा हुआ है? ऐसी बातों का वह क्या जवाब देगी रामकुमार को?रमावती इस बात
परजितना भी विचार करतीउसके अन्दर ढेर सारा अविश्वास समंदर के मुहाने पर जमा होने
वाले गाद की तरह जमता जाता.उसकी आशाएं मानों दम तोड़ रही थीं.वह निराश होजाती थी.
बिट्टू के जाने के गम ने उसे कमजोर कर दिया था. अबउसमें इतनी ताकतभी नहीं बची थी
कि रामकुमार के अविश्वास की स्थिति में अपनी सास और देवर का सामना कर सके. ऐसा
नहीं था कि रामकुमार उसे प्यार नहीं करता. लेकिन जब भी उसे पारिवारिक फैसले लेने
होते, उसका पलड़ा उसके परिवार की तरफ झुक जाता था. रमावती अपने जज्बात दबा गई थी.
दो हफ़्ते बाद जब रामकुमार वापस पटना जाने लगा तो रमावती ने सिर्फ इतना कहा,
-“हमार नैहर खबर भेज देब इ घटना के बारे में...आ
कहाव भेज देव कि नैहर से आके केहु लिया जावे.”
रामकुमार ने उसकी बातों में अपनी सहमती दी और
आश्वस्त किया कि खबर उसके घर भेज देगा. साथ ही उसे अपना ख्याल रखने के को भी कहा.
रमावती दो महीने की गर्भवती थी उस समय. यह बात उसे मालूम थी.
शहर वापस लौटने के बाद रामकुमार ने रमावती के
मायके खबर भेज दी. लेकिन मायके वालों ने कोई सुध नहीं ली.समय मुसलसल गुजर रहा था.
धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य हो चला, सिर्फ रमावती को छोड़ कर!अपने बेटे की मौत को
भुला देना इतना आसान नहीं था उसके लिए.उसकी गोद में दम तोड़ा था बिट्टू ने. सास के
व्यवहार में कुछ विशेष परिवर्तन तो नहीं आया परअब वे उसे परेशान नहीं करती थीं.रमावती
से उनकी बहुत कम बातें होती थीं. एक ही आँगन में जैसे दो अलग-अलग ग्रहों के प्राणी
निवास कर रहे थे. ससुरपहले से ज्यादा रमावती का ख्याल रखने लगे थे. उन्हें अपराध
बोध था. जो भी हुआ था वो सब उनकी आँखों के सामने ही तोहुआ था. रमावती तो जैसे अपने
बेटे के गम में घुली जा रही थी. जब कभी उसे बिट्टू की यादें घेर लेती, वह रोने
लगती. मन भारी-भारी सा लगने लगता.उसकी जीने की इच्छा जैसे धीरे-धीरे चूक रही थी.
बिट्टू उसकी पहली संतान था...उसका बेटा. समाज ने
अब तक उसे यही सिखाया है कि बेटा जनना घर-समाज में प्रतिष्ठा देता है. बड़े इज्जत और
प्रेमसे पेश आते हैं लोग. रमावती यह सब बहुत अच्छे से जानती है. शादी के पहले अपने
मायके में इसी तरह के अनुभवों से दो-चार होना पड़ा था. उसे याद है जब वह खुद केवल
तीन बहनें ही थी तो उसकी दादी ने उसके पिताजी पर दुबारा शादी के लिए बहुत दबाव
डाला था. कभी-कभी वह बेचैन हो उठती है. घर का माहौल कितना बिगड़ गया था उस समय.
पिताजी उसकी छोटी-मोटी बातों पर चिढ़ जाया करते थे. तीसरी बहन अभी सौर घर में ही थी
जब उसकी दादी ने पिताजी से दूसरी शादी कर लेने की बात छेड़ी थी.कितना बुरा समय था
वह? घर में अकेले होने की वजह से कई बार पुरानी बातें घनघोर तरीके से रमावती को
घेर लेती. वह परेशान हो उठती. उसेसमझ में ही नहीं आता कि वह क्या करे?.उसने नियमित
रूप से मंदिर जाना शुरू कर दिया. नई-नवेली दुल्हन के लिए इस तरहअकेले मंदिर जाने
की मनाही थी.फिर भी वह अपने सिर पर पल्लू डाले घर से निकलती रही.गाँव-घरके लोगों
को अटपटा जरूर लगा था. फिर उन्होंने सोचा कियह सब उसे हादसे से उबरने में मदद
करेंगे. मंदिर के पुजारी को रमावती के बेटे की अकाल मृत्यु की बात मालूम थी. रोज
मंदिर आते देख कर एक दिन उसने एक सलाह दे डाली किवहदेवी की पूजा किया करे रमावती.
इससे अमंगलकारी शक्तियों का नाश होता है. नहीं करने से हो सकता है कि उसकी आने
वाली संतान के साथ भी कुछ बुरा घटित हो जाए. रमावती ने घर में भी देवी की पूजा करनी
शुरू कर दी. घर का काम निपटने के बाद उसका ज्यादा समय इसी में बीतता. वहखुद को
किसी तरह उलझाए रखना चाहती थी. जैसे सोना, जागना वैसे ही घर के काम करना.
