शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

दिल्ली की एक रात

मैंने भारतीय रेल को पहले ही आगाह किया था कि मेले से लौटते समय लेट मत होना | लेकिन फिर वह भारतीय रेल ही क्या, जो लेट होने की अपनी गौरवपूर्ण विरासत को छोड़ दे | लेकिन हम भी कम नहीं | लीजिये साहब ... ‘दिल्ली की एक रात’ की यादें ही लिख दी | शुरुआत इलाहाबाद में की और मुगलसराय के आउटर सिग्नल पर इसके पिछले एक घंटे से खड़े होने का लाभ उठाते हुए इसे पोस्ट भी करने जा रहा हूँ | अब होने दीजिये लेट ...मेरे पास और भी बहुत सारी योजनायें हैं | देख लूंगा मैं भी | हां ....नहीं तो |

        फिलहाल ‘दिल्ली की एक रात’ का अनुभव आप सबके लिए |   



                         दिल्ली की एक रात




पुस्तक मेले में मेरे लिए वह खरीददारी का दिन था | इस कारण वहां से निकलने में थोड़ी देर हो गयी थी | रात के लगभग आठ बजे मैं अपने अतिथि-गृह पर वापस पहुंचा | तय कार्यक्रम के अनुसार मुझे डिनर के लिए अपने एक अजीज मित्र के घर जाना था, जिनसे काफी अरसे बाद मैं मिल रहा था, और जिसे लेकर मैं काफी उत्साहित भी था | मैं गया और जैसा कि उनसे मिलने पर अमूमन होता रहा था, मैं उस मुलाक़ात में डूब गया | यहाँ डूबने का मतलब कुछ और मत लगाईयेगा, क्योंकि हम-दोनों तो उस समंदर के किनारों से भी महरूम हैं | तो हमारे पास दुनिया-जहान की बातें थी, और उसे बाँट लेने की हड़बड़ी भी | इसी बीच लगभग साढ़े दस बजे मेरे मोबाईल की घंटी बजी | फोन बंगलौर से था और उस लेख को भेजने के लिए अंतिम आग्रह के रूप में किया गया था, जिसे मुझे अगली सुबह दस बजे तक हर-हाल में भेज देना था | वह उस पत्रिका की डेडलाइन होती है, जिसे मैं भी जानता था, और जिसके लिए मैं बलिया से निकलते वक्त वादा करके आया था | ऐसा कम ही होता है, लेकिन इस बार यह दुर्योग ही रहा कि यहाँ दिल्ली में पहुँचने के साथ ही मेरे दिमाग से वह बात स्लिप कर गयी | मैंने अपने मित्र से यह बात बतायी | उन्होंने ख़ुशी जाहिर कि मैं अपने मन की दुनिया का भी कुछ कर लेता हूँ, और जितनी जल्दी संभव हो सकता था, उन्होंने मुझे खाना खिलाकर अगली मुलाक़ात शीघ्र होने की कामना करते हुए विदा किया |


अतिथि-गृह पहुँचते-पहुँचते रात के ग्यारह बजे से अधिक का समय हो चुका था | हम जैसे गँवई लोगों के लिए लगभग आधी रात का समय | मैंने दिल्ली वाले मित्रों जैसा हौसला बटोरा और लेख के लिए लग गया | बात 1500 शब्दों को लिखने की नहीं थी, वरन उसको लिखने लायक मनःस्थिति तक पहुँचने की थी | बहरहाल रात के दो बजे मैं उसे सम्पादित करने में कामयाब रहा | अब बस सुबह उठकर एक बार वर्तनी और भाषा की अशुद्धियों को देखना भर रहा गया था, जो कि कंप्यूटर पर सीधे लिखने के बाद मुझे करना ही पड़ता है | जब काम पूरा हुआ, तो दिमाग पर चढ़े बोझ को थोड़ा हल्का करने के लिए फेसबुक पर भी जाना माँगता ही था | तो लगे हाथ आधे घंटे की एक यात्रा उसकी भी कर आया | और फिर अगले आधे घंटे नींद को बुलाने में लग गए | वह आयी | लेकिन अभी उसने मेरे ऊपर ठीक से चादर भी नहीं डाली थी, कि मेरे उन बलियावी-मित्र का जे.एन.यु. कैम्पस से फोन आया, जो मेरे साथ ही इस मेले के लिए बलिया से आये थे |


