बुधवार, 21 दिसंबर 2011

अलविदा अदम गोंडवी

                                    


                                              अलविदा अदम गोंडवी 

                           गत 18 दिसंबर 2011 हिंदी के लोकप्रिय , क्रान्तिकारी और जनवादी शायर अदम गोंडवी का लखनऊ  में निधन हो गया | उ.प्र. के गोंडा जिले में 22 अक्टूबर 1947 को जन्मे रामनाथ सिंह उर्फ़ अदम गोंडवी पिछले कुछ समय से लीवर में संक्रमण की बीमारी से जूझ रहे थे | आर्थिक अभावों ने उन्हें आरंभिक स्तर पर अच्छे और उपयुक्त इलाज से वंचित रखा और जब तक यह खबर आम होती  और उनके समर्थको / शुभचिंतको  द्वारा लखनऊ के पी.जी.आई. अस्पताल में दाखिल कराया जाता , तब तक उनका संक्रमण गंभीर हो चला था |अंततः इस संक्रमण  ने दुष्यंत कुमार की परंपरा के सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिंदी जनवादी गजलकार को हमसे छीन लिया | उनकी प्रतिनिधि  रचनाये "धरती की सतह पर " और "समय से मुठभेड़" है |
                           
                          अदम गोंडवी ने जनवादिता और क्रांतिकारिता का पाठ  जीवन की इसी पाठशाला से सीखा था | उन्हें किसी स्कूल या कालेज की शिक्षा कभी नसीब नहीं हुयी | दिखने में वे  बेहद जनपदीय थे  | मटमैली धोती और कुर्ते के साथ गले में गमछा लपेटे जब वे मंच को संभालते थे , तब यह भेद खुलता था कि वे खयालो और विचारो में कितने प्रगतिशील थे | कवि बोधिसत्व ठीक ही कहते है "उन्होंने आम अवाम का हमेशा पक्ष लिया और उसी के साथ आजीवन खड़े भी रहे | अंत तक न वे बदले , न उनकी कविता बदली और न ही उनका पक्ष बदला | बदलने और बिकने के लिए जहाँ  इतना बड़ा बाज़ार मुँह  बाये खड़ा हो , अदम साहब की यह अटलता अनुकरणीय  और  विस्मयकारी है |
                                                         
                           अदम साहब का जन्म भारत की आज़ादी के साथ ही हुआ था | वह अपेक्षाओ और आकांक्षाओ   का दौर था | लेकिन जैसे जैसे समय बीतता गया , हमारे देखे गए सपने बिखरते चले गए | इसी समय कविता के परिदृश्य पर धूमिल और मुक्तिबोध जैसे कवियों का आगमन हुआ | इनकी कविताओ  में  आज़ादी से मोहभंग , हताशा और ऊब को साफ़ तौर पर देखा जा सकता है | हिंदी गजल में यही काम बाद में चलकर अदम गोंडवी ने किया | उनकी रचनाये व्यवस्था से मोहभंग की प्रतिनिधि आवाज बन गयी |उन्होंने लिखा  -

                                       "काजू भूने प्लेट में , व्हिस्की  गिलास में 
                                        उतरा है रामराज्य विधायक निवास में |
                                        पक्के समाजवादी हैं  , तस्कर हों या डकैत 
                                        इतना असर है खादी  के लिबास में ||"

                               उन्होंने व्यवस्था द्वारा दिखाई गयी आंकड़ो की बाजीगरी पर भी करार प्रहार किया | हम सब इस बाजीगरी के आज भी भुक्तभोगी है , जब एक तरफ विकास दर के आसमानी होने का दावा किया जा रहा है , वही देश की तीन चौथाई जनता रसातल में जीवन यापन कर रही है |
                       
                                           "तुम्हारी फाईलो में गाँव  का मौसम गुलाबी है 
                                             मगर ये आँकड़े झूठे है , ये दावा किताबी है  |
                                             तुम्हारी मेज चाँदी की तुम्हारे जाम सोने के 
                                             यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है ||"
                
                    एक तरफ वे व्यवस्था जनित विद्रूपताओ पर लगातार बरसते रहे , वही दूसरी ओर उन्होंने अपने समय के ज्वलंत  सामाजिक सवालो से भी लगातार मुठभेड़ किया | साम्प्रदायिकता  पर उन्होंने लिखा -

                                             "हममे कोई हूण, कोई शक , कोई मंगोल है 
                                              दफ़न जो बात अब उस बात को मत छेड़िए |
                                              छेड़िए इक जंग मिलजुलकर गरीबी के खिलाफ 
                                              दोस्त मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िए || "
                   
                         उच्च वर्ण में पैदा होने के बावजूद उन्होंने सदियों से चली आ रही जातीय श्रेष्ठता और घृणा  पर भी प्रहार किया -

                                            "वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं 
                                             वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें|
                                             लोकरंजन हों जहाँ  शम्बूक वध की आड़ में 
                                             उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करे |"

                         यह अदम गोंडवी ही थे , जिन्होंने "चमारो की गली " शीर्षक  से एक लम्बी गजल लिखी | यह गजल आज भी शोषितों और दलितों की आवाज के रूप में जानी पहचानी जाती है |हिंदी क्षेत्र के  जनवादी कार्यक्रमों में उनकी गजलों की हमेशा धूम रहा करती थी | हालाकि उन्हें इस बात का बहुत मलाल था , कि जिनके हाथों में कलम की ताकत है , वे चंद मुहरों के लिए अपना सब कुछ गिरवी रख देने पर आमादा हैं |

                                        "जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ खुलासा देखिये 
                                         आप भी इस भीड़ में घुसकर तमाशा देखिये  |
                                         जल रहा है देश यह बहला रही है कौम को 
                                         किस तरह अश्लील है कविता कि भाषा देखिये |"

                         यह देखना कम महत्वपूर्ण नहीं है कि उर्दू के साथ साथ जब हिंदी गजल की एक बड़ी धारा भी प्रेयसी की जुल्फों और मयखानों की गलियों में उलझी हुयी थी , अदम गोंडवी ने हमेशा उसे जनवादी रास्ता ही दिखाया | यह काम उन्होंने उस मंचीय कविता का हिस्सा होते हुए भी किया जहाँ  चुटकुलों और द्वी -अर्थी तुकबंदियों ने सारा  मंजर अपने कब्जे में कर रखा है | जहाँ कविता पढना अपना उपहास उड़ाने के बराबर हों गया है , वहाँ  भी वे कविता में जनवादिता और क्रांतिकारिता की मशाल लिए अपने पूरे तेवर के साथ  बने रहे |

                                     "आप कहते हैं  सरापा गुलमुहर है जिंदगी 
                                      हम गरीबो की नजर में इक कहर है जिंदगी |"
                 
 उन्होंने एक दूसरी गजल में लिखा -
                                   
                                    " चाँद है जेरे कदम , सूरज खिलौना हो गया 
                                      हाँ मगर इस दौर में किरदार बौना हो गया 
                                      ढो रहा है आदमी काँधे पर खुद अपनी सलीब 
                                      जिंदगी का फलसफा अब बोझ ढोना हो गया |"