लड़कियां सयानी होते ही घर के कामों की सारी
जिम्मेदारियां ले लेती हैं और जब तक शरीर चलता है उसे रोज निभाती भी हैं. रमावती
भी ऐसी ही थी. वहअपने घर में सबसे बड़ी थी. इसलिए शुरू से ही घर का सारा काम करती
आयी थी. उसे कोई अंतर नहींदिखता ससुराल और मायके में. तीन बहनों में सबसे बड़ी
रमावती. एक भाई जो सबसे छोटा है. रमावती ने जबसे होश संभाला अपनी माँ को बिस्तर पर
ही देखा, अपनी माँ को बिस्तर पर ही देखा. एक-एक करके छः बेटियां हुई. यह दुर्भाग्य
ही था कि केवल तीन ही जीवित रह पायीं. माँ जब भी बिस्तर पकड़ती, रमावती को ही घर की
सारी ज़िम्मेदारी उठानी पड़ती थी. कितने उम्र से उसने चूल्हा-चौका संभाल लिया था उसे
खुद याद नहीं है. उसकी दादी बड़ी कड़क मिजाज की थीं. दिन भर खटिया पर बैठे-बैठे केवल
निर्देश दिया करती थीं. पिताजी खेतिहर थे. उनका सारा दिन उसी के चक्कर में बीतता
था. रमावती की तीसरी बहन हुई थी तो दादी बिफर पड़ी थीं. पिछले कई महीनों से वह
पिताजी पर दूसरी शादी के लिए दबाव बनाने की कोशिश कर रहीं थीं. लेकिन उसके पिताजी
किसी न किसी बहाने से उनकी बातों को टाल रहे थे. उसी दिन दादी ने अपना सामान बाँधा
और अपने मायके चली गयीं थीं.जाते-जाते कह गयी थीं
- “जब इ खानदान के चिराग जरी, तबे हम वापस
आइब...ना त तहरा हमरा हिसाब से दोसर बियाह करे के पड़ी.”
पिताजी ने समझाने की बहुत कोशिश की थी लेकिन सब
व्यर्थ. उसकी माँ ने सौर घर में ही दादी के जाने का समाचार सुना. उनका मन अंधेरी
कोठरी के गहरे अँधेरे में डूब सा गया था. अपनी नवजात बच्ची को उन्होंने दूध पिलाना
ही बंद कर दिया था. वह नहीं चाहती थी कि वह जिन्दा रहे. जिसकी वजह से उन्हें इतना
अपमानित और तिरस्कृत होना पड़ रहा था. अपने बच्चे को गला घोंट कर मार देने की शक्ति
अगर उनमें होती तो वो उसे सौर घर में ही मार डालती. थोड़ा भगवान से डरती थी इसलिए
वो ऐसा नहीं कर सकीं. रमावती को सारी बातें याद है, क्योंकि अपनी छोटी बहन का
ख्याल तब वही रखने लगी थी. उसकी माँ को देखने गाँव की जो भी औरत आती उससे कहती,
-“आपन बहिन खातिर दूध के इंतजाम कर, ना त तोर
माई ओकरा के भूखे मुआ दिही.”
उसके पिताजी अपनी माँ के रूठ कर मायके चले जाने
की वजह से अजीब तरीके से बर्ताव करने लगे थे.रमावती ने जब अपनी बहन को पहली बार
देखा था तो उसे उससेएक लगाव सा हो गया था. उससेउसकाभूख से बिलखना नहीं देखा गया.
तीसरे दिन ही वह उसे दिन सौर घर से बाहर ले आयी.उसकी साफ़-सफ़ाई की. पड़ोस की भाभी के
यहाँ से दूधलेकर आई और पिलाया. उसकी माँ को तनिक भी अफ़सोस नहीं था कि उनकी वजह से
एक नवजात की जान चली जाती. तब से उस बच्ची का ख्याल रमावती ने ही रखा था. गाँव में
उसके टोले के लोग बच्ची को अभागी और रमावती को उसकी माँ कहनेलगे थे. रमावती
बमुश्किल दस-ग्यारह साल की रही होगी तब. उसकी माँ अपनी बच्ची का मुंह तक देखना
नहीं चाहती थी. रमावती उसे लेकर गाँव में किसी के यहाँ जाती तो लोग दूध या फिर
अन्य खाने-पीने की चीजें बच्ची के लिए देते. इसी तरह तक़रीबन डेढ़ साल गुजर गया था.
उसके माँ-पिताजी ने खूब पूजा-अनुष्ठान कराया, मन्नतें मांगी, एक दो जगह की
यात्राएं भी कर आये. ये सब प्रयोजन एक बेटे के लिए ही तो था.
भगवान ने उनकी सुन ली. बेटा हुआ घर में, रमावती
का छोटा भाई. दादी ने सुना तो दौड़ी-दौड़ी अपने मायके से वापस चली आई. उसकी माँ भी
बहुत खुश थी. रमावती के घर में यह पहला अवसर था जब किसी बच्चे के जन्म पर इतनी
खुशियाँ मनाई गईं थीं. पिताजी की दूसरी शादी की बात को भी इसी वजह से सुलटाया जा
सका था. उसकी माँ अपने बेटे के जन्म को अपना पुनर्जन्म मानती थीं. एक सामाजिक
प्रतिष्ठा और परिवार पर उनका अधिकार खोता सा मालूम पड़ रहा था, जिसे बेटा जनने की
वजह सेवापस पाना मुमकिन हुआ. बेटे को अपार स्नेह माँ की तरफ से मिला. बेचारी छोटी बहन
के हिस्से में तो कुछ भी नहीं आया.एक बार छोटे भाई के बीमार पड़ने पर किसी ज्योतिषी
ने बताया कि अपनी बेटी का भी ख्याल रखो.नहीं तो देवी अप्रसन्न हो जायेंगी और बेटा
बीमार ही रहेगा. भाई तब तक एक साल का हो चुका था और बहन तकरीबन ढाई साल की. घर में
देसी गाय का दूध खरीद कर बेटे और बेटी, दोनों को उसकी माँ ने पिलाना शुरू कर दिया.
माँ का इस तरह उसकी छोटी बहनपर प्यार जतलाना रमावतीसुकून दे रहा था. लेकिन कुछ ही
दिनों में उसकी यह ख़ुशी जाती रही, जब उसने देखा कि माँ उसके भाई को एक पूरा गिलास
दूध पिलाती है और बहन को आधा दूध और आधा पानी. उसका मन छोटा होगया. अपनी माँ को वह
कुछ बोल तो नहीं पायी. परन्तु उसने निश्चय किया कि आज के बाद अपनी बहनों को किसी
के भरोसे वह छोड़ नहीं सकती. उनका ख्याल वह खुद रखेगी. तब से लेकर ससुराल आने तक
उसने हर संभव अपनी बहनों की सेवा और मदद की थी.