उन्होंने उसी चिर-परिचित अंदाज में कहा “ए महाराज , एक काम करिए न | जरा कंप्यूटर खोलकर यह तो देखिये कि अवध-आसाम एक्सप्रेस नयी-दिल्ली से जाती है या कि पुरानी दिल्ली से | सोचता हूँ कि उसे ही पकड़कर अमरोहा निकला जाऊं |” (बताता चलूँ कि उन्हें अमरोहा होते हुए बलिया जाना था, और तयशुदा प्रोग्राम के मुताबिक़ उन्हें पिछली शाम को ही अमरोहा चले जाना था |)


एकबारगी तो मन में झुंझलाहट हुयी, और मन किया कि मुन्ना-भाई एम.बी.बी.एस. में ‘बोमन इरानी’ जैसे बिस्तर से उठकर थोड़ी चहलकदमी करने के बाद एक शातिर फैसला लूं, कि नेट काम नहीं कर रहा है | लेकिन मेरे उन मित्र द्वारा मेरे ऊपर दिखाए गए अधिकार में मुझे मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस. के ‘बोमन ईरानी’ बनने से बचा लिया | “आखिर उन बेचारे को यह बात तो पता नही होगी कि मैं आज की रात तीन बजे तक जाग रहा था | उन्होंने मुझे पौने चार बजे इसीलिए तो फोन किया होगा कि मैं उनकी मदद कर सकूंगा | | मुझे उनके विश्वास की रक्षा करनी ही चाहिए | और फिर गाँव के लिहाज से अब थोड़ी देर में उठ जाने का समय भी तो हो गया है |” एक गिलास पानी पीने के बाद मेरे दिमाग की खिड़की उनकी तरफ थोड़ी और खुली |


लेकिन इस अतिथि-गृह में एक दूसरी समस्या भी थी | उस डारमेट्री में और पांच लोग भी सो रह थे, जिसमें मैं रुका था | उनमे से एक सज्जन रात को मेरे लेख लिखते समय बार-बार करवट बदलते हुए यह बात कहे जा रहे थे कि “जगह बदलने से नींद नहीं आ रही है |” हालाकि मेरे लिए उनकी अविधा में कही गयी इस बात को व्यंजना में बदलना कठिन नहीं था कि “आपके कंप्यूटर पर इतनी रात काम करने की वजह से मुझे नींद नहीं आ रही है |” लेकिन मेरे पास कोई और चारा भी नहीं था | और जो था, वह मैंने कर भी दिया था | मैंने सारे लाइटें बुझा दी थीं, और कम्यूटर की रोशनी में ही लिखने का काम कर रहा था | मैंने सोचा, इस शख्श ने  पहले ही मुझे रात के ढाई बजे तक कंप्यूटर पर काम करते हुए झेला है | अब मेरे लिए यह बहुत अश्लील होगा कि मैं फिर से कंप्यूटर को आनकर उनके धैर्य की परीक्षा लूं, और उनकी प्यारी सी नींद को चिकोटी काटने की गुस्ताखी करूं | मैं अपना लैपटाप लेकर कमरे से बाहर निकल आया | यहाँ मुझे अपने उस फैसले पर थोड़ी खीज उत्पन्न हुयी, जिसमें मैं अपने मोबाइल सेट को बदलने वाला निर्णय टालता आ रहा था, और जिसके अपग्रेड होने से मैं यह काम उस कम्बल में भी कर सकता था |


