शुक्रवार, 28 मार्च 2014

पंकज देवड़ा की कवितायें

        






इंजीनियरिंग के छात्र रहे पंकज देवड़ा एक आई.टी. कंपनी में कार्यरत हैं | ख़ुशी की बात है कि 

कविता में रमा मन उन्हें साहित्य मुहाने पर खींच लाया है | ये कवितायें एक ताज़ी बयार की तरह 

कविता के उस विशाल फलक को थोड़ा और विस्तारित करती हैं, समृद्ध करती हैं | इस दौर के 

युवा मन को समझने में सहायक इन कविताओं के लिए सिताब दियारा ब्लॉग उनका आभारी है |
                    
            
            आईये पढ़ते हैं युवा कवि पंकज देवड़ा की कवितायें



एक .......... वन नाईट स्टैंड


झूठ कहती हैं कुछ लड़कियाँ,

कि वे शाकाहारी हैं,

हर दिन सुबह नाश्ते में,

एक पागल दिल खाया करती हैं |

झूठ कहते है कुछ परमेश्वर टाइप पति,

कि वे अपनी पत्नियों से,

इत्ता साराप्यार करते हैं |

उनकी पत्नियों कि औकात,

उनकी नज़रों में,

एक गोल तकिये से ज्यादा नहीं हैं,

जो पड़े रहते थे बगलों में उन दिनों,

जिन दिनों,

कुँवारापन,

बिस्तर की सिलवटें चूमता था |


झूठ कहते हैं कुछ पगलायें प्रेमी,

कि वे सच्चे प्रेम की तलाश में हैं,

सच्चा प्यार तब से बैठा हैं कहीं कोने में,

चार रुपैये की चुहामार दवाई खा कर,

जब से उसे पछतावा हुआ हैं अपने,

उस वन नाईट स्टैंड पर |

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दो ...... मैं छत पर टहलता हूँ अपनी



मैं छत पर टहलता हूँ अपनी,

तब भी ,

जब लिम्बूंके आचार की बरनी,

माथे पर कपड़ा बांधे ,

धुप में,

बैठा नहीं करती |


तब भी ,

जब वो  लड़की उसकी छत पर,

किताबों की आड़ से,

किसी को देखा नहीं करती |


तब भी,

जब पड़ोस की भाभी,

कपड़ों और गीली इच्छाओं को,

उन रस्सियों पर सुखाया नहीं करती |


तब भी,

जब तुलसी के पौधे,

और  अटारियों  के बीच,

पिद्दी  सी मकड़ी,

जिद्दी से जाले नहीं बुनती |


तब भी,

जब  ताजी सी दुल्हन,

बासी छत पर खड़ी हो,

नए रिश्ते नहीं चुनती |


तब भी,

जब  उन  ऊँघे हुए रास्तों पर,

बेशर्म बाराती, पगलाया हुआ दूल्हा,

बेसुरे बाजें, खस्ता जेनरेटर,

और सफेदपोश ट्यूब लायटें,

नहीं घुमती |
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तीन........... सफ़ेद आई लव यू


जब हम झाकेंगे  उनके भूखे पेटों में,

वे खा लेना चाहेंगे हमें,

और हमारी खुबसूरत बीबियों को |

जिस तरह हम देखते है चाँद जैसे सपने,

उन्हें भी हक़ है,

सपने जैसी दाग़ लगी रोटियों का |

वे हमें न भी खाएँ

कि हमने उन्हें सिखा दिया हो,

फांके खाना और पीना पानी,

गंध मारती व्यवस्थाओं के साथ |

और वैसे भी जा सकता है,

व्यवस्थाओं को बदला,

वे कोई पहली प्रेमिकाएँ नहीं,

की जिनका नाम खरोंचा जाएँ,

बस की पिछली सीटों पर,

लोअर क्लासप्रेमियों की तरह |


और अमीर आशिकों की तरह,

मल्टीप्लेक्सों में उनके साथ ,

चाटते  हुए  एक ही आइसक्रीम ,

बोला जाए दस बार,

सफ़ेद आई लव यू |

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(4)..............   फेसबुक की नीली दीवारों  से


फेसबुक की नीली दीवारों  से,

जब उसके काले  आंसू  रिसते  है |

मै उन्हें  लाइक  करते जाता हूँ,

कमबख्त पोछने  से पहले |

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(5) ..................   पोलिटिकल फ्यूज़न


