रविवार, 29 दिसंबर 2013

वंदना मिश्रा की कवितायें



                                   वंदना मिश्रा 


युवा कवयित्री वंदना मिश्रा की कवितायें सहज-संवाद करती हुयी चलती हैं | न तो कोई अतिरिक्त चमत्कार और न ही भारी-भरकम दिखने की चाहत | सिताब-दियारा ब्लॉग ऐसे प्रत्येक सहज-संवादी-प्रतिभाशाली स्वरों का स्वागत करता है |  
                                                        
   
    तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर वंदना मिश्रा की कवितायें ..... 
                                                                     

एक ...

कुछ बेरोजगार लड़के

कुछ बेरोजगार लड़के न हो तो
सूनी रह जाए गलियां
बिना फुलझडि़यों के रह जाए दीवाली
बिना रंगों के रह जाए होली,
बेरौनक रह जाए सड़कें,
त्यौहारों का पता न चल पाए,
बिना इनके हुड़दंग के ।
मंदिर सूने रह जाए, बिना श्रृंगार के
यदि ये चंदा न उगाहें,
फूंके ट्रांसफार्मर दिनों तक न बने,
यदि ये नारे न लगाएं।
धरने प्रदर्शन तमाशों के लिए हमेशा
हाजिर रहती है इनकी ज़मात।
हम बड़े खुश होते हैं जब हमारी
सुविधाओं के लिए ये नारे लगाते हैं
या पत्थर फेंकते हैं,
पर सामने पड़ते ही
बिदक जाता है हमारा अभिजात्य,
हम इन्हें मुँह नहीं लगाते,
इनकी खिलखिलाहट खिझाती है हमें।
हम बन्द कर लेते हैं खिड़कियाँ, दरवाजें
इनकी आवाज़ सुनकर अजीब तरह से ताली बजाकर हँसते हैं,
नुक्कड़ पर खड़ा देख कोसते हैं हम,
लफंगा समझते हैं हम इन्हें,
और ये हमें स्वार्थी |
सचमुच, हम चाहते हैं ये नजर न आए हमें बिना काम।
पर इन्हें कहीं खड़ा रहने की जगह
न हम दे पाते हैं
न ही हमारी यह सरकार |


दो .....

कवि चाहता है

कवि चाहता है कि उसकी कमजोरियों को
देखे लोग सहानुभूति से, उसकी नादानियाँ
क्षुद्रताएं, कठोरता से न देखी जाएँ,
देखी जाए उसके कोमल मन के प्रभाव में लिपटी
माना जाय उन्हें साहित्य के प्रभाव से निकला
उसकी बेवफाई (जिसे वह प्यार से,
अतिरिक्त प्यार की तलाश कहता है,)
को स्नेहपूर्ण तरीके से (माफ़ किया जाय)
समझा जाय, वह प्रायः नाराज हुए लोगों को
सद्भावना से शून्य मानता है।
सोचता है, मेरे प्रेमी मन को समझ पाते
यदि होते ज़रा सा साहित्यिक,
मानता है कि जो संवेदनशील होगा
वह रेत में पानी जरूर देखेगा,
पर जरा सा संदेह होने पर कटखना
हो जाता है, अपने प्रिय के लिए कवि
सचमुच अपनी दूसरी दुनिया से बाहर
नहीं आना चाहता
और नहीं चाहता कि कोई आए
उसकी दुनिया में,
नहीं जानता कि बिना अन्दर आए
कैसे समझेगा कोई उसे
अपने राई से दुःख को पहाड़ की तरह देखता
कवि और दूसरों के दुःखों पर सिर्फ़ कविता
लिखता है,
चलता है, टेढ़ा-मेढ़ा कहता है समय है,
पर टेढ़ों से खौफ खाता है,
उसकी तीन चैथाई कविता उनके ही (टेढ़ों के)
खिलाफ़ है।

तीन .....

