सोमवार, 28 नवंबर 2011

चन्दन पाण्डेय की कहानी को पढ़ते हुए...


चन्दन पाण्डेय की कहानी-जमीन अपनी तो थीके बहाने                                                                      


            समाज में एक साथ कई धाराओं का प्रवाह चलता रहता है। किसी एक खास समय पर उँगली रखकर यह नहीं कहा जा सकता कि यही वह बिन्दु है, जिसने अब तक चलती आ रही धारा को अपनी तरफ मोड़ दिया है, फिर भी हम ऐसा प्रयास करते रहते हैं कि उन बिन्दुओं की शिनाख्त कर सकें, जहाँ से कुछ नया और सार्थक विकसित हुआ हो। समाज के साथ-साथ यही बात साहित्य पर भी लागू होती है। यदि हम अपनी इस पड़ताल को बीते दशक पर केन्द्रित करें और इसके विषय के रूप में हिन्दी साहित्य को रखें तब हम अपनी बात को अधिक व्यवस्थित तरीके से रख पायेंगे जिसे हम यहाँ कहना चाहते हैं।
            पिछले दशक में हिन्दी साहित्य की किस विधा में मौलिक और सार्थक परिवर्तन नजर आता है? और उन परिवर्तनों के कौन-कौन से वाहक रचनाकार है? कविता और कहानी के भीतर रहकर हम थोड़ा और सिमटना चाहते हैं। आज जिस एक विधा में सबसे अधिक रचनाएँ लिखी जा रही हैं, वह है कविता। लेकिन दुर्भाग्य देखिये कि यही वह विधा है, जहाँ पर सबसे कम नयापन और सबसे कम प्रयोग दिखता है। आज भी इस विधा पर उसी पुरानी पीढ़ी के दस-पन्द्रह लोगों का बर्चस्व दिखता है। प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः। प्रत्यक्ष अर्थ में यह कि यह पीढ़ी आज भी सक्रिय है और पूरे परिदृश्य पर अपनी रचनात्मक उपस्थिति के साथ देखी जा सकती है और अप्रत्यक्ष यह कि पूरी नयी पीढ़ी उस पुरानी पीढ़ी के प्रभाव में दिखाई देती है।
            कुँवर नारायण के विचार हांे, केदार नाथ सिंह के विम्ब हांे, चन्द्रकांत देवताले के तेवर हों, ज्ञानेन्द्रपति की एन्द्रियता हो, राजेश जोशी की भाषा हो या विजेन्द्र की लोकधर्मिता हो, नयी पीढ़ी  किसी न किसी रूप में इन अग्रज कवियों के बनाये खांचों से निकल नहीं पायी है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि मुक्त छन्द ने एक ओर जहाँ कविता को सरलता से बचाया है और उसे अधिक जनतान्त्रिक बनाया है, वही दूसरी ओर उसने उसे पिलपिला और लगभग अपठनीय भी बना दिया है। आज के कवि शायद इस छन्दमुक्तता का इतना दुरूपयोग कर रहे हैं कि अज्ञेय के ंलंगड़ा गद्यरूपक से भी तीखे रूपक का प्रयोग करने की ईच्छा होती है। तो कुल मिलाकर कविता के क्षेत्र में नयी पीढ़ी की संख्या और उनके द्वारा किये गये सार्थक हस्तक्षेप का सम्बन्ध व्युत्क्रमानुपाती ही बैठता है।
            लेकिन कहानी का परिदृश्य कविता से उलट दिखाई देता है। हम साहित्य की केन्द्रीय विधा केे बहस को छोड़ भी दें, जिसका आग्रह कहानी की तरफ झुकता दिखाई देता है और सिर्फ इस प्रश्न पर विचार करें कि नयी पीढ़ी ने कहानी के प्रचलित खाँचों को तोड़ने में और अपनी स्वतन्त्र पहचान निर्धारित करने में कितनी सफलता पायी है, तो भी यहाँ तस्वीर कविता से उलट और बेहतर दिखाई देती है।
