शनिवार, 27 सितंबर 2014

“ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर” - सातवीं क़िस्त -अशोक आज़मी









इस संस्मरण के बहाने अशोक आज़मीअपने अतीत के उन दिनों को याद कर रहे हैं, जिसमें किसी भी मनुष्य के बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है | पिछली दो किस्तों में उन्होने मंडल आन्दोलन के बहाने उस दौर की मानसिकता को समझने की कोशिश की थी | इस सातवी क़िस्त में वे एक किशोर बालक और एक अनुशासन प्रिय पिता के बीच के द्वन्द्व को पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं, जो शायद इस समाज के साथ ही शुरू हुयी थी, और इस समाज के रहने तक बनी भी रहेगी ।

       
    
  

         तो आईये पढ़ते हैं सिताब दियारा ब्लॉग पर अशोक आज़मी के 
                          संस्मरण                     
              

                    
                          ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैरकी सातवीं क़िस्त



तब उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद् की बारहवीं की बोर्ड की परीक्षा आल्पस की चढ़ाई से कम नहीं होती थी जिसमें बीच बीच में आपके शिक्षक आपके शब्दकोष में असंभव नामक शब्द घुसाते रहते थे. चौधरी साहब पापा के कालेज में गणित पढ़ाते थे. घर पर ग्यारहवीं-बारहवीं का ट्यूशन. सिद्ध वाक्य था उनका गदहा कहीं के, हो चुके पास बोर्ड में तुम. अब गणित के छह पेपर. छहों की अलग अलग किताबें. कैलकुलस संभालो तो स्टैटिक्स डायनामिक हो जाता था, अलजेब्रा साधो तो ट्रिगनोमेट्री रूठ जाती थी. फिर इनार्गेनिक केमिस्ट्री! उफ़! दसवीं में जीव विज्ञान का पर्चा दे कर आया तो पापा के पूछने पर कहा, अच्छा हुआ और माँ से कहा कि मुक्ति मिली. तो डाक्टर बनने का सपना तो टूट ही चुका था अब इंजीनियर बनने के पापा के सपने का बाद में जो करते सो करते उस समय तो इंटर पास करना ही था. इन सबके बीच किन्हीं विषयों पर पूरा भरोसा था तो वे थे हिंदी और अंग्रेज़ी. हिंदी प्रेमशीला शुक्ला आंटी से पढ़ता था, जिनका ज़िक्र मैं पहले कर चुका हूँ. बोर्ड में दो तरह की हिंदी थी. एक साहित्यिक हिंदी और दूसरी सामान्य हिंदी. किताब एक ही थी, लेकिन सामान्य वाले छात्रों को कुछ अध्याय नहीं पढने होते थे. मैं सारे पढ़ता था. भूषण थे, शायद सेनापति भी. याद नहीं मुक्तिबोध सामान्य में थे या साहित्यिक में, लेकिन पहला परिचय वहीँ हुआ. आंटी ने कभी नहीं कहा कि यह कोर्स में नहीं है. उन्हें मेरी साहित्यिक अभिरुचि का पता था. जो पूछता बड़े प्यार से समझातीं. महीने में दो तीन दिन जाया करता. उस दौर में आंटी ने उन कविताओं में डूबना न सिखाया होता तो शायद मैं कवि तो नहीं ही हो पाता.


अंग्रेज़ी का क़िस्सा मजेदार है. छोटे कस्बों में अंग्रेज़ी का अपना ही जलवा होता है. पापा को अंग्रेज़ी ठीकठाक आती थी. बोलते पूरबिहा अंदाज़ में ही थे, यानी ओनली नहीं वनली. हम दोनों भाइयों को बचपन से अंग्रेज़ी के अखबार और पत्रिकाएं पढने को दी जाती थीं. मुझे हाईस्कूल की गर्मी की छुट्टियों में इंटर के किताब की कीट्स की ला बेल दां सां मसी पढ़ के अंग्रेज़ी कविता का जो चस्का लगा था वह बड़ी मुश्किल से पूरा हो पाता था. कालेज में सुदामा सिंह जी पढ़ाते थे. शुरू के दो तीन क्लासेज में उन्होंने शुरुआत की आई लाइक टू टीच इन इंग्लिश, बट यू विल नाट अंडरस्टैंड फिर हमने एक दिन कहा, सर आप अन्ग्रेजिये में पढ़ाइये, हम समझ लेंगे. तो डांट पड़ी जो हम जैसों के लिए मामूली चीज़ थी और हमने अंग्रेज़ी हिंदी मीडियम में पढ़ी. बोर्ड का अंग्रेज़ी का कोर्स भी कोई कम नहीं था. गद्य पद्य के अलावा जूलियस सीजर भी था. एक तरफ़ शेक्सपीरियन इंग्लिश में, दूसरी तरफ़ आज की अंग्रेज़ी में. इंटर कालेज के भरोसे न इस तरफ़ का समझ आता था न उस तरफ़ का. इसी बीच किसी ने डी पी सिंह सर का नाम सुझाया. हम झुण्ड बनाकर वहाँ पढ़ने पहुँच गए.