हमें बचपन से

हमें बचपन से सिखाया जा रहा था हमारा पराया होना
पर नींद में भी नहीं भूलता घर हमें
सीखा कुछ भी भूले नहीं इतनी बुरी तरह
हमें बताया गया था कि जिसकी धूल में गिरते
उठते सीखा चलना हमने, वह हमारा नहीं आँगन
इतना हीं नहीं इसमें रहने वाले लोग भी हमारे नहीं
हम पराएं हैं
बावजूद इसके कि इस घर में बसती हो हमारी साँसें
और यहाँ के लोगों में बसते हो हमारे प्राण
हमें धीरे-धीरे दूर करना है खुद से इस घर के
बरामदें आँगन, बगीचे और कमरों को।
पर कैसे यही नहीं बताया
गया हमें।
सो सीख नहीं पाएं अब तक।


चार ....
        
नया शिकार

मैं रोना नहीं चाहती थी
न रोना मेरी खासियत थी और लोगों की खीझ
मैं खामोश थी और लोग परेशान
मेरे रो सकने के तमाम कारण गिनाते थे
मुझसे ही और देते थे मौका रोने का
पेश करते थे सलीके से अपना कंधा
और तहाया हुआ साफ रूमाल
करते थे पेशकश दूर तक साथ चलने की
देते थे सलाह रो लेने की
डराते थे तमाम न रोने वालों के
किस्सों से जो अन्त में पागल ही हो गए
कहते थे कि जो दिल की बात कहकर
दिल खोलकर नहीं रोता
वह या तो पंखे से लटक जाता है
या जहर ही खाता है किसी दिन।
ऐसा तो नहीं था कि मुझे विश्वास हो गया
जन्नत की हकीकतमालूम थी मुझे भी
गालिब की ही तरह
लेकिन उनकी तरह दिल बहलाव नहीं था
मेरा टूटना,
मेरे धैर्य की इमारत हल्के छूने भर से
भहरा पड़ती है और रेत की तरह
निकल  पड़ती है तमाम बातें
मेरे आँसू निकल पड़ते है जब
तब लोगों को मेरे आँसुओं में
कोई दिलचस्पी नहीं,
वे निकल रहे हैं,
नए शिकार के लिए।



पांच ...

मैं कहती हूँ

मैं कहती हूँ ऐसा क्यों होता है ?
तुम कहते हो, ऐसा तो होता ही है।
तुम संकेत से कहते हो स्त्री को खरबूजा
और हँसते हो कहकर छुरी खरबूजे पर
गिरे या खरबूजा छुरी पर कटना है खरबूजे
को, मैं कहती हूँ
क्या स्त्री नहीं हो सकती छुरी
तुम कहते हो यह तो नियम है प्रकृति का
मैं कहती हूँ प्रकृति ने ऐसा नियम
क्यों बनाया ?
तुम कहते हो ऐसे प्रश्न पूछोगी तो
लोग पागल कहेंगे तुम्हें।
मैं कहती हूँ ऐसे प्रश्न पूछने वालों को
पागल क्यों कहते हैं ?



परिचय और संपर्क

नाम - डा. वन्दना मिश्रा
जन्म - 15 अगस्त, 1970
जन्म स्थान - जौनपुर, उत्तर प्रदेश
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित
शिक्षा - एम00, बी0एड0, पी0-एच0डी0
सम्पर्क - प्रवक्ता पी0जी0 कालेज, मिर्जापुर , उत्तर-प्रदेश
मो...  09415876779               

कविता संग्रह - कुछ सुनती ही नहीं लड़कीशिल्पायन से प्रकाशित।


बुधवार, 25 दिसंबर 2013

मोहन नागर के कविता-संग्रह की समीक्षा - महेश पुनेठा


   

       

        प्रस्तुत है युवा कवि मोहन नागर के कविता संग्रह “छूटे गाँव की चिरैया” पर युवा
               कवि-आलोचक महेशचंद्र पुनेठा की लिखी यह समीक्षा                   