बाहर ठण्ड बहुत थी | लेकिन उसे झेलने के अलावा कोई और विकल्प भी नहीं था | मैंने लैपटॉप आन किया और वहीँ से अपने मित्र को फोन भी कि आपकी अवध-आसाम एक्सप्रेस ट्रेन पुरानी दिल्ली से जायेगी | और जिसके छूटने का समय आप सुबह के आठ बजे बता रहे हैं, वह 7.45 बजे ही है | उन्होंने मेरा धन्यवाद किया और फोन रखते-रखते यह भी जोड़ा कि मेरे मन में रात को ही यह विचार आया था कि मैं आपसे पूछ लूं, लेकिन यह सोचकर कि अब ग्यारह बज चुके हैं, मैंने फोन नहीं किया कि आप सो गए होंगे | “अरे महराज .... आप जो सोचेंगे, वह सब ठीक ही होगा | आखिर आप संपादक जो हैं |” और फिर उनकी मुक्त हंसी ने बात को काट दिया | (दरअसल वे उस पत्रिका के संपादक हैं, जो चार साल पहले हम लोगों के दिमाग में आयी थी, और अभी तक दिमाग में ही है | और मैं ? ...... चलिए बता ही देता हूँ | उस न निकल सकने वाली पत्रिका का उप-संपादक) |


घड़ी में इस समय सवा चार बज रहे थे | मैंने फिर से एक बार नींद का आह्वान किया | वह जल्दी ही चली भी आयी | लेकिन थोड़ी ही देर बाद एलार्म की घंटी बज उठी | मारे गए .... तो मैंने छः बजे का लगाया गया अपना पुराना एलार्म आफ नहीं किया था | बढ़िया है ......रमेश बाबू | यह सबक भी याद कर लीजिएगा | एलार्म को आफ करने के बाद मैंने सोने की एक और कोशिश की | लेकिन इस बार फोन पर मेरे लाडले थे | “क्या पापा ... साढ़े सात बज गया है, और अभी तक आप सो ही रहे हैं | मैं आपको तीन बार रिंग कर चुका हूँ | मैं अब स्कूल निकल रहा हूँ | गुड-मार्निंग कहने के लिए फोन किया था |” “गुड मार्निंग ..बेटे |” मैं अपनी सोती हुयी भारी सी आवाज में भर्राया |


और फिर दिन शुरू हो गया | नहाने के बाद मैंने वादे के मुताबिक़ अपना लेख एक बार और देखा, और मेल कर दिया | मेले में आज मेरा भी अंतिम दिन था और खरीदी जाने वाली किताबों की लिस्ट भी तैयार करनी थी | वह काम करने के बाद आज मिलने वाले दोस्तों को एक दो फोन किये और निकल पडा | निकलते समय दरवाजे के बाहर उन सज्जन से मुलाक़ात हुयी, जो रात को डारमेट्री में लगातार करवटें बदल रहे थे | बड़े अदब के साथ उन्होंने मुझे एक सलाह दी | “कंप्यूटर और मोबाईल ने आज के लड़कों की तो जिन्दगी ख़राब ही कर दी है | कम से कम आप जैसे लोगों को तो समझना ही चाहिए | रात भर इस तरह से ही लैपटाप पर जमें रहकर आप जितना पायेंगे, उससे अधिक खो देंगे | देखिये भाईसाहब ...अन्यथा मत लीजिएगा | लेकिन यह ठीक नहीं है |” मैंने उन्हें भरोसा दिलाया कि मैं आपकी बात को ध्यान में रखूंगा |


बारह बजे दिन में मेरे ‘संपादक मित्र’ का अमरोहा से फोन आया | “ शुक्रिया महाराज ...... आपकी वजह से मेरी ट्रेन मिल गयी और मैं अमरोहा पहुँच गया | अपना खयाल रखियेगा |” और उसके थोड़ी ही देर बाद बैंगलोर से भी कि "आपने अच्छा लिखा है | हमारा बहुत शुक्रिया |" "बिलकुल" .... मुझे लगा कि ऐसे दोस्तों और ऐसे कामों के लिए एक-दो राते क्या, जिन्दगी की अनगिनत रातें जागी जा सकती हैं | और न सिर्फ जागी जा सकती हैं, वरन उस जागने पर ख़ुशी भी व्यक्त की जा सकती है | क्यों ....?


इस पूरे वाकये में बस एक बात समझने से रह गयी कि एक ही समय में, एक ही कार्य करते हुए हम सही और गलत दोनों कैसे हो सकते हैं | क्या मैंने कुछ गलत किया था ...? या कि उस करवट बदलने वाले सज्जन ने कोई गलत सलाह दी थी ...?  बताईयेगा ....|



प्रस्तुतकर्ता 


रामजी तिवारी
ट्रेन में बलिया जाते हुए
इलाहाबाद और मुगलसराय के बीच से .....



