गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

कविता में कला जरुरी है, लेकिन कंटेंट के बाद ही - संतोष चतुर्वेदी

               

                             संतोष चतुर्वेदी 




               सिताब दियारा ब्लॉग पर आज प्रस्तुत है
     जाने-माने कवि और अनहद पत्रिका के सम्पादक संतोष चतुर्वेदी से
              युवा कवि नित्यानन्द गायेन की बातचीत .






प्रश्न -1. कवि संतोष चतुर्वेदी की रचना प्रक्रिया क्या है?

उत्तर - मैं जब भी अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में सोचता हूँ तो पाता हूँ कि मेरे लिए यह एक लगभग एक अमूर्त सी प्रक्रिया या पद है। अमूर्त इस मायने में कि मेरे लिए यह अनुमान लगाना कठिन है कि कब कोई घटना, या कब कोई बात या फिर कब कोई दृश्य मेरे मन को कुछ इस तरह बेध गया कि उसे रचना में ढालना जरुरी हो गया। होता यह है कि कई एक घटनाएँ ऐसी होती हैं जिसे हम अपने सुदूर अतीत से देखते, महसूस करते आए हैं। फिर हमें लगता है कि यह तो मेरी कविता का एक विषय हो सकता है। लेकिन किसी वजह से इसे कविता के फॉर्म में तत्काल लिख नहीं पाते। लेकिन जब भी संवेदनाएँ इतनी घनीभूत हो जाती हैं कि अब मेरे लिए लिखे बिना काम तो बिल्कुल नहीं चलने वाला और ऐसा लगने लगता है कि जो सोच मेरे मन में थी वह शब्द में ढलने के लिए के लिए यह उपयुक्त समय है, तभी मैं कविता लिखने बैठ पाता हूँ। अगर मैं उस क्षण नहीं लिखता हूँ तो फिर मेरे लिए दूसरा कोई काम करना दुष्कर हो जाता है। एक सोच, एक विचार हमेशा मन-मष्तिष्क को मथता रहता है। ऐसे में मेरे लिए लिखना बहुत जरुरी हो जाता है। यह समय दो बजे रात का हो सकता है। कहीं सफर करते हुए हो सकता है। बाहर जाते हुए हो सकता है। कभी भी सोच कर किसी ख़ास विषय पर मैं कविता नहीं लिख पाता।    


अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में एक बात और। बचपन से ही मेरे आस पास तमाम ऐसी घटनाएँ होतीं, जो मुझे सालती थीं और बेइंतहा परेशान करती थीं। मैं अपने मन की बात किसी से कह नहीं सकता था। अगर अपने बड़ों से कहता भी तो या तो हमें यह कह कर चुप करा दिया जाता कि अभी तुम बच्चे हो, या फिर किसी भी तरह कोई जवाब नहीं मिल पाता था, तो अपनी उस व्यथा को शब्दों में उतारने की कोशिश करता था। इस समय मैंने कविता को ही अपने अधिक निकट महसूस किया। क्योंकि जब से मैंने होश सम्भाला अपने आस-पास तुलसी, कबीर, रहीम और सूर के पद, दोहों और चौपाईयों को सुना। इन्हें सुनते-पढ़ते हुए मुझे लगा कि अपनी वेदना को व्यक्त करने का मेरे लिए यह उपयुक्त माध्यम है और कुछ टूटे-फूटे अन्दाज में बचपन से ही कविताएँ लिखने लगा। धीरे-धीरे कविता मेरी वह संगिनी बन गयी जिससे मैं अपनी बातें किसी भी समय बेहिचक कह सकता था। आज जब मैं एक उम्र का हो चला हूँ, एक कालेज में प्राध्यापन करता हूँ, जिससे कि एक आर्थिक सुरक्षा महसूस करता हूँ, तब भी कई-एक मामलों पर अपने को उतना ही असहाय पाता हूँ। चाहें वह लगातार चौदह सालों से उपवास कर रहीं इरोम शर्मिला हों, चाहें फिलिस्तीन के संघर्षरत लोग। चाहें वह हमारे यहाँ का आम जन हो, जो रहता तो तथाकथित रूप से दुनिया के सबसे बड़े जनतांत्रिक देश में है लेकिन उसके लिए तो स्थितियां पहले की तरह ही कमोबेश पूरी तरह सामन्ती हैं। एक आम आदमी, एक किसान या एक मजदूर जिस तरह जीवन जीता है, उसे देख कर हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इन सारी स्थितियों में कुछ भी कर पाने में मैं खुद को पूरी तरह अक्षम पाता हूँ। मुझे लगता है कि वह तो कविता है जो मुझे बार-बार बचा लेती है अन्यथा मेरी भी गति या तो विदर्भ के किसानों जैसी होती या फिर पागलों की तरह मैं भी कुछ उल-जुलूल बकते हुए सड़कों पर घूम-फिर रहा होता।

तो यह सब जो मेरे आस-पास का परिवेश है, मेरे आस-पास की स्थितियाँ हैं, मेरे आस-पास के लोग हैं, उनका मेरी रचना-प्रक्रिया में परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से एक बड़ा हाथ है। अगर यह सब न होता तो एक शब्द भी लिख पाना शायद मेरे लिए मुमकिन न हुआ होता।
              

प्रश्न -2. आपके लिए ‘लोक’ क्या है? क्या यह लोकधर्मिता से भिन्न है? और क्या ‘लोक’ और ‘जन’ में कोई फर्क है? इन सबके मद्देनजर लोकतंत्र की जनता से इनका क्या साम्य है?

उत्तर – आपके इस प्रश्न के तंतु एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। मेरे लिए अपने आस-पास का जो भी कुछ सामान्य है वही ‘लोक’ है। इसी तरह जो भी विशिष्ट है या अपने को परिष्कृत दिखाने की लगातार कोशिश करता है वह खुद ही लोक के दायरे से अलग हो जाता है। ‘लोक’ शब्द अपने बनाव में ‘लोग’ शब्द से काफी कुछ मिलता-जुलता दीखता है। ‘लोग’ वही हैं, जिन्हें अब तक इतिहासकारों ने अपने लेखन से उपेक्षित किया है। लोक वही है, जो अत्यन्त न्यूनतम स्थितियों में भी अपने लिए, अपने परिवार के लिए जीवन जैसा बड़ा तत्व गढ़ने में लगातार लगा रहता है। यह वही होता है जिसे जीवन में कुछ भी आसानी से हासिल नहीं होता। लोक, जो रेलवे स्टेशन पर टिकट के लिए टिकट खिड़की पर लाइन लगाये घंटों खड़ा रहता है। लोक, जो अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए, एक छोटी सी नौकरी के सपने देखता है और इस सपने को साकार करने के लिए अपने जीवन तक को दाँव पर लगा देता है। लोक वह, जो अपनी मिट्टी में रचा-बसा है और उससे बेदखल न हो पाने के सरंजाम में जुटा हुआ है। लोक वह, जो शहरों में आ कर मजदूरी करता है या फिर रिक्शा खींचता है और परिवार के जुए को अपने कन्धों पर बिना हारे-थके खींचता रहता है।  

वस्तुतः यह जो लोक है, इसकी संकल्पना हमारे जड़ों से या कह लीजिए सुदूर अतीत से जुड़ी हुई है। हमारे सभी धार्मिक ग्रंथों में ‘त्रिलोक’ की संकल्पना मिलती है। इससे शायद ही कोई भारतीय नावाकिफ हो। स्वर्गलोक, मृत्यु लोक और पाताल लोक। ध्यान से देखिए तो आपके बिल्कुल आस-पास ही मिथकीय संकल्पना के ये लोक बिल्कुल सजीव रूप में दिखाई पड़ेंगे। लोक से जुडा हुआ हमारे यहाँ एक और शब्द है लोकना। इस भोजपुरी शब्द का अर्थ है किसी भी गिरती हुई चीज को पकड़ लेना या ग्रहण कर लेना। यानी यहाँ एक सार्वजनीनता है। शारीरिक रूप से एक दूसरे से अलग होते हुए भी मानसिक रूप से गहरा जुड़ाव है। इस तरह मुझे लगता है कि जीवन के लिए जरुरी न्यूनतम साधनों के लिए जो जद्दोजहद करे और उसे पकड़ कर चले, वही ‘लोक’ हुआ।      

रही बात लोकधर्मिता की तो इसका आशय यही है कि जो ‘लोक’ से उपजे। यानी ‘लोक’ के होने से ही लोकधर्मिता है। सामान्य तौर पर कहें तो जो लोग ‘लोक’ के हित की बातें करतें हैं, लोक के दुःख-दर्द को उजागर करते हैं, लोक की परंपरा को अपनी कलाओं के जरिये सामने रखते हैं, वे लोकधर्मी होते हैं। लोकधर्मी कवि, कहानीकार या कलाकार हो सकते हैं। ये ऐसे लोग होते हैं जो अपने जीवन में खुद कभी न कभी लोक रहे होते हैं, या अतीत में किसी न किसी तरह लोक से उनका गहरा जुडाव रहा होता है। और अब उसकी संवेदनाओं को अपनी कलाओं जैसे कविता, कहानी या पेंटिंग के माध्यम से दुनिया के सामने मजबूती से रख रहे होते हैं।

मुझे तो लगता है कि ‘लोक’ और ‘जन’ एक ही हैं। भेद केवल शब्दों का ही है। हमारे पुरातन ग्रन्थ ऋग्वेद में जो ‘जन’ शब्द आया है, उसका अगर गहराई से अध्ययन किया जाय तो स्पष्ट होता है कि यह ‘लोक’ के लिए प्रयुक्त किया गया है। कबीलों को ‘जन’ कहा गया। ‘जन’ का यह गठन मूलतः जातीय तथा पारिवारिक संबंधों पर आधारित था। तो इन जनों के बीच टकराव हुए और इसी क्रम में भारत का पहला बड़ा राजनीतिक युद्ध ‘दाशराज्ञ युद्ध’ हुआ। इसी ‘जन’ से आगे चल कर शब्द बना ‘जनपद’। कई ‘जन’ मिल कर एक ‘जनपद’ का निर्माण करते थे। छठीं सदी में गौतम बुद्ध के समय ‘षोडश महाजनपदों’ का जिक्र मिलता है। ध्यातव्य है कि यह भारत में द्वितीय नगरीकरण का दौर था। ये जनपद छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्यों की तरह थे जिनके बीच सीमाओं को ले कर निरन्तर आपसी संघर्ष होते रहते थे। काशी, कोसल, अंग, मगध जैसे महाजनपद विशिष्ट थे। आगे चल कर इस इस ‘जन’ शब्द से ही ‘जनता’, ‘जनमत’, और ‘जनतन्त्र’ जैसे शब्दों की उत्पत्ति हुई होगी।

एक बात की तरफ आपका ध्यान फिर आकर्षित करूँगा कि कैसे इस ‘जन’ के ही कुछ लोग विशिष्ट यानी शासक बन गए। ऋग्वेद में ही शासक वर्ग के लिये ‘राजन’ शब्द का प्रयोग किया गया है। यह राजन चूंकि ‘जन’ का नेता बन गया था और कुछ मामलों में सुविधाभोगी हो गया था इस लिए यह धीरे-धीरे ‘जन’ से अलग होता गया। उसकी जिम्मेदारी अब इस ‘जन’ की रक्षा करने की थी। तो उसे आम जिम्मेदारियों से मुक्त कर वह विशिष्ट स्थिति प्रदान की गयी जिससे वह अपने दायित्व का निर्वहन बिना किसी दिक्कत के कर सके। मुझे समझ नहीं आता कि किस बिना पर ‘लोक’ को ‘जन’ से अलगाया जा सकता है। आप लोकतन्त्र और जनतंत्र को एक दूसरे से अलग कर सकते हैं क्या?
                 

