बुधवार, 29 अगस्त 2012

जयश्री राय की कहानी - "अब और नहीं"

                  
                                                                          जयश्री राय 

                       
     पढ़िए सिताब दियारा ब्लाग पर हमारे दौर की महत्वपूर्ण कथाकार जयश्री राय की कहानी 
                    
                      अब और नहीं

गलती से वह अपने गंतव्य से दस-पंद्रह किलोमीटर पहले ही उतर गया था और अब दिगंत से जा मिले इस राष्ट्रीय राजमार्ग के बीचोबीच खडा गर्म हवा और धूल के बेरहम थपेडे झेल रहा था . अबतक सांझ का सूरज रेत की सुनहरी ढूहों के पीछे फिसल चुका था, हवा की आग भी धीरे-धीरे बुझ रही थी . राख होते क्षितिज के आगे खेजरे की साँवली पाँत की छाँह गहराने लगी थी . अब न जाने अगली बस कब आये . रूमाल से अपने चिपचिपाते हुए चेहरे से रेत के कण पोंछते हुए उसने अपनी दायीं तरफ की बस्ती की ओर नजर दौडायी थी- आठ-दस कच्चे मकान और गर्म हवा में लहराते-से मटमैले तम्बुओं के कुछ धब्बे, साथ में इधर-उधर अरडाते ऊँटों की बेडौल आकृतियाँ... कहीं किसी खिडकी या सहन पर बाले हुए दीपक की धुँधली चमक ....अब कुछ न कुछ तो करना ही था . रात घिर रही थी . संझाते आकाश की अरूणाई  बडी तेजी से गहरे नील में तब्दील होती जा रही थी . ठीक इसी वक्त अचानक वह उसे दिखी थी और बिना कुछ सोचे-समझे उसने आगे बढकर कत्थई सांझ में लहराते हुए उस बदरंग लबादे को रोक लिया था . घूँघट की ओट से दो संध्या तारा जैसी उजली आँखें औचक दिप उठी थीं, साथ में हल्की हंसी की ठुनक- क्यों छेडते हो बाबूजी...

अरे नहीं ! वह एकदम से घबरा उठा था . ये अनजान बस्ती और परदेशी वह... कहीं किसी मुसीबत में न पड जाय . तभी पीछे से कोई खंखाडा था और फिर लहंगे के घेर के पीछे से वह बूढा किसी देव की तरह प्रगट हुआ था . सन-से सफेद बाल और हजार झुर्रियों में कटा-बँटा बँधी पोटली-सा सिकुडा  चेहरा . मिचमिचाती आँखों में गिर और छाले... वह कुछ और आगे बढकर उसे अपनी सफेद झिल्ली पडी मटमैली पुतलियों  से टटोला था - क्या बात है बाबू ?

जी कुछ नहीं, मुझे जंगीपुर जाना था, तो इन्हें... मेरा मतलब है, इन्हें कुछ गलतफहमी हो गयी है...
नहीं, कोई गलतफहमी नहीं . पसंद हो तो सामनेवाली कोठरी में चले जाओ . एक रात का तीन सौ . साथ में खाना, दारू-सारू भी...

जी... वह सकते में था- आप...?                                        

- धुमल, इस छोरी का बाप !

- जी !

- पेशगी...बडी-सी पगडी के नीचे दो सुलगते हुए पत्थर के टुकडे-सी आँखें और उसके सामने फैली वह चौडी हथेली . न जाने क्यों बिना सोचे-समझे उसने उसके हाथ में तीन सौ रूपये रख दिये थे . शायद यह वह रिहाई की कीमत थी जो वह घबराहट में चुका गया था . इस अनजान जगह में वह किसी मुसीबत में नहीं पडना चाहता था .

- ठीक है . रूक्मा, संभाल बाबू को... वह फिर बिना रूके लडखडाता हुआ सामने की भट्टी की ओर चला गया था . वह मंत्रमुग्ध-सा उस लहंगे के सतरंगी घेर के पीछे हो लिया था . उस क्षण उसकी आँखों में सिर्फ उस घाघरा के लहरिया रंग और दो झाँझर बजते बिवाई में बँटे साँवले पाँव थे .

एक छोटी-सी कोठरी में पहुँचकर उसे निवाड की खटिया में बिठाकर वह किशोरी ढिबरी जला लायी थी . ढिबरी की भकभकाती लौ से बेतरह कालिख उड रही थी . उसके पीले उजेर में दीवार पर उकेरे गये पशु-पक्षी के चित्र एक-एककर जाग-से उठे थे, अपनी आँखें मल-मलकर उन्हें घूरते हुए... एक पूरी दीवाल को घेरकर देवी-देवताओं के कैंलेंडर सजे थे . उनके सामने कुलंगी पर बुझा हुआ दीया और अगरबत्ती की राख टीला बनकर जमी थी . चारों तरफ चीकट गुदडियाँ और मिट्टी के धुआँए भांडे-वासन... उसने गर्दन उठाकर ऊपर देखा था- छत पर धुएँ से बना बडा-सा धब्बा , जो शायद ढिबरी के निरंतर जलने से उसकी  शिखा से पड गया था . 

अब वह किशोरी अपना किरमिची लबादा उतारकर उसके पाँवों के पास जमीन पर आ बैठी थी और आँखों में कौतुक भरकर उसे टुकुर-टुकुर तकने लगी थी . ढिबरी की सुनहरी लौ में उसका गोल चेहरा कांसे की थाल की तरह चमक रहा था . काजल लिसरी हुई बडी-बडी धुआंयी-सी आँखें, मोटे बादामी होंठ और गोदना गुदी हुई मांसल ठोडी...उसके चेहरे पर एक अनगढ बनैसा सौंदर्य था जो उसके अंदर के किसी अदिम भूख को अंजाने न्योत गया था . इस अपरिचित परिवेश में भी धीरे-धीरे वह अपने अंदर उत्तेजना महसूस करने लगा था . उसके पके गेहूँ की रंगतवाली देह पसीने से जबजबा रही थी . लाल छींट का ब्लाउज बगल से भीज उठा था . सरके हुए लहंगे से भरी हुई पिंडलियाँ चमक रही थी .

यकायक उसने उसे खींचकर अपने बगल में बिठा लिया था . वह भी बिना किसी संकोच के उससे लगकर बैठ गयी थी . मगर इससे पहले कि वह कुछ कह पाता या कोई हरकत करता, अचानक किसी ने बाहर से जोर से दरवाजा भडभडाया था . उसके दरवाजा खोलते ही एक छोटी लडकी उसकी गोद में एक रोते हुए बच्चे को डालकर सामने खडी हो गयी थी . एक मिनट बाबूजी... कहकर वह कोठरी के एक कोने में उसकी तरफ पीठ करके उस बच्चे को दूध पिलाने लगी थी . ढिबरी की मद्धिम लौ में डोरियों से बँधी उसकी नंगी पीठ चमक रही थी . दूध पीते हुए उस बच्चे के मुँह से चुसर-चुसर की आवाज उस नि:स्तब्ध कोठरी में चारों तरफ फैल रही थी .

न जाने क्यों वह एकदम से सिहर उठा था . उसके बदन के रोयें खडे हो गये थे . दूध पिलाकर रूक्मा ने बच्चे को उस लडकी को थमा दिया था . दूध पीकर वह बच्चा शायद सो गया था . दरवाजा बंदकर वह फिर उसके पास आ बैठी थी - बच्चा बीमार है बाबूजी . कई दिनों से ताप ही नहीं उतर रहा . इधर तीन-चार दिन से कोई ग्राहक भी नहीं आया . सो हाथ भी खाली था . आज तुम आये हो तो कल सुबह उसे डॉक्टर के पास ले जायेंगे... अगर बापू ने पूरा पैसा दारू में न उडा दिया हो तो...अंतिम बात पर आते-आते उसकी आवाज में एक डूब-सी पैदा हो गयी थी .

तो तुम्हारी शादी हो गयी है ? पूछते हुए उसने गौर किया था, उसका आँचल रिसते हुए दूध से भीग रहा था ... . . अरे नहीं . वह तो ले बैठी न जाने किस ग्राहक का . समय पर गिरा भी नहीं पायी... कहते हुए वह बहुत सहज ढंग से अपने ब्लाउज की डोरिया अलगाने लगी थी . मगर अचानक उसे न जाने क्या  हो गया था . उसका पूरा बदन जल उठा था . बहुत करीब से देखने पर अब उसे रूक्मा का चेहरा पहली बार अपनी छोटी बहन की तरह लगा था . वर्षों पहले अपने व्यापार के सिलसिले में जंगीपुर आते-जाते हुए बाबूजी इस रास्ते से कई बार गुजरते थे . उनके मुँह से यहाँ की कई कहानियाँ भी सुनी थी.. ये रूक्मा उन्हीं कहानियों में से कोई अनकही कहानी तो नहीं !  हे भगवान्...!  क्या जाने किस ग्राहक की ले बैठी... , चुसर-चुसर दूध पीता बच्चा... , ‘समय पर गिरा भी न सकी...’                                          
अचानक उठकर वह दरवाजे की ओर बढ गया था- नहीं ! एक और बच्चा नहीं, एक और रूक्मा नहीं... रूक्मा आश्चर्य से उसे पुकारते हुए पीछे-पीछे चली आ रहीं थी . मगर वह तेज कदमों से चलते हुए बाहर आ गया था, न जाने किधर जाने के लिए . वह जल्दी से जल्दी यहाँ से निकलकर बाहर पसरे रात के सुनेड में खो जाना चाहता था . पीछे से आती आवाजें उसे बेतरह डराने लगी थी . उनमें उस बच्चे की आवाज भी शामिल थी जो शायद फिर से जागकर रोने लगा था .


संपर्क ...
-जयश्री राय                                               
मो.  09822581137
      गोवा 


रविवार, 26 अगस्त 2012

विमल चन्द्र पाण्डेय का संस्मरण - सत्रहवीं किश्त



                                विमल चन्द्र पाण्डेय 




             प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर विमल चन्द्र पाण्डेय के संस्मरण 
                            ई इलाहाब्बाद है भईया की
                                   सत्रहवीं किश्त 

                                  २७.

मेरे सिविल लाइन्स आ जाने के कारण विवेक से मेरा मिलना कम हो गया था क्योंकि कीडगंज से सिविल लाइन्स की दूरी अच्छी खासी थी. लेकिन मैं यह दूरी कमोबेश हर शाम को तय कर लेता क्योंकि एक साल पहले मैंने अपने सफर को बजाज डिस्कवर खरीद कर थोड़ा आसान कर लिया था. ‘हमारा बजाज’ का साथ मिलने पर मैं शाम को हाई कोर्ट की खबर टाइप करके भेजता और खाली हो जाता. मैं अंग्रेज़ी का पत्रकार था और अंग्रेज़ी में ही खबर भेजना मेरी ज़िम्मेदारी थी लेकिन यूएनआई लखनऊ से डेस्क से किसी का, प्रायः बसंत जी का, फ़ोन आता और मुझे वह खबर हिंदी में भी भेजने को कहा जाता. मैं कम काम करने के अपराधबोध से दबा यह नहीं कह पाता कि मेरा काम अंग्रेज़ी की ख़बरें भेजना है, हिंदी का ठेका मैंने नहीं लिया.

कीडगंज में एक छोटी सी चाय की दुकान थी जिसे एक बॉडी बिल्डर लड़का चलता था. उस दुकान के भीतर सलमान खान, जॉन अब्राहम और कुछ और मजबूत पेशियों वाले अनभिनेताओं (अगर अभिनेता का विलोम होता हो) के पोस्टर लगे हुए थे और वह लड़का सिनेमा का जुनूनी था. उसकी चाय की दुकान के बगल में उसके बड़े भाई का जनरल स्टोर था और वहाँ पान सिगरेट भी मिलती थी. मैं उसी दुकान पर चला जाता और विवेक को भी बुला लेता. हम वहीँ चाय पीते, देर तक इधर उधर की बातें करते और चाय की दुकान वाले लड़के के उटपटांग सवालों के भी जवाब देते. एक बार जेड गार्डेन में राज बब्बर की प्रेस कांफ्रेंस थी जहाँ कांफ्रेंस के बाद इलाहाबाद के पत्रकारों में राज बब्बर के साथ फोटो खिंचवाने की होड़ मची थी और बब्बर का मोबाइल कहीं खो गया था. मैंने विवेक को बताया कि मैंने कुछ पत्रकारों की धक्का मुक्की कर बब्बर के साथ फोटो खिंचवाने की कोशिश करते हुए फोटो उतारी है. हम उन फोटोज को देख कर हंस रहे थे कि बाहर से वह लड़का भीतर आ गया.