डी पी सिंह सर बनारस के रहने वाले थे, देवरिया के बी आर डी इंटर कालेज में शिक्षक हो कर आये और फिर प्रिसिंपल होकर रिटायर हुए तो यहीं बस गए. मेरे नाना उनके पहले बैच के छात्र रह चुके थे. कलेक्ट्रेट के सामने उनका सरकारी घर था. एक बेटी साथ में रहतीं थीं बाक़ी शायद बेटा विदेश में था और बाक़ी लोग बनारस में. गोरा रंग, दरमियाना क़द और आँखों पर काला चश्मा. तब उम्र रही होगी कोई सत्तर साल से ऊपर ही, लेकी सधी हुई आवाज़ थी और सधी हुई चाल. एक विदेशी साइकल थी उनके पास, उससे ही चलते थे. पुराने ढब के सोफे और एक आराम कुर्सी के अलावा ड्राइंग रूम में यहाँ से वहाँ तक बस किताबें ही किताबें.  शेक्सपियर, बायरन, शैली, कीट्स, यीट्स, इलियट..कौन कौन नहीं थे उन आलमारियों में. मेज के बीचोबीच एक हाथीदांत का एश ट्रे. सर डिनर के बाद एक सिगरेट पीते थे.


उन्होंने जूलियस सीज़र और पोएट्री पढ़ाना शुरू किया. सीजर शेक्सपीरियन अंग्रेज़ी में पढ़ाते. आरामकुर्सी पर तिरछे लेटे हुए. किताब सीने पर रखी, आँखें हमारी आँखों पर जमी और आइडेस आफ मार्फ़ हैथ कम. बट येट नाट गान कहते नाटकीयता से भर जाने वाला उनका खूबसूरत चेहरा आज भी मेरी आँखों के सामने है. एक Tampst (तूफ़ान) का दृश्य उन्होंने कोई हफ्ते भर में समझाया था. एक एक पात्र के भीतर जाकर जैसे पूरा महाकाव्य सामने ला देते. मैं मंत्रमुग्ध हो सुनता रहता. बीच बीच में सवाल करता, वह बच्चों सा चहक पड़ते. इस तरह देवरिया की उस धरती पर 1991 के किसी महीने में जूलियस सीजर फिर से ज़िंदा हो गया था, ब्रूटस फिर से नैतिकता और फ़र्ज़ की मंझधार में झूल रहा था, कैसियस फिर से षड्यंत्र रच रहा था...लेकिन बाक़ी छात्रों को परीक्षा भी देनी थी. सीजर पढने का मतलब परीक्षा के लिहाज से कुछ महत्त्वपूर्ण पात्रों का चरित्र चित्रण और कुछ एक महत्तवपूर्ण हिस्सों का सन्दर्भ सहित अर्थ भर होता था इंटर के साइंस साइड के विद्यार्थियों के लिए. तो महीना बीतते-बीतते मेरे अलावा सभी लोग डा आलोक सत्यदेव के यहाँ चले गए. यही हाल शायद मेरे बाद वाले लड़कियों के बैच का भी हुआ होगा. तो सर ने उस बैच की इकलौती बची लड़की और मुझे एक साथ पढ़ाना शुरू किया. यह मेरी पहली को-एड थी. शाम चार बजे हम पहुँचते. डी पी सिंह सर के चाय का वक़्त था वह तो हमें भी चाय मिलती. फिर वह पढ़ाना शुरू करते. अचानक रुकते और कहते, अशोक वो उस रैक में तीसरे नंबर के खाने में फलां की एक किताब रखी है. किताब हाथ में आती तो बीच से कोई पन्ना खोलते और कहते, लो पढ़ो इसे. इस तरह कभी आधे घंटे तो कभी दो-दो घंटे हम उनके सान्निध्य में रहते और अंग्रेज़ी साहित्य के उन गलियारों में घूमते जहाँ देवरिया जैसे क़सबे से यों जा पाना नामुमकिन था.