रविवार, 16 फ़रवरी 2014

सार्थक बदलावों वाली कहानियों का संग्रह - 'सत्यापन'








आज सिताब दियारा ब्लॉग पर प्रस्तुत है कैलाश वानखेड़े के कहानी संग्रह ‘सत्यापन’ पर लिखी मेरी यह समीक्षात्मक टिप्पड़ी
                                                 
                                                 
‘सत्यापन’ कैलाश वानखेड़े का कहानी संग्रह है | इसमें कुल नौ कहानियाँ हैं, और ये सभी कहानियां उस भाव-भूमि को केंद्र में रखकर लिखी गयी हैं, जिनमें हमारे समाज एक बड़ा तबका समय के एक लम्बे दौर में अमानवीय जीवन जीता आया है | दुर्भाग्य देखिये कि यह अमानवीय जीवन उसी समाज के शीर्ष पर बैठे लोगों ने इस बड़े तबके को रसीद किया है | ‘कैलाश वानखेड़े’ का यह संग्रह हमें यह भी बताता है, कि यह महज कहानी या कोई गल्प नहीं, वरन एक नंगी सच्चाई है, जिसे हमें न सिर्फ स्वीकार करना चाहिए ,वरन उसे सार्थक दिशा में बदलने का प्रयास भी करना चाहिए | इसलिए यह कहानी संग्रह समस्याओं पर तो उंगली रखता ही है, हमारे सामने प्रकारांतर से एक विकल्प भी सुझाता चलता है कि इस समाज को कैसा होना चाहिए |

ऊपर से देखने पर यह कहानी संग्रह एक सा नजर आता है, क्योंकि इसकी विषय-वस्तु उस क्रूर और अमानवीय समाज के इर्द-गिर्द ही बुनी गयी है | लेकिन अन्दर से पड़ताल करने पर यह पता चलता है, कि ऐसा करते समय अभी भी उन अमानवीयताओं में से कितना कुछ छूट गया है | जाहिर है, हजारों सालों की क्रूरताएं नौ कहानियों में तो समेटी भी नहीं जा सकती हैं, लेकिन जितना कुछ किया जा सकता है ,कैलाश वानखेड़े ने उसमें सार्थक करने का प्रयास किया है | इस संग्रह की कहानियां न सिर्फ सामाजिक भेदभाव, जातीय घृणा, झूठी श्रेष्ठता, छुआछूत और अमानवीय स्थितियों से टकराते हुए चलती हैं ,वरन संवेदनशील तरीके से उस वर्ग की आवाज भी बन जाती हैं, जिसने सदियों से ये क्रूरताएं झेली हैं | ये कहानियां उस परम्परागत सौन्दर्य-शास्त्र से अलग रास्ता भी चुनते हुए उसे सार्थक तरीके से विकसित भी करती चलती हैं | यहाँ कला के अपने पैमाने हैं, जिनमें कल्पना से अधिक यथार्थ भरा हुआ है | जहाँ समाज का रेखांकन तो है ही, झूठ और आडम्बर से लड़ाई भी है और अपनी बात को कह देने पर दिया जाने वाला बल भी |

‘सत्यापित’ इस संग्रह की प्रतिनिधि कहानी है, जो हमें उस विडंबना की तरफ लेकर जाती है, जिसमें संविधान और सरकार प्रदत्त सुविधाओं पर एक बड़ा ग्रहण लगा हुआ है | संविधान, जहाँ इन वर्गों को मुख्यधारा में लाने के लिए विशेष सुविधाएँ दे रहा होता है, तो दूसरी तरफ विडम्बना यह है, कि इन वर्गों के लोगों को ‘सत्यापित’ करने की जिम्मेदारी अभी भी उन्हीं लोगों के हाथों में बनी हुयी है, जो आज तक इनका शोषण करते आये हैं | तभी तो यह कहानी यह सवाल उठाती है कि “ जो हमें नहीं जानता, नहीं पहचानता, वही हमें सत्यापित करता हैं, और उसी न जानने वाले के दस्तखत से हमें जाना जाता है | कभी-कभी लगता है कि ये कौन लोग हैं, कहाँ से आये हैं जिनके पेन से तय होती है हमारी पहचान ?”(पृष्ठ स. १७) |  और अपने इन्तजार कराये जाने से तंग आकर, तब उसका पात्र इस सवाल को मुखरित करते हुए उस समूचे वर्ग की आवाज बन जाता है , “ साहब ....अब टेम तो हमारे पास भी नहीं है |” मतलब कि हम दरवाजे तक पहुँच गए हैं, इसलिए अब तो यही बेहतर है कि इस बात को समाज भी समझ ले |

