युवा कवि शंभू यादव के कविता
संग्रह ‘नया एक आख्यान’ पर अजय कुमार पाण्डेय द्वारा लिखी गयी यह समीक्षा सिताब
दियारा के पाठकों के लिए ......
राजनीतिक विचार संपन्न कविताएँ
शम्भु यादव हिंदी के अपरिचित-से कवि हैं हालांकि इतने
अपरिचित भी नहीं. समय-समय पर इनकी छिटपुट कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में छपती भी रही
हैं. और इसका कारण यह है कि वे अपनी कविताओं के छपने-छपाने के प्रति प्राय उदासीन
ही बने रहते हैं. मित्रों के कहने पर कुछ कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में कभी-कभार
भेजी और छपने के बाद फिर चुप हो गए. वे रचना को समय की
क्रूरता का प्रतिवाद ही नहीं मानते बल्कि 'रचना को 'आदमी' का बचना भी मानते हैं' यह
मानते हुए , एक लम्बे समय से वह कविताएँ लिख रहे हैं लेकिन अपनी
इसी उदासीनता के चलते हमेशा अपना कविता-संग्रह छपाने से वे बचते रहे हैं. लेकिन
मित्रों की प्रेरणा एवं कहने पर उनका एक कविता-संग्रह 'नया
एक आख्यान' छपकर आया है. इसमें कुल पचपन कविताएँ संकलित हैं.
यह कविताएँ बहुआयामी जीवन-सन्दर्भों को समेटते हुए उनकी गहरी पड़ताल करती हैं.
संग्रह में संकलित छोटी, मझोले कद और लम्बी कविताओं में से
अपनी कद-काठी के हिसाब से छोटी कविताएँ काफी प्रभावशाली और सम्प्रेष्य हैं. संकलन
की अपनी एक छोटी-सी पहली कविता 'बिगड़ा आसपास' में
“ यह कैसी गाद फैली है
बीहड़ और बदबूदार
जहां भी पैर रखो, धंसते हैं
न इसमें पानी की सी तरलता
ठोसपन के सबूत भी नहीं ”
ऐसे ही सामाजिक परिवेश में कवि अपनी दादी पर लिखी ' हिसाब' कविता में पूछता है '
पहले बीनती थी जब भरी थाली से
दानों में से ककड़ियाँ या
कंकडियो में से दाने
जीवन के हिस्से ज्यादा आए दाने या
ककड़ियाँ
इस कविता में कवि को भले ही पूछना पड़ा हो अपनी दादी से कि
उसके हिस्से में दाने भी आए या सिर्फ ककड़ियाँ ही चुनती रही लेकिन कवि को अपने
जमाने से पूछना नहीं है. वह अपने समय से वाकिफ है.उसे मालूम है कि मानवीय
संवेदनाओं और संबंधों के अर्थ बदल चुके हैं. मुनाफ़ा और हित साधन रिश्तों की
बुनियाद बन रहे हैं. यहाँ हर कोई शिकार कर रहा है और शिकार की फिराक में बंशी
डालकर मछली-सा फंसा रहा है,
'कांटे में मछली फंसेगी या नहीं
फंसेगी तो कितने समय में'
यह हमारे समय की हकीकत है. हर कोई शिकार में लगा है. बाप
भी बेटे को यही समझा रहा है. मुनाफे की संभावना तलाश रहा है. जीवन-मूल्य, सामाजिक मूल्य, सामजिक दायित्व, नैतिकता, आदर्श आदि गए भाड़ में. बाप बेटे से कह रहा
है,
'झूठ के व्यापार में हाथ आज़माना
घुग्घू बन जाना सियार बन जाना
कुत्ते से वफादार ना बनना कभी
ईमानदारी सिद्ध हुई उल्टा लिया तीर
स्वार्थ फूला है आदमी के गालों पर
भाईचारे में खनकता है पैसा
इज्जत
चाहिए तो -
इकठ्ठा करो सोना-चांदी
देख! भुठा सेठ भी मजे से खाता
कलाकंद
ज्ञान व तर्क की गिलौरी चबाता है
जो , वह......"
