सिताब दियारा ब्लॉग पर प्रस्तुत
है आज
नवनीत
नीरव की कहानी
अंगेया
टनऽऽऽटनऽऽऽटनऽऽऽटनऽऽऽटनऽऽऽटनऽऽऽ....
सवेरे-सवेरे घरिघंट
के टनटनाहट की आवाज दूर तक जाती है। तवानुमा शक्ल वाले पीतल केघंटे पर लकड़ी के
मूठ से हो रहे प्रहार से निकल रही ध्वनियाँ, गाँव के अंतर में फैली टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से
सरसराती हुई निकलती हैं और गाँव के सीवान को बेधती हुई पार निकल जाती हैं। ठीक डीह
के पास से एक शवयात्रा गुजर रही है। डीह माने गाँव के बाहर दक्षिण-पूर्व दिशा का
ऊँचा स्थान, जहाँ लोग सुबह-सुबह शौच वगैरह से निवृत होते हैं। मरी हुई गाय,भैंस, बैल सब यहीं फेंके जाते हैं।
डीह से ही एक कच्ची
पगडण्डी शुरू होती है, जो गाँव से बाहर जाने का एक अतिरिक्त रास्ता है।
वैसे गाँव के अन्दर से और भी रास्ते हैं, बाहर निकलने के लिए। लेकिन ये रास्ते अर्थी ले
जाने के लिए नहीं हैं। मरी हुई गाय, भैंस सब इसी रास्ते ही डीह तक ले आयी जाती हैं।
फिर उनको डीह के कच्चे रास्ते से होकर पास के खोब्हड़ तक फेंकने ले जाना पड़ता है।
जहाँ आंखकढ़वा (गिद्ध), कौवे और गाँवों के ”मऊगे आवारा कुत्ते”जमकर दावत उड़ाते हैं।‘मऊगे आवारा कुत्तों‘ से अभिप्राय उन कुत्तों से है जिनकी गाँव के
घरेलू कुत्तों से घिग्घी बंधी रहती है।
डीह से चली यह कच्ची
राह मुसहर टोली के ठीक पास से गुजरते हुए गाँव की पक्की सड़क तक आती है। इसे ‘भट्ठी‘ कहा जाता है।‘भट्ठी‘ यानि गाँव का बस पड़ाव। बताते हैं पुराने समय
में यहाँ महुए से शराब निकालने की भट्ठी चलती थी। एक दिन गाँव के किसी बाबू साहब
ने यहीं भट्ठी पर नशे में चरपोखरी थाने के दारोगा बाबू की कॉलर पकड़ ली थी। सो एक
दिन छापामारी हुई। भट्ठी बंद। बस नाम भर रह गया है।
‘भट्ठी‘ पर इक्कादुक्का पान और राशन की गुमटियां हैं, जहाँ से मुसहर टोली के बाशिंदे खरीददारी करते हैं। एक विधायक कोटे से बना बस
पड़ाव का प्रतीक्षालय भी है, जो अभी तक ठीक-ठाक स्थिति में है।प्रतीक्षालय के
ठीक सामने यानि सड़क पार करने पर एक सरकारी स्वास्थ्य उपकेन्द्र है। नाम मात्र का।
वहाँ आज तक कभी डाक्टर नहीं बैठे। दरवाजे खिड़कियाँ गाँव वाले कबके उखाड़ ले गए
अपने-अपने घर।सालों तक यह भवन वीरान पड़ा रहा। सरकार ने स्वास्थ्य की किसी
परियोजना के तहत इस भवन का फिर से पुनरुद्धार करा दिया है। फिर भी दवा पिलाने और
सूई देने वाली दीदी वहां झक मारने के लिए भी नहीं जाती। सो गाँव के आवारा सांढ और
बड़ी दाढ़ी वाले बोके (बकरे) वहां निश्चिंत रूप से सोये-पड़े रहते हैं। एक महक
फैली रहती है उनकी...उनके आस पास।
स्वास्थ्य उपकेन्द्र
से सटा एक सरकारी विद्यालय है। उच्च प्राथमिक स्तर तक का।जहाँ नियमित रूप से कुछ
बच्चे और एकाध शिक्षक आ ही जाते हैं।इसलिए विद्यालय प्रांगण के बाहर मध्याह्न भोजन
के बचे-खुचे जूठन की दावत उड़ाने के लिए “मऊगे आवारा कुत्तों” का जमावड़ा होता है।
सड़क के उस पार बने
प्रतीक्षालय के बगल में एक पुराना ब्रह्म बाबा का चबूतरा है। गाँव से बाहर जाने
वाला और गाँव में आने वाला हर कोई बड़ी श्रद्धा से यहाँ माथा टेकता है। चबूतरे से
सटा गूलर का एक पुराना पेड़ है। बँसवारी और एक देवी स्थान भी पास ही है। यहाँ
ईंटों पर सिंदूर चढ़ाया रहता है। क्यों...? नहीं मालूम।मुसहर टोल के लोग वहां पूजा करते हैं, जिनके बारे में गाँव के लोगों को कभी कुछ जानने की जरूरत महसूस नहीं होती। हाँ, कब सूअर कटा है और किसके यहाँ आज महुए की दारु बनी है। गाँव के बाबू साहब
लोगों को जरूर पता चल जाता है। इसके बाद तो पूरी रात उसी मुसहर टोली में गुजरती
है।
बँसवारी के ठीक बगल
से एक पतली सी पगडण्डी पूरब की ओर आम के घने बागीचों की तरफ जाती है। उसी पगडण्डी
पर तकरीबन सौ मीटर चलने पर एक गड़ही के किनारे ताड़ के युगल खड़े दिखाई देते हैं।
यही गाँव की मुर्द्घटीया है। यहाँ आम के कुछ पेड़ भी हैं। जिसका फल गाँव में कोई
भी नहीं खाता। लोग बताते हैं कि आम ”धुअंत्तु” होते हैं।
यह इलाका ठेकही
कहलाता है। गाँव के बाहर एकदम खुली जगह। खालिस धान के खेत हैं यहाँ। गड़ही में
पानी गाँव के सीवान से गुजरने वाली छोटी नहर से आता है। जो पिछले चार-पाँच सालों
से बंद है। पहले लोगों को बताया गया कि नहर की झड़ाई का काम चल रहा है, इसलिए सोन नदी का पानी रोका हुआ है।उसके बाद पानी कभी नहीं आया। हरा-भरा
क्षेत्र एकदम-से मानों रेगिस्तान हुआ जाता है।
गाँव के ज्यादातर
लोग जिन्होंने अपने जीवन में कोई महत्वपूर्ण काम नहीं किया उनका दाहकर्म यहीं पर
होता है। पुरुषों में कभी-कभार कोई महापुरुष निकल भी आता है, पर गाँव की ज्यादातर महिलाओं का अंतिम संस्कार यहीं होता है। जो थोड़े समर्थ
हैं। पैसे वाले हैं और जो दिखावे में विश्वास करते हैं वे अपने यहाँ के बुजुर्गों
को बक्सर या फिर सिन्हा घाट ले जाते हैं। फिर एक महीने तक उसकी कथा-व्यथा गाँव में
चलती रहती है। असमय मृत्यु को प्राप्त होने वाले लोगों के अंतिम संस्कार का
कार्यक्रम भी यहीं होता है।
डीह से चली शवयात्रा
धीरे धीरे सरकती हुई गाँव की सड़क के समीप आ गयी है। धीमी आवाज में सामूहिक स्वर
है...
