सोमवार, 4 अगस्त 2014

कविता श्रृंखला "कमाल की औरतें" - शैलजा पाठक




शैलजा पाठक की कवितायें और डायरी के पन्ने आप पहले भी सिताब दियारा ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं | कहना चाहता हूँ कि युवा हिंदी कविता की इस संवेदनशील आवाज को बार-बार पढने की ईच्छा होती है | एक ऐसी आवाज को, जिसमें हमारी आधी दुनिया का पूरा सच सामने आता है | और वह भी पूरी संवेदनशीलता के साथ | पूरी कलात्मकता के साथ | यहाँ प्रस्तुत “कमाल की औरतें” नाम की इस कविता-श्रृंखला को पढने के बाद शायद आप मुझसे असहमत नहीं होंगे | तो लीजिये प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर ......        

         
           शैलजा पाठक की कविता श्रृंखला  “.....कमाल की औरतें .....”
                 

एक ....

ये तहों में रखती हैं अपनी कहानियां
कभी झटक देती है धूप की ओर
अपने बिखरे को बुहार देती हैं

ये बार बार मलती हैं आँख
जब सहती हैं आग की धाह
ये चिमटे के बीच पकड़ सकती है धरती की गोलाई
धरती कांपती है थर थर

ये फूल तोडती हुई मायूस होती है
पूजा करती हुई दिखाती हैं तेजी
बड बडाती है दुर्गा चालीसा
ठीक उसी समय ये सीधी करती है सलवटें
पति के झक्क सफ़ेद कमीज की

इनकी पूजा के साथ निपटाए जाते हैं खूब सारे काम
ये नमक का ख्याल बराबर रखती हैं
बच्चों के बैग में रखती हैं ड्राइंग की कॉपी
तो बड़ी हसरत से छू लेती है उसमे बने मोर के पंखों को

ये छोटे बेटे के पीछे पंख सी बन भागती है
कि छूटती है बस स्कूल की
"तुम हमेशा टिफिन बनाने में देर कर देती हो मम्मा '
इनकी हाथों में लगा नमक इनकी आँखों में पड जाता है

ये बार बार ठीक करती है घडी का अलार्म
आधी चादर ओढ़ कर सोई ये औरतें
पूरी रात बेचैन कसमसाती है सांस रोके
इनकी हथेलियों में पिसती हैं एक सुबह
आँख में लडखडाती है एक रात

ये उठती है तो दीवार से टिक जाती हैं
संभलती है चलती है पहुचती है गैस तक
खटाक की आवाज के साथ जल जाती हैं

और तुम कहते हो कमाल की औरतें हैं
चाय बनाने में इतनी देर लगाती हैं ...|



दो .....


देर तक औरते अपनी साड़ी के पल्लू में
साबुन लगाती रहती है 
कि पोंछ लिए थे भींगे हाथ
हल्दी का दाग अचार की खटास या थाली की गर्द 
या झाड लिया था नमक
पोंछ ली थी छुटका का मटियाना हाथ 
साथ इसके ये भी
कि गठिया कर रखी थी ज़माने भर का दर्द 
सर्द बिस्तर पर निचुडने के बाद
माथा पोंछा था शायद 
बाद मंदिर की आरती की थाली भी 
बेचैनियों पर आँख का पानी भी
ज़माने भर के दाग धब्बे को 
एक पूरा दिन खोसें रही अपने कमर के गिर्द
अब देर तक अपना पल्लू साफ़ करेंगी औरते 
कि पति के मोहक छड़ों में
मोहिनी सी नीले अम्बर सी तन जायेंगी 
ये कपडे को देर तक धोती नजर आएँगी 
मुश्किल के पांच दिनों से ज्यादा मैले कपडे
ज़माने का दाग 

ये अपनी हवाई चप्पलों को भी
धोती है देर तक 
घर की चहारदीवारी के बाहर
पैर ना रखने वाली घूमती रहती हैं 
अपनी काल्पनिक यात्राओं में दूर दराज 
ये जब भाग भाग कर निपटाती है अपने काम 
ये नाप आती है समन्दर की गहराई
देख आती है नीली नदी 
चढ़ आती है ऊँचे पहाड़ 
मायके की उस खाट पर
अपने पिता के माथे को सहला आती है 
जो जाने कबसे बीमार है 
इनके चप्पल हज़ार हज़ार यात्रा से मैले है 
ये देर तक ब्रश से मैल निकालती पाई जाती है 

ये देर तक धोती रहती है मुंह की आग
कि भाप को मिले घडी भर आराम 
ये चूड़ियों में फंसी कलाइयों को
निकाल बाहर करती है जब धोती हैं हाथ 
ये लाल होंठो को रगड़ देती है
सफ़ेद रुमाल में उतार देती हैं तुम्हारी जूठन 
ये चौखट के बाहर जाने के रास्ते तलाशती है
पर रुकी रह जाती है अपने बच्चों के लिए