प्रश्न -3. किन कवियों से आप खुद को प्रभावित पाते हैं और क्यों?

शायद हमारी पीढ़ी वह आखिरी पीढ़ी होगी जिसने अपने जीवन में आम तौर पर जीवन में सार्वजनीनता को जिया और महसूस किया होगा। इसी का असर था कि मैं कई भक्तिकालीन कवियों से बचपन में ही परिचित हो गया। हमारे यहाँ गाँव में एक परम्परा थी। हमारे दरवाजे पर शाम को रोज रामचरितमानस का सस्वर पाठ किया जाता था। मोहल्ले के लोग जुटते और सुनते। हर चौपाई और दोहे के बाद मेरे दादा जी उसका अर्थ बताते और जीवन से जुडी हुई व्याख्या करते। इस तरह जब मैं थोडा सोचने समझने लायक हुआ तो तुलसी को बिल्कुल अपने पास पाया। जब तक मेरे दादा जी जिन्दा रहे, ‘मानस’ के पढने और समझने का यह सिलसिला अटूट रूप से चलता रहा। तुलसी की जीवन पर जो पकड़ थी, जो विनम्रता थी, जो उनके बिम्ब थे वे तब बहुत समझ में तो नहीं आते थे, लेकिन शायद इनका ही वह आकर्षण था, जिससे कविता की तरफ मेरा झुकाव हुआ। फिर प्राथमिक कक्षाओं की हिन्दी की किताबों में अनिवार्य तौर पर कबीर, सूर, तुलसी, रहीम के दोहे और रसखान के सवैये होते। इन सबकी सादगी भरी साफ़-सफ्फाक भाषा मुझे लाजवाब लगती थी। ऐसी भाषा जिसे सुनते ही यह एहसास हो कि सच तो यही है। फिर आधुनिक कवियों में मैं सोहन लाल द्विवेदी, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, सुभद्रा कुमारी चौहान, मैथिलीशरण गुप्त, श्याम नारायण पाण्डेय ‘पार्षद’, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध की कविताओं से परिचित हुआ। इसके बाद जयशंकर प्रसाद और निराला जी जैसे कवियों की कविताओं से परिचित हुआ। पिताजी नंदन, चम्पक, पराग, सुमन सौरभ, बाल भारती जैसी तब की चर्चित बाल पत्रिकाएँ लाकर हमें पढने के लिए दिया करते थे। तो यह एक पृष्ठभूमि थी मेरी कविता की दुनिया से दो-चार होने की।

जहाँ तक प्रभावित होने की बात है, निराला मेरे लिए ऐसे कवि थे, जिन्हें पढ़ कर मेरे भीतर यह विश्वास जगा कि मैं भी कविता लिख सकता हूँ। निराला जी को ही पढ़ कर लगा कि कविता बिना तुकबंदी के भी अपनी भाषा में लिखी जा सकती है। फिर पता चला कि मेरे ही जनपद के एक मशहूर कवि हैं केदार नाथ सिंह। मुझे किसी पत्रिका में उनकी कविताएँ मिल गयीं जिसे मैं पढ़ गया। तो मेरा रचनागत आत्मविश्वास बढ़ा और कविता लेखन की तरफ मुडा। अब मैं अपनी स्नातक की पढाई के सिलसिले में इलाहाबाद आ चुका था जहाँ तब के हिन्दी साहित्य के अनेक महत्वपूर्ण साहित्यकार मार्कंडेय, शेखर जोशी, अमरकान्त, जगदीश गुप्त, लक्ष्मीकांत वर्मा आदि लोग थे। संयोगवश नया कटरा में, जहाँ मैंने कमरा लिया वहीँ पर मेरे ठीक बगल में युवा कवि अनिल कुमार सिंह रहा करते थे। अनिल के संपर्क वाले लोगों धीरेन्द्र नाथ तिवारी और बोधिसत्व से धीरे-धीरे मेरा भी संपर्क होता चला गया। यहीं पर मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार नाथ अग्रवाल जैसे प्रगतिशील कवियों की कविताएँ मुझे पहली बार पढने के लिए मिली। बिल्कुल उसी समय लिखने वाले ख्यात कवियों अरुण कमल, राजेश जोशी, ज्ञानेन्द्रपति और आलोक धन्वा को पढ़ा। इन सब कवियों की अनुभूतियाँ और भाषा जैसे बिल्कुल अपनी सी लगीं। इन सबका मेरे कवि के अवचेतन पर गहरा प्रभाव पड़ा। इसी समय मैं इलाहाबाद शहर के वरिष्ठ कवि हरीश चन्द्र पाण्डे के संपर्क में आया। उनकी विनम्रता के हम कायल थे। वे हमें लगातार लिखने के लिए प्रोत्साहित करते। हमारी किसी भी नयी कविता को बड़े ध्यान से सुनते और उस पर अपनी राय व्यक्त कर हमारी हौंसला-आफजाई करते। तो मेरे कवि मन पर इन सारे कवियों का एक बड़ा असर पड़ा। और आज मैं जो भी हूँ इन सारे कवियों के कविताई के सान्निध्य की वजह से ही हूँ।
             

प्रश्न -4. कविता में कंटेंट महत्वपूर्ण है या सम्पूर्ण कविता का गठन?

मेरे ख्याल से कविता में कंटेंट ही अधिक महत्वपूर्ण होता है और होना भी चाहिए। इस क्रम में कविता का गठन अगर थोड़ा ढीला-ढाला भी होता है तो उसकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। कंटेंट उसे संभाल ले जाता है। लेकिन मान लीजिए कवि अगर कविता के गठन पर ही अधिक जोर दे और उसकी कविता से कंटेंट पूरी तरह नदारद रहे तो वह कविता किसी काम की नहीं होगी बल्कि अर्थहीन साबित होगी। आज जब हमारे सामने चुनौतियाँ अधिक हैं तो हमें कंटेंट पर बल देना ही होगा। कंटेंट को ले कर चलना ही होगा। इसके इतर कविता के गठाव के चक्कर में पड़ने पर हम कलावाद के शिकार हो सकते हैं। कलावाद, जिसमें शाब्दिक चमत्कार तो जरुर होता है लेकिन जिसमें जीवन अंततः धीरे-धीरे कम से कमतर होता चला जाता है।


प्रश्न -5. समकालीन कवि और कविता के बारे में आपकी क्या राय है?

यह हमारे लिए सुखद है कि हिन्दी कविता का परिदृश्य आज भी काफी उम्मीदें जगाने वाला है। समकालीन कवि अपने समय के सन्दर्भों और संकटों से भलीभाँति वाकिफ हैं और जीवन से परिपूर्ण वैविध्यता से भरी हुई कविताएँ लिख रहे हैं। हमारा यह समय जिसमें हम जी रहे हैं कवियों की एक साथ लगभग पांच-छः पीढ़ियाँ सक्रिय हैं। केदार नाथ सिंह, कुंवर नारायण, विजेंद्र, विनोद कुमार शुक्ल, नरेश सक्सेना, राजेश जोशी, अरुण कमल, ज्ञानेन्द्रपति, लीलाधर जगूड़ी, लीलाधर मंडलोई, वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल, स्वप्निल श्रीवास्तव, एकांत श्रीवास्तव, कुमार अम्बुज, हरीश चन्द्र पाण्डे, अनामिका, नीलेश रघुवंशी, केशव तिवारी, महेश पुनेठा से ले कर अनुज लुगुन तक की पीढ़ी से लगभग सभी परिचित हैं।

ऐसा नहीं है कि हमारे इस समय में सब अच्छा ही अच्छा है बल्कि काफी कुछ खराब भी है। समय बड़ी तेजी से बदला है। विकास ने इस सुन्दर सी दुनिया और इसे संचालित करने वाली प्रकृति का बहुत कुछ विनाश भी किया है। रोजी-रोटी के चक्कर में कवियों का अपनी जमीन से विस्थापन भी बढ़ा है। कवि अब बड़ी तेजी से नगरों और महानगरों की तरफ भाग रहे हैं। गाँव, जहाँ वे जन्मे, पले और बढे से स्वाभाविक तौर पर एक मानसिक जुड़ाव होता है। लेकिन गाँव से जब यह अलगाव एक लम्बे समय तक चलता है तब उनकी कविताओं में यह गाँव एक फैशन की तरह आने लगता है। ऐसे में कविता कृत्रिमता की शिकार हो जाती है। कहना न होगा कि आज कवियों के लिए ‘पद’, प्रतिष्ठा और पुरस्कार अहम् हो गए हैं और इसे पाने के लिए वे अपना जमीर तक बेचने के लिए तैयार खड़े रहते हैं। लेकिन यह आज भी एक सच्चाई है कि हम बेहतर कविता तभी लिख पाएँगे जब अपने समय के सरोकारों और जीवन सन्दर्भों से खुद दो-चार होंगे और तब उसे कविता में उकेरने की कोशिश करेंगे। इससे कट कर कर जो भी लेखन किया जाएगा वह छद्म आवरण ओढ़े हुए होगा। स्वाभाविक सी बात है कि ऐसी स्थिति में किया गया लेखन बिल्कुल प्रभावहीन और निष्प्रभ होगा। सौभाग्यवश हमारे बीच ऐसे भी कवि हैं जो किसी भी तरह की चूहादौड़ से बाहर हैं और निरंतर बेहतर लेखन कर रहे हैं। उनके लिए रचना जीवन से जुडी चीज है जिससे वे प्रायः समझौता नहीं करते। यह हम सबके लिए खासकर हिन्दी कविता के लिए आश्वस्तिदायक है।
                      

प्रश्न -6. कवि बड़ा होता है या कविता?