और ये पंक्तियाँ तो अदम साहब की ट्रेडमार्क ही हो गयी 
                                   
                                      "इस व्यवस्था ने नयी पीढ़ी को आखिर क्या दिया 
                                       सेक्स की रंगीनियाँ और गोलियां सल्फास की  |"

                      अदम गोंडवी आज हमारे बीच नहीं है , लेकिन उनकी क्रान्तिकारी कविताये सदा हमारे बीच रहेंगी | आलोचक आशुतोष कुमार कहते है " जीवन में उन्होंने घनघोर अभाव देखा , लेकिन अपनी मकबूलियत को कभी नहीं भुनाया |ऐसे समय में जब कारपोरेट और वित्तीय पूंजी का आतंक पूरे विश्व पर छाया हुआ है , आम लोगो के जिंदगी की , तकलीफों से उठने वाले प्रतिरोध की और भरोसे की इस आवाज का खामोश होना बेहद दुखदायी है | "अदम की स्मृतियों को  हम सबका क्रान्तिकारी सलाम | अलविदा अदम गोंडवी | 

                                                                                                                                                           
                                                                                        रामजी तिवारी
                                                                                                                बलिया ,  उ.प्र.                                            

रविवार, 11 दिसंबर 2011

लन्दन के दंगे और पश्चिमी समाज






गत सितम्बर माह में इंगलैंड में भयावह दंगे हुए....हमने इन दंगो के दौरान पश्चिमी  समाज का वह चेहरा भी देखा , जो अपनी तमाम आधुनिकता के बावजूद इतना खोखला है ,कि एक छोटी सी ठोकर उसे औंधे मुह गिरा सकती है ....उन्ही दंगो के कारणों और परिणामों कि पड़ताल करता यह लेख आप सबके  लिए यहाँ प्रस्तुत है........यह लेख "समयांतर " पत्रिका के माह अक्टूबर अंक  में प्रकाशित हो चुका है...