वह पक्के नेहरूवादी थे. उन्हीं की तरह लिबरल डेमोक्रेट. जब मैं आरक्षण विरोधी आन्दोलन में सक्रिय हुआ तो अक्सर समझाते, रुक कर गौर से देखो. कौन से लोग हैं ये जो तुम्हारे आगे पीछे हैं. क्या तुम इनकी तरह जातिवादी बनना चाहते हो? क्या तुम नहीं चाहते कि हजार बरसों से जो अन्याय हुआ है जाति के नाम पर, उसके दाग़ से हमें मुक्ति मिले? अपनी जाति और अपने धर्म से ऊपर उठकर जिस समाज में लोग नहीं सोचते वह समाज कभी आगे नहीं बढ़ सकता. तब न उनकी बातें समझ आती थीं न सहमति बनती थी. मुझे तो बस साहित्य का वह रस खींच कर ले जाता था उनके पास जो कहीं और न था. दोस्त कहते, अबे स्साले. तीन महीना में सीजर पढोगे बीस नंबर के लिए तो हो चुके अंग्रेज़ी में पास. मैं कहता, अबे पास तो गधे भी हो जाते हैं. पर जो मजा मिलता है न उनके यहाँ वह कहीं नहीं मिलेगा. ज़ाहिर है मज़े का मतलब भाई लोग हमारी उस सहपाठी से लगाते जिससे उन सात-आठ महीनों में नाम तक पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी थी मेरी.


खैर, गाँव से लौटने के बाद पापा एकदम बदल गए थे. मेरा पूरा टाइम टेबल तैयार था. अनसाल्वड पेपर्स के गहरे रिसर्च के बाद दसियों माडल पेपर्स बने रखे थे. सुबह चार बजे उठते. चाय बनाकर मुझे जगाते. फिर नौ बजे तक लगातार पढ़ना. फिर नहा धो के ग्यारह बजे नाश्ता करके बैठ जाता तो माँ को हिदायत दे के कालेज निकलते. दिन भर के सवाल और अध्याय तैयार रहते. दिन में तीन बजे खा के दो घंटे का सोना. फिर छः बजे से रात नौ बजे तक पढ़ाई, फिर खाना और अगले दिन के टार्गेट के बारे में बातचीत. दस बजे हर हाल में सो जाना. घर पर न किसी के आने की इजाज़त थी न हमें गेट से बाहर निकलने की. हद से हद बाहर पापा के लगाये कैक्ट्स और गुलाब के बीच टहल लो या पीछे अमरुद और आम के पेड़ों के दर्शन कर लो या फिर छत पर टहल लो. अखबार सिर्फ पापा पढ़ते थे और फिर कहीं छुपा कर रख दिया जाता. टीवी का तो खैर सवाल ही नहीं उठता था. और तो और ननिहाल जाना भी बंद करा दिया गया. और इन सबके लिए न मार न डांट. बस एक धमकी, निकले तो फिर तुम जानो और तुम्हारा काम. बोर्ड के इक्जाम्स में मैं कोई मदद नहीं कर पाऊंगा. मुझे पता था कि वे कितने जिद्दी थे और यह भी कि उनके बिना अपनी नैया पार नहीं होनी. तो सब बर्दाश्त किया.


मुझे सबसे ज़्यादा दिक्कत स्थैतिकी (statics) के पेपर में होती थी. दिन में तीन बजे से पेपर होता था. सुबह उठा तो पापा तीन सवालों की एक लिस्ट लेकर आये. कहा, जरा इन्हें देखो. चार पांच साल से नहीं आये हैं. मैंने कहा, जब चार पांच साल से नहीं आये तो अब क्या आयेंगे. वह बोले, करके तो देखो साल्व. मैं भुनभुनाते हुए भिड़ा. तीनों में से एक भी साल्व नहीं हुआ. वह मुस्कुराए और एक एक कर तीनों साल्व कराया. पेपर मिला तो वे तीनों सवाल आये थे. 33 में से 17 नंबर के सवाल!


बहुत बाद में माँ ने बताया कि उन दिनों सारी सारी रात जागते थे पापा. उद्विग्न होकर छत पर टहलते थे. वह भौतिकी के शिक्षक थे, लेकिन हिंदी, अंग्रेज़ी, गणित, रसायन सब पढ़ डाला था उन्होंने. डांट मार सब भूल गए थे. दो ढाई महीनों में खुद को घुला दिया था. परीक्षाओं में भी छोड़ने जाते सेंटर तक. लौट के आने पर बस पेपर हाथ में लेकर देखते और कहते अगले के लिए भिड़ जाओ.


आज उनके न रहने पर जो कुछ संतोष हैं उनमें से एक यह कि कम से कम उस परीक्षा में उनकी मेहनत बेकार नहीं गयी. भौतिक, गणित, रसायन..तीनों में 80 से अधिक नंबर आये. अंग्रेज़ी और हिंदी में भी साठ से ऊपर. कुल प्रतिशत 74 बना, जो उन दिनों के हिसाब से बहुत अच्छा था. वह रिजल्ट मेरा नहीं, पापा का था. तब समझ नहीं आता था. वह कहते, बाप बनबs तब बुझबs बाबू. वह ग़लत कहते थे, मैं तब समझ पाया जब उन्हें खो दिया. विकट ग़रीबी और अभावों में पढ़कर वहां तक पहुंचे पिता बस इतना चाहते थे कि हम दोनों भाई अपनी ज़िन्दगी में उन मुश्किलात से कभी रु ब रु न हों. शिक्षा के अलावा क्या था जो हमें यह सब दे सकता था. तो जो उचित लगा उन्हें वह किया. मेरी शरारतों से डरते थे कि कहीं मैं अपना जीवन नष्ट न कर लूं. उसका इलाज पिटाई और डांट लगता था उन्हें. था नहीं पर उन्हें कुछ और कैसे लग सकता था? जिस समय की पैदाइश थे वह उनसे इससे अधिक की उम्मीद कैसे की जा सकती थी?    