आपका यह सवाल बड़ा पेचीदा है। बड़ा कवि का आशय क्या है? क्या वह, जिसके लिए मानव और मानवता महत्वपूर्ण है और जो उसके लिए ही निरंतर जद्दोजहद करता रहता है। या फिर वह जो येन केन प्रकारेण अपना जीवन जीता है और उसके लिए किसी भी तरह के समझौते करने से गुरेज नहीं करता और कविता गढ़ने के चमत्कार में आजीवन लगा रहता है। तमाम तरकीबों से ऐसा कवि अपने तमाम कविता संग्रह छपवा लेता है और खुद लग कर अपने संग्रहों की समीक्षाएँ भी लिखवा-छपवा लेता है। लेकिन इस तरह का लेखन महज चमत्कारिक और क्षणिक ही साबित होता है।

मेरी समझ से कवि का बड़प्पन ही उसकी कविता को बड़ा बनाती है। इस अर्थ में देखने पर निराला और मुक्तिबोध बड़े कवि दिखाई पड़ते हैं। इसीलिए इन कवियों की कविताएँ भी बड़ी हैं। इसीलिए उनकी कविता हमारे अंतर्मन को एक लम्बे अरसे से गहरे तौर पर प्रभावित करती रही है। गोरख पाण्डेय, धूमिल और पाश जैसे कवियों की कविता आज भी इसीलिए हमें बढ़िया और प्रभावकारी लगती है कि उनके जीवन और सिद्धांत में ऐक्य था। और इसी ऐक्य को वे अपनी कविता में लिखने की कोशिश करते थे। दुर्भाग्यवश आज के हमारे समय के अधिकाँश कवियों के जीवन और लेखन में बड़ा फांक आ गया है। इस फांक की वजह से इस तरह की कविता कमजोर होती है। जिससे कि वह दूर तक और देर तक लोगों के दिलों पर अपना असर नहीं छोड़ पाती। आज सौभाग्यवश हमारे शहर इलाहाबाद में हरीश चन्द्र पांडे जैसे कवि हैं जो किसी भी तरह के प्रचार-प्रसार, आत्म-मुग्धता और विज्ञापन से दूर रहते हुए लगातार बढियां कविताएँ लिख रहे हैं। हम खुशनसीब हैं कि हमें उनका स्नेह हमें प्राप्त है। और भी कई एक कवि मित्र हैं जो अपने लेखन से किसी भी तरह का समझौता न करने के प्रति आज भी कृतसंकल्प हैं। मूल्यों में इतनी गिरावट आ गयी है कि अब कृतसंकल्प होना भी संदेह के घेरे में आ गया है।    

मेरे लिए उस कवि की कविता के कोई मायने नहीं जो अपने जीवन के प्रति ही सच्चाई नहीं बरतता। फरेब और उचाक्कागिरी ही उनका जीवन है। इस तरह के जोड़-तोड़ में लगे हुए कवियों को मैं दूर से ही प्रणाम करता हूँ।     
              

प्रश्न -7. क्या साहित्य से विशेषकर कविता से सामाजिक परिवर्तन संभव है?

सीधे और तात्कालिक तौर पर अगर आप यह प्रभाव देखना चाहेंगे तो आपको नाउम्मीदी ही मिलेगी।   प्रेमचंद ने 1936 में जब रचना को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल कहा था तो इसका एक सीधा सा मतलब था कि साहित्य वही जो समाज को एक दिशा दे सके। आखिर उस साहित्य या उस कविता का भी क्या मतलब जो खुद में ही दिशाहीन हो। तुलसी ने भले ही रामचरितमानस को ‘स्वान्तःसुखाय’ लिखा हो लेकिन उसका फलक इतना बड़ा है कि हम उससे आज भी गहरा आत्मीय जुडाव महसूस करते हैं। कबीर ने धर्म के ढकोसलेपन को जिस साहस के साथ उजागर किया उसने कई पीढ़ियों के मन पर सीधा असर डाला। कुम्भनदास की पंक्ति ‘संतन को कहाँ सीकरी सो काम’ से तो आज भी मुझे प्रेरणा मिलती है। नेपोलियन महान ने एक बार कहा था कि ‘अगर रूसो न हुआ होता तो फ्रांसीसी क्रान्ति नहीं हुई होती।‘ वृहद् परिप्रेक्ष्य में देखिए तो यह होता है साहित्य का समाज पर असर। जो राजनीतिक व्यवस्था को ही बदलने में एक बड़ी भूमिका निभा देता है। 

परिवर्तन या बदलाव वह सतत प्रक्रिया होती है, जो निरंतर चलती रहती है। तात्कालिक तौर पर अगर आप यह प्रभाव देखने की कोशिश करेंगे तो शायद यह न दिखाई पड़े। परिवर्तन देखने के लिए हमें समय और दूरी के एक अंतराल पर खड़ा होना होता है। हर जमाने में इस परिवर्तन को प्रभावित करने वाले कई-कई तत्व एक साथ सक्रिय रहते हैं। साहित्य भी उन अनेक तत्वों में से एक होता है। साहित्य का असर दूरगामी और देरगामी जरुर होता है। लेकिन उसका असर समग्रता में होता है। कोई भी रचना कब आपको झंकृत कर दे और आपका जीवन ही बदल जाए, कहा नहीं जा सकता। वैसे यह एक कड़वा सच है कि कोई भी रचनाकार इस उद्देश्य से कभी नहीं लिखता कि उससे समाज में कोई बड़ा बदलाव आ जाएगा। बड़ी रचनाएँ अपने-आप ही अवसर आने पर प्रभावी स्थिति में आ जाती है और अपना कमाल-धमाल दिखा जाती हैं।
           

प्रश्न -8. नए संचार माध्यम के आने से साहित्यिक परिदृश्य पर क्या फ़र्क पड़ा है?

नए संचार माध्यमों ने हिन्दी साहित्य को और समृद्ध करने में बड़ी भूमिकाएं निभायी हैं। सोशल मीडिया और ब्लाग्स इस दिशा में लगातार बेहतर काम कर रहे हैं। इससे दूर-दराज ही नहीं विदेशों में बैठा हुआ नया से नया रचनाकार भी अपनी रचनाएँ बिना किसी हिचक के सार्वजनिक कर सकता है। यही नहीं इस तरह की रचनाओं पर उसे त्वरित गति से दुनिया भर से प्रतिक्रियाएँ भी मिल जाती हैं। इस तरह उसे अपनी रचना पर तात्कालिक रूप से ‘फीडबैक’ मिल जाता है। इसका एक परिणाम यह हुआ है कि इससे प्रिंट मीडिया पर निर्भरता समाप्त हुई है। अब आज के कवि किसी संपादक की कृपा के मोहताज नहीं हैं। नए रचनाकार अब संपादकों की परवाह भी नहीं करते। इनमें से अधिकाँश फेसबुक पर अपनी कविताएँ प्रकाशित कर देते हैं। अधिकाँश युवा कवियों ने अपने ब्लॉग खोल कर उस पर अपनी कविताएँ प्रकाशित करनी शुरू कर दी हैं। इसी का असर है कि कुछ महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ तो नियमित रूप से अपने अंकों में नेट पर छपी रचनाओं को साभार प्रस्तुत करने लगी हैं।
अब नेट पर कविता कोश और गद्य कोष जैसी समृद्ध साईट्स हैं जिन पर हम बेहिसाब साहित्य पढ़ और प्राप्त कर सकते हैं। इसे पाने में कोई झमेला भी नहीं। बस एक क्लिक कर इन्हें पाया और पढ़ा जा सकता है। तो इस तरह पाठकों को दुकानों पर जा कर किताबें और पत्रिकाएँ खरीदने की जहमत से मुक्ति मिली है। तमाम बढियां पत्रिकाएँ अब अपने वेब संस्करण भी नियमित तौर पर निकालने लगी हैं। इससे दुनिया के किसी भी हिस्से में बैठा पाठक अपनी मर्जी के अनुसार इसे डाउनलोड कर प्राप्त कर सकता है और जब चाहे तब पढ़ सकता है। इस तरह आज के नए संचार माध्यमों ने समूचे साहित्यिक परिदृश्य को ही क्रांतिकारी तरीके से बदल डाला है। इस समय में आप तभी बने रह सकते हैं, जब आप इनसे परिचित हों अन्यथा की स्थिति में आप अपने समय और परिवेश से लगातार कटते चले जाएँगे। सोशल साईट ‘फेसबुक’ पर आज का लगभग हर युवा कवि सक्रिय है। अपने समय की रोजमर्रा की राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय घटनाओं पर लगभग हर कवि अपने विचार खुल कर व्यक्त करता है। इनमें से अधिकाँश कवियों की रचनाएँ आपको किसी न किसी ब्लॉग पर पढने को अवश्य ही नए मिल जाएँगी। इस तरह इन संचार माध्यमों ने कुल मिला कर हमारे समय के साहित्य को समृद्ध ही किया है। अब जब दुनिया ‘पेपरलेस’ युग की तरफ बढ़ रही है ऐसे में इन संचार माध्यमों की भूमिका और अहम हो जाती है।     
           

प्रश्न -9. साहित्य का प्रतिपक्ष क्या है? जब आप लिख रहे होते हैं तो आप 'किसी' के पक्ष में होते हैं या प्रतिपक्ष में?

