बुधवार, 27 जून 2012

छोटे ख्याल : एक काव्‍य श्रृंखला : प्रेमचंद गांधी


प्रेमचन्द गांधी 


छोटे खयाल श्रृंखला की ये कवितायें जितनी अधिक प्रेमचंद गांधी की हैं , उससे कहीं अधिक पाठको की हैं ..|  इन्हें पढना आरम्भ तो आप , बतौर एक पाठक ही करते  हैं , लेकिन इन्हें पढने के बाद आपके भीतर का रचनाकार भी कुलांचे मारने लगता है ..| आपको ऐसा लगता है कि ऐसे बहुत सारे खयाल तो मेरे जेहन में भी उठते हैं ,और   यूँ ही मुझसे प्रतिदिन छूट जाते हैं ....|  जाहिर है कि एक लेखक की यही सबसे बड़ी सार्थकता होती है , कि वह गूढ़ और बड़ी बाते इतनी सहजता और सरलता के साथ व्यक्त क जाए  , कि प्रत्येक दूसरा आदमी इन बातों और ख्यालों को अपना ही मानने लगे , और ऐसा करते हुए इन ख़यालों की एक मुकम्मल श्रृंखला तैयार हो जाए  | 

                  तो प्रस्तुत हैं 'सिताब दियारा' ब्लाग पर  "छोटे ख़याल : एक काव्य श्रृंखला"  के अंतर्गत 
                                                  प्रेमचंद गांधी की इक्कीस कवितायें 



लेखकीय वक्तव्य 

छोटे ख़याल : एक काव्‍य शृंखला : प्रेमचंद गांधी

अक्‍सर राह चलते या कुछ पढ़ते और काम करते हुए हमारे जेहन में बहुत मामूली-सी लगने वाली बातें आ जाती हैं, जो ज़रा सोचने पर बहुत गहरी और काव्‍यात्‍मक लगती हैं। ऐसी ही बहुत मामूली लगने वाली और अचानक आ जाने वाली पंक्तियों की कौंध ने जब काव्‍यात्‍मक आकार ग्रहण करना शुरु किया तो यह शृंखला अपने आप आगे बढ़ती गई। जीवन के हर पल में काव्‍यात्‍मकता कहीं न कहीं छुपी होती है, ज़रूरत उसे पकड़ने भर की होती है। मैंने कुछ कोशिश की है। पाठक और कविता-प्रेमी ही बताएंगे कि इसमें मैं कितना ख़रा उतरा हूं।


1
उसका होना भी क्‍या होना है
जिसे पाना है
न खोना है
बस इतना होना है कि
आंसुओं के झरने में
ग़म का पैरहन धोना है....


2
वो हंस कर बोल ले
तो लगता है
जिंदगी संवर गई जैसे
वरना तो
मुकर गई जैसे


3
दाना, पानी, आराम और
सुरक्षा की ही फिक्र हो तो
कोई पिंजरा बुरा नहीं
सब कुछ तो है पिंजरे में
बस आकाश नहीं है
जीवन का महारास नहीं है


4
उसका सपनों में आना भी
सपना हो गया

ज्‍यों पिंजरे के भीतर 
परिंदे का
उड़ना हो गया...


5
कुछ देर तो
आग की लपटों में
कालिख़ भी चमकती है
फिर 
तुम तो इंसान हो और
उजाले की इतनी कमी भी नहीं 
तो चमको ना... 


6
जीवन हो चाहे
तितली जितना

कुदरत को 
कुछ रंग दे जाएं हम

कुछ फूलों से पराग चुराकर
दे जाएं दूसरे फूलों को

फिर भले ही
बीज बनने से पहले
चले जाएं हम..


7
जागते हुए तो वो
हमसे भागता है प्रेम 

आओ
उसकी नींदों में
चलते हैं हम...


8
लिख राज़ की बातें
हर्फों में नगीनों की तरह
इक शख्‍स़ बहुत
ज़रूरी हैं जिंदगी में
रोटी, पानी, हवा
तीनों की तरह


9
पुलिस थाने के लेखक कक्ष में
एक सिपाही लिखता है रोज़नामचा
जो घटनाएं और वारदात
नहीं होती हैं दर्ज
उन्‍हें लिखते हैं वे लेखक
जो हवालात में हैं
या कि बाहर


10
इतने बरस बाद मिली गायत्री यादव 
पके हुए बालों में ना जाने कहां खो गई थी
वो दो चोटी वाली गबदू सी लड़की 
गोद में एक बच्‍चा था
'
पोता है, दवा दिला कर लाई हूं' 
उफ, क्‍या इसी को चिढ़ाते थे हम 
बचपन में रसखान को गा-गाकर 
'
अरी, अहीर की छोहरिया
छछिया भर छाछ पै नाच नचावत...'


11
एक उम्र में
पीहर में जाना
बीहड़ में जाना होता है


12
लंबी नाराजगियां
बहुत तकलीफ देती हैं
लंबी रेल यात्राओं की तरह

बिना आरक्षण के
साधारण डिब्‍बे में बैठे हों जैसे
और गंतव्‍य पर 
किसी के मिलने का भी 
कोई अंदाज न हो जैसे...

