शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

हम बचे रहेंगे ---विमलेश त्रिपाठी


         

        एक उठे हुए हाथ का सपना मरा नहीं है

हिन्दी साहित्य में फैली धारणा के अनुसार कविता ने केन्द्रीयता वाला स्थान खो दिया है। कुछ उत्साही आलोचक तो आगे बढ़कर कविता की प्रासंगिकता पर ही सवाल उठाने लगे हैं। उनके अनुसार कहानी की विधा ने न सिर्फ कविता को हाशिये पर डाल दिया है वरन  उसने केन्द्रीयता भी हासिल कर ली है। सवाल यह उठता है कि साहित्य के बाहर का परिदृश्य यानि कि समाज, आज के समय में साहित्य को किस प्रकार देखता है। और यह भी कि साहित्य के साथ-साथ सारी रचनात्मकता को लेकर उसकी कैसी धारणाएँ हैं। आपको यह जान कर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि उसकी नजर में साहित्य ही नहीं वरन सारी रचनात्मकता ही खारिज और बेमानी है। हमारे दौर में केन्द्रीयता तो नंगई और लफंगई को हासिल है। इसे आप साहित्य की तमाम विधाओं के भीतर और उसके बाहर- कहीं भीलागू कर सकते हैं। आप कहानी को ही लें,जिसे आज केन्द्रीय विधा के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। तमाम बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं को मिला कर भी कहानियों के उतने पाठक जुटा पाना मुश्किल है, जितने अकेले सरस-सलिल या ऐसी ही किसी लुगदी पत्रिकाओं में छपने वाली कहानियों के पाठक हैं। तो क्या इस आधार पर हमारे दौर की गम्भीर साहित्यिक कहानियाँ खारिज हो जाती हैं ? दरअसल ये आलोचक कविता की विधा को खारिज करते समय यह भूल जाते हैं कि यही खारिजी तलवार उनके सिर पर भी लटक रही है। यदि साहित्य के भीतर की विधाएँ आपस में लड़ती रहीं तो एक दिन उसकी ही गर्दन कट जाने का खतरा है। यह सब कहने का यह कतई मतलब नहीं कि कविताओं को आलोचित ही नहीं किया जाय वरन यह कि उन्हें उनकी आत्मा, उनकी संवेदना, उनकी अन्तर्वस्तु और उनके सरोकारों के हिसाब से देखा और परखा जाना चाहिए।जाहिर है कि यह सवाल कविता के साथ-साथ अन्य विधाओं से भी पूछा जाना चाहिए। जिस विधा की रचना के पास माकूल और सटीक उत्तर हो, उन्हें ही कटघरे से बाहर निकलने की इजाजत होनी चाहिए।
                          ऐसे समय में किसी कवि के इस साहस और जज्बे को सलाम करने की इच्छा होती है, जो अपना पहला काव्य संग्रह सार्वजनिक करने की हिम्मत करता है। एक तरफ साहित्य के भीतर की तरेडी नजर और दूसरी ओर उसके बाहर का खारिजी फंदा । इनके बीच में ऐसे साहस के लिए बहुत कम जगह बचती है। विमलेश त्रिपाठी एक ऐसे ही कवि हैं, जिन्होंने अपने पहले काव्य संग्रह हम बचे रहेंगेके माध्यम से इसी कम जगह में खड़े होने की कोशिश की है | विमलेश का यह पहला काव्य संग्रह है, जिसमें लगभग सत्तर कविताएँ हैं। इनमें इस कठिन समय में प्रेम जैसी कोमल संवेदना भी है, कविता लिखने का कारण भी हैं और महानगरीय जीवन की ऊब से निकल कर गाँव को तलाश करता संवेदनशील मन भी है। कवि की नजर व्यवस्था जनित उन विद्रूपताओं पर भी है, जिनसे सम्पूर्ण मनुष्यता ही खतरे में हैं।
                            विमलेश की कविताएँ लोक जीवन की गहराईयों से अपने लिए खुराक जुटाती हैं | ये कवितायेँ शब्दों और भाषा से होती हुई जीवन तक की यात्रा करने वाली कविताये हैं। यहाँ शब्दों की एक बानगी देखना महत्त्वपूर्ण होगा। धरन, सतुआन, चिरकुट, ढील, लगहर, टिनहे, आन्ही-बुनी, हहरकर, छान्ही, गाभिन, चोरिका और ढठियाए जैसे अनेक शब्द कवि के लोक संसार और उससे जुडाव का पता देते हैं। यह जुड़ाव ही है कि विमलेश अपनी पहली ही कविता में इस सपने के साथ मिलते हैं |
            गाँव से चिट्ठी आयी है
            मैं हरनामपुर जाने वाली पहली गाड़ी
            के इन्तजार में
            स्टेशन पर अकेला खड़ा हूँ ।    (सपना)