जब भी हम लिखने के लिए बैठते हैं तो सहज ही एक सवाल मन में कौंधता है कि हम ‘किसके लिए और क्यों?’ लिख रहे हैंऔर जब भी यह सवाल उठता है तो हमें इसका जवाब जरुरी तौर पर तलाशना होता है। इसी क्रम में हर कवि ‘कविता’ के उपर भी कविता लिखता है। जिसमें वह अपने को स्पष्ट करता है। मैं जब भी लिख रहा होता हूँ तो मेरे जेहन में पंक्ति में सबसे पीछे खड़ा वह वह आम आदमी जेहन में होता है जो अपने जीने तक के लिए लगातार कठिन संघर्ष कर रहा होता है। मेरे मन में हमेशा वह जन होता है जिसके नाम पर यह जनतंत्र सक्रिय है लेकिन जब भी जन अपने को इसमें खोजता है अपने आपको कहीं भी नहीं पाता। लगातार प्रभावी होता हुआ बाजार भी मुझे बराबर कचोटता है। जिसमें हम अपने को ठगा हुआ पाते हैं। इधर साम्राज्यवाद ने अपनी जड़ें लगातार मजबूत की हैं। अमरीका जैसे शक्तिशाली देश की मनमानी निरन्तर बढ़ी है। फ़ासीवादी शक्तियाँ निरंतर मजबूत हुई हैं। कट्टरतावाद अपना फन हर जगह लगातार फैला रहा है। आतंकवाद एक बड़ी समस्या के रूप में वैश्विक रूप से उभर कर सामने आया है। इन सबका शिकार सबसे निचले पायदान पर बैठा आम आदमी ही होता है। प्रतिरोध की संस्कृति को इन तत्वों ने एक साजिश के तहत समाप्त करने की कोशिश की है। अब क्या कहिएगा जब ‘विकास’ जैसे शब्द को इस तरह इस्तेमाल किया गया है कि उसका मायने ही हास्यास्पद बन कर रह गया है।

इन विकट परिस्थितियों में हम आज अपने को अनेकानेक प्रतिपक्षों से घिरा हुआ पाते हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से जब भी लिखने बैठता हूं तो ये सब मेरे जेहन में होते हैं। और जब चीजें आपके सामने स्पष्ट हों तो फिर आप आसानी से अपने पक्ष और प्रतिपक्ष की पहचान कर सकते हैं। मुक्तिबोध के ही शब्दों में कहें तो आपको अपनी पालिटिक्स तो तय करनी ही होगी। इसके बिना काम बिल्कुल ही नहीं चलने वाला। एक ही समय आप गाल फुलाने और ठठाने जैसा चमत्कार नहीं कर सकते। आप चाहें जितना भी छुपाने की कोशिश करें, आपकी रचना में आपकी सोच और आपके विचार आ ही जाते हैं जिन्हें प्रत्यक्ष या फिर परोक्ष रुप से लक्षित किया जा सकता है।
                 
प्रश्न -10. साहित्य का समाजशास्त्र बदल रहा है, इस बदलते परिदृश्य पर आपकी राय क्या है?

इसमें कोई दो राय नहीं कि समय बदलने के साथ-साथ साहित्य का समाजशास्त्र भी लगातार बदला है। साहित्य अब महज मनोरंजन की चीज न हो कर गंभीर विमर्श का माध्यम बन गया है। मीडिया ने जब से सत्ता की चापलूसी चालू कर दी है तब से साहित्य के कन्धों पर और अधिक जिम्मेदारियां आ पड़ी हैं। ऐसे में साहित्य का समाजशास्त्र भी लगातार बदला है। इसके प्रतिमान बदले हैं। हाशिये पर रहने वाले लोगों की बातें साहित्य में अब प्रमुखता से की जाने लगी हैं। दलित, वंचित, पिछड़े, आदिवासियों और महिलाओं का वह तबका जिसकी हिस्सेदारी साहित्य में पहले बहुत कम थी या न के बराबर थी, निरंतर ही बढ़ी है। अब ये लोग मुखर हो कर अपने वर्ग की दिक्कतों और परेशानियों को अपनी रचनाओं में लिख रहे हैं। चूकि अपने तबके के साथ सीधे तौर पर इनका जुडाव होता है इसलिए इनकी रचनाओं में वह जीवनानुभव संघनित हो कर आता है और स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। इससे रचनाओं में यथार्थ के अंकन की प्रवृति बढ़ी है। यह साहित्य के लिए सुखद स्थिति है। इससे हमारे समय के साहित्य का दायरा और व्यापक हुआ है। ऐसे विषयों, समस्याओं, परिवेशों और परिदृश्यों से अक्सर ही हमारा सामना होता है, जिसके बारे में हमें कुछ भी पता नहीं रहता है। जो साहित्य अपने समाजशास्त्रीय दायरे को लगातार बढ़ाता है वह उतना ही दीर्घजीवी साबित होता है। जो अपने को एक खोल में सीमित करने का प्रयास करता है, वह एक समय के बाद खुद ही सिमटने लगता है। साहित्य इसी मायने में पुनर्नवा होता है कि वह समय के साथ कदम से कदम मिला कर चलने का माद्दा रखता है और उसे अपने में रेखांकित करने का प्रयास करता है। यही साहित्य की विशिष्टता भी है और और लोगों में लोकप्रिय होने का कारण भी। इसीलिए साहित्य को अपने झूठे पड़ने का डर नहीं होता। अन्य विषयों से बिल्कुल अलग वह इसकी कभी परवाह भी नहीं करता। वह तो अपने समय के झूठ को भी सच बनाने की कोशिशों में लगातार जुटा रहता है। इसीलिए वह समानता की बात कहने से नहीं हिचकता। इसीलिए वह अत्यंत साहस से साम्प्रदायिक और फासीवादी तत्वों के विरोध में उठ खड़ा होता है और प्रतिरोध जताता है। जरुरत पड़ने पर यही साहित्य अपने बूते पर अपने समय के अपराजित से लगने-दिखने वाले शासकों की भी बखिया उधेड़ने का दम-खम रखता है और यही दम-ख़म उसे औरों से बिल्कुल अलहदा और अनूठा बनाता है। 



                                                     ( साहित्यिक पत्रिका 'कविता प्रसंग' से साभार )


साक्षात्कार-कर्ता

नित्यानंद गायेन

युवा कवि और प्रखर समीक्षक 

आजकल दिल्ली में रहते हैं  


  














                       

बुधवार, 15 अप्रैल 2015

मैं, उस नगर की की कविता - संस्मरण - पद्मनाभ गौतम


        


                         प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर पद्मनाथ गौतम के संस्मरण
            

                                                      मैं, उस नगर की कविता


                                                             की पहली क़िस्त


यह समय कब का है, इसका संकेत सन-संवत् से करने की जगह उन स्मृति-शेष बातों से कर रहा हूँ, जिनका नहीं होना ही अब हमारे लिए युग-परिवर्तन का संकेत बन चुका है। उस हिसाब से यह दौर तब का है जब दूरदर्शन ने अभी हमारे छोटे से कस्बे में दस्तक भी नहीं दी थी तथा आकाशवाणी से प्रसारण प्रारंभ होने की सूचना देने वाली मायावी धुन का जादू सर चढ़कर बोलता था। अब तक अमीन सयानी का बिनाका गीतमाला, सिबाका गीतमाला में नहीं बदला था तथा बी.बी.सी. लंदन की खबरें गंगा उठा कर बोले सच का पर्याय होती थीं । तब का समय जब हरक्यूलिस सायकल, मरफी मुन्ना रेडियो और एच.एम.टी.-सोना घड़ी की तिकड़ी से शादियों का दहेज बनता था तथा शादी के बाद दूल्हे की जगह समधी साहब को यह सुख पहले प्राप्त होता कि वे साप्ताहिक बाज़ार के दिन कलाई में घड़ी बाँधकर, कंधे पर रेडियो लटकाए हुए शान से सायकल पर बाज़ार करने निकलें। रसोईघरों में गैस-स्टोव की घुसपैठ नहीं हुई थी तथा मिट्टी के चूल्हे से उतरी धुँआई चाय से सुबह हुआ करती थी । यात्री-परिवहन के कारोबार में राज्यपरिवहन निगम की बादशाहत थी, जिसके टीन-कनस्तरों की दादागिरी के आगे सभी नतमस्तक थे। सड़कों के किनारे बैठे धैर्यवान यात्री पन्द्रह-बीस किलोमीटर की यात्रा करने के लिए भी घण्टो तक बिना शिकायत  प्रतीक्षा कर लेते थे तथा बसों के दसियों बार बैठ-बैठ कर उठ खड़े होने वाले इंजनों की गर्जना सुनकर पाँच-सात किलोमीटर दूर से ही उनके आगमन की बिल्कुल सटीक भविष्यवाणी की जा सकती थी। यह वही समय था जब सारे देश में साहित्यिक आंदोलन भी जोर पकड़ रहा था। बाबा नागार्जुन उस बाघिन के ऊपर निडर होकर कविता लिख रहे थे जो पंजे काढ़े किसी का भी मानमर्दन करने को उद्यत थी। प्रायः उसी काल में हमारे बैकुण्ठपुर में भी समकालीन साहित्य का छोटा सा उपक्रम प्रारंभ हुआ। बैकुण्ठपुर अर्थात् मेरा गृहनगर, छत्तीसगढ़ के उत्तरी छोर पर अम्बिकापुर-मनेंद्रगढ़ मार्ग पर स्थित कोरिया जिले का मुख्यालय, जो इस जिले के अस्तित्व में आने से पहले अविभाजित सरगुजा जिले की एक उपेक्षित सी तहसील था और तब जिसकी जनसंख्या पाँच हजार से भी कम रही होगी। इस मार्ग पर मील के पत्थर भी तब पीले नहीं अपितु हरे हुआ करते थे अर्थात् तब यह मनेंद्रगढ़ से प्रारंभ होकर अम्बिकापुर में समाप्त हो जाने वाला उबड़-खाबड़ इकहरा प्रादेशिक मार्ग ही था व आज के दोहरी देह वाले आरामदेह गुमला-कटनी राष्ट्रीय राजमार्ग मार्ग में तब्दील नहीं हुआ था।

