रविवार, 24 अगस्त 2014

"ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर" --- तीसरी क़िस्त ---- 'अशोक आज़मी'

                                  अशोक आज़मी



पिछली किस्तों में ‘अशोक आज़मी’ अपने बचपन के दिनों को याद कर रहे हैं | उन दिनों को, जिसमें किसी भी मनुष्य के बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है | वे ‘संघ’ संचालित शिशु मंदिर के उस माहौल में शिक्षा ग्रहण कर होते हैं, जहाँ ‘कट्टरता’ कुलांचे मार रही होती है | आज इस तीसरी क़िस्त में वे 1984 के सिख-विरोधी दंगों के पागलपन को याद कर रहे हैं, जिसमें बहुसंख्यक समाज ‘विवेक-च्युत’ होता हुआ दिखाई देता है | और जो चाहता है कि किसी एक व्यक्ति के गुनाह की सजा सारे समुदाय पर थोप दी जाए | ......



     तो आईये पढ़ते हैं सिताब दियारा ब्लॉग अशोक आज़मी के संस्मरण                       
               

            “ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर” की तीसरी क़िस्त
           
             

           देवियों के कोप अक्सर बेक़सूर मासूमों पर होते हैं




हम पांचवीं में पढ़ते थे जब सन चौरासी आया. उस दिन छुट्टी थी शायद. वजह जो भी पर स्कूल नहीं गया था मैं. लाल बहादुर शास्त्री शिशु मंदिर के मैदान में क्रिकेट जमा हुआ था. उसके पीछे ही हमारे मकान मालिक के भतीजे विनोद चाचा की फैक्ट्री थी जिसमें लोहे के चैनल, गेट वगैरह बनते थे. विनोद चाचा मजेदार कैरेक्टर थे. उनके पापा चकबंदी अधिकारी थे और भ्रष्टाचार तब तक गर्व करने लायक़ चीज़ बन चुका था. चार लड़कों और चार लड़कियों का भरापूरा परिवार उस आठ दस कमरों के आलीशान मकान में जिस शान से रहता था उस शान से तो आई एस एस अधिकारी की तनख्वाह में भी नहीं रहा जा सकता. विनोद चाचा सबसे बड़े थे और सबसे छोटा सुबोध हमसे एक क्लास पीछे था. कोई साढ़े पांच फुट के विनोद चाचा का वज़न कम से कम सौ किलो रहा होगा. समोसे के ठेले पर खड़े होते तो बीस से कम नहीं खाते, अंडे वाला रोज़ दर्ज़न भर उबले अंडे काट और तल के पेश करता. कभी गुपचुप पर कृपा होती तो हाफ सेंचुरी लगाए बिना पिच से नहीं टलते. और किसी की छोड़िये थोड़े दिनों बाद जब उनके बच्चे चन्दन और कुंदन बड़े हुए तो हम सब देख कर आनंद लेते कि विनोद चाचा समोसों पर भिड़े हुए हैं और बच्चे उनकी टांगों से उलझे एक समोसे की मांग के साथ ठुनक रहे हैं . अंत उनका दुखद रहा. चालीस पार करते न करते देह रोग का घर बन गयी और बीमारी के चंद सालों बाद वह चल बसे. बड़े बच्चों को अक्सर माँ बाप की सख्ती बर्बाद करती है और मुहब्बत भी.

खैर, उस दिन अचानक रेडियो हाथ में लिए लिए विनोद चाचा फैक्ट्री से बाहर आये और लगभग रुंधे हुए गले से कहा, “इंदिरा गांधी के मार दिहलें कुल.” बाल हाथ में लिए लिए दीपू भैया ने पूछा, “मरि गइलीं?” सब के सब स्तब्ध, दुखी और शिशु मंदिर की शिक्षा का असर देखिये कि मेरे मुंह से बेसाख्ता निकला, “नीक भईल.” मेरा यह कहना था कि बच्चों की वह पूरी टोली, विनोद चाचा और उनकी फैक्ट्री के कामगारों की भृकुटियाँ तन गयीं. पिटने का पूरा चांस था लेकिन छत पर से पापा बुलाने आये और मैं घर भागा. घर पर जैसे मुर्दानगी छायी हुई थी. रेडियो लगातार बज रहा था और माँ-पापा भरी आँखों से उसे घेरे बैठे थे. मैं समझ नहीं पा रहा था कि कल तक इंदिरा गांधी की इतनी आलोचना करने वाले पापा इतने दुखी क्यों हैं?  वक़्त बीतने के साथ शहर और बाहर से ख़बरें आनी शुरू हो गयीं. दुकानें लुटने की ख़बरों के साथ सरदारों की दुकानों से लूटा हुआ समान लाते पड़ोस के भैयाओं और चाचाओं को हमने देखा. पापा बेहद परेशान थे. तब फोन वगैरह था नहीं और उनके कालेज के जमाने के अजीज दोस्त हरदयाल सिंह होरा शहर के दूसरे छोर पर रहते थे. शाम होते होते वह निकल पड़े और होरा जी के घर पहुँचे. स्थानीय इंटर कालेज में भौतिकी के लेक्चरार होरा जी को उनके पड़ोसियों से घेरा हुआ था. किसी बाहरी की हिम्मत नहीं हुई उनका बाल भी बांका करने की. लेकिन यह क़िस्मत शहर में फैली उनके रिश्तेदारों की दुकानों की नहीं थी. वे लूट ली गयीं. जला दी गयीं. दहशत का वह पहला दौर था जो हमने इतने क़रीब से देखा था. बहुत बाद में गोधरा के बाद हुए दंगों के दौर में गुजरात में रहते हुए इस दहशत को और नंगे रूप में देखा. स्कूल कई दिनों तक बंद रहा. एशियाड देखने के लिए आई टीवी पर हमने इंदिरा जी का शवदाह देखा, भीगी आखों वाले राजीव को देखा और बड़े पेड़ गिरने पर धमक होने वाले उनके अमानवीय बयान को सुना. अमानवीय यह अब लगता है, तब तो रातोरात वह हम सबके प्रिय बन गए. इस क़दर कि जब चुनाव में उनके साथ अमिताभ बच्चन के आने की ख़बर सुनी तो पैदल मैदान तक पहुंचे और अमिताभ के न आने पर भी उनका पूरा भाषण सुने बगैर नहीं लौटे.