- “राम नाम सत है...राम नाम सत है।”
गाँव के राजपूत टोले
में एक जवान लड़के की मृत्यु हुई है- दसईया की। यह शवयात्रा उसी की है। अर्थी को
उसके चारों भाई कन्धा दे रहे हैं। गोतिया और गाँव के कुछ लोग अर्थी के पीछे
छोटे-छोटे और धीमे कदमों से जमीन नाप रहे हैं। अर्थी के सबसे पीछे है सतनारायण, जिसने अपने बाएँ हाथ से तवानुमा गोल और भारी घरिघंट को अपने चेहरे के ठीक
सामने, ललाट के सामानांतर टांग रखा है। अपने दायें हाथ में पकड़े लकड़ी के गोल
बेलनाकार मूठ से उस पर जोर-जोर से प्रहार करता है।
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बोल-बम की केसरिया
गंजी जिसपर गाढ़े लाल रंग के शिवजी छपे हुए हैं, घुटनों तक लपेटी हुई
धोती और माथे में हलके हरे रंग का चेकदार गमछा लपेटे हुए सतनारायण पसीने से लथपथ
हुआ जाता है। जेठ का महीना चल रहा है। सुबह छः बजे नहीं, कि सूरज देवता अपनी ड्यूटी पर मुस्तैदी से हाजिर और बरसाने लगे आग। ये मौसम की
गर्माहट थी या फिर भारी घरिघंट के उठाने में खर्च श्रम, सतनारायण के ललाट पर पसीने की बूँदें चुहचुहाने लगी थीं।
मनोज दसईया का सबसे
छोटा भाई हैै। बदन पर सिर्फ धोती लपेटे हुए शवयात्रा में वह सबसे आगे चल रहा है।
उसके हाथ में हांडी है, जिससे निकलने वाला धुआं कभी अर्थी और कभी उसके
साथ चल रहे लोगों को रह रहकर ढंकने की कोशिश करता है।
मंटू दूर विदयालय के
बरामदे से शव यात्रा को सड़क की तरफ आते हुए देख रहे थे। रकेसबा उनके साथ खड़ा है।
कल रात ही उन्हें दसईया के मौत की खबर मिल गयी थी। वह रात का खाना खाकर छत पर टहल रहे थे। अचानक उन्हें गाँव
के मध्य से औरतों के रोने की आवाज सुनाई पड़ी। उन्होंने पिताजी को बताया। उनके
पिता तुरंत ही गाँव में चले गए। लगभग आधे घंटे के बाद जब वापस लौटे तो उन्होंने
बताया
-
“टेंगर सिंह का बड़ा बेटा दसईया चला गया। लोग बता
रहे थे कि बहुत दारु पीता था। उसका सारा फेफड़ा गल गया था।”
मंटू का कलेजा धक्
से रह गया था।
पिताजी आगे बता रहे
थे।
- “घर में दसईया अकेला कमाने वाला था। ड्राईवरी से
कुछ मिल ही जाता होगा। टेंगर सिंह का दिमागी हालत जबसे जानता हूँ खराब है। इसीलिए
बियाह भी तो नहीं हो रहा था। लेकिन उनके बाबूजी थे बड़े जोगाड़ी आदमी। छपरा से कीन
ले आये थे टेंगर बो को और तब जाके बियाह हुआ था। फिर एक-एक करके सात बच्चे हुए। छः
भाइयों में दसईया सबसे बड़ा था और उसके बाद उसकी बहिन। टेंगर के बाबूजी जब तक
जिन्दा रहे। कुछ खास परेशानी नहीं हुई थी। उनके आँख मूदते ही सबकुछ चला गया। जिस
घर का पुरुष ठीक नहीं होता है उस घर की औरत को भी इज्जत नहीं मिलती। टेंगर बो
गोइंठा पाथ-पाथ के अपने बच्चों के साथ गुजारा करती थीं। जबसे दसईया दिलीप सिंह की
मिनी बस में खलासी हुआ तब से स्थिति थोड़ी सुधरी। फिर बस पर रहते-रहते उसने
ड्राइवरी भी सीख ली। ईमानदार तो था ही। दिलीप सिंह को गाँव का एक आदमी मिल गया और
दसईया को नौकरी। सब तो ठीक ही था लेकिन ड्राइवरी में आदमी का कोई चरित्र नहीं रहता
है। अब बताओ भला अट्ठाईस साल कौनो मरने की उम्र होती है। लोग बता रहे थे कि दसईया
पीने बहुत लगा था। खाना भी नहीं खाता लेकिन पीता था जरूर। अब शराब तो शराब है।
उसने सारा शरीर अन्दर से जला दिया...।”
और न जाने कितनी देर
तक पिताजी माँ से क्या कुछ कहते रहे। दसईया को याद करते-करते मंटू कब सो गये थे
उन्हें याद भी नहीं।
दसईया मंटू का दोस्त
तो नहीं था लेकिन थादोस्त जैसा ही । दसईया की उम्र अट्ठाईस की रही होगी तो मंटू
अभी दस-ग्यारह के ही हुए थे। मंटू रकेसबा और बभनटोली के लड़कों के साथ गाड़ी-गाड़ी
खेलते तो उसमें खलासी बनते। क्योंकि दसईया उस समय दिलीप सिंह की मिनी बस में
खलासीगिरी करता था। गाड़ी-गाड़ी के खेल में पुआल की पेटाढ़ी से मोटी रस्सी बनाई
जाती थी। फिर उस रस्सी के दोनों सिरों को मजबूती से बाँध कर एक घेरा बनाया जाता था, जिसमें रस्सी के घेरे के अन्दर खड़े होकर दोनों हाथों से उसे कमर तक रखकर
पकड़ना होता था। सबसे आगे ड्राइवर होता था और सबसे पीछे खलासी, जो कंडेकटरी भी किया करता था। बीच में गाँव के अन्य चार-पाँच बच्चे (रस्सी के
लम्बाई के हिसाब से संख्या कम ज्यादा हो सकती थी) खड़े होते थे, जो उम्र में ड्राइवर और खलासी से छोटे ही होते थे। इन सबमें रकेसबा सबसे बड़ा
था, इसलिए वह सबसे आगे खड़ा होता ड्राइवर बनने के लिए। मंटू सबसे पीछे घेरे के अंत
में रस्सी पकड़ कर खड़े होते। बीच-बीच में गाड़ी रोकी जाती और मंटू टिकट भी
काटते थे। इसी तरह हर शाम वे लोग
गाँव-खलिहान, बधार-सीवान...और कभी-कभी रोड पर भी गाड़ी-गाड़ी खेलते...दौड़ते...उधम मचाते।
हालाँकि बाद में दसईया जब ड्राइवर हुआ तो मंटू ने भी रकेसबा से अपनी ड्राइवर बनने
की ख्वाहिश जाहिर की थी। लेकिन रकेसबा ने खुद के उम्र में बड़े होने और समझदार
होने की बात कहकर उसे टाल दिया। रकेसबा कहता
-“देख मंटू, बड़ा आदमी समझदार होता है और ड्राइवर भी। अगर
समझदार आदमी को ड्राइवर नहीं बनाया तो गाड़ी का एक्सीडेंट हो जाएगा। समझे न।”
एक दिन जब मंटू टिकट
काट रहे थे तो एक छोटे से लड़के ने कहा
- “ई गाड़ी-गाड़ी का खेल झूठो का खेल है।”
मंटू ने पूछा- “काहे?”
