विमलचंद्र पाण्डेय |
पिछली किश्त में आपने पढ़ा कि विमलचंद्र पाण्डेय के लिए इलाहाबाद हँसने और रोने के अवसर एक साथ उपलब्द्ध करा रहा था | नौकरी हर तरह से सालने वाली साबित हो रही थी , परिस्थितियां बेचैन कर रही थी , और दूसरी तरफ जीवन में किसी नए का आगमन रोमांच पैदा करने वाला खेल खेल रहा था | लेकिन ..हाय ! वह रोमांच भी अधिक समय तक बरकरार नहीं रह पाया , और जैसा कि अक्सर होता है , उसे भी जमाने की नजर लग गयी ......| और फिर .....
तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर विमल चन्द्र पाण्डेय के संस्मरण
ई इलाहाब्बाद है भईया की
तेरहवीं किश्त
21.
मुखातिब ने जितना लोकतान्त्रिक माहौल हम रचनाकारों को दिया था वैसा
मैंने कहीं नहीं देखा था. किसी पाठक या साहित्यप्रेमी के साथ आया उसका दोस्त, जो
कहानी के नाम पर प्रेमचंद और कविता के नाम पर सोहन लाल द्विवेदी का नाम भी न जानता हो, भी अपनी प्रतिक्रिया किसी भी रचनाकार की रचना पर बेबाक होकर दे सकता था.
इस बात से बहुत लोग अपने दोस्तों परिचितों को यह कह कर बुलाने लगे थे कि आओ यहाँ
आने से ज्ञान बढ़ता है, चीज़ों की समझ बढ़ती है और बोलना आ जाता है. जैसे मैंने
अर्बेन्द्र को आमंत्रित करना शुरू कर दिया था और उसने एक बार मुरलीधर की एक कहानी
‘शतरंज’ (बाद में कथादेश में प्रकाशित हुई) के पाठ के बाद बोलते हुए कुछ आपत्तियां
उठाई थीं. कहानी में शतरंज खेलने वाले दो व्यक्तियों के आपसी द्वंद्व का बेहतरीन
चित्रण था. शतरंज एक रूपक की तरह उठता था और ज़िंदगी बन कर कहानी के अर्थ को बेहतरीन तरीके से अभिव्यंजित करता था लेकिन हमारे अर्बेन्द्र को इससे क्या मतलब, आपत्तियां तो
आपत्तियां हैं. उसने अपनी चिरपरिचित शैली में शब्दों को चबा कर अपना ऐतराज दर्ज
कराया जिसमें वह खुद की ही मिमिक्री करता हुआ लगता था, “कहानी तो ठीक है लेकिन ये
दोनों लोग जो शतरंज खेलते हुए मछली खा रहे हैं, वह मुझे ठीक नहीं लगा. एक तो उसी
हाथ से शतरंज खेलना और उसी हाथ से मछली खाने से शतरंज की गोटियां गन्दी हो
जायेंगीं और दूसरे जो मेरी तरह के लोग हैं, जो मांस मछली नहीं खाते, उन्हें ये
वर्णन बुरा लग सकता है.” मुरलीधर भी ये प्रतिक्रिया पाकर स्तब्ध थे. ज़ाहिर है उनका
रचनात्मक मन चाहे जितना रचनात्मक हो, इस पहलू पर तो नहीं ही सोच पाया होगा क्योंकि
वो मछली खाने वाले आदमी थे और कहानी के कथ्य के
बाद बहुत सोचते थे तो शिल्प. इस दृश्य को सम्पूर्णता में खत्म करने के लिए अभी
अर्बेन्द्र की तरफ से एक सुझाव आना बाकी था. उसने कहा कि उसकी राय है कि कहानी
अच्छी बन सकती है अगर मछली की जगह पर खाने के लिए सोनपापड़ी रख दिया जाए. मुरलीधर
को लगा कि कहीं उनकी कहानी ही सोनपापड़ी न बन जाए इसलिए उन्होंने हस्तक्षेप किया और
अपनी इस गलीच हरकत के लिए पाठक अर्बेन्द्र से बाकायदा क्षमा मांगी और अगले श्रोता
के बोलने की बारी आ गयी.