रमावती सोलह साल की उम्र में ही रामकुमार से
ब्याही थी. उसकी माँ चाहती थीं कि जल्दी से बेटियों की शादी हो जाए. कुछबीघे जमीन
बेचकर उसके पिताजी ने रकम जुटाया और उसकी शादी कर दी.बारात के दिन हाई वोल्टेज
ड्रामा हुआ था उसके मंडप में. लड़के पक्ष से माड़ो में खाने वाले सभी रिश्तेदारों को
थाली, धोती और पाँच सौ एक रुपये विदाई के रूप में दिए जाने पर ही बात ख़त्म की जा
सकी. किसी तरह ऐन मौके पर चीजों और पैसे का इंतजाम किया था उसके पिताजी ने. खैर,
शादी हो गयी. गाँव के निम्नमध्यमवर्गीय
परिवार में उसका ब्याह हुआ.रामकुमार घर का सबसे बड़ा लड़का है.आय का नियमित साधन
नहीं होने की वजह से उसे बाहर कमाने जाना पड़ता था. रमावती ने भी ससुराल में सबको
खुश रखने की हरसंभव कोशिश की थी. लेकिनबहुतहद तक सफल नहीं हो पाई. रामकुमार की
अनुपस्थिति में घर उसे काटने को दौड़ता था. अपनी मर्जी से वह न तो कोई काम कर सकती
थी न ही मायके जाने की सोचसकती थी. रामकुमार से उसने अपना दुःख कईबारबताने की
कोशिश भी की. लेकिन उसने उसे झिड़कते हुए कहा कि अब यही उसका घर हैऔरअपने सास-ससुर
की सेवा में मन लागाये वो. उसे अपने परिवार से काफी मोह था. वह उन्हें किसी भी तरह
से कष्ट में नहीं देखना चाहता था.सासयही सोच-सोच के आधी हुई जा रही थी कि उनकी बहू
उनके वश में कैसे आये? किसी सास के लिए इससे बड़ा कष्ट और क्या हो सकता है. किसी
तरह रमावती के दो वर्ष गुजरे. बीच-बीच में रामकुमार की माँ अपने बेटे के कान भी
भरा करती थीं. अपनी माँ के कहने पर ही रामकुमार ने छोटी-छोटी बातों को लेकर उससे
डांट-डपट करनी शुरू कर दी.
बिट्टू के जन्म के समय रमावती बहुत खुशथी. पहली
संतान वह भी लड़का. सास-ससुर के हर्ष की कोई सीमा न थी. समय ठीक-ठाक से बीत रहा था.
रामकुमार अपने कामों में और भी व्यस्त हो चला था. गाँव में सभी यही कहते थे कि
बिट्टू का दूसरा भाई आ जाता तो खुशियों को चार चाँद लग जाते. रमावती दूसरा बच्चा
अभी नहीं चाहती थी. ऐसा नहीं था कि बच्चों के जन्म में वह में अंतररखना चाहती थी.
बल्किउसे एक भय बार बार सताता कि अगर लड़की हुई तो उसकी सारी खुशियों को आग लग
जाएगी. लेकिन सबकुछ अपने चाहने से नहीं होता है. न चाहते हुए भी वो दुबारा गर्भवती
हो गयी. दूसरा महिना चल ही रहा था कि बिट्टू नहीं रहा.बिट्टू वाले हादसे न उसे
बुरीतरह से झकझोर दिया था. वह मानसिक रूप से थोड़ी कमजोर भी हो गयी थी और अशांत भी.
अब उसे लगता कि घर में एक बच्चा जरूर आना चाहिए जो बिट्टू की जगह ले सकेऔरउसके
दुखों को कम कर सके. गाँव के मंदिर में उसने पूजा पाठ जारी रखा. अब उसे केवल आने
वाले बच्चे का इंतजार था...वह भी लड़के का...जो उसे मान दिलाएगा...समाज में पुनः
प्रतिष्ठित करेगा.न जाने इस तरह के कितने विचार उसके मन में उमड़ते घुमड़ते रहते. घर
के आंगन के बरामदे के खम्भे पर ततैया ने मिट्टी का सीधा छत्ता लगाना शुरू कर दिया.
रमावती बड़े प्यार से ततैया को घर बनाते देखती रहती, जो दिन भर घर के बाहर से
थोड़ी-थोड़ी गीली मिट्टी लाता और अपना छत्ता बनाता. रोज-रोज उसे देख कर रमावतीको यकीं
हो चला था कि छत्ता सीधा ही बना है.अगर गोल होता तो बेटी होगी ऐसाउसकीदादी कहाकरती
थी. रमावती को लगने लगा था कि ततैया उसी के लिए तो इतनी मेहनत कर रहा है. उसे उस
नन्हें ततैये से लगाव हो गया था. वह अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ रही थी. मंदिर
भी सुबह-शाम जाने लगी थी, जहाँ वह बेटा ही मांगती थी भगवान से.अपने गाँव के पीर
बाबा की मज़ार पर चादर चढ़ाने और मन्नत मांगने की खातिर वो एक बार अकेले अपने नैहर
तक घूम आयी. उसके जीवन में इन सभी बातों का स्थान गहराता जा रहा था. आस्था, विश्वास...सभी
एक सामान्य हदें पार कर चुके थे. अब उसे समझाने वाला भी कोई न था...सास का उस पर
कोई ध्यान ही नहीं था. रामकुमार अपने कामों में ही व्यस्त रहता था. भगवान पर आस्था
कि वजह शायद ये भी था कि उसका अपने घर के लोगों पर से विश्वास उठ गया था. अब उसकी
सारी आशाएं अपने आने वाली संतान पर ही टिकी थीं. उसके मन में कहीं न कहीं ये बात
घर कर गयी थी कि लड़की नहीं होनी चाहिए, वर्ना उसके जीने की बची-खुची उम्मीद भी चली
जाएगी.