            यह ठीक है कि आज भी कहानी की विधा में पुरानी पीढ़ी के कई महत्वपूर्ण हस्ताक्षर सक्रिय हैं और समय-समय पर उनकी कहानियाँ आती और चर्चित भी होती रही हैं लेकिन नयी पीढ़ी के कहानीकारों ने उस पुरानी पीढ़ी से हटकर अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई है। उदय प्रकाश, स्वयं प्रकाश, नवनीत मिश्र, अखिलेश और काशीनाथ सिंह जैसे पुराने नामों के आगे भी आज नाम खोजे और पढ़े जाते हैं। पिछले दशक में आये इस परिवर्तन को साफ-साफ देखा जा सकता है। कहना न होगा  कि इसका श्रेय रवीन्द्र कालिया को ही जाता है। यह वागर्थ ओर नया ज्ञानोदय के द्वारा उन्हीं की शुरूआत है, जिसको तद्भव, कथादेश, कथाक्रम परिकथा और पहल जैसी अन्य पत्रिकाओं ने विकसित किया है।
            एक समय ऐसा भी था जब नये कहानीकारों के प्रवेश को लेकर काफी नाक-भौं सिकोड़ा जाता था। रवीन्द्र कालिया को खरी-खोटी भी सुनाई जाती थी। बल्कि यह तक घोषणा की जाती थी कि ऐसे कितने बुलबुले साहित्य में आते-जाते रहते हैं, लेकिन पिछले दशक के पूरे कालखण्ड में नये कहानीकारों ने जिस प्रकार एक से बढ़कर एक चर्चित और कालजयी रचनायें दी हैं, वह  सचमुच विस्मयकारी है। चन्दन पाण्डेय, नीलाक्षी सिंह, पंकज मित्र, कुणाल सिंह, मो0 आरिफ, मनोज पाण्डेय, वंदना राग, उमाशंकर चैधरी, विमल चन्द्र पाण्डेय अनिल यादव, विमलेश त्रिपाटी और गौरव सोलंकी जैसे नयी पीढ़ी के कई हस्ताक्षर आज हमारे सामने अपनी सार्थक उपस्थिति को दर्शा रहे हैं। इन सबने कहानी की विधा में कुछ न कुछ जोड़ा है, उसे विकसित किया है और उसे गढ़ा है। इनके पास अपनी भाषा है, अपना शिल्प है, अपना प्रयोग है और बदलते हुये समाज को चिन्हित करने वाला कथ्य है। इनकी कहानियों में वह नयापन है, जिसकी जरूरत शिद्दत के साथ महसूस की जा रही थी। भीड़ यहाँ भी है लेकिन कविता जितनी नहीं और ना ही उतनी निरर्थक। इस पीढ़ी के परिदृश्य में आने और एक दशक बीत जाने के बाद काफी कुछ सेटल होता दिखाई देता है। अब हमारे सामने इन सबके कम से कम एक संग्रह तो है ही, जिसके आधार पर हम कोई सार्थक राय बना सकते हैं।
            चन्दन पाण्डेय इन्हीं सार्थक नामों में से एक हैं। बल्कि यह कहना अधिक समीचीन होगा कि वे इन सार्थक नामों की सूची के शीर्ष पर गिने जाने वाले नामों में से एक है। परिन्दगी है कि नाकामयाब हैसे लेकर सितम्बर 2011 के हंस में छपी कहानी  जमीन अपनी तो थींतक का उनका सफर लगभग स्वप्निल रहा है। चन्दन ने इस दरमियान एक से बढ़कर एक कहानियाँ हमें दी हैं। रेखाचित्र में धोखे की भूमिकाभूलना, सुनो, जंक्शन, रिवाल्वर और नकार जैसी महत्वपूर्ण कहानियाँ आज चन्दन के खाते में है। पाठको को उनकी कहानियों का इन्तजार रहता है। वे जब भी लिखते है, पाठक उसे हाथों-हाथ लेते हैं।