“राज बब्बर का मोबाइल खो गया ?”

“हाँ.” मैंने कहा. मुझे लगा उसके दिमाग में होगा कि एक सेलेब्रिटी का मोबाइल कितना महंगा और शानदार होगा. लेकिन उसके सवाल कुछ दूसरे थे.

“कितने हीरो हिरोइन का नंबर होगा उसमें....उसकी बेटी का भी नंबर होगा न ? उसमें होम से सेव किया होगा घर का नंबर. डायल करो तो जुही बब्बर उठाएगी.” सिनेमा के मामले में उसका सामान्य ज्ञान अच्छा था और उसकी फैंटेसीज कमाल की थीं. अब इसके बाद हमारे बैठने की वह जगह भी खोने वाली थी. इस घटना के बाद हम जब भी वहाँ बैठे, चाय पिलाने से पहले और चाय पिलाने के बाद उसके सवाल राज बब्बर के मोबाइल से जुड़े होते और उस बहाने से मायानगरी मुंबई से. हमसे छिपा नहीं रह गया था कि सुबह शाम पसीना बहा कर शरीर बनने के पीछे उसकी क्या इच्छा थी. हम जब उसकी दुकान में घुसते, उसका पहला सवाल आता, “मिला मोबाइल ?”

“नहीं.” हम कहते और बैठ कर बातें करना शुरू करते और बीच-बीच में उसके सवालों को भी इंटरटेन करते. जब पैसे देकर हम वहाँ से निकलने लगते तो उसका अंतिम सवाल होता, “मिलेगा तो हमको बताएँगे न ?”

हम सिर हिला कर सहमति देते. और क्या देते ?

एक बार आधी रात तक पीने के बाद मैं विवेक के साथ टहलने निकला और मौसम आईपीएल का था. कई गुमटियां १२ बजने के बावजूद खुली हुई थीं और लोग उनमें लगे टीवी सेट पर अपनी पसंदीदा टीम को जितवाने के लिए चिल्ला रहे थे. हम उसी बॉडीबिल्डर के भाई की दुकान तक सिगरेट पीने गए. वहाँ लड़कों के दो समूहों में मारपीट हो रही थी. थोड़ी देर बाद कुछ लोगों ने बीच बचाव किया जिसमे बिल्डर के भाई की सबसे सक्रिय भूमिका रही और भीड़ छंट गयी. मैंने उससे दो सिगरेटें देने को कहा. मैं सिगरेट जला रहा था कि विवेक ने उससे पूछा, “का भया रहा ?”
“तुत नहीं, धाइ इन्ती ते तत्तल में थे इन्ती लल दये.” विवेक हँसने लगा. मैं कुछ नहीं समझ पाया. हम सिगरेट जला कर वहाँ से आगे चले तो मैंने विवेक से पूछा, “तुतलाता है क्या ये ?”

“हाँ.”

“क्या कहा है इसने जो तुम इतना हंस रहे हो ?”

विवेक फिर से हंसने लगा और उसने जो बताया उसे सुन कर मैं उस व्यक्ति की निस्पृहता पर आश्चर्यचकित हुआ. वह अपने आसपास की घटनाओं पर ऐसे प्रतिक्रिया देता था जैसे आसमान में बैठा हो और धरती पर होने वाले घटनाक्रमों के बारे में बता रहा हो. इलाहाबाद अभिव्यक्तियों के मामले में किसी हालत में बनारस से पीछे नहीं था.

नीरेन जी की जगह पर आये राजेश जी बहुत मेहनती इंसान थे और हमेशा नयी चीज़ें सीखने को तत्पर रहते. उन्होंने काफ़ी समय बिना कुछ सीखे गँवाया भी था इसलिए उनका सीखना बनता भी था. मेरे प्रति वह श्रद्धा भाव से भरे रहते और पता नहीं क्यों यह जानने के बावजूद कि मैं विचारधारा से पूरी तरह नास्तिक और संघियों का हर संभव मजाक उड़ाने वाला आदमी हूँ, वह मेरा बहुत सम्मान करते. एक दूसरे को ठीक से जानने के बाद स्थिति यह थी कि अक्सर वह बातों-बातों में वह भावुक होकर कह बैठते, “विमल जी, मैंने आपसे बहुत कुछ सीखा है और सीख रहा हूँ.” मैं हँसने लगता लेकिन विवेक ने ये लाइन पकड़ ली थी. वह मेरा मजाक उड़ाने का कोई मौका नहीं चूकता था और वाईस वर्सा. जब ये कहना बाकायदा राजेश जी की आदत में शुमार हो गया तो उन्हें देखते ही विवेक मुझसे कहने लगता, “विमल जी, आप महान हैं, मैंने आपसे बहुत कुछ सीखा है. आप बिना कोई कोचिंग खोले लोगों को इतना सिखाते फिरते हैं...” मैं जलभुन जाता और उसे मना करता लेकिन वह मना करने से और उत्साहित होता. दो व्यक्तियों की तीन पंक्तियों को लेकर आज भी विवेक मेरा मज़ाक उड़ाता है और ये पंक्तियाँ सुनकर मैं अपनी हँसी नहीं रोक पाता. राजेश जी आज भी फ़ोन करते हैं और बातचीत अगर थोड़ी लंबी खिंच जाए तो कह ही देते हैं, “आपसे इतना सीखा है विमल जी....” कभी कैलाश जी फ़ोन करें और कह दें, “विमल जी, आपकी इत्ती याद आ रही है कि क्या बताऊँ. इलाहाबाद सूना हो गया है आपके बिना.” मैं भावुक भी हो जाता हूँ और होंठो पर हँसी भी आ जाती है. एक बात कैलाश जी और बोलते हैं जब देर रात उन्होंने पीकर मुझे फ़ोन करके इधर उधर की बातें की हों और मुझे कुछ न बोलने दिया हो. अगली सुबह वह उठते ही पहला काम यही करते हैं कि अपना फ़ोन चेक करते हैं कि नशे की हालत में उन्होंने कितने कितने लोगों को फ़ोन किया था बातचीत तो बहुत पीने के बाद याद रहती नहीं तो हल्की फुलकी याद्दाश्त के सहारे फ़ोन लगाते हैं और अगले के फ़ोन उठाते ही शुरू हो जाते हैं, “इत्ती शर्म आ रही है मुझे विमल जी, कल रात जो मैंने अभद्रता की...” मैं कितनी भी परेशानी में रहूँ, उनकी बातों में इतना शुद्ध होपलेस पछतावा मिला होता है कि मैं हंस पड़ता हूँ.

विवेक राजेश जी को इलाहाबाद की खासियतों के बारे में बताता रहता और यदि किसी बात पर राजेश जी आश्चर्य व्यक्त करते तो वह छूटते ही कहता, “ई इलहाब्बाद है भईया. इसको गाजीपुर मत समझियेगा नहीं तो पछताएंगे.” राजेश जी मुस्करा देते. यह पंक्ति एक बार नीरेन जी ने राजेश जी के लिए कही थी जिसे हमने लपक लिया था और गाहे-बगाहे राजेश जी को परोसते रहते थे जिसे वह मंद-मंद मुस्कान के साथ ग्रहण करते. मेरा साथ उन्हें पता नहीं क्यों इतना पसंद था कि वह अक्सर मेरे और विवेक के साथ शेरे पंजाब में बैठते जहाँ हम पहले कुछ पीते फिर चिकन वगैरह का सेवन करते और वह बिना कुछ खाए पिए हमारी बातों को सुनते रहते, जहाँ चाहते वहाँ हस्तक्षेप भी करते.

उन्हें लगता कि मैं अंग्रेज़ी का पत्रकार हूँ तो मेरी अंग्रेज़ी बहुत अच्छी होगी और इसके लिए भी वह मुझसे टिप्स मांगते रहते. मैं उन्हें बताता कि मैंने हिंदी माध्यम से पढ़ाई की है और मेरी अंग्रेज़ी जो थोड़ी बहुत ठीक ठाक है वह इसलिए है कि मेरे पिताजी हर गरमी की छुट्टी में अपने ऑफिस यानि ‘दूर संचार विभाग’ से लाए एक नए रजिस्टर में नए सिरे से टेंस पढ़ाते थे. मैंने सिर्फ़ अपने अभ्यास से अपनी कमजोरियों को थोड़ा बहुत जीता है और इस लायक तो कतई नहीं हुआ हूँ कि किसी को किसी चीज़ के लिए सलाह दे सकूं. वो मानते ही नहीं और अड़ जाते कि उन्हें टिप्स दी ही जाए. मैं टिप्स के नाम पर उन्हें शिव खेड़ा या स्वेट मोर्डेन की एकाध किताबी बातें चिपका देता जिसे वो मेरी उपज मान कर स्वीकार करते और जो मैं चाहता था उसका उल्टा होता चला जाता, वह मेरे और मुरीद होते जाते. ऐसा ही कैलाश जी के मामले में हुआ था जब उन्होंने मुझे युवा पीढ़ी क सबसे ब्रिलियंट कथाकार घोषित कर दिया था. मैंने माथा पीट लिया और उन्हें अपने कुछ उन समकालीन कथाकारों की कहानियाँ पढ़ने को दीं जो मेरे पसंदीदा रहे हैं. उन्होंने सबकी रचनाएँ धैर्य से पढ़ीं और अपने विचारों से टस से मस होने को तैयार न हुए. मेरे प्रति उनका प्रेम है इसलिए मैं अपने बारे में कही उनकी बातों को प्रेम की श्रेणी में डाल देता हूँ नहीं तो मेरी कहानियों पर राय देने वाले इलाहाबाद में जो सबसे सटीक आदमी हैं वो हिमांशु जी और मुरलीधर जी हैं.

इस कमरे में मुझे अच्छा नहीं लगता था क्योंकि एक तो ये एक बंगला था और मैं बंगला संस्कृति में फिट नहीं हो पा रहा था. मैं ऊंचाई वाले कमरे, जो मेरी लाइब्रेरी बन गयी थी, की बालकनी से नीचे देखता तो वहाँ पर हरी घास और फूल दिखाई देते. बंगले का केयरटेकर अश्विनी नाम का एक आदमी था जो मेरे कमरे के सेट के नीचे वाले सेट में अपने परिवार के साथ रहता था. उसके परिवार में उसकी एक चार-पांच साल की बेटी थी जो मानसिक रूप से थोड़ी अस्वस्थ थी और सभी चीज़ों को आश्चर्य भरी अजीब निगाह से देखती थी. उससे छोटा उसका बेटा था जो अभी गोद में था. बंगले के मालिकान मुंबई में रहा करते थे और मुझे हर महीने साढ़े तीन हज़ार रुपये किराये के उनके बैंक अकाउंट में डालने होते थे.

यूएनआई में किसी ज़माने में एक तकनीशियन हुआ करते थे जिनकी मृत्यु के बाद उनका बीस साल का बेटा शोभित उनकी जगह नौकरी पाना चाहता था और गाहे बगाहे गुहार लगाने यूएनआई लखनऊ और दिल्ली ऑफिस जाता रहता था. उसे मेरे पास अश्विनी लेकर आया था और उसके बाद वह अक्सर मेरे पास आने लगा था. शोभित का कहना था कि उसकी माँ उसके छोटे भाई के नाम सारी जायदाद करना चाहती है और उसे पागल करार देकर उसके नाम कुछ नहीं छोड़ना चाहती. वह पागल तो नहीं था लेकिन कई मामलों में मुझे मंदबुद्धि ज़रूर लगता था. मैंने उससे पिंड छुड़ाने की गरज से कहा कि ये उसका घरेलू मामला है और मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता. लेकिन बाद में उसने इतना दबाव बनाया कि मुझे उसकी मदद करनी पड़ी. उसके पास ढेर सारी समस्याएं थीं. एक बार वह आया और उसने कहा कि उसके पिता के नाम पर कुछ ज़मीन थी जो कुछ रसूखदार लोग हड़पना चाहते हैं. वह धूमनगंज की तरफ रहता था और मैंने उसे धूमनगंज थाने की मदद लेने को कहा. उसने मुझसे वहाँ के एसओ से बात कर उसकी मदद करने को कहा. मैंने उससे एक आवेदन लिखवाया और धूमनगंज के तात्कालिक थानाध्यक्ष से बात कर मामला समझाया, उसने पूरी मदद करने का आश्वासन दिया और कहा कि कल वह लड़का थाने आकर उनसे मिल ले. मैंने शोभित को समझाया कि वह ग्यारह से बारह के बीच थाने जाए और थानाध्यक्ष को आवेदन देकर सारी बातें समझाए और ज़रूरत पड़े तो मुझसे बात भी करा दे. शोभित फिर एक हफ्ते बाद आया और उसका कहना था उसकी माँ ने उसे उस दिन उसे थाने जाने नहीं दिया और वह ज़मीन हड़पने वाला आदमी फिर से उसे परेशान कर रहा है. मैंने उसे डांटा और कहा कि थानाध्यक्ष अगर मदद करने को कह भर भी दे तो हमारे राज्य में यह खुशनसीबी की बात होती है और इसका अर्थ समझना चाहिए, वह मदद लेने में कोताही नहीं करनी चाहिए. उसने रुआंसा चेहरा बना कर कहा कि मैं एक बार और बात करूँ और वह इस बार ज़रूर जायेगा. मैंने फिर से बात कि और वह उस दिन भी सुबह कहने के बाद शाम को गया और थानाध्यक्ष को आवेदन दे आया, हालाँकि इसके बाद जब थानाध्यक्ष ने उसे जिस समय बुलाया वह वहाँ गया नहीं. मैं उसका फ़ोन उठने से बचने लगा था क्योंकि मुझे उसकी माँ की बातों में सच्चाई नज़र आने लगी थी.