दंगो का असर टी वी के बाहर बाद में दिखा. हमारी क्लास में पढने वाले गुरुमीत सिंह नाम के दो लड़कों में से एक की पढ़ाई छूट गयी थी. सब्जी मंडी के पिछले मुहाने पर जहाँ कभी उसकी पक्की दुकान थी अब एक ठेला था जिस पर वह और उसके पिता लालटेन वगैरह का रिपेयर किया करते थे. सैंतालीस के दंगों के वक़्त बेघर होकर यहाँ वहाँ भटकते तमाम सिखों ने तीस पैंतीस सालों में जो कुछ खड़ा किया था वह सब एक पीढ़ी के भीतर गँवा चुके थे. जिस दुकान से पापा जूते खरीदते थे वह लुट चुकी थी, जिस दुकान से माँ रेडीमेड कपड़े खरीदतीं थीं वह लुट चुकी थी. जगह जगह मार पीट हुई थी. हाँ इतना संतोष कि कम से कम हमारे उस कस्बे में कोई बलात्कार नहीं हुआ था, कोई जान नहीं गयी थी. लेकिन देश के दीगर हिस्सों में क्या क्या नहीं हुआ! बेअंत सिंह और सतवंत सिंह के उस गुनाह का बदला देश भर के सिखों से लिया गया था और देश जैसे एक क़त्लगाह में बदल गया. सरकारी टीवी से कम लेकिन अखबारों से वे ख़बरें घर घर में पहुँच रही थी. हमारे शिशु मन प्रभावित होते ही थे, वह दौर कि जब आतंकवाद का नाम हमने पहली बार सुना था और उसका चेहरा किसी सिख के चेहरे जैसा लगता था. बाद में उसे एक मुस्लिम चेहरे में बदलते देखा. माँ देवरिया से ही पढ़ी थीं, उनकी स्मृति में तमाम सिख घरों के फर्श से अर्श पर जाने के किस्से थे. कैसे नंदा बहनजी ने कस्तूरबा में पढ़ाते हुए अविवाहित रहकर भाइयों को सेटल किया और अब उनकी इतनी दुकानें और इतने घर हैं, कैसे फलां सरदार जी ठेले पर अंडे बेचते बेचते इतना बड़ा बिजनेस खड़ा कर गए...और उस कौम ने अपना जीवट तब भी नहीं छोड़ा. एक बार फिर से सब खड़ा करने की कोशिश में लग गए. जली दुकानों की राख बुहारी और झोंक दिया फिर से खुद को और एक दशक के भीतर भीतर सब फिर से खड़ा भी हो गया लेकिन इस दिखाई देने वाले दृश्य के पीछे कितने गुरमीतों का बर्बाद बचपन था वह कोई नहीं देख पाता. देवरिया जाने पर गुरमीत से कई बार मुलाकात हुई, बातचीत हुई पर हमारे दरम्यान वह लम्हा पत्थर सा जम गया था. 

पाँचवी के बाद जब हम सरस्वती विद्या मंदिर पहुँचे. पहले न्यू कालोनी के किसी वक़ील साहब के घर में चलता था. दो किलोमीटर होगा वह और मैं पैदल ही जाया करता था. स्कूल के सामने दीनदयाल पार्क था जो स्वाभाविक रूप से हमारा प्ले ग्राउंड बना. इसके अलावा दो मकान छोड़ के एक प्लाट ख़ाली था तो वह भी खेल के मैदान की तरह उपयोग होता था. हमारा गणवेश बदल गया था और हम नीली गेलिस वाली हाफ पैंट की जगह खाकी हाफ पैंट और सफेद शर्ट पहनने लगे थे. ग्राउंड्स की यह उपलब्धता हमारे भीतर के क्रिकेटर को जगा दिया था. क्रिकेट अब रेडियो से निकल के सशरीर टीवी पर आ चुका था और धीरे धीरे एक दिवसीय क्रिकेट का जादू सब पर तारी हो रहा था. तिरासी का विश्वकप फाइनल हमने लाइव देखा था. उस रात माँ नानी के यहाँ गयी हुई थीं. ननिहाल मेरी बमुश्किलन दो किलोमीटर की दूरी पर थी और माँ अकसर साइत वाइत के बिना जाती आती रहती थीं. मौसा आये हुए थे फैज़ाबाद से और एक रिश्ते के मामा भी. पापा और मैंने भारत के जीतने की शर्त लगाई थी और उन दोनों लोगों ने वेस्ट इंडीज के जीतने की. नतीजतन उस राटा मैच ख़त्म होने पर खिचड़ी उन दोनों लोगों ने बनाई. कपिलदेव हम सबके हीरो थे. पापा कभी कालेज की टीम से क्रिकेट और टेबल टेनिस दोनों खेल चुके थे. आफ स्पिन डालना उन्होंने ही मुझे सिखाया था. लेकिन एक्सपेरिमेंट तो विद्या मंदिर के लंच में उन्हीं मैदानों में हुआ. प्लास्टिक की एक रुपये की बाल आती थी और बैट कोई भी हो सकता था, आधी टूटी टेबल से लेकर लकड़ी के किसी लम्बे टुकड़े तक. कभी कभी कोई असली वाले बैट का जुगाड़ कर देता तो समझिये उसका दर्ज़ा सुनील गवास्कर से कम नहीं होता. मुझे याद है उसी दौर में रवि शास्त्री दूरदर्शन पर एक कार्यक्रम में क्रिकेट सिखाया करते थे तो उनसे भी खूब सीखा. वैसे तो सब आल राउंडर हुआ करते थे तो हम भी, लेकिन मजा ओपनिंग बैटिंग और स्पिन बालिंग में आया करता था. स्कूल के अलावा मोहल्ले में भी क्रिकेट की बहार थी. स्कूल से लौटते ही बस्ता फेंककर सीधे मैदान में. भूप्पन भैया हुआ करते थे पूरे मोहल्ले के आदर्श.