आंगन के नीम के पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठी
रमावती को आज ढेर सारी यादें घेर रही हैं. आठवां महिना चल रहा है. इस अवस्था में
मन का अशांत होना, स्वाभाव का चिड़चिड़ा होना सामान्य बात है. इसलिए गर्भवती स्त्री
को इन दिनों में अपने आपको छोटे-छोटे कामों में मसलन खुद की साफ़-सफ़ाई, बाल बनाने
जैसे कामों में व्यस्त रखना चाहिए. नकारात्मक और पुरानी बातों को सुनने और सोचने
दोनों की सख्त मनाही होती है. रमावती को ये सब बातें मालूम है क्योंकि गाँव के
आंगनबाड़ी की दीदी ने उसे पिछली बार सब कुछ बताया था. रमावती ने एक-एकबातों को मन
में गाँठ लिया था और उसी के हिसाब से चलती भी थी. लेकिन आज सुबह-सुबह उसे सारी
बातें एक-एक करके याद आ रही हैं. कुछ गम हैं जो भुलाए नहीं भूलते और कुछ यादें जो
स्मृतियों से विस्मृत नहीं होतीं. इन्हीं कच्ची-पक्की यादों के बीच रमावती का
ज्यादातर समय गुजरता है. रामकुमार कम ही
आता-जाता है अपने काम की वजह से. उसका देवर हत्या के मुकदमें में सजा काट रहा है.
सास पिछले ढाई महीनों से अपने नैहर गयी हुई हैं और अभी आने की कोई खबर भी नहीं है.
ले दे कर एक ससुर हैं, जो तड़के खेत पर चले जाते हैं और सीधा दोपहर खाने पर आते
हैं. फिर रात के खाने पर ही उसने मुलाकात हो पाती है. बातचीत नाममात्र की. एक तरह
से वह अकेले ही गुजर कर रही है घर में. काम जरूर कम हैं...बसघर की सफ़ाई, चूल्हा-चौका,
फिर बर्तन-बासन! इसी तरह उसके दिन गुजरते हैं.
आज जन्माष्टमी है. ससुर के मना करने पर भी
रमावती ने उपवास रखा था. दिन ठीक ही गुजरा है. अँधेरा हो चुका है. उसने नहा-धो कर
नयी साड़ी पहनी और रात के पूजा की तैयारीजुट गयी. अभी रात के बारह में समय था कि
अचानक से उसे दर्द शुरू हुआ. वह अपने कमरे में जाकर लेट गयी. घर में कोई औरत नहीं
है. अबवह यह बात कहे तो कहे किससे? दर्द बढ़ता ही जा रहा था. रमावती के ससुर ने
देखा कि बहू कष्ट में है. उन्होंने उसके पास जाकर पूछा
-“का भइल बेटी?” वहकुछ बोल नहीं पायी.
ससुर ने उसके कष्ट को देखकर अनुमान लगाया कि
बच्चा होने का समय नजदीक है शायद. यह परेशानी उसी की वजह से हुई लगती है.
उन्होंने रमावती को आराम करने को कहा और खुद दौड़ कर गाँव के रविदास टोले की तरफ
लपके. गाँव में स्वास्थ्य उपकेन्द्र बने सात साल से ज्यादा हो गए. लेकिन वह चल ही
न सका. कमरों के किवाड़-चौकठ सब गाँव के लोगों ने ही उखाड़ कर अपने घरों में लगा लिए
हैं. अब वह रात में आवारा बैल, भैंसोंका आरामगाह है. गाँव के लोगों को ऐसी विकट
स्थिति में एक ही शख्स का ख्याल आता है- सुलछ्नी काकी.रमावती के ससुरने रमावती को
खुद का ख्याल रखने को कहा औरबिना समय गंवाये रविदास टोले की तरफ भागे.रामकुमार की
माँ भी घर पर नहीं थी. ऐसे में सुलछ्नी काकी ही आसरा था.सुलछनी काकी ही गाँव में
घर-घर जाकर प्रसव कराती है और बच्चों के नार काटती हैं. रात के तक़रीबन दस बजे थे.
अमावस की रात थी. अँधेरा इतना कि हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था. सप्तर्षियों का
झुण्ड आसमान में चढ़ने की तैयारी कर रहा था.
रविदास टोला गाँव से बाहर तकरीबन बीस घरों की
बस्ती है. झींगुरों का शोर गाँव के बाहर फैले स्याह सन्नाटे को भंग कररहा था.
घुप्प अंधेरा छाया हुआ था. टोले में एक ढिबरी भी जलती हुई नहीं दिख रही थी.शायद
टोले में सभी सोने चले गए थे. रमावती के ससुर ने सुलछ्नी काकी के घर के दरवाजे की
सिकरी बजाई. अंदर से आवाज आई
-“के ह? सीधे भीतर चल आवअ.”
सुलछ्नी काकी अपने घर में ही थीं. वर्षों से वो
अकेले ही रहती आयी थीं. आंगन में एक किरासन तेल की ढिबरी एक कमजोर लौ के साथ
टिमटिमा रही थी. उससे निकलने वाली धुएं की सीधी लकीर मिट्टी के दियट को और काला
किये जा रही थी.सुलछ्नी काकी ने जन्माष्टमी का व्रत रखा था और अपने आँगन में बैठकर
पूजा-पाठ की तैयारी में जुटी हुई थी. काकी ने रमावती के ससुर को आंगन में पड़ी
चारपाई पर बैठने का इशारा किया लेकिन वो बैठे नहीं. उन्होंने आंगन में खड़े-खड़े ही
रमावती का सारा हाल कह सुनाया. सुलछ्नी काकी दिल से गाँव के लोगों की मदद किया
करती थी. सबके बुलावे पर जाती थीं जरूर.भले ही अधिकांश जगहों पर लोगों ने उनके
किये उपकार का सिला नहीं दिया. फिर भी उनके मन में किसी के प्रति कोईमैल नहीं था.गाँव
के लोगों का मानना था कि सुलछनी काकी के प्रसूता के सौर घर में रहने से बेटा ही
होता है. शायद इसलिए गाँव के लोगों ने इनका नाम सुलछ्नी काकी रख दिया था. असली नाम
तो अब किसी को याद भी नहीं.