‘तुम लोग’ कहानी उस पीड़ा को व्यक्त करती है, जिसमें यह समाज इन वर्गों को अपने आप से अलगाता आया है | यह एक मार्मिक और संवेदनशील कहानी है | एक अंश देखिये | “ तुम लोग ..तुम लोग ....दुकानदार कहता है तुम लोग ...सब्जी वाला कहता है तुम लोग ...तिवारी कहता है तुम लोग ...तुम लोग....तुम लोग ....| बोलते वक्त क्या रहता है इनके दिमाग के भीतर ?” (पृष्ठ स. – २९ ) | वही एक दूसरी कहानी ‘अंतर्देशीय पत्र’ में लेखक ने शिक्षा की महत्ता को दर्शाते हुए यह माना है कि सामाजिक-परिवर्तन में उसकी सबसे अहम भूमिका होती है | इस संग्रह की एक और अच्छी कहानी ‘महू’ है, जो डा. अम्बेडकर के जन्मस्थान को अपने लिए एक क्रांतिकारी स्थान घोषित करती है, और इस सवाल से टकराती है कि उच्च शिक्षा संस्थानों में पढ़ने के लिए पहुँचने वाले दलित लड़के–लडकियां इतनी बड़ी संख्या में आत्महत्या क्यों करते हैं ? आखिर वे कौन सी परिस्थितियां हैं, जिनमें व्यवस्था तो उन्हें पहुँचने के लिए रास्ता देती है, लेकिन समाज उन्हें जीने लायक परिस्थिति नहीं देता | कहानी कई स्तरों पर चलती है, और कई बड़े सवालों से टकराती है |

‘स्कालरशिप’ कहानी में भी कुछ ऐसे ही ज्वलंत सवाल हैं, कि व्यवस्था द्वारा उपलब्ध कराये गए अवसर समाज द्वारा कैसे ‘रिड्यूस’ किये जा रहे हैं | ‘कितने बुश कितने मनु’ कहानी में ‘मनुवाद’ की तुलना ‘बुशवाद’ से की गयी है, जहाँ पर ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाला सिद्धांत चलता है | संग्रह की अंतिम कहानी ‘खापा’ है, जो इस संग्रह की सबसे अच्छी कहानियों में से एक भी है | इसका शिल्प तो लाजबाब है ही, इसकी संवेदनशील बुनावट इसे बहुत ऊँचाई प्रदान करती है | जालिम व्यवस्था के अवशेषों को समाप्त कर देनें की गुहार लगाती हुयी इस कहानी में ‘कैलाश वानखेड़े’ के भीतर का कथाकार खुलकर मुखरित होता है |

कुल मिलाकर यह संग्रह काफी उम्मीद जगाता है | कहानी की दशा और दिशा के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन की ओर बढ़ने वाले प्रयास के प्रति भी | बस कुछ चीजें अखरती हैं | जैसे कि कहानियों की भाषा, जिसमें मराठी शब्दों का प्रयोग खटकने के स्तर तक मिलता है | और फिर कथाकार ने कुछ मुखरित अंतर्विरोधों पर भी बात नहीं की है | मसलन उस समाज में आगे निकल जाने वाला तबका क्यों और कैसे उसी विशिष्ट अभिजात्य वर्ग की तरफ बढ़ने लगता है, जिसके विरोध में उसने यह सारी लड़ाई लड़ी है ? आखिर वे कौन से कारक हैं, कि दलित-आरक्षण का सबसे अधिक मुखर विरोध उत्तर प्रदेश में राज करने वाली पिछड़े वर्ग की सरकार द्वारा ही किया जाता है ...? उम्मीद की जानी चाहिए, कि अपनी अगली कहानियों में कैलाश वानखेड़े इन जैसे कई और ज्वलंत सवालों से भी टकराने का प्रयास करेंगे | फिलहाल तो यह संग्रह उनसे काफी उम्मीद जगाता है |