यहाँ आया शब्द अकेलाबहुत कुछ बयान करता है। शहरी जीवन की तमाम विद्रूपताओं के बावजूद लोग गाँव वापस लौटने से क्यों कतराते हैं। एक कारण तो रोजी-रोटी की गांव में अनुपलब्धता है और दूसरा उस शहरी जीवन का आकर्षण और चकाचौंध वाला चेहरा है | लेकिन एक तीसरा कारण भी है जिसे हमारे दौर के अधिकांश कवि और कथाकार गोल कर जाते हैं। वह है संकीर्णता और जड़ता से बजबजाता गाँव का चेहरा। यह चेहरा इतना भयावह है कि एक बार शहरी जीवन को जी लेने के बाद शायद ही कोई इसका सामना कर पाये। लेकिन दुख की बात यह है कि यही कवि या कथाकार शहरी जीवन से पैदा हुई ऊब को दिखाने के प्रयास में गाँव के भोलेपन का मिथक रचते हैं। या तो इन लोगों को आज के गाँवों की जानकारी ही नहीं या फिर यह जानबूझ कर अपनी कविता और कहानी को बेचने के लिए किया जाता है। लेकिन विमलेश जैसे कुछ लोग भी है जो इस विद्रूप चेहरे को बखूबी पहचानते हैं। वे अपनी अगली ही कविता बूढ़े इन्तजार नहीं करतेमें इस हकीकत का सामना करते दिखते हैं।         
         अपनी हड्डियों में बचे रह गये
         अनुभव के सफेद कैल्शियम से
         खींच देते हैं एक सफेद और खतरनाक लकीर
         जो कोई भी पार करेगा
         बेरहमी से कत्ल कर दिया जायेगा।........
         टिकाये रहते हैं अपनी पारम्परिक बकुलियाँ
         ढहते जा रहे संस्कारों की दालानों को बचाने के लिए ।
                                    (बूढ़े इन्तजार नहीं करते)
ऐसी साफगोई आजकल कविता में कम दिखायी देती है। डॉ० अम्बेडकर ने 1930 के दशक में गाँवों को देख कर यह कहा था कि  ये जड़ता और संकीर्णता के अड्डे हैं। आज के गाँव डॉ० अम्बेडकर की उस टिप्पणी से बाहर नहीं निकल पाये हैं वरन उन्होंने एक खास किस्म की लम्पटई भी अपने साथ जोड़ ली है । इस संग्रह की कविताओं में अपने समय और समाज को ले कर गम्भीर छटपटाहट है। एक बानगी देखिए
              कहाँ जाँऊ किस जमीन पर
              जहाँ बची रहे मेरी कविता में थोड़ी हरियाली
              जहाँ बैठ कर लिख सकूँ
              कि हम सुरक्षित हैं
              कि पृथ्वी पर पर्याप्त अन्न है  
              कि चिन्ता की कोई बात नहीं।      (कहाँ जाऊँ)
इस हरियाली के बचे रहने की कल्पना आज कविताओं में कैसे की जा सकती है, जब वह जीवन और समाज से ही नदारद हो। इसी कविता में वे आगे कहते हैं
              कैसी कविता लिखूँ कैसे छन्द
              कि समय का पपड़ाया चेहरा हो उठे गुलाब
              किसकी गोद में सो जाऊँ
              किस आँचल की ओट में......
              कि मन बोल उठे
              धन्य हे पृथ्वी... धन्यवाद धन्यवाद ।  (कहाँ जाऊँ )
कोई भी संवेदनशील आदमी अपने समय को देख कर आजकल यही सोचता है। दुखद यह है कि ऐसी चिन्ता सामूहिक चेतना में परिवर्तित नहीं हो पा रही है। यही चुनौती आज के साहित्यकार के सामने मुँह बाये खड़ी है। कैसे इस साहित्य का उपयोग किया जाय कि न सिर्फ अपने समाज और समय की सच्चाइयों की शिनाख्त की जा सके  वरन उसे बेहतर तरीके से परिवर्तित करने वाली सामूहिक चेतना का निर्माण भी हो सके ।
किसी भी नये कवि से यह अपेक्षा रहती है कि वह कविता के बारे में क्या राय रखता है और इसको जानने का सबसे अच्छा तरीका उसकी कविताओं का आधार पर ही होना चाहिए | लेकिन एक तरीका यह भी हो सकता है कि स्वयं कवि ही कविताओं के बारे में अपनी राय दे । हमारे समय के लगभग सभी बड़े कवियों ने कविता को सन्दर्भित करते हुए अपनी बात कही हैं। विमलेश भी इस संग्रह में ऐसा प्रयास करते दिखते हैं लेकिन उनका यह प्रयास पूरे मन से किया गया प्रयास नहीं है | उन्होंने कविताशीर्षक से दो और कविता से लम्बी उदासीशीर्षक से एक कविता लिखी है। मसलन ---
            जैसे एकलाल पीली तितली
            बैठ गयी हो  
            कोरे-कागज पर निर्भीक  
            याद दिला गयी हो  
            बचपन के दिन  |          (कविता)
या फिर
           शब्दों के पीछे भागते हुए  
           तुम्हारे आँगन तक पहुँचा था  
           तुम हे कालजयी  
           तुम्हें मुक्त
           होना था  
           मेरे ही हाथों              (कविता)