13
फरवरी तेरा बुरा हो
एक तो प्‍यार का दिन
तेरे आंचल में
उस पर कितने कम दिन
अरी फरवरी कमसिन
तेरे ही दिनों में एक दिन
सहनी पड़ी थी
उसकी नाराज़गी मुझे

जा फरवरी
तुझे मेरी बद्दुआ लगे
तू सदियों तक
कम दिनों को तरसे


14
सुघड़ गृहिणी
जो जानती है
षटरस व्‍यंजन बनाना
नहीं लिखती
व्‍यंजन विधियों की किताब
जैसे कुछ कवि लिखते हैं
कविता के बारे में कविता


15
जगह
किसी के बिना
बहुत दिनों तक
खाली नहीं रहती

कुछ दिन अकेलापन
फिर याद और ग़म
भरे रहते हैं
खाली जगह को
इसी ऊब में
उगती रहती है
इंतज़ार की दूब
और एक दिन
कोई चला आता है
खाली जगह भरने
एकांत हरने


16
पश्चिम में ख़ुदा है तो
तुम्‍हारा होगा
मैं पूरब का आदमी
पश्चिम नहीं जाउंगा
मैं वहां बिल्‍कुल नहीं जाउंगा
जहां सूरज अस्‍त होता है और
अंधेरे का साम्राज्‍य होता है


17
नदी और समंदर का
कोई किनारा नहीं होता
धरती का होता है
ज़मीन के दो टुकड़ों के बीच
पानी का साम्राज्‍य होता है


18
मौत ही
इकलौती सच्‍ची ख़बर है
जो रोज़ आती है
बिला नागा
बाकी सब उसके साथ
या तो चला जाता है
या कि चला आता है


19
नाक में दम कर देती है बदबू
बूचड़खाने से गुज़रते हुए लगता है
पृथ्‍वी पर
सबसे बड़ी बदबू का नाम है  
मृत्‍यु


20
रदीफ़ है
ना काफि़या है
क्‍या ग़ज़ब
शाइरी का माफिया है...

जैसे कलाम नातिया है
दाद देना शर्तिया है


21
सुनो 
हवाओं में घुलने वाली 
संदली खुश्‍बू का पैरहन पहनी
याद की तितली 
ज़रा
ग़ुले-इश्‍क का भी खयाल करो
वो आखिर कहां जायेगा....

(परवीन शाकिर की ग़ज़ल आबिदा परवीन की आवाज़ में सुनते हुए)
***      ****  


संपर्क एवं परिचय  

प्रेमचंद गांधी ..
जन्म - २६ मार्च १९६७ ..
निवास स्थान - जयपुर , राजस्थान ..
कविता संग्रह - इस सिंफनी में ..
निबंध संग्रह - संस्कृति का समकाल ..
कविता के लिए लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई और राजेंद्र वोहरा सम्मान ..
पाकिस्तान की सांस्कृतिक यात्रा ...
प्रगतिशील लेखक संघ और ..
अन्य सामाजिक सांस्कृतिक संगठनो में सक्रिय भागीदारी ..
मो. न. .. 09829190626...



रविवार, 24 जून 2012

विमलचन्द्र पाण्डेय का संस्मरण -- आठवीं किश्त

             
विमलचन्द्र पाण्डेय


पिछली किश्त में आपने पढ़ा कि शाहरुख खान की बहुचर्चित फिल्म 'ओम् शांति ओम्' को देखने के बाद विमल और उनके इलाहाबादी दोस्त इस बात से हैरान होते हैं कि ऎसी सतही और बेकार फिल्म बाक्स आफिस पर इतनी हिट कैसे हो गयी ..| उनके मन में यह ख्याल आता है , कि हमें भी इस लाईन में कुछ करना चाहिए ..| वे लोग प्रयास भी करते हैं , लेकिन जैसा कि इस तरह के प्रयासों का हश्र होता है , उनके साथ भी वही दोहराया जाता है ..| इस बीच विमल का सामना पत्रकारिता के उस चेहरे से होता रहता है , जो न सिर्फ सडा-गला है , वरन आजकल किसी भी संवेदनशील आदमी के लिए जानलेवा भी बनता चला गया है ...| कि तभी उनके इलाहाबादी जीवन में कैलाश जी का आगमन होता है ...और फिर आगे ...

                     तो प्रस्तुत है विमलचन्द्र पाण्डेय के संस्मरण 
                              ई इलाहाब्बाद है भईया 
                                 की आठवीं किश्त 
                                  

                                      13...