उन दिनों और आज भी छोटे कस्बों में डाक्टर और इंजीनियर बनना ही पढ़ाकू और सफल होने की निशानी माना जाता है. इनसे चूक गए तो फिर पी सी एस या आई ए एस. पापा चाहते थे मैं इंजीनियर बनूँ और फिर आई ए एस तथा भाई डाक्टर बने. भाई तो खैर बना भी. उन दिनों यह इतना आसान भी नहीं था. इंजीनियर कालेज इस तरह गली गली नहीं खुले थे. सबसे आसान एम एल एन आर, फिर रुड़की और आई आई टी. मेडिकल और मुश्किल था. अब तो यह हाल है कि कोई छात्र बहुत दिनों बाद मिलता तो पापा कहते, इंजीनियरिंग कर रहे हो?


पापा का अपना भी एक दर्द था. उस ज़माने में वह खुद इंजीनियर बनना चाहते थे. लेकिन आर्थिक स्थितियाँ ऐसी नहीं थीं कि बड़े सपने देख पाते. पाँच छोटे भाई बहन, बाबा की मामूली नौकरी, रेहन पड़े खेत और गहने. उन्नीस साल की उम्र में एम एस सी पास की तो जो पहला कालेज मिला, ज्वाइन कर लिया. पी एच डी भी बहुत बाद में कर पाए. बताते थे कि तब तीन सौ कुछ रुपये मिलते थे और दो सौ घर भेज दिया करते थे. पापा गाँव के पहले ग्रेजुएट थे तो गाँव वालों को भी बहुत उम्मीदें थीं. हमारे गाँव में एक बुजुर्ग थे चिरकुट बाबा. पापा के बाबा के संगतिया थे. जब पापा नौकरी ज्वाइन करके लौटे तो उनसे मिलने गए. सलाम दुआ के बाद वह पूछे, सुनलीं ह नोकरी लाग गइल तोहार? पापा बोले हाँ चाचा. का बन गइलs पापा ने दो मिनट सोचा और कहा, मास्टर बन गइलीं चाचा. वह उदास हो गए, का ए बाबू, एतना पढलs लिखलs, नदी पार क के गइलs. अ बनलs मास्टर. सिपहिये बन गईल रहतs कम से कम. नाहीं त देउरिया रहले क का फायदा? एसे नीक कि गंउए के स्कूलिया में पढ़वतs.     


तो हर युग के अपने सपने होते हैं. पापा के सपने उनके युग के ही हो सकते थे. यह अलग बात कि मेरी आँखों के सपने बदल चुके थे. ज़ाहिर है इन सब को लेकर और बाद में मेरी नौकरी को लेकर वह बहुत दुखी रहते. वे किस्से आगे. बहुत बाद में जब मैं नियमित पत्रिकाओं में छपने लगा, किताब आई तो उन्हें लगा कि सब कुछ निरर्थक नहीं. अक्सर पूछते थे, तुम्हें अवार्ड कब मिलेगा? मैं हंसकर उड़ा देता. जब भी फोन करते तो पूछते, क्या लिख रहे हो? आते तो कविताएँ सुनते, छपे हुए लेख पढ़ते. ग्वालियर में पवन करण, महेश कटारे, महेश अनघ (अब स्वर्गीय) और ज़हीर कुरैशी जी से कई मुलाकातें थीं उनकी. एक बार अमर उजाला में कविता छपी तो सुबह सुबह उनका फोन आया, बेहद खुश थे. मैंने कहा कि पापा यह तो छोटी बात है. वह बोले, अरे देवरिया में हंस से ज्यादा बड़ी बात है. तब समझ आया कि वह जो चाहते थे कोई पद या पैसा नहीं प्रतिष्ठा थी. खैर यह सब तो बाद की बातें हैं उस वक़्त तो इंटर में अच्छे नंबर आते ही नई मुसीबतें शुरू हो गईं थीं मेरे लिए.