भूप्पन भैया यानी भूपेन्द्र श्रीवास्तव. पिता किसी सरकारी महकमें में काम करते थे, शायद रेलवे में. उन दिनों वह लोग किराए पर रहते थे. भूप्पन भैया दरम्याना क़द के बेहद स्मार्ट युवक. देवरिया की टीम में खेलते थे. पहले प्लेयर जिन्हें हमने सच्ची में हेलमेट, पैड, एडी और ग्लब पहन के खेलते देखा था. ओपनिंग बैटिंग करते थे और उस ज़माने में स्कूटर से घूमते थे. अक्सर खेलने के लिए गोरखपुर, लखनऊ वगैरह जाया करते. फुर्सत में हमें बैटिंग सिखाते थे. बैट पकड़ना, क्रीज के पास खड़ा होना, एक कदम आगे बढ़ा के बल्ले पर पूरा बाडी वेट डालकर डिफेंड करना, स्क्वायर कट, स्टेट ड्राइव वगैरह, वगैरह. मैं शायद नौवीं में रहा होऊंगा. उस दिन दशहरा था. मोहल्ले की सबसे बड़ी जो झांकी सजी थी उसके कर्ता धर्ता भूप्पन भैया ही थे. दस बजे रात तक हम सब वहीँ थे. फिर सुबह उठे तो ख़बर आई. रात में भैया गोरखपुर गए थे. सुबह सुबह मोटर साइकल से लौटते हुए एक्सीडेंट हुआ और वह कोमा में चले गए. पूरे मोहल्ले में ख़बरें तैर रही थीं कि पूजा के चंदे से शराब पी थी उन्होंने और जब लौट रहे थे तो देवी का कोप हुआ. देवी का कोई कोप गुरमीत को जलाने वालों पर नहीं हुआ था. देवी का कोई कोप नहीं हुआ था पड़ोस की उस लड़की के ससुराल वालों पर जिन्होंने उसे जला के मार डाला था. हर बच्चे को समलैंगिक सम्बन्ध के लिए फांसने वाले दीपू भईया पर भी कोई कोप नहीं. बस भूप्पन भैया पर हुआ जो मोहल्ले के सभी बड़ों का पाँव छुआ करते थे, जो क्रिकेट के दीवाने थे, जिनका एक हफ्ते पहले उत्तर प्रदेश की टीम में चयन हुआ था...कई सालों तक वह बिस्तर पर रहे. उठे तो आधा अंग बेकार हो चुका था. हम जब अपने घर में शिफ्ट हुए तो उधर टहलते हुए आया करते थे. आधी देह से संघर्ष करते, एक एक वाक्य बोलने में हाँफते भूप्पन भैया. अपनी ज़िद में इस हालत में रोज़ दो किलोमीटर टहलते भूप्पन भैया. बहुत दिन हुए नहीं देखा उन्हें. किसी ने बताया कि काफी हद तक सामान्य हो चुके हैं अब. शादी वादी भी हो गयी शायद. कुछ करते ही होंगे, बस क्रिकेट नहीं खेलते होंगे भूप्पन भैया.

                                                                                                          
                              .........................................जारी है .....

परिचय और संपर्क

अशोक आज़मी .... (अशोक कुमार पाण्डेय)

वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कवि, आलोचक, ब्लॉगर और प्रकाशक
आजकल दिल्ली में रहनवारी    


  


रविवार, 17 अगस्त 2014

ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर - दूसरी क़िस्त - 'अशोक आज़मी'






संस्मरण की पहली क़िस्त में हमने ‘अशोक आजमी’ की उहापोह भरी हिचकिचाहटो को देखा था, जिसमें वे इसे ‘लिखने और न लिखने’ के बीच झूल रहे थे | और फिर यह सोचकर उन्होंने लिखने का फैसला किया था कि इसे ‘खुद से बातचीत’ करने के तौर पर और ‘जिंदगी को एक बार फिर से जीने’ के तौर पर दर्ज किया जाना चाहिए | पहली क़िस्त में वे शुरूआती दिनों की कही-सुनी स्मृतियों से होते हुए आगे बढे थे | आज इस दूसरी क़िस्त में वे अपने प्राथमिक कक्षाओं के दिनों को याद कर रहे हैं |
          
         
         आईये पढ़ते हैं अशोक आज़मी के संस्मरण                       
               

               “ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर” की दूसरी क़िस्त   


                   “अचार जी अचार नहीं खाते”


स्कूल बड़ी मजेदार चीज़ होती है. मेरे लिए तो और मजेदार रही. पहला क़िस्सा एडमिशन का ही है. पापा ने शोध रायपुर से किया. रविशंकर विश्वविद्यालय में उनके सहपाठी और मित्र थे. उनके निर्देशन में शोध करते हुए तीन साल से अधिक समय रायपुर में ही गुज़ारा. वहां हम यूनिवर्सिटी के पास ही किसी ऐसी चाल में रहते थे जहाँ एक बड़े सेठ ने अपने मकान के पीछे के कम्पाउंड में कई घर बना रखे थे. सबके छत खपरैल के थे. हमारे ठीक पड़ोस में एक रिक्शा मैकेनिक रहते थे. उनकी बेटी शब्बो मेरी हमउम्र थी और जब तक वहाँ रहे वह मुझे राखी बांधती रही. पापा के पास उन दिनों कैमरा था और उसके साथ की कई ब्लैक एंड व्हाईट तस्वीरें अब भी हमारे पास हैं. वहीँ किसी स्कूल में हम पढने जाते थे. देवरिया लौटे तो हमारे मकान मालिक का ही स्कूल था “लाल बहादुर शास्त्री शिशु मंदिर.” एक साल तो वहीँ पढ़े. बड़े मजे थे. प्रिंसिपल कनक मौसी थीं तो टीचर बेबी बुआ. दोपहर में मम्मी एल्यूमिनियम के डब्बे में गर्म पराठे सब्जी पहुँचाती. मतलब घर का स्कूल. फिर अगले साल पापा तीसरी कक्षा में एडमिशन के लिए सरस्वती शिशु मंदिर ले कर गए. वहाँ टेस्ट लिया गया. रिजल्ट यह कि तीसरी की जगह चौथी में एडमिशन मिला और हम चतुर्थ क के विद्यार्थी हुए.


पढ़ाई में मैं औसत था और इसका श्रेय मुझे एकदम नहीं जाता है. मैंने हमेशा ख़राब विद्यार्थी होने की कोशिशें कीं. लेकिन शिक्षक पिता, अपना सारा प्रेम भूल पढ़ाई के लिए सख्त हो जाने वाले बाबा और पुत्रहीन नाना के रहते ख़राब विद्यार्थी होना मेरे बूते के बाहर की बात थी. यह डेमोक्रेसी और चाइल्ड राईट सब बाद की बातें हैं. हम तो पापा के शानदार बैक हैण्ड के बाद गालों पर उभरी पांच अँगुलियों के छाप वाले ज़माने के हैं. पापा पढ़ते समय सामने की कुर्सी पर बैठते और ग़लती होने पर उनका टेबल टेनिस का अभ्यस्त हाथ उसी चपलता से चलता. बाबा मारते नहीं थे लेकिन कम नंबर आने पर उनकी इकलौती कहानी पहले पैरा से शुरू होती और भयंकर ग़रीबी में पढ़कर टाप करने वाले उनके बेटों का पूरा क़िस्सा ग़ालिब-ओ-फ़िराक के शेरों और पुरबिहा सुभाषितों के साथ इतनी बार सुना कि अब तक कंठस्थ है. नाना के पास गीताप्रेस और उपनिषदों-पुराणों के अतिरिक्त डोज़ थे तो क़िस्सा कोताह यह कि ठीक ठाक विद्यार्थी होने के अलावा उस नन्हीं जान के पास कोई और विकल्प नहीं था.