            सितम्बर-2011 के हंसमें उनकी कहानी आयी है। जमीन अपनी तो थी। वैसे तो यह अंक रमेश पोखरियाल निशंक की कहानी के छपने के कारण कुख्यात होता लेकिन चन्दन की कहानी ने उसे विख्यात बना दिया है। इस कहानी को सामने से देखने पर एक थ्रिल का एहसास होता है। एक आदमी को, जिसे पंजाब के एक ऐसे शहर से दिल्ली पँहुचना है, जहाँ दंगा फैला हुआ है, कार में लिफ्ट मिल जाती है। वह संतोष की साँस लेता है कि अब वह सुबह तक दिल्ली पहुँच जायेगा। लेकिन सन्तोष कुछ ही समय बाद भयावह त्रासदी के रूप में बदल जाता है। लिफ्ट देने वाले दो युवक हैं, जो उससे अपनी पहचान साबित करने के लिए कहते हैं। वह शख्स हर सम्भव तरीके से उसे साबित करने का प्रयास भी करता है लेकिन वे सन्तुष्ट नहीं होते। दर असल उन्हें सन्तुष्ट होना भी नहीे है। उन्हें उसे परेशान करना है, उसकी परेशानियों से लुत्फ उठाना है। भले ही इस लुत्फ उठाने में उसकी जान तक चली जाये। उनका जालिमाना और बे सिर-पैर की हरकतों वाला व्यवहार इस अराजक होते समय की भयावहता की दास्तान बन जाता है। उस शख्स को बुरी तरह से मानसिक और शारीरिक यातना दी जाती है। वह अपने को छोड़ने के ऐवज में अपना सब कुछ उन्हें दे देने के लिये तैयार हो जाता है। अफसोस! उसकी गिड़गिड़ाहट काम नहीं आती और वह मारा जाता है। दुखद यह है कि लिफ्ट देने वाले यही नहीं रूकते, वरन वे अगले शिकार की तरफ बढ़ते दिखाई देते हैं।
            ऊपर से देखने पर तो यह कहानी इस अराजक समय की मनोवृत्ति को बयान करती ही नजर आती है लेकिन मैं इसे दूसरी नजर से भी देखना चाहता हूँ।  आज का तन्त्र या कहें तों पूरी व्यवस्था ही हमारे साथ ऐसा ही व्यवहार करती नजर आती हैं। वह पहली नजर में हमें उम्मीद दिखाती है, हमारी मदद करने को आतुर दिखती है, हमारी मजबूरी से हमे उबारती दिखती हैं, लेकिन जैसे ही हम इसके भीतर प्रवेश करते हैं और उसकी गिरफ्त में चले जाते हैं, वह हमारे साथ कोई भी अमानवीय और अतार्किक व्यवहार करनंे में नहीं हिचकती। आप लोकतंत्र को ही लें, जैसे ही एक बार हम इस व्यवस्था की गाड़ी में बैठ जाते है, अपना अधिकार सौंप देते हैं, यह तन्त्र हमारे साथ किसी भी तरह के व्यवहार को करने के लिए स्वतन्त्र हो जाता है। वह न तो आपको छोड़ता है और न ही किसी मंजिल पर पहुँचाता है। आप इस भयावह तथ्य को तन्त्र के वर्तमान स्वरूप पर किसी भी तरह से लागू कर सकते हैं। चन्दन की इस कहानी पर आलोचक आुशतोष कुमार कहते हैं लोभ और लूट के राजकीय उदारीकरण के चलते लुटेरेपन, अपराध, हिंसा और फासीवादी मानसिकता का एक रूटीन और अनिवार्य सांस्कृतिक विकल्प के रूप में प्रकट होना स्वाभाविक है। ऐसे जटिल और अविश्वसनीय नतीजे को कहानी में साधना आसान नहीं होता। कथानक एक काल्पनिक, मानसिक प्रयोग की तरह निर्मित होता है, गोया पूछता हुआ कि सच्चाई अगर यूँ हो तो क्या-क्या हो सकता है। इस प्रयोग के अनुशासन को चन्दन इतनी कुशलता से सम्भालते हैं, कि कथानक के किसी भी घुमाव को काटा नहीं जा सकता।
            इस बेहतरीन कहानी के लिए चन्दन को बधाई देते हुए नयी पीढ़ी के कहानीकारों के लिए भी आभार के दो शब्द कहने की इच्छा होती है कि आप सबने साहित्य की इस विधा को गतिशील और लगातार विकसित करने में मदद की है। लेकिन ध्यान रहे कि यह तो शुरूआत है। सो सम्भलकर मित्रों। आपसे आशाएँ बहुत हैं।
                       