इस लोकतान्त्रिक माहौल का ही असर था, या उसे नशा कहना ज़्यादा बेहतर
होगा कि मैंने भी एक ऐसा काम किया जिसे अवाइड किया जा सकता था. अगले हफ्ते
कहानीकार प्रोफ़ेसर अनीता गोपेश का कहानी पाठ था और मैं उस मुखातिब से अनुपस्थित
रहने वाला था. मैं लगभग हर दूसरे हफ्ते बनारस अपने घर चला जाता था और आराम से चार
पांच दिन रह कर आता था. मुखातिब हर दूसरे रविवार होता था और जिस रविवार मुखातिब
नहीं होता था, मैं घर जाकर कुछ वक्त अपने घर वालों और बनारसी दोस्तों के साथ
बिताना पसंद करता था. 'घर जाकर आराम करता था' , यह इसलिए नहीं कह सकता कि इलाहाबाद
में भी मैं यही काम करता था. इलाहाबाद में मेरा कोई बॉस नहीं था जो मुझसे जवाब
सवाल करता और मैं बनारस से भी इलाहाबाद की ख़बरें फोन से निकाल कर लखनऊ ऑफिस मेल कर
दिया करता था. मैं अपने घर पर इतना अधिक दिखाई देता था कि मेरे मोहल्ले की एक आंटी
जी, जो दूसरों की चिंता में घुलती रहती थीं, ने मोहल्ले में यह बात फैला दी थी कि
मैं इलाहाबाद में कोई नौकरी-फौकरी नहीं करता बल्कि मुझे वहाँ इसलिए भेजा गया है
ताकि मेरी शादी लग जाए. तिलकहरुओं को बताया जाए कि लड़का इलाहाबाद में पत्रकार है
और मोटा दहेज वसूला जाए. उस रविवार मुझे घर पर कुछ काम पड़ गया था और ना चाहते हुए
भी मुझे मुखातिब छोड़ कर जाना पड़ा. हालाँकि जाने से पहले मैंने कहानी की फोटोप्रतियां
सबको बाँट दी थीं और मेहमानों को आमंत्रित भी कर दिया था. कहानी मैंने खुद भी पढ़
ली थी और वह मुझे इतनी खराब लगी कि मैंने एक नोट लिख कर अर्बेन्द्र को दिया कि
कहानी पाठ के बाद मेरी अनुपस्थिति में मेरी प्रतिक्रिया भी पढ़ी जाए.
गोष्ठी में अनीता जी की कहानी सुनने काफी संख्या में लोग आये. कहानी
पाठ के बाद श्रोताओं ने प्रतिक्रिया देनी शुरू की कि ‘पहला प्यार’ शब्द को यह
कहानी पूरी तरह से खोलती हुई एक अच्छा अनुभव देती है. अपनी प्रतिक्रियाओं में
श्रोताओं ने अभिव्यंजना, विडम्बनापूर्ण, सारगर्भित, जीवन से सन्नद्ध, दृष्टि
वैविध्यता और अद्भुत जीवंत आदि शब्दों का प्रयोग किया लेकिन मेरे पत्र का मैटर
कहता था कि कहानी बहुत कच्ची है और बच्चे के प्रति लड़की का जो नज़रिया है वह कहीं
भी खुल कर नहीं आया, लड़की के मन के द्वंद्व को भी लेखिका ठीक से नहीं पकड़ सकी हैं
और सिर्फ़ सतही सपाटबयानी से आगे बढ़ती यह कहानी सरिता और मनोरमा जैसी पत्रिकाओं में
तो छप सकती है मगर किसी साहित्यिक पत्रिका में नहीं.
इस पत्र के पढ़े जाने के बाद अनीता जी काफ़ी नाराज़ हुईं और मुझे बताया
गया कि जब सबकी प्रतिक्रियाओं के बाद लेखिका के बोलने का अवसर आया तो उन्होंने मेरा
नाम लेते हुए नाराज़गी से कहा कि उनकी यह कहानी सरिता मुक्ता जैसी पत्रिकाओं में भी
छापने लायक नहीं है, यह कचरे में फेंक दिए जाने लायक है. मैं उनकी प्रतिक्रिया सुन
कर थोड़ा दुखी भी हुआ कि जब मैं उस दिन अनुपस्थित था तो मुझे ज़बरदस्ती अपनी
प्रतिक्रिया लिख कर भेजने की क्या ज़रूरत थी. अनीता जी अगली कई गोष्ठियों में आयीं
भी नहीं. लेकिन बाद में जब उन्होंने आना शुरू किया तो मैंने पाया कि वह
प्रतिक्रियाएं देते वक्त पहले से बहुत अधिक सजग रहती थीं और एक गोष्ठी के दौरान
मुझे उनका एक वक्तव्य स्पष्ट याद है जिसमें उन्होंने मुस्कराते हुए मेरी ओर देख कर
कहा था, “मैं काफ़ी समय से लिख रही हूँ लेकिन मुखातिब में आने के बाद मुझे पता चला
है कि कहानियाँ लिखना कितना कठिन काम है.” बाद में उनका मुझ पर बहुत स्नेह रहा और
जब मेरे कहानी संग्रह ‘डर’ पर गोष्ठी करवाने की योजना हिमांशु जी और मुरलीधर जी ने
बनाई तो वह गोष्ठी अनीता जी के घर पर ही रखी गयी. उन्होंने मेरी सारी कहानियाँ
बहुत बारीकी से पढ़ी थीं और बाकायदा दो तीन पन्ने के नोट्स के साथ उन्होंने मेरी
कहानियों पर अपनी बेबाक राय दी. मैं सोचता था कि रचनात्मक लोगों को इसके पहले
बनारस या दिल्ली में मैंने इतने खुले दिल का नहीं पाया.