ये देर तक धोती है अपने सपनें
अपने ख्याल अपनी उमंगे
इतनी कि सफ़ेद पड जाए रंग 
ये असली रंग की औरतें
नकली चेहरे के पीछे छुपा लेती है
तुम्हारी असलियत 
ये औरतें अपने आत्मा पर लगी
तमाम खरोचों को भी छुपा ले जाती हैं 

और तुम कहते हो ..
कमाल की औरतें हैं..
इतनी देर तक नहाती हैं ..... |


तीन .....


औरतें भागती गाड़ियों से तेज भागती है 
तेजी से पीछे की ओर भाग रहे पेड़ 
इनके छूट रहे सपनें हैं 
धुंधलाते से पास बुलाते से
सर झुका पीछे चले जाते से 
ये हाथ नही बढाती पकड़ने के लिए 
आँखों में भर लेती है
जितने समा सकें उतने 

ये भागती हिलती कांपती सी चलती गाडी में ..
जैसे परिस्थितियों में जीवन की 
निकाल लेती है दूध की बोतल ..
खंघालती है उसे  
दो चम्मच दूध और आधा चम्मच चीनी का
प्रमाण याद रखती है 
गरम ठंढा पानी मिला कर बना लेती है दूध 
दूध पिलाते बच्चे को गोद से चिपका
ये देख लेती है बाहर भागते से पेड़ 
इनकी आँखों के कोर भींग जाते हैं
फिर सूख भी जाते है झट से 

ये सजग सी झटक देती है
डोलची पर चढ़ा कीड़ा 
भगाती है भिनभिनाती मक्खी
मंडराता मछ्छर 
तुम्हारी उस नींद वाली मुस्कान के लिए 
ये खड़ी रहती है एक पैर पर 

तुम्हारी आँख झपकते ही
ये धो आती आती है हाथ मुंह 
मांज आती है दांत
खंघाल आती है दूध की बोतल 
निपटा आती है अपने दैनिक कार्य 
इन जरा से क्षणों में
ये अपनी आँख और अपना आँचल
तुम्हारे पास ही छोड़ आती हैं 

ये अँधेरे बैग में अपना जादुई हाथ डाल 
निकाल लेती है दवाई की पुडिया तुम्हारा झुनझुना 
पति के जरुरी कागज़ यात्रा की टिकिट 
जिसमे इनका नाम सबसे नीचे दर्ज है 

अँधेरी रात में जब निश्चिन्त सो रहे हो तुम 
इनकी गोद का बच्चा
मुस्काता सा चूस रहा है अपना अंगूठा 
ये आँख फाड़ कर
बाहर के अँधेरे को टटोलती हैं 
जरा सी हथेली बाहर कर
बारिश को पकड़ती है 
भागते पेड़ों पर टंगे
अपने सपनों को झूल जाता देखती हैं 
ये चिहुकती हैं बडबडाती है
अपने खुले बालों को कस कर बांधती है 
तेज भाग रही गाडी की बर्थ नम्बर ५३ की औरत 

सारी रात सुखाती है बच्चे की लंगोट
नैपकिन खिडकियों पर बाँध बाँध कर 
भागते रहते हैं हरे पेड़
लटक कर झूल गए सपनों की चीख
बची रह जाती है आँखों में 
भींगते आंचल का कोर
सूख कर भी नही सूखता 
और तुम कहते हो की कमाल की औरतें हैं 
ना सोती है ना सोने देती हैं 

रात भर ना जाने क्या क्या खटपटाती हैं ............... 


चार .....

ये औरतें अपनी ख़राब तबियत को टालती हैं
जितना हो सकता है परशानियाँ पालती हैं
फिर झल्लाकर उसे महीन चलनी से छानती हैं
छन जाती है उतने से ही काम निपटाती हैं
कुछ स्थूल चीजों पर नही जाता इनका ध्यान

जैसे उनका मन उनके सपने
अपनी बातें दुःख दर्द
ये उसे घर के कूड़ा कचरे के साथ
बाहर वाले घूरे पर डाल आती हैं

ये कम ही बची रहती हैं
पर काम पूरे करती हैं
औरतें अपने जीवन के सबसे सुन्दर समय में
उठाती है घर की जिम्मेवारी
जनती है बच्चे करती हैं परवरिश
ये बीत गये उम्र की औरतें
रीत जाती हैं घर की घर में