                                                                             ....................जारी है .....
                                      

परिचय और संपर्क

अशोक आज़मी .... (अशोक कुमार पाण्डेय)

वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कवि, आलोचक, ब्लॉगर और प्रकाशक
आजकल दिल्ली में रहनवारी      



रविवार, 21 सितंबर 2014

“ग़ालिब-ए-ख़स्ता के बगैर” की छठी क़िस्त - 'अशोक आज़मी’







इस संस्मरण के बहानेअशोक आज़मीअपने अतीत के उन दिनों को याद कर रहे हैं, जिसमें किसी भी मनुष्य के बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है | पिछली किश्त में उन्होने मंडल आन्दोलन के बहाने उस पूरे दौर की मानसिकता को समझने की कोशिश की थी | इस छठी क़िस्त में अपने जेल के अनुभवों के सहारे वे उसे और विस्तार दे रहे हैं
                                 
                                  
      
         तो आईये पढ़ते हैं सिताब दियारा ब्लॉग पर अशोक आज़मी के संस्मरण                       
               

                    “ग़ालिब--ख़स्ता के बगैर की  छठी क़िस्त


                       या देवी सर्वभूतेषु



किसी भी शहर या कस्बे में जेल हमेशा शहर के बाहर होती है. शरीफ लोग जेल से दूर ही रहना पसंद करते हैं. पहली जेलयात्रा के बाद से अब तक जेलें बहुत सी देखीं हैं मैंने. ग्वालियर में किले पर कभी जाएँ तो वहाँ मानमहल है. राजा मान सिंह ने बनवाया था उसे जिनके बारे में कहा जाता है कि वह न केवल बहुत वीर थे बल्कि कलाओं, ख़ासकर संगीत में निपुण थे. ध्रुपद के अच्छे गायक थे और इस विधा को उन्होंने ही सबसे पहले राज्याश्रय दिया. इस महल की दो मंज़िलें ज़मीन के ऊपर हैं और बाक़ी (शायद पाँच) ज़मीन के नीचे. इन्हीं में से एक मंजिल में एक वृत्ताकार हाल है. बताते हैं कि राजा मान सिंह के राज में उनकी सात रानियाँ उसमें झूला डाल के झूलती थीं. उसके नीचे एक तालाब बना था. चारों ओर जबरदस्त सुरक्षा. फिर जब उन्होंने मृगनयनी से शादी की तो उसने वहाँ रहने से इंकार क्यों किया होगा? उसने अलग और खुला महल बनाने की मांग क्यों की होगी? वही जगह मुग़ल शासकों को बाद में जेल बनाने के लिए सबसे मुफ़ीद क्यों लगी होगी? बताते हैं मुगलों ने न सिर्फ उसे जेल बना दिया बल्कि ज़्यादातर राजद्रोह के अपराधियों को वहीँ रखा. सिखों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह को जहांगीर ने यहाँ तमाम दूसरे राजाओं के साथ बंदी बनाकर रखा था. बाद में जब वह रिहा किये गए तो उनके साथ के राजाओं ने उन्हें साथ ले चलने की फ़रियाद की. जहांगीर ने कहा कि जितने राजा दामन पकड़ के आ सकते हैं गुरु का उन्हें ही रिहा किया जाएगा. रात भर थिगलियाँ जोड़ी गयीं और फिर उनका दामन पकड़कर 52 राजा निकल आये थे. किले पर इसी घटना के स्मृति में एक खूबसूरत गुरुद्वारा है जिसे “दाता बंदी छोड़ गुरुद्वारा” कहा जाता है. मान महल के भीतर अब भी वह गोल बारामदा भुतहा सा लगता है. जैसे उन क़ैदियों की कराहें गूँज रही हो उसमें.


एक जेल मुंगावली में देखी थी. खुली ज़ेल. जनता शासन के दौरान यह प्रयोग किया गया था. दीवारें नहीं थीं उसमें. क़ैदी स्वच्छंद घुमते थे. उन्हें तमाम शिल्प कलाएं सिखाई जाती थीं कि अपराध छोड़कर वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें. लेकिन यह प्रयोग असफल हुआ. कई बार वक़्त से पहले आदर्शवादी तरीक़े से लागू कर दी गयी चीज़ें असफल होने के लिए अभिशप्त होती ही हैं. अब वहां खंडहर हैं उस आदर्शवादी स्वप्न के. उसी मुंगावली की असली वाली जेल में गणेश शंकर विद्यार्थी की वह मूर्ति वर्षों क़ैद रही जिसे वहां के पत्रकार चौराहे पर लगाना चाहते थे. विद्यार्थी जी का रिश्ता रहा था उस क़स्बे से सो आज़ादी के बाद उनकी मूर्ति गिरफ़्तार हुई वहाँ.