यू.एन.आई. की राईवल कही जाने वाली एजेंसी पी.टी.आई. के इलाहाबाद के ब्यूरो चीफ नचिकेता नारायण मेरे लिए उस वक्त एक बड़े भाई की तरह मदद लेकर तब आये, जब मुझे इसकी सख्त ज़रूरत थी. हुआ ये कि जिस जियालाल जी ने मेरा उनसे परिचय कराया था , मेरे जाने के साल भर के भीतर ही उनका वाराणसी ट्रांसफर हो गया. ये मेरे लिए अच्छी बात भी थी और बुरी भी. मैं अब एक तरह से इलाहाबाद यूएनआई का अघोषित चीफ था लेकिन मेरे सिर पर जियालाल जी कंपनी की एक आलमारी, कई सभ्यताओं पहले का एक कंप्यूटर, एक बाबा आदम के ज़माने का टाईपरायटर, दो मेजों और कुछ कुर्सियों का भार भी छोड़ गए थे. वे अपने परिवार के साथ तीन कमरे का फ्लैट लेकर रहते थे और कंपनी के सामानों का उपयोग करते थे. मैं एक कमरे के लौज में रहने वाला इनका उपयोग कहाँ करता. एक दिन यूँ ही मुलाकात में मैंने अपनी समस्या नचिकेता जी से बताई और उन्होंने मेरी समस्या बाकायदा हल कर दी. उन्होंने एक पत्र लिखवा कर उसकी कार्बन कॉपी अपने पास रख ली जिसमें लिखा था कि आवश्यक जगह न होने पर मैं एजेंसी के कुछ सामान फलां पते पर रख रहा हूँ. यह मेरे लिए थोड़े संकोच की बात रही कि जितने समय के लिए वो सामान मैंने वहाँ रखे थे उसे कई गुना समय मुझे उन्हें वहाँ से हटाने में लग गया , लेकिन नचिकेता जी ने कभी इसकी शिकायत नहीं की. मैं उनका बहुत सम्मान करने लगा था और हमेशा उन्हें बड़े भाई जैसा आदर देता था जो अब भी बरक़रार है. मुझे वो एक कंप्लीट पत्रकार नज़र आते थे जो फालतू की किसी प्रेस कांफ्रेंस में कभी नहीं दिखाई पड़ते थे और उनके सूत्र हर जगह ऐसे मौजूद होते थे कि कोई भी खबर जब मुझे कहीं से नहीं मिलती तो मैं उनकी ही शरण लेता. उन्होंने कभी मुझे निराश नहीं किया और आज भी उनका स्नेह मुझ पर बड़े भाई की तरह ही है लेकिन शायद वह मूर्तियों के टूटने का समय था और वह दौर मुझे सिखा रहा था कि दुनिया में आदर्श नाम की कोई अवधारणा नहीं होती. मैं उस समय तक काफ़ी किताबी टाइप का आदर्शवादी था और थोड़ा व्यक्तिपूजक टाईप का भी . जो आदतें मेरे घर और समाज ने मुझे दी थीं वे साहित्य का साथ मिलने के बावजूद पूरी तरह टूटी नहीं थीं , हालाकि इलाहाबाद बड़े करीने से उन्हें एक-एक कर तोड़ता जा रहा था. नचिकेता जी अच्छा साहित्य पढ़ने वाले और अच्छी फ़िल्में देखने वाले एक सुलझे हुए इंसान थे और उन्हें देख कर मुझे लगता था कि अगर मैं दस साल और पत्रकारिता कर पाउँगा तो शायद उनके जैसा ही होऊंगा.

एक दिन मेरे पास भारतीय जनता पार्टी के पूर्व मंत्री मुरली मनोहर जोशी के यहाँ से फोन आया कि उन्होंने कुछ चुनिन्दा पत्रकारों को एक ख़ास वार्ता के लिए अपने घर पर आमंत्रित किया है. दो एजेंसियों यानि यूएनआई और पीटीआई के साथ ईटीवी के उमेश, आकाशवाणी के सुनील शुक्ल जी भी थे. मेरी याद्दाश्त के हिसाब से खुद को सबसे बड़ा कहने वाले दो अख़बारों के प्रतिनिधि भी थे. भाजपा और विहिप के ज्यादातर नेता खाली बैठे थे और उनके पास कहने सुनने को कुछ ख़ास नहीं हुआ करता था. अक्सर विहिप अध्यक्ष अशोक सिंघल जी के घर पर राम सेतु पर कांफ्रेंस हुआ करती थी जिसमें वो अकाट्य सबूतों के साथ बताया करते थे कि कैसे राम सेतु स्वयं श्रीराम जी ने अपने हाथों से बनाया था और इसका टूटना देश का टूटना है. वो इसके पक्ष में कुछ वैज्ञानिक सबूत भी दिया करते थे जिससे खबरों में दम आ जाता था. बड़े-बड़े बैनरों के स्वघोषित प्रबुद्ध पत्रकार इस बात पर काफ़ी चिंतित दिखाई देते कि देश को खतरा बढ़ता ही जा रहा है. कभी जोशी जी जैसे वरिष्ठ नेता किसी होटल में कांफ्रेंस बुला कर ये घोषणा किया करते कि वे मायावती की राज्य सरकार, संप्रग की केन्द्र सरकार, मार्क्सवादियों द्वारा दिए गए समर्थन, मुलायम के समाजवाद, लालू के परिवारवाद, महंगाई, बेरोज़गारी, गुंडागर्दी, नशेबाजी, ट्रेन डकैती, शिक्षा में ह्रास, कुसंस्कृति, लिंगभेद, आदि आदि सभी चीज़ों की निंदा करते हैं. पत्रकार चुपचाप उस निंदा में अपनी तरफ से दो चार चीज़ों की और निंदा करते हुए छाप देते और राज्य में कोई भी समस्या होती तो सामने वाले से कह देते, “और हरवाओ भाजपा के, अब तो फटबे करीगा.”