- “काहे की तुम थेथर के पतई(पत्ता)का टिकट देते हो। हम लोगों के बुड़बक बनाते हो
जी?” लड़के ने जवाब दिया।
मंटू ने उस समय तो
कोई जवाब नहीं दिया। लेकिन जब खेल खत्म हुआ तो रकेसबा से बोले
- “देख रकेसबा! लईकन सब के लगता है कि हम लोग झूठो के गाड़ी चलाते हैं काहे कि
टिकट नकली देते हैं।”
रकेसबा बोला- “तऽ इसमें कौन बड़ा बात है। ले आयेंगे हम लोग असली वाला टिकट।”
मंटू बोले- “कैसे लाओगे असली टिकट?”
- “अरे दसईया से मांग लेंगे।” रकेसबा ने तपाक से उत्तर दिया।
- “तुमको का लगता है दसईया दे देगा हम लोगों को।”- मंटू ने भोलेपन से पूछा।
- “ई सब तुम हम पर छोड़ो। गाड़ी के ड्राइवर हम हैं न। हम बात करेंगे अपने गाड़ी
के लिए।” रकेसबा ने अपने साहस का परिचय दिया।
मंटू कुछ नहीं बोल
पाये। उन्हें लगता है कि रकेसबा उम्र में उनसे बड़ा है, इसलिए उनसे ज्यादा समझदार भी है।
शाम को मंटू और
रकेसबा दोनों ने डीह के तरफ लोटा लेकर जाते वक्त दसईया को गाँव में घुसते देखा था।
रास्ते में उसे रोककर पूछने की हिम्मत नहीं हुई थी कि
- “ए दसई! अपना गाड़ी वाला टिकट दोगे?”
इसलिए आँखों-आँखों
में फैसला हुआ कि अँधेरा होने पर उसके घर जाकर बात की जायेगी। अँधेरा गहराने की
ताक में था...झुलफुलाह। दसईया का घर गाँव के उत्तर दिशा में कउअवा टोल में था।
दोनों अपने घर में बिना बताए टेंगर सिंह के दुआर पर जा पहुंचे। मिट्टी की
मोटी-मोटी दीवारों और खपरैल वाला वाला घर था। दोनों घर के सामने बने मिट्टी के ओटा
पर जाकर खड़े हो गए। दोनों के बीच ये तय नहीं हो पा रहा था कि उसे कौन आवाज देकर
बुलाए। दोनों की आपस में खुसर-फुसर तेज हो चली थी। गली से गुजरने वाला हर शख्स
अँधेरे में खड़ी उन दोनों परछाईयों को आँखें फाड़-फाड़ कर पहचानने की कोशिश कर रहा
था
- “ई बभना के लइकवा सब रात के बेरा एह टोला में का कर रहे हैं?”
गाँव में हर कोई
बड़े से बड़े आदमी और छोटे से छोटे बच्चे को पहचानता है। ये दोनों तो बाभन टोली से
ही थे।
दोनों के लिए अब
आस-पास से गुजरते हुए लोगों की घूरती नजरों को सहना बहुत कठिन हो रहा था।
फिर भी दोनों के बीच
अभी तय नहीं हो पा रहा था कि कौन आवाज दे?
- “देख मंटू! हम उपाय बताए हैं न। इसलिए तुम आवाज लगाओ। दोनों आदमी को मिलकर गाड़ी
चलाना है न। है कि नहीं।” रकेसबा मंटू को बड़ी चतुराई से समझाने की कोशिश
कर रहा था।
थोड़ी देर की बहस के
बाद यही तय हुआ कि मंटू ही दसईया को आवाज लगायेंगे। इसलिए रकेसबा फुर्ती से उनके
पीछे हो लिया।
- “दसईया होऽऽ!... दसईया होऽऽ! घर में हो क्याऽऽ?” मंटू ने डरतेडरते आवाज लगाई।
- “कौन है?” दसईया की बहिन सीमा, जो दसईया से ठीक छोटी थी, ढिबरी लिए बाहर ओटे तक आई।
- “हम हैं मंटू” ढिबरी की रौशनी सेचैंधियाई हुई अपनी आँखों को
सीमा की तरफ फोकस करते हुए मंटू बोले।
- “के मंटू?” उसने गौर से मंटू के चेहरे की तरफ देखते हुए कहा।
- “मंटू! पंडिजी के लइका” इसबार रकेसबा बोल उठा।
- “हम त सोचे कि हमार बाबूजी पुकारे हैं। इ बाभन के लइकन के दोसर जात के बड़ा लोग
का चाचा, भईया कहे में जीभ टूट जाता है क्या?” सीमा ने थोड़ा गुस्से से व्यंग करते हुए कहा।
दसईया को बुलाने के
नाम से ही मंटू का आत्मविश्वास हिला हुआ था। सीमा के व्यंगात्मक लहजे से वह थोड़ा
झेंप गये। उन्हें सीमा की बात समझ में आ गई। उन्होंने अपना गला साफ करते हुए धीमी
आवाज में कहा।
- “दसई भईया घर में हैं क्या ?
- “वाह ! अब दसई भईया”...सीमा मुस्कुराई। “जरूर कौनो काम है इ बभनन के। तबे बात के सुर
नीचे लग रहा है? है न मंटू!
मंटू चुप रहे।
- “नहीं, ऐसे ही मिलना था जरा।” रकेसबा धीरे से बोला।
- “बड़ा इयारी है तुम दोनों में, गाँव में हर जगह एकही साथे दीखते
हो...रंगा-बिल्ला हो क्या?” सीमा फिर मुस्कुराते हुए बोली।
खामोशी थी वहां।
दोनों में कोई कुछ नहीं बोला।
- “ठीक है यहीं खड़े रहो..अभी खाना खा रहे हैं। भेजती हूँ उनको।” कहती हुई सीमा अन्दर चली गयी। जाते-जाते दबी जुबान से यह भी कहती गई...
“बाभन जात, अन्हरिया रात...एक मुट्ठी चुड़ा पर दउरत जास”
सीमा की बात दोनों के दिल में लग गयी। अभी
दसईया से काम है नहीं तो ये दोनों किसी को इतना बोलते सुनकर जरूर झगड़ पड़ते। टिकट
चाहिए था और पूरे गाँव में वह दसईया ही दे सकता था। इसलिए वे चुप रहे। नहीं तो
जियनन्द सिंह के बेटा आनंदवा को एही बात पर नहरी में लसार-लसार के मारा था रकेसबा। सीमा ठहरी एक तो लड़की ऊपर से
उनसे उम्र में भी बहुत बड़ी...कुछ नहीं करते तो गरिया जरूर देते। लेकिन फिर ठहरी
दसईया की बहिन। दोनों एक दूसरे का मुँह टुकुर-टुकुर देखते रहे।
थोड़ी देर में दसईया
गमछा से अपना हाथ पोछता हुआ उनके सामने खड़ा हुआ।
- बोलो मंटू! क्या काम है?
मंटू को समझ में
नहीं आ रहा था कि वह दसईया से कैसे बात शुरू करे। वह चुप रहे।
- “कौनो काम है का? बताओ हमके।” दसईया ने फिर पूछा।
इस बार उसके पूछने
से मंटू को हिम्मत बंधी।
- “दसई भईया! तुम दिलीप सिंह के गाड़ी पर रहते हो न।”
- “हाँ...रहता हूँ। इ बात त सारा गाँव जानता है। तुम भी तो उ बस से जाते हो न
बाजार।देखे नहीं हो हमके?”