खैर, विषयांतर कर बैठा. माफ़ी चाहूँगा. हमारे पहले कोई पचीसेक लोग गिरफ्तारी दे चुके थे. इनमें से ज़्यादातर छुटभैये नेता और डिग्री कालेज के छात्रनेता थे जिन्हें जेलों का अच्छा खासा अनुभव था. हम उनके बीच बच्चे ही थे. मैं तो सबसे कम उम्र का था. अन्दर चले तो गए पर एक डर मन में था. जेल को लेकर एक छवि बनी हुई थी. लेकिन उस जेल में तो हम जैसे अतिथि थे. वहां तो उत्सव का माहौल था. शहर के सबसे अमीर सुनार और संघ के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता रामा बाबू के यहाँ से रोज़ सुबह जलेबियों, समोसों, कचौड़ियों वगैरह का नाश्ता आता. एक कांग्रेसी नेता थे जिनके यहाँ से शाम का नाश्ता आता था. जनता दल की तो युवा शाखा के तमाम बड़े नेता जेल में थे ही. जेलर साहब अक्सर टहलते हुए चले जाते और हमारे सुर में सुर मिला कर आरक्षण की आलोचना करते. दिन भर पत्रकारों का आना जाना लगा रहता और हम सबकी तस्वीरें अगले दिन सुबह देवरिया के पन्ने पर छपतीं. शाम का खाना सबकी तरह मेरा भी घर से आया लेकिन उसके पहले किसी के सौजन्य से पूड़ी सब्ज़ी आ चुकी थी.


पापा को ख़बर मिली श्रीधर भैया से. वह हमारे नए पड़ोसी थे. राम गुलाम टोले के पीछे के खाली मैदान में बसे इस नए मोहल्ले में अभी कम लोग आये थे और सबसे पुराना बाशिंदा होने के कारण पापा का विशेष सम्मान था. जब कोई नया घर बनता तो पानी, चाय वगैरह की व्यवस्था हमारे ही घर से होती. श्रीधर भैया का बचपन कलकत्ता में गुज़रा था और अब उन लोगों ने यहाँ मकान बनवाया था जिसमें चाची जी और भैया रहते थे. चाची की उम्र काफी थी लेकिन ग़ज़ब की मेहनती थीं. अकेले दम पर पीछे की कोई दो कट्ठा ज़मीन में सब्ज़ी उगातीं. चाचा जी से उनकी बोलचाल नहीं थीं. लोग बताते थे कि श्रीधर भैया की एक बहन ने अपनी मर्ज़ी से शादी कर ली थी जिसका सारा गुस्सा चाचा जी ने चाची पर निकाला था. उनकी भाषा में बंगाली और भोजपुरी का ग़ज़ब मिश्रण था. कलकत्ते में रहने के कारण एक तरह का श्रेष्ठता बोध था उनमें. हमसे कहतीं, कलकत्ता में न एक ठो बहुते बड़ा चिरैयाखाना है. बजार तो इतना बड़ा है कि दू ठो देवरिया आ जाए उसमें. उहाँ की आलमारी में सात आठ सौ साड़ी पड़ा है हमारा. ला ही नहीं पाए.” श्रीधर भैया उनकी इकलौती संतान थे. उस दिन जेल भरो आन्दोलन में वह भी साथ गए थे लेकिन इन्स्पेक्टर साहब के समझाने पर समझ कर लौट गए थे. पापा को ख़बर मिली तो सीधे जेल आये. मुझे बुलावा आया मिलने का तो रूह सूख गयी. किसी तरह पहुँचा. पहला सवाल आया, जब सब लड़के वापस लौट गए तो तुम क्यों नहीं लौट आये? मैंने कहा, “ मैं नेतृत्व कर रहा था उस दिन, मैं कैसे पीछे हटता?” याद नहीं उन्होंने और क्या-क्या पूछा था और मैंने क्या बताया था, लेकिन जो भी था वह उतना बुरा नहीं था जितनी मैंने कल्पनाएँ की थीं.


रात हुई तो नेताजी लोगों की बाक़ी व्यवस्थाएं भी हो गयीं. सिगरेट तो सुबह से चल रही थी, अब दारू भी आ गयी थी. दो पैग अन्दर गए तो उनके भीतर के असली अमानुष बाहर आने लगे. उस उम्र में तो मैं सिगरेट के धुंए से भी दूर रहता था शराब पीते तो शायद जीवन में पहली बार किसी को साक्षात देखा था. उसके बाद के अश्लील गाने और बातें! उफ़ रूह काँप गयी थी. यही लोग थे जो मंच पर भाषण देते थे. जो ग़रीबों और युवाओं के नाम पर इतनी बड़ी बातें करते थे. बात बात में लोहिया-जयप्रकाश को कोट करते थे. वे मुझे अपने जैसा मान के चल रहे थे. जब सिगरेट बढ़ाई गयी हमारी ओर तो उसे “ख़तना” ही कहा गया. लेकिन मैं मन ही मन तय कर रहा था. मुझे इनमें से एक नहीं होना है.