तो हम कुछ पत्रकार मुरली मनोहर जोशी के आवास पर पहुंचे और उन्होंने देश की सुरक्षा और राम सेतु, गंगा और भ्रष्टाचार पर कुछ रूटीन बातें कीं. हमने उन्हें अपनी डायरी में नोट किया, कुछ जलपान किया और चलने को उद्यत हुए. जोशी दरवाज़े पर खड़े थे. उमेश एक युवा नौजवान था जो हमेशा अच्छी ख़बरों की तलाश में रहता था. वह जोशी जी का अभिवादन करके बाहर निकल गया, मैंने भी नमस्कार किया और बाहर निकाल कर नचिकेता जी का इंतजार करने लगा. शुक्ला जी ने बाकायदा जोशी जी के पैर छुए और मुझे इस पर ज़्यादा आश्चर्य नहीं हुआ. लेकिन जब नचिकेता जी ने भी उनके पैर छुए तो मैं बाहर से खड़ा देख रहा था और इस दृश्य को हजम करने में मुझे लंबा समय लग गया. मैं एक आघात में था और ये ऐसा मुद्दा था जिस पर मैं उनसे बात भी नहीं कर सकता था. हमारा रिश्ता बड़ा पारंपरिक सा था और वहाँ ऐसे सवालों की गुंजाईश नहीं थी. वो मुझे चप्पल पहन कर बाईक चलाने पर डाँटते और कहते कि मुझे जूते पहनने चाहिए, मैं उन्हें यकीन दिलाता कि मैं कल से जूते पहन कर ही बाहर निकलूंगा. मैं एक ऐसी बात पर दुखी था जिसका उस टाइम फ्रेम में कोई ख़ास अर्थ निकलता नहीं था. मैंने सामान्य होने की कोशिश की और इस कोशिश में लंबे समय तक असामान्य रहा. विवेक मेरी परेशानी को जितना समझ पाया उस हिसाब से उसने मुझे भी समझाने की कोशिशें कीं, “अमें तुम कईसन कईसन बात पे आपन दिमाग खराब करत हो. हमका तुम्हार दिमागे नै ना समझ आवत. कभी हमका लगित है कि तुम समद्दार आदमी हो अउर कभी लगत है कि तुम एकदम्मै बकलंड हो.” मैंने कुछ समझाने की कोशिश की तो उसने लाउड होकर कहा कि मैं चूतिया हूँ और चाहता हूँ कि हर जगह मुझे हमेशा अच्छी लगने वाली चीज़ें ही दिखें. उसकी इस दलील ने मुझे एक साथ कई बातें समझाईं.
                                
मुखातिब की एक गोष्ठी में लालबहादुर वर्मा
और उनके साथ में बैठे सुरेन्द्र  राही और नीलम शंकर 
                                 
                                      14...    

मुखातिब ने मेरी रचनात्मक ज़िंदगी में इतना कुछ जोड़ा कि ना मैं इलाहाबाद का एहसान उतार सकता हूँ ना ही मुखातिब का. हम हर दूसरे रविवार गोष्ठियां करते और जब तक ये तय नहीं हुआ था कि वहाँ आने वाला हर सदस्य चायपान और फोटोकॉपी वगैरह के खर्चे के लिए हर महीने १५ रुपये मात्र दिया करेगा, मेरा उत्साह इतना ज़्यादा था कि मैं अपनी मोटरसाईकिल पर अपने खर्चे पर फोटोकापियाँ बाँटा करता था. मुखातिब के कुछ नियम बनाये गए थे जो और कहीं बनाये गए नियमों के खिलाफ थे. जैसे इसमें कोई अध्यक्ष नहीं होगा, संचालन हर हफ्ते बदल बदल के कोई भी करेगा, कोई मुंहदेखी वाह-वाह नहीं होगी, बेबाक ईमानदारी से अपनी बात रखी जायेगी, पहले से छपी प्रशंसित रचनाओं की जगह नयी रचना का पाठ और उस पर बात की जायेगी और नए से नए रचनाकार या श्रोता को अपनी बात रखने की आज़ादी दी जायेगी. वैसे तो रचनाकारों की नयी रचनाएँ सुनने का उत्साह बहुत रहा करता था लेकिन उससे कहीं ज़्यादा उत्साह बाद में उन दो लोगों को सुनने का रहने लगा जो साहित्य की किसी भी विधा पर इतने अधिकार और तार्किक रूप से बोलते थे कि गोष्ठी एक ऊंचाई पर पहुँच जाया करती थी. मुरलीधर जी और हिमांशु जी बिना किसी घोषणा के मुखातिब के सभी नियमों का कट्टरता से पालन करते थे और जिन रचनाओं पर मैं मुग्ध रहा करता था, अपनी बारी आने पर उनमें से कोई ना कोई अक्सर उसकी बखिया उधेड़ देता. मुझे याद है जब हमने नीलाभ जी को मुखातिब में अपनी कवितायेँ पढ़ने के लिए आमंत्रित किया था. उन्होंने अपनी दस कविताओं का पाठ किया जिनमें से कई कवितायेँ नई थीं. मैंने नीलाभ को पहले बहुत ज़्यादा नहीं पढ़ा था और मुझे उनकी कई कवितायेँ पसंद आई थीं. और श्रोताओं को भी कवितायेँ काफ़ी अच्छी लगी थीं ,लेकिन कई सकारात्मक प्रतिक्रियाओं के बाद जब हिमांशु जी का नंबर आया तो उनकी बात की शुरुआत कुछ यों थी, “मुझे नीलाभ की कविताओं ने कभी प्रभावित नहीं किया. उनकी कविताओं में एक चौकन्नापन है जो अक्सर उनकी सहजता पर हावी हो जाता है और कविताओं को परफेक्ट बनाने के चक्कर में जो अतिरिक्त श्रम किया जाता है, उसकी वजह से कवितायेँ अक्सर नापीतौली लगने लगती हैं,” हालाँकि इसके बाद हिमांशु जी ने उन दस कविताओं में से किन्हीं दो कविताओं की तारीफ भी की जिन्होंने उन्हें प्रभावित किया था. नीलाभ जी एकदम शांत थे जैसे किसी पुराने इलाहाबादी साहित्यकार को होना चाहिए. मुखातिब की साहित्यिक उपलब्धियों के अलावा मुझे कैलाश जी के रूप में एक और उपलब्धि हासिल हुई थी. वह मुझे पहले पढ़ चुके थे और मेरे प्रशंशक टाइप के थे. उनसे हमारी खूब बनने भी लगी थी ,क्योंकि हमारी गन्दी आदतें एक जैसी ही थीं. मैं भी नशे के प्रकारों को लेकर अधिक नखरा नहीं किया करता था और वो भी वक्त ज़रूरत देसी तक से काम चलने वाले आदमी थे. उनका कहना था कि उनकी शुरुआत देसी से ही हुई थी इसलिए वो उन्हें ज़्यादा अपनी लगती है. उनके बचपन की कहानी में काफ़ी संघर्ष था लेकिन इसके बावजूद उनका विकास कुछ इस तरह हुआ था कि बचपन की दुर्घटनाओं का ज़िंदगी पर बुरा असर पड़ने की बात बेमानी लगने लगती थी. हालाँकि उन्हें पूरा मैं काफ़ी बाद में समझ पाया. शुरू में तो यही लगता था कि वे इतने खुशमिजाज़ और हंसमुख आदमी हैं कि उनकी जान भी मांग ली जाए तो वे आसानी से दे देंगे और जान निकाले जाने से पहले जान मांगने वाले से कहेंगे, “इस बात पर एक पार्टी तो बनती है बंधु.”