                                                    लन्दन के दंगे और पश्चिमी समाज

दंगे समाज के चेहरे पर जख्म सरीखे होते हंैं,  जिनके निशान उन पर लगे घावों की तीब्रता के अनुसार ही बनते हैं। जब भी समाज इतिहास के आइने में अपना चेहरा देखता है, इन जख्मों के निशान उसकी सहिष्णुता/असहिष्णुता की कहानी बयान करते नजर आते है। जाहिर है, समाज कोई कपड़ा तो होता नहीं कि उस पर लगे हुए दाग/निशान समय के साथ धुल या मिट जाय, ना ही वह किसी स्लेेट जैसा होता है, जिस पर लिखी इबारत को अपनी सुविधानुसार मिटा दिया जाय, वरन् यह तो मानव जाति की जड़ांे में फैली स्मृतियों में बसा होता है, जहाँ से भविष्य की कोपलें फूटा करती हैं। वह मिटाने की तमाम नैतिक/अनैतिक कोशिशों के बावजूद मनुष्यता की स्मृतियों में अमरत्व को पा जाता है।
प्रत्येक दंगे की सामाजिक पृष्ठभूमि होेती है। उनसे पता चलता है कि उसके होने के समय और उससे पहले समाज किस दिशा में संचालित किया जा रहा था। प्रतिगामी ताकतों का वर्चस्व और प्रगतिशील तत्वांे के हासिये पर सिमट जाने की दास्तान इन दंगों में छिपी रहती है। कभी-कभी तो ऐसा भी देखा जाता है कि तत्कालीन व्यवस्था ही इन दंगों की पटकथा लिखती है। भारत में दंगों के इतिहास उपरोक्त सारी परिस्थितियों को बयान करते हैंै। हमारे देश के वर्तमान स्वरूप का उदय इन दंगों से पैदा हुये जख्मों की निशानी के लिए भी याद किया जाता है। उन दंगों का दिया हुआ घाव इतना गहरा था कि उसने इस देश के चेहरे को ही दो हिस्सों में तकसीम कर दिया। छः दशक गुजर जाने के बाद भी इन घावों से पैदा हुये जख्मों को भरा नहीं जा सका है और रह-रहकर उनसे टीस उभरती रहती है।
विभाजन से उत्पन्न उस आधे चेहरे को हमने बड़े जतन से मुकम्मल बनाने की कोशिश की, जो लगभग कामयाब भी रही लेकिन आजादी के बाद के दंगों ने इस बनाये चेहरे को भी साबुत नहीं रहने दिया। मेरठ, मुरादाबाद, भागलपुर, दिल्ली, बम्बई और गुजरात से मिले जख्मों के निशान स्पष्टता के साथ हमारे समाज के चेहरे पर देखे जा सकते हंै। हम जब भी अपना सिर उठाने की कोशिश करते हैं, इन जख्मो से कटा-फटा विद्रूप चेहरा हमें शर्मिन्दा कर देता है। ये सारी बाते आज अचानक मन में इसलिए उठ रही है कि अपने आपको बहुजातीय, बहुधार्मिक, उदार और लोकतंत्र की जननी कहे जाने वाले ब्रिटिश समाज का चेहरा भी इन दंगो से लहुलुहान हुआ है। उस विकसित और आधुनिक देश ने इन दंगों के दौरान दुनिया के सामने अपना वह चेहरा दिखाया है, जिस पर उसकी आने वाली नस्लें सिर्फ और सिर्फ शर्मिन्दा हो सकती है।
आइये! उस पूरे घटनाक्रम पर नजर दौड़ायें, जिसने उस तथाकथित सहिष्णु और प्रगतिशील समाज को इतना असहज बना दिया है। उत्तरी लन्दन का एक उपनगरीय इलाका है टोटेनहम, जहाँ से इन दंगों की शुरूआत हुयी। यह क्षेत्र अपनी बहुसांस्कृतिक, बहुजातीय और बहुभाषायी विस्तार के लिए इंगलैण्ड ही नही वरन सम्पूर्ण यूरोप मे जना जाता है। अफ्रीकी, अमेरिकी, कैरेबियाई, एशियाई और यूरोपीय आबादी के मिश्रण से सुसज्जित इस क्षेत्र में लगभग 300 भाषाएँ बोल जाती हैं। 04 सितम्बर, 2011 को इसी इलाके में मार्क डगन नाम के एक एफ्रो-कैरेबियाई युवक  की पुलिस मुठभेड़ मंे मृत्यु हो गयी। पुलिस का कहना था कि उस पर मादक द्रव्यों की तस्करी और अवैध हथियार होने का संदेह था, जिसके आधार पर उसी तलाशी ली जानी थी। इसी तलाशी के दौरान उसने पुलिस पर गोली चला दी और पुलिस की जवाबी कार्यवायी में वह मारा गया। बाद की रिपोर्ट मेें इस बात का खुलासा हुआ कि उसके पास पिस्तौल तो थी, लेकिन उसने उसका इस्तेमाल नहीं किया था।
6 अगस्त, 2011 को उसके समर्थन में 200 लोगों का जत्था पुलिस स्टेशन पहुँचा। ये लोग इस घटना की स्वतन्त्र और निष्पक्ष जाँच की मांग कर रहे थे। पुलिस ने इन लोगों की बातों पर ध्यान नहीं दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि उस जत्थे में शामिल अश्वेत युवाओं ने तोड़फोड़ शुरू कर दी। पहला निशाना टोटेनहम का पोस्टआफिस बना और देखते ही देखते पूरा टोटेहनहम इसकी चपेट में आ गया। अगले दिन अर्थात 7 अगस्त को इन घटनाओं ने पूरे लंदन को अपने आगोश मंे ले लिया। एनफील्ड, पोन्डर्स एण्ड, ब्रीक्स्टन के साथ-साथ लंदन के सभी उपनगरीय इलाके इसकी चपेट में थे। पहले दिन तो सिर्फ तोड़फोड़ चल रही थी लेकिन जैसे ही यह लंदन के उपनगरीय इलाकों में फैला, इसकी प्रकृति लूटपाट में बदल गयी।
08 अगस्त की सुबह और भी भयावह साबित हुयी। अव्यवस्था और लूटपाट का विस्तार पूरे इंग्लैण्ड में फैल गया। बर्मिंघम, लीवरपूल, लीड्स, ब्रीस्टल, नाटिंघम, मैनचेस्टर, लंकाशायर और मिडवे जैसे इंग्लैण्ड के लगभग सभी महत्वपूर्ण शहर इसकी विभीषिका में जलने लगे। ध्यान देने वाली बात यह है कि एक तो इन दंगों की प्रकृति लूटपाट की थी, दूसरा कि इसमें सभी वर्गों के युवाओं की भागीदारी थी और तीसरा यह कि इन दंगाईयों के निशाने पर कोई भी एक वर्ग या समुदाय नहीं था। जिसको जो भी और जहाँ भी मिल रहा था, वह बहती टेम्स में हाथ धो रहा था।
9 अगस्त को भी दिन भर यही सब चलता रहा। टाईम पत्रिका ने इस सुबह के बारे में अपनी राय इस भयावह तरीके से दी ”द्वितीय विश्व युद्ध के बाद लंदन में एक साथ इतनी बड़ी आगजनी की घटनाएँ कभी नहीं हुयी।” इसी दिन वहाँ के प्रधानमंत्री अपने विदेश के दौरे को बीच में छोड़कर वापस इ्रंग्लैण्ड लौटे। बैठकों और समीक्षाओं का सिलसिला आरम्भ हुआ और अब तक लगभग मूकदर्शक बनी ब्रिटिश पुलिस कुछ हरकत मंे आ गयी। पुलिस की निष्क्रियता इतनी अधिक थी कि विभिन्न वर्गों और समुदायों ने स्थानीय स्तर पर संगठन बनाकर अपनी रक्षा का जिम्मा स्वयं उठाना आरम्भ कर लिया था। 10 और 11 अगस्त को गिरफ्तारियों को सिलसिला आरम्भ हुआ, लगभग 2000 लोग हिरासत में लिये गये। 13 अगस्त को न्यूयार्क और लास एंजेल्स के पूर्व पुलिस प्रमुख बिल ब्राटन को प्रधानमंत्री का सलाहकार नियुक्त किया गया। अगले दिन अर्थात 14 अगस्त को इन दंगों की समाप्ति पर बीमा कम्पनियों ने यह अनुमान लगाया कि उन्हें लगभग 200 मिलियन पाउण्ड का हर्जाना देना होगा।
दंगों की इन घटनाओं को देखने के बाद कुछ महत्वपूर्ण तथ्य हमारे सामने आते हैं। पहला तो यही कि पुलिस इसमें पूरी तौर पर निष्क्रिय बनी रही। शायद वह इनकी तीव्रता और फैलाव का अन्दाजा नहीं लगा सकी और यह भी कि उसे अपने अति-सक्रिय होने के इतिहास से भी डर लग रहा था। दूसरा तथ्य यह था कि इनका आरम्भ भले ही अश्वेत युवकों द्वारा हुआ, लेकिन शीघ्र ही इसके चपेट में सारे वर्ग और समुदाय आ गये। सभी वर्गों और समूहों के युवाओं ने ब्रिटिश समाज के सहिष्णुता और आधुनिकता के लबादे को नोच डालने में अपनी भूमिका निभायी। एक और तथ्य यह सामने आया कि इन्हें विस्तार देने के लिए संचार की आधुनिक तकनीकों का जमकर इस्तेमाल किया गया। फेसबुक, ट्वीटर और ब्लैकबेरी का दुरूपयोग इस तरह से भी किया जा सकता है, इनसे पता चला। ब्रिटिश समाज विश्लेषक डेलरीम्पल ने इन युवाओं के व्यवहार से इतने क्षुब्ध थे कि उन्होंने इन्हें ‘दुनिया के सर्वाधिक असंतुष्ट और हिंसक युवाओं’ की पदवी से नवाज दिया।
अब महत्वूपर्ण सवाल यह था कि इन दंगों के कारण क्या थे? जाहिर है इसका उत्तर भी अपनी-अपनी समझ और व्याख्या के अनुसार दिया गया। सामाजिक अलगाव, देश पर बढ़ते आर्थिक दबाव, उपभोक्तावाद की विलासितापूर्ण आदते, बेरोजगारी, जातीय संस्कृति और गैंग संस्कृति का मिला जुला काकटेल ही इस समाज को यहाँ तक खींच लाया। विश्व-व्यापी आर्थिक मन्दी और विकसित देशों की अर्थ व्यवस्थाआंे के उसमें लगातार फँसते चले जाने से ब्रिटेन जैसे देशों के समाज में गम्भीर समस्यायें पैदा हो गयी है। जब तक इन विकसित देशों के पास उपनिवेश होते थे, उनके पास यह सुविधा होती थी कि उन्हें लूटकर अपने समाज की खाइयों को पाट दिया जाय। आज ऐसी स्थिति रही नहीं। नीचे का तबका जिनके ऊपर इस मन्दी का सबसे बुरा असर हुआ है, अपनी आदतों को परिवर्तित नही कर पा रहा और उसे भी विलासता पूर्ण जीवन की लत लग चुकी है। उसने अपनी पुरानी पीढ़ी को सिर्फ ऐश करते देखा है और इतनी समस्याओं के बावजूद भी वह इस तथ्य को भी देख रहा है कि उसी के समाज का उच्च वर्ग ठस अहंकार के साथ ऐश्वर्य का नंगा नाच कर रहा है।
यह उस व्यवस्था का संकट है जिसने अपने समाज को इस नैतिक पतन तक पहुँचा दिया है। ध्यान रहे कि जो ब्रिटिश युवा आज इन दंगाइयों की कतार में खड़ा है, वह भूख से नहीं तड़प रहा और न ही उसके सामने अपने अस्तित्व का संकट है। उसके सामने ऐश का संकट है, विलासितापूर्ण जीवन जीने का संकट है और उसके सामने येन-केन-प्रकारेण इन चीजों का पाने का संकट है। उसका समाज उसे यही सिखाता आया है कि किसी भी प्रकार से उसके पास ऐसी चीजें होनी चाहिए। साधनों की पवित्रता उसके लिए पिछली शताब्दियों का मुहावरा है, जिसे उसके पूर्वजों ने उपहास बनाकर उड़ा दिया था। उसने जीवन की सिर्फ रंगीनियाँ देखी हैं, जिसे आज तक उसके उपनिवेश पूरे करते आये हैं।
एक पूँजीवादी समाज इसी परिणति तक पहुँचने के लिए अभिशप्त होता है। वह अपने ऊपर आये संकटों का ऐसा ही समाधान खोजता है। अपनी जरूरतों और विलासिताओं को नियन्त्रित करने के बजाय, उसे अपने ही लोगों को लूट लेने का विकल्प अधिक भाता है। कहा जाता है कि भूख और दरिद्रता नैतिक सवालों को दर किनार कर देती है। लेकिन यहाँ तो जीवन शैली और उसके अन्तर्विरोध ने यह कार्य कर दिखाया है। ऐसा नहीं कि उसने पहली बार ऐसा किया है, वह तो इतिहास में भी ऐसा करता आया है, फर्क यह है कि पहले वह अपने उपनिवेशों में यह कारनामा करता था और आज अपने पड़ोसी के साथ कर रहा है। लेकिन क्या इसके लिए सिर्फ वही जिम्मेदार है, वह पड़ोसी नहीं। ऐसा नहीं है, जिम्मेदार तो वह पड़ोसी भी है, जो इन संकटों के समय भी धन, सत्ता और ऐश्वर्य  के शिखर पर नंगा नाच रहा है। अमेरिका और यूरोप से लेकर एशिया तक इस बुर्जुआ तबके को उसकी ऐयाशियों के लिए बेल-आऊट के रूप में करोड़ों अरबों का तोहफा दिया जा रहा है। दुनिया भर की सरकारों ने इनके लिए अपनी तिजोरियाँ खोल रखी हैं और यह मलाईदार अभिजात्य उसेदोनों हाथों से बटोर रहा है। उसे इस बात की थोड़ी भी चिन्ता नहीं कि हमारे अपने ही भाई बन्धु किस प्रकार घिसट रहे हैं। और वही क्यों? जिम्मेदार तो वह पूरी व्यवस्था है जिसने एक पूरे देश का, एक पूरी पीढ़ी का और एक पूरे समाज का नैतिक पतन कर दिया है। ब्रिटेन ही नहीं अमेरीकी कर्ज संकट का उदाहरण भी हमारे सामने है, जब वहाँ आर्थिक संकट खड़ा हुआ और यह प्रश्न आया कि करों में वृद्धि करके इस संकट से निपटा जाय या सामाजिक सेवा योजनाओं में कटौती करके तब उस अमेरिकी समाज ने वह दूसरा विकल्प ही चुना, जिसकी मार निम्न और मध्यवर्ग पर पड़नी थी। धन के एवरेस्ट पर बैठे उस समाज को पहला विकल्प स्वीकार नहीं था क्योंकि इससे अमीरों को अपनी जेब से चन्द अशरफियाँ निकालनी पड़ती।
हमें गैंग संस्कृति, बेरोजगारी, जातीय विभाजन और पुलिस की निष्क्रियता से आगे बढ़ कर देखने की जरूरत है। इसकी जड़े उस वयवस्था में फैली है, जिसे आज एकमात्र विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। लगे हाथ संचार तकनीकों के इस्तेमाल पर भी बात कर ली जाए। यह मूल प्रश्न से मुहँ चुराने वाली बात है। तकनीकें समाज का संचालन नहीं करती, वरन् उसे कुछ सुविधाएँ अवश्य दे सकती हैं और कुछ बेहतर भी बना सकती है लेकिन समाज का संचालन अनिवार्यतः और अन्ततः उस समाज का विवेक और नैतिकता ही करते हंै। यदि कोई भी समाज अपनी सामूहिक दृष्टि और चेतना से विचलित हो जायेगा, तो वह इन तकनीकों का आत्मघाती इस्तेमाल ही करेगा।
अन्त में इन दंगों के सबक को भारतीय पक्ष से भी देख लेना उचित होगा। जो लोग उन विकसित देशों की चकाचैंध को देखकर मन्त्रमुग्ध रहते हैं और भारत को भी वैसा ही बनाने का सपना देखते हैं, उन्हें भी यह जान लेना चाहिए कि धन के इतने भयावह अनैतिक संग्रह के बाद भी वह समाज घुटनों पर आ सकता है। महात्मा गाँधी ने उस प्रश्न के जवाब मेें कि ‘भारत कब इंग्लैण्ड जैसा बन जायेगा?’ बहुत उचित बात कही थी ”मैं कभी नहीं चाहता कि भारत इंग्लैण्ड जैसा बने। एक इतने छोटे देश को इस स्तर पर आने के लिए इतनी लूटपाट और अमानवीय तरीके की आवश्यकता होती है, फिर तो भारत के लिए ऐसी कई दुनिया चाहिए होगी।“ मजे की बात यह है कि इतनी लूटपाट के बाद भी बने उस देश के सामने संकट के समय पड़ोसी को लूट लेने का ही विकल्प बचता है। विकास चाहे कितना भी हो, समाज की सामूहिक नैतिकता ही इतिहास मेें उस समाज का चेहरा प्रस्तुत करती है।

