रविवार, 25 अगस्त 2013

शंभू यादव के कविता संग्रह 'नया एक आख्यान' की समीक्षा

            




युवा कवि शंभू यादव के कविता संग्रह ‘नया एक आख्यान’ पर अजय कुमार पाण्डेय द्वारा लिखी गयी यह समीक्षा सिताब दियारा के पाठकों के लिए ......

               राजनीतिक विचार संपन्न कविताएँ 
                                                               


शम्भु यादव हिंदी के अपरिचित-से कवि हैं हालांकि इतने अपरिचित भी नहीं. समय-समय पर इनकी छिटपुट कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में छपती भी रही हैं. और इसका कारण यह है कि वे अपनी कविताओं के छपने-छपाने के प्रति प्राय उदासीन ही बने रहते हैं. मित्रों के कहने पर कुछ कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में कभी-कभार भेजी और छपने के बाद फिर चुप हो गए. वे रचना को समय की क्रूरता का प्रतिवाद ही नहीं मानते बल्कि 'रचना को 'आदमी' का बचना भी मानते हैं' यह मानते हुए , एक लम्बे समय से वह कविताएँ लिख रहे हैं लेकिन अपनी इसी उदासीनता के चलते हमेशा अपना कविता-संग्रह छपाने से वे बचते रहे हैं. लेकिन मित्रों की प्रेरणा एवं कहने पर उनका एक कविता-संग्रह 'नया एक आख्यान' छपकर आया है. इसमें कुल पचपन कविताएँ संकलित हैं. यह कविताएँ बहुआयामी जीवन-सन्दर्भों को समेटते हुए उनकी गहरी पड़ताल करती हैं. संग्रह में संकलित छोटी, मझोले कद और लम्बी कविताओं में से अपनी कद-काठी के हिसाब से छोटी कविताएँ काफी प्रभावशाली और सम्प्रेष्य हैं. संकलन की अपनी एक छोटी-सी पहली कविता 'बिगड़ा आसपास' में

“ यह कैसी गाद फैली है
बीहड़ और बदबूदार
जहां भी पैर रखो, धंसते हैं
न इसमें पानी की सी तरलता
ठोसपन के सबूत भी नहीं ”

ऐसे ही सामाजिक परिवेश में कवि अपनी दादी पर लिखी ' हिसाब' कविता में पूछता है '

पहले बीनती थी जब भरी थाली से
दानों में से ककड़ियाँ या
कंकडियो में से दाने
जीवन के हिस्से ज्यादा आए दाने या
ककड़ियाँ  

इस कविता में कवि को भले ही पूछना पड़ा हो अपनी दादी से कि उसके हिस्से में दाने भी आए या सिर्फ ककड़ियाँ ही चुनती रही लेकिन कवि को अपने जमाने से पूछना नहीं है. वह अपने समय से वाकिफ है.उसे मालूम है कि मानवीय संवेदनाओं और संबंधों के अर्थ बदल चुके हैं. मुनाफ़ा और हित साधन रिश्तों की बुनियाद बन रहे हैं. यहाँ हर कोई शिकार कर रहा है और शिकार की फिराक में बंशी डालकर मछली-सा फंसा रहा है,

'कांटे में मछली फंसेगी या नहीं
फंसेगी तो कितने समय में'

यह हमारे समय की हकीकत है. हर कोई शिकार में लगा है. बाप भी बेटे को यही समझा रहा है. मुनाफे की संभावना तलाश रहा है. जीवन-मूल्य, सामाजिक मूल्य, सामजिक दायित्व, नैतिकता, आदर्श आदि गए भाड़ में. बाप बेटे से कह रहा है,

'झूठ के व्यापार में हाथ आज़माना
घुग्घू बन जाना सियार बन जाना
कुत्ते से वफादार ना बनना कभी
ईमानदारी सिद्ध हुई उल्टा लिया तीर
स्वार्थ फूला है आदमी के गालों पर
भाईचारे में खनकता है पैसा
इज्जत चाहिए तो -         
इकठ्ठा करो सोना-चांदी
देख! भुठा सेठ भी मजे से खाता कलाकंद
ज्ञान व तर्क की गिलौरी चबाता है जो , वह......"  