पहले दोस्त शिशु मंदिर में ही बने. वहां का समाज शास्त्र बहुत साफ़ था.  कस्बानुमा शहर के परम्परावादी मध्य वर्ग और निम्नमध्यवर्ग के बच्चे और सेठ-साहूकारों के बच्चे. बाक़ी जो ज़्यादा फीस दे सकते थे या जिन्होंने दुनिया देखी थी उनके बच्चे कान्वेंट में पढ़ते थे. उनका लहजा थोड़ा अलग होता. जैसे हम वनली बोलते थे तो वे ओनली. तो हम उन्हें “बन बन के बोलने वाले” कहते थे. सेठ साहूकारों के बच्चे वैसे तो पढ़ाई के मामले में अक्सर बैक बेंचर ही होते थे लेकिन बाक़ी चीजों में सम्मान उन्हें अधिक ही मिलता था. हमारे प्रधानाचार्य थे शंकर जी मिश्र. ज़्यादातर आचार्य जी लोग पंडित या ठाकुर साहब ही थे. कुछ बहन जी भी थीं. आचार्य लोग सफ़ेद धोती कुर्ता पहनते थे और बहन जी लोग नीली एकरंगी साड़ी. शंकर जी हमेशा बीमार रहते थे. कोलाइटिस था शायद. स्कूल के अलावा मिलने की जगह थी शाखा. आचार्य जी लोग सुबह सबेरे खाकी कच्छा और सफ़ेद शर्ट पहनकर शाखा लगवाते. भगवा झंडा लगता और हिटलर वाले अभिवादन की मुद्रा में गाया जाता – नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि. तो हम भी उत्साह में दो तीन दिन शाखा में गए. चौथा दिन रहा होगा, पापा ग्राउंड पर पहुँचे और पहले तो कान पकड़ के हमें एक किनारे किया फिर आचार्य जी को जो डांट लगाईं तो आचार्य जी आचार्य मुद्रा से सीधे विद्यार्थी मुद्रा में आकर जी सर जी सर करने लगे. वह पापा के विद्यार्थी रहे थे. बुरा तो लगा लेकिन कालेज के शिक्षक होने का वह रौब दिमाग में ऐसा दर्ज़ हुआ कि तय कर लिया बड़ा होके कालेज का टीचर ही बनना है. खैर इस तरह हमारा मन एक और बार मारा गया और हमारा शाखा में जाने का कार्यक्रम हमेशा हमेशा के लिए ख़त्म हो गया. लेकिन नज़र तो हम पर पड़ ही चुकी थी आचार्य जी की.


स्कूल में साम्प्रदायिक मानस बनाने का काम संघ बहुत होशियारी से करता है. ऐसा नहीं है कि सीधे सीधे दंगा भड़काने की भाषा बोली जाय. बहुत आहिस्ता आहिस्ता आपके मन में यह भर दिया जाता है कि हिन्दुस्तान हिन्दुओं का देश है, मुसलमान सिर्फ आक्रमणकारी थे और उन्होंने हमारे धर्म पर हमला किया, हमें ग़ुलाम बनाया जिसके ख़िलाफ़ वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी. जो प्रेरक प्रसंग सुनाये जायेंगे उनका सन्देश अक्सर यही होगा कि किस तरह आक्रमणकारी मुसलमानों ने हमारी माँ-बहनों के साथ उत्पात करने की कोशिश की और किसी वीर ने उसका प्रतिकार किया. अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई में सभी हिन्दू योद्धाओं को उनके विचारों से अलग कर सिर्फ मातृभूमि और धर्म के लिए लड़ने वाले वीरों में तब्दील कर दिया जाता है. गुरुओं की महानता को लेकर जिस तरह से बताया जाता है वह बच्चों के पूरे मनोविज्ञान पर असर डालता है. मैं याद करूँ तो दो चीज़ें मेरे साथ हुईं, पहला अपने ब्राह्मण होने को लेकर एक अभिमान और दूसरा अपने काले रंग का होने को लेकर हीनभावना का जन्म. ज़ाहिर तौर पर इन दोनों के लिए सिर्फ स्कूल जिम्मेदार नहीं था. देवरिया जैसे ब्राह्मण बाहुल्य वाले शहर में एक शिक्षक का बेटा होना और पिपरपांती जैसे गाँव में ननिहाल का होना, घर बाहर हर जगह ब्राह्मण ही ब्राह्मण थे. मुझे नहीं याद आता कि हमारे घर आने जाने वालों में कोई मुसलमान या दलित परिवार था. स्कूल भी ऐसा जहाँ मुसलमानों के बच्चे नहीं पढ़ते थे. जिस मोहल्ले में था वहाँ श्रीवास्तव लोगों का बहुमत था. पापा के कालेज में जो विभाग पंडितों और ठाकुरों में बंटे हुए थे. दलित पिछड़े हमारे जीवन में घर में काम करने वाली बाई, हमारे कपडे सिलने वाले टेलर मास्टर, हमारे जूतों की मरम्मत करने वाले, हमारे घरों में रंगाई करने वाले जैसी भूमिकाओं में ही थे. तो वह मानस बनाने के लिए एक तरफ  स्कूल में वैचारिक ट्रेनिंग थी तो दूसरी तरफ समाज में हमारी अवस्थिति. रंग को लेकर कई चीजें थीं जिन पर आगे बात करूँगा. अभी इतना ही कि हमारा वह शिशु मंदिर ‘को-एड’ वाला था.  (यहाँ एक स्माइली देखी जाय)


आजकल स्कूली बच्चों के प्रेम आदि पर बहुत चिंता की जा रही है. मैं आपको कोई तीस साल पहले के दौर में ले जा रहा हूँ. शिशु मंदिर में वार्षिक आयोजन के लिए एक नाटक होना था. कृष्ण के जीवन पर. राधा बनीं हमारे पंचम ख की एक लड़की. कृष्ण बनने के लिए दो लड़कों में लड़ाई हो गयी. और इस क़दर हुई कि नाटक कैंसिल करना पड़ा. उसी सांस्कृतिक कार्यक्रम में एक और नाटक था. शायद खुदीराम बोस पर. मुझे उसमें वकील की भूमिका मिली. कारण अलग थे, पर नाटक वह भी नहीं हुआ. हाँ, अध्यक्ष होने के नाते भाषण देने का मौक़ा ज़रूर मिला. शिशु मंदिर सांस्कृतिक आयोजनों और भाषण वगैरह को लेकर शुरू से बहुत सक्रिय थे. सांस्कृतिक आयोजनों के सहारे विचारधारा का जो प्रसार वे बच्चों के बीच करते हैं, उसका आजीवन प्रभाव रहता है. मैं कम्युनिस्ट नहीं हुआ होता तो पक्का संघ का बड़ा प्रवक्ता होता.