एक तो यूएनआई लखनऊ से जिस हिसाब से दबाव बढ़ता जा रहा था मुझे लगने लगा था कि जल्दी ही संजय जी अपनी धमकी को पूरा करेंगे और मेरा ट्रांसफर कहीं दूर दराज के एरिया में कर दिया जायेगा और दूसरे मैं अपने प्यार को लेकर भयानक तनाव से गुजर रहा था. तीसरी बात ये कि जब मैं इस कमरे में आता तो मेरी बेचैनी और बढ़ जाती. मेरे फ्लैट के बगल में रहने वाला परिवार जब से ये फ्लैट छोड़ कर चला गया तब से यहाँ सन्नाटा और बढ़ गया था और न जाने क्यों मुझे यहाँ क अकेलापन बड़ा मनहूस सा रहता. मैं दिन भर टीवी चला कर या तो ईटीवी उत्तर प्रदेश देखता रहता या फिर फ़िल्मी गाने चलने देता पर मजा नहीं आता. उस समय मैं अपने डेल के बड़े लैपटॉप पर इंटरनेट का उपयोग अपने मोबाइल से करता था इसलिए स्पीड बहुत धीमी होती थी और आधे घंटे का काम एक घंटे में होता. मैं जैसे ही खाली होता, राजेश जी के ऑफिस की ओर भागता या फिर कीडगंज विवेक से मिलने. मुझे चार कमरों का यह सेट रास नहीं आ रहा था. जब तक मैं कमरे में रहता, मुझे भीतर से बड़ा अजीब सा रहता. बचपन से ही मुझे कभी अकेला रहने में कोई दिक्कत नहीं आई बल्कि दिल्ली में जब मैं अकेला होता था तो वे दिन मेरी रचनात्मकता के लिए बड़े अच्छे होते लेकिन यहाँ का अकेलापन बहुत अजीब सा था. डर की क्या कहें, मैं अपने गांव में अपनी निडरता के लिए गांव में रहने वाले बच्चों के लिए ईर्ष्या का बायस था. मैं हर गरमी की छुट्टियों में गांव जाता और हम भूतों वाली जगहों के लेकर शर्त लगाते, गांव में रहने वाले बच्चों को आश्चर्य होता कि मैं मिजाज से उनसे ज़्यादा निडर था और आधी रात को भी कहीं भी कभी भी चला जाता जबकि मेरे कई गांव के दोस्त बुरी तरह डर जाते. तो यह विश्वास से कह सकता हूँ कि भूत प्रेत सुनने में एक अच्छी और मनोरंजक कहानी से अधिक मेरे लिए कुछ नहीं रहे थे. इस तरह के डर और ऐसे एहसास भी मेरे लिए बहुत अजनबी थे लेकिन इस कमरे में मैं थोड़ा डरा सा रहने लगा. पता नहीं क्यों जब मैं बैठ कर टीवी देख रहा होता तो अचानक मुझे लगता कि मेरे पीछे कोई खड़ा होकर मेरे साथ टीवी देख रहा है. मेरे रोंगटे क्षणांश के लिए खड़े हो जाते और मैं झटके से पीछे पलटता. वहाँ कोई नहीं होता. इस समय ये सब लिखते हुए भी मेरे रोंगटे फिर से खड़े हो रहे हैं और इस बात को कोई ऐसा इंसान नहीं समझ सकता जिसके साथ ऐसा कुछ अपरिभाषित हुआ न हो जिसने उसे उलझाया हो. कारण बहुत से होते हैं और गिनाये जाते हैं लेकिन उस वक्त कोई कारण वहाँ कि स्थिति पर खरा नहीं उतरता था. किराये के साथ बिजली का बिल अलग से जमा करना था और इसलिए मैं बाथरूम जाता तो वहाँ से निकलते ही बत्ती बुझा देता. बत्तियाँ ज़रूरत न होने पर बुझा देने की अच्छी आदत मुझे घर से ही थी और मैं इसमें कभी कोताही नहीं करता था. आश्चर्य होता कि मैं बाथरूम से बत्ती बुझा कर तैयार होकर कोई प्रेस कांफ्रेंस या खबर कवर करने निकलता और वापस आकर बाथरूम में घुसता तो अक्सर बत्ती को जलता हुआ पाता. एक बार तो मैंने बाहर से लौट कर टीवी चलाया और मेरे सामने टीवी अपने आप बंद हो गया जबकि रिमोट का मुँह टीवी के उलटी दिशा की ओर था. मैं झल्लाया और मैंने टीवी कंपनियों को गाली दी. मैंने बाथरूम के प्लग भी चेक किये जो एकदम सही थे. ये चीज़ें मुझे इरिटेट करतीं और मैं मानने लगा कि मेरी याद्दाश्त कमज़ोर हो रही है.

विवेक इस कमरे पर बार-बार बुलाने पर भी आना अवाइड करता और कहता कि मैं ही उसकी तरफ चला आऊँ. मैं चला जाता लेकिन कई बार मेरे बार बार बुलाने पर भी वह नहीं आता तो मुझे थोड़ा गुस्सा भी आता. मैंने एक बार कहा कि मैं उसके एक बार बुलाने पर सिविल लाइन्स से कीडगंज चला जाता हूँ और वह इतने नखरे करता है, वह सचमुच गणितज्ञ है लेकिन अच्छा होगा वह अपनी गणित मुझपे न चलाये नहीं तो मैं हर चीज़ की काट रखता हूँ. वह मेरी धमकी का मान रखने के लिए कभी-कभी आ जाता. एक दिन उसने मेरी बनाई हुई कड़क चाय पीते हुए कहा कि उसे इस कमरे में आने में अच्छा नहीं लगता क्योंकि उसे यहाँ बड़ा मनहूस लगता है. मैं ख़ामोश हो गया और अपनी चाय पीने लगा तो उसने अपनी बात को जस्टिफाय किया.

“यार हम लोग मोहल्ले में रहने वाले लोग हैं. मेरी नींद सुबह तब खुलती है जब मेरी खिड़की के पास आकर ठेले वाला चिल्लाता है, “आलू, बैंगन, परवल, टमाटर....” तो हम लोगों के लिए ये सोफिस्टिकेटेड माहौल थोड़ा अजीब सा लगता है, एकदम शांत, एकदम गंभीर.”

मैं उसकी बात सुनता रहा. मैंने भी उसे बताया कि मुझे यहाँ अच्छा नहीं लगता क्योंकि मैं अकेला बोर हो जाता हूँ. विवेक ने कहा कि एक आदमी अगर चार कमरों में रहेगा तो वह बोर होगा ही. मैंने उसे और कुछ नहीं बताया क्योंकि ये एक तरह से मेरी हार जैसी बात होती. उसे पता था मैं न तो ईश्वर पर विश्वास करता हूँ, न किस्मत पर और न ही किसी आसमानी बात पे और यह कुछ ऐसी ही बात को स्वीकार करना होता.

                                    २८.                   

जब मैं अपने प्यार से मिलने दूसरी बार जा रहा था तो संदीप के साथ जाकर मैंने कटरा से उसके लिए एक लाल साड़ी खरीदी. विवेक ऐसे कामों में रूचि नहीं दिखाता था और मैं ज़बरदस्ती नहीं करना चाहता था. संदीप का एक प्रेम प्रसंग था जो लंबे समय तक चल कर टूट गया था और उसने उसे आधार बना कर एक कहानी लिखी थी जिसे वह चाहता था कि मैं कहीं छपवा दूं. वह अचानक मेरे बहुत करीब आ गया था क्योंकि वह प्यार कर चुका था और मैं प्यार में था. वह एक कहानी लिख चुका था और मैं रेगुलर कहानियाँ लिखता था. मैंने उसे विश्वास दिलाया कि मेरी कहानियाँ पत्रिकाओं में छपती हैं इसका मतलब ये नहीं कि मैं जो भी लिख देता हूँ वह छप जाता है. उसने विश्वास नहीं किया और मुझे गालियाँ देने लगा. मैंने उसे तद्भव के संपादक अखिलेश और रविन्द्र कालिया के पत्र दिखाए जिन्होंने मेरी कहानियों को अलग-अलग कारणों से अस्वीकृत करते हुए छापने से मना कर दिया था. उसका गुस्सा कुछ कम हुआ.

वह नॉनवेज का बड़ा शौक़ीन था और चिकन को लेकर वह वैसा ही भावुक हुआ करता था जैसा एक ज़माने में प्यार में पड़ने पर हुआ होगा. पढ़ने में यह बात अजीब लग सकती है लेकिन यह सोलह आने सच बात थी. उसका एक भतीजा था जिसे वह बहुत मानता था. उसका भतीजा उससे ज़्यादा उसे मानता था और मेरे कमरे पर या कहीं बाहर देर होने पर वह अचानक ऐसे जाने के लिए उठ खड़ा होता जैसे नए शादीशुदा लोग अपनी बीवी का फ़ोन या एसएमएस आने पर उठ खड़े होते हैं.

“क्या हुआ अचानक ?” कोई पूछता.

“अरे चलें यार, सुन्दरम डंडा कर रहा है.” वह कहता.

“अरे तो बोल दो न फ़ोन करके कि देर लगेगी.”

“नहीं यार, चलते हैं नहीं तो वह गुस्साने लगेगा.” संदीप सफाई देता. हम उसकी इस बात को पिंड छुड़ाकर भागने का बहाना मानते. लेकिन हमारा यह भ्रम दूर हो गया जब हम उसके भतीजे सुन्दरम से मिले. वह एक बहुत प्यारा, बचपन से किशोरावस्था की दहलीज पर खड़ा बालक था जो अपने चाचा से इतना प्यार करता था कि उन्हें कहीं अकेले जाने देने में उसे बहुत घबराहट होती थी. शाम होते ही वह चाचा को खोजने लगता था और उनका फ़ोन घुमा देता था. एक दिलचस्प बात यह थी कि सुन्दरम चिकन और अंडे खाने का बहुत शौक़ीन था और अक्सर चाचा को कहता था कि वे आते हुए उसके लिए ऑमलेट लेते आयें. वह बीच-बीच में चाचा से चिकन खाने के लिए मनुहार करता और उम्मीद करता कि जैसे चाचा पहले उसके कहने पर उसके लिए बनवा देते थे, वैसे ही लाकर बनवा देंगे लेकिन चाचा ने चिकन के बढते खर्चे के मद्देनज़र भतीजे से यह कह दिया था कि उन्होंने चिकन खाना छोड़ दिया है. अब हालात यह थे कि चाचा तो घर में चिकन मटन नहीं ले जाते थे लेकिन घर का कोई और सदस्य भी इनमे से कुछ ले आये तो संदीप के लिए घर के शाकाहारी सदस्यों के साथ लौकी या नेनुआ की सब्जी बनाई जाती थी. जब वह धीरे धीरे लौकी की सब्जी से रोटी खा रहा होता, घर का कोई सदस्य कह बैठता, “ले लो एक पीस, टेस्ट तो कर लो, काहे छोड़ दिए?”

संदीप मुस्करा कर कहता, “अरे नहीं, ठीक है. आप लोग खाइए.”