देश को आजाद हुए काफी समय हो गए और हमारे देश की संसद ने दुनिया का भीमकाय संविधान स्वीकार किया है , जो देश के समस्त नागरिकों को विना किसी लिंग के आधार पर भेदभाव किए आत्मसम्मान सहित निर्णय लेने एवं जीने के अधिकार की प्रत्याभूति देता है. और इस इक्कीसवीं सदी में काफी प्रगति एवं उपलब्धियों के अनेक दावे किए जा रहे हैं. इसके बावजूद भी एक लडकी का प्यार किया जाना जोख़िम भरे काम से कम नहीं है. लडकी का प्यार उसके और उसके प्यार के भविष्य को कई आशंकाओं से भर देता है. ऐसे में एक संवेदनशील कवि का यह कहना स्वाभाविक है कि , '
भीषण गर्मी में उड़ाते बालू के बीच
गौरैया द्वारा यह सब कर पाना आसान नहीं
वैसे ही बहुत कठिन है
लडकी का प्यार करना भी
पर मेरा कवि मन पुरजोर लगाता है
गौरैया काँटों के बीच से
अपने को बचाती ले उड़े तिनका
डाल तक पहुँच जाए      
बगैर पंख नुंचवाए
लड़की का सफल प्यार
बना ले अपना घर

शम्भु अपने समय के राजनीतिक, सामाजिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परिवेश पर गहरी निगाह रखने वाले सजग कवि हैं. वे एक और जमाने की 'कला' की 'कलाबाजी' से सतर्क हैं वहीँ दूसरी और साम्राज्यवाद के मति की गति भी पहचानते हैं. साहित्यिक और सांस्कृतिक मूल्यों के सन्दर्भ में उनकी स्पष्ट धारणा है ,
'       
कविता में जादू
ना बा ना, बख्श दो मुझे  
इस खेल से !
माना कि यह मेहनत भरा कर्म है पर....  

और कवि का काव्य आदर्श है , ........'

पढ़ते-सोचते सजग हुआ जब मैं , पाया  
गुजर रहा हूँ एक लुहार बस्ती से
चिलचिलाती धुप  
गर्मी का भीषण प्रकोप  
तेज साँसों की धौंकनी  
भभकी हैं भट्ठी की लपटें
जीवन के काम आने लायक
आकार रूप ग्रहण करता सूर्ख लोहा  
खिचड़ी ढाढी वाला सचेत बोलता है  
‘घन मार घन '.                  

साम्राज्यवाद के रंग, रूप और उसकी सक्रियताओं को पहचानने वाले इस कवि को '

पता लग चुका है कि कुछ विदेशी चूहे  
बिल बना रहे हैं हमारे खेतों में  
ख़बर है कि कुछ देशी चूहे  
उन्हें खदेड़ने की बजाय
उनसे सांठगांठ कर रहे हैं  

और यही चूहे उसके घर में भी घुस आये हैं और घर की चीज़ों को ‘कुतर’ रहे हैं. कवि यानि मौजूदा पीढी आलस से भरी और आजादी की लड़ाई लड़ने वाली बुढी पीढी अब लट्ठ उठा पाने में असमर्थ अफ़सोस के सिवा कुछ नहीं कर पा रही तथा उन विदेशी चूहों की 'कुतर-कुतर' से अनजान बच्चे नींद में मगन सो रहे हैं. इस संग्रह की यह एक छोटी सी कविता 'आशंका' खेत-खलियान से लेकर घर-गृहस्थी तक के साम्राज्यवादी हमलों को बखूबी प्रकट करती है तथा साम्राज्यवाद के सन्दर्भ में हिन्दुस्तान की तीन पीढ़ियों की मनोवृति का उदघाटन करती है जो साम्राज्यवाद को मजबूत कर रही है. 

शम्भु यादव के संग्रह की यह कविताएँ अपने युग से संवाद ही नहीं करतीं बल्कि मुठभेड़ भी करती हैं. कवि की इस मौजूदा व्यवस्था से गहरी असहमति है और इसकी जगह एक नई दुनिया रचने का पक्षधर है. इस संग्रह की कविताओं में कवि का जबरदस्त गुस्सा उभरता है. यह गुस्सा कुलीन मार्क्सवादी बुद्धिजीविओं का नहीं है बल्कि कवि का अनुभव-जन्य गुस्सा है. विभिन्न विषय-वस्तु को आधार बनाकर रची गई यह कविताएँ इस बात में साम्यता रखती हैं कि राजनीति ही इन सबकी अंतर्वस्तु है. यह कविताएँ फैशनेबुल पाठकों को नहीं बल्कि सजग और सधे हुए पाठकों की मांग करती हैं. कविताओं में कहीं-कहीं अनगढ़ापन दिखता है. कुछ कविताओं में जटिलता भी है. और आंतरिक तनाव भी दिखता है. यह तनाव 'अस्तित्व' को बनाए रखने का जो कवि का ही न होकर 'व्यष्टि से लेकर समिष्ट ' तक व्याप्त है. यह कविताएँ कथ्य और विचार के स्तर पर प्रतिबद्ध और सचेतन कविताएँ है. उम्मीद है शम्भु यादव का यह संग्रह 'नया एक आख्यान' कविता के पाठकों एवं साहित्य समाज का ध्यान खींचने में समर्थ होगा.