- “मालूम है...हम त अइसहीं पूछ रहे थे...बात इ है कि हम लोगों को उस गाड़ी का
टिकट चाहिए।” मंटू ने सीधे-सीधे अपनी बात दसईया के सामने रख दी।
- “ठीक है...लेकिन टिकट का तुम लोग करोगे क्या?” दसईया उनकी बात का आशय नहीं समझ पाया था।
- “हम भी गाँव में गाड़ी चलाते हैं। उ रस्सी वाला। उसमें के लइकन सब कहता है कि
नकली टिकट...मतलब थेथर के पतई का टिकट मत दो। असली चाहिए। नहीं तो इ गाड़ी पर नहीं
चढ़ेंगे। एही से आपके पास आये हैं कि आप टिकट दिला दीजियेगा।” मंटू भोलेपन से सबकुछ बोल गये।
इतना सुनना था कि
दसईया को बाई सरक गया। वह ठट्ठा कर हंस पड़ा।
-“भाक बुड़बक पंडित”...वह हँसता ही जा रहा था। हँसते-हँसते उसके पेट में बल पड़ गए।
रकेसबा और मंटू उसको
इस तरह हँसते देखकर भकुआये हुए खड़े थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसी क्या
बात हो गई कि दसईया उनपर इतना हँस रहा है।
दसईया के छोटे भाई
भी बाहर आ गए। वो भी समझ नहीं पाए कि उनका भाई इतनी जोर से क्यों हंस रहा है।
दसईया ने हँसते-हँसते मंटू वाली बात सबको बता दी। वो भी हंसने लगे। रकेसबा और मंटू
झेंप गए। मंटू का मन रोने-रोने को हो आया। उन्होंने चुपचाप सिर झुका लिया और अपने
दायें पैर के अंगूठे से अपनी रबर की चप्पल को कुरेदने लगे।
दसईया ने बहुत
मुश्किल से अपने आप को संभाला और कहा-
- ठीक है पंडित, कल सबेरे साढ़े आठ बजे भट्ठी पर आ जाना। उसी समय
दिलीप सिंह की गाड़ी अपने गाँव से गुजरती है। हम टिकट वहीँ दे देंगे।
रकेसबा और मंटू को
लगा कि जैसे कोई बहुत बड़ा काम हो गया है। उन्होंने कहा-
-“जी भईया जी!”
-“अब एक बार भी ‘जी’ लगाओगे तो काम चलेगा। तुम लोग घर जाओ रात हो गई है। कल सुबह मिलना हमसे।”
- “ठीक है। सबेरे स्कूल जाने से पहले हम आपसे मिल
लेंगे और टिकट भी ले लेंगे।”
कहकर दोनों सरपट घर
भागे।
अगले दिन अपने वादे
के मुताबिक दसईया ने रद्दी टिकट (जिनका हिसाब मालिक से हो चुका था) के दो बंडल
मंटू और रकेसबा को दे दिया। दोनों की खुशी का ठिकाना न था। बाभन टोली से बाहर
दसईया ही एक ऐसा व्यक्ति था जिसे मंटू और रकेसबा “भईया” कहके संबोधित करते थे। हालाँकि रकेसबा की जीभ अभी भी बहुत मुश्किल से उलटती
थी।
दसईया के चले जाने
पर ये सब बातें मंटू को रह रहकर याद आ रही थीं। वे रकेसबा के साथ वहीँ स्कूल की
सीढि़यों पर बैठे हुये उसकी अर्थी को सड़क के रास्ते मुर्दघटिया की तरफ जाते देख
रहे थे। एक सामूहिक ध्वनि बार-बार उन्हें आकर घेर रही थी।
- “राम नाम सत है... राम नाम सत है...”
रकेसबा और मंटू की
खूब छनती है। वो इसलिए नहीं कि दोनों गाँव के बाभन टोली में पास-पास रहते हैं।
बल्कि रकेसबा मंटू के सारे प्रश्नों के जवाब रखता है। उनकी हर संभव मदद करता है।
उनसे उम्र में भी बड़ा है। वो सातवीं में पढ़ता है तो मंटू पांचवी में। गाँव में
केवल चार घर ही पंडिजी लोगों (ब्राह्मणों) के हैं। जहाँ से केवल यही दो बच्चे मंटू
और राकेश यहीं इसी विद्यालय में पढ़ते हैं।
विद्यालय में अभी तक
माट्साब नहीं आये थे क्योंकि उनकी साइकिल विद्यालय प्रांगण में नहीं दिख रही थी।
बिनइया मंटू के क्लास का मॉनिटर है। वही सड़क से माट्साब की साइकिल लाने जाता है।
मंटू को भी कभी-कभी मन होता है कि वह भी माट्साब की साईकिल लेने सड़क पर जाए। जहाँ
से वे साईकिल बिनइया को देकर खुद गुमटी पर पान खाते हैं और गाँव के लोगों का हाल
चाल लेते हैं। पर बिनइया कभी किसी को जाने
ही नहीं देता। वह आधे घंटे पहले ही विद्यालय चला आता है। अपना बस्ता स्कूल में
रखता है। फिर जाकर सड़क की गुमटी पर मास्टर जी का इंतजार करने लगता है। जैसे ही
माट्साब आते हैं, झुक कर दोनों हाथों से उनके चरण छू कर प्रणाम
करता है। फिर उनसे उनकी साईकिल ले लेता है और पैदल डगराते हुए स्कूल की तरफ चल
देता है। कभी-कभी जब माट्साब नहीं देख रहे होते तो वह लंगड़ी साईकिल चलाते हुए भी
विद्यालय ले आता है।
मंटू चाह कर भी कुछ
नहीं कर पाते। बिनइया पढ़ने में भी बहुत तेज है। लाख चाहकर भी मंटू का मन पढ़ाई
में नहीं लगता। घर में अम्मा के मार का डर और विद्यालय में हेड-मास्टर साहब के रूल
(शीशम का बना हुआ चिकना और मोटा डंडा जिससे बच्चों की पिटाई होती है) का डर नहीं
होता तो वह कभी स्कूल नहीं आते। उनका मन करता है कि रकेसबा के साथ दिन भर बगीचा
घूमे। नहर के किनारे आम जामुन बीने।आहर की करियई माटी से गाड़ी, चुक्का-चुक्की, घिरनई बनाये। दिन भर बिजली के तार की गाड़ी
बनाकर चलायें... लेकिन इन सब की अनुमति नहीं थी उन्हें। ये दिली ख्वाहिशें थीं
उनकी जो रह-रहकर उबल आती हैं...पर आज उनका ध्यान कहीं और था। एक दसईया जो चला गया
था।
- “राकेश, चलोगे दसईया को अंतिम बार देखने।” विद्यालय की सीढि़यों पर अपने पास बैठे रकेसबा
से धीमी आवाज में मंटू ने कहा।
- “चल सकते हैं...लेकिन माट्साब आ गए तो।”
- “अभी तो नहीं आये हैं न...”