कोई कहता, “अरे बहुत अच्छा बना है, चखो तो.”

वह मजबूरन कहता, “अरे हम छोड़ दिए तो छोड़ दिए, लौकी भी अच्छी बनी है.”

उसके साथ ऐसे दुखद पल अक्सर आते. एक बार उसने हमें अपने पारिवारिक टेलर खान के घर शादी का न्योता दिया. उसका अंदाज़ा था कि शादी अटेंड करने अपने घर से सिर्फ़ उसे ही भेजा जायेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उसके साथ सुन्दरम और उसके पिताजी यानि संदीप के बड़े भाई साहब (जिनका लंबी बीमारी से देहांत हो चुका है, उन्हें श्रद्धांजलि) भी आये. मैं विवेक को अपनी बाईक से लेकर पहुंचा. हम आमने-सामने ही बैठे. पार्टी करेली में थी और विवेक का कहना था कि करेली में मुसलमानों के यहाँ की पार्टियों की अलग ही रौनक होती है और उनका भोजन भी अलग होता है. मैं और विवेक अगल बगल बैठे थे और हमारे सामने संदीप सुन्दरम के साथ बैठा था. भाई साहब मित्रों से बात करने में व्यस्त थे. हम तीनों के खाने के लिए चिकन परोस दिए गए और संदीप के लिए शाही टुकड़ा लाया गया. शाही टुकड़ा थोड़ा हमने भी चखा जो बिलकुल फीका लगा और हम लोग फिर से चिकन पर जुट गए. हमारे सामने बैठा संदीप शाही टुकड़ा खाता रहा और हम चिकन. बीच-बीच में सुन्दरम कह उठता, “चाचा, चिकन बहुत स्वादिष्ट है.” हमने भी मुस्कराते हुए कहा, “वाकई बहुत टेस्टी है, चखोगे ?” संदीप के चेहरे पर अनगिनत भावों का कोलाज था और उसने दुखी आवाज़ में कहा, “सही कह रहे हो.”

हम कमरे पर चिकन बनाते तो संदीप को बुला लेते और इसका फायदा विवेक ने एकाधिक बार उठाया. उसने संदीप, जो कि अपने बयान अनुसार कहीं दूर ट्रैफिक जाम में फंसा हुआ था, को कहा कि कमरे पर चिकन बनाया जा रहा है और वह जल्दी से आ जाए. जब संदीप रात दस भजे भगा हुआ कमरे पर आया तो विवेक ने कहा कि उसका बहुत इंतजार किया गया और उसके न आने पर हमने खाकर खत्म कर दिया. वह गालियाँ देता. हम ले लेते क्योंकि हमारा उद्देश्य भी वही रहता.

मुखातिब अपनी साहित्यिक उपलब्धियों का सफर तय कर रहा था. पूरे इलाहाबाद में गोष्ठियों की धूम थी और हमें इसके बारे में अलग-अलग ख़बरें सुनाई पड़तीं जैसे-  उर्दू वाले नाराज़ हैं कि हिंदी वाले मुखातिब नाम से गोष्ठी कर रहे हैं और उन्हें बुलाया नहीं जा रहा, जैसे- वहाँ रचनाओं पर बड़ी बदतमीजी से बात की जाती है और बड़े-छोटे का लिहाज नहीं किया जाता, जैसे- एकाध लोग हैं जो बोलना शुरू करते हैं तो बोलते ही जाते हैं या फिर जैसे- वरिष्ठता और कनिष्ठता का कोई लिहाज नहीं रखा जाता और किसी सीनियर कवि के पहले किसी नए लड़के को बोलने के लिए आमंत्रित कर दिया जाता है. इन सब के बीच इस गोष्ठी में इतिहासकार और इतिहासबोध पत्रिका के संपादक लाल बहादुर वर्मा ने अपनी पहली कहानी का पाठ किया. शायद ‘बाहरवाले’ नाम से उन्होंने कहानी लिखी थी जिसके पाठ के बाद उस पर व्यापक चर्चा हुई और वर्मा जी उस चर्चा से बहुत खुश थे. सीमा ‘आज़ाद’ ने अपनी पहली कहानी ‘कारवां चलता रहेगा’ का पाठ किया तो रंगमंच के प्रसिद्ध निर्देशक अनिल रंजन भौमिक की संस्था के कार्यक्रम के बाद उनके नाटकों पर लिखी रिपोर्ट पर विस्तृत चर्चा हुई. लोगों की संख्या पांच से तीस हो चुकी थी और गोष्ठियों में कम से कम पांच-छह ऐसे अवसर आ चुके थे जब दो वरिष्ठ रचनाकारों के बीच में किसी कहानी पर प्रतिक्रिया देते हुए मारपीट की नौबत आ चुकी थी. मामला फिट था और मुखातिब हिट था.

मैंने रिलायंस में अनलिमिटेड फ्री वाला वाउचर डलवा लिया था और हमेशा उससे जुड़ा रहता था. वह मेरे सुबह उठने पर मेरे नाश्ते से लेकर रात तक मेरा ख्याल रखती और मैं उसकी एक छींक पर चिंतित हो जाता. वह मेरी कविताएँ सुनती और अपनी सुनाती. उसकी कविताएँ सुनते हुए मुझे लगता कि मुझे कविता लिखनी छोड़ देनी चाहिए. मैं उसे कविताएँ पत्रिकाओं में भेजने के लिए कहता तो वह मना कर देती. वह ईश्वर में बहुत विश्वास करती थी और नास्तिकता के मेरे सारे तर्क उसके प्यारे तर्कों के आगे घुटने टेक देते. वह ईश्वर से भी प्यार करती थी और उसकी श्रद्धा देखकर जिंदगी के साथ-साथ हर चीज़ में श्रद्धा जाग उठती. उसके भीतर इतना प्यार भरा था कि वह पूरी दुनिया को प्यार से भर देना चाहती थी. वह घोंसले से गिरे चिड़िया के बच्चे के लिए घंटों रो सकती थी और मैं भी उस जैसा होता ही जा रहा था. दुनिया अचानक बहुत खूबसूरत लगती जा रही थी और लगता जैसे ये वक्त हमेशा इसी रफ़्तार से चलेगा. हमेशा हम इसी ज़मीन पर इतने ही दबाव के साथ खड़े रहेंगे. उस समय यह सोचना भी मुश्किल था कि धीरे-धीरे ज़मीन से हमारी पकड़, ज़मीन पर हमारा दबाव और धरती पर हमारा वजन कम होता जायेगा. मैं उससे बहुत नाराज़ था, मैं दुनिया में उसे ही सबसे ज़्यादा प्यार करता था, मैं उससे इतना प्यार करता था कि कभी-कभी उसे मार डालने की इच्छा जागती और मैं उसे बता देता. मैं उससे खूब झगड़ा करता, “तुम मुझसे शादी करने के लिए कैसे मना कर सकती हो, जानती हो, पूरी दुनिया में तुम्हें मुझसे ज़्यादा प्यार कोई नहीं कर सकता.” वह कहती, “शायद मेरी किस्मत इतनी अच्छी नहीं.” ऐसी बातें मुझे हिंसक बना देतीं और मैं उसे झिडकता, कोसता और बातचीत बंद कर देता. सुबह से शाम होते-होते मेरे हाथ उसका नंबर डायल करने लगते या वो ही एक छोटी सी मिस्ड काल डे देती. “कैसी हो ?” “अच्छे हैं.” “हम दिन भर फ़ोन नहीं करेंगे तो तुम भी फ़ोन नहीं करोगी?” “आप सच में हमसे बिना बात किये रह सकते हैं न?” से बात शुरू होती जो जल्दी ही रोने में बदल जाती. हम आंसुओं में धुल कर फिर पाक हो जाते.

मेरी जिंदगी में उस वक्त मेरे प्यार के बाद नाम मात्र की चीज़ें थीं जिन्हें मैं पसंद करता था, मेरे दोस्त, मुखातिब और इलाहाबाद जो हर दिन मुझे और अधिक अपना सा लगता जा रहा था.
मुझे नहीं अंदाज़ा था कि किसी भी पल एक कागज के टुकड़े से डर कर मुझे अपना प्यारा शहर इलाहाबाद छोड़ना पड़ सकता है.


                                                               क्रमशः 

                                                   प्रत्येक रविवार को नयी किश्त ...

संपर्क - 

विमल चन्द्र पाण्डेय 
प्लाट न. 130 - 131 
मिसिरपुरा , लहरतारा 
वाराणसी , उ.प्र. 221002

फोन न. - 09820813904
         09451887246


फिल्मो में विशेष रूचि 
 



बुधवार, 22 अगस्त 2012

कला अनिवार्यतः सामाजिक होती है --देवेन्द्र राज अंकुर



देवेन्द्र राज अंकुर के साथ तिथि दानी 
                                 
                                 
                      प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व निदेशक
                                                     देवेन्द्र राज अंकुर का साक्षात्कार 
                                                           उनसे बात कर रही हैं , 
                                             युवा कवयित्री और कथाकार  'तिथि दानी'


               कला अनिवार्यतः सामाजिक होती है ----देवेन्द्र राज अंकुर 


तिथि- अभिनय और रंगमंच से जुड़ने का रुझान  कब और कैसे पैदा हुआ?

दे.रा.अ.    जब स्कूल कॉलेज में पढ़ रहे थे तो कुछ सांस्कृतिक गतिविधियाँ, वाद-विवाद होते रहते थे, अब भी होते हैं तो बुनियादी शुरूआत वहीं से हुई। हमारे पिता एक छोटे से कस्बे में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में काम करते थे। उनका स्थानांतरण जब उत्तर प्रदेश में हुआ, तब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था, तभी सही मायनों में अभिनय से जुड़ा। इसी समय प्रत्यक्ष तौर पर नाटक की यात्रा शुरू हुई। उस दौर में जितना हो सका उतना साहित्य पढ़ा। फिर पब्लिक इंटर कॉलेज में अध्ययन के दौरान कुछ ऐसे प्राध्यापक मिले जो सांस्कृतिक गतिविधियों में काफी दिलचस्पी लेते थे। खुद ही नाटक देखने और करने की शुरूआत हुई, प्राध्यापकों ने भी सहयोग किया। हमारे बड़े भाई दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाते थे। गर्मी की छुट्टी में वह आते थे, हम जो किताबों की लिस्ट उन्हें थमाते थे, वह सारी ले आते थे। जो भी महत्वपूर्ण कहानियाँ और उपन्यास थे हमने सारे पढ़ डाले थे। इस तरह एक पृष्ठभूमि तैयार होनी शुरू हो गयी थी। उसके कुछ समय बाद मैं खुद दिल्ली आ गया। जनवरी 2012 में दिल्ली में रहते हुए मुझे 50 वर्ष हो गए। ज़ाहिर है, यहाँ इन गतिविधियों में तेज़ी आई। इससे और आगे जाने का मौका  भी मिला।
          राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से जो लोग निकले थे, उनमें ओम शिवपुरी, सुधा शिवपुरी, रामगोपाल बजाज आदि ने मिलकर 1967 में देशांतर नाम से एक नाट्य मंडली शुरू की। उस समय मैं डी.यू. में पढ़ रहा था। दिनेश ठाकुर जो अभी मुंबई में हैं, वह किरोड़ीमल कॉलेज में थियेटर में काफी सक्रिय थे, जहाँ से अमिताभ बच्चन, सतीश कौशिक आदि ने अपनी पढ़ाई पूरी की थी। इनसे संपर्क के बाद से ही मैं रंगमंच की तरफ़ आया। लोगों के काम को देखते, दिन-रात नाटकों को करते हुए, बातचीत करते हुए कि कैसे उनको और बेहतर ढंग से किया जाए, इस तरह यहीं से गंभीरता से एक नियमित काम की शुरूआत हुई। इससे पहले हमारा इतिहास स्कूल-क़ॉलेज का था जिसमें डायलॉग याद कर लो, टीचर की तरह किताब हाथ में लेकर मंच पर खड़े हो जाओ... बस यही था। उसके पीछे कोई सोच संलग्न नहीं थी। लेकिन जब इन लोगों से मिला, इनके साथ काम शुरू किया, तब लगा कि अब इसी में काम करना है। फिर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में 1969 में मैंने आवेदन किया और मेरा चुनाव हुआ। फिर तीन वर्ष मैं वहाँ रहा। 1972 में वहाँ से निर्देशन में पास होकर बाहर आया।अभिनय मेरी पहली प्राथमिकता कभी नहीं रही। निर्देशन में सक्रिय रहा। अगर मैं निर्देशन में न आया होता तो हिन्दी या अंग्रेज़ी का प्राध्यापक होता और प्राध्यापक में एक जो ऑब्जेक्टिविटी और सारी चीज़ों को साथ लेकर चलने का अंदाज़ होता है, उसी ने निर्देशन की ओर प्रेरित किया। 1972 में निर्देशन में विशेषज्ञता हासिल की।
        