कहानी संग्रह – सत्यापन
लेखक – कैलाश वानखेड़े
आधार प्रकाशन



प्रस्तुतकर्ता

रामजी तिवारी
बलिया , उ.प्र.    
मो.न. 09450546312






गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

नीलम पृष्टी की कविताएँ



मित्र अस्मुरारी नंदन मिश्र द्वारा उपलब्द्ध करायी गयी इन कविताओं को मैं उन्ही की टिप्पड़ी के साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ | उम्मीद करता हूँ कि उठ खड़े होने के इन लड़खड़ाते हुए प्रयासों को मदद करने के लिए आप अपने हाथों को आगे बढ़ाएंगे |

                                  
         प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर नीलम पृष्टी की कवितायें  



नीलम पृष्टी केंद्रीय विद्यालय पारादीप पोर्ट में अध्ययनरत कक्षा नवीं की छात्रा है। घर-बाहर में हिंदी का परिवेश नहीं है। हाँ! विद्यालय में हिन्दी को एक विषय के रूप में रखा है। वह हिंदी में लिखने का प्रयास कर रही है ।उसको इस भाषा में लिखने के लिए बहुत मेहनत की आवश्यकता है, जो वह कर भी रही है।

नीलम में एक सघन सम्वेदना है। वह बुराइयों से आहत हो जाती है और उत्तेजित भी। अपने स्तर पर प्रतिकार करना भी नहीं छोड़ती, किंतु हमारा समाज ऐसा है, जहाँ उसे कदम -कदम पर दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। ऐसे में वह प्रतिकार का स्वर अपनी कविता में रखती है।
भाषा में सुधार के बाद उसकी कविता मार्मिक बन गयी है...

                                                   ... अस्मुरारी नन्दन मिश्र



1.  मौन गीत
---------------

जिन्दगी की सांसें चलती गईं
चढता सूरज ढलता गया
कदम बढते भी रहे आगे
पर भूली नहीं जा सकीं
बीती हुई बातें

अँधेरी गुफा पर बना चित्र है किसका
किसने बनाया है इसे जाने-अनजाने

गुड़िया छोटी है
नहीं है अकल
पर चोट तो लगती ही है उसे
घाव तो बन ही जाता है
तन पर.....
मन पर.....

दिखते घावों पर मरहम लगा दिया तुमने
तुम्हारा काम खत्म हुआ
लेकिन मन के घाव तो रह गये
ज्यों-के-त्यों

दबाव झेलती रात ठहरी रही
फूटे नही कोई बोल
बहते रहे बस आँसू
और आँसुओं में पिघलती रही रात

पर पत्थर बन जमा दर्द
दिखला न सकी किसी को
सिर्फ़ गाती रही
अपनी ही जिन्दगी के मौन गीत
चुप...
चुप...
--------------------


2.कलियाँ कहती " मुझको भी समझो "
---------------

हर कली कुछ बोल रही है
सूरज को
तेरी धूप हमें सिखलाती
हरदम हँसना
सूरज! तू मत आ रोज सुबह
मुझे अब फूल नहीं बनना
एक पत्थर दिल के हाथ
जब लगती
जो न समझे हमको
मुझे ले जाता घर-मंदिर
मूर्ति के चरणों में

इस मंदिर को है अब धिक्कार
तेरी मूर्ति को भी
नहीं चढूंगी .....
नहीं गिरूंगी ....
अब तेरे चरणों में
मुझको भी हे आजादी
फूल बन खिलने की
हँस न सकूँ तो क्यों मैं खिलूँ
इन पौधों के कंधों पर
नहीं आउंगी ....
नहीं खिलूंगी .....
इस बगिया मे
--------------------

3.आँचल
--------

कैसे कहूँ.......
इस पल तुम्हें......
उन यादों को........
कैसे बताऊँ???