ये दौर है फुल टू कन्फ्यूज़न का,

ये ठेठ पोलिटिकल फ्यूज़न का |

कोई सुनाये पापा दादी की कहानी,

किसी ने छाती छप्पन इंच की तानी |

कोई ले आये झाड़ू, मचाये इंट्री फाड़ू,

आठ का जुगाड़ू और बत्तीस का बिगाड़ू |

जब समझ नी आये कि क्या है करना,

तो उठाओ टोपी और बिठा दो धरना |

नहीं चाहिए गाड़ी नहीं चाहिए बंगला,

नाचना तो जानू बस टेढ़ा है अंगना |

मेरी हो बन्दूक आमजन के कंधे,

कोयले की खान में सफ़ेद टोपी के बन्दे |

जब तुमको भी सताए फिकर देश महान की,

चले जाना गर्लफ्रेंड संग पिक्चर सलमान की |



छः ...... माताएँ नहीं करती बलात्कार...


भारत तुम माता नहीं, मर्द हो,
बलात्कारी हो,
क्योंकि माताएँ नहीं करती बलात्कार,
उन छोटी बच्चियों के साथ,
जिनकी फ्राकों पर बने हो
मून, मछली, मोती, तितली
और ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार |
माताएँ नहीं करती बलात्कार,
चलती बसों में उन लड़कियों के साथ,
जिनके शरीरों पर छातियों और जांघों के आलावा,
दो आँखे भी हो, दो पलके भी,
जिनसे झुलते हो सपने रेशम से चार |
माताएँ नहीं डालती अपनी कमतरी को छुपाने,
उन नितांत निजी स्थलों में,
लोहे की राडें, किले और जलती सिगरेटें,
जिनसे होकर दुनियां में आते है,
तुम्हारे पवित्र ईसा, मोहम्मद और राम निर्विकार |
माताएँ नहीं करती बलात्कार,
गाँव की उन दलित महिलाओं के साथ,
जिनके हाथों में होती है आटे की खुश्बू,
एड़ियों की दरारों में धंसे सुखे खेत,
ऑखों में काजल सा पसरा सन्नाटा,
और आँचल से बहती दूध की धार |
क्योंकि भारत तुम मर्द हो,
माता नहीं |  

                     


परिचय और संपर्क


पंकज देवड़ा,

उज्जैन (म.प्र.)


मो.न.  9179317427

रविवार, 23 मार्च 2014

अरुण श्रीवास्तव की कवितायें

                                                                  अरुण श्रीवास्तव 
   


 

      प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर अरुण श्रीवास्तव की कवितायें



एक .......

मैं देव न हो सकूंगा


सुनो ,
व्यर्थ गई तुम्हारी आराधना !
अर्घ्य से भला पत्थर नम हो सके कभी ?
बजबजाती नालियों में पवित्र जल सड़ गया आखिर !
मैं देव न हुआ !

सुनो ,
प्रेम पानी जैसा है तुम्हारे लिए !
तुम्हारा मछ्लीपन प्रेम की परिभाषा नहीं जानता !
मैं ध्वनियों का क्रम समझता हूँ प्रेम को !
तुम्हारी कल्पना से परे है झील का सूख जाना !
मेरे गीतों में पानी बिना मर जाती है मछली !
मैं अगला गीत अनुकूलनपर लिखूंगा !

सुनो ,
अंतरंग क्षणों में तुम्हारा मुस्कुराना सर्वश्व माँगता है !
प्रत्युत्तर में मुस्कुरा देता हूँ मैं भी !
तुम्हारी और मेरी मुस्कान को समानार्थी समझती हो तुम -
जबकि संवादों में अंतर है हीऔर भीनिपात का !
संभवतः अल्प है तुम्हारा व्याकरण ज्ञान -
तुम्हरी प्रबल आस्था के सापेक्ष !

सुनो ,
मैं देव न हो सकूंगा !
मेरे गीतों में सूखी रहेगी झील !
मैं व्याकरण की कसौटी पर परखूँगा हर संवाद !

सुनो ,
मुझसे प्रेम करना छोड़ क्यों नहीं देती तुम ?



दो ....

बीमार पीढ़ी


अच्छा !!
तो प्रेम था वो !
जबकि प्रेयसी के रक्त से फर्श पर लिखा था प्रेम !

