गुरुवार, 21 मई 2015

सुलोचना वर्मा की कवितायें





सुलोचना वर्मा की कविताओं में आधी दुनिया की आवाज तो शामिल है ही, अपने समय और समाज की नब्ज पर संवेदनशील पकड़ भी है | सिताब दियारा ब्लॉग इस युवा कवयित्री का हार्दिक स्वागत करता है | तो आईये पढ़ते हैं .....
  
           
          आज सिताब दियारा ब्लॉग पर सुलोचना वर्मा की कवितायें ....


एक ...


कुआं 
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मुझे परेशान करते हैं रंग 
जब वे करते हैं भेदभाव जीवन में
जैसे कि मेरी नानी की सफ़ेद साड़ी
और उनके घर का लाल कुआं
जबकि नहीं फर्क पड़ना था
कुएं के बाहरी रंग का पानी पर
और तनिक संवर सकती थी
मेरी नानी की जिंदगी साड़ी के लाल होने से

मैं अक्सर झाँक आती थी कुएं में
जिसमे उग आये थे घने शैवाल भीतर की दीवार पर
और ढूँढने लगती थी थोड़ा सा हरापन नानी के जीवन में
जिसे रंग दिया गया था काला अच्छी तरह से
पत्थर के थाली -कटोरे से लेकर, पानी के गिलास तक में

नाम की ही तरह जो देह था कनक सा
दमक उठता था सूरज की रौशनी में
ज्यूँ चमक जाता था पानी कुएं का
धूप की सुनहरी किरणों में नहाकर

रस्सी से लटका रखा है एक हुक आज भी मैंने
जिन्हें उठाना है मेरी बाल्टी भर सवालों के जवाब
अतीत के कुएं से
कि नहीं बुझी है नानी के स्नेह की मेरी प्यास अब तक
उधर ढूँढ लिया गया है कुएं का विकल्प नल में
कि पानी का कोई विकल्प नहीं होता
और नानी अब रहती है यादों के अंधकूप में !



दो ....

पीहर
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बाटिक प्रिंट की साड़ी में लिपटी लड़की
आज सोती रही देर तक
और घर में कोई चिल्ल पो नहीं
खूब लगाए ठहाके उसने भाई के चुटकुलों पर
और नहीं तनी भौहें उसकी हँसी के आयाम पर
नहीं लगाया "जी" किसी संबोधन के बाद उसने
और किसी ने बुरा भी तो नहीं माना
भूल गयी रखना माथे पर साड़ी का पल्लू
और लोग हुए चिंतित उसके रूखे होते बालों पर
और एक लम्बे अंतराल के बाद, पीहर आते ही
घरवालों के साथ साथ उसकी मुलाक़ात हुई
अपने आप से, जिसे वो छोड़ गयी थी
इस घर की दहलीज पर, गाँव के चैती मेले में
आँगन के तुलसी चौड़े पर, और संकीर्ण पगडंडियों में


तीन ...

मेरे जैसा कुछ
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नहीं हो पायी विदा
मैं उस घर से
और रह गया शेष वहाँ
मेरे जैसा कुछ

पेल्मेट के ऊपर रखे मनीप्लांट में
मौजूद रही मैं
साल दर साल

छिपी रही मैं
लकड़ी की अलगनी में
पीछे की कतार में

पड़ी रही मैं
शीशे के शो-केस में सजे
गुड्डे - गुड़ियों के बीच

महकती रही मैं
आँगन में लगे
माधवीलता की बेलों में

दबी रही मैं
माँ के संदूक में संभाल कर रखी गयी
बचपन की छोटी बड़ी चीजों में 

ढूँढ ली गयी हर रोज़
पिता द्वारा
ताखे पर सजाकर रखी उपलब्धियों में

रह गयी मैं
पूजा घर में
सिंहासन के सामने बनी अल्पना में

हाँ, बदल गया है
अब मेरे रहने का सलीका
जो मैं थी, वो नहीं रही मैं |



चार ...