हालाँकि किसी भी नये कवि से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह मुक्तिबोध, धूमिल या सर्वेश्वर जैसी व्याख्या करे लेकिन उसे कुछ ऐसा तो करना ही चाहिए जो नया और सार्थक हो। किसी नवोदित कवि के रचना संसार को जानने समझने की एक कसौटी यह भी हो सकती है कि वह छोटी, मझोली और लम्बी रचनाओं को किस प्रकार साधता हैं। छोटी रचनाओं में कवि की संवेदना और वैचारिक सघनता देखी जा सकती है। उसे इन कविताओं में न सिर्फ शब्दों की कंजूसी  दिखानी होती है वरन उन थोड़े से शब्दों के माध्यम से बड़े और लम्बे समय तक याद रखे जाने वाले अर्थ पैदा करने होते हैं। हमारे दौर के लगभग सभी महत्त्वपूर्ण कवियों ने इन छोटी कविताओं को साधा है | ज्ञानेन्द्रपति की एक कविता है
                वे जो  
                सर कहाते हैं  
                धड़ भर हैं  
                उनकी शोध छात्राओं से पूछ कर देखो  
इसी तरह वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह की कविता है
              उसका हाथ
              अपने हाथमें लेते हुए मैंने सोचा
              दुनिया को
              हाथ की तरह
              गर्म और सुन्दर होना चाहिए। 
विमलेश के संग्रह में भी कुछ छोटी कविताएँ हैं। यह दुख’, ‘कविता’, ‘यकीन’, ‘इस बसन्त में’, ‘किसान और आजकल माँ। और इनमें से अधिकतर कविताएँ बहुत अच्छी है | मझोली कविताओं की कसौटी पर , जिसमे एक या दो पृष्ठ की कवितायेँ शामिल हैं, विमलेश का रचना संसार काफी समृद्ध दिखता है। बूढ़े इन्तजार नहीं करते’, ‘कविता से लम्बी उदासी, हिचकी’, ‘समय है न पिता’, ‘अकेला आदमी’, रिफ्यूजी कैम्प’ ,दुख एक नहीं’,  ‘गनीमत है अनगराहित भाई’, भरोसे के तन्तु और तुम्हारे मनुष्य बनने तकजैसी कविताएँ इस बात की गवाही देती हैं कि कवि न सिर्फ  सामाजिक विषयों की समझ रखता है वरन उस पर टिप्पणी करने का उसका अन्दाज भी नया है। संग्रह की एक कविता है  कविता से लम्बी उदासी। जिसके अन्त में कवि एक सवाल करता है
           मैं समय कासबसे कम जादुई कवि हूँ  
           क्या आप मुझे क्षमा कर सकेंगे ...?  (कविता से लम्बी उदासी)।
यहाँ जादुई होने से तात्पर्य अपने समय की कविता के उलझाओं को रेखांकित करने से भी है। और यह रेखांकन अनायास नहीं है। आधुनिक कविता के सबसे महत्त्वपूर्ण कवि मुक्तिबोध का सवाल आज भी कायम है। तुम्हारी पालीटिक्स क्या है पार्टनर? दुखद यह है कि हमारे दौर के युवा साहित्यकार न तो यह सवाल पूछते हैं और न ही इसका जबाब देना चाहते हैं , वरन पाठक को ही उलझाये रखते हैं | ‘हिचकीकविता में कवि बेचैन है कि उसे कौन याद कर रहा है ,  जो एक हिचकी रुकने का नाम नहीं लेती।
           कहीं ऐसा तो नहीं कि दु:समय के खिलाफ
           बन रहा हो सुदूर कहीं आदमी के पक्ष में
           कोई एक गुप्त संगठन
           जिसमें एक आदमी की सख्त जरूरत है
अन्यथा कवि यह जानता है कि इस दुनिया में उसे कोई भी क्यों याद करना चाहेगा। अगली कविता में कथ्य और संवेदना का धरातल काफी ऊँचा है।
          अकेला आदमी जब सचमुच अकेला होता है
          तो वह गिन रहा होता है
          पृथ्वी के असंख्य घाव  
         और उसके विरेचन के लिए
         कोई अभूतपूर्व लेप तैयार कर रहा होता है |  (अकेला आदमी)।
इस संग्रह की एक और महत्त्वपूर्ण कविता है रिफ्यूजी कैम्प’ इस कविता में अपनी जड़ों से बेदखल कर दिये गये लोगों को अपने भविष्य के लिए जूझते देखा जा सकता है।
         सब कुछ खोकर भी वे  
         बना लेना चाहते हैं अन्तत:
         उम्मीद के रेत पर
         छूट गये अपनी-अपनी दुनिया के साबुत नक्शे । (रिफ्यूजी कैम्प )
इन पंक्तियों को आप कश्मीर और टिहरी से लेकर नर्मदा के मुहाने तक- कहीं भीलागू कर सकते हैं। सरदार सरोवर बाँध की जद में आ कर डूब रहे एक गाँव हरसूदकी खबर समाचार पत्रों में छपी थी। वहाँ के लोगों ने अपने डूबते हुए घरों से अन्य कीमती सामानों के साथ, उन घरों की चौखट भी निकाली थी। उनका मानना था कि इसी चौखट के भीतर पैर रख कर हम घर में होने की अनुभूति करते हैं और जिसे साथ रखकर हम बेघर होने के एहसास को भुला सकेंगे । विमलेश महानगर की चकाचौंध के पीछे छिपी विद्रूपताओं पर पैनी नजर रखते हैं। इसी महानगर की एक मशहूर मॉडल लगभग विक्षिप्तता की स्थिति में चिल्लाती है        
            मेरे खून में इस शहर की
            मक्कार बदबू रेंग रही है  