एक और चीज़ जो उनसे सीखनी चाहिए वह थी उनकी नेट्वर्किंग. उनके लिए एक बच्चा एक परिवार तक पहुँचने का साधन होता है. आचार्य जी लोग कभी भी आपके घर आ सकते थे. बहाना बच्चों की पढ़ाई से लेकर किसी आयोजन के लिए चंदा मांगने तक कुछ भी हो सकता था. घरों पर आचार्य जी लोगों का शानदार स्वागत होता था. कभी बाहर से कोई अतिथि, अक्सर संघ के प्रचारक, आते तो उन्हें चुनिन्दा परिवारों के भोजन करने ले जाया जाता. वे घर आते, अभिभावकों से बतियाते और खाना खा के जाते. इतना समय प्रभावित करने के लिए काफी था. मेरे घर भी अक्सर आना जाना लगा रहता. ऐसे ही एक दिन शंकर जी एक संघ प्रचारक के साथ भोजन के लिए आये हुए थे, खाना लग रहा था. छोटा भाई अचार की प्लेट लेकर गया तो कोलाइटिस के मरीज़ शंकर जी ने अचार के लिए मना कर दिया. वह वहीँ से चिल्लाता हुआ भागा, मम्मी, अचार जी अचार नहीं खाते. पूरा घर ठहाकों से भर गया. इस नन्हे बच्चे को आगे चलकर शिशु मंदिर के सबसे प्रतिभावान विद्यार्थियों में शामिल होना था. 


लेकिन इन सब कोशिशों का हम बच्चों पर इतना प्रभाव भी नहीं पड़ता था. हममें से अधिकाँश अपनी पढ़ाई लिखाई के अलावा फ़िल्मी गानों और बदलती दुनिया के नए रिवाजों के साथ बड़े हो रहे थे. उस जातिवादी और धार्मिक मानस के बावजूद हममें से अधिकाँश दूसरे सामान्य बच्चों से ही थे. हम प्रेम करते थे, मिथुन की नक़ल में डिस्को डांस करते थे और मानव देह के गोपन रहस्यों के बारे में फुस्फुसा के बात करते थे. छठीं में विद्यामंदिर पहुंचें तो ‘को-एड’ ख़त्म हुआ. हमारी प्रेमिकाएं, जिन्हें निश्चित रूप से हमारे प्रेम के बारे में कुछ नहीं पता था, कस्तूरबा गर्ल्स कालेज या मारवाड़ी गर्ल्स कालेज में गयीं और हमें देखकर शर्माने लगीं. उनके लिए आगे संघ का स्कूल नहीं था. उन्हें इन गर्ल्स स्कूलों में अच्छी महिलायें बनने के गुर सीखने थे. शिशु मंदिर के जिस इकलौते जोड़े, पारिजात और दिवा ने बाद में प्रेम विवाह किया उनके प्रेम के बारे में तब तक तो हमें कुछ पता न था, बल्कि पारिजात तो कृष्ण की जिस भूमिका के लिए लड़ा उस नाटक में राधा कोई और थी.  मैं इन सब के बीच उन दिनों अजीब कशमकश में रहता. कवितायें लिखना शुरू हो गया था. कापी के पिछले पन्नों पर छंद में गीत लिखा करता. देशभक्ति गीत या फिर प्रेम गीत. विरह से भरे प्रेम गीत. बहुत बाद में जब लम्बी कहानी लिखी तो स्कूल से ही कवितायें लिखने वाले अफज़ल से उन्हीं कापियों के पिछले पन्नों पर जो कविता लिखवाई वह उसी दौर की स्मृति में बची एक कविता है.


जिसे आजकल टीनेजर कहते हैं, उसकी बहुत बुरी स्मृतियाँ हैं मेरे खाते में ...   वह आगे ...|

                                                  जारी है ........

परिचय और संपर्क

अशोक आज़मी .... (अशोक कुमार पाण्डेय)

वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कवि, आलोचक, ब्लॉगर और प्रकाशक
दिल्ली में रहनवारी 

   

 


रविवार, 10 अगस्त 2014

ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर ..... अशोक आज़मी

                                अशोक आज़मी


सिताब दियारा ब्लॉग पर धारावाहिक के रूप में छपने वाला यह दूसरा संस्मरण है | इसके पहले विमल चन्द्र पाण्डेय के चर्चित संस्मरण ‘ई ईलाहाबाद है भईया’ को आप लोग इस ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं | हमारे लिए यह अत्यंत सुखद है कि कई दिनों/सप्ताहों की झिझक के बाद युवा कवि/आलोचक अशोक आजमी ने जब अपनी स्मृतियों को दर्ज करने का फैसला किया, तो इसके लिए उन्होंने ‘सिताब दियारा’ ब्लॉग को चुना | हालाकि अभी वे इस बात पर जोर दे रहे हैं कि इसे अनियतकालीन ही रहने दिया जाए | और इसके लिए अपनी लम्बी-चौड़ी व्यस्तताओं का हवाला भी दे रहे हैं | फिर भी हमारी दिली ख्वाहिश है कि हम सब प्रत्येक रविवार को इसे ‘सिताब दियारा’ ब्लॉग पर पढ़ें | मुझे उम्मीद है कि पाठकों की तरफ से आने वाली प्रतिक्रियाएं उन्हें इसे आगे लिखने के लिए प्रेरित करेंगी |

               
            तो आईये पढ़ते हैं युवा कवि/आलोचक अशोक आज़मी के संस्मरण 
                                           
                            ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर...
                                              
                                की पहली क़िस्त  

स्मृतियों के बारे में जब भी कुछ दर्ज़ करने की इच्छा होती है तो कोई चार साल पहले ग्वालियर के पास के अपने जन्मस्थान से लौटे वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना का उदास चेहरा याद आता है. उन्होंने कहा था, “जहाँ की स्मृतियाँ बहुत सुखद हों, वहाँ लौटकर नहीं जाना चाहिए...स्मृतियाँ नष्ट हो जाती हैं. फिर शुरू करें तो कहाँ से करें? सारी स्मृतियाँ अर्जित नहीं होतीं. माँ और पापा ने जितना कुछ बताया है बचपन के बारे में वह सब याद्दाश्त के सहारे दर्ज है मष्तिष्क में... जो जन्म के पहले से शुरू हो जाता है. लगता है जाड़े की वह अँधेरी रात और हसन हुसैन की याद में सीना पीटते मातमी लोगों के साथ मुंह में रुई के फाहे से दूध पिलाती छोटी बुआ का चित्र वैसे के वैसे अंकित है. आधी रात को जाकर भजन मंडली बुक कराते बाबा की हुलस और सारे शरीर पर निकले दानों के साथ इस हास्पीटल से उस हास्पीटल घूमते माँ पापा मेरी इस याद्दास्त में शामिल हैं. रायपुर का वह खपरैल का छत और उसमें इकलौते टेबल फैन पर तौलिया निचोड़ कर रखता वह बालक और पड़ोस के साइकल मैकेनिक की बेटी शब्बो जैसे इस ब्लैक एंड व्हाईट एल्बम में सबसे बीच के पन्ने पर सजे हुए हैं और ऐसे ही कितने सारे चित्र जिन्हें माँ पापा की बातों ने गढा है.