इधर रमावती को रह रहकर तेज दर्द उठ रहा था. जवार
में पूरे सावन बरसात तो नहीं हुई. लेकिन आज अचानक ही घटाएं उमड़-घुमड़ कर आने लगी
थीं. थोड़ी ही देर में मूसलाधार बारिश शुरू हो गयी थी. अमूमन जन्माष्टमी के दिन
बारिश हो ही जाती है. ऐसी लोगों की मान्यता है. बारिश जोर पकड़ चुकी थी. रमावती का
कमरा कच्चा होने की वजह से भारी बारिश में उसके गिरने की आशंका थी.बारिश में गाँव
के बहुतेरेकच्चे मकानों की दीवारें और छतेंगिर जाती हैं.रमावती के ससुर ने पक्के
कमरों में से एक मेंजिसमें उसकी सास रहा करती थी, रमावती का बिस्तर लगवा दिया.
सुलछ्नी काकी ने सहारा देते हुए रमावती को खड़ा किया और धीरे-धीरे चलाती हुई उस
कमरे में ले गयी. उन्होंने जल्दी से स्टोब पर पानी गर्म होने के लिए रख दिया. साथ
ही रमावती के पैरोंऔर सिर में सरसों तेल की मालिश करने लगीं.बाहर हवाएं तेज हो गयींथीं
अन्दर रमावती का दर्द. बीच-बीच में बिजली तेज चमकती तो आँगन में खड़े नीम केपेड़ का
हवा के थपेड़ों पर जोरों से मचलना दिख जाता था. रमावती के ससुर ओसारे में बैठकर
प्रतीक्षारतथे. इतनी तेज बारिश में उनका मन भी आशंकित हो उठाथा. दिन का वक्त होता
तो किसी तरह रामकुमार या फिर उसकी माँ को खबर भेजकर बुलवा लेते. ऐसे नाजुक वक्त
में घर के लोगों का साथ होना जरूरीहोता है. आपसकी तनातनी और मनमुटाव अपनी जगह
और परिवार के लोगों का जीवन अपनी जगह है.
आज रमावती कोसबकी जरूरत थी. कम से कम राजकुमार और उसकी माँ की तो जरूर ही.समय
विकटथा.वह मन ही मन रमावती की कुशलता की कामना करने लगे थे.
बाहर मूसलाधार बारिश जारी थी. कुछ ही देर की तेज
बारिश की वजह से बाहर खेतों में जल जमा हो गया था. मेढ़क जमीन से बाहर निकलने लगे
थेऔर समवेत स्वरों में टर्राने लगे थे. सुलछ्नी काकी हर संभव मदद कर रही थी. वह
बीच-बीच में ढाढस भी बंधाती.रमावती दर्द से छटपटा रही थी.साड़ी भींग कर गीली हो
चुकी थी. काकी ने अपना पूरा अनुभव रमावती को सँभालने में लगा दिया था. रमावती का
यह दूसरा दूसरा बच्चा होने वाला था, इसलिए ज्यादा परेशानी नहीं होगी.ऐसा उनकाअनुमान
था. ससुर का दिल ओसारे में टपकते हुए छप्पर के बीच बैठा जा रहा था. शंकाओं-आशंकाओं
के बीच वे बार-बार उठकर टहलने लग रहे थे...जो कि निर्मूल नहीं थीं. गाँवों में
अक्सर इस अवस्था कोई अनहोनी होना बड़ी बात नहीं है.
काफी समय बीत चुका था. इधर न रात टलने का नाम ले
रही थी न बारिश रुकने का. काकी बीच-बीच में खुद ही भगवान का नाम जपने लगती थीं.
उन्हें आज की रात कुछ ज्यादा ही भारी लग रही थी. खून काफी बह गया था. दर्द भी
असीमित था. अचानक रमावती ने काकी को अपने आंचल की तरफ कुछ इशारा किया. काकी ने
देखा कि उसके आंचल में एक पुड़िया बंधी हुई है. खोल कर देखा तो उसमें भभूत था.
रमावती ने बताया कि मंदिर के पुजारी ने कहा था कि प्रसव के समय कोई बाधा हो तो
थोड़ा सा खा लेना. कठिन समय में जब कोई उपाय नहीं सूझता तो हम आसानी से इस तरह की
चीजों पर विश्वास कर लेते हैं. कोई विकल्प भी तो नहीं होता न इसके अलावे.काकी ने
थोड़ी सी भभूति रमावती को चटाई और थोड़ा उसके माथे पर मल दिया. कितने ही प्रसव कराये
थे
उसनेइस गाँव में. लेकिन पता नहीं क्यों वह आज थोड़ी आशंकित थी.
सुबह के लगभग तीन बजे होंगे. बारिश कम हो चली
थी. फिर भी बाहर हल्की-हल्की फुहारें पड़ रही थीं. उसी प्रहर में रमावती ने एक
बच्ची को जन्म दिया. सुलछ्नी काकी ने नार काटते हुए कहा
- “बहुत सुन्नर बेटी भइल बिया रमावती. ठीक तहरे
नियन...फूल जइसन.”
काकी बहुत खुश थीं. हालाँकि उनका शरीर बहुत ज्यादा
मेहनत की वजह से चूर हो चुका था और पसीने से लथपथ भी. लगभग पाँच घंटे हो चुके थे
उनको रमावती के साथ. रमावती के ससुर ने भी तो रात ओसारे में बैठे हुए बच्चा होने
के इंतजार में बिता दियाथा. काकी ने रमावती के बेटी होने की खबर उन्हें भी दी. वो
बेहद प्रसन्न हुए. अजीब स्याह रात थी. बारिश जो पिछले दो महीनों में कही नहीं हुई
थी,आज ही शुरू हुई और थमने का नाम नहीं ले रही थी. एकडरके बीच ही तो उनकी रात
गुजरी थी. सुलछ्नी काकी ने बड़े प्यार से चहकते हुए रमावती से कहा
-“बड़ा शुभ समय में जन्म भइल बा तोर बेटी के. एही
दिन त देवी भी अवतार ले ले रही गोकुल में. उनका के वासुदेव, भगवान श्रीकृष्ण के
बदले जेलमें ले आइल रहन....जोगमाया...तू एकर नाम जोगमाया रखिह रमावती..ठीक त.” कहकर
सुलछ्नी काकी मुस्कुराई.