देश को आजाद हुए काफी समय हो गए और हमारे देश की संसद ने
दुनिया का भीमकाय संविधान स्वीकार किया है , जो देश के समस्त
नागरिकों को विना किसी लिंग के आधार पर भेदभाव किए आत्मसम्मान सहित निर्णय लेने
एवं जीने के अधिकार की प्रत्याभूति देता है. और इस इक्कीसवीं सदी में काफी प्रगति
एवं उपलब्धियों के अनेक दावे किए जा रहे हैं. इसके बावजूद भी एक लडकी का प्यार
किया जाना जोख़िम भरे काम से कम नहीं है. लडकी का प्यार उसके और उसके प्यार के
भविष्य को कई आशंकाओं से भर देता है. ऐसे में एक संवेदनशील कवि का यह कहना
स्वाभाविक है कि , '
भीषण गर्मी में उड़ाते बालू के बीच
गौरैया द्वारा यह सब कर पाना आसान
नहीं
वैसे ही बहुत कठिन है
लडकी का प्यार करना भी
पर मेरा कवि मन पुरजोर लगाता है
गौरैया काँटों के बीच से
अपने को बचाती ले उड़े तिनका
डाल
तक पहुँच जाए
बगैर पंख नुंचवाए
लड़की का सफल प्यार
बना ले अपना घर
शम्भु अपने समय के राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परिवेश पर गहरी
निगाह रखने वाले सजग कवि हैं. वे एक और जमाने की 'कला'
की 'कलाबाजी' से सतर्क
हैं वहीँ दूसरी और साम्राज्यवाद के मति की गति भी पहचानते हैं. साहित्यिक और
सांस्कृतिक मूल्यों के सन्दर्भ में उनकी स्पष्ट धारणा है ,
'
कविता में जादू
ना बा ना, बख्श दो मुझे
इस खेल से !
माना कि यह मेहनत भरा कर्म है
पर....
और कवि का काव्य आदर्श है , ........'
पढ़ते-सोचते सजग हुआ जब मैं , पाया
गुजर रहा हूँ एक लुहार बस्ती से
चिलचिलाती धुप
गर्मी का भीषण प्रकोप
तेज साँसों की धौंकनी
भभकी हैं भट्ठी की लपटें
जीवन के काम आने लायक
आकार रूप ग्रहण करता सूर्ख लोहा
खिचड़ी ढाढी वाला सचेत बोलता है
‘घन
मार घन '.
साम्राज्यवाद के रंग, रूप और उसकी
सक्रियताओं को पहचानने वाले इस कवि को '
पता लग चुका है कि कुछ विदेशी चूहे
बिल बना रहे हैं हमारे खेतों में
ख़बर है कि कुछ देशी चूहे
उन्हें खदेड़ने की बजाय
उनसे सांठगांठ कर रहे हैं
और यही चूहे उसके घर में भी घुस आये हैं और घर की चीज़ों
को ‘कुतर’ रहे हैं. कवि यानि मौजूदा पीढी आलस से भरी और आजादी की लड़ाई लड़ने वाली
बुढी पीढी अब लट्ठ उठा पाने में असमर्थ अफ़सोस के सिवा कुछ नहीं कर पा रही तथा उन
विदेशी चूहों की 'कुतर-कुतर' से अनजान
बच्चे नींद में मगन सो रहे हैं. इस संग्रह की यह एक छोटी सी कविता 'आशंका' खेत-खलियान से लेकर घर-गृहस्थी तक के
साम्राज्यवादी हमलों को बखूबी प्रकट करती है तथा साम्राज्यवाद के सन्दर्भ में
हिन्दुस्तान की तीन पीढ़ियों की मनोवृति का उदघाटन करती है जो साम्राज्यवाद को
मजबूत कर रही है.
शम्भु यादव के संग्रह की यह कविताएँ अपने युग से संवाद ही
नहीं करतीं बल्कि मुठभेड़ भी करती हैं. कवि की इस मौजूदा व्यवस्था से गहरी असहमति
है और इसकी जगह एक नई दुनिया रचने का पक्षधर है. इस संग्रह की कविताओं में कवि का
जबरदस्त गुस्सा उभरता है. यह गुस्सा कुलीन मार्क्सवादी बुद्धिजीविओं का नहीं है
बल्कि कवि का अनुभव-जन्य गुस्सा है. विभिन्न विषय-वस्तु को आधार बनाकर रची गई यह
कविताएँ इस बात में साम्यता रखती हैं कि राजनीति ही इन सबकी अंतर्वस्तु है. यह
कविताएँ फैशनेबुल पाठकों को नहीं बल्कि सजग और सधे हुए पाठकों की मांग करती हैं. कविताओं
में कहीं-कहीं अनगढ़ापन दिखता है. कुछ कविताओं में जटिलता भी है. और आंतरिक तनाव भी
दिखता है. यह तनाव 'अस्तित्व' को बनाए
रखने का जो कवि का ही न होकर 'व्यष्टि से लेकर समिष्ट '
तक व्याप्त है. यह कविताएँ कथ्य और विचार के स्तर पर प्रतिबद्ध और
सचेतन कविताएँ है. उम्मीद है शम्भु यादव का यह संग्रह 'नया एक आख्यान' कविता
के पाठकों एवं साहित्य समाज का ध्यान खींचने में समर्थ होगा.
समीक्षित पुस्तक
'नया एक आख्यान'
(कविता संग्रह) ... 2013
लेखक - शम्भु यादव
दख़ल प्रकाशन , ग्वालियर , 302, आई -3
विंडसर हिल्स , सिटी सेंटर एक्सटेंशन
ग्वालियर -474002,
मध्य प्रदेश
समीक्षक ....
अजय कुमार पाण्डेय
ग्राम एवं पोस्ट --- नवानगर (वाया –देवकली)
जनपद- बलिया, उ.प्र. पिन- 221717
मो. न. 07398159483