          
जब आपातकाल और उसके उत्तरयुग में देशभर में साहित्यिक आंदोलन की लहर आई तो उस लहर से छिटक कर कुछ बूंदें इस नगर तक भी पहुँची और उन्हें अपनी हथेलियों में सहेजा कवि जीतेंद्र सिंह सोढ़ी, कुरील जी, नेसार नाज़, जगदीश पाठक, रूद्र प्रसादरूपइत्यादि नवयुवकों ने। इनमें से अधिकांश युवक नौकरीपेशा थे व बैकुण्ठपुर तथा इसके आस-पास के स्थानों में सरकारी दफ्तरों में कार्यरत थे। कोई तब की सरकारी कोयला कम्पनी एन.सी.डी.सी. में काम करता था, तो कोई बैंक या किसी अन्य सरकारी नौकरी में। कुछ छोटे-मंझोले व्यापारी, पत्रकार और कुछ पढ़े-लिखे बेकार युवक भी इस जमात में शामिल हो गए। एक वाक्य में मूल रूप से निम्न-मध्यम वर्ग के वे लोग जिनके जीवन का उद्देश्य परिवार के लिए रोटी कमाना व भविष्य के लिए थोड़ी सी आर्थिक सुरक्षा इकट्ठा करना भर था। इस नगर के मध्यवर्ग की दूसरी दुनिया के लोग।
        

दरअसल हर छोटे नगर के मध्यवर्ग में दो समानांतर संसार होते हैं। ठीक हैरी पॅाटर के उपन्यासों के उस सहअस्तित्व वाले काल्पनिक संसार की तरह जिसमें जादूगर और मगलू (जादू नहीं जाने वाले लोग) लंदन शहर में एक साथ रहते रहते हुए भी एक-दूसरे को जानते तक नहीं। कई बार तो लंदन के इन जादूगरों की अदृश्य गलियाँ मगलुओं के घरों के बीच से होकर गुजरती हैं। हमारे बैकुण्ठपुर के मध्यवर्ग में भी ऐसे ही दो संसार हुआ करते । एक तो वह जिसमें रहने वालों का एक-एक घड़ी-पल दुकानों पर बैठ कर कपड़े काटने, किराना तौलने, चिरौंजी-महुए की खरीद कर गोदामों में भरने, सरकारी विभागों के ठेके जुगाड़ने, राशन के कोटे हथियाने व छुटभइया नेतागिरी आदि जैसे वे सभी काम करने में समर्पित होता, जिन्हें एक वाक्य में नोटों की खेती कह सकते है। इसके अतिरिक्त इनको कुछ भी नहीं आता। दूसरी दुनिया होती छोटे दुकानदारों, कर्मचारियों, पत्रकारों आदि की, जिनकी धनलिप्सा सीमित होती है व मूल-भूत आवश्यकताओं की पूर्ति के अतिरिक्त थोड़ा-बहुत धन गाढ़े दिनों के लिए बचा ले जाएँ, यही इनके जीवन का लक्ष्य होता है। जहाँ पहले वर्ग के मध्यवर्गीय इंटर तक पढ़कर भी संतोष कर लेते हैं, क्योंकि इतना पढ़ लेना भी इनकी कारगुजारियों का हिसाब-किताब रखने के लिए पर्याप्त होता है, वहीं दूसरी तरह के मध्यवर्गीय नगर के दायरे में मौजूद शिक्षा संस्थानों में उपलब्ध पाठ्यक्रमों को प्रायः औसत के आस-पास अंक अर्जित करते हुए पूरा कर लेते हैं। इनमें से कुछ को तृतीय-चतुर्थ वर्ग की सरकारी नौकरी मिल जाती है, तो कुछ पत्रकार, बीमा-एजेंट आदि बन जाते हैं। कुछ छोटा-मोटा काम-धंधा खोल लेते हैं, क्योंकि बड़े व्यवसाय के लिए न तो इनके पास पूँजी ही होती है और न ही उसके लिए अनिवार्य छल-छिद्र का ज्ञान। दोनों ही वर्गों के लोग साथ-साथ भी रहते हैं और एक-दूसरे को निस्पृह भाव से देखते हुए अलग-अलग भी। यद्यपि सिवल सेवक बाबुओं और राजदण्डी अधिकारियों का एक मध्य वर्ग और भी है, किंतु यह सामान्यतः दर्प मिश्रित उच्चताबोध से पीडि़त वर्ग अपने-आपको दोनो समूहों से ऊपर मानता है। वह वर्ग जो सिविल लाईंस नामक स्वर्ग की सरहद में विचरण करके अपने आपको देवता समझ बैठता है, और उनकी लिपिस्टिक-पाउडर पोते पत्नियाँ अपने आप को अप्सराएँ। चूँकि अपने ही लोगों से कट कर बने इस अधिकार संपन्न समूह के समक्ष नतमस्तक होना अन्य दोनों उपवर्गों की अनिवार्य विवशता है, इस कारण आर्थिक रूप से मध्यवर्ग में होकर भी यह वर्ग उच्च हो जाता है।  
         

मुद्दे पर आएं तो इस दूसरे दर्जे के मध्यवर्गीय नौजवानों के समूह ने इस नगर में समकालीन लेखन की कवायद शुरू की। चूँकि नगर का एकमात्र सरकारी ठिकाना- ’रामानुज क्लबसरकारी अफसरों के रसरंजन के लिए ही प्रयोग में आता था, अतः उठने-बैठने के लिए एक अदद स्थान तलाशते आखिरकार इन्होंने ककउआ होटल को अपना ठिकाना बनाया। इसका नाम ककउआ होटल कैसे पड़ा यह चिंतन का विषय है, परंतु जैसा कि इसके नाम से ही अनुमान हो जाता है, यह कोई नामी-गिरामी प्रतिष्ठान न होकर एक छोटी सी चाय-पकौड़ों की दुकान भर थी, जिसमें मुहूर्त होने पर कभी-कभी बर्फी और पेड़े भी मिल जाते। इस के बगल के थोड़े से हिस्से में एक पान का ठेला लगाकर पान-सिगरेट बेचने का भी जुगाड़ था। यह पान का ठेला भीतर से एक छोटे से दरवाजे के माध्यम से होटल से जुड़ा हुआ था तथा होटल का अभिन्न अंग था। यह विस्मय हो सकता है कि आखिर ठेला कैसे किसी दुकान का अभिन्न अंग हो सकता है? दरअसल, बैकुण्ठपुर में पान की दुकान को सदा से पान-ठेला ही कहा जाता रहा है, बावजूद इसके कि हर पान की दुकान लकड़ी के चार खम्भों पर स्थाई रूप से खड़ी होती है और ठेली तो कतई नहीं सकती। एक अंग्रेज लेखक ने भारत के बारे में अपने अनुभवों में विशेषरूप से आश्चर्यबोध के साथ लिखा था कि यहाँ कतार में सबसे किनारे की दुकान पान-सेण्टर हो सकती है और कतार के ठीक बीच की दुकान पान- कॅार्नर। काश कि वे एक बार बैकुण्ठपुर से भी गुजर जाते, तब शायद वे हमारे नितांत जड़, स्थाई संपदा के रूप में गिने जाने वाले पान के 'ठेले' को भी विश्वप्रसिद्ध कर देते।  
        

बहरहाल, इसके स्थापत्य-शिल्प का विषय बदल कर बात करें तो उस जमाने में नगर के पुराने बस स्टैंड की इस छोटी सी दुकान के एक हिस्से में अमल-सुट्टे के शौकीन इकट्ठे होते तथा दूसरी ओर सबके लिए खुले हिस्से में समकालीन साहित्य से जुड़े रचनाकारों की बैठकें जमतीं। तब ककउआ होटल बैकुण्ठपुर के साहित्यकारों के लिये वही महत्व रखता था जो बड़े शहरों के साहित्यकारों के लिए इंडियन कॅाफी हाउस का हुआ करता। शाम को अपने-अपने काम-धन्धों से निवृत्त साहित्यकार यहाँ इकट्ठे होकर कविता-कहानियों की छान-फटक करते। धुएँ के छल्लों के बीचएक और कट चायके बार-बार दिये जाते आदेशों के साथ देर शाम तक यहाँ साहित्यकारों का जमावड़ा लगता। साहित्यकारों के बीच नोंक-झोंक भी होती। विशेषकर नेसार नाज़ और जगदीश पाठक के बीच की चुहलबाजी लोगों को आज भी याद है। यदि इनमें से एक वागर्थ में छपी रचना पर इतराता तो दूसरा भीष्म साहनी की पत्रिका में छपने की शर्त लगाकर जीत जाता। फिर शर्त की रकम से चाय-पकौड़े की पार्टी होती। वैसे भी उस समय की आर्थिक परिस्थितियों में कवि-कोविद अधिक बड़ा शौक कर भी नहीं सकते थे, बशर्त कि वो अपना घर न फूंक दें। समय के साथ इस कश्ती में टेकचन्द नागवानी (अब स्वर्गवासी), सेन जी आदि भी सवार हुए। टेकचन्द भी जगदीश पाठक की चुहलबाजी का अभिन्न अंग थे। नितांत गंभीर मुखमुद्रा वाले टेकचन्द कभी बुरा नहीं मानते तथा पाठक जी के छेडने पर हौले-हौले सर हिलाते हुए मुस्कान बिखेरा करते। ये कहानी उस समय की है, जब मैं अभी छोटा ही था और यह सारा साहित्य-पुराण सुनता-गुनता रहता था।    
       

इसी अंतराल में नेसार नाज़ का एक उपन्यास प्रकाशित हुआ जो काफी चर्चित हुआ। यह और बात कि आज भले ही यह उनके लड़कपन की प्रेमकथा का गुलशन नंदा की श्रेणी का लुगदी-उपन्यास महसूस होता है, किंतु हमारी स्मृति में तो यह बैकुण्ठपुर के साहित्य के पहले महत्वपूर्ण कदम के रूप में ही सुरक्षित रहा आया। इसी समय कुरीलजी के साहचर्य में जीतेंद्र सिंह सोढ़ी जी ने भी नई कविता लिखना प्रारंभ किया, जिन्होने बाद में सरगुजा और कोरिया के प्रगतिशील कवियों के बीच निस्संदेह अपनी एक अलग ही पहचान बनाई। उनके हृदय में कम्युनिष्ट सोच का बीज भी इसी दौरान अंकुरित हुआ, और वह ऐसा अंकुरित हुआ कि कालांतर में सोढ़ी जी कोयलांचल में साम्यवाद तथा उससे जुड़ी संस्थाओं का प्रतीक बन गए। शनैः-शनैः ये लोग विभिन्न कारणों से एक-दूसरे से दूर होते गए। कुछ स्थानांतरण की वजह से, कुछ पत्नियों के प्रकोप से, कुछ रोजी-रोटी के बोझ तले दबकर तो कुछ साहित्य से समय-समय पर होने वाली विरक्ति के कारण भी। नगर के साहित्य ने यदि इस बीच कुछ सबसे अधिक खोया, तो वह थी नेसार नाज़ की रचनात्मकता। नेसार नाज़ की प्रभावशाली कविता-कहानियाँ अब अतीत का विषय थीं जिसकी पीड़ा सारे नगर को थी। मोतियों जैसी लिखाई जो नेसार नाज की पहचान थी, अब वह केवल निमंत्रण पत्रों पर नाम लिखने तथा अदालती दस्तावेज बनाने के काम आ रही थी।न जाने किसकी नज़र लग गई नेसार को' - इस दुःख-बोधक वाक्य के साथ आज भी पूरा नगर इस बात की गवाही देता है और अफसोस करता है।  
         