उनके बचपन में हुए ज़मीन जायदाद के बंटवारे में उनके पिता के हिस्से काफ़ी कम संपत्ति आई थी और धोखे से उन्हें लगभग कंगाल बना दिया गया था . कैलाश जी हाई स्कूल पास करने के बाद इस घटना की वजह से एक ट्रक पर खलासी का काम करने लगे और लगभग दस सालों तक वह खलासी रहे. परिस्थितियां कुछ सही होने पर उन्होंने पत्राचार से इंटर पास किया और पत्राचार से ही बीए भी. हिंदी से एमए में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बाकायदा प्रवेश ले लिया और कभी कभी समय निकाल कर कक्षाएं अटेंड करने भी गए लेकिन ज़िंदगी ने उतना वक्त नहीं दिया कि वे एक तरफ ध्यान दे पाते. लेकिन उन्हें साहित्य से प्यार हो गया था और किताबें उन्हें अपने जिंदा रहने का कारण देतीं. प्रेमचंद से लेकर शरतचंद और रेणु तक की कहानियां और मुक्तिबोध से लेकर धूमिल तक की कवितायेँ उन्हें जीने की वजह बतातीं. वे चाह कर भी परीक्षाओं से पहले परीक्षाओं की तैयारी नहीं कर पाए और वह दिन भी आ गया जब अगले दिन से पेपर था. वे उस ट्रक पर रात में एक क्वार्टर लाकर पीते और सिलेबस उठा कर सुबह तक पूरा पढ़ भर डालते. एक पेपर पर एक क्वार्टर के हिसाब से उन्होंने अपने पेपर दे दिए और फिर से किताबों से हिम्मत पाते हुए ज़िंदगी को अपनी जिजीविषा से चिढ़ाने में लग गए. जिस दिन परिणाम आने वाले थे, उनके साथ परीक्षा दिए हुए किसी परिचित ने उन्हें बताया कि आज परिणाम आने वाले हैं और उन्हें विश्वविद्यालय जाकर अपना परिणाम देखना चाहिए. उन्हें पूरा विश्वास था कि वे अच्छे नंबरों से पास होंगे लेकिन जब उन्होंने वहाँ लगी सूची में अपना नाम देखा तो उनकी आंखें भर आयीं. उन्होंने पूरे विश्वविद्यालय में टॉप किया था और भविष्य में उन्हें सबसे अधिक अंक लाने के लिए स्वर्ण पदक दिए जाने की घोषणा की जानी थी. कैलाश जी आज भी इस बात पर सख्त अफ़सोस करते हैं कि जब उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय कि पहचान माने जाने वाले प्रोफ़ेसर सत्य प्रकाश मिश्रा ने अपने अंडर में पीएचडी करने के लिए कहा तो उन्होंने सिर्फ़ इसलिए एक मैडम के अंडर में शोध करना स्वीकार किया, क्योंकि उन्होंने उन्हें स्कूल में पढाया था और वे उन्हें पहले ही कह चुके थे कि वे उनके अंडर में ही शोध करेंगे. शोध पूरा होकर कैलाश मिश्रा से डॉक्टर कैलाश मिश्रा बन जाने के बावजूद कैलाश जी प्राइमरी से होते हुए अभी जल्दी ही इंटर कॉलेज तक पहुंचे हैं तो इसमें दोष हमारी उस व्यवस्था का सबसे ज़्यादा है जहाँ सरस्वती का उपक्रम करने के लिए बिना लक्ष्मी के पत्ता तक नहीं सरकता. कैलाश जी को किसी विश्वविद्यालय में होना चाहिए था लेकिन क्या मजाल कि इस बात पर उनकी सुई कभी दो मिनट से ज़्यादा रुके. खुश रहना उनका धर्म है और सकारात्मकता उनकी जाति, हालाँकि कभी-कभी ये सकारात्मकता इतनी ज़्यादा हो जाती है कि भागने को रास्ता नहीं मिलता.

कैलाश जी मेरे लोज पर दो तीन बार आ चुके थे और मेरे साथ बैठ कर एकाध घंटे बाद चले गए थे. तब तक मैंने उनके साथ सिर्फ़ एकाध बार ही पी थी और वो पीने के बाद बड़ी अच्छी-अच्छी बातें करते जो कभी-कभी शाकाहारी नहीं रह जातीं. हमारे बीच जो माहौल बनता उसमें पता नहीं चलता कि मेरी और कैलाश जी की उम्र में कोई अंतर भी है और वो भी दसेक सालों का.