रामजी तिवारी
बलिया



मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

संतोष चतुर्वेदी की कविता - "माँ का घर "

संतोष चतुर्वेदी




माँ पर लिखी गयी कविताओ की हमारे यहाँ  एक लम्बी परंपरा रही है...हर छोटे- बड़े कवि ने इस विषय पर अपनी लेखनी चलायी है...फिर भी यह विषय आज भी कविता के लिए उतना ही नवीन और आकर्षक है... "माँ"  जैसे विषय पर पहले और आज के दौर में लिखी जा रही कविताओ में ऊपर से देखने पर तो समानता ही लगती है , जिसमे माँ के प्रति आदर और सम्मान का पाया जाना साफ साफ़ दिखाई देता है , लेकिन फिर भी आज के दौर में आये कुछ बदलावों  को देखा जा सकता  है...एक तरफ जहा बदलते दौर में "माँ" के नजरिये को भी कविता में जगह मिली  है , वही दुखद यह है कि "माँ - बाप " हमारे जीवन से लगातार बाहर होते जा रहे है.....कविताओ और कहानियो में उनकी भारी उपस्थिति और जीवन में उनकी दूर दूर तक कोई  खबर तक नहीं ...? हमारे समय की इस बड़ी त्रासदी को आखिर किस रूप में देखा जाना चाहिए..?  ..संतोष जी की इस कविता को पढ़ते हुए मेरे मन में ऐसे ही कई सवाल उभरते है...उसका अपना घर नहीं ... उसका अपना नाम नहीं .....और  उसे  कोई शिकायत तक नहीं ? बावजूद इसके ,  हमारी पीढ़ी द्वारा उसकी इतनी उपेक्षा ?  सवाल कई है , जो हमें मथ रहे है.....आप भी इस बहस में शामिल हो , जिसमे अपनी नब्ज स्वयं हमें ही टटोलनी है....   






