गुरुवार, 14 जुलाई 2016

अफगानी कवितायें -- अनुवादक -- अशोक कुमार पाण्डेय






अफ़गानिस्तान तालिबानी कब्ज़े के बाद से ही एक अभिशप्त इलाक़ा है, लहूलुहान, बर्बाद. धार्मिक कट्टरपन और तानशाही की सबसे पहली शिकार हमेशा की तरह वहाँ भी औरतें ही हुईं. तालिबानी अत्याचार ने उनसे शिक्षा और स्वतंत्रता का अधिकार तो छोड़िये सम्मान से जीने का अधिकार भी छीन लिया. लेकिन औरतों के एक हिस्से ने इसका प्रतिकार किया. रावा (रिवोल्यूशनरी असोशियेशन ऑफ़ द वुमन ऑफ़ अफगानिस्तान) एक ऐसी ही संस्था है. इसकी संस्थापक मीना की तालिबानियों ने हत्या कर दी थी. यहाँ मीना, उनकी साथियों और उनके समर्थकों की कुछ कवितायें रावा की वेबसाईट http://www.rawa.org/ से.


               आज सिताब दियारा ब्लॉग पर प्रस्तुत हैं कुछ अफगानी कवितायें

                              अनुवाद युवा कवि अशोक कुमार पाण्डेय  का है





 कैसे कहूँ तुम्हें
·         
·        मीना

इस ख़ूनी धरती पर
जहाँ गूँजती है
अपने अजीज़ों को खो चुकी
माओं और विधवाओं की करुण चीत्कार
कैसे कहूँ मैं तुम्हें
कि नया साल मुबारक हो.

देखे हैं मैंने बेघर बच्चे
कचरे से बीनते कुछ खाने को
मैंने तबाह गाँवों में
औरतों को देखा है ख़ाली हाथ
मातमी चीथड़ों में.

मैंने सुनी हैं क़ैदखानों से हज़ारों आवाज़ें
उनकी, जिन्हें अगवा कर लिया गया
सताया गया और ज़िना किया गया.
तमाम पड़ोसी वे हमारे
जो ग़ायब हो गए हमारी आँखों के सामने
दिन के उजालों में
और हम ख़ामोश करा दिए गए
आततायी निज़ाम के हाथों.

एक अनजान बन्दूकधारी
घूमता है हमारे इर्द गिर्द
तुम पर और मुझ पर
दिखाते हुए अश्लील अंगुली 
इस ख़ूनी धरती पर
कैसे कहूँ मैं तुम्हें
कि नया साल मुबारक हो.


मैं कभी नहीं लौटूँगी
·        मीना


मैं वह औरत हूँ जिसे जगा दिया गया था
मैं जागी और अपने जले हुए बच्चों के बीच तूफ़ान बन गई
मैं जागी अपने भाई के लहू की भंवरों के बीच
मेरे वतन की मुश्किलात ने मुझे ताक़त दी
मेरे बर्बाद और जले गाँवों ने भरी मुझमें दुश्मन के लिए नफ़रत
मैं वह औरत हूँ जिसे जगा दिया गया
मुझे मिल गई है मेरी राह और कभी नहीं लौटूँगी मैं.

मैंने खोल दिए हैं नासमझी के बंद दरवाज़े
मैंने सभी सुनहले बाजूबंदों को अलविदा कह दिया है
ओह मेरे हमवतनों, वह नहीं मैं अब जो थी
मैं वह औरत हूँ जिसे जगा दिया गया