अगली सुबह पापा जमानत के लिए दौड़ भाग करते रहे. उनके एक दोस्त थे वकील तो जमानत का इंतजाम उन्हीं के भरोसे था. लेकिन सब करते कराते शाम हो गयी और अब जमानत अगले ही दिन मिल सकती थी. एक और रात मुझे जेल में काटनी थी. शाम को जब महफ़िल जमने वाली थी तभी जेलर साहब आ गए. हमें देख के बोले “अभी से शुरू कर दिए पंडिज्जी?” हमने कहा “नहीं सर. मैं शराब नहीं पीता.” तो बोले चलो असली जेल दिखा के लाते हैं आपको. मैं उनके पीछे पीछे लग गया. मेरे साथ जो एक और लड़का गिरफ्तारी देके आया था एस एस बी एल का वह पहले ही दिन ख़ुशी ख़ुशी खतना और बप्तिस्मा दोनों करा चुका था. बाद में वह छात्रनेता ही बना. अंतिम मुलाक़ात उससे मेरी कोई दस साल पहले हुई थी जब मैं अपने एक रिश्तेदार से मिलने पहली और आखिरी बाद लखनऊ के विधानसभा मार्ग पर स्थित भाजपा के दफ्तर गया था. खैर, जेलर साहब मुझे लेकर जेल के तमाम हिस्से घुमाते रहे. हत्या के आरोप में गिरफ्तार एक खूंखार अपराधी को मैंने देखा जो सारी सारी रात भजन करता था और रोता था. एक डकैत को देखा जिसकी अगले हफ्ते रिहाई होनी थी और वह परेशान था कि दो महीने से कोई उसके घर से मिलने भी नहीं आया था. एक वार्ड में ढेर सारे लोग थे. कोई जेबकतरा था, कोई छोटी मोटी चोरी करके आया था, कोई छिनैती में, कोई मार पीट में. ये लोग ऐसे खेल कूद रहे थे जैसे अपने गाँव में हों. उन्हीं में एक लड़का था जो बिना टिकट यात्रा में पकड़ा गया था और तीन महीने बीतने के बावजूद जमानत नहीं हुई थी. मैंने कुर्ता जींस पहना हुआ था और जेलर के साथ बोलते बतियाते देख के उसने मुझे कोई नेता समझा. वह पैर पकड़ कर रोने लगा, “हमके छोड़ा देईं ए नेताजी. एक्को पइसा नाही रहे ओ दिन. रिस्तेदारी में मर गइल रहे केऊ. माई मरी जाई हमरे बिना. हमके छोड़ा लेईं. राउर गोड लाग तानी. राउर गुलामी करब...” मेरी कुछ समझ में नहीं आया. मैंने लाचारगी की निगाह से जेलर साहब को देखा. उन्होंने मेरा पैर छुड़ाया और बोले, “चलिए.”


अगले दिन मेरी जमानत हो गयी. पापा स्कूटर से लिवाने आये थे. रास्ते भर कुछ नहीं बोले. घर पहुँचा तो माँ से बोले, “लीजिये आ गए आपके सपूत. अब खीर पूड़ी खिलाइए और स्वागत कीजिए.” मम्मी का रो रो के बुरा हाल था. नाना, मौसी और जाने कौन कौन घर पर जमा था. सब मुझे कुछ न कुछ उपदेश दे देना चाहते थे. मैं चुपचाप भीतर गया और खुद को कमरे में बंद कर लिया. कोई घंटे भर बाद पापा आये. सामने कुर्सी पर वह थे और बेड पर मैं. थोड़ी देर यों ही बैठे रहे. फिर कहा, “यही सब करना चाहते हो जीवन में? इतना तेज़ दिमाग है. इतना दुनिया भर का पढ़ते लिखते रहते हो यह नहीं समझ पाते कि कच्ची मिट्टी दीवार में नहीं लगती. नेतागिरी करनी है तो इन लफंगों जैसा नेता बनके क्या मिलेगा? नेहरु हों, इंदिरा हों, लोहिया हों..ये सब बहुत पढ़े लिखे लोग थे. पढ़ लिख लो. डिग्री ले लो. चीजों को खुद समझो. फिर जो करना है करो.” जीवन में पहली बार पापा इतनी शान्ति से समझा रहे थे. शायद उन्हें मेरे बड़े होने का अहसास हो रहा था. मैंने एक शब्द कहा बस “जी.” वह उठ खड़े हुए और कहा, कल पूजा है. तैयारी कर लो. बोर्ड है इस साल. लौट के बात करते हैं.