समीक्षित पुस्तक

'नया एक आख्यान'  

(कविता संग्रह) ... 2013
लेखक - शम्भु यादव
दख़ल प्रकाशन , ग्वालियर , 302, आई -3  
विंडसर हिल्स , सिटी सेंटर  एक्सटेंशन  
ग्वालियर -474002,  मध्य प्रदेश 



समीक्षक ....

अजय कुमार पाण्डेय

ग्राम एवं पोस्ट --- नवानगर (वाया –देवकली)  
जनपद- बलिया, उ.प्र. पिन- 221717
मो. न. 07398159483

















बुधवार, 21 अगस्त 2013

एक दर्शक की निगाह में ईरानी सिनेमा - पहली कड़ी

                   
                                                                      माजिद मजीदी



                एक दर्शक की निगाह में ईरानी सिनेमा 


ईरानी फिल्मों को थोड़ा व्यस्थित तरीके से देखने की कोशिश कर रहा हूँ | सोचता हूँ , इस कोशिश में आप सबको भी भागीदार बनाता चलूँ | खासकर उन लोगों से , जिन्हें इन फिल्मों की थोड़ी-बहुत जानकारी ही है , और जो इस जानकारी और समझ को और विस्तार देना चाहते हैं | कहीं से भी इसे आधिकारिक और विद्वतापूर्ण बनाने का मेरा कोई ईरादा नहीं , क्योंकि उसके लिए फिर अलग से समय और तैयारी की जरूरत पड़ेगी , जो फिलहाल संभव नहीं दिखायी देती | इसलिए चाहता हूँ , कि इस प्रयास को सिर्फ और सिर्फ एक सिने-दर्शक के दिलो-दिमाग से उठने वाली प्रतिक्रियाओं के रूप में ही देखा-पढ़ा जाए |
             
            

        तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर यह पहली कड़ी ........



एशिया में जिन कुछ देशों में ‘सिनेमा’ के क्षेत्र में सार्थक काम हुआ है , उनमे ईरान काफी ऊपर आता है | अलबत्ता एक देश के रूप में उसने लगातार परेशानियाँ झेली हैं | 1950 के दशक में आरम्भ हुआ शाह का कठपुतली शासन रहा हो , या फिर 1979 से लेकर अब तक चल रहा धार्मिक हस्तक्षेप वाला शासन रहा हो , इन दोनों ने ईरानी समाज को जितना दिया है , उससे अधिक छीना  है | और फिर बाहरी दबावों को तो पूछना ही नहीं है | लगभग एक दशक तक अपने पडोसी देश ईराक से लड़ने के बाद ईरान को सांस लेने तक की फुर्सत नहीं मिली थी , कि उसके पश्चिमी और पूर्वी दोनों पड़ोसी देशों – (ईराक और अफगानिस्तान) - में आधुनिक दौर के दोनों बड़े युद्ध लड़े जाने लगे , और जो अभी तक किसी न किसी रूप में जारी हैं | अमेरिकी प्रोपेगंडा द्वारा घोषित ‘AXIS OF EVIL’ वाली छवि के विपरीत ईरानी समाज की स्थिति सम्पूर्ण अरब देशों में अलग और सार्थक तरह की है | न सिर्फ उसने ‘शरणार्थियों’ के सबसे बड़े रेले को झेला है , उन्हें शरण दी है , वरन अपने ‘खित्ते’ में वह अकेला देश भी है , जहाँ पर लोकतंत्र के कुछ चिन्ह दिखाई देते हैं |