एक दिन मैं और विवेक खाना खाकर कंप्यूटर पर कोई फिल्म देख रहे थे कि अचानक दरवाज़ा खटखटाया गया. रात के एक बजे थे और हम हैरान थे कि इस वक्त बिना इत्तला किये कौन आ धमका. मैंने दरवाज़ा खोला तो सामने कैलाश जी थे. उन्होंने तुरंत मुझे एक ओर धकेला और आकार चौकी पर निढाल गिर गए. मैं कुछ पूछूं, इससे पहले अपनी रेडियो वाली भाषा और बेदाग उच्चारण में बोलने लगे.

“इस लाइन में सारे शटर साले एक जैसे ही हैं, मैं कितनी देर से इस लाइन में घूम रहा हूँ और आपके लोज का शटर ढूँढने की कोशिश कर रहा हूँ.” मैंने कहा कि उन्हें मुझे फोन कर लेना चाहिए था. उनका कहना था कि वह घर से अचानक ऐसे ही टहलने निकले थे, मोबाइल और मोटरसाइकिल के बिना कि चौराहे पर एक दोस्त मिल गया.

“हम दोनों ने साथ में बैठ के एक बार में पिया फिर वो अपने घर चला गया. मैं बहुत देर तक एक पार्क में बैठा गुलज़ार के गाने सुनता रहा. जब सुनते सुनते ऊपर तक कुछ भरा आया तो जाकर थोड़ी शराब और पी. इसके बाद मेरा आपसे मिलने का बहुत मन होने लगा. देखिये आपको खोजते-खोजते मेरे पैरों में छाले पड़ गए.”

उन्होंने वाकई एक अबोध प्रेमिका की तरह अपने पांव उठा कर मुझे दिखाए तो विवेक से रहा नहीं गया, “आपौ गजब आदमी हैं, राती के घरे जाए के चाही तो....भाभी क्या सोच रही होंगी ?”

“मैं उन्हें बता दूँगा कि मैं विमल जी से मिलने गया था तो वो कुछ नहीं कहेंगी.” उन्होंने विश्वास से कहा. मैं उनके विश्वास को देख कर खुश हुआ वरना असलियत मैं जानता था. मैं जानता हूँ कि मेरे नए पुराने सभी दोस्त मुझे बहुत मानते हैं लेकिन इसका गलत उपयोग इतना हुआ है कि ये बुरी तरह से मेरे खिलाफ चला गया है. मैं जब भी बनारस जाता हूँ, मेरे जिन दोस्तों की शादियाँ हो गयी हैं, उनकी बीवियां घबरा जाती हैं. कभी राजेंद्र यादव का कोई संस्मरण पढ़ा था, और अब लगता है कि उनकी जो उस समय हालत थी वैसी ही आज मेरी भी हो गयी है. बनारस में कोई भी दोस्त जैसे सुनील, अनुज या संजय ही जब मेरे साथ रहे और देर हो जाए तो सफाई देने की गरज से पहले ही बीवी को फोन करके कह देता है, “अरे वो विमल आया है ना तो थोड़ी देर हो जायेगी,”. 

काफ़ी समय बाद दोस्त मिलते हैं तो कुछ पीना पिलाना होगा ही. तो संजय जैसे एक पैग वाले दोस्त भी पहले ही पत्नी को सूचित कर अपनी वफादारी का परिचय देते हैं. अगर रात को घर पहुँचने में देर हो गयी तो अनुज अपने घर पर अपनी बीवी को सफाई देता है, “अरे विमलवा रोक लिया था, साला आने ही नहीं दिया.” या सुनील मुँह महकने की सफाई इस तरह देता है, “अरे मेरा मन तो कतई नहीं था. विमल कहने लगा तो बस एक पैग ले लिए.”

कुल मिलाकर माहौल कुछ ऐसा हो गया है कि मैं मुंबई में भी रहूँ और किसी दोस्त को बाहर देर हो जाए तो कई बार उनकी पत्नियों के मैसेज मुझे सीधे आ जाते हैं, “आप बनारस आ गए हैं क्या?” मैं समझ जाता हूँ. अब तो मेरे दोस्तों ने मेरा लिहाज करना भी छोड़ दिया है और वे कहीं से भी गला तर कर के आते हैं तो निस्संकोच मेरा नाम लगा देते हैं. मेरे कंधे पर बन्दूक चलाने और पत्नी के साथ मिल कर मुझे चार गालियाँ देने के बाद वो रात को सोते समय मुझे मैसेज भी कर देते हैं, “यार आज एक दोस्त के साथ दारू पी लिए. तुम्हारी भाभी पूछी तो कह दिए कि तुम पिलाये हो. अगर बाई चांस फोन करे तो कह देना कि एक हफ्ते के लिए बनारस आये हो. गुड नाईट, स्वीट ड्रीम्स.”

                                                  क्रमशः  .........

                                                                                                   प्रत्येक रविवार को नयी किश्त 

संपर्क - 

विमल चन्द्र पाण्डेय 
प्लाट न. 130 - 131 
मिसिरपुरा , लहरतारा 
वाराणसी , उ.प्र. 221002

फोन न. - 09820813904
         09451887246


फिल्मो में विशेष रूचि 



बुधवार, 20 जून 2012

सिर झुका लेने का वक्त नहीं है यह ...भरत प्रसाद


                                  भरत प्रसाद 

हिंदी युवा आलोचना जगत में भरत प्रसाद का नाम जाना पहचाना है | उनकी स्थापनाओं को न सिर्फ गंभीरता से लिया जाता है , वरन उस पर पर्याप्त बहस भी होती है | लेकिन कभी कभी यही छवि उनके द्वारा अन्य विधाओं में किये गए कार्यों पर भारी भी पड़ जाती है | जैसे उनकी कविताओं को ही लें | इतनी वैचारिक प्रतिबद्धता और जनोन्मुख सम्वेदनशीलता के बावजूद इन कविताओं पर उतनी बहस और बात नहीं होती , जितनी की ये हकदार हैं | खैर ................. | यहाँ प्रस्तुत कविताओं में एक तरफ भरत प्रसाद का संवेदशील मन हमारी दुनिया के माथे पर लगे कलंको की पड़ताल करता है , वही दूसरी तरफ वह अपने आपको भी कोई छूट नहीं देता और उसी निर्ममता से जांचता है, जिस तरह इस दुनिया को  |