चुप्पी
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बेहद ज़रूरी था मेरा चुप रहना इक रोज
कि छुपे रहते मेरे सपने और मेरी भावनायें
मुझे ढूँढ लेना था कोई बहाना चुप्पी की खातिर
जैसे कि मैं देख सकती थी आसमान में चाँद
और घंटों निहार सकती थी उसे मौन रहकर

मुझे नहीं खनकने देना था मन के मंजीरे को
उसे दुहराने देना था कहरवा की पंचम मात्रा
कि नहीं समझ पाते हैं लोग मन की बातें
जैसे नहीं लग पाता है बबूल पर आम का फल
दिलों की जमीन की उर्वरकता समान नहीं होती

रच लेना था मुझे विचारों का एक समुद्र मन में
जहाँ मैं कर सकती थी गोताखोरी मौन रहकर
और तैरता हुआ आ पहुँचता वहाँ सारा संसार
जैसे पी जाता है आसमान नदी को चुपके से
और वाष्प से घन बनने की प्रक्रिया मूक होती है

डाल सकती थी मैं मुँह में पान की एक गिलोरी
और करती रह सकती थी जुगाली चुप रहकर
पर नहीं सूझी कोई भी ऐसी तरकीब चुप्पी की
खाली मन भर भी ले खुद को उदासियों से तो
खाली मुँह खाने के विकल्प में शब्द माँगता है


पांच ...

मसाई मारा
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होने वाली है सभ्यता शिकार स्वयं अपनी
खूबसूरत मसाई मारा के बीहड़ जंगलों में
इसी साल दो हज़ार चौदह के अंत तक
और हुआ है जारी फरमान मसाइयों को
उनकी ऐतिहासिक मातृभूमि छोड़ने का
कि चाहिए शिकारगाह शाही परिवार को 
जो करता है वास विश्व के आधुनिक शहर में
जिसे हम जानते है दुबई के नाम से
और सभ्यता के नए पायदान पर
खरीद लिया है दुबई के शाही परिवार ने
ज़मीन का एक टुकड़ा तंज़ानिया में
जहाँ वो करेंगे परिभाषित सभ्यता को
नए शिरे से अपनी सहूलियत के मुताबिक
दिखाकर सभ्यता को अपनी पीठ

पीड़ा से होगा पीला मसाई में उगता सूरज अब 
जिसे देखने जाते थे दुनिया के हर कोने से लोग
रहेगा भयभीत चिड़ियों के कलरव से भरा जंगल
और गूंजेगी आवाज़ दहशत की चारों ओर

जहाँ झेलना होगा दर्द विस्थापन का
मसाई लोगों को अपनी ही माटी से
दुखी हो रहा है सभ्यता का इतिहास
कि उसे करनी होगी पुनरावृति दर्द की



परिचय और संपर्क ...

सुलोचना वर्मा

1978 में जलपाईगुड़ी में जन्म

कंप्यूटर विज्ञान में स्नातकोत्तर

सम्प्रति कार्यक्रम प्रबंधक के पद पर कार्यरत

संपर्क ...  डी -१ / २०१ , स्टेलर सिग्मा,

सिग्मा-४, ग्रेटर नॉएडा, 201310

मो. न. ... 09818202876






शनिवार, 16 मई 2015

श्याम गोपाल की कवितायें




श्याम गोपाल की कवितायें आप पहले भी सिताब दियारा ब्लाग पर पढ़ चुके हैं | एक ताजगी और नयेपन का एहसास करातीं ये कवितायें हमारे समय के महत्वपूर्ण सवालों से टकराती हैं और बताती हैं कि हम किस खतरनाक दौर में जी रहे हैं | इनमें मुख्य धारा से बाहर कर दिए गए उपेक्षित विषयों को उठाने का साहस भी है, और उन्हें कविता में निर्वाह लेने की सलाहियत भी | तो आईये पढ़ते हैं .....  


            
           आज सिताब दियारा ब्लॉग पर श्यामगोपाल की कवितायें



एक ...

अलाव
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सर्दी के दिनों में
दिन ढलते ही
जल जाता है
अलाव
आग सेंकने के साथ
लोग साझा करते है
एक- दुसरे का दुःख -दर्द
करते हैं सलाह -मशविरा |
किस्सों -कहानियों से
बच्चों में डाला जाता है संस्कार ,
शिष्टाचार |
आग के मद्धिम पड़ने के बावजूद भी
देर रात तक करते हैं
चौकीदारी |
सुबह फैली राख
प्रमाणित कराती है
द्वार के सामाजिक विस्तार को |


दो ...

यह खतरनाक समय है
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यह खतरनाक समय है
जब मोटापा एक आम समस्या है
[जबकि प्रेमचंद ने लिखा है मोटा होना बेहयाई है]
और रोटी पचाने के लिए
पैदल चलना जरूरी है
झूठ बोलना हमारी आदत नहीं मजबूरी है
जहाँ लिखा हो -पेशाब करना मना है
वहीं पेशाब करना जरूरी है

यह खतरनाक समय है ...