                      जीवन महज संताप नहीं
                                         

कविता में स्थानीयता का अपना एक अलग ही सौंदर्य है। यह सौंदर्य इसकी विशिष्टता और विविधता में छुपा है जो एकरसता को तोड़ता हुआ वैश्विकता को समृद्ध करता है और उसको बहुरंगी-बहुस्तरीय बनाता है। पाठक को एक नया आस्वाद प्रदान करती है। पाठक एक नए भूगोल और संस्कृति से परिचित होता है। वह यह भी महसूस करता है कि भूगोल-इतिहास और संस्कृति भले ही अलग-अलग हो लेकिन संवेदना सब जगह एक ही है। मोहन नागर के सद्य प्रकाषित कविता संग्रह छूटे गाँव की चिरैयामें स्थानीयता के इस सौंदर्य को भरपूर देखा जा सकता है। उनकी कविताएं उनके कवि का पता बता देती हैं। पूछना नहीं पड़ता है कि यह कवि किस जमीन से आया है। छिंदवाड़ा क्षेत्र की प्रकृति ,समाज और वहाँ के जन का कठिन संघर्श इन कविताओं में मुखरित है। यत्र-तत्र आए उस अंचल की लोक बोली के शब्द और मुहावरे जहाँ हिंदी को समृद्ध करते हैं वहीं उस लोक को जीवंत करते हैं।
 
कवि जीवन की पूरी व्यथा-कथा बारीकी से इन कविताओं में आई है जो भले ही पहली नजर में कवि के जीवन की व्यथा-कथा लगती हैं लेकिन अपने प्रभाव में  दुनिया के किसी भी अभावग्रस्त गाँव के हर उस ग्रामीण की कथा है जो गरीबी और अभावों से लड़ते हुए इस पूँजीवादी दुनिया में अपने लिए थोड़ा-सा स्पेस बनाता है लेकिन अपनी जमीन को नहीं भूलता है। गाँव उसे रह-रह याद आता है। उसका मन गाँव लौटने के लिए कलपता रहता है। गांवों का कष्टप्रद जीवन पूरी व्यापकता से अभिव्यक्त हुआ है। जीवनानुभव के गहराई और ताजगी इन कविताओं की ताकत है। यह अच्छी बात है कि कवि अपनी कविता के लिए विशय वहीं से लेता है जहाँ से वह गुजरा है और जो उसने देखा-भोगा है।जीवन के कठोर और खुरदुरे अनुभवों को अनुभूति में बदलने की कला कवि को आती है। इसी के चलते ये कविताएं निजी प्रलाप होने से बच गई हैं। इन कविताओं में विचारबोध और भावबोध की अपेक्षा इंद्रियबोध की प्रधानता है। कहीं-कहीं पर बिंबों-रूपकों के चयन में लापरवाही  दिखाई देती है और कहीं-कहीं कविता कुछ फैल गई हैं।
 
समीक्ष्य संग्रह की  कविताओं में जहाँ एक ओर हमारा परिचय चने काटते हुए चैतुए,ढम्मक ढम ढोलक बजाती बन्नो ताई जैसे पात्रों से होता है जो अपनी कर्मठता और सादगी-ईमानदारी से बैठे-ठाले और बेईमान लोगों को मुँह चिढ़ाते हैं तो दूसरी ओर गरीबी और अभाव की पीड़ा-कश्ट-वेदना इन कविताओं के केंद्र में है। हम कतार में हैंकविता श्रृंखला में गरीबी का मर्मस्पर्शी चित्रण है ,जो दिल को दहलाने वाला है। जिसने वह जीवन जिया या नजदीक से देखा हो वही ऐसा चित्रण कर सकता है। इन्हें पढ़ते हुए इन कविताओं में कितनी कविता है ? जैसा प्रश्न पीछे छूट जाता है। पाठक जीवन की कठिनाइयों में कहीं खो जाता हैं। ऐसे कष्ट में जब जीवन हो तो कला की बात करना भी बेमानी लगने लगता है । कवि का यह कहना बिलकुल सही है कि गरीब हमेशा ही कतार में रहता है। कतार उसका पीछा नहीं छोड़ती है। जैसे वह कतार में ही लगे रहने के लिए पैदा हुआ हो।
 