आकाशवाणी से मेरी कई कहानियाँ प्रसारित हो चुकी थीं और मुरलीधर ने एक
शुभचिंतक की तरह मुझे समझाया था कि मैं जब अपनी कहानियाँ रिकॉर्ड करवाने या फिर
मिश्रा जी से मिलने आऊँ तो उनसे कतई न मिलूँ क्योंकि मिश्रा जी की नज़रों में वह
बहुत पापी टाइप के आदमी हैं, उनके साथ मेरे दिखाई देने का सीधा मतलब होगा कि मैं
भी उन्हीं की तरह कम्युनिस्ट यानि विधर्मी हूँ. मैंने इस बात की कोशिश भी की और
आकाशवाणी में जाने के बाद का जो नियम था, यानि मुरलीधर जी के साथ बाहर आकर उनके
पैसों से चाय सिगरेट पीना और समोसे खाना, उसकी कई बार अनदेखी भी की. लेकिन पानी सिर से
ऊपर जाने लगा था और मेरा दम घुटने लगा था. मिश्रा जी एक कहानी के रिकॉर्डिंग से
पहले मुझसे साहित्यिक दुनिया की हलचलों पर चर्चा करते, जो मेरे लिए काले पानी की
सज़ा जैसा होता. उन्होंने मुझसे पूछा, “आपकी कोई कहानी नया ज्ञानोदय में भी आई है
ना ?”
मैंने कहा, “हाँ मिश्रा जी, एक वसुधा में भी आई है.”
“ज्ञानोदय का संपादक कालिया है ना ?”
“जी हाँ.” मैंने कहा.
“आप जानते हैं उसको ?”
“नहीं, व्यक्तिगत रूप से तो नहीं, एक मुलाकात है और दो बार फोन से
बातचीत हुई है.”
“बहुत भ्रष्ट आदमी है भाई.” वह कहते.
मैं पूछूँ या नहीं, वह बताने लगते. इस तरह बातें वह खुद से ही करते थे
लेकिन सामने किसी के बैठे रहने का सुख बहुत सरकारी टाइप का होता है जिसका आनंद
लेना कुर्सी के उस पार बैठा आदमी अच्छे से जानता है.
“अरे...यहीं आता था आकाशवाणी में. उसकी एक सीनियर थी उस पर लगा डोरे
डालने. दफ्तर में इतनी अश्लीलता फैलाई उन लोगों ने कि मैं क्या कहूँ.”
“लेकिन डोरे डालना और डोरे डलवाना तो पारस्परिक क्रिया है, उसमें आखिर
कोई तीसरा क्या कर सकता है.” मैंने बात को खत्म करना चाहा.
“अरे ऐसे कैसे, कोई संस्कार ही नहीं. एक तो शराब बहुत पीता था और फिर
उस लड़की को, जो उसकी सीनियर थी, क्या तो नाम था....हाँ ममता बरनवाल..उसको फंसाने
के कुत्सित प्रयास करने लगा. और आखिर एक दिन कामयाब हो गया, दोनों ने शादी कर ली.”
उनकी घड़ी दशकों पहले उनके हाथ से छूट कर गिरी थी और रुक गई थी. वह उसी
समय में जी रहे थे. उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं था कि जिस लड़की के सरनेम के
बारे में अग्रवाल या बरनवाल उन्हें याद करना पड़ रहा है, उसने इन दशकों में साहित्य
को कैसी-कैसी कालजयी कहानियाँ और उपन्यास दिए हैं और अब उसका सरनेम कालिया हो गया
है. उस लड़की के नाम के साथ उसके सरनेम जैसी चीज़ के अलावा और भी बहुत उपलब्धियां
लगी हैं जिनका मोल वे बेचारे कभी नहीं समझ सकते क्योंकि उनकी नज़र में दुनिया कि हर
लड़की की तरह वो लड़की भी बड़ी मासूम थी जिसके समझदारी भरे फैसले उसके बाप या भाई
द्वारा लिए जाने चाहिए थे लेकिन उसने खुद अपनी ज़िंदगी का फैसला ले लिया और वह आज
तक इस बात का दुख मना रहे हैं, इस बात की भनक भी कालिया दंपत्ति को नहीं होगी.