जब हत्या कि घटनाओं को
आसानी से आत्म हत्या में तब्दील किया जाता है
और बाप बेटी को भी न छोड़ता हो
आप ही बताओ ऐसे समय में
कैसे जीया जाता है

.....जब ईमादार होना लाचारी है
जिसे अवसर मिला
वही व्यभिचारी है|

..जब सत्य बोलना आग से खेलना है
और सरकारी घास को सब मिल कर चरतें हैं
समर्थ आदमी कानून से खेलतें है
और लाचार को सब मिलकर ठेलते हैं|

..जब दोहरा चरित्र बड़े व्यक्तित्व की निशानी है
जो कुर्सी पर बैठा है
उसका खून खून है
बाकी का पानी है|

..जब पक्षधरता सत्ता हथियाने का आसान तरीका है
बाँदी गाय हमारी मजबूरी है
आप कहतें हो वोट देना जरूरी है|
पक्ष विपक्ष एक ही सिक्के के दो पहलू है
राजनीति एक नाटक है
जिसमें अधिकतर दलबदलू है|

लोकतंन्त्र बिन पेंदी का लोटा है
कुर्सी पर वहीं काबिज़ है
जिसका चरित्र खोटा है|

यह खतरनाक समय है
जब विश्वास पीछे से वार करता है
आस्था मुंह छिपाने के काम आती है
और अदालतें
सच को झूठ
झूठ को सच बनाती हैं
जो सबसे बड़ा ढोगी है
वही योगी है

यह खतरनाक समय है
जब विकास का चक्र तेजी से चल रहा है
सही अर्थों में आदमी
रोबोट में बदल रहा है


तीन ....

बूढी माँ
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बूढ़े घर में रहती
बूढी माँ
वह नहीं छोड़ना  चाहती
अपने बूढ़े घर को खण्डहर को
 छोड़ गए जिसमें  उसे
उसके बच्चे
उन्हें इंतजार है उसकी मौत का
इससे पहले यह खंडहर
नहीं बन सकता महल |
उसका दर्द ,उसकी करांह
फँस कर रह जाती
दीवार की दरारों में |
कोने में  सहेज कर रखी गयी
टूटी -फूटी मूर्तियों के सामने
ऱोज कुछ बुदबुदाती
शायद मांगती दुआ
बच्चों की सलामती का
या करती शिकायत हम सफ़र से
जो उसे पथरीली राहों में छोड़ गया
एक झोले में ही सिमट कर रह गया है
उसका साज-सिंगार
जिसमें टूटे दांतों वाली कंघी
एक शीशे का टुकड़ा
और न जाने क्या क्या ठूसा हुआ है
कभी -कभी कभी वह गुन-गुनाती है
अपनी झाड़ू के साथ
या खूंटी में टगा पोटरियों का थैला निकाल
कुझ खोजने के क्रम में
खो जाती स्मृतियों में और उमड़ पड़ते आखों में आंसू
बूढी माँ
समय बेसमय
खटखटाती बर्तन
और सोने से पहले संगों देती
अपने कपड़े-लत्ते
और सब कुछ क्योकि
रोज सोने के साथ
सो जाना चाहती सदा के लिए |
सुबह चारपाई से उठ गए विस्तर
उसके जीवित होने का प्रमाण है |


चार .....

सृजन की पीड़ा
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अभी लिखा ही कहाँ है मैंने
जब लिखूंगा तो विखर जाऊगां
जैसे जमने से पहले
बिखर जाता है बीज
और यह बिखराव ही शायद
मुझे जोड़ेगा ख़ुद से
फिर हो सकेगा सृजन
और
सहनी ही  होगी
सृजन की पीड़ा|

 

पांच ...

दुःख
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इतने तो कमजोर न थे तुम !
सहन कर लिए थे
लू ,पूस की रात और घनघोर बरसात
धरती का सीना चीर
जिसने बोये उम्मीदों के बीज
उगाए सपने
सो गये थे कितनी रातें पानी पी कर
जीवन की कठिन परिस्थियों को भी पार कर लिए थे
एक दूसरे का हाथ पकड़
निश्चय ही कोई अंदाजा नहीं लगा सकता
तुम्हारें दुःख की उस सीमा का
जब तुमने ही जीवन से हार मान ली



परिचय और सम्पर्क

श्याम गोपाल

ग्राम -सुबांव राजा
पोस्ट -कनोखर
जिला -मिर्ज़ापुर
मो.७८६०४७१०२१
सम्प्रति -मूलचंद इन्टर कालेज सैनपुर -परसोली मुज़फ्फरनगर में
सहायक अध्यापक के रूप में कार्यरत