इस समय तक बैकुण्ठपुर में श्वेत-श्याम टेलीविजन सेटों के माध्यम से दूरदर्शन अपनी दस्तक दे चुका था। आकाशवाणी के अम्बिकापुर प्रसारण केन्द्र से रेडियो प्रसारण प्रारंभ होने की सूचना देने वाली जादुई धुन की गूँज कम हो रही थी और अब लोग प्रतीक्षा करते थे टेलीविज़न के पर्दे पर एक वृत्त के चारों ओर घूमती हुई उन धूमकेतुनुमा आकृतियों का जो प्रसारण प्रारंभ होने की सूचना देती थीं। प्रसारण नहीं हो रहा हो तो भी लोग श्वेत-श्याम टेलिविजन सेट पर फुदकती साबूदानेनुमा बिंदियां देख कर ही प्रफुल्लित हो जाते। हाँ, लेकिन अभी भी बैकुण्ठपुर रोड रेलवे-स्टेशन से होकर गुजरने वाली रेलगाडि़याँ गाढ़ा-सोंधा धुआँ छोड़ने वाले स्टीम इंजनों द्वारा ही खींची जा रहीं थीं तथा इस नितांत पिछड़े आदिवासी कोयलांचल में यात्री गाडि़यों के लिए डीजल इंजनों के आगमन का मार्ग अभी प्रशस्त नहीं हुआ था। यह वही समय था जब राज्य परिवहन निगम ने अम्बिकापुर से मनेंद्रगढ़ के बीचमहाकाली-एक्सप्रेसनाम की बस चलाई थी, जो इन नगरों के बीच की दूरी कोरिकॅार्ड समयमें तय करती व रास्ते में केवल बैकुण्ठपुर में रुका करती। नगर में 'महाकाली एक्सप्रेस' की समय की पाबंदी की प्रशंसा उस युग में ठीक वैसे  की जाती थी, जिस तरह से आज के दौर में राजधानी रेलगाडि़यों की।     
         

इसी कालखंड में एक लंबे अंतराल के बाद जगदीश पाठक, जो कि भारतीय स्टेट बैंक में कर्मचारी थे, पुनः बैकुण्ठपुर स्थानांतरित हुए। तब उन्होंने पाठक-मंच के माध्यम से नगर की साहित्यिक गतिविधियों को दोबारा एक नई दिशा दी। इसमें कोई दो-मत नहीं कि बैकुण्ठपुर में साहित्यिक गतिविधियों के पीछे जगदीश पाठक की प्रेरणा सदैव ही महत्वपूर्ण रही। पाठकजी एक व्यक्ति के रूप में भी और हास्य-व्यंग्य के रचनाकार के रूप में भी नगरवासियों को अत्यंत प्रिय थे। लेकिन इस दौर में गतिविधियों का केंद्र ककउआ होटल से हटकर कवि अजय नितांत की पान की दुकान और कचहरी पारा में पाठकजी के निवास के इर्द-गिर्द केंद्रित हो गया था। इस समय भोला प्रसाद मिश्र, विजय त्रिवेदी, अजयनितांत’, बशीर अश्क़, शैलेन्द्र श्रीवास्तव, यादवेंद्र मिश्रा, मेराज अली, राम सिंह राजपूत इत्यादि कवि सक्रिय रूप से साहित्य से जुड़े थे। कुछ कवि एक ओर जहाँ अपनी प्रतिभा के लिये जाने जाते तो दूसरी ओर कुछ कविता के साथ-साथ दूसरी हरकतों के लिये भी चर्चित थे। बाद में इसमें अली अहमद फैज़ी, रशीद नोमानी, शजात अली इत्यादि भी शामिल हुए। तब मैं गोष्ठियों में जाकर इन सब की कविताएँ सुना करता था।
        

इनमें से एक कवि जो अविभाजित मध्यप्रदेश के देवास के रहने वाले थे तथा बैकुण्ठपुर में नौकरी करते थे, मनोरंजन का विशेष केन्द्र थे। ओज के कवि, ’जस-जस सुरसा बदन बढ़ावा-दादा रे दादाकी तर्ज़ पर कहीं भी-कभी भी कविता सुनाने के लिए तैयार। उनसे जुड़ा एक वाकया आज भी पेट पकड़ कर हँसने को मज़बूर कर देता है, जब दुर्गा पूजा के मौके पर लोगों ने उन्हें लग्घे पर चढ़ा दिया और वे वहीं पंडाल बाँधने के लिए रखे गए व्हालीबॅाल के रेफ्री-स्टैंड पर चढ़कर कविता सुनाने लग पड़े। किसी उत्साही (यदि मेरी स्मृति सही है तो स्वर्गीय पत्रकार गुलाब बघेल तथा संजय सोनी) ने माइक-चोंगा भी जुगाड़ दिया। जनता ने समझा कि कोई बड़ा कार्यक्रम है और आनन-फानन में सैकड़ों लोग मैदान में इकट्ठे हो गए। तब के समय में जनता सहज ही तमाशबीन बन जाती थी अर्थात् डमरू बजाते ही भीड़ का लगना तय होता था। इसकी वजह थी कि तब नगर में मनोरंजन के साधन बहुत सीमित थे। नगर का इकलौता सिनेमाघरदुर्गा टाकीज़बन्द हो चुका था। मुफ्त मनोरंजन का कोई भी कार्यक्रम हो, चाहे एन.सी.डी.सी. मनोरंजन क्लब के द्वारा मैदान में दिखाई जाने वाली फिल्में या सुपारीलाल की रामलीला या फिर स्कूल-कॅालिजों के मिलन-मड़ई अथवा वार्षिकोत्सवों का ही कार्यक्रम, हजार-पाँच सौ आदमियों की भीड़ ऐसे ही इकट्ठी हो जाती थी। आवाज गूँजी तो यहाँ भी भीड़ जुट गई। लेकिन दो-चार-चार औल-फौल कविताओं के बाद जनता-जनार्दन को समझ आ गया कि यहाँ तो कविता हो रही है और वह भी कतई ना-क़ाबिले बर्दाश्त। अतः जितनी तेजी से भीड़ इकट्ठा हुई थी उतनी ही तेजी से उड़न-छू भी हो गई। कुछ देर बाद किसी ने माइक बन्द कर दिया। फिर किसी ने बत्तियाँ भी बुझा दीं, पर कवि थे कि रूकने का नाम नहीं। कुछ दूर पर बैठे दुर्गा पण्डाल में ठेके पर डोमकच (नगाड़ा) बजाने वाले चार ग्रामीणों को जो अपने ठिकाने पर थे और भागकर कहीं जा भी नहीं सकते थे, उन्होंने घण्टों बगैर बिजली और लाउड-स्पीकर के ही कविताएँ सुनाईं। अंत में उनसे वह स्टैंड भी छीन लिया गया जिस पर चढ़कर वे बैठे थे, तब कहीं वह मज़बूरन रुकने को राजी हुए। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उत्साह से कितने भरपूर हुआ करते थे उन दिनों के कवि।   
       
खैर, इस मंडली ने जो कुछ भी किया हो पर नगर में यदि कविता व साहित्य को जाना गया, तो संभवतः इन्हीं लोगों के बाद। इस बिरादरी की सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि रही नगर के बस अड्डे पर कवि नितांत की दुकान के सामने कविता-पोस्टर का प्रदर्शन, जिसकी याद आज भी निवासियों के मन में बसी है। मनेंद्रगढ़ से अम्बिकापुर जाने वाली हर बस यहाँ रूकती थी तथा उससे उतरने वाली सवारियाँ एस.कुमार होटल में चाय के लुत्फ के साथ कविता का भी आनंद उठातीं। लेकिन समय के साथ हुए साहित्यिक आंदोलन के क्षरण के साथ यहाँ भी कविता के गंभीर रूप पर अब मज़ाहिया व सतही साहित्य की छाया पड़ चुकी थी। रचनाओं के कंटेंट में मूल रूप से पाकिस्तान को गाली देना तथा युद्ध के लिये ललकारना, ईद और होली के हिसाब से सेंवई-गुझियों की बातें, नल-बिजली और राज्य परिवहन की तकलीफ के साथ-साथ प्रत्येक दशहरे नेताओं को रावण का अवतार बताना, यही कविता की औसत हद थी। मान सकते हैं कि इस दौर के कवियों ने कविता को जनता के मूल सरोकारों की जगह उसके प्रत्यक्ष मनोरंजन से अधिक जोड़ा तथा इस फेर में वे मानदंड जो किसी कविता को साहित्य के इतिहास में स्थान दिलाते हैं, लगभग किनारे ही रख दिए गए। इसी के समानांतर जो साहित्य पास के कस्बे अम्बिकापुर में प्रगतिशील बिरादरी के द्वारा लिखा-पढ़ा जा रहा था, वह बैकुण्ठपुर में नदारद था। केवल जीतेंद्र सिंह सोढ़ी ही एकमात्र ऐसे साहित्यकार रहे जिन्होंने साम्यवाद और प्रगतिशील लेखन का झण्डा एकला चलो की तर्ज पर अकेले उठाए रखा। आज नगर के उस दौर की जो भी जनपक्षधर कविता जीवित है, वह सोढ़ी जी की कलम से लिखी हुई ही है। अम्बिकापुर से प्रकाशित होने वाली विजय गुप्त कीसाम्यजैसी समकालीन साहित्य की जानी-मानी पत्रिका को इस दौर के अधिकांश साहित्यकार अबूझ व बकवास का विशेषण दिया करते। मजे की बात किसाम्यपुस्तिकाएँ इन्हीं लोगों की आलमारियों में इनके बुद्धिजीवी होने की गवाही के रूप में शान से में विराज़मान हुआ करती थीं। एक वाक्य में मूल रूप से यह नगर की कविता का छन्न-पकैया रौंड़ (राउंड) था। छन्न-पकैया रौंड़ डोगरी कवि सम्मेलनों में उस दौर को कहते हैं जिसमें हँसी-ठिठोली की कविताएँ पढ़ी जाती हैं और इसका सबसे ज्यादा इंतज़ार बच्चों को हुआ करता है।   
         