मैंने वहाँ जाना कम कर दिया था और जो हमारा अंतिम संवाद था उसके बाद
मुझे उनका हिंसक विरोध करते हुए वहाँ से आना चाहिए था लेकिन मैंने खुद को
नियंत्रित करके उनका प्रतिवाद किया और यह समझने के बाद, कि उन्हें ब्रह्मा जैसा कोई
अविष्कार भी उनकी बात से डिगा नहीं सकता, वहाँ से निकल गया . बाहर आकर मुरलीधर जी के साथ चाय पी और दो समोसे खाए. हाँ.. उसके साथ मांग कर दो बार चटनी भी खायी.
हमारी अंतिम मुलाकात में मिश्रा जी अमरकांत से बहुत नाराज़ थे. नाराज़गी
अपने आप में एक पूर्णकालिक यानि फुल टाइम काम है, यह मुझे उनसे ही मिल कर पता चला
था. वह नाराज़ थे कि अमरकांत अपने इलाज के लिए सरकार से मदद मांग रहे हैं.
“उसने जितना लिखा उसके बदले में उसे उतना पैसा और नाम-सम्मान मिला. अब
सरकार क्यों कराये उसका इलाज ?” उनका मासूम सा सवाल था. मैंने समझाने की कोशिश की.
“कहाँ कुछ पैसा मिलता है लिखने का ? रोयल्टी का सिस्टम बहुत सड़ा हुआ
है, हिंदी के लेखक के लिए हालात बहुत खराब हैं मिश्रा जी.”
“अरे पांडे जी, उसने समाज का कौन सा भला किया है कि सरकार उसका इलाज
कराये. उसने लिखा और उसे पैसा मिला. सम्मान भी मिला, अब कह रहा है कि उसका इलाज
करवाने के लिए पैसा दिया जाए नहीं तो वह अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा देगा,
ये क्या बात हुई ?”
“तो समाज का भला करने के लिए उनको क्या कुदाल फावड़े लेकर सड़क पर उतरना
चाहिए. अरे लिखने वाला लिखेगा ही तो, हर आदमी अपने काम को ईमानदारी से करे, यही तो
वह कर सकता है आखिर समाज के लिए...”
तनख्वाह का मारा मैं उनकी ज़्यादातर बातों को एक कमअक्ल की बातें मानकर
अपनी कहानी पास कराने के चक्कर में पड़ा रहता था लेकिन उस दिन मेरे प्रतिवाद सुनकर
वह थोड़े चौकन्ने हुए और आगे की ओर झुकते हुए धीरे से मुझसे पूछा, “पाण्डेय जी,
कहीं आप जनवादी तो नहीं है ?”
जनवादी शब्द उनके लिए एक ऐसी गाली की तरह था जिसकी परिधि में आने वाले
लोगों के लिए उनके मन में कोई जगह नहीं थीं. मैं उठा और मुझे इस बात पर बड़ी शर्म
आई कि मैं पिछले कई महीनों से जब आकाशवाणी आता हूँ तो मुरलीधर की बात मानकर उनसे
बिना मिले चला जाता हूँ कि उनके साथ देख ना लिया जाऊं. मैं उनके केबिन में गया तो
पता चला वो अभी आये नहीं हैं. मैंने उन्हें फोन किया और उन्होंने बताया कि वह निकल
रहे हैं और पन्द्रह मिनट में पहुँच जायेंगे. मैंने वहीँ उनका इंतजार किया. उनसे इस
घटना का ज़िक्र किया और उनके साथ बाहर चाय पीने गया तो वह अपनी चिरपरिचित हँसी के
साथ बोले, “हा हा हा, अगर आप मेरे साथ देख लिए जायेंगे तो आपकी कहानी यहाँ से
प्रसारित नहीं होगी.” मैंने भी हँसने में उनकी मिमिक्री करने की कोशिश की लेकिन
उनकी तरह नहीं हंस पाया. उस तरह हँसने के लिए मुझे मिश्रा जी जैसे लोगों से दूर
रहने की ज़रूरत थी.
हाँ बाद में ये ज़रूर हुआ कि मैंने शेषनाथ को वहाँ अपनी कविताएँ पढ़ने
के लिए भेजा और कहा कि वह मेरा नाम न ले वरना उसे वहाँ काम नहीं मिलेगा. वह वहाँ
करपात्री जी पर लिखी मिश्रा जी की किताब की चर्चा करे और अपनी कविताएँ रेडियो से
प्रसारित किये जाने की इच्छा व्यक्त करे. बाद में उसकी कई कविताएँ आकाशवाणी से
प्रसारित हुईं और जिस दिन उसका पहला चेक कैश हुआ, उस दिन हमने घेर कर उससे पार्टी
भी ली.
२२.