           महानगरीय आधुनिकता का सफ़ेद लांछन।                       
                                    (महानगर में एक मॉडल)।
इसे पढ़ते हुए मधुर भण्डारकर की फिल्म फैशन’ की याद आती है। पैसे और चकाचौंध के पीछे भागती जिन्दगी किस तरह औंधे मुँह गिरी मिलती है, इसमें देखा जा सकता है। झूठ और फरेब का एक ऐसा संसार, जो आदमी को एक चमचमाते उत्पाद में बदलता देता है और उसमें थोड़ी सी खरोंच आते ही कूड़े के  ढेर पर फेंक भी देता है। इसी महानगरीय जीवन पर विमलेश की एक और मार्मिक कविता है।
             आदमी बनने इस शहर में आये हम
             अपने पुरखों की हवेली की तरह  
             ढह गये हैं |              (गनीमत है अनगराहित भाई)।
यह कविता महानगरीय जीवन के खोखलेपन को तो दर्शाती ही है, गावों में दरक गये सामन्ती खण्डहरों की भी शिनाख करती है। विमलेश के इस संग्रह में कुछ प्रेम कविताएँ भी हैं। पहली बार’, ‘जब प्रेम’, ‘कठिन समय के प्रेम’, और प्यार करते हुएजैसी कविताओं मे आज की पीढ़ी के फिल्मी प्रेम का प्रति संसार रचा गया है। इन कविताओं का प्रेम, आदमी बनाने वाला प्रेम है। एक ऐसा आदमी जो अपना, अपनी प्रेमिका और इस दुनिया ,तीनों का ख्याल रखता है।
            हर सुबह बीनने लगी है  
            महुए के फूलों की जगह वह
            क्षण के छोटे-छोटे महुवर
            या कि मन के छोटे-छोटे अन्तरीप।’ (पहली बार।)
अन्त में लम्बी कविताओं की कसौटी पर आते हैं, जिनका इस संग्रह में अभाव दिखता है। यह ठीक है कि हर कवि की अपनी सीमा होती है और उसके ऊपर किसी खास तरह की कविताओं को लिखने का दबाव भी नहीं डाला जाना चाहिए, लेकिन लम्बी कविताओं के माध्यम से हम अपने समय की बारीक और समग्रता पूर्वक पड़ताल करने के साथ-साथ कविता की विधा पर उठाये गये दायरे के सवाल का भी उत्तर दे पाते हैं। इसके अलावा हम उस कवि का मूल्यांकन भी कर पाते हैं कि वह लम्बे फलक पर विचारों के प्रवाह को किस कलात्मकता के साथ नियन्त्रित और प्रस्तुत करने की क्षमता रखता है। आधुनिक हिन्दी कविता के सभी पुरोधाओं ने लम्बी कविताओं के माध्यम से इस विधा को समृद्ध किया है। विमलेश के अगले संग्रहों में इन कविताओं की अपेक्षा की जानी चाहिए।
आज के दौर की कविताओं पर एक आरोप सामान्यतया यह लगाया जाता है कि उनमें प्रवाह और जीवन्तता बाधित मिलती है। हमारे समय का थका हुआ पाठक जब इनसे रू-ब-रू होता है तो एक थकी और यथास्थिति वाली मानसिकता का ही निर्माण होता है। विमलेश की कविताएँ इस मोर्चे पर आशा का संचार करती है। उनके पास समृद्ध लोक संसार है और इसे अपनी कविताओं में प्रस्तुत कर सकने की क्षमता भी। वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने एक बार आज की कविता पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि किसी नये संग्रह में एक नये बिम्ब का मिलना भी उसके पढ़े जाने का कारण हो सकता है। विमलेश के इस संग्रह हम बचे रहेंगेमें बिम्बों की इस दुनिया का, भरपूर लुत्फ़ उठाया जा सकता है।
दुनिया के महान साहित्य से गुजरते हुए आप पाते हैं कि वह अपने प्रतिकूल से प्रतिकूल समय में भी जीवन के प्रति आशा की किरण को रेखांकित करना नहीं भूलता। वह हमें सदैव याद दिलाता है कि हम चाहे कितनी भी अँधेरी गुफा के मध्य हो, हमें रोशनी की आशा नहीं छोड़नी चाहिए। विमलेश के इस संग्रह में भी ऐसी कविताएँ देखी जा सकती हैं।
             कई-कई गुजरातों के बाद लोगों के दिलों में
             बाकी बचे रहेंगे
             रिश्तों के सफेद खरगोश |         (भरोसे के तन्तु)
फिर यह बानगी भी कि
              एक उठे हुए हाथ का सपना मरा नहीं है  (यकीन)।
और अन्त में इसी सपने के साथ जुड़ा यह विश्वास भी कि
             सब कुछ होने के बावजूद  
             मरे से मरे समय में भी
             कुछ घट सकने की सम्भावना
             हमारी साँसों के साथ
             ऊपर नीचे होती रहती है।          (सच तो यह है)।
जाहिर है कि एक कवि की यही जिजीविषा उसकी पहचान होती है और अन्तत: इस समाज और उसके भविष्य के सपने के लिए उसकी उपयोगिता भी ।


