शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

क्या तुम्हें प्रलय का इन्तजार है - नीरू असीम


                                   नीरू असीम 

नीरू असीम की ये कवितायें मुझे मित्र जगजीत सिद्धू के मार्फ़त मिली | इन छोटी-छोटी कविताओं ने नीरू जिस सहज अंदाज में हमारे समय के सच को रखती हैं , इतिहास में वर्तमान को घोलती हैं और जिस तरह से आने वाले कल की चिंता करती है , वह अद्भुत है ,| और फिर जगजीत सिद्धू का उतना ही बढ़िया अनुवाद इन कविताओं को और मानीखेज बना देता है |
         
        प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर पंजाबी कवयित्री    
                  नीरू असीम की कवितायें
              
                                                 अनुवाद और प्रस्तुति – जगजीत सिद्दू
                                     


1...   कवि


-----
कवि
तुम अपनी पहली नज़्म
कब लिखोगे
क्या तुम्हें प्रलय का इंतज़ार हैं
या युग बदलने वाली क्रांति का
कि टल जाए सब
और तुम हो सको निश्चिंत
लिख सको कविता
शांति में    |



2....  मैं मीरा              


----------
मैं मीरा
मैं राधा
हीर ... ससी ... साहिबा
आज तुझे बरी करती हूँ
मुहब्बत इबादत की
पीड़ गांठो से
तू ताज़े साँस ले
जी कर देख
हुस्न से आगे
कैसे कैसे जमाल
कुदरत के खेल से आगे
कुदरत का कमाल



3....   ब्लॉटिंग पेपर


----------------
ब्लाटिंग पेपर होने तक
मैं कागज़ की जून में ही रहूँगी
और सहज ही
सोखती रहूँगी
स्याहियों के जनून
कि अब
मेरे ऊपर
बयाँ होने को नहीं
समां जाने को आतुर है
तरलता
तरलता ..युग की
सदियों की ... कर्मो की
जन्मों की ..... जिस्मों की
बलाटिंग पेपर होने तक .........



4...  पुनर्जन्म


------------
फतवें हैं अक्सर
होठों से उतार कर
किरदारों पर रखे जाते
कालीदास हँस रहा है
कहानी में सस्पैंस है ।
आदिपुरूष नई फ़िल्म के लिए
अदाकारो की
तलाश में है
स्क्रीन टेस्ट के लिए
आ सकते हो

5...   कठपुतलियाँ

--------------
कठपुतलियों के पैरों में
छाले हो गए हैं
नाचते नाचते
कठपुतलियों की
आँखे भर आई हैं
हँसते हँसते ,
खबर कोई अखबार नहीं दे रहा ...
रोज पन्ने पलट रहे है
कठपुतलियों की इच्छा को ,
स्याही की कालख में
उतारने का हौसला
किसी में नहीं ...
कठपुतलियाँ देखती हैं
खरीदो फरोख्त का मंजर
सहती है बार -बार
बिकने और खरीदे जाने का खंजर
सोचती है ,
कैसे सिखाएँ नजरों को
लिखनी इबारत ऐसी
पढ़ सके बेखबर भी ....


6 ...   चीरहरण करो


--------------
बहुत तपिश है इस छाँव में
रुदन है ,हर शब्द मेरे वक़्त का ।
तुम रंगबिरंगे अंगारों का
आनन्द उठाते हो ..?
यह आतिशबाजी
मेरे जिस्म से उठी है
मेरी मौलिक अग्न ..।
मैं दीवाली नहीं मना रही ।
दुर्योधन !
मैं द्रौपदी ,
तेरे दरबार में हूँ ।
पितामह !
फल लदे वृक्ष की तरह
सर न झुकाना
नदीन निकालने का वक़्त गुज़र चुका ।
आज मैं कृष्ण को नहीं पुकारुगी ,
मुझे अपना पेट दिखाना है
मैं तैयार हूँ
चीरहरण करो ...