        उन दिनों कोई दूरदर्शन नहीं था। दिल्ली के लगभग 25 किलोमीटर के दायरे में दूरदर्शन ब्लैक एंड व्हाइट दिखाई देना शुरू हुआ था। कोई सीरियल, वीडियो, ऑडियो प्लेयर नहीं था। इन सारे माध्यमों का उस समय चलन नहीं था। ज़ाहिर सी बात है कोशिश यही रही कि सीधे-सीधे रंगमंच से जुड़े रह कर ही उसे कैसे अपने जीवन यापन का साधन बनाया जाए। मुख्य रूप से यही संघर्ष था। 1972 से 1988 तक मैंने पूरी तरह से एक फ्रीलांसर के तौर पर काम किया। अलग-अलग शहरों में जा कर अलग-अलग नाटक मंडलियों के साथ काम किया।
         मुझे जिस वजह से लोग ज़्यादा जानते हैं वह है, कहानी को कहानी की ही तरह से यानि, बिना उसका रूप परिवर्तित किए मंचित करना। इसकी शुरूआत निर्मल वर्मा की कहानी से 1975 में हुई और आज तक यह सिलसिला जारी है। इसी वजह से मैं एकदम से लोगों की नज़रों मे आया। मेरी भरपूर प्रशंसा भी की गई और ज़बरदस्त आलोचना का शिकार भी होना पड़ा। लेकिन मैंने अपना यह काम लगातार जारी रखा। आज हिन्दुस्तान का हर छोटा-बड़ा निर्देशक, हर छोटी-बड़ी मंडली, हर छोटे-बड़े शहर में इस काम को करने में लगे हैं। यह एक पूरा दौर है।

तिथि- कहानी के साथ आपने न्याय करने की कोशिश की क्योंकि आपने इसका रूप परिवर्तित नहीं किया। इसके बावजूद आलोचना के लिए आधार कैसे बने?

 दे.रा.अ.....      इसका आधार यह रहा कि लोगों ने आक्षेप लगाने शुरू कर दिए कि हिन्दी में नाटक नहीं हैं, इसलिए अंकुर कहानी का मंचन करने में लगे हैं। यह एक मौसमी फ़ेज़ है जो समाप्त हो जाएगा। लेकिन मैं लगातार नाटक करता रहा। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में नौकरी करते हुए भी अपने किस्म का काम करने का मौका मिला। मुझे अच्छा लगा कि विद्यालय में कहानियों के मंचन को पाठ्यक्रम का हिस्सा बना दिया गया। अब वहाँ एक बार लोक नाटक की, एक बार शेक्सपियर के नाटक की, तो एक बार यथार्थवादी नाटक की प्रस्तुति होती है।
         एक प्रस्तुति ऐसी रचना को लेकर जो मूलत: नाटक नहीं है, उसको कैसे मंचित किया जाए, इसके लिए 1975 में मैंने एक शीर्षक ढूंढ लिया था - कहानी रंगमंच। शुरू से लेकर आख़िरी तक देखें तो कहानी से रिश्ता सुनने-सुनाने का है, दूसरा पढ़ने का। लेकिन इस काम ने एक तीसरा रास्ता खोला कि अब कहानी देखी जा सकती है। इस पर लोगों ने बातें की, सवाल भी उठता रहा कि कहानी तो दूरदर्शन पर भी देखते हैं। कहानी का नाट्य रूपांतरण होता रहा और उपन्यास का भी तो सवाल यह पैदा होता है कि इसमें अंतर क्या है तो मैं यही कहूँगा उदाहरण के तौर पर कि, दूरदर्शन पर हम रंगमंच नहीं देख रहे होते बल्कि प्रस्तुति देख रहे होते हैं क्योंकि रंगमंच एक जीवंत माध्यम है। जहाँ तक नाट्य रूपांतरण की बात है तो कहानी को कच्चे माल की तरह उपयोग करते हुए एक नए माध्यम में परिवर्तित किया जाता है, कहानी का एक नया रूप बनाया जाता है जिसे नाटक कहते हैं। सचमुच अगर कला के अनुभव में और माध्यमों के अनुभवों में अंतर नहीं तो हमें अलग-अलग नाम देने की क्या ज़रूरत थी जैसे लोक संगीत, शास्त्रीय नाटक आदि। हम सब एक ही शब्द से काम चला सकते थे। ये सारी बातें होती रहीं लेकिन अब सारे विवाद ख़त्म हो चुके हैं क्योंकि अब वे लोग खुद ऐसा काम कर रहे हैं जो एसा कहा करते थे। इस तरह के काम का एक लंबा इतिहास है। मैंने अपना पहला प्रदर्शन 1 मई से 6 मई तक किया था। अब तक सैंतीस साल बीत चुके हैं और मैंने 500 के लगभग कहानियाँ और 15-20 उपन्यासों पर काम किया है। मज़े की बात यह है कि हिन्दुस्तान की हर भाषा में काम करने का मौका मिला।

तिथि- सबसे ज़्यादा आनंद का अनुभव किसके मंचन से मिला, कहानी के या उपन्यास के?

दे.रा.अ. .....दोनों में ही आनंद का अनुभव मिला। कहानी का अपना एक कलेवर होता है और उपन्यास निरंतरता में रहता है। कहानी थोड़ी छोटी होती है। कहानियाँ दो तीन मिलायी जाती हैं और उपन्यास अपने आप में एक संपूर्ण रचना है। इन दोनों में अवधि का फ़र्क है। कहानी में मज़ा तब आता है जब अलग-अलग लेखकों की अलग-अलग कहानियां होती हैं लेकिन उनकी विषयवस्तु एक ही होती है।मैंने निर्मल वर्मा की कहानियों पर भी काम किया। एक प्रस्तुति ऐसी की जिसमें तीन अलग-अलग लेखकों की कहानियां थीं जिसमें सबसे पहली कहानी में, महानगर में आदमी औरत के बीच बहुत दोस्ती होती है और तीसरी कहानी तक आते-आते टूट चुकी होती है। मन्नू भंडारी का उपन्यास महाभोज’ , जिसे मैंने ही मंचित किया था उसे बाद में नाटक का रूप दिया गया।


तिथि- कहानी या उपन्यास के मंचन में से आपको क्या ज़्यादा चुनौतीपूर्ण लगा ?

दे.रा.अ. ....दोनों में अलग तरह की चुनौतियाँ हैं। जब हम यह तय करते हैं कि रूप में परिवर्तन नहीं करेंगे तो चुनौतियाँ ज़्यादा बढ़ जाती हैं। कहानी तृतीय पुरुष में लिखी जाती है तो अक्सर अभिनेताओं के ज़ेहन में यह सवाल पैदा होता है कि हम खुद अपने ही बारे में, अपना नाम लेकर आख़िर बात कैसे कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में मैं उन लोगों को समझाता हूँ कि, क्या हम अपने आप से बाहर खड़े हो कर अपने बारे में बात नहीं कर सकते? इस तरह मैं उनको आश्वस्त करता हूँ।
         दूसरे तरह की चुनौती यह मिलती है कि कहानी के विवरणात्मक पक्ष का क्या किया जाए? नाटक में बहुत सुविधा है कि आप या तो उसे हटा दीजिए या सीनिक एलीमेंट मे तब्दील कर दीजिए। यदि बुलवाना पड़ जाए तो आप सूत्रधार जैसा आदमी लाते हैं जो उसे आगे तक निभा सके। मैंने अपने काम को करते हुए कभी सूत्रधार जैसी युक्ति का इस्तेमाल नहीं किया। तब मुझे लगता था कि क्या विवरण हमारे लिए संवाद बन सकता है। यह भी हो सकता है कि कोई कहानी आपको बहुत अच्छी लगे लेकिन उसमें कोई संवाद न हो लेकिन वह कोई ऐसी बात कह रही हो जो गहराई से महसूस हो रही हो, तो उसे छोड़ा नहीं जा सकता। जब हम इसे मंचित करने का निर्णय लेते हैं तब प्रश्न यह पैदा होता है कि उसकी प्रस्तुति का क्या रूप होगा, तो ज़ाहिर है जो विवरण का फॉर्म है, वह हमारे लिए संवाद बनता चला जाएगा। फिर भी मैं एक स्पष्ट बात कहना चाहूँगा कि हमने इतना काम किया फिर भी हम इसकी कोई व्याकरण तैयार नहीं कर सके।
         इतनी लंबी यात्रा में, मैंने अपने लिए यह तय किया कि, कहानी नहीं बदलेगी, कोई सूत्रधार नहीं आएगा। इसके अलावा एक बेयर स्पेस और अगर कुछ सजैस्टिव आना है तो आएगा, इससे ज़्यादा की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। इसके लिए अभिनेता की मंडली तैयार है और तब एक्सप्लोर करने के लिए जहाँ तक जा सकते हैं जाएँगे। इसके लिए यात्रा की सारी तैयारी है। जब हम कहानी पर काम करते हैं तो हम सभी मिल कर कहानियाँ पढ़ते हैं। इस दौरान कुछ को चुनते है, कुछ को रद्द करते हैं और इस तरह अंतत: एक कहानी का चुनाव करने में सफल हो ही जाते हैं। हालांकि स्थितियां बदलती रहती हैं क्योंकि रंगमंच में कुछ भी अंतिम नहीं है। पहले शो के बाद भी कुछ परिवर्तन हो सकते हैं।

तिथि- आजकल एक चलन बन गया है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के कई उम्दा कलाकार बॉलीवुड का रुख़ कर रहे हैं, क्या ऐसे में वहाँ अच्छे कलाकारों का अभाव नहीं हो जाता?

 दे.रा.अ. .....इसके लिए हमें सांस्कृतिक नीति में बहुत बदलाव लाने होंगे। 1959 में सरकार ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की नींव रखी लेकिन उस समय कोई दूरगामी योजना नहीं बनायी गयी कि यहाँ से जो लोग तैयार हो कर निकलेंगे, वो रंगमंच में कहाँ जाएँगे। दूसरे पेशों में देखा जाए तो ऐसा नहीं है जैसे डॉक्टर है , तो अस्पताल हैं। इंजीनियर हैं तो उनके विकास के लिए इंडस्ट्री है। हर प्रांत में एक रंगमंडल की स्थापना होनी चाहिए थी ताकि वहां से जो छात्र निकलें, वे अपने-अपने प्रांतों मे जाएँ और वहाँ के रंगमंडल से जुड़ें। फिर वहीं अपनी रोज़ी-रोटी का इंतज़ाम करें और अपनी पहचान बनाएँ। लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका।
        कहना काफी आसान है कि रंगमंच के कलाकारों को वहीं रह कर अपना काम करना चाहिए लेकिन वो रंगमंच में कहाँ काम करें  यही प्रश्न सबसे पहले एक ज्वलंत समस्या की तरह खड़ा होता है। बाहर जितनी भी रंगमंडलियाँ हैं, उनका स्वरूप शौकिया है। बाद में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने एक रंगमंडल की शुरूआत की। लेकिन एक रंगमंडल एक वक़्त में कितने लोगों को काम पर रख सकता है, यह विचारणीय है। बच्चों के लिए काम करने वाला भी एक रंगमंडल गठित किया गया।  एक और रंगमंडल की स्थापना भी की गयी जिसका नाम यायावर है। यह दिल्ली से बाहर जा कर भी अपनी प्रस्तुति देता है। इस तरह से एक वक़्त में 50 से 100 व्यक्ति एक साथ काम कर लेते हैं, लेकिन राज्य सरकार यदि आगे नहीं आती हैं तो यह भी इस समस्या का कोई स्थायी हल नहीं है। जहां भी पहल हुई, जैसे भारत भवन की स्थापना, और मध्य प्रदेश रंगमंडल बहुत समय तक चला। बाद में उसमें अपने ही आंतरिक विरोध हुए लेकिन फिर काफी विचार विमर्श चला और सारे विवादों का निपटारा हो गया। कुछ और भी सरकारी उपक्रम सामने आए जैसे कर्नाटक सरकार का रंगायन नाम से एक रंगमंडल है। जहाँ भी इस तरह की चीज़ें हैं वहाँ पर उत्तीर्ण हो कर निकलने वाले छात्रों के लिए पर्याप्त अवसर हैं।
        राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में सिर्फ़ हिन्दी भाषी लोग नहीं आते बल्कि हिन्दुस्तान के भाषा-भाषी लोग आते हैं और वे अपने प्रदेश लौट जाते हैं। उनकी अपनी इंडस्ट्री, दूरदर्शन सब वहीं पर है। वे तीनों माध्यमों में एक साथ वहाँ रह कर काम कर सकते हैं। उनको दिल्ली यानि अपना घर नहीं छोड़ना पड़ता। सिर्फ़ जो हिन्दी भाषी हैं, यह समस्या मुख्य रूप से उन्हीं की है। सारी इंडस्ट्री मुंबई में हैं, इसलिए अब दूसरी जगह जाना वहां सभी माध्यमों में काम करना, काफी मुश्किलों से भरा होता है। यह समस्या सभी अभिनेताओं के साथ बनी रहती है।हालांकि इस समस्या का हल धीरे-धीरे निकल रहा है जैसे, सरकार शिक्षा से साथ प्राइमरी स्तर पर ही नाटक को एक विषय के तौर पर शामिल करने पर विचार कर रही है और कुछ राज्यों में इसे लागू भी कर दिया गया है। स्कूल में विषय के रूप में पढ़ाए जाने की बात बहुत अच्छी है। इस तरह से अवसरों के कई दरवाज़े खुल जाते हैं क्योंकि नाटक को विषय के रूप में पढ़ाने के लिए लोगों की ज़रूरत पड़ेगी। इसलिए जो लोग विशेषज्ञता हासिल कर के निकल रहे हैं, उनके लिए अच्छे अवसर पैदा हो रहे हैं। भारत के विश्वविद्यालयों में भी अब थियेटर डिपार्टमेन्ट हैं। सरकार और यू.जी.सी. ने स्वीकार किया है कि उनके लिए पीएचडी या नैट आवश्यक नहीं है ,  लेकिन उन्हें राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय या उसके समकक्ष किसी संस्थान से प्रशिक्षित होना ज़रूरी है।