- “हाँ, नहीं आये हैं...लेकिन पहुँचते होंगे। सरवा बिनइया आधे घंटे से गुमटी पर बैठा
हुआ है...अभी तक आया नहीं।”
- “दसईया हमलोगों का दोस्त जैसा था। हमेशा मदद किया करता था। ना त ई गाँव के लइकन
सब के देखे हो। अपना उमिर वाला सब...ए बाभन...ए बाभन कहते फिरता है सब।”
- “इसीलिए तो उन सबको ठोकियाते रहते हैं हम” रकेसबा थोड़ा गुस्से से बोला।
- “दसईया बाहर-भीतर जाता आता रहता था। दिल्ली,बम्बई, सूरत...वो जानता था कि कैसे व्यवहार किया जाता
है।”
- “हाँ, सही बोल रहे हो मंटू...ना त इहवां के सरवा बाबू साहेब के त लइकन सब अइन्ठाते
रहता है चैबीसो घंटे...चुहाड़ है सब।”
- “उ हमेसा बस में हमको अपने पास बिठा लेता था। वो भी ड्राइवर वाले गेट से
चढ़ाकर। उसको मालूम था कि भीड़-भाड़ में एक तो चढ़ने में हमको दिक्कत होगी और फिर
पिसाना पड़ता है पूरा रास्ता। ऐसे में कइसे आदमी दशहरा के मेला का आनंद लेगा !
- “हाँ...ई तो है। हम भी जब बाबूजी के साथ शुक्रवार के बाजार जाते थे न, तो हमको अपने ड्राइवर वाली सीट के पीछे बिठाता था...और हमारे बाबूजी को बोनट
पर अपना गमछा बिछाकर कहता था- पंडिजी बैठ जाईं।”- रकेसबा की आँखें छलक आई थीं।
- “तुम्हारी दीदी के तिलक में वही तो गाड़ी लेकर गया था...हनन-हनन गाड़ी चला रहा
था। कितना भी बड़का कोच बस रास्ते में मिली...लेकिन एगो भी पिछुआ नहीं पाई थी...।”
दोनों इस घटना को
याद करके गर्व से चैड़े हो गए।
- “तब का कहते हो चलना चाहिए...उससे अंतिम भेंट के लिए।”
- “चलो...इसमें सोचना क्या है। माट्साब अभी तक तो नहीं आये हैं।”
मंटू का मन हुलस
आया। अंतिम घड़ी भेंट तो हो जाएगी दोस्त से।
जैसे ही दोनों स्कूल
के मेन गेट पर पहुँचे, बिनइया माट्साब की साईकिल लेकर आता दिखाई दिया।
- “का पंडित लोऽग...किधर चले?
- “कहीं नहीं...” रकेसबा थोड़ा अकबका सा गया।
- “माट्साब आ गए हैं। ठेकही गए हैं दसईया के अंतिम संस्कार में भाग लेने। बोले
हैं कि प्रार्थना करवाओ तब तक आते हैं।
मंटू और रकेसबा की
सारी योजना धरी की धरी रह गई। जहाँ वे जाने की सोच रहे थे वहाँ तो माटसाब पहुँचे
हुए हैं। माटसाब के सामने जायें तो जायें कैसे? आखिरकार दोनों ने घाट पर जाने की योजना को स्थगित कर दिया।
बिनइया प्रार्थना के
लिए पंक्तियाँ बनवाने लगा। दोनों चुपचाप पीछे की तरफ खड़े हो गए। दोनों जरा उदास
से थे।
- “ई माट्साब बढि़या आदमी हैं...है न राकेस?” मंटू धीरे से बोले।
- “खाक बढि़या हैं। पढ़ाते लिखाते तो हैं नहीं खाली मारते तो रहते हैं।”- रकेसबा ने बिदकते हुए कहा। वह थोड़ा आश्चर्य में था कि मंटू ऐसे बोला.. तो
बोला कैसे?
- “तुम्हारी बात तो ठीक है....(थोड़ा चुप होते हुए)...लेकिन एक बात इनमें बढि़या
है। आन गाँव के होते हुए भी अपने गाँव के काज-परोजन में भाग लेते हैं। सबसे बढि़या
से मिलते जुलते हैं।”
- “हाँ...वो तो है...लेकिन पता नहीं स्कूले में इनका पारा क्यों चढ़ा रहता है....”
अभी रकेसबा अपनी बात
पूरी ही करता कि बिनइया ने जोर से एक भद्दी गाली दी...
- “सरऊ बाभन दिन भर का गुटुर-गुटुर करते हो...? प्रार्थना का समय
है। अब तो चुप हो जाओ थोड़ी देर के लिए।
रकेसबा तिलमिला उठा।
अभी वह उसको कुछ बोलता कि मंटू ने उसे चुप रहने का इशारा किया..
- “गलती अपनी है बेऽऽ...जाने दे।”
प्रार्थना शुरू हो
गयी थी।
“हे ईश्वर तेरा प्रेम
सबसे महान है...
आकाश के तारे, पर्वत समंुदर,
सबसे महान है...”
प्रार्थना खत्म हुई।
बच्चे अपने-अपने क्लास में गए। मंटू और राकेश अभी तक बरामदे में ही खड़े थे और
सड़क की ओर देखे जा रहे थे। तभी माटसाब दशइयां के अंतिम संस्कार से वापस लौट आए।
माटसाब ने कड़क आवाज में उन्हें फटकारा
- “हियाँ का नौटंकी चल रहा है?”
- “न...नहीं तो माट्साब!...” दोनों सकपकाए।
- “नहीं...तो हियाँ बरामदे में काहे खड़े थे...इधर आईंये।”
मंटू और रकेसबा
डरते-डरते माटसाब के पास पहुँचे।
माटसाब ने विनईया को
आवाज दी कि वो लोटा-बाल्टी लाये। उसके बाद उन्होंने अपना कुरता और पजामा उतार दिया
और चारखाने वाली अंडरवियर पर चापाकल की जगत पर बैठ गए। बिनइया बाल्टी लोटा ले आया
और चुपचाप वहीँ खड़ा हो गया। एक नहाने वाला और तीन नहलाने वाले।
- “हाँ त पंडित लोग हम अभी स्नान करेंगे। मुर्दाघटीया पर से जो आए हैं...ई तय कर
लो कि तुममे से कौन पानी चलायेगा और कौन हमारी पीठ रगड़ेगा।”
माटसाब से डर तो
दोनों ही रहे थे। पर पीठ रगड़ने वाली बात पर रकेसबा फनफना गया। लेकिन वह कहता तो
क्या कहता। मंटू ने समय की नजाकत को भांपते हुए माटसाब से कहा
- “राकेस चापाकल चला देगा।हम आपका पीठ मल देते हैं।”
रकेसबा बेमन से
बाल्टी में पानी भरने लगा। मंटू ठीक माटसाब की पीठ के तरफ इस इंतजार में खड़े थे
कि कब उन्हें पीठ मलने का निमंत्रण मिलता है।
- “मानव के लिए दो संस्कार ऋण जैसे हैं...जन्म संस्कार और मृत्यु संस्कार...दोनों
को पूरा करना बहुत ही जरूरी होता है...जैसे दसईया का आज दहन संस्कार हुआ...अब
श्राद्ध होगा...यही सब तो माया है भगवान की भईया...आज जो है कल नहीं है...।”
तीनों लड़के चुप थे।
बात थोड़ी-थोड़ी समझ में आयी थी। माटसाब धीमे-धीमे बोलते ही जा रहे थे...