फिर यह ख्याल कि आखिर ऐसा क्या अलग है इस ज़िन्दगी में कि किसी की दिलचस्पी हो? चालीस की उम्र का खिचड़ी बालों और उभरते खल्वाट वाला दागों से भरे काले चेहरे और बेडौल शरीर वाला यह कलमघसीट आख़िर क्योंकर किसी की दिलचस्पी का बायस हो? वह भी तब जब इस चालीस साल का हासिल महज कुछ काले सफ़ेद पन्ने और ढेर सारी नाकामियाँ हों? बारह साल कविता लिखने के बाद जिसके पास एक अदद पुरस्कार तक न हो और जिसे साल में भूले भटके कोई दो एक बार कविता पढने बुलाता हो उसे खुद को कवि कहने का हक़ भी पता नहीं है या नहीं? ऊपर से एक ऐसी विचारधारा का झंडा उठाने का दुस्साहस जिसका फैशन अब बीत चुका हो, वह भी किसी संगठित गिरोह के प्रमाणपत्र के बिना! या फिर यह होना ही अलग होना है? अगर सिर्फ इतना ही अलग होना है तो ऐसे अलगकी ऐसी की तैसी कर देनी चाहिए न? तो फिर यह लिखना यह ऐसी की तैसीकरना ही हो तो एक वजह बनती है शायद. लेकिन अपनी ऐसी तैसी कर पाना आसान है क्या? फिर आसान काम करने में मज़ा भी क्या है? तो लब्बोलुआब यह कि बस लिखने का मन है...खुद से बतियाने का मन है. जहाँ तक मुमकिन हो. काम मुश्किल और आसान दोनों इसलिए है कि न कभी डायरी लिखी न कोई नोट्स लिए. तो जो स्मृति में अपने आप रह जाए बस वही था याद रखने लायक. जो भूल गया वह शायद भूल जाने लायक था. आखिर खाना खाना भूला जा सकता है, सांस लेना थोड़े न भूला जा सकता है!

मूर्त स्मृतियों की सबसे पुरानी कड़ी स्कूल की ही है. यह भी एकदम साफ़ नहीं है. पुराने ब्लैक एंड फोटो को जैसे किसी ने अनजाने में गोंद लगा के चिपका दिया हो और फिर उसमें उभर आये धब्बों के बीच से कुछ कुछ पहचानने की कोशिश कर रहा हो. देवरिया...जहां पापा इकलौते साइंस कालेज में भौतिक विज्ञान पढ़ाते थे. पारस नाथ श्रीवास्तव का बहुमंजिला मकान जिसका दूसरा हिस्सा उनके सबसे छोटे भाई का था और कुल मिलाके पंद्रह से अधिक किरायेदार उन दोनों हिस्सों में रहते थे. पारस लाल जी पटवारी से प्रमोट होके कानूनगो हो चुके थे. उम्र इतनी थी कि हम उन्हें बाबा कहते थे. उनके दोनों पुत्र हुए चाचा और चारो पुत्रियाँ बुआ. अगल बगल ऐसे चाचाओं और बुआओं की भीड़ थी. इन मकानों से किरायेदार तभी निकलते थे जब उनके अपने मकान बन जाते. विश्वास अभी बाकी था तो न कोई लिखा पढ़ी होती न कोई डील या बिचौलिया. बस लोग रहने लगते और फिर उसके रहवासी बन जाते. हम पहली मंजिल पर रहते थे. पापा के गुरूजी होने की अलग इज्जत थी. तीन कमरे थे एक चौका एक बड़ा सा आँगन जिसके बीचोबीच खटिया का नेट बनाकर हम बैडमिन्टन खेलते थे..हम यानी मैं और पापा. छोटा भाई बहुत छोटा था. छत से चिड़िया टकराए तो फाउल होता था. पापा की सारी दुनिया घर से थी. सुबह अखबार पढके नहाने जाते और फिर नाश्ता करके कालेज. शाम को क्लास छूटते ही साइकिल सीधे घर पर आके रूकती. न पान की कोई गुमटी, न चाट का कोई अड्डा.

यह सब मुझे करना था पर उसमें अभी वक़्त था. अभी तो सरस्वती शिशु मंदिर का टिन से बना गुमटी वाला रिक्शा था जिसमें बैठ के रोज़ आना जाना था. अभी उसमें बैठे बच्चों का मुझे अशोक मसाले कह कर चिढ़ाना था और मेरा उनसे लड़ना. अभी तो विश्राम जी थे, सुदर्शन जी थे, रामाश्रय जी थे...और तमाम आचार्य जी लोगों की उपस्थिति में रोज़ सरस्वती वंदना से भोजन मन्त्र, शान्ति मन्त्र और प्रेरक प्रसंगों के बाद वन्दे मातरम गा के लौटना था. जी. वन्दे मातरम...जनगण मन नहीं. देश में सरकारी शिक्षा का भगवाकरण भले अब हो रहा हो लेकिन इन शिशु मंदिरों के ज़रिये गैर सरकारी स्तर पर यह बरसों से ज़ारी है. संघ के प्रचारक ही इसमें शिक्षक होते हैं. इतिहास से लेकर हिंदी तक की किताबें भगवा रंग में रंगी होती हैं और साथ में प्रेरक प्रसंगों से लेकर सुभाषित और प्रातः स्मरण बचपन से एक साम्प्रदायिक मानस का निर्माण करते हैं. इतिहास गा रहा है में जो इतिहास है वह इन दिनों टी वी सीरियल्स में दिखाए जा रहे इतिहास से बहुत अलग नहीं होता. यहाँ गोलवलकर और हेडगेवार पूज्य होते हैं तो ज़ाहिर है उनकी शिक्षाएँ गीता के श्लोकों सी होती हैं. शहर का वणिक समुदाय जो कभी इनका सबसे बड़ा फाइनेंसर होता था, अब जो अपने स्कूल खोल रहा है उनमें भी संस्कृति के नाम पर यही सब परोसा जाता है. उस दौर में छोटे शहरों का सवर्ण मध्यवर्ग अपने बच्चों को कान्वेंट के सांस्कृतिक प्रदूषण से बचाने सरकारी स्कूलों की जगह इन स्कूलों में भेज रहा था. वही बच्चे आज बड़े होकर संघ और भाजपा के समर्थन वाले मध्यवर्ग में तब्दील हुए हैं.