तिथि- अभिनेता कुछ प्रसंगों में क्या अपने जीवन को भी प्रस्तुत करता है या हमेशा दूसरे पात्रों, चरित्रों और लोगों के अनुभवों के माध्यम से ही प्रस्तुति देता है या अपनी इमोशनल मैमोरी के आधार पर चरित्र गढ़ता है?

दे.रा.अ....   अभिनेता कभी भी अपने जीवन को प्रस्तुत नहीं करता और न ही उसे ऐसा करना चाहिए। अभिनय एक कला है जिसे प्रस्तुत किया जाता है। यदि अपना ही जीवन प्रस्तुत करना हो तो अभिनय की आवश्यकता नहीं पड़ सकती। यह ज़रूर कहा जा सकता है कि अभिनेता अपने जीवन की किसी घटना से प्रेरणा ज़रूर ले सकता है। वह सुबह-शाम घूमता रहता है, लोगों को देखता रहता है, उनके संपर्क में आता है। यह सब उसकी मैमोरी में दर्ज़ होता रहता है और उसको जब इससे मिलते-जुलते इमोशन की ज़रूरत होती है तो वह उनका इस्तेमाल करता है। एक अभिनेता के लिए अपने जीवन को या अपनी भावनाओं को प्रस्तुत करने की कोई संभावना नहीं होती। अब जैसे मान लें कि सड़क पर कोई दुर्घटना हो जाती है तो यह एक वास्तविक घटना है लेकिन अगर हम इसे मंच पर प्रस्तुत करते हैं तो वह वास्तविक घटना नहीं हो सकती, इसलिए ज़ाहिर सी बात है कि इसे छोड़ना ही पड़ेगा। जीवन और नाटक के बीच यही भेद है।
         वे अभिनेता जो अच्छे कलाकार होते हैं, हमेशा एक भूमिका निभाने के बाद तुरंत उससे अलग हो जाते हैं लेकिन कुछ ऐसे अभिनेता भी होते हैं जो कई दिनों तक एक ही भूमिका में खोए रहते हैं और रोमेंटिसिज़्म में जीते हैं जो कि एक ग़लत सोच है। बस, इसी भेद को समझना ज़रूरी है।

तिथि-   रंगकर्म के सबसे महत्वपूर्ण और अपरिहार्य तत्व क्या हैं ?

दे.रा.अ.  ....स्वाभाविक है कि अभिनेता, क्योंकि शेष को फिर भी छोड़ा जा सकता है लेकिन अभिनेता के बिना तो रंगमंच की कल्पना ही मुश्किल हो जाएगी। अभिनेता के बिना साउंड लाइट लें, कठपुतली कर रहे हों या माइम, लेकिन फिर भी अभिनेता के होने से जीवंतता को जो बढ़ावा मिलता है वह बाकी सभी स्थितियों में अनुपस्थित रहता है। अभिनेता के साथ स्पेस, यानि इन दोनों का होना तो अनिवार्य है। फिर दर्शक के बिना तो रंगमंच की कल्पना असंभव हो जाएगी।  महत्ता के नज़रिए से देखा जाए तो सबसे ऊपर अभिनेता, अभिनेत्री और निर्देशक होते हैं। फिर इसके बाद रंगमंच में काम करने वाले बाकी लोगों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।



तिथि- रंगमंच के ऐसे कौनसे तत्व हैं, जिन्हें रंगमंच का नितांत अपना हिस्सा कहा जा सकता है?

दे.रा.अ.  ...अभिनेता और स्पेस या परफॉर्मेन्स एरिया रंगमंच के लिए ज़रूरी हैं। बाकी सारे माध्यमों में आप अलग-अलग जगह जा सकते हैं। रंगमंच एक जगह पर एक ही वक़्त में एक ही मंडली के लोगों के साथ हो सकता है। पिछले दिनों ऐसी कोशिश मुंबई में हुई थी और एक प्रस्तुति की गयी थी। बाद में उस पर फिल्म भी बनी जिसका नाम था ऑल द बेस्ट। इसकी प्रस्तुति पहले मराठी में हुई और जब काफी लोकप्रिय हुई तो इसे गुजराती में भी तैयार किया गया। फिर हिन्दी में भी वही प्रस्तुति दी गयी तो, बेशक तीनों प्रस्तुति वही है पर फिर भी वह एक-दूसरे से अलग इसलिए हैं क्योंकि अभिनेता बदल गये हैं। हम कह सकते हैं कि रंगमंच के महत्वपूर्ण तत्वों में अभिनेता, उसका परफॉर्मेन्स एरिया और दर्शक की जीवंत उपस्थिति शामिल हैं। दूसरे माध्यमों में भी दर्शक जीवंत हैं लेकिन उनकी प्रतिक्रिया का अभिनेता पर कोई असर नहीं पड़ता। इसे एक उदाहरण से समझें कि जैसे अगर आप रेडियो सुन रहे हैं और हँस रहे हैं, तालियाँ बजा रहे हैं, लेकिन अभिनेता पर इसका कोई मानसिक और शारीरिक प्रभाव नहीं पड़ता जबकि रंगमंच में दर्शकों की प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया का अभिनेता पर तुरंत प्रभाव पड़ता है।
         गायन और नृत्य कला में भी दर्शक प्रत्यक्ष रूप से आनंद उठाते हैं और अपनी प्रतिक्रिया देते हैं लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष यह भी है कि आप इनका लुत्फ़ रिकॉर्डेड होने पर भी उठा सकते हैं। केवल रंगमंच एक ऐसा जीवंत माध्यम है जिसे किसी और रूप में नहीं देखा जा सकता और इसमें ज़िंदा दर्शक, ज़िंदा अभिनेता होते हैं जो कि इसके लिए बहुत ज़रूरी हैं।

तिथि- नाट्य संगीत क्या होता है और नाटक को क्या मायने देता है?

दे.रा.अ.   ...    अक्सर लोग संगीत और नाट्य संगीत को एक ही मान लेते हैं, जबकि दोनों में बहुत फ़र्क होता है। संगीत पूरी तरह से सिर्फ़ संगीत होता है। नाटक एक ऐसी विधा है जिसमें दूसरी चीज़ें नाटक की शर्त पर आती हैं। नाटक में संगीत कई तरह के काम करता है। सबसे पहले तो कथा सुनाने का काम करता है और कई ऐसे नाटक भी हैं जिनमें संगीत के माध्यम से ही कथा आगे बढ़ती है। फिर संगीत मूड तैयार करता है, कई बार विरोधी वातावरण भी तैयार करता है, टिप्पणी भी करता है। नाट्य संगीत की अपनी भाषा को नाटक के पूरे कथ्य के साथ, उसकी संरचना के साथ संगीतकार लगातार तैयार करता है। ऐसे नाटक जिनमें संगीत की माँग होती है, उनमें तो संगीत आएगा ही, पर कहीं- कहीं वह प्रत्यक्ष तौर पर दिखाई नहीं देता, लेकिन वह जिस रूप में आता है, वह ज़्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है, जैसे नाटक में मौन और इंटरवल भी अपने आप में एक संगीत है जो इस समय को भरता है।

         संगीत समय और स्थान को भी बाँधता है। संगीत के माध्यम से हम चौबीस घंटे, हज़ारों साल या फिर चारों कालों तक की बुनियाद डाल सकते हैं। बरकॉल ब्रेस्त बीसवीं शताब्दी का बहुत बड़ा संगीत निर्देशक था। उसने संगीत को बिल्कुल एक नया रूप दिया। आम तौर पर हम लोग संगीत को बहुत मधुर बनाने के आदि हैं, लेकिन बरकॉल ने इस धारणा को बदल दिया। उसने नाटकों में एक हार्श लगने वाला संगीत तैयार किया जो प्रहार करता हो ताकि दर्शक नाटक के साथ बह न जाए और वह संगीत उन्हें सोचने के लिए जगाए। उसने जानबूझ कर ऐसा संगीत खोजा जिस पर काफी चर्चा हुई। मुझे लगता है कि इससे नाटक में बहुत मदद मिली। चरित्र के मन में क्या चल रहा है, उसे सामने लाने में मदद मिली। ये सारे संगीत के काम हैं।

तिथि- आजकल ज़्यादातर रिकॉर्डेड म्यूज़िक का प्रयोग होता है जबकि पहले लाइव म्यूज़िक का होता था, तो इससे प्रस्तुति में क्या अंतर पड़ता है?

दे.रा.अ.   ...   यह सब साधनों पर निर्भर करता है। लाइव म्यूज़िक कुछ प्रस्तुतियों में पहले भी हुआ करता था और अगर कोई नाट्य मंडली खर्च वहन कर सकती है तो आज भी होता है। ज़्यादातर रिकॉर्डेड म्यूज़िक का ही प्रयोग होता रहा है क्योंकि लाइव म्यूज़ीशियन को हर बार ले जाना शौकिया नाट्य मंडलियों के लिए हर बार संभव नहीं है। उसका रास्ता यही खोज लिया गया है कि आप संगीत रिकॉर्ड कर लेते हैं और अगर नहीं भी किया है तो पहले से रिकॉर्डेड जो संगीत होता है ,उसी में से चयन कर लेते हैं। कुछ लोग कम्पोज़ भी करा लेते हैं जिसमें सिर्फ़ एक आदमी की ज़रूरत होती है जो वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल करना जानता हो, तो इस तरह आप अपना इकॉनोमिक्स भी नियंत्रित कर लेते हैं। यदि बहुत बड़ा स्पॉन्सर मिल जाए तो वह नाट्य मंडलियों का खर्च भी वहन कर लेगा।
         यहाँ इस तरह का कोई मतभेद नहीं है कि संगीत लाइव हो या रिकॉर्डेड। उत्तर रामचरित, पारसी रंगमंच या कोई लोक नाटक कर रहे हैं तो वाकई लाइव म्यूज़िक की ज़रूरत होती है। ओपनिंग शो में तो आप लाइव म्यूज़िक का प्रयोग कर लेते हैं लेकिन यदि प्रस्तुति के लिए यात्रा करनी है तो इतने लोगों को एक साथ ले जाना मुश्किल होता है। इसलिए बीच का रास्ता निकाला गया कि संगीत को पहले ही रिकॉर्ड कर लिया जाए और फिर यात्रा की जाए।


तिथि- नाटक को साहित्यपरक विधा कहा जा सकता है या प्रस्तुतिपरक?