                        रामजी तिवारी
                        बलिया उ0प्र0
                        मो0नं0-9450546312


शनिवार, 26 नवंबर 2011

प्रतिबद्धता की किताब ------बलिया का गौरव

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                       

                                                    प्रतिबद्धता  की किताब

कुछ चीजों का चुपचाप आपके इर्द-गिर्द होना इतना महत्वपूर्ण होता है कि उनसे आपकी  पूरी दुनिया बनती-बदलती है  और आपको पता भी नहीं चल पाता..| किसी भी रचनात्मक विधा से जुड़े व्यक्ति को  केंद्र में रखकर इसकी पड़ताल की जा सकती है....आप जैसे ही खोज करने निकलेंगे ,पहली नजर में आपको हमारे  समय के खारिजी अश्वमेधी घोड़े नजर आयेंगे, जो पूरे रचनात्मक संसार को रौंदते चले जा रहे है..| आपको यह जानकार विस्मय होगा बावजूद इसके भी लोग  अपने रचनात्मक मोर्चो पर डटे हुए है...वे प्रतिदिन  इन घोड़ो के टापों के नीचे आते है, प्रतिदिन रौंदे  जाते है लेकिन प्रतिदिन एक नए संकल्प के साथ मैदान में डट जाते है..आर्थिक चादर को रुमाल में परिवर्तित होते देखना, अपने साथियों को पद ,प्रतिष्ठा और धन  के एवरेस्ट पर चढ़ते देखना और फिर अपनों के बीच ही उपहास का पात्र बनते जाने की प्रक्रिया बेहद सालने वाली होती है..ऐसे में आपको हर सुबह अपने चुनाव के संकल्प को दोहराना होता है, उस प्रेरणा को जगाना होता है, जिसके बल पर यह जंग जारी रखी जा सके...|

लेकिन क्या कभी आपने यह सोचा है कि आपके भीतर इस आग को जलाने के लिए लकड़ी और  तेल कौन उपलब्ध कराता  है..?  क्या वह बाज़ार हो सकता है, जिसके खिलाफ आपकी सारी लड़ाई चलती है..?   बिलकुल नहीं...आप हैरान हो जायेंगे उन लोगो के संघर्ष को देखकर , जो आपको बनाने-सवारने कि प्रक्रिया में दिन-रात एक किये रहते है... तमाम खरिजो के बावजूद आपको पढ़ने, सुनने ,जानने और समझने वाले लोग इस दुनिया में मिल जायेंगे, लेकिन नेपथ्य से आपको रचने वाले उन लोगो को कोई भी इतिहास और वर्तमान दर्ज करता नहीं मिलेगा...आसमान में उड़ती पतंगों को धरती कि गुमनामी से थामे असंख्य नामों कि सूची आपको प्रत्येक रचनात्मक विधा में कही भी मिल जायेगी...|    