        माँ  का घर

मैं नहीं जानता अपनी माँ  की माँ  का नाम
बहुत दिनों बाद जान पाया मैं यह राज
कि जिस घर में हम रहते हैं
वह दरअसल ससुराल है माँ  की
जिसे अब वह अपना घर मानती है
फिर माँ  का अपना घर कहाँ है
खोजबीन करने पर यह पता चला
कि मामा के जिस घर में
गर्मियों की छुट्टियों में
करते रहते थे हम धमाचौकड़ी 
वही माँ  का घर हुआ करता था कभी
जहाँ और लड़कियों की तरह ही वह भी
अपने बचपन में सहज ही खेलती थी कितकित
और गिट्टियों का खेल
जिस घर में रहते हुए ही
अक्षरों और शब्दों से परिचित हुई थी वह पहले पहल
वही घर अब उसकी नैहर में
तब्दील हो चुका है अब

अपना जवाब खोजता हुआ मेरा सवाल
उसी मुकाम पर खड़ा था
जहाँ  वह पहले था
माँ  का घर एक पहेली था मेरे लिए अब भी
जब यह बताया गया कि
हमारा घर और हमारे मामा का घर
दोनो ही माँ  का घर है
जबकि हमारा घर माँ  की ससुराल
और मामा का घर माँ  का नैहर हुआ करता था

हमारे दादा ने रटा रखा था हमें
पाँच सात पीढी तक के
उन पिता के पिताओं के नाम
जिनकी अब न तो कोई सूरत गढ पाता हॅू
न ही उनकी छोड़ी गयी किसी विरासत पर
किसी अहमक की तरह गर्व ही कर पाता हॅू
लेकिन किसी ने भी क्यों नहीं समझी यह जरूरत
कि कुछ इस तरह के ब्यौरे भी कहीं पर हों
जिनमें दर्ज किये जाय अब तक गायब रह गये
माताओं और माताओं के माताओं के नाम

हमने खंगाला जब कुछ अभिलेखों को
इस सिलसिले में
तो वे भी दकियानूसी नजर आये
हमारे खेतों की खसरा खतौनी
हमारे बाग बगीचे
हमारे घर दुआर
यहाँ तक कि हमारे राशन  कार्डों तक पर
हर जगह दर्ज मिला
पिता और उनके पिता और उनके पिता के नाम
गया बनारस इलाहाबाद के पण्डों की पुरानी पोथियाँ भी 
असहाय दिखायी पड़ी
इस मसले पर

माँ  और उनकी माँ  और उनकी माताओं के नाम पर
हर जगह दिखायी पड़ी
एक अजीब तरह की चुप्पी
घूंघट में लगातार अपना चेहरा छुपाये हुए

तमाम संसदों के रिकार्ड पलटने पर उजागर हुआ यह सच
कि माँ  के घर के मुददे पर
बहस नहीं हुई कभी कोई संसद में
दिलचस्प बात यह कि
बेमतलब की बातों पर अक्सर हंगामा मचाने वाले सांसदों ने
एक भी दिन संसद में चूं तक नहीं की
इस अहम बात को ले कर
और बुद्धिजीवी समझे जाने वाले सांसद
पता नहीं किस भय से चुप्पी साध गये
इस मुद्दे पर

और अपने आज में खोजना शुरू किया जब हमने माँ  को
तब भी तकरीबन पहले जैसी दिक्कतें ही पेश आयीं
घर की मिल्कियत का कागज पिता के नाम
बैंकों के पासबुक हमारे या हमारे भाइयों या पिता के नाम
घर के बाहर टंगे हुए नामपट्ट पर भी अंकित दिखे
हम या हमारे पिता ही

हर जगह साधिकार खड़े दिखे
कहीं पर हम
या फिर कहीं पर हमारे भाई
या फिर कहीं पर हमारे पिता ही
जब हमने अपनी तालीमी सनदों पर गौर किया
जब हमने गौर किया अपने पते पर आने वाली चिट्ठियों
तमाम तरह के निमन्त्रण पत्रों
जैसी हर जगहों पर खड़े दिखायी पड़े
हम या हमारे पिता ही
अब भले ही यह जान कर आपको अटपटा लगे
लेकिन सोलहो आने सही है यह बात कि
मेरे गाँव  में नहीं जानता कोई भी मेरी माँ  को
पड़ोसी भी नहीं पहचान सकता माँ  को
मेरे करीबी दोस्तों तक को नहीं पता
मेरी माँ  का नाम

अचरज की बात यह कि
इतना सब तलाश  करते हुए भी
जाने अंजाने हम भी बढे जा रहे थे
लगातार उन्हीं राहों पर
जिन्हें बड़ी मेहनत मशक्कत  से संवारा था
हमारे पिता
हमारे पिता के पिता
हमारे पिता के पिता के पिताओं ने
एक लम्बे अरसे से

खुद जब मेरी शादी हुई
मेरी पत्नी का उपनाम न जाने कब
और न जाने किस तरह बदल गया मेरे उपनाम में
भनक तक नहीं लग पायी इसकी हमें
और कुछ समय बाद मैं भी
बुलाने लगा पत्नी को
अपने बच्चे की माँ  के नाम से
जैसा कि सुनता आया था मैं पिता को
बाद में मेरे बच्चों के नाम में भी धीरे से जुड़ गया
मेरा ही उपनाम

अब कविता की ही कारीगरी देखिए
जो माँ  के घर जैसे मुद्दे को
कितनी सफाई से टाल देना चाहती है
कभी पहचान के नाम पर
कभी शादी ब्याह के नाम पर
तो कभी विरासत के नाम पर

न जाने कहाँ  सुना मैंने एक लोकगीत
जिसमें माँ  बदल जाती है
कभी नदी की धारा में
कभी पेड़ की छाया में
कभी बारिस की बूंदों मे
कभी घर की नींव में होते हुए
माँ  बदल जाती है फिर माली में
बड़े जतन से परवरिश  करती हुई अपने पौधों की
फिर बन जाती है वह मिट्टी
जिसमें बेखौफ उगते अठखेलियां करते
दिख जाते हैं पौधे
पौधों में खोजो
तो दिख जाती है पत्तियों में
डालियों में फूलों में फलों में
फिर धीमे से पहुँच जाती हमारे सपनों में

धान रोपती बनिहारिने गा रहीं हैं
कि जिस तरह अपने बियराड़ से बिलग हो कर
धान का बेहन दूसरी धूल मिट्टी में गड़ कर
लहलहाने लगता है फूलने फलने लगता है
उसी तरह गुलजार कर देती हैं अपनी विस्थापित उपस्थिति से
किसी भी घर को महिलाएं
खुद को मिटा कर