दे.रा.अ. ......नाटक दोनों के बीच में है। लिखित रूप में साहित्य है लेकिन वह साहित्य के रूप में संपूर्ण नहीं है क्योंकि यही अकेली एक ऐसी विधा है जिससे प्रदर्शन की शर्त जुड़ी हुई है अन्यथा ऐसा कहानी के साथ नहीं है। नाटक को खेला जाता है, इसलिए साहित्यिक रूप में उसका जो भी महत्व है, उस पर चर्चा की जा सकती है लेकिन अंतत: नाटक को प्रस्तुति के माध्यम से ही उद्घाटित होना है। यह आवश्यक नहीं है कि जब कोई नाटक लिखा जाए, तभी उसे मंचित भी कर दिया जाए। ऐसा अक्सर इतिहास में होता रहा है। यदि वास्तव में लिखित रूप में ऐसी कोई रचना जो एक सशक्त ,महत्वपूर्ण और अर्थवान कृति हो तो ऐसा नहीं हो सकता कि कभी न कभी उसे खेला ना जाए। ऐसे बहुत से उदाहरण हमारे सामने हैं और यह चर्चा हमेशा से चलती रही कि नाटक साहित्य में गिना जाए या प्रस्तुतिपरक कहा जाए। एक पूरा शोध बहुत साल पहले लिख दिया गया था। जयशंकर प्रसाद की रचना का शास्त्रीय अध्ययन बहुत साल पहले पाठ्यपुस्तकों के रूप में तब्दील कर दिया गया था। पहले सबको लगा कि इसे खेला नहीं जा सकता लेकिन जब समय आया तो यह धारणा बदल गयी। फिर टैगोर के नाटकों के लिए भी यही बात सामने आई जब लोगों ने कहा कि ये बहुत दार्शनिक हैं, मंचन के योग्य नहीं हैं। लेकिन वे भी खेले गए, तो ऐसी घटनाएँ होती रहती हैं।

तिथि- लोक रंगमंच क्या है ?  मंचसज्जा और दृश्यांकन की दृष्टि से इसका क्या महत्व है?

दे.रा.अ. .....   लोक रंगमंच इतिहास के ख़ास दौर में, विशेष रूप से मध्य काल में, जब शास्त्रीय नाटक परंपरा समाप्त होने को आई थी, तभी अवतरित हुआ था। इसके ऐतिहासिक कारण हैं कि  भारत की राजनैतिक व्यवस्था बदली और मध्य काल में लोक भाषाओं का जन्म हुआ। पहले संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश भाषाएँ थीं। लेकिन हर क्षेत्र की अपनी एक लोक भाषा का जन्म हुआ तो उसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए किसी माध्यम की ज़रूरत पड़ी। इसलिए प्रारंभ में ही जब भाषाओं का जन्म हो रहा था, तभी मौखिक नाट्य परंपरा की शुरूआत हुई। लोक नाटक बहुत दिनों तक लिखे ही नहीं गए क्योंकि नयी-नयी भाषाएँ थीं और उनका खुले में ही मंचन होता था। तब छोटे-छोटे गाँवों, कस्बों में नाट्य मंडलियाँ पहुँच जाती थीं। वहाँ के लोग उनका आतिथ्य करते थे और रात भर बैठ कर देखते थे। अब वहाँ मंच की स्थिति चाहे जैसी हो पर लोग कभी पेड़ों पर बैठ कर, तो कभी ज़मीन पर बैठ कर नाटक देखा करते थे। जहाँ तक दृश्यांकन का सवाल है तो वह उस अर्थ में दृश्यांकन नहीं था जैसा आज एक परफॉर्मेंस के रूप मे देखते हैं। आज के दौर में एक चलायमान दृश्यांकन होता है, जब-जब जिस भी चीज़ की ज़रूरत होगी वह छोटी मोटी मंच प्रॉपर्टी से हाज़िर हो जाएगी जबकि लोक रंगमंच में दृश्यांकन की इस तरह से कभी कोई ज़रूरत नहीं पड़ी, क्यों कि यह वाचिक हुआ करता था।

तिथि- कहते हैं कि आप कहानी रंगमंच के जनक हैं, कहानी रंगमंच को किस तरह परिभाषित किया जा सकता है?

दे.रा.अ. ...कहानियों को अपने मूल तत्व और मूल रूप के साथ ज्यों का त्यों मंच पर प्रस्तुत करना ताकि दर्शकों को एक रंगमंचीय प्रस्तुति के रूप में दिखायी जा सकें, यही कहानी रंगमंच है।

तिथि- लिखित नाटक रूपांतरण और कहानी रंगमंच के बीच क्या अंतर है?

दे.रा.अ. .....जैसा मैंने पहले भी बताया है कि जब नाटक लिखे जाते हैं तो ज़रूरी नहीं कि उसी वक़्त मंचित भी किए जाएँ, जो ऐसा करने वाले लोग होते हैं वे बहुत रैस्टलैस होते हैं और लगातार कुछ दूसरी चीज़ों को पढ़ते लिखते रहते हैं । काफी कुछ विदेशी नाटकों का हिन्दी में रूपांतरण हुआ और दूसरी भाषाओं के नाटकों का भी हिन्दी में रूपांतरण हुआ और हिन्दी रंगमंच में यह बहस छिड़ी कि, हिन्दी के नाटक या हिन्दी में नाटक। इन दोनों छोरों के बीच हम कहानी के रंगमंच को रख सकते हैं। उसमें न तो रूपांतरण की बात है और न ही वह नाटक विधा का हिस्सा है। एक शुरूआत की गयी थी कि क्या दूसरी विधा अपने स्वरूप को सुरक्षित रखते हुए भी एक रंगमंचीय अनुभव में परिवर्तित की जा सकती है।
          मैं समझता हूं कि लिखित नाटक हो या रूपांतरित नाटक, वो तो प्रदर्शन की शर्त से जुड़े हैं लेकिन कहानी का रंगमंच एक लिखित विधा को देखने के रूप में मंचन तक लेकर जाने की प्रक्रिया का नाम है।

तिथि- छोटे शहरों में जो रंगटोलियाँ सक्रिय हैं, उन्हें प्रस्तुति की दृष्टि से छोटे शहरों का नाटक ही क्यों कहा जाता है?

दे.रा.अ. ....मुझे भी लगता है कि यह एक धारणा बना दी गयी है कि छोटे शहर का नाटक और बड़े शहर का नाटक। इसका एक कारण यह भी है कि हमारे मन में बैठ गया है कि जो कुछ भी अच्छा हो रहा है , वह दिल्ली में ही हो रहा है, जबकि ऐसा नहीं है। मुझे तो समूचे देश के विभिन्न क्षेत्रों में जाने का मौका मिला है और मेरा अनुभव यह कहता है कि जितना अच्छे से अच्छा काम छोटे शहरों में होता है, बड़े शहरों में उसकी कल्पना भी मुश्किल है। भले ही छोटे शहरों में सुविधाएँ कम हैं, लेकिन लोगों में काम करने का जो जीवट और जज़्बा है वो बड़े शहरों से बहुत अलग है। पिछले चौदह सालों से विद्यालय का महोत्सव चल रहा है, जिसमें दिल्ली की प्रस्तुतियाँ तो कम होती हैं पर हिन्दुस्तान और उसके बाहरी क्षेत्रों से आयी हुई प्रस्तुतियों की संख्या ज़्यादा होती हैं। कुछ प्रस्तुतियाँ तो ऐसी ही मंडलियाँ तैयार कर के लाती हैं जो अज्ञात और अपरिचित होती हैं। इसलिए छोटे शहरों में काम करने वाले लोगों को मैं यही मशविरा देना चाहूँगा कि वे किसी भी तरह से खुद को कमतर ना आँकें। एक और बात जो उल्लेखनीय है वह यह है कि भारत महोत्सव तो दिल्ली में होता है लेकिन हर साल रायपुर में मुक्तिबोध की स्मृति में एक नाट्य समारोह होता है, जबलपुर में विवेचना की तरफ़ से भी समारोह होता है। इन समारोहों ने अपनी एक विशिष्ट पहचान बनायी है और इसीलिए बड़ी से बड़ी मंडली, जैसे मुंबई से नादिरा बब्बर की, कोलकाता से ऊषा गांगुली की मंडली आती हैं और हम लोग भी कई बार वहाँ गए हैं। आख़िर हम लोग वहाँ क्यों जाना चाहते हैं? इसका जवाब एकदम स्पष्ट है कि अंतत: साहित्य, संस्कृति और थोड़े से समाज के सकारात्मक पहलू कुछ हद तक इन्हीं शहरों में बचे हैं और इसलिए हर बड़ी नाट्य मंडली वहाँ जाना सार्थक समझती है।

तिथि- हम लोग यह देखते हैं कि रंगमंच में भावना एवं संवेदना की अपनी एक भाषा, शब्दों की बनाई सीमा को पीछे छोड़ देती है तो आप इस विषय में क्या कहेंगे?

दे.रा.अ. ....संवेदना एवं भावना के बिना रंगमंच का कोई महत्व नहीं है। वह संवेदना और भावना हमारे अपने अंदर होते हुए भी रंगमंच के माध्यम से प्रस्तुत की जाती है।

तिथि- दर्शक की हैसियत से देखने पर कभी-कभी यह समझ में आता है कि नाटक में जितनी 
संवेदना और भावना उमड़ कर आती हैं, शायद ही कभी उस तरह से फिल्म में आती हैं, ऐसा क्यों?

दे.रा.अ. ....फिल्म और रंगमंच दोनों अलग तरह के माध्यम हैं। फिल्म एक तकनीकी माध्यम है। जो कुछ बोला जा रहा है, वह पहले से ही शूट हो जाता है, फिर उसे डब किया जाता है। फिल्म में ज़ोर से चिल्ला कर बोलने की ज़रूरत नहीं होती, हालांकि यह एक अलग बात है कि फिल्म अक्सर चिल्लाहट से भरी होती हैं। रंगमंच में इमोशन और संवेदनाएँ, इसलिए थोड़ी ज़्यादा दिखाई पड़ती हैं , क्योंकि यह सब लाइव होता है। अभिनेता हमारे सामने खड़ा होता है और उसे आख़िरी पंक्ति तक बैठे व्यक्ति तक अपनी बात पहुँचानी होती है। अगर वह विस्पर में भी कुछ बोल रहा है तो भी वह सब को सुनाई देना चाहिए। रंगमंच पर अच्छा अभिनय करने वाले हमेशा बिना माइक के ही बोलना पसंद करते हैं जबकि फिल्म में लोग माइक के बिना अभिनय नहीं करते। फिल्म में मूलत: अगर शब्द न भी हों तो भी आप उसका पूरा मज़ा ले सकते हैं जबकि रंगमंच में शब्दों के बिना दूर तक नहीं जा सकते क्योंकि ऐसा करने से वह एक दूसरी ही विधा बन जाएगी। रंगमंच मूलत: शब्दों पर ही आश्रित है।

तिथि- कई बार हम लोग देखते हैं कि गीत- संगीत, आकर्षक वेशभूषा और सैट हर नाटक में नहीं होते तो फिर सिर्फ़ शाब्दिक आधारित प्रस्तुति रह जाती है तो कभी किसी को प्रभावशाली लगती है और कभी नहीं, तो आप इस बारें में क्या कहेंगे?

दे.रा.अ.  जो अभिनेता करता है, यह उस पर निर्भर करता है कि वह प्रस्तुति को कितना संवेदनात्मक अनुभव बनाता है। आप सारी सुविधाओं के साथ रंगमंच करें और उसमें संवेदना ना हो तो इसका मतलब है कि आप ख़राब अभिनय कर रहे हैं। इस तरह से आप चाहे जो करें ,उसका दर्शकों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अगर अभिनेता सचमुच उन क्षणों को जीता है जो अभिनय का हिस्सा होते हैं, तो बहुत कम चीज़ों के साथ भी मंच पर बहुत अच्छी प्रस्तुति दी जा सकती है। मेरा यह व्यक्तिगत अनुभव रहा है कि जब मंच सज्जा के नाम पर कुछ भी नहीं था, तब भी ऐसी प्रस्तुतियाँ हुई हैं, जिन्हें दर्शकों ने बहुत पसंद किया है क्योंकि वो दर्शकों की कल्पना के लिए भी बहुत कुछ छोड़ती हैं। अभिनेता, उसकी गतियाँ, संवाद, ये सब अलग तरह का अनुभव देता है और सोचने पर भी मजबूर करता है। दूसरी तरफ़ फिल्म में सब कुछ परोस दिया जाता है, दर्शक वही देख पाता है जो निर्देशक चाहता है। रंगमंच में ऐसा नहीं है, सब कुछ तय होने पर भी दर्शक की अपनी स्वतंत्रता क़ायम है।

तिथि- आज के समय में न तो टी.वी. और सिनेमा को नकारा जा सकता है और न ही नाटक की मौजूदगी को, लेकिन फिर भी यह सच है कि सिनेमा ने लोगों को काफी हद तक अपनी गिरफ़्त में रखा है, ऐसे में रंगमंच की दशा और दिशा में क्या फ़र्क पड़ता है?