देखा किसने तुम्हे
ले रही जान जब मेरी।
बेटी हूँ पर..........
महा मोह
पाप की खानि
लेकिन क्या तुम्हारे लिए भी यही थी मैं
फिर कहाँ गया तुम्हारा वात्सल्य
ओ ममतामयी...

शरीर मे बहता खून
है लाल
लड़कोँ जैसा
क्या देखा तुमने खुद
कुछ नहीं थी खून की अहमियत

मार सको तो
मार भी  देना
मेरे खून मे आँचल डुबोना।
वह धब्बा कभी नहीं जायेगा
वह तुम्हारा ही खून है...

याद तो आयेगी मेरी तुमको
हर पल...हर दम....
आखिर आप एक माँ हो।
फिर क्यों हो इतनी लाचार कि
मुझे रख न सको दुनिया में,
सो न सकूँ
तुम्हारे आँचल की छाया मेँ....
---------------

4.एक तारा
----------

हर रात.........
हर शाम........
जब कोई पास न होता
जब कोई साथ न होता...
बस अकेलापन ही साथ निभाता
ढूँढ रहा उजाला यह मुसाफिर
इस नशा भरी निशा मेँ
जिँदगी मेँ
बस अँधेरा ही अँधेरा है
नीले नभ की नीम निशा मेँ
पर एक तारा है।



परिचय और संपर्क

नीलम पृष्टी

कक्षा नवीं में अध्ययनरत
केन्द्रीय विद्यालय पारादीप पोर्ट

उड़ीसा 

सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

दो कवितायें - रामजी तिवारी

    

                           रामजी तिवारी 
   

          सिताब दियारा ब्लॉग पर आज अपनी दो कवितायें


                 
    एक ...
  
   रेडीमेड युग की पीढ़ी

       
   धन,सता और ऐश्वर्य के पीठ पर बैठी
   कुलाँचे भरती इस बदहवास दुनिया में
   किसके पास है वक्त
   जानने,समझने और सोचने का
   कौन रखता है आजकल जमीन पर पांव ,
   जहाँ विचार बुलबुले की तरह
   उठते और बिला जाते हैं
   कैसे बन सकती है कोई धारा
   खेयी जा सके जिसके सहारे
   इस सभ्यता की नाव  |

 
   रेडीमेड युग की यह पीढ़ी
   रोटी और भात की जगह
   पिज्जा और बर्गर भकोसती ,
   बेमतलब की माथापच्ची को बिलकुल नहीं सोचती |
   कि क्यों जब खनकती हैं जेबें
   मैकडोनाल्ड और हल्दीराम की ,
   उसी समय चनकती है किस्मत
   रेंड़ी जैसे किसान की |

  
   रेमंड के शो रूम में गालों से
   सूतों की मुलायमियत मापने वाले दिमाग
   नहीं रखते इस समझ के खाने ,
   व्यवस्था यदि उकडू बैठी हो तो
   इतने महीन और मुलायम धागों पर भी
   टांग सकते हैं लाखों अवाम
   अपने जीवन के अफ़साने |


   कंक्रीट के जंगलों में रहते हुए
   आश्चर्य नहीं वह यह कहने लगे ,
   उगाते हैं लोहे को टाटा , सीमेंट को बिड़ला
   घरों को बिल्डर , ऐसी ही माला जपने लगें |


उत्पाद है यह के.बी.सी. युग की
विकल्पों से करोड़पति बनने का देखती है सपना
श्रम तो बस मन बहलाता है ,
इस प्रश्न के लिए भी भले ही
लेनी पड़ती है उसे ‘विशेषज्ञ सलाह’
पिता की बहन से उसका रिश्ता क्या कहलाता है |


नैतिक विधानों को ठेंगे पर रखती हुई
नाचती रहती है प्रतिपल
ज्योतिषी की अनैतिक उँगलियों पर
नहीं हिचकती करने से कोई पाप ,
कोसती ग्रह नक्षत्रों की चाल को
किसी तरह काबू में करने को उतावली
अकबकाई गिरती है ढोंगियों के आँगन में
‘इसी मुहूर्त में चाहिए सवा करोड जाप ’ |