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में मैं कई कार्यक्रमों में
जाकर बहुत खुश और गौरवान्वित हुआ था . एक दिन अखबार में पढ़ा कि वहाँ पत्रकारिता
विभाग (या शायद हिंदी विभाग ही) में महान फ्रेंच फिल्मकार फ्रांकुआ त्रूफो की
फ़िल्में दिखाई जायेंगीं. फिल्म स्क्रीनिंग के बाद फिल्मों पर बातचीत भी थी. ऐसा
मौका कतई छोड़ने लायक नहीं था और हम वहाँ समय से पहले ही पहुँच गए. मैंने विवेक को
त्रूफो के सिनेमा के बारे में कुछ बातें बतायीं और कहा कि उनकी फ़िल्में बड़ी
स्क्रीन पर देखना एक अच्छा अनुभव होगा, हमें चलना चाहिए. कार्यक्रम इलाहाबाद
यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर एम सी चट्टोपाध्याय जी के दिमाग की उपज थी जिसे पूना
फिल्म संस्थान द्वारा किया जा रहा था. श्री चट्टोपाध्याय के बारे में कहा जाता है
कि उनके पास विश्व सिनेमा का वृहद संग्रह है और तिग्मांशु धूलिया को फ़िल्मी कीड़ा
काटने के पीछे चट्टोपाध्याय सर की ही भूमिका थी.
त्रूफो की सबसे क्लासिक मानी जाने वाली फिल्म ४०० ब्लोज तो सबसे पहले
ही दिखाई गयी और जैसा की उम्मीद थी, वहाँ मौजूद सभी लोगों के साथ हिंदी विभाग की
मैडमों और अध्यापकों ने भी फिल्म की तारीफ में कसीदे गढ़े. बच्चे के अभिनय के साथ वक्त की कई समस्याएं उन्हें उसमें नजर आई थीं जिसपर बोलने का मौका वे उसी
तरह नहीं चूके जैसे हिंदी के ज़्यादातर साहित्यकार पब्लिक या माईक में से एक भी मिल
जाने पर ज्ञान बाँटने का मौका नहीं चूकते. उन्हें देख कर कुछ पुरुषों ने भी अद्वितीय, अद्भुत, सनसनीखेज, हैरतअंगेज जैसे मिडिया अपहृत शब्दों का प्रयोग कर
फिल्म की तारीफ की. महिलाओं ने टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में फिल्म के बारे में चर्चा
की.
“आई हैड सीन दिस मूवी इन १९९४. एक्सीलेंट.”
“हाँ मैंने भी देख रखा था. बहुत अच्छी फिल्म थी. वह बच्चा जो है उसकी
एक्टिंग कमाल थी.”
“व्हाट आ क्लास वर्ल्ड सिनेमा हैज...हमारे यहाँ दर्शक इतने मेच्योर ही
नहीं हैं कि वो जीनियस टाइप की चीज़ें बर्दाश्त कर सकें.”
“इसीलिए तो...मैं सिर्फ़ वर्ल्ड सिनेमा ही देखती हूँ...ख़ास तौर पर
फ्रेंच और इटैलियन सिनेमा.”
उस दिन तो सब ठीक ही रहा. समस्या अगले दिन की थी जब ‘टू इंग्लिश
गर्ल्स’ दिखाई जानी थी. उन्हें लगा कल लड़के की कहानी थी, हो सकता है शायद आज दो
लड़कियों की कहानी हो. जब फिल्म शुरू हुई तो भी साइलेंस यानि सन्नाटे की स्थिति
देखने लायक थी. लोग फिल्म देखने में इतने डूबे थे (और जो नहीं डूब पा रहे थे वे
इसलिए डूबे थे कि कोई ये न समझे कि इन्हें फिल्म में मज़ा नहीं आ रहा) कि एक बार
विवेक के वाइब्रेशन मोड पर रखे मोबाइल में मैसेज आ गया तो उसकी बगल में बैठी महिला
ने होंठों पर ऊँगली रखते हुए विवेक को इशारा किया, “श्ह्ह्ह्ह्हश.”
विवेक घबरा गया. एक तो वह पहली बार मेरे दबाव पर फ्रेंच सिनेमा देख
रहा था और दूसरे आसपास ज़्यादातर लड़कियां और महिलाएं ही थीं और उसके अलावा (ऐसा
उसने सोचा) सभी फिल्म का पूरी तरह से आनंद उठाने में लगे थे. उसे लगा कि पूरे कमरे
में वह एकमात्र प्राणी है जिसे फिल्म में मजा नहीं आ रहा और वह विश्वस्तरीय
फिल्मों लायक नहीं है. उसने दुख के मारे अपना मैसेज भी नहीं पढ़ा और फिर से परदे पर
ध्यान लगाने लगा. लेकिन थोड़ी देर में ही दृश्य बदलने लगा. परदे पर जैसे ही
लवमेकिंग यानि हिंदी में कहें तो ‘नग्न प्रेमालाप’ के दृश्य आने शुरू हुए, कमरे
में हलचल भरने लगी. यह शब्द ‘नग्न प्रेमालाप’ मैंने वहीँ कहीं पीछे से पकड़ा जिसे
पीछे से किसी विद्वान ने उछाला था. विवेक ने पलट कर एक बार कहा भी ‘तो आप कपड़े पहन
के प्रेमालाप करते हैं का ? शांत रहिये देखने दीजिए.” लेकिन मामला बहुत संगीन था.