दे.रा.अ.   ...जब इन माध्यमों का आगमन हुआ था, उसके बाद एक दौर ऐसा आया था जब लोग तेज़ी के साथ इन माध्यमों की ओर भागे थे लेकिन आज स्थिति ऐसी है कि लोग रंगमंच देखने में ज़्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं। लोगों को अपने बंद कमरे में बैठ कर फिल्म को देखने में वह संतुष्टि नहीं मिलती जो अपने सामने एक जीवंत अभिनेता को देखने पर मिलती है।
        दूरदर्शन में अस्सी के बाद धारावाहिक का दौर आया ,उसके बाद वीसीआर का और फिर सीडी, डीवीडी का दौर आ गया लेकिन अब मोबाइल में ही सारी चीज़ें क़ैद की जा रही हैं। इतनी तेज़ी से टैक्नोलॉजी विकसित हो रही है कि कोई भी दूर तक चलने वाला माध्यम नहीं नज़र आ रहा है। अंतत: रंगमंच ही एक ऐसा माध्यम है जो तमाम उतार-चढ़ावों के बावजूद चल रहा है। इसके साथ भी एक ऐसा दौर आया था जब लगा था कि यह ख़त्म हो रहा है और लोगों को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं रही। लेकिन मुझे नहीं लगता कि ऐसी कोई बात है। इसका अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि इक्कीसवीं सदी के बारहवें साल में एक ऐसी पत्रिका जिसका रंगमंच से कोई लेना-देना नहीं, वह रंगमंच पर ही अपना एक पूरा अंक निकाल रही है अर्थात् सिद्ध हो जाता है कि माध्यम की शक्ति और एक अलग तरह का अनुभव रंगमंच में मिलता है जिसका जायज़ा लेना शायद पत्रिका ने भी ज़रूरी समझा। मैं समझता हूँ कि एक पूरी तरह से कथा विधा को समर्पित पत्रिका यदि नाटक रंगमंच की ओर लौट रही है तो यह हमारे लिए बहुत ही सकारात्मक लक्षण है। अब इस तरह के सवाल ख़त्म हो जाएँगे कि रंगमंच ख़त्म होने को है।

तिथि- कहानी रंगमंच की आपने इतनी ज़्यादा प्रस्तुतियाँ दी हैं, उसमें क्या नए आयाम मिले?

दे.रा.अ. ...नाटक के आलेख का इंतज़ार करने की अब ज़रूरत नहीं पड़ती और रंगमंच के लोग भी साहित्य से जुड़ने लगे। हर दर्शक हर तरह की किताब नहीं खरीद सकता था, तो उस साहित्य को रंगमंच पर दिखाने से  एक संबंध बन गया। इसके अलावा अभिनेता को अपनी ज़्यादा से ज़्यादा क्षमता को खोजने का अवसर मिला। उसने एक ऐसा टैक्सट जो खाली है पर उसमें जो नैरेशन है उसको समझा। इस काम में ये अनुभव शामिल ना होते तो शायद यह काम कब का ख़त्म हो गया होता जिसको करते हुए मुझे सैंतीस साल हो गए। अब जब लोग मुझे बुलाते हैं और कहते हैं कि हम नाटक करेंगे तो मैं कहता हूं कि नहीं, हम कहानी करेंगे। हालांकि बीच-बीच में बदलाव होते रहने चाहिए।

तिथि- जब हम फिल्म देख कर आते हैं तो हमेशा उसमें कुछ तलाश करते हैं तो बात जब आती है रंगमंच के सामाजिक सरोकारों की तो आपको क्या लगता है कि कितना प्रभाव पड़ता है?

दे.रा.अ.  ... रंगमंच हो या कोई भी कला हो, वह समाज से ही पैदा होती है तो उसमें सामाजिक सरोकार तो निश्चित तौर पर रहेगा। उसको अलग से ढूँढने की, कोई कोशिश नहीं की जाती है। किसी भी नाटक या कहानी को जब कोई निर्देशक मंचन के लिए तय करता है तो उसमें कुछ न कुछ ऐसा होता ही है जो वह दूसरों से शेयर करना चाहता है अन्यथा यह भी संभव था कि वह उनकी तरफ देखना भी ज़रूरी नहीं समझता।जब दूसरों से कुछ कहे जाने की ज़रूरत महसूस होती है तो उसमें सामाजिक सरोकार उसी दिन से शामिल हो जाता है। निर्देशक के साथ और भी लोग इस प्रक्रिया में शामिल होते हैं जो उसका समर्थन करते हैं। फिर इसके बाद दर्शक भी होते हैं जो नाटक देख कर बाहर जाते हैं और दूसरे लोगों को बताते हैं। यानि यहाँ यह कहना ग़लत नहीं होगा कि सामाजिक सरोकार को अलग से ढूँढे जाने की क़तई आवश्यकता नहीं है। जिस रचना में प्रत्यक्ष तौर पर सरोकार नज़र ना आए, उसे एक अच्छी रचना नहीं कहा जा सकता। एक उदाहरण मैं यहाँ, प्रेमचंद की रचना, रंगभूमि का देना चाहूँगा क्योंकि जब इसे लिखा गया तो प्रेमचंद ने इसका कोई प्रचार नहीं किया था कि यह समाज के दलित वर्ग के बारे में है और किसी तरह की कोई चर्चा भी नहीं सुनाई दी थी लेकिन पिछले कुछ सालों में इस पर बहुत चर्चा हुई , इसमें इस्तेमाल शब्दों को ले कर काफी हंगामा खड़ा किया गया। कहने का अर्थ यह है कि रचना तो रचना है, इसमें कोई संदेश न हो, ऐसा नहीं हो सकता।

तिथि- अक्सर यह सुनने में आता है कि एनएसडी व्यावसायिकता को बढ़ावा दे रहा है और सामाजिक सरोकारों का प्रसंग उसमें गौण होता जा रहा है, इस बारे में आपका क्या कहना है?

दे.रा.अ.  ...दरअसल यह एक ऐसा संस्थान है जिसमें बहुत कुछ सिखाया जाता है और किसी प्रशिक्षण संस्थान से बाहर निकल कर कोई छात्र कैसा प्रदर्शन करता है, यह ज़िम्मेदारी संस्थान की नहीं होती, तो इसे एक मंडली के रूप में न देखा जाए। इस नज़रिए की वजह से समस्या हो रही है। लोग एनएसडी को एक नाट्य मंडली के रूप में देख रहे हैं ,जबकि इसे एक विशुद्ध प्रशिक्षण संस्थान के रूप में देखें तो सारी समस्याएँ ख़त्म हो जाएँगी।
          घासीराम कोतवालनाम का एक नाटक था जो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने किया था, उसके अगर दो सौ शो भी हो गये होंगे तो बहुत बड़ी बात होगी। व्यावसायिकता तो वहाँ होती है जहां आप दर्शकों की मांग पर नाटक करें। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की सारी प्रस्तुतियाँ प्रशिक्षण का हिस्सा होती हैं। अगर किसी ख़ास वक़्त का अनुभव देने के लिए भव्यता लायी जाती है और चीज़ें जुटाने की कोशिश होती है, तो हम उसको व्यावसायिकता का रूप दे दें तो, यह एक ग़लत सोच का नतीजा होगा। उदाहरण के लिए य़दि शेक्सपियर को कुर्ते पायजामे में ही कर दें तो वह भी एक प्रयोगशील काम हो सकता है। लेकिन प्रशिक्षण के लिए वह पूरा दौर दिखाना, उसमें किस तरह से नाटक होते थे और उनकी क्या वेशभूषा होती थी, इसे दिखाना भी विद्यालय का एक पक्ष है। जहाँ तक रंगमंच का सवाल है , वहाँ व्यावसायिकता का कोई कोण नहीं है क्योंकि विद्यालय को फंड, मिनिस्ट्री ऑफ कल्चर की ओर से मिलता है। इसे चलाने के लिए पैसा कमाने की ज़रूरत नहीं है।

तिथि- रंगमंच में युवाओं की भूमिका महत्वपूर्ण रही है, तो पहले और आज की भूमिका में क्या फ़र्क है?

दे.रा.अ. ... रंगमंच पूरी तरह से युवाओं का ही माध्यम है। युवाओं के लिए ही संभव है कि वे एक बूढ़े का रोल भी निभा सकें और जवान का भी। लेकिन आज के युवा के सामने बहुत से विकल्प खुल गए हैं। अब रंगमंच उसकी प्राथमिकता नहीं है। आज का रंगकर्मी बहुत तेज़ी से सब कुछ हासिल कर लेना चाहता है। रंगमंच में कोई शॉर्टकट नहीं है। यह एक ऐसा माध्यम है , जहां पहले तो नाटक को लिखा जाना है, फिर मंडली चाहिए, उसमें लोग चाहिए, जिसके लिए जगह, फिर उसके बाद अभ्यास भी बहुत ज़रूरी है। यह एक लंबी प्रक्रिया है। यह कविता, कहानी, उपन्यास की तरह घर पर बैठ कर नहीं किया जा सकता। इसके लिए तो घर से बाहर निकलना ही पड़ता है और बहुत से लोगों को अपने साथ जुटाना पड़ता है। इतना सब कुछ करने का धैर्य आज के युवा रंगकर्मी में ख़त्म होता जा रहा है। पिछले पँद्रह सालों में ऐसा कोई युवा निर्देशक सामने नहीं आया, जिसका नाम लिया जा सके। यह बात अलग है कि आप नाटक कर रहे हैं, लेकिन आपकी पहचान नहीं बन पा रही है। ऐसा इसलिए है क्योंकि आप रुकने को तैयार नहीं हैं। आप पूरी तरह से समय देना नहीं चाहते हैं। इस बारे में युवा रंगकर्मियों को थोड़ा रुक कर सोचना चाहिए। आज हम जिस मोड़ पर खड़े हैं, वहाँ यह सवाल बहुत जायज़ है। इसका जवाब भी युवा रंगकर्मियों को ही देना होगा।
          एक ऐसा भी समय था जब हम पूरे जज़्बे के साथ अपने आप से सारा प्रबंध करते थे, पैसे भी खर्च करते थे। लेकिन अब यह सब शहरों में नहीं बचा है। इसका एक बड़ा कारण यही है कि आज का युवा इसे टाइम वेस्ट से ज़्यादा और कुछ नहीं समझता। उसकी कोई रुचि भी नहीं है तो यही चीज़ें बदलने की ज़रूरत है। बहुत संभव है कि स्थितियाँ अपने पुराने स्वरूप में आ जाएँ। इसलिए उम्मीद हमेशा रहेगी क्योंकि रंगमंच निराशा का माध्यम नहीं है।



नाम   तिथि दानी
जन्म   3 नवंबर
स्थान   जबलपुर( म.प्र.)
शिक्षा   एम.ए.(अँग्रेज़ी साहित्य),बी.जे.सी.(बैचलर ऑफ़ जर्नलिज़्म एंड कम्युनिकेशन्स),पी.जी.डिप्लोमा     इन इलेक्ट्रॉनिक एंड प्रिंट जर्नलिज़्म।
संप्रति   विभिन्न महाविद्यालयों में पाँच वर्षों के अध्यापन का अनुभव, आकाशवाणी(AIR) में तीन वर्षों तक कम्पियरिंग का अनुभव। वर्तमान में पर्ल्स न्यूज़ नेटवर्क और P7 News Channel, नोएडा में पत्रकार.

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं(वागर्थ,शुक्रवार,परिकथा, पाखी, नई दुनिया आदि) में कविताएँ,  कहानी, लेख प्रकाशित।
मोबाइल नं.-09958489639
पता- प्लॉट नं.15, के.जी. बोस नगर, गढ़ा, जबलपुर(म.प्र), पिन-482003