           तो प्रस्तुत है 'सिताब दियारा' ब्लाग पर 'भरत प्रसाद' की चार कवितायें 


1...             रेड लाइट एरिया 


यहाँ दिन कभी नहीं होता,
चौगुनी रात रहती है,
जिधर सूरज की रोशनी-
सिर्फ इच्छा में संभव है।
जहाँ के मौसम में हमेशा
पतन की खौफनाक बदबू उड़ती है-
यह वही श्मशान है
जहाँ वासना की जिंदा लाशें
हवश का नृत्य करती हैं,
जिसकी दिशाओं से दमन की गूँज उठती है-
जिसकी हवाओं में बदनाम आत्माओं की चीखें सुनाई देती हैं।
यहाँ आते ही औरत की सारी परिभाषाएँ उलट जाती हैं
वह न तो बहन है, न बेटी
न ही किसी की पत्नी
माँ कहलाने की गलती वह सपने में भी न करे,
यहाँ वह औरत भी कहाँ रह जाती है ?
वह तो बस
प्रतिदिन परोसी जाने वाली थाली है,
या फिर कोई मैली झील
जो सिर्फ जानवरों की प्यास बुझाने के काम आती है।
शरीर पर जख़्म चाहे जितने भी गहरे हों
गिने जा सकते हैं,
परन्तु ह्रदय के जख़्मों की गिनती कैसे की जाय ?
ऐसे घावों के इलाज के लिए
कोई दवा ही नहीं बनी आज तक।
किसी लावारिश खिलौने की तरह
उससे इस तरह खेला जाता है,
कि उसको चाहे जितनी बार जमीन पर फेंको
कोई आवाज ही नहीं आती।
यकीनन, उसके भतीर से
आत्मा का नामोनिशान मिट चुका है,
अपनी इच्छा के लिए उसमें अब कोई जगह नहीं,
सपने देखना तो जीवन भर के लिए प्रतिबन्धित है
आजादी का हक उसे मरने के बाद सम्भव है
और तो और
अपने एहसास पर भी उसका कोई अधिकार नहीं
हाँ, उसको यदि कोई छूट है,
तो बस गुमनाम रहकर
चुपचाप जमीन में दफन हो जाने की।
पृथ्वी पर जीने की एक शर्त
यदि हलाहल नफरत को पी जाना हो,
तो वह सबसे पहले इसी पर लागू होता है-
बंजर इससे कहीं ज्यादा उपजाऊ है,
तिनका इससे कहीं ज्यादा मजबूत
आदमी दुर्गन्ध से भी इतनी घृणा नहीं करता,
उम्र कैदी की आत्मा भी इतना विलाप नहीं करती ;
मैं और क्या कहूँ ?
कोई निर्जीव वस्तु भी इतनी जड़ कहाँ होती है ?
इसके बावजूद
उसमें औरत की तरह जीने की बेचैनी अभी बाकी है,
बाकी है सलाखें तोड़कर निकल भागने की हसरत
अपनी भस्म पर फसल लहलहाने की हिम्मत अभी बाकी है,
कोई देखे जरा,
सब कुछ लुट जाने के बावजूद
उसकी आँखों में अभी कितना पानी शेष है,
यकीन नहीं होता कि,
वह अब भी हँस सकती है,
रो सकती है, नाच सकती है, खुश हो सकती है
सबसे आश्चर्यजनक यह कि
वह अभी भी प्यार कर सकती है ;
ख़ैर मनाइए,
आपके आदमी होने से अभी भी उसका विश्वास उठा नहीं है।


2...        वह चेहरा
                    (जिसका होना सिर्फ आश्चर्य है)