भारतीय संस्कृति के रेशे उड़ाये जा रहे थे और अश्लीलता का खुला प्रदर्शन हो रहा था.
श्लील लोगों, जिन्हें ना तो सिनेमा का ए बी सी डी पता था और ना किसी कला का,
भुनभुनाते हुए बाहर जा रहे थे. पिछले दिन जो महिला दर्शकों की मैच्युरिटी का रोना
रो रही थीं, वह तीसरे-चौथे नंबर पर बुदबुदाती हुई निकलीं. “हाउ वल्गर.” वहाँ मौजूद
ज़्यादातर लोगों के लिए अश्लीलता का मतलब था नग्नता और नग्नता का एक ही अर्थ अश्लीलता.
नग्नता को अश्लीलता का ऐसा प्रतीक बना दिया गया है कि उससे लाखगुना अश्लील चीज़ें
हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में एकदम सहज तरीके से शामिल हो गयी हैं. श्री
चट्टोपाध्याय हैरान थे, उन्हें लग रहा था कि विश्व सिनेमा देखने बैठा हर आदमी
इसमें सिर्फ़ सिनेमा ही खोजेगा लेकिन उन्हें नहीं पता था कि वक्त तब तक बदल गया था
और स्टेटस सिम्बल में ऐसी-ऐसी चीज़ें शामिल हो चुकी थीं जिन्हें वह सोचने लायक भी
नहीं समझते होंगे. जिन लोगों को वहाँ आने की कोई ज़रूरत नहीं थी, वह सिर्फ़ रौब
ज़माने विश्व सिनेमा देखने गए थे और जो दर्शक उसकी क़द्र कर पाते वे शायद इसलिए नहीं
आये थे कि उन्हें किसी ने (खुद त्रूफो भेजते तो ज़्यादा अच्छा रहता) कार्ड भेज कर
नहीं बुलाया. विवेक ने दबी ज़बान में कहा, “अमें, इलाहाबाद के ना एक्को थियेटर वाला
देखाय रहा है और ना तुम्हार एक्को साहित्यकार?” ‘तुम्हार साहित्यकार’ जैसे शब्दों
में छिपी उसकी टोन मैं पहचानता था. उसके कहने का मतलब था कि तुम साहित्यकार इतने
इगोस्टिक होते हो कि कोई नाक रगड़ के न बुलाए तो कहीं जाओगे ही नहीं. तुम लोगों को
अच्छी चीज़ों से नहीं मतलब, बस तुम्हारा भौकाल बना रहना चाहिए. ऐसे इलज़ाम वह मुझ पर
अक्सर लगा दिया करता था और मैं हिंदी के सभी साहित्यकारों की तरफ से बिना फीस जिरह
करता रहता.
उस दिन श्री चट्टोपाध्याय के चेहरे पर हैरानी के उगे वे भाव मैं कभी
नहीं भूल पाया.
विवेक मुझे हिंदी के साहित्यकारों का प्रतिनिधि मान लेता और फालतू के
सवाल पूछता रहता. जैसे,
“हिंदी के राईटरवन के किताब कम काहे बिकत है में?”
“तुम लोग जवन भासा में बतियावत हो ओम्मे लिख्त्यो काहे नाहीं ?”
“औरत देख के तुम लोगन के लार काहे चुए लगत है भाई, मुखातिब में ई हाल
है तो बड़ी गोस्ठीयन में तो तुम साहित्यकार लोग कुत्ता बन जात होबो.”
“साहित्यकारन के सबसे बड़ी खुसी कवनो कहानी कविता उपन्यास नै ना, तुम
लोगन के फ्री के दारू मिल जाए फिर देखौ.”
वह एक आउटसाइडर के तौर पर खूब गंदे गंदे इलज़ाम लगाता और उनके पक्ष में
अकाट्य सबूत पेश करता रहता. मैं साहित्यकार होने के नाते से अवैतनिक जिरह करता और
अन्त में हार मान कर कह बैठता, “तो का करें हम बे ? जान दे दें ? साले हर
साहित्यकार एक्के जइसा नै होत. तुम अमरकांत से मिल्यो कि नै. देख्यो न उनका ? वइसन
भी होत है साहित्यकार.”