पूजा यानी सरयू नदी के किनारे बसे हमारे गाँव सुग्गी चौरी की सालाना पूजा. दुर्गा हमारी कुलदेवी मानी जाती हैं. हालांकि मुझे लगता है कि ये जो दुर्गा रही होंगी वह दुर्गा के प्रचलित मिथक से अलग कोई स्थानीय देवी रही होंगी जिन्हें कालान्तर में दुर्गा बना दिया गया. दशहरे के आस पास यह पूजा होती थी जिसमें दो बेदाग़ बकरों की बलि दी जाती थी. बेदाग़ यानी काला तो सफ़ेद की एक चित्ती नहीं चलेगी और सफ़ेद तो कोई काला धब्बा नहीं होना चाहिए. बाबा और छोटे चाचा ऐसे दो बकरों का इंतजाम करके रखते. बड़े चाचा लखनऊ में थे, मंझले चाचा एयर फ़ोर्स में हैं तो उनकी जगह बदलती रहती, एक और चाचा हैं जो अब तो गाँव पर बस गए हैं लेकिन जाने कहाँ कहाँ रहे और कौन कौन सा गुल खिलाया. पूजा में सारा परिवार जुटता. बलि देने वाले का चयन जन्म से पहले ही हो जाता. उसे सेवईक कहा जाता था. मेरी पीढ़ी में मुझे सेवईक चुना गया था. बड़े चाचा और वह मस्त मौला चाचा भी सेवईक थे लेकिन अपनी एक बीमारी की वजह से बड़े चाचा ने छोड़ दिया था और मझले चाचा की पत्नी ने शादी के तुरत बाद उन्हें क़सम दिला दी थी तो वह भी किनारा कस चुके थे. तो अब जिम्मेदारी हम पर थी. घर के आँगन में सब लोग इकट्ठा होते. औरतें एक तरफ आड़ में और पुरुष सिर्फ धोती में आँगन के निचले हिस्से में. (चारों तरफ आँगन ऊंचा था और बीच में एक चौकोर तालाब जैसी सरंचना बना दी गयी थी जो मुख्य आँगन था) पहले हवन और मंत्रोच्चार होता. शुद्ध देशी घी में सने हविष्य के साथ “या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः” का स्वर लगातार ऊँचा होता जाता. फिर दो तीन लोग एक एक कर बकरे को पकड़ के लाते. जै हो दुर्गा मईया का नारा लगता. लकड़ी के एक बलि खंड पर उसे रखा जाता और सेवइक को गंडासे के एक वार से उसका सर धड़ से अलग करना होता. धड़ हटा दिया जाता और प्रसाद के रूप में रखे रोट (घी में सिंकी रोटी), चने और बताशे की थाली के बगल में सिर रख दिया जाता. दूसरे बकरे के साथ भी यही क्रिया दुहराई जाती. फिर सेवइक खून से सने कपड़ों में घुटने के बल बैठकर देवी का आह्वान करता और देवी उसके “सिर” पर आतीं. परकाया प्रवेश जैसा. फिर सारे घर के लोग पैरों में गिरते. अपनी अपनी समस्या पूछते. थोड़ी देर तक साथ रहने के बाद वह चली जातीं. देवी संस्कृत या हिंदी में नहीं शुद्ध भोजपुरी में बतिआतीं थीं. देवी के जाने के बाद सेवइक निढाल होकर गिर जाता. उसकी सेवा की जाती, नहलाया जाता, चाय पिलाई जाती तब जाके वह सामान्य हो पाता था.  फिर बकरों का मीट पकता. गाँव के लोगों में यह प्रसाद बाँट दिया जाता. घरवाले और पट्टीदार एक साथ खाते. सिर अलग से पकता. उस पर सिर्फ घरवालों और सेवइक का हक होता.


सबकुछ इतना हिंसक और रौद्र होता कि अब सोचता हूँ तो सिहरन होती है. इस भयावहता का अनुमान एक किस्से से लगाया जा सकता है. जिन अलमस्त चाचा का ज़िक्र किया मैंने उनकी शादी के बाद एक पूजा हुई. चाची जिस घर से आईं थीं वहां लहसन प्याज तक वर्जित था. विदाई के तीसरे दिन यह पूजा हुई. उन्हें भनक मिल गयी थी तो चाचा को तो खैर कसम दिला दी गयी थी और पूजा पर बैठे हम. रंग रूप तो जो हमारा है खैर वह है ही, उस दिन खून से सनी सफ़ेद धोती में मंत्रोच्चार करते, देवी के रूप में घर के लोगों को डांटते-हड़काते और झूमते जो उन्होंने मुझे देखा तो ऐसी खौफज़दा हुईं कि वर्षों ठीक से बात तक नहीं कर पाई. अब भी एक डर और झिझक उनकी आवाज़ में रहती ही है मेरे सामने.


जब कम्युनिस्टों से पहला पाला पड़ा और बात ईश्वर के अस्तित्व तक पहुँची तो मेरे पास सबसे मज़बूत तर्क इसी अनुभव का था. वह क़िस्सा आगे आएगा. अभी तो पूजा के बाद देवरिया लौटना था और बारहवीं की बोर्ड की परीक्षाओं का सामना करना था.  


हाँ, देवरिया लौटकर मैंने उस लड़के की जमानत करा दी थी.
  

                                                                     ....................जारी है .....
                                      

परिचय और संपर्क

अशोक आज़मी .... (अशोक कुमार पाण्डेय)

वाम जन-आन्दोलनों से गहरा जुड़ाव
युवा कवि, आलोचक, ब्लॉगर और प्रकाशक
आजकल दिल्ली में रहनवारी