- “तू पंडित लोगन के त सब मालूम होगा न...ई सब तौर-तरीका...सौ-दू सौ घर के
जजिमानी वाला पंडित है न तुम लोग...” माटसाब ने मंटू की तरफ देखते हुए इशारा किया कि
वो उनकी पीठ मले।
मंटू पीठ मलने लगे।
- “जर-जजिमनिका सीख रहे हो न मंटू...कि खाली अंगेया खाने जाते हो।” माट्साब मुस्कियाये।
मंटू से कुछ बोलते
नहीं बना। वह चुप ही रहे।
- बोल काहे नहीं रहे...(थोड़ी देर चुप रहने के बाद)...टेंगर सिंह का परिवार
तुम्हारे यजमान है न...माने दसईया के घर...दसईया को तो जानते ही होगे...भरी जवानी
में ही मर गया बिचारा।
- नहीं उसके यहाँ राकेस के बाबूजी जाते हैं...” मंटू ने सफाई देनी
चाही।
- “माटसाब जी...दसईया तो मंटू का दोस्त था।” बिनइया
अचानक से बोल उठा।
- हाँ...तब तो यह बढि़या बात है...जजमानी भले न सही...दोस्ती ही सही...अंगेया
खाने तो जा ही सकते हो...जाना जरूर। बरहमन के खाने से मरने वाले की आत्मा को
मुक्ति मिलती है...जानते तो होगे ही।
मंटू चुप रहे।
उन्हें चुप्पी ही भली लग रही थी। बोलने का मन नहीं हुआ। माट्साब नहा- धो कर पवित्र
हुए।
गाँव से बाहर आने पर
आहर के किनारे पीपल के दो विशाल वृक्ष हैं। जिनमें से एक पर गाँव की औरतें अमावस
को कच्चा सूत लपेटती हैं तो दूसरे पर घंट (मृतक को पानी देने वाला छोटा मटका)
लटकता है। ये दोनों क्रियाएं साल भर दोहराई जाती हैं। एक ही तरह के पेड़ों के साथ
दो भाव।
सुबह जब मंटू और
राकेश घर से स्कूल निकलते तो दसईया के परिवार के लोग मुँह धोते, नहाते, पानी देते दिख जाते थे। अभिभावक के नाम पर दसईया का एक मामा था। एक आध गोतिया
के लोग थे जिनको छूतिका (सूतक) लगा था...और छोटे भाई थे। मंटू को लगता कि उन्हें
भी इसमें शामिल होना चाहिए। दोस्ती का हक ऐसे ही तो अदा किया जाता होगा। लेकिन वह
नहीं कर सकते थे। अपनी माँ को उन्होंने घर पर पूछा था-
- “क्या हम दसईया को पानी दे सकते हैं...?”
उनकी अम्मा बिफर
पड़ी थी।
- “ब्राह्मण होके राजपूत के संस्कार में जाओगे। यही सीख रहे हो क्या? उनलोगों के आस-पास भी नहीं फटकना है...समझे। अकाल मृत्यु हुई है उनके यहाँ।”
- “लेकिन अम्मा ऊ हमारा दोस्त था...।”
अम्मा ने गुस्साई
हुई नजरों से उन्हें देखा...जिसका साफ-साफ मतलब था- “किसी भी कीमत पर नहीं।”
मंटू ने रकेसबा को
यह बात बताई। उसने भी कुछ इसी तरह की बात सुनाई। दोनों ने मिलकर तय किया कि अभी
किसी भी काम में वे नहीं जायेंगे लेकिन श्राद्ध में अंगेया जरूर खाने जायेंगे।
दसईया की आत्मा को किसी भी हालत में मुक्ति मिलेगी। जैसा उनके माट्साब ने उन्हें बताया था। दसईया ने उनके लिए इतना
कुछ किया था तो क्या वे उसके लिए अंगेया खाने भी नहीं जा सकते?? मंटू ने घर के सामने शिवालय की दीवार पर खपड़े से लकीरें खींचनी शुरू कर दी।
ठीक तेरहवें दिन भोज होगा। हर दिन वह नियम से एक-एक लकीर बढ़ा आते।
- “कल तेरहवीं है...मतलब अंगेया का दिन।” शाम को स्कूल से लौटते वक्त मंटू ने रकेसबा को
बताया।
- “कल अंगेया खाने हम नहीं जा सकते...”
- “काहे?” मंटू ने आश्चर्य से पूछा।
- “काहे कि इस साल हमारी दीदी का बियाह हुआ है। हम बियाह में पानी भी दिए थे और
लावा भी मेराये थे। इसलिए अम्मा बोली है कि नहीं जाना है।”
- अम्मा को बताए नहीं कि दसईया हम लोगों का दोस्त था...दोस्त की खातिर इतना भी
नहीं करोगे...वैसे भी तुम्हारी दीदी के बियाह में कितना खटा था वह। नहीं रहता न वो
त तुम्हारे घर का सब नाश्ता बाराती सब को मिलने के बदले गाँव के घर में घुस
जाता...सब सराती के यहाँ।”
- “बात तो तुम्हारी सही है। हम भी चाह रहे थे कि हम दोनों दोस्त मिलकर चलते।
लेकिन अम्मा एकदमे नहीं मानती...कहती है कि असगुन होता है।”
- “पर तुम्हारे बाबूजी तो सब काम- किरिया करा रहे हैं...उन्होंने ही तो तुम्हारी
दीदी का बियाह कराया है...उससे कुछ असगुन नहीं होगा क्या?”
- “अरे! तुम समझते नहीं हो न। उ तऽ सिर्फ काम-किरिया करायेंगे। अंगेया थोड़े ही न
खायेंगे...कल हम अम्मा को तुम्हारी माँ से बात करते सुने थे कि इ तऽ अकाल मृत्यु
हुआ है उसका...शराब पीने से...इस टोला में चर्चा है कि कौनो पंडित नहीं जाएगा
अंगेया खाने। उन्होंने तो तुम्हारी अम्मा को भी बोल दिया है तुमको नहीं जाने देने
के लिए।
- “इसका मतलब तुम कल साथ नहीं चल रहे।”
- “देख मंटू, इच्छा तो है...लेकिन अम्मा नहीं जाने देगी...इसलिए...”
- “कौनो बात नहीं है। हम अकेले ही जायेंगे।”
शामढल गयी थी। मंटू
की बहनों ने छत पर बिस्तर लगा दिया था।झक सफेद चाँद और झीनी सफेदी वाली चादर। मंटू
औंधे लेटे हुए कुछ सोच रहे थे।
शाम की बातें उनके
मन में अभी तक उमड़-घुमड़ रही थीं। रकेसबा ने तो स्पष्ट बोला दिया है कि वह नहीं
जाएगा। उससे ऐसी उम्मीद नहीं थी मंटू को। अचानक से रकेसबा कैसे बदल गया? यह सोच-सोचकर मंटू हैरान थे...और परेशान भी। अम्मा की बातों से ये तो स्पष्ट
था कि उन्हें भी शायद ही अंगेया खाने के लिए जाने को मिले। लेकिन वह इतनी आसानी से
उम्मीद नहीं छोड़ सकते। किसी और की बात होती तो शायद सोच भी सकते थे लेकिन यह
दसईया की बात थी। उनके अच्छे दोस्त की बात। जिसने उनकी मदद की थी। वह अम्मा से
निहोरा करेंगे। उन्हें मनायेंगे। पढा़ई में मन लगाने का वादा करेंगे...अम्मा मान
जाएगी... उन्हें विश्वास है।
जब से उन्होंने
अम्मा को देखना शुरू किया है वो घर के अन्दर ही रहती है।उन्हें नहीं मालूम कि
दसईया मंटू के कितना करीब था।
- “मंटू....” अचानक से किसी ने उन्हें पुकारा।
- “कौन...?”