प्रकारांतर से उस समय का ज़िक्र करता चलूँ जब मैंने नया नया
लिखना शुरू किया था और पढ़ने-लिखने का जूनून सोते जागते छाया रहता था (उस समय अच्छे
बुरे से अधिक पढ़ने की ही धुन थी). उसी समय मेरी पहली कहानी भी प्रकाशित हुई थी . जिनकी
कहानियाँ पढ़ी हों उन्हें साक्षात् देखने का अनुभव अपने देवताओं के साक्षात् दर्शन
जैसा था. उन दिनों मुझे लेखकों से मिलने का वैसा ही क्रेज रहता था जैसा मुंबई में
हीरो बनने की इच्छा लेकर आये लड़कों को अपने पसंदीदा स्टार्स से मिलने का होता है.
मैं उन दिनों दिल्ली में था और कुछ बड़े लेखकों से मिलने का शुरुआती अनुभव मेरा
इतना कड़वा, खराब और मूर्तिभंजक रहा कि किसी भी बड़े नाम से मिलने का उत्साह जाता
रहा. मेरे दो चार बहुत पसंदीदा लेखकों में एक अमरकांत थे जिनसे मिलने का सपना
बरसों पुराना था और इलाहाबाद जाने के बाद ये सौभाग्य भी मिला. लेकिन अपवादों से
नियम नहीं बनते और मैंने अमरकांत के कद का कोई लेखक (एकाध अपवादों को छोड़कर) उन
जैसा नहीं पाया जिससे एक बार मिलने के बाद दुबारा मिलने की कोई ख़ास वजह बची रहे.
“एकै ठे अमरकांत हैन तुम्हरे पास...बाकी सब लपूझन्ना.” वह फतवा दे
देता. मैं अब गालियों पर उतर आता और कहता कि तुम ऐसे चूतिये हो जो सबको खाली
गरियाते रहना जानते हो.
ऐसे ही एक दिन सुबह-सुबह उठ कर टाइम्स ऑफ इंडिया दरवाज़े से उठाया तो
पहले पन्ने पर ही एंकर स्टोरी थी ‘वेटरन राईटर अमरकांत वांट्स टू सेल हिज साहित्य
एकेडमी अवार्ड’. खबर पीटीआई के हवाले से थी और इलाहाबाद में पीटीआई से खबर जाने का
अर्थ था कि नचिकेता जी ने खबर कवर की है लेकिन फिर मेरा ध्यान डेटलाइन पर गया. खबर
दिल्ली से छापी गयी थी. मैंने तुरंत पीटीआई में अपनी दोस्त बेदिका को फोन लगाया जो
इंटरटेंमेंट देखती थी. उसने बताया कि खबर उसके किसी सहकर्मी ने वहीँ बैठे-बैठे फोन
से निकाली है और उसने मुझे लताड़ा भी की ये यूएनआई और मेरे दोनों के लिए डूब मरने
वाली बात है. मैंने शर्मिंदा होकर फोन रखा और दम साधे लखनऊ ऑफिस से आने वाले फोन
का इंतजार करने लगा जिसमें मुझे धमकी दी जाती कि अगर मैं ऐसे ही महत्वपूर्ण ख़बरें
मिस करता रहा तो मुझे उठा कर किसी ऐसी जगह फेंक दिया जायेगा जहाँ की भाषा भी मैं नहीं जानता होऊंगा. ख़बरें छूटने का मुझे कोई ख़ास अफ़सोस भी नहीं हुआ करता था लेकिन इस
खबर ने अपने कंटेंट के कारण चिंतित भी किया और खबर मिस हो जाने का दुख भी हुआ.
मुझे आश्चर्य हुआ कि आखिर अमरकांत जी ने पिछली मुलाकात में ऐसा कुछ इशारा क्यों
नहीं किया. ये मुझे बाद में समझ में आया कि वह अपनी सब्र की और हमारी यानि हिंदी
साहित्य की बेशर्मी की सीमा का इम्तिहान ले रहे थे.
विवेक कमरे पर आया और यह खबर मैंने उसे पढ़ने को कहा. वह पढते ही
अमरकांत की संततियों खासकर उनके साथ रहने वाले सुपुत्र श्री अरविन्द ‘बिंदु’ को
गरियाने लगा. दरअसल उसे कुछ महीनों पहले की एक मुलाकात याद आ गयी थी जब मैं
अमरकांत जी से मिलने गया था और वहाँ एकाध सज्जन और आ गए थे. अरविन्द जी मेरी
जानकारी के अनुसार किसी एनजीओ के मालिक थे और अपने से बड़े बुजुर्गों के लिए
आश्चर्यजनक तरीके से हिकारत भरे शब्द बड़ी आसानी से उच्चारित किया करते थे. उस मुलाकात
में मार्कण्डेय जी की कुछ बात उठ गयी क्योंकि मार्कण्डेय जी की तबियत काफ़ी खराब थी
और वह अस्पताल में भर्ती थे. मैं एक दिन सत्यकेतु के साथ उनसे मिलने नाजरेथ
अस्पताल भी गया था लेकिन उन्होंने बात नहीं की. हालाँकि इसके बाद वह ठीक हुए और
मैं शेषनाथ के साथ उनके घर जाकर उनसे मिला जो कि एक अलग और यादगार अनुभव रहा था.