खैर डायलेक्टिक्स भी एक चीज़ होती है! हमने उस स्कूल में सीखा भाषण देना. जिस दिन हमारी कक्षा को प्रेरक प्रसंग कहना होता उस दिन अक्सर कोई किस्सा गढ़ लेते. आखिर जो सुनाये जाते थे वे भी तो गढ़े ही हुए थे न. एक और चीज़ सीखी. नेतागिरी. शिशु मंदिर में छात्र कार्यकारिणी का अध्यक्ष बना तो विद्या मंदिर (मिडिल स्कूल) में भी शायद विज्ञान मंत्री था. शुद्ध हिंदी में ओजस्वी भाषण देता था और पढने में भी ठीकठाक था. भाषण देने की यह कला बाद में भी और अब भी बहुत काम आती है. स्कूल के कुछ किस्से और...लेकिन अगली किस्त में.


                                    ...........जारी है

परिचय और संपर्क

अशोक आज़मी  ... (अशोक कुमार पाण्डेय)

वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कवि, आलोचक, ब्लॉगर और प्रकाशक
आजकल दिल्ली में रहनवारी


           

सोमवार, 4 अगस्त 2014

कविता श्रृंखला "कमाल की औरतें" - शैलजा पाठक




शैलजा पाठक की कवितायें और डायरी के पन्ने आप पहले भी सिताब दियारा ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं | कहना चाहता हूँ कि युवा हिंदी कविता की इस संवेदनशील आवाज को बार-बार पढने की ईच्छा होती है | एक ऐसी आवाज को, जिसमें हमारी आधी दुनिया का पूरा सच सामने आता है | और वह भी पूरी संवेदनशीलता के साथ | पूरी कलात्मकता के साथ | यहाँ प्रस्तुत “कमाल की औरतें” नाम की इस कविता-श्रृंखला को पढने के बाद शायद आप मुझसे असहमत नहीं होंगे | तो लीजिये प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर ......        

         
           शैलजा पाठक की कविता श्रृंखला  “.....कमाल की औरतें .....”
                 

एक ....

ये तहों में रखती हैं अपनी कहानियां
कभी झटक देती है धूप की ओर
अपने बिखरे को बुहार देती हैं

ये बार बार मलती हैं आँख
जब सहती हैं आग की धाह
ये चिमटे के बीच पकड़ सकती है धरती की गोलाई
धरती कांपती है थर थर

ये फूल तोडती हुई मायूस होती है
पूजा करती हुई दिखाती हैं तेजी
बड बडाती है दुर्गा चालीसा
ठीक उसी समय ये सीधी करती है सलवटें
पति के झक्क सफ़ेद कमीज की

इनकी पूजा के साथ निपटाए जाते हैं खूब सारे काम
ये नमक का ख्याल बराबर रखती हैं
बच्चों के बैग में रखती हैं ड्राइंग की कॉपी
तो बड़ी हसरत से छू लेती है उसमे बने मोर के पंखों को

ये छोटे बेटे के पीछे पंख सी बन भागती है
कि छूटती है बस स्कूल की
"तुम हमेशा टिफिन बनाने में देर कर देती हो मम्मा '
इनकी हाथों में लगा नमक इनकी आँखों में पड जाता है

ये बार बार ठीक करती है घडी का अलार्म
आधी चादर ओढ़ कर सोई ये औरतें
पूरी रात बेचैन कसमसाती है सांस रोके
इनकी हथेलियों में पिसती हैं एक सुबह
आँख में लडखडाती है एक रात

ये उठती है तो दीवार से टिक जाती हैं
संभलती है चलती है पहुचती है गैस तक
खटाक की आवाज के साथ जल जाती हैं

और तुम कहते हो कमाल की औरतें हैं
चाय बनाने में इतनी देर लगाती हैं ...|



दो .....


देर तक औरते अपनी साड़ी के पल्लू में
साबुन लगाती रहती है 
कि पोंछ लिए थे भींगे हाथ
हल्दी का दाग अचार की खटास या थाली की गर्द 
या झाड लिया था नमक
पोंछ ली थी छुटका का मटियाना हाथ 
साथ इसके ये भी
कि गठिया कर रखी थी ज़माने भर का दर्द 
सर्द बिस्तर पर निचुडने के बाद
माथा पोंछा था शायद 
बाद मंदिर की आरती की थाली भी 
बेचैनियों पर आँख का पानी भी
ज़माने भर के दाग धब्बे को 
एक पूरा दिन खोसें रही अपने कमर के गिर्द
अब देर तक अपना पल्लू साफ़ करेंगी औरते 
कि पति के मोहक छड़ों में
मोहिनी सी नीले अम्बर सी तन जायेंगी 
ये कपडे को देर तक धोती नजर आएँगी 
मुश्किल के पांच दिनों से ज्यादा मैले कपडे
ज़माने का दाग 

ये अपनी हवाई चप्पलों को भी
धोती है देर तक 
घर की चहारदीवारी के बाहर
पैर ना रखने वाली घूमती रहती हैं 
अपनी काल्पनिक यात्राओं में दूर दराज 
ये जब भाग भाग कर निपटाती है अपने काम 
ये नाप आती है समन्दर की गहराई
देख आती है नीली नदी 
चढ़ आती है ऊँचे पहाड़ 
मायके की उस खाट पर
अपने पिता के माथे को सहला आती है 
जो जाने कबसे बीमार है 
इनके चप्पल हज़ार हज़ार यात्रा से मैले है 
ये देर तक ब्रश से मैल निकालती पाई जाती है 

ये देर तक धोती रहती है मुंह की आग
कि भाप को मिले घडी भर आराम 
ये चूड़ियों में फंसी कलाइयों को
निकाल बाहर करती है जब धोती हैं हाथ 
ये लाल होंठो को रगड़ देती है
सफ़ेद रुमाल में उतार देती हैं तुम्हारी जूठन 
ये चौखट के बाहर जाने के रास्ते तलाशती है
पर रुकी रह जाती है अपने बच्चों के लिए

ये देर तक धोती है अपने सपनें
अपने ख्याल अपनी उमंगे
इतनी कि सफ़ेद पड जाए रंग 
ये असली रंग की औरतें
नकली चेहरे के पीछे छुपा लेती है
तुम्हारी असलियत 
ये औरतें अपने आत्मा पर लगी
तमाम खरोचों को भी छुपा ले जाती हैं 

और तुम कहते हो ..
कमाल की औरतें हैं..
इतनी देर तक नहाती हैं ..... |


तीन .....