रमावती ने भी उनके चेहरे की तरफ देखते हुए
मुस्कुराने की कोशिश की. फिर अपनी बेटी को निहारने लगी...अपलक. सुलछ्नी काकी जब
सौर घर की सफ़ाई कर चुकी तो रमावती से बोलीं- तहार सास न नइखीनु एहिजवा. रहती त
हरदी आ गुड़ पका देती...सोंठभी बन जाइत. सास का नाम सुनते ही रमावती के चेहरे पर
थोड़ा उदासी का भाव छलक आया. काकी ने उसके मनोभावों को समझते हुए कहा,
- “खैर, कवनों जादे चिंता के बात नइखे. तनी भोर
होखे द... हमहीं खुद से जाके दुकान से इ सब खरीद के ले आइब आ पका देब. तब तक तू
आपन बेटी के दूध पिया ल.”
रमावती ने कुछ सोचते हुए गहरी सांस ली... पर
बोली कुछ नहीं. सुलछ्नी काकी को रमावती का इस तरह से गंभीर होना अच्छा नहीं लगा.
थोड़ी देर तक कुछ सोचती रहीवह. फिर रमावती को टोकते हुए पूछा
-“तू खुश नइखु का आपना बेटी के जनम से?”
रमावती ने अपने चेहरे पर एक फीकी मुस्कान लाने
की कोशिश करते हुए जवाबदिया,
-“काहे खुश न होखब काकी. ई हमारे नु बेटी हिय.
हम एकर महतारी हई.”
काकी उसकी बात सुनकर थोड़ा इत्मिनान हुई. उसनेमुस्कुराते
हुए कहा
- “ठीक बा! खुश रहे के चाहीं. ई सब भगवान के
मर्जी ह...ठीक बा. तू आपन बेटी के दूध पिआव तब तक हम बाहर से सामान खरीद के
आवतानी.”
रमावती
के ससुर को अपने साथ लेकर सुलछ्नी काकी पड़ोस के दुकान की तरफ चली गयी.रमावती
चुपचाप अपनी बेटी का मुंह ताकती रही.
पौ फटने वाले थे... उजाला आसमान की चादर एक तरफ
से खींच कर सरकाने की कोशिश में था. गाँव के बाहर के आहर के किनारे खड़े पीपल के
वृक्षों पर बगुलों का झुण्ड शोर शुरू कर रहा था. बारिश थम सी गयी थी. हवा में
बारिश की बूँदें अभी तक तैर रही थीं जिससे हवा ठंडी महसूस होती थी. सुलछ्नी काकी
और रमावती के ससुर दोनों साथ में रामशक्ल बनिए की दूकान पर पहुच चुके थे. उन्होंने
बनिए को आवाज लगा कर दूकान खुलवाई. रमावती के ससुर ने रामकुमार को फ़ोन से सूचित कर
दिया कि उसके घर लक्ष्मी आई हैं. दुकान से हल्दी, गुड़ और कुछ सौदा भी ख़रीदा गया.
रमावती के ससुर सुलछ्नी काकी को बार-बार धन्यवाद दे रहे थे और काकी इसे अपना फ़र्ज
बता रही थी. सभीखुश थे. सौदा खरीद कर दोनों जल्द ही वापस घर की तरफ लौट पड़े. जैसे
ही वे घर के समीप पहुंचे उन्हें घर से रमावती के दहाड़ मार कर रोने की आवाज़ सुनाई
पड़ी. दोनों तेज क़दमों से लगभग भागते हुए घर के अन्दर दाखिल हुए. काकी सीधे सौर घर
में चली गईं. रमावती के ससुर दरवाजे पर ही खड़े रहे.अन्दर पहुँचते ही काकी का चेहरा
फक से सफ़ेद पड़ गया. रमावती बिस्तर के एक तरफ बैठी दहाड़ें मार कर रो रही थीं और
दूसरी ओर उसकी बच्ची मरी पड़ी थी.
रमावती का जोर से रोना सुनकर थोड़ी ही देर में उस
टोले की औरतें जमा होने लगी थीं. कोई इसे आम के बागीचे वाले प्रेत का साया बताता.
तो कोई मंगरुआ बो डायन का प्रकोप...कोई देवी माता की नाराजगी बता रहा था तो कोई
आकाल मृत्यु... जो अमूमन गाँवों में सौर घरों में हो जाती है, जिसमें कभी माँ मरती
है तो कभी उसका बच्चा. रमावती के ससुर ओसारे पड़ी खाट पर चुपचाप सिर झुकाए बैठे थे.
उनकी आँखें नम थीं और चेहरा हताश. सुलछ्ना काकी गंभीर हो उठी थी. उसने रमावती की
नवजात बच्चीका शव अपनी गोद उठाया, रमावती के ससुर को साथ लिया और मुर्द्घटिया की
ओर चल पड़ी.
पौ फट चुकी थी, लेकिन मौसम रुआंसा था. रात भर
बारिश जो होती रही थी. आसमान पर अभी भी वर्षा मेघों के कुछ फ़ाहे टहल रहे थे. जमीन
बेहद गीली थी.घास पर नन्हीं-नहीं जल राशियाँ उनींदीं पड़ी थीं. जहाँ-तहां गड्ढों
में पानी जमा था. जमीन की गीली मिट्टी पैरों में चिपककर उन्हें भारी कर रही थीं.