मार्कण्डेय जी की बात उठी और वहाँ आये एक सज्जन ने उनकी कहानियों पर
कुछ तल्ख़ सी टिपण्णी की तो मैंने उनकी बात काटते हुए कहा कि मार्कण्डेय की
कहानियों पर ठीक से बात तब तक नहीं हो सकती जब तक उन्हें समग्रता में ना पढ़ा गया
हो. सज्जन ने भी कुछ कहा लेकिन तब तक बिंदु जी भड़क गए और बोले, “मार्कण्डेय ने
ज़िंदगी भर किया क्या है दारू पीने के अलावा?”
अमरकांत जी को बात बुरी लगी और उन्होंने अपने सुपुत्र को इस अशिष्ट
तरीके से एक वरिष्ठ लेखक का नाम न लेने के लिए सिर्फ़ एक दो शब्द ही मनाही में कहे
थे कि उन्हें भी डांट पड़ गयी, “आप चुप रहिये, आपको कुछ नहीं पता.” अमरकांत जी के
चेहरे पर मायूसी छा गयी और मैं वहाँ से उठ कर चला आया. मुझे बिंदु के इस व्यवहार
से बहुत धक्का लगा था और मैं कई दिनों तक सामान्य नहीं हो पाया. विवेक तो आगबबूला
हो गया था और मैं अगर उसे लेकर वहाँ से तुरंत न निकलता तो वह वहाँ कुछ बवाल भी मचा
सकता था. निकलते हुए उसने कहा, “विमल भाई, अइसन लोगन के लड़कन कइसन निकल जातेन. इ
सरवा अभिषेक बच्चन है....” उसने और भी कुछ कहा था जो मैं याद नहीं करना चाहता.
इस घटना के बाद इलाहाबाद निवासी उर्दू के एक वरिष्ठ कथाकार और मेरे
शुभचिंतक ने मुझे बताया कि बिंदु जी ने भी कहानियाँ लिखी हैं और उनकी एक कहानी ‘रुमाल’
बहुप्रशंसित हुई है. मैं चाहूँ तो वह कहानी मुझे दे सकते हैं. मैंने साफ इनकार
किया और कहा कि हो सकता है वह कहानी अच्छी हो लेकिन मुझे कभी अच्छी नहीं लग सकती.
वह हँसे और उन्होंने कहकहों के बीच कहा, “अरे वो क्या अच्छी कहानियाँ लिखेगा. उसकी
एक कहानी का अन्त मैं तुम्हें सुनाऊंगा तो तुम यहीं कॉफी हाउस के सामने ही हँसते-हँसते
गिर पड़ोगे.”
मैं जिज्ञासु हुआ कि ऐसा क्या लिखा उन्होंने अपनी कहानी में. उन्होंने
बताया कि बिंदु जी की एक कहानी का अन्त एक मौत से होता है और मौत के बाद उस किरदार
की लाश जला दी जाती है. अंतिम संस्कार के लिए उन्होंने ‘सुपुर्द-ए-खाक’ का प्रयोग
किया था और कहानी की अंतिम पंक्ति थी, “उनके सुपुर्द-ए-खाक से धुआँ उठ रहा था.”
मैं पहले तो आश्चर्य में रहा लेकिन थोड़ी देर में ही ज़ोरों से हँसने
लगा. वो भी हँसने लगे और हँसते हुए मेरा कंधा थपथपाया जिसका मतलब था, कि जाहिलों की
बातों को दिल से नहीं लगाते. जाहिर है , मैंने लगाया भी नहीं ....
क्रमशः....
प्रत्येक रविवार को नयी किश्त ......
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विमल चन्द्र पाण्डेय
प्लाट न. 130 - 131
मिसिरपुरा , लहरतारा
वाराणसी , उ.प्र. 221002
फोन न. - 09820813904
09451887246
फिल्मो में विशेष रूचि
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वाह भाई, क्या बात है... आनंद आ गया... कालिया प्रसंग तो लाजवाब है...बधाई।
जवाब देंहटाएंyah sansamarn hamare samy ki ek achhi film hai...
जवाब देंहटाएंbehad flow mein likha gaya...
जवाब देंहटाएंPrem alap pe vivek bhaiya ka prash mast tha....bahut sahi ja raha hai
जवाब देंहटाएंkamaal kamaal kamaal !
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