और जहाँ  तक माँ  के घर की बात है
मैं हरेक से पूछता फिर रहा हूँ 
अब भी अपना यह सवाल
कोई कुछ बताता नहीं
सारी दिशाएँ चुप हैं
पता नहीं किस सोच में

जब यही सवाल पूछा हमने एक बार माँ  से
तो बिना किसी लागलपेट के बताया उसने कि
जहाँ  पर भी रहती है वह
वही बस जाता है उसका घर
वहीं बन जाती है उसकी दुनिया
यहाँ  भी किसी उधेड़बुन में लगी हुई माँ  नहीं
बस हमें वह घोसला दिख रहा था
जिसकी बनावट पर मुग्ध हो रहे थे हम सभी   
  
                                                                              संतोष चतुर्वेदी 




नाम- संतोष चतुर्वेदी 
जन्म तिथि- 2 नव.1971  
जन्म स्थान - बलिया 
सम्प्रति - प्रवक्ता (इतिहास विभाग) एम.पी.पी.कालेज  मऊ, 
               जिला -चित्रकूट , उ.प्र.  
इलाहबाद से निकलने वाली अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका  " अनहद " का संपादन 
 सभी प्रमुख हिंदी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओ में कविताये और लेख प्रकाशित 
इतिहास और संस्कृति पर लिखी पुस्तकों के अलावा " पहली बार " शीर्षक से 2010 में काव्य संग्रह भी प्रकाशित 
मो. न.-   9450614857 
ब्लाग - www.pahleebar.blogspot .com

    

सोमवार, 28 नवंबर 2011

चन्दन पाण्डेय की कहानी को पढ़ते हुए...