इनकी आँखों के इर्द गिर्द धूप जमा होती हैं
पर ये देखने लगती है पहले से कम

ये नही भूलती अपनी पहली कविता की डायरी
४०० की बाधा दौड़ की ट्रोफी
ये नही भूलती अपनी गुडिया अपना खेल
अपने बच्चो के साथ
अपने बचपन को दुहराती है
अपने गुड़ियाँ की हंसी देख
अपने आप को बिसर जाती है

आग हवा पानी मिटटी से बनी औरते
जितना बचती हैं उतने से ही रचती है इतिहास

अपने बॉस के फिरंगी रंग
औरतों के सामने शर्मिंदा होते हो तुम-
कि मैं बस हॉउस वाइफ हूँ !
उस वक्त मैं चीख कर बताना चाहती हूँ -
कि तुम सब की संतुष्ट डकार के लिए
रसोई में कितना मिटी हूँ मैं
एक पैर पर खड़ी जुटाती रही छप्पन रंग
कि तुम्हारी तरक्की के सपनों को मिले नया आकाश !

दर्द की पट्टियाँ बदलती औरतें
घूमती धरती पर जम कर खड़ी है
तुम्हारी दीवारों में घुली है गारे मिटटी की तरह
तुम्हारे बिस्तर पर तुम्हारी चाह बनकर

और तुम कहते हो कमाल की औरते है
दिन भर घर में पड़ी रहती है..
खाती है मोटाती हैं
शाम को बेहोश पसर जाती हैं
ना कहीं आती हैं ना जाती हैं ............. |


पांच ....


ये औरतें
ससुराल आते ही दर्ज हो जाती हैं
राशन कार्ड पर मुस्कराती सी
अब घर में ज्यादा शक्कर आता है
महीने में कुछ ज्यादा गेहूं
इनके जने बच्चों के भी नाम
दर्ज होते हैं फटाफट
ये कार्ड में संख्या बढाती है।

और अपने ही नाम पर मिले मिटटी तेल
से एकदम अचानक ही भभक कर जल जाती हैं
इनके बाल झुलसे आँखे खुली 
देह राख हो जाती हैं
रसोई में बिखरी होती है 
इनके हिस्से की चीनी
जो गर्म नदी में तब्दील हो जाती है
इनकी चूड़ियाँ चुप हो जाती हैं

बस राशन कार्ड पर एक और बार ये एक 
नये नाम से दर्ज हो जाती हैं
ये कमाल की औरते फिर एक बार
अपने नाम पर मिटटी का तेल लाती है ......|



परिचय और संपर्क

शैलजा पाठक
       
बनारस से पढाई-लिखाई
मुंबई में रहनवारी
कई पत्र-पत्रिकाओं और ब्लागों में कवितायें प्रकाशित ....

10 टिप्‍पणियां:

  1. bemisaal kavitayen hain ye wow shailja u r d best


    kandwal mohan madan

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  2. वाक़ई कमाल की औरते हैं और इस कमाल को देखने वाली आँख और भी कमाल की है। शैलजा हार्दिक को बधाई।

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  3. औरतें कमाल की ही होती हैं
    और इन्हे कमाल के साथ कविताओं में व्यक्त किया है

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  4. वाहा । बहुत खूब कविताऐ।स्त्री का सारा लेखाजोखा। मनीषा जैन

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  5. मैंने इस कवयित्री की कवितायेँ फेसबुक पर ही लगभग तीन बरस पहले 2011 में भोपाल में अध्यापन के दौरान पढ़ी। तभी से मेरी राय बानी जो आज भी वैसी ही है कि यह फेसबुक की सर्वाधिक संभावनाशील कवयित्री है। मुझे नहीं मालूम ये अपनी कवितायेँ संभाल कर रखती और प्रकाशन हेतु तत्पर है या नहीं। मैंने बिन मांगे उन्हें यह सलाह दे दी है (बहुत पहले ही) कि अपनी कविताओं का संकलन प्रकाशित करवाइये यथाशीघ्र। मेरा अनुभव है कि शैलजा को पढ़ते हुए आप बार-बार उसमे अपने आस पास का समाज पाएंगे और इसीलिए उनकी कवितायेँ आपको अपनी कविता सा सुख प्रदान करती हैं लगता है कविता आपकी ही बात कर रही है। शैल की कवितायेँ सही मायनों में दीर्घजीवी हैं सार्थक हैं। मेरी मंगलकामना है कि उनकी लेखनी के ये धार सदा सलामत रहे। बस इतना ही.…

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  6. कल्पनाथ यादव8:47 pm, अगस्त 05, 2014

    कविताओं में जीवन की इतनी सहज उपस्थिति जो मामूली सी बातों में जीने का मर्म उकेर देती हैं‚बहुत कम देखने को मिलता है‚यहां तो भरा पड़ा है।

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