प्रकृति के सुंदर दृष्यों के साथ-साथ कवि हमारे पर्यावरण में आ रहे परिवर्तनों को अपनी कविताओं में दर्ज करता है।साइबेरियनों का लंबे मौसम के बाद लौटना , राम चिरैया का मारा जाना ,गाँव में भी चिरैयों का कम दिखाई देना कवि की चिंता का विशय है। वह अपनी अभी भोपाल नहीं आयाकविता में अफसोस के स्वर में कहता है –

वो फूलों की क्यारियां कहाँ
जो आँखों को ठंडक पहुँचाती थीं
वो मीठी बड़झिरी गई
जो चांेच से टपकती जाती थी
अब नर्म मलमली घास के सीने पर
कंक्रीट की मोटी परत
धुआँ छोड़ती भाग रही हैं गाडि़याँ
.......सहम सिकुड़-सा चला है बड़ा तालाब


लेकिन कवि को संतोष होता है यह देखकर कि           



अब भी बची है कुछ जगह      
दौड़ी नहीं है जहाँ अब तक सड़क
लीले नहीं हैं घरों ने जहाँ
पेड़,घास,मैदान

लेकिन भविष्य उसे डराता है। कवि की यह डर-आशंका हमें सचेत करती है और आवाज देती है अभी भी समय है संभाल लो उसे जो बचा है अभी। अभिजात्य वर्ग और नई पीढ़ी का प्रकृति के प्रति नकारात्मक भाव कवि को बहुत खलता है।
 
बच्चों की दुनिया भी मोहन नागर से ओझल नहीं है। इनके माध्यम से कवि बचपन की डोर को फिर से पकड़ने की कोशिश में लगा है।साथ ही खिलौनों में बदलते जा रहे और वक्त से पहले बड़े हो जाते बच्चों की स्थिति पर अपनी चिंता व्यक्त करता है।पढ़ने का हुनरभी एक अच्छी कविता है। इसमें कवि की बालमन और षिक्षा की गहरी समझ झलकती है। बच्चा अपने अनुभव से कैसे सीखता है?इस बात को यह कविता खूबसूरती से बताती है।जीवन के बहुत से तजुर्बे होते हैं जो हम किताबों से बाहर ही सीखते हैं लेकिन दुर्भाग्य है कि उनको किताबों में कोई अहमियत नहीं मिलती। मेंशन नोटकविता में बच्चे और चिडि़या के बीच का खेल एक अलग ही आनंद प्रदान करता हैं। हम मनुष्यों से अधिक चिडि़या समझती हैं बच्चों को इसलिए तो लौट आती हैं उनके उदास चेहरों को देखकर ।कितनी कोमलता बसी है इस कविता में।
 
प्रस्तुत संग्रह में कुछ स्वकीया प्रेम की कविताएं हैं जो अपने प्रेम में बहा ले जाती हैं। जीवन को नई ऊष्मा से भर देती हैं। कवि का यह कहना -

तुम ना होती तो कब जाना पाता
जीवन महज संताप नहीं.....
उसे बेहतर सृजित किया जा सकता है
कभी भी
कहीं भी
किसी भी वक्त

जीवन में प्रेम की कितनी अहमियत है,इसको बता देता है। प्रेम ही तो है जो जीने की लालसा को बढ़ा देता है, असुंदर को सुंदर बना देता है और ठूँठ में भी नए कल्ले प्रस्फुटित कर देता है। उम्र के छल्लों को बढ़ा देता है। सृजन की अपार सभावनाएं पैदा हो उठती हैं। व्यक्ति अपने प्रेम पात्र की हँसी को बरकरार रखने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाता है-
        
मैं जुटाऊँगा तुम्हारे लिए
जीवन के तमाम रंग
काली गहरी उदासी के अलावा
तुम यूँ ही हँसती रहना बस    

पारिवारिक रिश्तों के प्रति जो स्वाभाविक प्रेम और स्नेह एक संवेदनशील व्यक्ति के भीतर होता है उसके दर्शन भी इन कविताओं में होते हैं .
  