चन्दन पाण्डेय की कहानी-जमीन अपनी तो थीके बहाने                                                                      


            समाज में एक साथ कई धाराओं का प्रवाह चलता रहता है। किसी एक खास समय पर उँगली रखकर यह नहीं कहा जा सकता कि यही वह बिन्दु है, जिसने अब तक चलती आ रही धारा को अपनी तरफ मोड़ दिया है, फिर भी हम ऐसा प्रयास करते रहते हैं कि उन बिन्दुओं की शिनाख्त कर सकें, जहाँ से कुछ नया और सार्थक विकसित हुआ हो। समाज के साथ-साथ यही बात साहित्य पर भी लागू होती है। यदि हम अपनी इस पड़ताल को बीते दशक पर केन्द्रित करें और इसके विषय के रूप में हिन्दी साहित्य को रखें तब हम अपनी बात को अधिक व्यवस्थित तरीके से रख पायेंगे जिसे हम यहाँ कहना चाहते हैं।
            पिछले दशक में हिन्दी साहित्य की किस विधा में मौलिक और सार्थक परिवर्तन नजर आता है? और उन परिवर्तनों के कौन-कौन से वाहक रचनाकार है? कविता और कहानी के भीतर रहकर हम थोड़ा और सिमटना चाहते हैं। आज जिस एक विधा में सबसे अधिक रचनाएँ लिखी जा रही हैं, वह है कविता। लेकिन दुर्भाग्य देखिये कि यही वह विधा है, जहाँ पर सबसे कम नयापन और सबसे कम प्रयोग दिखता है। आज भी इस विधा पर उसी पुरानी पीढ़ी के दस-पन्द्रह लोगों का बर्चस्व दिखता है। प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः। प्रत्यक्ष अर्थ में यह कि यह पीढ़ी आज भी सक्रिय है और पूरे परिदृश्य पर अपनी रचनात्मक उपस्थिति के साथ देखी जा सकती है और अप्रत्यक्ष यह कि पूरी नयी पीढ़ी उस पुरानी पीढ़ी के प्रभाव में दिखाई देती है।
            कुँवर नारायण के विचार हांे, केदार नाथ सिंह के विम्ब हांे, चन्द्रकांत देवताले के तेवर हों, ज्ञानेन्द्रपति की एन्द्रियता हो, राजेश जोशी की भाषा हो या विजेन्द्र की लोकधर्मिता हो, नयी पीढ़ी  किसी न किसी रूप में इन अग्रज कवियों के बनाये खांचों से निकल नहीं पायी है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि मुक्त छन्द ने एक ओर जहाँ कविता को सरलता से बचाया है और उसे अधिक जनतान्त्रिक बनाया है, वही दूसरी ओर उसने उसे पिलपिला और लगभग अपठनीय भी बना दिया है। आज के कवि शायद इस छन्दमुक्तता का इतना दुरूपयोग कर रहे हैं कि अज्ञेय के ंलंगड़ा गद्यरूपक से भी तीखे रूपक का प्रयोग करने की ईच्छा होती है। तो कुल मिलाकर कविता के क्षेत्र में नयी पीढ़ी की संख्या और उनके द्वारा किये गये सार्थक हस्तक्षेप का सम्बन्ध व्युत्क्रमानुपाती ही बैठता है।
            लेकिन कहानी का परिदृश्य कविता से उलट दिखाई देता है। हम साहित्य की केन्द्रीय विधा केे बहस को छोड़ भी दें, जिसका आग्रह कहानी की तरफ झुकता दिखाई देता है और सिर्फ इस प्रश्न पर विचार करें कि नयी पीढ़ी ने कहानी के प्रचलित खाँचों को तोड़ने में और अपनी स्वतन्त्र पहचान निर्धारित करने में कितनी सफलता पायी है, तो भी यहाँ तस्वीर कविता से उलट और बेहतर दिखाई देती है।
            यह ठीक है कि आज भी कहानी की विधा में पुरानी पीढ़ी के कई महत्वपूर्ण हस्ताक्षर सक्रिय हैं और समय-समय पर उनकी कहानियाँ आती और चर्चित भी होती रही हैं लेकिन नयी पीढ़ी के कहानीकारों ने उस पुरानी पीढ़ी से हटकर अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई है। उदय प्रकाश, स्वयं प्रकाश, नवनीत मिश्र, अखिलेश और काशीनाथ सिंह जैसे पुराने नामों के आगे भी आज नाम खोजे और पढ़े जाते हैं। पिछले दशक में आये इस परिवर्तन को साफ-साफ देखा जा सकता है। कहना न होगा  कि इसका श्रेय रवीन्द्र कालिया को ही जाता है। यह वागर्थ ओर नया ज्ञानोदय के द्वारा उन्हीं की शुरूआत है, जिसको तद्भव, कथादेश, कथाक्रम परिकथा और पहल जैसी अन्य पत्रिकाओं ने विकसित किया है।
            एक समय ऐसा भी था जब नये कहानीकारों के प्रवेश को लेकर काफी नाक-भौं सिकोड़ा जाता था। रवीन्द्र कालिया को खरी-खोटी भी सुनाई जाती थी। बल्कि यह तक घोषणा की जाती थी कि ऐसे कितने बुलबुले साहित्य में आते-जाते रहते हैं, लेकिन पिछले दशक के पूरे कालखण्ड में नये कहानीकारों ने जिस प्रकार एक से बढ़कर एक चर्चित और कालजयी रचनायें दी हैं, वह  सचमुच विस्मयकारी है। चन्दन पाण्डेय, नीलाक्षी सिंह, पंकज मित्र, कुणाल सिंह, मो0 आरिफ, मनोज पाण्डेय, वंदना राग, उमाशंकर चैधरी, विमल चन्द्र पाण्डेय अनिल यादव, विमलेश त्रिपाटी और गौरव सोलंकी जैसे नयी पीढ़ी के कई हस्ताक्षर आज हमारे सामने अपनी सार्थक उपस्थिति को दर्शा रहे हैं। इन सबने कहानी की विधा में कुछ न कुछ जोड़ा है, उसे विकसित किया है और उसे गढ़ा है। इनके पास अपनी भाषा है, अपना शिल्प है, अपना प्रयोग है और बदलते हुये समाज को चिन्हित करने वाला कथ्य है। इनकी कहानियों में वह नयापन है, जिसकी जरूरत शिद्दत के साथ महसूस की जा रही थी। भीड़ यहाँ भी है लेकिन कविता जितनी नहीं और ना ही उतनी निरर्थक। इस पीढ़ी के परिदृश्य में आने और एक दशक बीत जाने के बाद काफी कुछ सेटल होता दिखाई देता है। अब हमारे सामने इन सबके कम से कम एक संग्रह तो है ही, जिसके आधार पर हम कोई सार्थक राय बना सकते हैं।
            चन्दन पाण्डेय इन्हीं सार्थक नामों में से एक हैं। बल्कि यह कहना अधिक समीचीन होगा कि वे इन सार्थक नामों की सूची के शीर्ष पर गिने जाने वाले नामों में से एक है। परिन्दगी है कि नाकामयाब हैसे लेकर सितम्बर 2011 के हंस में छपी कहानी  जमीन अपनी तो थींतक का उनका सफर लगभग स्वप्निल रहा है। चन्दन ने इस दरमियान एक से बढ़कर एक कहानियाँ हमें दी हैं। रेखाचित्र में धोखे की भूमिकाभूलना, सुनो, जंक्शन, रिवाल्वर और नकार जैसी महत्वपूर्ण कहानियाँ आज चन्दन के खाते में है। पाठको को उनकी कहानियों का इन्तजार रहता है। वे जब भी लिखते है, पाठक उसे हाथों-हाथ लेते हैं।
            सितम्बर-2011 के हंसमें उनकी कहानी आयी है। जमीन अपनी तो थी। वैसे तो यह अंक रमेश पोखरियाल निशंक की कहानी के छपने के कारण कुख्यात होता लेकिन चन्दन की कहानी ने उसे विख्यात बना दिया है। इस कहानी को सामने से देखने पर एक थ्रिल का एहसास होता है। एक आदमी को, जिसे पंजाब के एक ऐसे शहर से दिल्ली पँहुचना है, जहाँ दंगा फैला हुआ है, कार में लिफ्ट मिल जाती है। वह संतोष की साँस लेता है कि अब वह सुबह तक दिल्ली पहुँच जायेगा। लेकिन सन्तोष कुछ ही समय बाद भयावह त्रासदी के रूप में बदल जाता है। लिफ्ट देने वाले दो युवक हैं, जो उससे अपनी पहचान साबित करने के लिए कहते हैं। वह शख्स हर सम्भव तरीके से उसे साबित करने का प्रयास भी करता है लेकिन वे सन्तुष्ट नहीं होते। दर असल उन्हें सन्तुष्ट होना भी नहीे है। उन्हें उसे परेशान करना है, उसकी परेशानियों से लुत्फ उठाना है। भले ही इस लुत्फ उठाने में उसकी जान तक चली जाये। उनका जालिमाना और बे सिर-पैर की हरकतों वाला व्यवहार इस अराजक होते समय की भयावहता की दास्तान बन जाता है। उस शख्स को बुरी तरह से मानसिक और शारीरिक यातना दी जाती है। वह अपने को छोड़ने के ऐवज में अपना सब कुछ उन्हें दे देने के लिये तैयार हो जाता है। अफसोस! उसकी गिड़गिड़ाहट काम नहीं आती और वह मारा जाता है। दुखद यह है कि लिफ्ट देने वाले यही नहीं रूकते, वरन वे अगले शिकार की तरफ बढ़ते दिखाई देते हैं।
            ऊपर से देखने पर तो यह कहानी इस अराजक समय की मनोवृत्ति को बयान करती ही नजर आती है लेकिन मैं इसे दूसरी नजर से भी देखना चाहता हूँ।  आज का तन्त्र या कहें तों पूरी व्यवस्था ही हमारे साथ ऐसा ही व्यवहार करती नजर आती हैं। वह पहली नजर में हमें उम्मीद दिखाती है, हमारी मदद करने को आतुर दिखती है, हमारी मजबूरी से हमे उबारती दिखती हैं, लेकिन जैसे ही हम इसके भीतर प्रवेश करते हैं और उसकी गिरफ्त में चले जाते हैं, वह हमारे साथ कोई भी अमानवीय और अतार्किक व्यवहार करनंे में नहीं हिचकती। आप लोकतंत्र को ही लें, जैसे ही एक बार हम इस व्यवस्था की गाड़ी में बैठ जाते है, अपना अधिकार सौंप देते हैं, यह तन्त्र हमारे साथ किसी भी तरह के व्यवहार को करने के लिए स्वतन्त्र हो जाता है। वह न तो आपको छोड़ता है और न ही किसी मंजिल पर पहुँचाता है। आप इस भयावह तथ्य को तन्त्र के वर्तमान स्वरूप पर किसी भी तरह से लागू कर सकते हैं। चन्दन की इस कहानी पर आलोचक आुशतोष कुमार कहते हैं लोभ और लूट के राजकीय उदारीकरण के चलते लुटेरेपन, अपराध, हिंसा और फासीवादी मानसिकता का एक रूटीन और अनिवार्य सांस्कृतिक विकल्प के रूप में प्रकट होना स्वाभाविक है। ऐसे जटिल और अविश्वसनीय नतीजे को कहानी में साधना आसान नहीं होता। कथानक एक काल्पनिक, मानसिक प्रयोग की तरह निर्मित होता है, गोया पूछता हुआ कि सच्चाई अगर यूँ हो तो क्या-क्या हो सकता है। इस प्रयोग के अनुशासन को चन्दन इतनी कुशलता से सम्भालते हैं, कि कथानक के किसी भी घुमाव को काटा नहीं जा सकता।
            इस बेहतरीन कहानी के लिए चन्दन को बधाई देते हुए नयी पीढ़ी के कहानीकारों के लिए भी आभार के दो शब्द कहने की इच्छा होती है कि आप सबने साहित्य की इस विधा को गतिशील और लगातार विकसित करने में मदद की है। लेकिन ध्यान रहे कि यह तो शुरूआत है। सो सम्भलकर मित्रों। आपसे आशाएँ बहुत हैं।
                       