मंटू अचानक ही
चिहुँक कर उठ बैठे। एक धुंधली- सी परछाई सामने थी। उन्होंने आँखे फाड़ कर उस
परछाईं को पहचानने की कोशिश की, पर असफल रहे। परछाई धीरे-धीरे उनके समीप आ रही
थी। मंटू की हलक से जैसे आवाज ही नहीं निकल रही हो।
- “कौन है ...?”
- “इतनी जल्दी भूल गए का पंडित....” एक अफसोस भरी आवाज गूँजी।
- “कौन....दसईयाऽऽ...(थोड़ा सम्भलकर)...दसई भईया?”
- “हाँ...मंटू” परछाई एकदम पास आकर खड़ी हो गयी। मंटू भय,असमंजस व हैरत में घिरे चुपचाप दसईया को ताक रहे
थे।
- “तुम्हारी अम्मा तो अंगेया खाने नहीं जाने देगी न!...अब क्या होगा मंटू...हमको
मुक्ति कैसे मिलेगी? बाभन टोल में से तो कोई भी नहीं आएगा।” इतना कहकर दसईया मुँह लटकाए वापस लौटने लगा।
मंटू जोर से चीख
पड़े थे...
- “अरे दसईयाऽऽ सुनो...।”
- “ई का बडबडा रहे हो मंटू।” बड़ी बहन ने तकरीबन उन्हें झकझोर ही दिया था।
मंटू ने चिहाकर
आँखें खोल दीं।
सुबह-सुबह मंटू
दालान पर मुँह धो रहे थे। तभी रकेसबा के बाबूजी उनके दरवाजे पर आए और उनकी बड़ी
बहन को आवाज दी। बहन बाहर आई। दोनों धीमे-धीमे कुछ खुसुर-फुसुर करने लगे। मंटू
अपने काम में लगे रहे।
तीन बजने को आए थे।
सूरज पश्चिम की ओर अग्रसर था। हाफ पैंट और गंजी पहने मंटू दालान में ही बैठे थे।
मंटू की बड़ी बहन पिछले एक घंटे से दो-तीन बार उन्हें खाने के लिए अंदर बुला चुकी
थी। वे टालते जा रहे थे। तभी दरवाजे पर आकर ललन नाऊ ने बीजे होने (भोज की बुलाहट)
की सूचना दी। मंटू जैसे इसी का इंतजार कर रहे थे। वे चहकते हुए घर के अन्दर दाखिल
हुए। अलगनी पर से अपनी शर्ट उतारी और जल्दी-जल्दी पहनते हुए दरवाजे की तरफ लपके।
उनकी अम्मा आँगन में
बैठी सूप से अनाज फटककर साफ कर रही थी। ललन नाऊ की आवाज उन्होंने भी सुनी थी। उनको
मंटू की मंशा भांपते देर न लगी। उन्होंने मंटू की बड़ी बहन को आवाज दी।
- “बड़की, किवाड़ पर सिकड़ी चढ़ा दे और मंटू के खाना निकाल।”
इतना सुनना था कि
मंटू के कदम जैसे अचानक ही जमीन से चिपक गए हो।
- “हम खाना नहीं खायेंगे। अंगेया खाने जा रहे हैं।”
- “अंगेया-वंगया नहीं खाना है। घर में खाना बना है। यहीं खाओ। अभी निकाल देते
हैं।“ बड़ी बहन ने दरवाजे की सिकड़ी लगाते हुए कहा।
- “नहीं हमको जाना है।” मंटू ने बड़ी बहन की बातों पर प्रतिरोध जताया।
- “कहाँ जाना है...?” अचानक से अम्मा अपना काम छोड़ मंटू के पास चली
आईं।
- “अंगेया खाने...दसईया के यहाँ।”
- “नहीं जाना है।” माँ ने उनका हाथ पकड़ते हुए कहा।
- “क्यों....वो हमारा दोस्त था।” थोड़ा चिढ़ते हुए मंटू बोले।
- “तो...”
- “मुझे जाने दो।”
- “नहीं! कौरी के देवता जइसे शांति से घर में पड़े रहो। बाहर निकले तो मारकर
हाथ-पैर तोड़ देंगे...समझे?” अम्मा ने आँखें तरेरते हुए कहा।
- “क्यों नहीं जा सकते हम...? सब लोग तो जायेंगे ही।”
- “अकाल मृत्यु हुई है दसईया की। जो भोज करेंगे उनके साथ कुछ अनिष्ट ही होगा।
इसलिए कोई नहीं जाएगा....तुम भी नहीं।”
- “उसने बहुत मदद किया है हमारी...हमको जाने दो न अम्मा!”
- “एक बार बोल दिया न कि नहीं...अब ज्यादा कुतर्क नहीं करो...बड़की इसका खाना
निकाल।”
इतना कहकर अम्मा
पुनः अपने काम में लग गयी।
मंटू उदास से बरामदे
में पड़ी चैकी पर बैठ गए। बड़ी बहन खाना निकाल कर ले आई। वे चुपचाप बैठे रहे। खाने
की तरफ देखा भी नहीं।
थोड़ी देर में घर के
बाहरी दरवाजे पर दस्तक हुई। मंटू की अम्मा जवाब में बोली
- “कौन है...?”
- “हम सीमा...”
- “कौन सीमा...?”
- “टेंगर सिंह के बेटी....”
इतना सुनकर अम्मा ने
खुद ही दरवाजा खोला..।
- “क्या काम है?”
- “श्राद्ध की पूजा खत्म हो गयी है। राकेस के बाबूजी मंटू को बुलाये हैं।
ब्राह्मण भोज के लिए।” सीमा ने धीमे स्वर में जवाब दिया।
- “लेकिन मंटू तो घर में नहीं है...गाँव में गया है।”
- “गाँव में गए हैं...कब तक आएंगे?”
- “अरे बहुत मनमौजी लड़का है...देखो कब तक आता है...इस टोला के सब बाबाजी लोग को
खबर दे दी हो...?” मंटू की अम्मा को सारी बातें मालूम थी। फिर भी
उन्होंने पूछ ही लिया।
- “सब के घर अंगेया-बीजे दोनों का खबर भिजवा दिया था पंडिजी और ललन नाऊ से। लेकिन
अभी एक बार खुद भी सबके यहाँ जाउंगी।”
- “ठीक है...जाना चाहिए। बिना ब्राह्मण भोज के श्राद्ध थोड़े न पूरा होता है”
- हाँ...लेकिन आप मंटू आए तो उन्हें भेजिएगा जरूर...कहाँ मिलेगा वो बता सकेंगी?
- “पता नहीं कहाँ मिलेगा”
- ठीक है मैं अभी अपने भाइयों को भेज कर गाँव में पता लगवाती हूँ...अगर इस बीच
वो आ जाए तो भेज दीजियेगा। पंडिजी बैठे हुए हैं दान-दक्षिणा के लिए।वो तो ब्रह्म
भोज के बाद ही होगा न।”
- “ठीक है...अगर वो आता है तो भेजती हूँ।”
बलाय टली। मंटू
अम्मा और सीमा की बातें सुन रहे थे। वह चुप ही रहे। खाने पर मक्खियाँ भिनभिनाने
लगी थीं। लेकिन उनका मन खाने को नहीं था। अम्मा ने उन्हें फिर से खाने के लिए कहा।
वह कुछ न बोले।
तकरीबन बीस मिनट के
बाद फिर दरवाजे पर दस्तक हुई। मंटू की अम्मा ने इस बार दरवाजा खोले बिना थोड़ा
झुंझलाते हुए आवाज दी। यद्यपि उन्हें अंदाजा हो रहा था कि कौन हो सकता है?