इस आलोक में उसकी फिल्मों पर नजर डालते हुए हमारा सामना दो बड़े सुखद आश्चर्यों से होता है | एक - ईरानी समाज की संवेदनशील बुनावट के बारे में और दो – उस देश में सिनेमा के बनने और देखे जाने के बारे में | यह ठीक है कि वहां के सिनेमा में अभिव्यक्तियाँ खुले रूप से सामने नहीं आती , क्योंकि उस पर तमाम तरह की पाबंदियां लगी हुयी हैं | लेकिन वे त्वचा के नीचे जिन शिराओं और धमनियों में बहती हैं , वे हमारे दिलों को सीधे-सीधे उस देश और उसके समाज के साथ जोड़ने में कामयाब रहती हैं | दरअसल ईरान का सिनेमा संवेदनाओं का सिनेमा है , समझ के विस्तार का सिनेमा है , दिलों में लगातार घुमड़ते रहने वाले विचारों का सिनेमा है , हमारे भीतर सिनेमा को देखने की ईच्छा को पैदा करने वाला सिनेमा है और कुल मिलाकर सिनेमा को क्यों और कैसे देखा जाना चाहिए , यह बताने वाला सिनेमा भी है | आने वाले कुछ सप्ताहों में हम वहाँ के चुनिंदा निर्देशकों की चुनिंदा फिल्मों के सहारे अपनी बात को रखने का प्रयास करेंगे |




शुरुआत ‘माजिद मजीदी’ से करते हैं , जिनकी फिल्मों को , न सिर्फ ईरान में वरन दुनिया भर में जाना और सराहा जाता है | दर्जनों फिल्मों को बनाने वाले ‘माजिद मजीदी’ ईरान के उन आधुनिक निर्देशकों में शुमार किये जाते हैं , जिनके सहारे हम वहां के समाज की आतंरिक बुनावट को समझ सकते हैं | उनकी सबसे अधिक चर्चित फिल्म ‘चिल्ड्रेन आफ हैवेन’ है , जिसमें उन्होंने चमकते हुए तेहरान से बाहर के उस ईरानी समाज को दिखाया है , जो अपनी मुफलिसी और परेशानियों के बीच जीने लायक परिस्थितियों के लिए लगातार संघर्षशील है | यह सिर्फ उन दो भाई-बहनों की कहानी नहीं है , जिनके पास स्कूल जाने के लिए जूते नहीं हैं , और जो अपने अभिभावकों की मजबूरियों को समझते हुए उसे आपस में बदल-बदलकर पहनते रहते  हैं , वरन यह उस समाज की भी कहानी है , जिसमें चकाचौंध के पीछे ऐसी आम-सामान्य लोगों की अनगिन कहानिया छिपी हुयी हैं | यह उस समाज की भी कहानी है , जिसके बच्चों में इतनी संवेदनशीलता पायी जाती है , कि अपनी गुम हुयी जूतियों की पहचान हो जाने के बाद भी , वे उन्हें नहीं मांगने का फैसला करते हैं , क्योकि उन्हें पहनने वाली लड़की उनसे भी अधिक जरूरतमंद निकलती है | न कि उस आधुनिक (अमेरिकी) समाज की तरह , जिनके बच्चे स्कूल जाते समय आत्मरक्षा के लिए पिस्तौल रखने के विकल्प की मांग कर रहे हैं |



उनकी एक और फिल्म ‘द सांग आफ स्पैरो’ में भी हमें ईरानी समाज का वही सच दिखाई देता है , जो तेहरान की चमक से दूर किसी गाँव में अपने जीवन को बचाने के लिए और उसे बेहतर बनाने के लिए लगातार संघर्ष कर रहा है | कि , जो प्यास लगने पर भी लोभ और लालच के समन्दर में डुबकी नहीं लगाता , वरन इसके विपरीत अपनी प्यास बुझाने से पहले , अपने पसीने से धरती के होठ को भिगोता है | अभिनेताओं , अभिनेत्रियों और खलनायकों की परिभाषाओं वाली भारतीय फिल्मों के विपरीत , इन ईरानी फिल्मों के नायक-नायिकाएं बिलकुल उस आम ईरानी से तादात्म्य स्थापित करते दिखाई देते हैं , जिससे मिलकर उस समाज का ताना-बाना तैयार होता है | 