औरतें भागती गाड़ियों से तेज भागती है 
तेजी से पीछे की ओर भाग रहे पेड़ 
इनके छूट रहे सपनें हैं 
धुंधलाते से पास बुलाते से
सर झुका पीछे चले जाते से 
ये हाथ नही बढाती पकड़ने के लिए 
आँखों में भर लेती है
जितने समा सकें उतने 

ये भागती हिलती कांपती सी चलती गाडी में ..
जैसे परिस्थितियों में जीवन की 
निकाल लेती है दूध की बोतल ..
खंघालती है उसे  
दो चम्मच दूध और आधा चम्मच चीनी का
प्रमाण याद रखती है 
गरम ठंढा पानी मिला कर बना लेती है दूध 
दूध पिलाते बच्चे को गोद से चिपका
ये देख लेती है बाहर भागते से पेड़ 
इनकी आँखों के कोर भींग जाते हैं
फिर सूख भी जाते है झट से 

ये सजग सी झटक देती है
डोलची पर चढ़ा कीड़ा 
भगाती है भिनभिनाती मक्खी
मंडराता मछ्छर 
तुम्हारी उस नींद वाली मुस्कान के लिए 
ये खड़ी रहती है एक पैर पर 

तुम्हारी आँख झपकते ही
ये धो आती आती है हाथ मुंह 
मांज आती है दांत
खंघाल आती है दूध की बोतल 
निपटा आती है अपने दैनिक कार्य 
इन जरा से क्षणों में
ये अपनी आँख और अपना आँचल
तुम्हारे पास ही छोड़ आती हैं 

ये अँधेरे बैग में अपना जादुई हाथ डाल 
निकाल लेती है दवाई की पुडिया तुम्हारा झुनझुना 
पति के जरुरी कागज़ यात्रा की टिकिट 
जिसमे इनका नाम सबसे नीचे दर्ज है 

अँधेरी रात में जब निश्चिन्त सो रहे हो तुम 
इनकी गोद का बच्चा
मुस्काता सा चूस रहा है अपना अंगूठा 
ये आँख फाड़ कर
बाहर के अँधेरे को टटोलती हैं 
जरा सी हथेली बाहर कर
बारिश को पकड़ती है 
भागते पेड़ों पर टंगे
अपने सपनों को झूल जाता देखती हैं 
ये चिहुकती हैं बडबडाती है
अपने खुले बालों को कस कर बांधती है 
तेज भाग रही गाडी की बर्थ नम्बर ५३ की औरत 

सारी रात सुखाती है बच्चे की लंगोट
नैपकिन खिडकियों पर बाँध बाँध कर 
भागते रहते हैं हरे पेड़
लटक कर झूल गए सपनों की चीख
बची रह जाती है आँखों में 
भींगते आंचल का कोर
सूख कर भी नही सूखता 
और तुम कहते हो की कमाल की औरतें हैं 
ना सोती है ना सोने देती हैं 

रात भर ना जाने क्या क्या खटपटाती हैं ............... 


चार .....

ये औरतें अपनी ख़राब तबियत को टालती हैं
जितना हो सकता है परशानियाँ पालती हैं
फिर झल्लाकर उसे महीन चलनी से छानती हैं
छन जाती है उतने से ही काम निपटाती हैं
कुछ स्थूल चीजों पर नही जाता इनका ध्यान

जैसे उनका मन उनके सपने
अपनी बातें दुःख दर्द
ये उसे घर के कूड़ा कचरे के साथ
बाहर वाले घूरे पर डाल आती हैं

ये कम ही बची रहती हैं
पर काम पूरे करती हैं
औरतें अपने जीवन के सबसे सुन्दर समय में
उठाती है घर की जिम्मेवारी
जनती है बच्चे करती हैं परवरिश
ये बीत गये उम्र की औरतें
रीत जाती हैं घर की घर में

इनकी आँखों के इर्द गिर्द धूप जमा होती हैं
पर ये देखने लगती है पहले से कम

ये नही भूलती अपनी पहली कविता की डायरी
४०० की बाधा दौड़ की ट्रोफी
ये नही भूलती अपनी गुडिया अपना खेल
अपने बच्चो के साथ
अपने बचपन को दुहराती है
अपने गुड़ियाँ की हंसी देख
अपने आप को बिसर जाती है

आग हवा पानी मिटटी से बनी औरते
जितना बचती हैं उतने से ही रचती है इतिहास

अपने बॉस के फिरंगी रंग
औरतों के सामने शर्मिंदा होते हो तुम-
कि मैं बस हॉउस वाइफ हूँ !
उस वक्त मैं चीख कर बताना चाहती हूँ -
कि तुम सब की संतुष्ट डकार के लिए
रसोई में कितना मिटी हूँ मैं
एक पैर पर खड़ी जुटाती रही छप्पन रंग
कि तुम्हारी तरक्की के सपनों को मिले नया आकाश !

दर्द की पट्टियाँ बदलती औरतें
घूमती धरती पर जम कर खड़ी है
तुम्हारी दीवारों में घुली है गारे मिटटी की तरह
तुम्हारे बिस्तर पर तुम्हारी चाह बनकर

और तुम कहते हो कमाल की औरते है
दिन भर घर में पड़ी रहती है..
खाती है मोटाती हैं
शाम को बेहोश पसर जाती हैं
ना कहीं आती हैं ना जाती हैं ............. |


पांच ....


ये औरतें
ससुराल आते ही दर्ज हो जाती हैं
राशन कार्ड पर मुस्कराती सी
अब घर में ज्यादा शक्कर आता है
महीने में कुछ ज्यादा गेहूं
इनके जने बच्चों के भी नाम
दर्ज होते हैं फटाफट
ये कार्ड में संख्या बढाती है।

और अपने ही नाम पर मिले मिटटी तेल
से एकदम अचानक ही भभक कर जल जाती हैं
इनके बाल झुलसे आँखे खुली 
देह राख हो जाती हैं
रसोई में बिखरी होती है 
इनके हिस्से की चीनी
जो गर्म नदी में तब्दील हो जाती है
इनकी चूड़ियाँ चुप हो जाती हैं

बस राशन कार्ड पर एक और बार ये एक 
नये नाम से दर्ज हो जाती हैं
ये कमाल की औरते फिर एक बार
अपने नाम पर मिटटी का तेल लाती है ......|



परिचय और संपर्क

शैलजा पाठक
       
बनारस से पढाई-लिखाई
मुंबई में रहनवारी
कई पत्र-पत्रिकाओं और ब्लागों में कवितायें प्रकाशित ....