जबकि केंद्रित था -
किसी विक्षिप्त लहू का आत्मिक तत्व ,
पलायन स्वीकार चुकी उसकी भ्रमित एड़ियों में !
किन्तु -
एक भी लकीर न उभरी मंदिर की सीढियों पर !
एड़ियों से रिस गईं रक्ताभ संवेदनाएं !
भिखमंगे के खाली हांथों सा शुन्य रहा मष्तिष्क !

ह्रदय में उपजी लिंगीय कठोरता के सापेक्ष 
हास्यास्पद था -
तोड़ दी गई मूर्ति से साथ विलाप !
विसर्जित द्रव का वाष्पीकृत परिणाम थे आँसू !

हाँ !
प्रेम ही था शायद !
अभीष्ट को निषिद्ध में तलाशती हुई ,
संडास में स्खलित होती बीमार पीढ़ी का प्रेम !


.


तीन ....

अंतिम योद्धा


हाँ ,
मैं पिघला दूँगा अपने शस्त्र ,
तुम्हारी पायल के लिए !
और धरती का सौभाग्य रहे तुम्हारे पाँव -
शोभा बनेंगे ,
किसी आक्रमणकारी राजा के दरबार की !
      फर्श पर एक विद्रोही कवि का खून बिखरा होगा !

हाँ ,
मैं लिखूंगा प्रेम कविताएँ !
किन्तु ठहरो तनिक
पहले लिख लूँ -
एक मातमी गीत अपने अजन्मे बच्चे के लिए
तुम्हारी हिचकियों की लय पर !
      बहुत छोटी होती है सिसकारियों की उम्र

हाँ
मैं बुनूँगा सपने ,
तुम्हारे अन्तः वस्त्रों के चटक रंग धागों से !
पर इससे पहले कि उस दिवार पर -
      जहाँ धुंध की तरह दिखते हैं तुम्हारे बिखराए बादल
      जिनमें से झांक रहा हैं एक दागदार चाँद !
      वहीं दूसरी तस्वीर में
      किसी राजसी हाथी के पैरों तले है दार्शनिक का सर !
- मैं टांग दूँ अपना कवच ,
कह आओ मेरी माँ से कि वो कफ़न बुने ,
मेरे छोटे भाइयों के लिए !
मैं तुम्हारे बनाए बादलों पर रहूँगा !

हाँ ,
मुझे प्रेम है तुमसे !
और तुम्हे मुर्दे पसंद हैं !



चार .....

पाखंड


कवि !
तुम स्त्री होने की घोषणा करते हो स्त्री लिखते हुए
मानो भोगा हो तुमने -
- अपवित्र दिनों की धार्मिक उपेक्षाएँ
- प्रसव पीड़ा और रोते बच्चे को सुलाने का सुख भी !

तुम कहते हो -
- कि आवश्यक है एक स्त्री होना कवि होने के लिए !
- कि मुस्कुराना स्वीकार का लक्षण है !

जबकि -
- किसी स्त्री के हस्ताक्षर नहीं  तुम्हारे उपसंहारीय कथन के नीचे !
- तुम्हारे शीर्षक पर मुस्कुरा देती है स्त्री !

तुम्हारी कविताओं में जन्म लेती है स्त्री ,
अपने स्त्रियोचित उभारों के साथ !
और -
जब तुम लिख रहे होते हो नैसर्गिक और निषेध वाली पंक्ति ,  
वो मुस्कुराकर दुपट्टा संभालना सीख लेती है !

तुम्हारे शब्द उसकी परिधि कम करते हैं !
वो बढ़ा लेती है अपनी मुस्कुराहटें !

और लगभग अंत में -
तुम बंजर होने की प्रक्रिया कहते हो मोनोपाज को !
उसके होंठो पर तैर जाती है मुक्ति की मुस्कराहट !

आश्चर्य है-
- कि मुस्कुराहटों का रहस्य नहीं समझते तुम !
- कि एक पुरुष तय करता है  स्त्री होने की परिभाषा !

लेकिन ,
संभवतः नहीं देखा तुमने स्त्रियों के अंतरंग क्षणों में -
हँस देती है मुस्कुराती हुई स्त्री ,
जब एक पुरुष करता है - स्त्री होने का पाखंड ! .





परिचय और संपर्क

अरुण श्रीवास्तव
उम्र – ३० वर्ष
निवास – मुगलसराय , उ.प्र.

मो.न. - 09936530629