रेडीमेड युग के घाँघ निकालते हैं ‘स्टाक’ से माल
‘बच्चा जब भी जरुरत हो आना’ ,
बानर की तरह घूरते – बुदबुदाते
बैठे चेलों की कतारों को दिखाते हुए
‘अरबों- खरबों जापों का रेडीमेड है खजाना’ |


हम पौधों के साथ बीजों को संजोने वाले ,
डरते हैं देखकर संचालकों के करतब निराले |
कि इनके जीवन का रेडीमेड
जो इतनी आपाधापी में चलता जाए ,
कहीं इनके हमारे साथ - साथ 
इस सभ्यता के अंत पर भी लागू न हो जाए |


दो ...
  
  बाजार में माँ
       


अपनी भाषा का नन्हा सा
अदना सा शब्द माँ
जीवन में उतरते ही
फैल जाता है आकाश की ऊँचाईयों में ,
रखता है हमारा ख्याल धरती जैसा ही
सिरजते संभालते पोसते पालते
जब तक हमारी जड़ें
फैली होती है उसकी गहराईयों में |


बनना पड़ता है लायक
संतान कहलाने के लिए भी तन मन में ,
कि जिसके आँचल तले पले हैं हम
थामना पड़ता है उसे भी
एक दिन अपने जीवन में ,
कि जिसकी छातियों पर खड़े हैं हम
गर्व से मस्तक उठाये
उसकी भी होती है जगह हमारे उपवन में।


आह ! उठती है टीस आत्मा में धसे
काँटे से बनी गोरखुल के बीचोबीच
आज जमाने की चाल देखकर ,
कि बेटों का माँ के लिए
बुना हुआ शब्दों का जाल देखकर |
तड़पती है रूह उसकी
कविताओं के पीछे , कहानियों के नीचे |
चित्रों की ओट में ,
मूर्तियों को गढ़ती हथेलियों की चोट में |
जितने अधिक बेटे
उतने अधिक गोल बने इस जहान में ,
पास की जाती है माँ उनके बीच फुटबाल बनाकर
इस आपाधापी के मैदान में |


‘चीफ की दावत’ का नायक
सिर धुनता है देखकर
हमारी कलाबाजियों की कारोबार ,
यह कैसा समय है भाई ?
जब चीफ क्या
दुनिया को लहालोट करने के लिए
सजा है माँ का बाजार |
कैसे खत्म हुआ मेरे भाई
वो झंझट वो पचड़ा ,
वो कोनें में उसको छिपाने का लफड़ा |



बाँटी तो जा सकती है अंत की समझ
आज भी उस कहानी की ,
किन्तु लिखी-समझी जा सकती है कथा
एक ही बार इस जिंदगानी की |
शब्दों जितनी ही छेंकती है जगह
माँ हमारे घरों में ,
सटा दो पुस्तकों कलाकृतियों को
बना दो एक कोना अपने दरों में |


शब्दों से नहीं बनता है जीवन ,
यह जीवन है जो देता है उन्हें यौवन |
कि आसमान की ऊँचाईयाँ नापती
पतंग को थामें रहती है डोर
दुनिया की नजर से ओझल
धरती की गुमनामी में छिपी जिसकी छोर |
कि जीवन रहित चमड़े का ढोल बनाकर
किया तो जा सकता है केवल शोर ,
जीवन राग बजाने के लिए
मांगती हैं सांसे अंतर्मन का जोर |


ये पुस्तकें ये कलाकृतियाँ
उनके पीछे पलती अमरता की ईच्छा ,
बिला जायेंगी एक दिन
अन्तरिक्ष में गये शब्दों की तरह
माँ की तलाश में ली जाएगी जब
तुम्हारे घरों कोने-अँतरों की परीक्षा |
उस समय के लिए ही सही
बचाकर तो रखो उसे
थोड़ी देर सुस्ताने के लिए ,
जैसे जड़ों से उखड़कर अरराकर गिरता है पेड़
तो आँचल पसारती है वही धरती
अन्तिम प्रयाण से पहले
उसे विश्राम कराने के लिए |



परिचय और संपर्क
         
रामजी तिवारी
बलिया , उ.प्र.
मो.न. 09450546312