        


परिचय और संपर्क
नीरू असीम
24 जून 1967 को बठिंडा (पंजाब ) में जन्म
पंजाबी की एक नामवर कवियत्री
अब तक दो क़िताबे प्रकाशित --1. भूरी कीड़ीयां
                        --2. सिफर




अनुवाद और प्रस्तुति
जगजीत सिद्धू














 जगजीत सिद्धू 



मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

उच्चशिक्षा के निजी प्रतिष्ठानों में नामकरण की परम्परा - मनोज पाण्डेय


                                 मनोज पाण्डेय 

       पढ़िए सिताब दियारा ब्लाग पर युवा लेखक मनोज पाण्डेय का
                     यह विचारोत्तेजक लेख     

   
      उच्च शिक्षा के निजी प्रतिष्ठानों में नामकरण की परम्परा


दीपनारायण, नरसिंह प्रसाद, ठाकुर प्रसाद, सुखी सिंह, दुख हरन सिंह, रामकोमल, प्यारी देवी, द्रौपदी देवी, बच्ची देवी, प्रभा देवी, प्रेमलता आदि-आदि। इन नामों में से आप ने किनका किनका नाम सुन रखा है । आपका रिश्ता किसी न किसी रूप में  अगर उच्च शिक्षा से होगा तो जरूर सुन रखा होगा ।इलाकाई प्रभाव के कारण  इन नामों में थोड़ी हेर फेर हो सकती है । अब तक आपको समझ में न आया हो तो मैं एक हिंट दे सकता हूँ ।आप इन सारे नामों के साथ डिग्री कालेज या महाविद्यालय या पी जी कालेज जोड़ ले । इनको जोड़ने के बाद आपको लगेगा कि आपने सारे नामों को अच्छी तरह सुन रखा है ।
     
प्रसिद्ध भारतीय मान्यता है कि नाम से गुण का भी पता चलता है । कई बार यह मान्यता अपने उदाहरण भी प्रस्तुत करती है यद्यपि ये उदाहरण सामान्यतया नकारात्मक ज्यादा ही होते है ।शायद इसी प्रभाव में गरीब आदमी अपने बच्चे का नाम करोड़ीमल रख देता है । अगर ध्यान दिया जाये तो साफ हो जाता है कि नाम रखने की भी एक विशेष किस्म की आर्थिकी-सामाजिकी होती है । आपने कभी भी निजी दुकानों या व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के नाम को किसी सार्वजनिक महत्त्व से जुडा हुआ नहीं पढ़ा होगा ।क्या आपने पढ़ा है सुभाष चन्द्र बोस किराना भंडार   अगर ऐसा पढ़ा भी होगा तो अपवाद के तौर पर  ही शायद हो । यह सामान्य भारतीय मनोवृति है जो कस्बे के छोटे से दुकानदार से लगायत टाटा-बिड़ला-डालमिया तक में पाया जाता है । अब रिलायंस-मोर-हीरोजैसे व्यावसायिक नाम बाहरी प्रभावों के कारण रखे जाने लगे है ।
      
उपर लिखे गए नामों पर पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक विश्वविद्यालय की मान्यता के साथ बड़ी संख्या में उच्च शिक्षा संस्थान खोले गये है । यहाँ तर्क किया जा सकता है कि इसमें बुराई क्या है ? शिक्षा सहित तमाम संस्थानों के नाम रखने की परम्परा मात्र से उस धारा की पहचान हो जाती है.जो व्यक्ति  थोड़ा बहुत भारतीय इतिहास की जानकारी रखता हो (खास कर स्वाधीनता संघर्ष वाले दौर की ) वह  इस बात से जरूर सहमत होगा कि उस दौर में और उस दौर के बाद देश के सुदूर इलाकों में भी शिक्षा संस्थानों का नाम किसी न किसी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय व्यक्तित्व के नाम पर ही रखने की परम्परा कमोवेश बनी हुयी थी. इसका एक बड़ा कारण यह था कि शिक्षण संस्थानों को खोलने चलाने की जिम्मेदारी सामूहिक मानी जाती थी.सामूहिक भागीदारी वाले इस काम में नाम का निजीकरण नही हो पाता था. यद्यपि इस दौर में भी जिन शिक्षण संस्थानों की नीव में स्थानीय या बड़े व्यावसायिक लोगों का धन धर्म शामिल था उन संस्थानों के नाम हीरालाल-रामनिवास या जमुनादास-भगवानदास आदि के व्यावसायिक स्वरुप में ही तब भी थे.इसके साथ इस बात से इंकार नही किया जा सकता है कि यह प्रवृति बहुत सीमित और दबी हुयी थी. साथ ही इस तरह के संस्थानों के संस्थापक घरानों को अपना चेहरा कुछ सामाजिक छवि के साथ बनाये रखने में सहायता मिलती थी.बाद में जब सरकार ने इन शिक्षण संस्थानों को सरकारी अनुदान पर ले लिया तो इन घरानों का हस्तक्षेप लगभग खत्म हो गया था.
       