                        रामजी तिवारी
                        बलिया उ0प्र0
                        मो0नं0-9450546312


शनिवार, 26 नवंबर 2011

प्रतिबद्धता की किताब ------बलिया का गौरव

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                       

                                                    प्रतिबद्धता  की किताब

कुछ चीजों का चुपचाप आपके इर्द-गिर्द होना इतना महत्वपूर्ण होता है कि उनसे आपकी  पूरी दुनिया बनती-बदलती है  और आपको पता भी नहीं चल पाता..| किसी भी रचनात्मक विधा से जुड़े व्यक्ति को  केंद्र में रखकर इसकी पड़ताल की जा सकती है....आप जैसे ही खोज करने निकलेंगे ,पहली नजर में आपको हमारे  समय के खारिजी अश्वमेधी घोड़े नजर आयेंगे, जो पूरे रचनात्मक संसार को रौंदते चले जा रहे है..| आपको यह जानकार विस्मय होगा बावजूद इसके भी लोग  अपने रचनात्मक मोर्चो पर डटे हुए है...वे प्रतिदिन  इन घोड़ो के टापों के नीचे आते है, प्रतिदिन रौंदे  जाते है लेकिन प्रतिदिन एक नए संकल्प के साथ मैदान में डट जाते है..आर्थिक चादर को रुमाल में परिवर्तित होते देखना, अपने साथियों को पद ,प्रतिष्ठा और धन  के एवरेस्ट पर चढ़ते देखना और फिर अपनों के बीच ही उपहास का पात्र बनते जाने की प्रक्रिया बेहद सालने वाली होती है..ऐसे में आपको हर सुबह अपने चुनाव के संकल्प को दोहराना होता है, उस प्रेरणा को जगाना होता है, जिसके बल पर यह जंग जारी रखी जा सके...|

लेकिन क्या कभी आपने यह सोचा है कि आपके भीतर इस आग को जलाने के लिए लकड़ी और  तेल कौन उपलब्ध कराता  है..?  क्या वह बाज़ार हो सकता है, जिसके खिलाफ आपकी सारी लड़ाई चलती है..?   बिलकुल नहीं...आप हैरान हो जायेंगे उन लोगो के संघर्ष को देखकर , जो आपको बनाने-सवारने कि प्रक्रिया में दिन-रात एक किये रहते है... तमाम खरिजो के बावजूद आपको पढ़ने, सुनने ,जानने और समझने वाले लोग इस दुनिया में मिल जायेंगे, लेकिन नेपथ्य से आपको रचने वाले उन लोगो को कोई भी इतिहास और वर्तमान दर्ज करता नहीं मिलेगा...आसमान में उड़ती पतंगों को धरती कि गुमनामी से थामे असंख्य नामों कि सूची आपको प्रत्येक रचनात्मक विधा में कही भी मिल जायेगी...|    

मसलन मैं  स्थान के रूप में अपने शहर बलिया और विधा के रूप में साहित्य को लेता हूँ ....पहली ठोकर साहित्य के नाम को ही लेकर लगती है...हमारे समाज द्वारा   कोने-अंतरे में खदेड़ दी गयी यह विधा , आज सरकारी खरीद और बड़े प्रकाशकों के भरोसे साँस ले रही है...लेखक और पाठक दोनों छटपटा रहे है....ऐसे में बलिया जैसी छोटी जगह में पाठकों के भरोसे साहित्यिक पुस्तकों कि दुकान चलाने कि कोशिश अविश्वसनीय लगती है...लेकिन सरस्वती पुस्तक केंद्र  के मालिक श्री राजेंद्र प्रसाद इस अविश्वसनीय कारनामे को पिछले तीस सालो से करते आ रहे है...उन्होंने अपने साथी दुकानदारो कि बदलती प्राथमिकताओ को देखा है...किताबो कि दुकानों कि जगह मोबाईल , कोका-कोला, और अंकल चिप्स कि दुकानों ने ले लिया है और जिन कुछ दुकानों में किताबे बिकती है, वहा भी पाठ्य पुस्तकों की जगह श्योर सीरीज और पाकेट बुक्स ने ले ली है...  

राजेंद्र जी की यह दुकान मुख्य सड़क से चार बार विस्थापित होते-होते , साहित्य की ही तरह, एक गली के कोने - अंतरे में सिमट गयी है...जो चीज नहीं सिमटी है वह है उनका जज्बा और हौसला...इस छोटी सी दुकान  का बलिया में होना हमें दिल्ली , भोपाल, इलाहाबाद और पटना जैसे साहित्यिक केंद्र में होने जैसा नवाजता है...यहाँ आने वाले साहित्यकार  /पत्रकार पुरोधाओ में सर्व श्री केदार नाथ सिंह, शिवमूर्ति, विनय विहारी सिंह, भगवती प्रसाद दिवेदी   , शैलेन्द्र, उमेश चतुर्वेदी, श्री प्रकाश ,चितरंजन सिंह  और संतोष चतुर्वेदी जैसे कई नाम है.....अपने सीमित संसाधनों के बावजूद आप यहाँ हिंदी की सभी महत्वपूर्ण साहित्यिक और वैचारिक पत्रिकाए पा सकते है...सभी महत्वपूर्ण राष्ट्रीय समाचार पत्र हमारे शहर में इसी दुकान पर उपलब्ध होता है......यह खयाल आते ही कि यदि राजेंद्र जी की यह दुकान बलिया में नहीं होती , हमारी रूह काँप जाती है......बलिया के साहित्य प्रेमियों को इस साहित्यिक पूजा स्थल पर हर शाम देखा जा सकता है....   

पिछले तीन दशक का यह सफ़र इस दुकान के आसान तो नहीं रहा होगा...उसमे कई उतार चढ़ाव आये होंगे, लेकिन राजेंद्र जी एक सामान्य पुस्तक विक्रेता कि तरह  ही मुस्कुराते हुए कहते है  "किताबो के अतिरिक्त और किसी भी चीज की दुकान खोल लेने का विचार तो मेरे सपने में भी नहीं आता"...उनकी दृढ़ता को देखकर प्रतिबद्ध  नामों की सूची में कुछ और जोड़ने की ईच्छा होती है....उन बड़े नामों के नीचे इस तरह के नाम  को रखने में क्या हर्ज हो सकता है ? क्योकि ऐसे ही लोगो  ने तो इन बड़े नामों को अपने कंधो पर उठा रखा है...कवि मित्र संतोष चतुर्वेदी  कि पंक्तिया है    " ये मजदूर हैं   /   थकते नहीं  /  मिट्टी के बने मजदूर  /  मिट्टी कि तरह अपना अंतिम दंश  /  झोंक देते है  /  पेड़ो कि हरियाली में चुपचाप  |".....


रामजी तिवारी 
बलिया , उ.प्र.
मो. न.. 09450546312