मसलन मैं  स्थान के रूप में अपने शहर बलिया और विधा के रूप में साहित्य को लेता हूँ ....पहली ठोकर साहित्य के नाम को ही लेकर लगती है...हमारे समाज द्वारा   कोने-अंतरे में खदेड़ दी गयी यह विधा , आज सरकारी खरीद और बड़े प्रकाशकों के भरोसे साँस ले रही है...लेखक और पाठक दोनों छटपटा रहे है....ऐसे में बलिया जैसी छोटी जगह में पाठकों के भरोसे साहित्यिक पुस्तकों कि दुकान चलाने कि कोशिश अविश्वसनीय लगती है...लेकिन सरस्वती पुस्तक केंद्र  के मालिक श्री राजेंद्र प्रसाद इस अविश्वसनीय कारनामे को पिछले तीस सालो से करते आ रहे है...उन्होंने अपने साथी दुकानदारो कि बदलती प्राथमिकताओ को देखा है...किताबो कि दुकानों कि जगह मोबाईल , कोका-कोला, और अंकल चिप्स कि दुकानों ने ले लिया है और जिन कुछ दुकानों में किताबे बिकती है, वहा भी पाठ्य पुस्तकों की जगह श्योर सीरीज और पाकेट बुक्स ने ले ली है...  

राजेंद्र जी की यह दुकान मुख्य सड़क से चार बार विस्थापित होते-होते , साहित्य की ही तरह, एक गली के कोने - अंतरे में सिमट गयी है...जो चीज नहीं सिमटी है वह है उनका जज्बा और हौसला...इस छोटी सी दुकान  का बलिया में होना हमें दिल्ली , भोपाल, इलाहाबाद और पटना जैसे साहित्यिक केंद्र में होने जैसा नवाजता है...यहाँ आने वाले साहित्यकार  /पत्रकार पुरोधाओ में सर्व श्री केदार नाथ सिंह, शिवमूर्ति, विनय विहारी सिंह, भगवती प्रसाद दिवेदी   , शैलेन्द्र, उमेश चतुर्वेदी, श्री प्रकाश ,चितरंजन सिंह  और संतोष चतुर्वेदी जैसे कई नाम है.....अपने सीमित संसाधनों के बावजूद आप यहाँ हिंदी की सभी महत्वपूर्ण साहित्यिक और वैचारिक पत्रिकाए पा सकते है...सभी महत्वपूर्ण राष्ट्रीय समाचार पत्र हमारे शहर में इसी दुकान पर उपलब्ध होता है......यह खयाल आते ही कि यदि राजेंद्र जी की यह दुकान बलिया में नहीं होती , हमारी रूह काँप जाती है......बलिया के साहित्य प्रेमियों को इस साहित्यिक पूजा स्थल पर हर शाम देखा जा सकता है....   

पिछले तीन दशक का यह सफ़र इस दुकान के आसान तो नहीं रहा होगा...उसमे कई उतार चढ़ाव आये होंगे, लेकिन राजेंद्र जी एक सामान्य पुस्तक विक्रेता कि तरह  ही मुस्कुराते हुए कहते है  "किताबो के अतिरिक्त और किसी भी चीज की दुकान खोल लेने का विचार तो मेरे सपने में भी नहीं आता"...उनकी दृढ़ता को देखकर प्रतिबद्ध  नामों की सूची में कुछ और जोड़ने की ईच्छा होती है....उन बड़े नामों के नीचे इस तरह के नाम  को रखने में क्या हर्ज हो सकता है ? क्योकि ऐसे ही लोगो  ने तो इन बड़े नामों को अपने कंधो पर उठा रखा है...कवि मित्र संतोष चतुर्वेदी  कि पंक्तिया है    " ये मजदूर हैं   /   थकते नहीं  /  मिट्टी के बने मजदूर  /  मिट्टी कि तरह अपना अंतिम दंश  /  झोंक देते है  /  पेड़ो कि हरियाली में चुपचाप  |".....


रामजी तिवारी 
बलिया , उ.प्र.
मो. न.. 09450546312