इस काल में आकाशवाणी-अम्बिकापुर के कार्यक्रम का अनुबंध हासिल कर लेना ही नगर के कवियों का लक्ष्य तथा काफी हद तक उनकी लोकप्रियता का पैमाना बन गया था। कोई अगले और कोई पीछे के दरवाजे़ से, बस किसी तरह एक अनुबंध हासिल कर लेना चाहता था। फिर तो छह-आठ महीनों में इसकी पुनरावृत्ति होती रहती तथा वह निरंतर कवि बना रहता, प्रत्येक प्रसारण के पूर्व आकाशवाणी से रचना प्रसारण की सूचना स्थानीय अखबार में छपवाकर। किंतु इस कथन से आकाशवाणी का महत्व कम नहीं हो जाता। आकाशवाणी के अम्बिकापुर केन्द्र की सरगुजा व कोरिया जिले की ग्रामीण जनता में बहुत गहरी पैठ थी। इसका एक उदाहरण थी कवि भोला प्रसाद जी की सरगुजिहा बोली में लिखी कविताबंदवा बरातअर्थात विधुर विवाह जो रेडियो सुनने वाले न जाने कितने ग्रामीणों की जु़बान पर सहज ही चढ़ गई थी। कवि जहाँ-जहाँ जाते, इस कविता की फरमाईश हो ही जाती। अंत में तो वे इसे सुना-सुना कर दुखी हो गए थे।
           

परंतु जैसा कि मनुष्य की ज्ञात प्रकृति है, उसके इकट्ठे होने के स्थान पर मतभेद और मनभेद दोनो पहले ही आ धमकते हैं; यह मंच भी इससे अछूता नहीं रहा। यह जमात भी कई विभाजनों का शिकार हुई, कभी हिन्दी व उर्दू के नाम पर तो कभी किसी और वज़ह से। अंततः जगदीश पाठक जी के मनेंद्रगढ़ स्थानांतरण के पश्चात् एक समय ऐसा आया कि नगर में साहित्यिक गतिविधियाँ पूर्णतः शिथिल पड़ गईं। समूचा नगर बस यह कहता रहा गया- ’जब पाठकजी थे, तब यहाँ पर कविता होती थी    
           
इस पूरे अंतराल का सार यह मान सकते हैं कि प्रगतिशील लेखन का जो पौधा ककउआ होटल में बीजा गया था, वह अब लगभग मुरझा गया था। यह वह कालखण्ड था जब बैकुण्ठपुर रोड स्टेशन से गुजरने वाली रेलगाडि़यों में कोयले से चलने वाले इंजनों की धकड़-छकड़ की जगह डीज़ल से चलने वाले इंजनों की गड़गड़ाहट ने ले ली थी। यह पिछड़ा इलाका शनैः-शनैः अपनी जड़ता त्याग कर गतिशील होना प्रारंभ कर रहा था।महाकाली एक्सप्रेसको चुनौती देती कई बसें मैदान में आ चुकी थीं, जिनमेंबादशाह मेलसबसे अग्रणी, यद्यपि नगर के रहवासी घडि़यों मेंसवा-दोका समय अब भीमहाकालीके बैकुण्ठपुर प्रस्थान से ही मिलाते थे।    
          

लेकिन जगदीश पाठक के जाने से पैदा हुए इस शून्यकाल में भी दो कवि रचानाकर्म में अनवरत लगे रहे- एक तो कवि जीतेंद्र सिंह सोढ़ी, जो कभी रेडियो के माध्यम से तो कभी मंच पर, सदैव ही सक्रिय रहे। कम्युनिष्ट पार्टी के महासचिव होने के कारण वे मज़दूर आंदोलन से निरंतर जुड़े रहे व प्रगतिशील काव्य से उनका जुड़ाव सहज ही था। सोढ़ी जी अच्छे कवि होने के साथ-साथ बहुत अच्छे इन्सान भी हैं। उन्होंने कुछ बहुत गंभीर रचनाएँ लिखीं, जो हमें आज भी याद हैं तथा हमारी पथ प्रदर्शक हैं। दूसरे कवि जो निरंतर रचनाकर्म में लगे रहे, वे थे मेरे मामा भोला प्रसाद मिश्र अर्थातअनाम जी। ब्राह्मणकुलोत्पन्नअनाम जीने स्थानीय अखबार व आकाशवाणी के माध्यम से नगर के कविता जगत में अपना अलग स्थान बनाया भी तथा उसे सुरक्षित भी रखा। शिक्षक होने के साथ ही संगीतकार भी होने की वजह से शासकीय आयोजनों में इनकी विशेष पूछ-परख थी। सरस्वती-वन्दना, अभिनन्दन-गीत इत्यादि तो अनामजी के बिना होते ही नहीं थे।अनाम जीआज भी नगर में सरगुजिहा कविता और कहानी के पर्याय बने हुए हैं।    
        

कहा जा सकता है कि एक लम्बे समय तक ये दोनों कवि ही बैकुण्ठपुर में कविता को जीवित रखते आए। पाठक जी को गए हुए एक अरसा हो गया था। इधर कुछ वर्षों तक पढ़ाई के सिलसिले में रीवा तथा सागर में रहने के बाद सागर विश्वविद्यालय से अपनी स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी कर के मैं भी वापस आ चुका था। सहस्त्राब्दि महोत्सव की तैयारी हो रही थी तथा तब तक टेलीविजन पर दूरदर्शन को स्टार तथा जी चैनलों ने लगभग धकिया कर किनारे लगा दिया था। राज्य परिवहन अब अपने कबाड़ हो चुके वाहनों के साथ बंद हो रहा था व निजी कंपनियों की रंग-बिरंगी खूबसूरत बसें मनेंद्रगढ़-अम्बिकापुर मार्ग की महारानियाँ बन चुकी थीं। यह बात और कि हर बार इनकी तंग सीटों पर बैठते ही हम राज्य परिवहन की इफ़रात जगह वाली बसों को जरूर याद करते।महाकाली एक्सप्रेसऔरबादशाह मेलजैसे नाम अब बीते समय की कहानी बन चुके थे। रेलगाडि़यों से डीजल के इंजन भी विदा ले रहे थे तथा उनकी जगह चलने वाले बिजली के लोको हमें एक अलग ही युग में ले आए थे। अब हम अपने आप कोविकसितमहसूस करने लगे थे। जमीन के सौदागरों की भाषा में कहिए तो इस इलाके की सोई पड़ी जमीन अब जागने लगी थी।
         

इस समय तक मेरी नौकरी नहीं लगी थी तथा पास में केवल समय था। यह थोक में उपलब्ध समय अक्सर मुझे काटता व मैं इसको। इसी क्रम में संयोगवश मेरी मुलाकात ताहिर आज़मी से हुई। पेशे से सहायक-शिक्षक, उर्दू की तालीम में अव्वल और एक मस्तमौला इंसान। मूल रूप से आजमगढ़ के रहने वाले और सरगुजा-कोरिया में पले-बढ़े। आजमगढ़ में सरगुजा तथा सरगुजा में आजमगढ़ के लिये मर मिटने वाले शख़्स। मेरे ही मुहल्ले में एक छोटा सा खपरैल-मिट्टी वाला कमरा किराए पर लेकर रहते थे। उन्होंने अपने उसी कमरे में खैनी घिसते हुए ग़ज़लों से मेरा परिचय कराया। ताहिर मियाँ गज़ब के पढ़ाकू थे, ग़ालिब और कैफ़ी आजमी के अनगिनत अशआर से लेकर से लेकरतीसरी क़समलाल पान की बेगमतक का एक-एक संवाद उन्हें मुंहजबानी याद था।तीसरी कसमके बड़े मुरीद, ‘’ए हो केतना सुन्दर लिखा है’’- जि़क्र आते ही बोल पड़ते। सैकड़ों ग़ज़लें और कताएँ उनकी जु़बान पर चढ़़ी हुई थीं। इतने बड़े शायरों को इस कदर पढ़ने वाले ताहिर भाई को सबसे ज्यादा पसंद था तो मुनव्वर राणा का लिखा यह सादगी भरा शेर -
                                                       
अमीरों की हवस सोने की दूकानों पे फिरती है    
                                                       
ग़रीबी कान छिदवाती है, तिनके डाल लेती है।
         

जाहिर है कि ताहिर भाई जनवादी सोच के आदमी थे।  ताहिर भाई पढ़ने के ऐसे कीड़े थे कि कुछ नहीं मिलता तो मनोहर कहानियां, सुरेन्द्र मोहन पाठक और जेम्स हेडली चेइज़ ही घोंट कर पी जाते। किसी से कोई दीवान माँग कर ले गए तो फिर वापस आना नामुमकिन। सैकड़ो किताबों के ढेर में कहीं गुम । ज्यादा पूछने पर एक ही दादागिरी- ’अरे जनाब, दुनिया की सारी किताबें मेरी ही तो हैं। बाद में उन्होंने बैकुण्ठपुर में ही थोड़ी सी ज़मीन लेकर घर बना लिया। घर भी बनाया तो अपने स्वभाव के अनुरूप, श्मशान भूमि के सामने प्रेमाबाग बगीचे में स्थित ऐतिहासिक शिवमंदिर के पीछे ताहिर भाई का इकलौता मकान। वहाँ, जहाँ लोग दिन-दुपहरी जाने में भी कतराते थे, उस जगह ताहिर भाई का आठों-पहर का वास था। देर रात तक मेरी और ताहिर भाई की बैठकें उस बगीचे में चला करतीं और लोग हमें भूत-भयार समझ कर डरते रहते।  
       