                                     
                                    रामजी तिवारी 
                                 
                                 

"अनहद" पत्रिका से साभार 


सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

प्रेम की यादें ----ज्ञानेंद्रपति की कविता





      ट्राम में एक याद


चेतना पारीक कैसी हो ?
पहले जैसी हो ?
कुछ-कुछ खुश
कुछ-कुछ उदास
कभी देखती तारे
कभी देखती घास
चेतना पारीक, कैसी दिखती हो ?
अब भी कविता लिखती हो ?

तुम्हे मेरी याद न होगी
लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो
चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो
तुम्हारी कद-काठी की एक
नन्ही-सी, नेक
सामने आ खड़ी है
तुम्हारी याद उमड़ी है

चेतना पारीक, कैसी हो ?
पहले जैसी हो ?
आँखों में अब भी उतरती है किताब की आग ?
नाटक में अब भी लेती हो भाग ?
छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर ?
मुझ-से घुमंतू कवि से होती है टक्कर ?
अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र ?
अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र ?
अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो ?
अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो ?
चेतना पारीक, अब भी तुम नन्हीं सी गेंद-सी उल्लास से भरी हो ?
उतनी ही हरी हो ?

उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफिक जाम है
भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है
ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है
विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है

इस महावन में फिर भी एक गौरैये की जगह खाली है
एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है
महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है
विराट धक-धक में एक धड़कन कम है कोरस में एक कंठ कम है
तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह खाली है
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है

फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ कर देखता हूँ
आदमियों को किताबों को निरखता लेखता हूँ
रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग बिरंगे लोग
रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग
देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है

चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो ?
बोलो, बोलो, पहले जैसी हो   ?

                                -- ज्ञानेन्द्रपति