तुमको देखना,
मानो वेदना की दबी-कुचली पुकार को सुनना है,
पढ़ना है यातना के सदियों पुराने इतिहास को
उस मिटते हुए अध्याय को जानना है
जिसके नष्ट-भ्रष्ट शब्दों से
अनहद नाद करती
सुदूर अतीत की चीखें सुनाई देती हैं।
तुम्हारे होने का अर्थ है
लाचार इंसानियत के साथ लगातार होने वाला अनर्थ
जड़ से बार-बार उखड़ जाने के बावजूद,
सूखा ही सही
जमीन में धसा हुआ ठिगना पौधा,
लहलहाने के पहले पशुओं द्वारा
रौंद कर बर्बाद कर दी गयी खेती।
दीदी ! सच-सच बतलाना
तुम्हारी साँवली नसों में दिन-रात
गैरों से मिले हुए अपमान का
तीखा-तीखा दर्द बहता है कि नहीं ?
तुम कहो, न कहो
हमें पता है कि तुम्हारी हड्डियाँ
रोज-रोज दुश्वारियों से टकरा-टकरा कर
पत्थर बन गयी हैं।
ग़़मों के चक्रवात से लड़ने का दुस्साहस
किसे कहते हैं,
यह कोई, चट्टान बन चुकी तुम्हारी आत्मा से पूछे।
ऐसा क्या है कि
अपने बारे में तुम्हारी जुबान अक्सर ख़ामोश ही रहती है,
वैसे, तुम्हारे लाख छिपाने के बावजूद
भविष्य के गहन शून्य में खोई-खोई सी आँखें,
पिटे हुए लोहे जैसी काया,
हारी हुई त्वचा की रंगत,
बचपन से ही दबा हुआ मस्तक
तुम्हारी अन्दरूनी हकीकत का
मुँह-मुँह बयान करते हैं।
देर रात नींद आने से पहले
तुम्हारी थकी हुई कल्पना के आकाश में
दसों दिशाओं से
हताशा की कैसी घुप्प घटाएँ घिरती होंगी,
कौन जानता है ?
तुम्हारे विलाप को स्वर देने के लिए
सिर्फ एक मुँह काफी नहीं है,
पछाड़ खाकर रोने से कई गुना बढ़कर
अपने आप से रोना किस बेबसी का नाम है
यह कोई तुमसे जाने।
तुम्हारे भीतर इतना उजाड़ बस चुका है
कि उजड़ने का कोई मतलब ही नहीं रह गया है,
अन्तरात्मा में पराजय इस कदर भर गयी है
कि जैसे पराजित होना कोई मायने ही नहीं रखता,
तुम मौजूद हो- यह सच है?
परन्तु इस मानव - सभ्यता में
तुम्हारी मौजूदगी कहीं भी नहीं है,
यह भी एक हक़ीकत है।


3...        कैसे कह दूँ ?


क्या हमारी शरीर में ऊँची जगह पाकर
हमारा मस्तिष्क सार्थक हो उठा ?
क्या हमारी आँखें सम्पूर्ण हो गयीं,
हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बनकर ?
क्या हमने अन्धकार के पक्ष में बोलने से
बचा लिया खुद को ?
क्या सीने पर हाथ रखकर कह सकता हूँ मैं
कि अपने हृदय के कार्य में कभी कोई बाधा नहीं डाली ?
आत्मा की गहराइयों से उठे हुए विचारों की
क्या मैं हत्या नहीं कर देता ?
दरअसल अपनी गहन भावनाओं का सम्मान करने वाला
मैं उचित पात्र ही नहीं हूँ।
वे इस कायर ढाँचे में क्यों उमड़ती हैं ?
छटपटाकर मरती हुई अन्तर्दृष्टि से प्रार्थना है-
कि वे इस जेलखाने को तोड़कर कहीं और भाग जायँ ।
अपनी अंतर्ध्वनि का तयपूर्वक मैंने कितनी बार गला घोंटा है,
कौन जाने ?
पूरी शरीर को ता-उम्र कछुआ बने रहने का रोग लग चुका है,
हाथ-पैर, आँख-कान-मुँह आज तक अपना औचित्य सिद्ध ही नहीं कर पाए
करना था कुछ और तो कर डालते हैं कुछ और
दृश्य-अदृश्य न जाने कितने भय और आतंक से सहमकर
पेट में सिकुड़े रहते हैं हर पल।
मेरा अतिरिक्त शातिर दिमाग शतरंज को भी मात देता है,
भीतर के अथाह खोखलेपन के बारे में क्या कहना ?
कैसे कह दूँ कि मैं अपने जहरीले दाँतों से,
हत्याएँ नहीं किया करता ?



4...      सर उठाओ बंधु !


मौके पर सटीक उत्तर न देने की चालाकी
हाथ-पैर, जुबान से ही नहीं
दिलोदिमाग से भी तुम्हें नपुंसक बना देती है।
सुनकर भी अनसुना कर देने की आदत
सिर्फ कान से ही नहीं,
मन से भी तुम्हें बहरा कर देती है,
हक़ीकत से अक्सर मुँह फिरा लेने की कायरता
भीतर-भीतर कितना खोखला
और सड़ता हुआ मुर्दा बना देती है,
तुम्हें पता ही नहीं चलता,
                        जब तक तुम खड़ा होने के बारे में सोचोगे,
                        दुश्मन अपना मकसद पूरा कर चुका होगा
                        सच-सच बोलने की जब तक हिम्मत जुटावोगे,
                        तुम्हारी जीभ कट चुकी होगी,
                        तुम्हारी मुकाबला करने वाली नजरें जब तक उठेंगी-
                        अंधा कर दिया जाएगा,
                        हमेशा के लिए मिट गये वे,
                        जिन्होंने हद से ज्यादा खुद को बचाया,
                        कहाँ हैं उनके नामोनिशान ?
                        जिन्होंने अपने आगे
                        और किसी की सुनी ही नहीं-
जीवित कौन हैं ?
वे, जिन्होंने जीते जी खुद को मिटा डाला ?
या फिर वे, जो मौत के नाम से हाड़-हाड़ काँपते थे ?
जब एक सिर उठता है, तब सिर्फ एक सिर नहीं उठता,
जब एक कदम बढ़ता है, तो केवल एक कदम नहीं बढ़ाता,
जरा तबियत से एक बार खड़े तो हो जाओ,
न जाने कैसे अनगिनत शरीर में अड़ने का साहस आ जाएगा,
सिर झुके तो सिर्फ उनके लिए
जिन्होंने तुम्हें सिर उठाने की तहजीब दी,
वरना, सिर उठाओ बंधु !
सामने मौत बनकर नाचते अन्धकार से
नजरें चुराकर, सिर झुका लेने का वक्त नहीं है यह। 


संपर्क

भरत प्रसाद
सहायक प्रोफ़ेसर
हिंदी विभाग
पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय
शिलांग , मेघालय ...793022
मो.न. 09863076138