ताहिर भाई ने मेरी मुलाकात करवाई चचा रशीद नोमानी से। उम्र तकरीबन साठ के आस-पास, दोहरा बदन और चेहरे पर बेतरतीब बिखरी हुई दाढ़ी। हमेशा सफेद-कुर्ता पाजामा पहने रहने वाले नोमानी जी बहुत ही नेक-दिल और खुशमिज़ाज इंसान थे। एक ऐसा शख़्स जो सारी उम्र अपनी परिस्थितियों से लड़ता रहा किंतु यह बात कभी किसी पर जाहिर नहीं होने दी। बिहार के किसी गाँव से आकरनोमानी जी कोरिया जिले में बस गए थे। पहले वे बैकुण्ठपुर के पास स्थित चरचा कॅालरी की एक मस्जिद के हाफिज़ थे, फिर बैकुण्ठपुर में लकड़ी की टाल चलाने वाले दिलदार व्यापारी नूरुल हुदा जी चचा नोमानी को बैकुण्ठपुर ले आए, अपने घर के पास बनी एक मस्जि़द में। उसी मस्जि़द के बाहर बनी दो दुकानों में एक चचा को दी गई थी। उसमें उनकी छोटी सी किराने की दुकान खुली, जो दिन में उनकी दुकान होती तथा रात में आशियाना। मैं व ताहिर भाई हर शाम बिलानागा पहुँच कर उनकी इकलौती खटिया पर डट जाते, टीन के डब्बे से लेकर चन्नवा चबाते हुए। चचा ने बैकुण्ठपुर में ही एक छोटा सा घर भी बना लिया था, जहाँ उनका परिवार रहा करता था। नगर के एक सिरे पर स्थित पेट्रोल-पंप के बगल में उनका घर था और दूसरे सिरे पर स्थित पेट्रोल-पंप के बगल में उनकी मस्जि़द, जिसके कि वे हाफिज़ थे। इन्हीं दो ठिकानों के बीच सीमित थी चचा नोमानी की दुनिया। कभी बीमार होते या कोई ज़रूरी काम होता तभी घर जाते अन्यथा मस्जिद वाली दुकान में ही रहते। नगर से बाहर तो बहुत कम ही जाते थे। नोमानीजी मालोजर से बहुत बड़े आदमी नहीं थे, लेकिन दिल के उतने ही बड़े थे। मस्जि़द में पाँच वक्त की नमाज़ पढ़ाते, थोड़ा समय निकाल कर बच्चों को उर्दू वगैरह सिखाते और उससे बचे समय में ग़ज़लें और हज़लें गढ़ते। चचा की सोच शानदार थी और सब कुछ मुँहज़बानी याद;कोई डायरी नहीं, कोई दीवान नहीं। अखबारों की कतरनों के अलावा शायद ही कहीं उनका लिखा कुछ मिल पाए। उनकी एक हज़ल के शेर कुछ ऐसे थे -
                                  
मुझे तो अफ़्सरों की ये मुटाई ज़ह्र लगती है
                                  
ये उनकी शानो-शौकत औ बुराई ज़ह्र लगती है    
                                   
जिसे दुनिया कहे अच्छा वही इन्सान है अच्छा   
                                  
किसी के मुँह से खुद उसकी बड़ाई ज़ह्र लगती है।



इन पक्तियों से समझ आता है कि उनकी ग़ज़लें अथवा हज़लें सीधी-सादी जुबान में लिखी होतीं व उनमें अधिक लफ्फाज़ी नहीं होती थी। हाँ, यदि उन्होंने कोई बात ख़ालिस उर्दू में कह दी, तब फिर उसे ताहिर भाई के अलावा और कोई नहीं बूझ पाता था। नोमानीजी बहुत ज्यादा महात्वाकाँक्षी भी नहीं थे। वे बच्चों को हज़ल भी उतने ही मज़े से सुनाते, जिस तरह से शायरी की महफिल में ग़ज़लें। उनकी एक और खास बात थी, वे अपनी दुकान पर आने वाले हर मेहमान का स्वागत कुछ न कुछ खिलाकर ही करते थे, कभी बरनी से एक तिल का लडडू, तो कभी एक हाजमोला कैंडी। कभी-कभी हम पास की दुकान तक पैदल जा कर चाय भी पी आते।      
          

इस तरह इन दो महानुभावों के करीब आकर मुझे भी ग़ज़लें लिखने का शौक लग गया। उत्साह इतना कि दुष्यंत जिस मुकाम पर उसे छोड़ कर गये थे, उससे आगे ले जाने की वसीयत जैसे मेरे ही नाम लिख गए हों। ये दीगर बात कि एक अरसे के बाद कहीं जाकर मुझे यह समझ आया कि ग़ज़ल में बह्र (मीटर) जैसी भी कोई चीज है। जाने कितने दिनों तक उबड़-खाबड़ रदीफ़-काफि़ये मिला कर खुद ही अपनी पीठ ठोंकता फिरता रहा। लेकिन इसी बीच कुछ लोग अब हाशिए की लाल रंग की लकीर के पीछे से झाँकने लगे थे। जैसे थाह लेने की कोशिश करते हों कि आखिर बछड़े में छलाँग है तो कितनी। ये नगर के निद्रालीन साहित्यकार थे जो अपनी कविताओं को सिरहाने दबाकर आराम की नींद सो रहे थे। इनमे से ज़्यादातर वह लोग थे, जो साहित्यिक-बिरादरी में इसलिए शामिल हो गए थे क्योंकि एक दिन उन पर भी एक खूबसूरत कविता नाजिल हुई थी, ठीक वैसे ही जैसे स्कूल में सामान्य-हिन्दी पढ़े हर व्यक्ति के ऊपर जीवन में कम से कम एक बार अवश्य होती है। उसी कविता या ग़ज़ल को लेकर वे साहित्य के मैदान में कूद पड़े थे। ये और बात कि उसके बाद शायद ही उन पर कुछ दूसरा उतरा हो कविता के नाम पर। अतः उसी एक नाजिल कविता को कलेजे से छपकाए तुकबन्दियाँ भिड़ाते रहते। कोई बाहर का आदमी आ गया तो अपनी ट्रेडमार्का कविता सुना देते। धीरे-धीरे यह सारे लोग साहित्यिक शीतनिद्रा में जा पहुँचे। जब कभी नींद खुलती तो एक-दो गोष्ठियाँ करके फिर सो रहते। पर अब हमारी हलचलों से इनकी नींद में खलल पडने़ लगा था। मुद्दे पर आएँ तो अब नगर में फिर से साहित्य का मौसम अंगड़ाई ले रहा था। इसी बीच मैंने जोश में लगभग थोक के भाव अपनी शुरूआती अधकचरा रचनाएँ, मसलन कविताएँ, ग़ज़लें और कहानियाँ वगैरह बैकुण्ठपुर के स्व. रूद्र प्रसाद रूप के स्क्रीन-प्रिंटिग पर नीले रंग की स्याही से छपने वाले पाक्षिक सम्यक-सम्पर्क, अम्बिकापुर से प्रकाशित दैनिक-अम्बिकावाणी तथा बिलासपुर से प्रकाशित दैनिक-हरिभूमि में छपवा डालीं। दैनिक-हरिभूमि में छपी कहानियों के लिए पारिश्रमिक के दो चेक भी मिले, जिन्हें मैंने इसलिए नहीं भुनाया क्योंकि बैंक ने उन्हें संग्रहण के लिए बिलासपुर भेजने का तमाम खर्च काटने के बाद प्रति चेक कोई नकारात्मक रकम हासिल होना बताया था। अतः मैंने वह दोनों चेक प्रमाणपत्र के रूप में ही सुरक्षित रख लिए। अलीगढ़ की एक पत्रिकाजर्जर क़श्तीने भी सौ रूपए की वार्षिक सदस्यता के एवज में मेरी गज़लों को नियमित रूप से छापना प्रारंभ कर दिया था। यह सब देख कर एक दिन स्थानीय साहित्य के नूरा-पहलवान फिर से अखाड़े में कूदने लगे। जिस स्थान को वे सुरक्षित रखकर सोए थे, उसे पक्की किलेबंदी कर के और अधिक सुरक्षित करने के लिए। 
             

तो इस नगर में एक बार फिर से गोष्ठियों के दौर का आरंभ हो चुका था। । इस समय बैकुण्ठपुर में ग़ज़लगोई का चलन जोर पकड़ रहा था। हर दूसरा लिखने वाला एक ग़ज़लगो। जगदीश पाठक का समय हँसी-ठिठोली का था और अब चचा नोमानी का दौर, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति बस गज़ल पर ही ज़ोर आजमाना चाहता था। अम्बिकापुर के कवि-लेखक और पत्रिकापरस्परके सम्पादक प्रभुनारायण वर्मा सदैव मुझसे मज़ाक करते कियार बैकुण्ठपुर में इतने अधिक शायर क्यों होते हैं? वस्तुतः इसका भी एक कारण था। उन दिनों कवि गोष्ठियों मेंतरहदेने का चलन था, अर्थात् सब को चाचा नोमानी के द्वारा एक मिसरा दिया जाता जिस पर बकाया शायर अगली गोष्ठी में ग़ज़ल लिखकर लाते। इसका एक फायदा था कि सभी को एक बना-बनाया फर्मा मिल जाता जिसमें केवल कुछ तुकबंदियाँ भर टाँकनी पड़तीं। बाद में इन्हीं पंक्तियों को दैनिक-नवभारत व दैनिक-भास्कर में विज्ञप्ति के रूप में सबके नाम के साथ छपवा दिया जाता। कवि बारंबार समाचार-पत्र पढ़ते तथा मुग्ध होते जाते। बस इतनी ही छपास थी ज़्यादातर कवियों में। परंतु इसतरहके चक्कर में ऐसेबेतरहशेर लिखे जाते कि कहिए मत। मुझे एक ग़ज़ल का शेर आज भी याद है जिसे पढ़कर समझा जा सकता है कि उन गोष्ठियों में में क्या नहीं हुआ करता था -
                                                               
पत्थर को तोड़ के शीशा बना दिया 
                                                              
लोगों ने उसको तोड़ के भाला बना दिया


शायर की सोच! शायरी में मानव-विज्ञान तक की पैठ। कवि पत्थर तोड़ कर भाला बनाने वाले आदिम युग को भी ग़ालिब की मुलायम ग़ज़ल के लिबास में पेश कर देते थे। इस शेर को चचा नोमानी, मैं और ताहिर मियां बरसों तक याद करते रहे। याद क्या करते थे, हँसते-हँसते दोहरे हो जाते थे।    
             


परिचय और संपर्क

पद्मनाभ  गौतम 

स्कूलपारा , बैकुण्ठपुर,
जिला-कोरिया, छत्तीसगढ़
पिनकोड-  497335
फो. 8170028306, 9425580020