युवा कवि मोहन की कविताओं में प्रतिरोध भी अपने ही तरीके से आता है । उदाहरण के तौर पर वो बच्चा हैकविता में इसे देखा जा सकता है।इस कविता में चिडि़यों के पक्ष में कौवों को भागना प्रतिरोध ही तो है बच्चे का। वह एक भी टुकड़ा नहीं लीलने देता कौवों को। आज अन्याय के विरोध में इसी तरह तो खड़े होने की जरूरत है, जिसका कि लोप होता जा रहा है। बच्चों को प्रतिरोध करना नहीं समझौता करना सिखाया जा रहा है। इस कविता में एक तीखा व्यंग्य भी छुपा है। कविता के अंत में

वो-बच्चा है
कहना बहुत कुछ कह जाता है
वो बच्चा है इसलिए विरोध कर रहा है
बड़ेतो इससे पहले लाभ हानि देखने लगते
 
 ’शहर सो रहा हैसंवेदनशीलता के खोते जाने की कविता है। आज जिस तरह की परिस्थितियां हो गयी हैं एक संवेदनशील व्यक्ति यही प्रश्न कर सकता है कि कैसे सो लेते है लोग गहरी नीद ?उसका भी मन करता है -कि छोड़ें पीछा ये आवाजें ....या इम्यून ही हो जाऊ.....जैसे ये शहर ।पर उसके वश में नहीं होता है ।वास्तव में यह ऐसा दर्द है जो एक संवेदनशील व्यक्ति के मन से उसके मरने के बाद ही जा सकता है।

कवि होना पर काया में प्रवेश करना है . इसके बिना अच्छी कविता नहीं लिखी जा सकती है।चुन्नौर की खुशबूमें यह बात देखी जा सकती है | माँ होने का अहसास भर एक स्त्री को कितनी खुशी या आनंद से भर देता है यह इन पंक्तियों से महसूस किया जा सकता है-

ये खुशबू
जो अभी पहुंची तुम तक
जानते हो
ऐसे ही महकती हूँ इन दिनों   
जब से तुम पेट में आये हो
मेरे बच्चे

कितना सुखद अहसास है यह जो सामने वाले को भी सुख से भर जाता है। पिछले दिनों में प्रज्ञा रावत की एक कविता पढ़ रहा था जिसमें उन्होंने इसको भी एक सृजन की संज्ञा दी है। निश्चित रूप से सृजन कोई भी हो उसका सुख अद्भुत होता है । उस सुख का अहसास दूसरे तक एक अच्छा कवि ही पहुंचा सकता है।
 
इन संग्रह की कविताओं के बारे में संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि ये कविताएं गहरे जीवन राग से भरी ,स्थानीयता की जमीन पर खड़ी वैश्विकता की अपील करती हुई हैं जिनमें बिम्बों और रूपकों की ताजगी , कथ्य का नयापन , मनुष्यता की पक्षधरता , गहरी मार्मिकता , प्रतिरोध और बोधगम्यता आदि सभी कुछ है। ये कवितायेँ कथ्य और शिल्प की दृष्टि से ही नहीं बल्कि अपने काव्य-सरोकारों से भी हिंदी कविता के भविष्य के प्रति आश्वस्त करती हैं ।


समीक्षित पुस्तक

“छूटे गाँव की चिरैया”
( कविता संग्रह)
कवि - डा. मोहन नागर
प्रकाशक - मेधा बुक्स एक्स-11
नवीन शाहदरा , दिल्ली-110032   
मूल्य-200रुपए। 



समीक्षक ---

महेशचन्द्र पुनेठा
संपर्क- रा0 इ0 का0 देवलथल
जिला-पिथौरागढ़ , उत्तराखंड  

मो ... 09411707470