पाँवके तलवे गीली मिट्टी पर अपने पीछे निशान छोड़ रहे थे. धीमे क़दमों से चलते हुए
दो साए गाँव की मुर्द्घटिया पहुँच चुके थे. अमूमन गाँव के लोग मुर्द्घटिया की तरफ
नहीं जाते. इस वक्त भी केवल दो लोग ही वहां खड़े थे. दोनों खामोश थे. वातावरण बोझिल
था. बीच-बीच में पास में कतारबद्ध खड़े
शीशम के पेड़ों से टपकती हुई नन्हीं जलराशियों का जमीन पर पड़े पत्तों का चूमना सुनाई
दे जाता था. रह-रहकर हवा के ठन्डे झोंके माहौल और गमगीन कर जाते थे. कभी-कभी
टिटहरी के आवाज की कर्कशता वातावरण की शांतिभंग कर रही थी. बच्ची का शव काकी की
गोद में था. रमावती के ससुर ने कुदाल से जमीन में एक गढ्ढा खोदा. काकी ने बच्ची के
शव को उस गड्ढे में लिटाया. फिर गड्ढे को भर दिया गया. शव को दफ़नाने के बाद दोनों
कुछ देर तक वहीँ खड़े रहे. दोनों चुप थे.
थोड़ी देर वहां रुकने के बाद दोनों भारी मन से
वापस लौट पड़े. लौटते वक्त काकी का चेहरा भावहीन हो चुका था. वहचुप थी. बच्ची का
सुन्दर चेहरा उसकी आँखों के सामने बार-बार आ रहा था...साथ ही दफ़नाने के वक्त दिखे
उसके गर्दन और शरीर पर हाथों के निशान भी. रमावती ने ऐसा क्यों किया होगा? यह सवाल
उनके मन को बार-बार व्यथित कर रहा था. वह कुछ सोच रही थी. हर सच के कई रूप होते
हैं. उनको देखने का अपना-अपना नजरिया होता है. जो कुछ घटित हुआ था उसके पीछे कुछ
तो रहा होगा...ऐसा नहीं था कि यह इस गाँव की पहली घटना थी. सुलछ्नी काकी आजहताश थी.गाँव
के तिराहे पर उसने रमावती के ससुर से विदा लिया और धीमे क़दमों से अपने घर की ओर
लौट पड़ी.
सबकुछ जैसे विस्तार से गुजरता हुआ बीत गया था.अँधेरा,
मइया के अहाते के भीतर पसर चुका था.इतना कुछ बताते-बताते हुए बुढ़िया की पलकें
गीलीं हो आई थीं. वह उनको पोंछती रही. अजनबी नौजवान की आँखों में भी आंसू थे. पीपल
के पत्तों कीखड़खड़ाहट के अलावे और कोई आवाज नहीं थी. गहराते अँधेरे के साथ मानों
उनकी ख़ामोशी भी धीरे-धीरे गाढ़ी होचली थी.
- “केहू का मालूम रहे कि रमावती के कोख से साक्षात्
देवी मइया अवतार ले ले रही...”
नौजवान चुपचाप सुनता रहा.
एक वक्त था जो गुजर गया था लेकिन उसकी खरोंचे रह
गयीं थीं. उस साल जवार के लोगों के हिसाब से अब तक का सबसे भयानक अकाल पड़ा था.
धानकी फ़सल नहीं हुई. बच्ची के जन्म के बाद दुबारा बारिश नहीं हुई और जवार में सूखे
सी स्थिति हो गई.एकडर बुढ़िया के चेहरे पर उतर आया था. बाद के समय में गाँव में
दो-तीन बच्चों का जन्म तो हुआ लेकिन सबके होठ और तालू कटे हुए थे. पहले-पहल तो ऐसी
बातों की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया. लेकिन जब गाँव के मुखिया के चौथे बेटे का
जन्म हुए तो उसके अंग-भंग थे. गाँव पर जैसे कोई मनहूस साया मंडरा रहा था. आखिरकार
गाँव के पुजारी से सुलछ्नी काकी ने सारी बातें बताई. तब पुजारी ने मुखिया जी को
सलाह दिया कि गाँव की देवी अप्रसन्न हैं. जब तक उनकी पूजा नहीं होगी तब तक गाँव
में जन्म लेने वाले हर बच्चे के साथ ऐसी ही दुर्घटना होती रहेगी. तब पंचायत की
बैठक में यह यह निर्णय लिया गया कि देवी को गाँव में बाँध कर उनका चबूतरा बनवाया
जाय. जिन बच्चों के होठ और तालू कटे हुए थे सबसे पहली पूजा उन्हीं से करवाई जाय.
फिर बच्चों से पूजा-पाठ कराये जाने का क्रम बन गया.और इन देवी मइया की पूजा गाँव
में होने लगी. अब गाँव में शांति है.
बात पूरी करते-करते बुढ़िया के चेहरे पर एक चमक
थी जिसे नौजवान ने महसूस किया. नौजवान गंभीर हो गया था. उसने बुढ़िया से पूछा
- “रमावती अभी भी एही गाँव में रहेली का?”
इस सवाल को सुन बुढ़िया उदास हो गई.
बेटी की हत्या के बाद रमावती कभी चैन से नहीं रह
पायी. पहले बेटे और फिर बेटी की मौत का उसे गहरा सदमा लगा था. लोगों का कहना था कि
उसका दिमाग खराब हो गया था. उसके पति नेपटना ले जाकर उसका इलाज करवाया. बहुतझाड़-
फूँक भी हुई लेकिन रमावती के अन्दर कुछ ऐसा टूट-फूट गया, बिखर गया था जिसकी फिर
कभी मरम्मत नहीं हो सकी. कुछ लोगों का मानना था कि उसे देवी मइया का श्राप लग गया
था! रमावती दो-तीन सालों तक तो गाँव में रही फिर एक दिन पता नहीं कहाँ चली गई. तब
से उसका कोई अता-पता नहीं है. इस घटना को वर्षों बीत गए हैं. अब तो गाँव में किसी को
शायद याद भी नहीं होगा. रामकुमार ने दूसरी शादी कर ली और सपरिवार पटना में ही रहता
है. गाँवमें सिर्फ उसका छोटा भाई अपने
परिवार के साथ रहता है.
अहाते में ख़ामोशी पसरी हुई थी. कुछ दीये चबूतरे
पर रोशन थे. एक गहरी चुप्पी...काफी देर तक.अचानक नौजवान के शरीर में एक हरकत हुई
और वह बोल उठा
-“रउवा सुलछ्नी काकी हई का?”