- “कौन है...?
- “हम...सीमा..” बाहर दसईया की बहन दुबारा आयी थी।
- ई बलाय फिर आ गईली...” मंटू की माँ गुस्से से मंटू को घर के अन्दर जाने
का इशारा करती हुई फुफुसाई।
- “मंटू पंडित घरे आए कि नहीं...?”
- नहीं...अभी तक तो नहीं आया है...मंटू की अम्मा ने दरवाजा खोलते हुए कहा।
- “पूरा गाँव छान आया हमरा भाई लोग...कहीं नहीं मिला...हाँ ललन नाऊ बताते थे कि
बीजे कराने के खबर देने समय वो उनको दालान में बैठे दिखे थे।”
इतना सुनना था कि
मंटू की अम्मा के ‘पैर का लहर कपार पर चढ़ गया’। खींसे निपोरते हुए वो बोलीं...
- “तुमको का लगता है कि पंडिताईन झूठ बोल रही है...बिस्वास नहीं है तुमको तो घर
में आकर देख लो।”
- “नहीं हमारे कहने का ये मतलब नहीं था...” सीमा हताश सी लग रही थी।
- “ई बताओ कि तुम मंटू के पीछे हाथ धो के काहे पड़ गयी हो। इस गाँव में ऊ एके
बाभन है का...जाओ और लोगिन के ले जाओ।” मंटू की अम्मा हाथ नचाते हुए बोल रही थी।
- “ऊ राकेस के बाबूजी बैठे हुए हैं न...पूजा कराके। बिना भोज के श्राद्ध कैसे
पूरा करायेंगे...?”
- “ई तो बढि़याझमेला है...श्राद्ध कराएं तुम्हारा उऽ पुरोहित...दक्षिणा भी सब खुद
ही लंे और भोज करें दूसर लोग...काहे कि अकाल मृत्यु हुआ है...जोग-टोक लग जाएगा...”
- “उ बता रहे थे कि इस साल शादी किया है बेटी का इसलिए....” अभी सीमा बात पूरी भी नहीं कर पाई थी कि पंडिताइन ने उसकी बात काटते हुए कहा
- ये तो बढि़या है...अपने को बचाने के लिए दूसरे के परिवार को सांसत में डाल
दो...मंटू बहुत सीधा मिला है न...सब उसी को खोजते हैं...मैं कहती हूँ नहीं जाएगा
तुम्हारे यहाँ ब्रह्म भोज में।जाने कौन ब्याध-बेमारी से मरा है तुम्हरा भाई? कुछ हो गया तो...हम तो अपने जजमान के यहाँ नहीं भेजते तो तुम लोग तो दूसरे के
हो...जाओ कह देना पंडिजी से कि ऐसे ही दान-पुण्य लेकर खत्म करें..मंटू घर पर
है...लेकिन नहीं जाएगा।
जाने कितने दिनों से
घर के दुःख में दबी हुई सीमा और उस पर से पंडिताइन की खरी-खोटी...वह फफक पड़ी।
- “अब रोना है तो घर जाओ...दो- चार आँसू दिखाने से मैं अपने बेटे को मुसीबत में
नहीं डालने वाली....कहकर पंडिताइन ने दरवाजा जोर से बंद कर दिया।
मंटू को जैसे अन्दर
जोर से चोट लगी हो। वह तिलमिला गये। छोटा बच्चा आखिर समझ नहीं पा रहा था कि अम्मा
किस परेशानी से उसे बचाना चाहती हैं।
सीमा रोती-सिसकती घर
चली गयी। गाँव के और ब्राह्मणों ने तो मना कर दिया था। एक आखिरी उम्मीद भी जाती
रही।
थोड़ी देर में ही
मनोज (दसईया का छोटा भाई) एक गमछे में बंधी पूरी, तरकारी और सूजी का
हलवा पंडिताईन के यहाँ दे गया। बिना ब्रह्मभोज के ही श्राद्ध कर्म संपन्न हुआ।
पंडिताइन ने उसे
ओसारे में पड़ी चैकी पर रख दिया। मंटू हुलस कर चैकी के पास आये।
- “नहीं....अभी नहीं।” मंटू की अम्मा ने उन्हें खाने को छूने से मना
किया।
मंटू ओसारे में
दूसरी तरफ पड़ी खाट पर लेट गये और
टुकुर-टुकुर गमछे में बंधे भोजन को देखते रहे। अम्मा चावल साफ करने में लगी रहीं।
तकरीबन एक घंटे के
बाद अम्मा ने मंटू की बहनों को आवाज दी कि वे थाली लेकर आ जाएँ।
मंटू की दोनों बहने
थाली लिए हुए आईं। अम्मा ने गमछा खोलकर सब्जी-पूरी को अलग-अलग रखना शुरू किया।
मंटू भी उत्सुकतावश पास में चले आए थे।
- देखो, मुअनी का पूड़ी है। इसलिए सबसे पाहिले घर में जो बड़ा होता है न...बड़ी औरत
उसके खाने के बाद ही इसको घर में और लोग खाते हैं।
मंटू को उम्मीद बंधी
कि अम्मा सबसे बड़ी है तो उसके खाने के बाद उसे भी श्राद्ध के खाने से कुछ मिल
जाएगा। दसईया के घर तो नहीं जा पाये। कम से कम उसके नाम पर यहाँ खा लेंगे तो जरूर
कुछ न कुछ फल उसे मिलेगा। उसे मुक्ति मिल सकेगी।
अम्मा ने बारी- बारी
से थोड़ी पूड़ी, सब्जी और हलवा चखा। उसके बाद दोनों थालियों में अभी पूड़ी रख ही रही थी कि
मंटू ने अचानक हाथ बढ़ाकर थोड़ा सा हलवा गमछे से निकालना चाहा। अचानक से
झन्नाटेदार तमाचा उनकी कनपटी पर पड़ा और वह जमीन पर लोट गये। बहनों को जैसे काठ मार
गया।
- “हरामी...तोह के हम मना किए न...कि तुमको नहीं खाना है। समझ में नहीं आता है? छाती पर चढ़ के मह देंगे तुमको। समझाओ तो भी समझता ही नहीं है। आने दो
तुम्हारे बाबू को तो बताते हैं।
मंटू सन्नाक रह गये।
वह केवल थोड़ा सा हलुआ ही तो लेना चाहते थे। उन्हें इसमें कुछ गलत नहीं लगा। फिर
अम्मा क्यों आग-बबूला हो गयीं? उनके चेहरे का एक भाग आँगन की धूल से लिसड़ गया
था। जहाँ की धूल धीरे-धीरे आँसुओं से गीली हो चली थी। वह जमीन पर चुपचाप पड़े न
जाने कितनी देर तक अपनी बहनों को पूड़ी-तरकारी और हलुआ खाते टुकुर-टुकुर देखते रहे।
गाँव के मध्य से
डोमों के सरदार की तेज आवाजें आ रही थी, जो सीधे ह्रदय के अन्दर आघात कर रही थी.... “जऽऽग पूराऽऽ”।
परिचय और संपर्क
नवनीत नीरव
युवा कथाकार
जन्म- गढ़वा, बिहार
मो. न. - 09693373733