उनकी तीसरी फिल्म ‘कलर आफ पैराडाइज’ कलात्मक रूप से थोड़ी और गुथी हुयी फिल्म है , जिसमें एक बाप अपने जन्मांध बेटे को बोझ के रूप में देखता है , और किसी भी तरह से  उससे मुक्त होना चाहता है | उसके भीतर बार-बार यह आवाज उठती है , कि काश ! यह बला मेरे जीवन से टल जाती | कलात्मक दृष्टि से अद्भुत और जादुई असर वाली यह फिल्म कई स्तरों पर चलती हैं , और बताती है , कि समाज में हम जिन्हें अपंग या बोझ समझते हैं , वे दरअसल इस समाज में हमसे अधिक संवेदनशील तरीके से जीते हैं ,या कहें तो जीना चाहते हैं | जिनकी आँखें नहीं हैं , उनके भीतर वह दृष्टि होती है , जिसके सहारे वे ब्रेल लिपि के अक्षरों को  तो कागज़ के टंकित पन्नो पर पढ़ ही लेते हैं , उससे आगे बढ़कर , पक्षियों के कलरव में ,  नदियों की तलछट के पत्थरों में  , गेंहूं की उबड़-खाबड़ बालियों में  और आसपास से गुजरती हवाओं में भी , वे उन अक्षरों को ठीक-ठीक तरीके से चिन्हित कर लेते हैं | ये लोग हमें यह भी बताते हैं कि इस प्रकृति में कुछ भी अनायास नहीं है , और यह हमारी अपनी समझ की सीमा है , जो किसी को आवश्यक , और किसी को बेमतलब करार देती है | फिल्म का वह संवाद , जिसमें अँधा लड़का अपने पिता द्वारा एक कारखाने पर छोड़ दिए जाने के बाद अपने ही जैसे अंधे व्यक्ति से इस दुनिया की शिकायत करता है , न सिर्फ अद्भुत है , वरन दिल को चीरकर रख देने वाला भी है |




अपनी एक और फिल्म ‘द विलो ट्री’ में भी ‘माजिद-मजीदी’ एक अंधे व्यक्ति को ही नायकत्व प्रदान करते हैं , और बताते हैं कि इस दुनिया को देखने के लिए दृष्टि की जरुरत होती है , न कि सिर्फ आँखों की | यह फिल्म भी कई मायनों में अद्भुत फिल्म है | लेकिन मेरी नजर में उनका सबसे बड़ा काम ‘बरान’ फिल्म में दिखाई देता है | आतंरिक और बाह्य युद्ध की विभीषिका झेल रहे अफगानिस्तान से ईरान में लाखों लोगों का शरणार्थी के रूप में आने का सिलसिला हाल-फिलहाल तक जारी है | उन्ही शरणार्थियों के सहारे ‘बरान’ नामक यह फिल्म ईरानी समाज के उस द्वंद्व को उद्घाटित करती है , जिसमे एक तरफ तो उन शरणार्थियों को अपने देश में प्रवेश दिया जाता है , और दूसरी तरफ उनके अपने समाज के दबाव और तनाव इतने मुखर होते जाते हैं , कि इन शरणार्थियों के सामने जीने लायक कोई भी परिस्थतियाँ ,  बचती ही नहीं हैं | और फिर ‘माजिद’ की अन्य फिल्मों की तरह ही इसमें भी कई स्तरों पर चलने वाला जीवन अपनी सम्पूर्णता में मुखरित होता है | मसलन प्रेम को ही लें | अपने लिए किसी तरह से घिसटते हुए जीने की स्थिति को तलाशता हुआ युवक , एक अनकहे और अनबोले प्रेम के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देता है | यह सचमुच स्तब्धकारी अनुभव ही है ,कि  बिना एक लब्ज बोले ही , इस फिल्म की नायिका ‘बरान’ , की आवाज , फिल्म की समाप्ति पर हमारे भीतर गूंजती सुनाई देती है |





‘माजिद-मजीदी’ के सहारे ईरानी फिल्मों और उसके समाज को समझने का यह मेरा प्रयास है , जिसमें अपनी समझ को विस्तारित करने के लिए , आप चाहें तो उनकी अन्य दो फिल्मों – ‘ baduk’ और ‘the faather’ -  की सूची भी जोड़ सकते हैं |



अगली पोस्ट में हम ईरान के एक अन्य महत्वपूर्ण सिनेकार ‘जफ़र पनाही’ की फिल्मों को जानने – समझने का प्रयास करेंगे |


तो मित्रों ........ जल्दी ही मिलते हैं |



( और हां......... यदि आप अपनी टिप्पड़ियों के सहारे इस प्रयास को और अधिक समृद्ध करेंगे , तो मेरे लिए यह अत्यंत खुशी की बात होगी |  )   
                             




प्रस्तुतकर्ता                            

रामजी तिवारी
बलिया , उ.प्र.
मो.न. 09450546312