बुढ़िया अवाक थी. एक अजनबी उसको उसके अपने नाम से
बुला रहा था. पता नहीं यह संबोधन आखिरी बार उसने कब सुना था. उसे हैरानी थी कि यह
उसे कैसे जानता है. लड़के ने गहरीसांस ली और इधर-उधर देखा. उसके आँखों में हल्की
नमी तैर गयी. बुढ़िया ने देखा उसकी आँखों में चमक रहे दीयों की लौ अचानक से कई
भागों में बंट गई . उसने उत्तर दिया
-“हाँ...हम ही सुलछ्नी काकी हई.”
- “हम रमावती के छोट भाई.”
सुलछ्नी काकी को जैसे झटका लगा था. नौजवान बोलता
ही रहा.
- “जब हमरा समझ भइल...छोट बहिन सब कहानी सुना
देलस. रमावती दीदी से मिलल रहीं बहुत बार.उमिर में हमरा से ढेर बड़रही, एह चलते
ज्यादा बातचीत ना होत रहे. हम पढाई खातिर बाहर चल गइल रहीं..होस्टल में. घर आवे के
मनाही रहे. एक बार छुट्टी में मिलल रहीं दीदी से जब उनकर तबियत ढेर ख़राब रहे.
एक-दू दिन रहीं ओह घरी हम घर पर. फिर वापस चल गईल रहीं होस्टल. धीरे-धीरे पढाई में
ऐसे उलझनी कि घर के ज़िम्मेदारी पर ध्यान न रहल. एह से बाद में का भइल हमारा पता न
चलल. आ हम ध्यान देके का करतीं? अब जाके कुछ साल से थोड़ा सोचे के मौका मिलल बा.
जबसे नौकरी में अईनी. हमरा अचानक से दीदी के याद आइल. तब से हम पता करे के कोशिश
में बानी कि दीदी कहाँ बाड़ी? ई मालूम बा कि उ कहीं चल गइल रही. लेकिन मन ना मानल.
एही से ई गाँव में आईनी हा कि शायद कुछ पता चल सके.”
तारे आसमान में चमकने लगे थे. सुलछ्नी काकी ने गहरी
सांस ली,
- “बेटा, जो कुछ भी भइल ठीक ना भइल. बेचारी
रमावती के भाग्य ही ख़राब बना देले रहन भगवान. ओकरा नियन कष्ट केहू के न मिले इहे मनाईब
देवी मैया से.”
यह कहते हुए उसने अपने दोनों हाथ जोड़कर चबूतरे
के सामने अपने सिर नवावा. रमावती का भाई चुपचाप उसेदेखता रहा.
- “अब हमरा के चले के चाहीं. घरे केहू
नइखे...दीया-बाती करेवाला भी. फिर चौका-बासन भी त हमरा के ही करेके पड़ेला.”
रमावती का भाई कुछ नहीं बोला.उसके होठों पर एक
गहरी चुप्पी थी.काकी उठी और अपना सामान सहेजने लगी. रमावतीका भाई चुपचाप वहीं बैठा
रहा. जब काकी जाने को हुई तो उसनेरमावती के भाई से पूछ हीलिया
-“तू त आज यहीं रुकब नु. अपना बहिन के ससुरार
में?”
रमावती के भाई ने इनकार में अपना सिर हिलाते हुए
कहा,
-“नादादी! जब बहिनयहाँना रहल, त फिर हमार उ घर
में जाए आ रुके के कौनो मतलब नइखे.”
काकीउसे चुपचापटुकुर-टुकुर देखती रही. रमावती का
भाई उठा और चाहरदीवारी के बाहर निकल आया. आहार के पानी से उसने अपने हाथ-पैर धोये.
फिर आहाते के भीतर चला आया. घुटनोंपर बैठकर उसने अपने दोनों हाथ जोड़े और चबूतरे पर
विराजमान मइया को प्रणाम किया.मइया को प्रणाम करने के बाद थोड़ी देर तक वह अहाते
में खड़ा न जाने क्या सोचता रहा. फिर उसने अपना सामान लिया और काकी से विदा ली.
काकी कुछ न कह सकी.उसने मौन रहकर ही आशीर्वाद दिया.बाहर आकर उसने अपने जूते पहने और
चुपचाप आहर पर बने कच्चे रास्ते की ओर बढ़ गया. अमावस की रात थी. बिलकुल काली.
धीरे-धीरे रात का कालापन असरकर रहा था. काकी रमावती के भाई को धीरे-धीरे गाँव के
बाहर की ओर जाने वाले रास्ते पर जाते हुए देखती रही. कुछ ही क्षणों में वह अजनबी
नौजवान अँधेरे में घुल गया. काकी की आँखों में आंसू थे. वो अँधेरे में गुम हुए उस
शख्स को देर तक अपनी आँखें फाड़े गौर से निहारती रही...जैसे कोई अपना विदा हुआ हो.
उसने अपनी मटमैली साड़ी के कोर से अपने आँखें पोंछीं और अपना ढोल उठाकर कुछ सोचती
हुई धीमे-धीमे क़दमों से गाँव की ओर लौट पड़ी.
परिचय और संपर्क
नवनीत नीरव
युवा कथाकार
जन्म स्थान – गढ़वा, बिहार
मो. न. - 09693373733
कहानी पढ़ी और पढ़ता ही चला गया। लगा कि जैसे समय रूक गया है। आपास के सैकड़ो सन्दर्भ दिमांग में रेगनें लगे। दुर्गापूजक समाज का यतार्थ जो आज भी वैसा ही है बस थोड़े तौर तरीके बदले है किन्तु कहानी का सच तो उतना ही प्रासंगिक है । कहानी में गांवा के सहअस्तित्व जे जीवन के बदलाव की बात की है किन्तु दूसरा पक्ष की भयावता, मानवीय मन की अथाह गहराई का आभास का जो चित्र उभरा है सचमुच वह प्रशंसनीय है।
जवाब देंहटाएंबधाई हो!
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