पुराने समय के व्यावसायिक घरानों या लोगों द्वारा स्थापित संस्थानों के सम्बंध में यह भी माना जा  सकता है कि इनसे किसी तरह के मुनाफे या आर्थिक लाभ की स्थिति ना तो थी और ना ही व्यापक स्तर पर मान्य थी. इसके पीछे शायद कारण कुछ बचे-खुचे आदर्श ही थे.तत्कालीन समय और समाज में  शिक्षा का संसाधनी करण की प्रक्रिया पूरी नहीं हुयी थी.अब यह प्रक्रिया पूरी हो चुकी है साथ ही भूमंडलीकरण और निजीकरण की चरम प्रभावी समय में बड़े बड़े आदर्श ढहते जा रहे है..अब जब शिक्षा-क्षेत्र को मुनाफे का सबसे उर्वर सेक्टरके तौर पर पहचान लिया गया है.इस क्षेत्र की उभरती हुयी संभावनाओ  का अधिकतम दोहन में पी पी पी माडल को सरकारी ही नहीं बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर भी मान्यता मिलती जा रही है.
            
उच्च शिक्षा के संस्थानों के नामकरण की इस प्रवृति से यह पता चलता है कि हमारे समाज के मुनाफाखोर वर्ग की मानसिकता  कितनी संकुचित और डरी हुई है.वह इन संस्थानों के किसी भी हिस्से से अपना कब्जा कमजोर नहीं होने देना चाहता है.यह वर्ग के निजीकरण के बहुआयामी स्वरूप में नाम” के महत्त्व को अच्छी तरह जानता है. किसी संस्था का नाम सार्वजानिक व्यक्तित्वों पर होता है तो आम जनता का मानसिक और सांस्कृतिक जुडाव का सदेश प्रतिबिम्बत होता है और इसी सदेश को किसी भी हालत में हावी होना मुनाफाखोर वर्ग को भीतर तक डरा देता है.
        
खैर.. बहुत पहले हरिशंकर परसाई ने अपने एक व्यंग्य लेख में कस्बे या छोटे शहर में उच्च शिक्षा प्रदान करने कालेज  बनने की कहानी कही है।कस्बे का व्यापारी जिसके पास अपनी दुकानदारी से इतना पैसा आ गया है कि वह एक नयी दुकानडाल सकता है।उसकी नयी दुकान इलाके के लङको  को उच्च शिक्षा की सुविधा मुहैया कराने वाले कालेज के रुप में सामने आता है।इस कालेज के नाम और उसके दुकान के नाम  पूरी तरह मिलता है।  कालेज के प्रिंसिपल नियमित तौर पर रोजाना कालेज के मालिक सेठ के यहाँ हाजिरी लगता  है | मिल जाये तो लगे हाथ इसे भी पढ़ा जाये।



परिचय और संपर्क

मनोज पाण्डेय 
साहित्यिक , सांस्कृतिक गतिविधियों में गहरी दिलचस्पी
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें और लेख प्रकाशित
सम्प्रति – दिल्ली में अध्यापन
मो.न. - 09868000221