मुझे मिल गई है मेरी राह और कभी नहीं लौटूँगी मैं.
मैंने नंगे पाँव भटकते बेघर बच्चों को देखा है
मैंने मेंहदी रचे हाथों वाली दुल्हनों को मातमी लिबास में देखा है
मैंने खौफ़नाक दीवारों वाली जेल को देखा है आज़ादी को अपने खूंखार पेट में निगलते
मैं प्रतिरोध और साहस के महाकाव्यों के बीच जन्मी हूँ दोबारा  
मैंने लहू और जीत की तरंगों के बीच आख़िरी साँसों में आज़ादी के गीत सीखे हैं
ओह मेरे हमवतन, मेरे भाई मत समझो अब मुझे कमज़ोर और नाक़ाबिल
अपनी पूरी ताक़त से मैं अपने वतन की आज़ादी के रास्ते पर तुम्हारे साथ हूँ.
मेरी आवाज़ मिल रही है हज़ारों जागी हुई औरतों की आवाज़ों के साथ
मेरी मुट्ठियाँ भिंची हैं हज़ारो हमवतनों की मुट्ठियों के साथ 
इन मुश्किलात और ग़ुलामी की सारी जंज़ीरों को तोड़ने
तुम्हारे साथ मैं निकल पड़ी हूँ अपने वतन की राह पर

ओह मेरे हमवतन, मेरे भाई, वह नहीं मैं अब जो थी
मैं वह औरत हूँ जिसे जगा दिया गया
मुझे मिल गई है मेरी राह और कभी नहीं लौटूँगी मैं.


कलंकित फूल

-मजिलिंदा बश्लारी



किसी उन्माद की सी हालत में
मैं कोशिश करती हूँ समझाने की
पियानो बजाने के हुनर के महत्त्व को, लेकिन
मैं उसके सामने नहीं बैठ सकती
इस डर से कि मेरी धुंधली आँखों में वह देख लेगा
उमड़ती उदासी के धब्बे ...
इस धरती के ऊपर बजते संगीत की आवाज़
जहाँ एक औरत की ज़िन्दगी ख़त्म की जा सकती है किसी फूल की तरह
उम्मीद के किसी काले फूल की तरह... 

ख़ुदा, कहाँ से आ रहा है यह सब कूड़ा
यह ज़हर मौत की काली काफी की तरह
कहाँ खिलते हैं ये फूल?
क्यों नहीं हो जाते वे सब पागल
किन मेज़ों को सजाते हैं वे
अंतहीन गर्मियों और जाड़ों में...

उडो, काली चिड़िया,
पूरब के लहू लुहान आसमान तक,
नवम्बर के कुहासों के पार
जहाँ कलंकित फूलों की महक
और माली के नुकीले पंजे
कभी नहीं पहुँच पायेंगे तुम तक....



क्या गाऊँगी मैं?
·         
·        मेहनाज़ बादिहाँ


कोई हसरत नहीं मेरी जबान खोलने की
क्या गाऊँगी मैं?
मैं, जिससे नफ़रत किया ज़िन्दगी ने
कोई फ़र्क नहीं गाने या न गाने में.
              
क्यों करनी चाहिए मुझे शीरीं बातें
जब भरी हैं मुझमें कड़वाहटें?

उफ़! ये जश्न ज़ालिम के
चोटों से लगते हैं मेरे चेहरे पर.
कोई हमराह नहीं मेरी ज़िन्दगी में
किसके लिए हो सकती हूँ शीरीं?

कोई फ़र्क नहीं बोलने में-हँसने में
मरने में-जीने में
दुःख और उदासी के साथ
मैं और मेरी बोझिल तन्हाई

मैं बेकार हो जाने के लिए पैदा हुई थी
सी देने चाहिए मेरे होठ

उफ़ मेरे दिल तुझे मालूम है कि बहार है
खुशियाँ मनाने का वक़्त
क्या करूँ कफ़स में क़ैद इन परों के साथ
ये उड़ने नहीं देंगे मुझे.

इतने लम्बे वक्फे से रही हूँ ख़ामोश
पर कभी भूल नहीं सकी तराने
कि हर पल अपने दिल में गुनगुनाती रही हूँ वे नगमे
खुद को ही याद दिलाती
वह दिन कि जब तोड़ दूँगी यह कफ़स
उड़ जाऊँगी इस क़ैद ए तन्हाई
और उदास नग्मों से दूर
पीपल का कमज़ोर पेड़ नहीं मैं
जिसे हिला जाए कोई भी हवा
मैं एक अफगान औरत हूँ
आह भर सकती हूँ बस


बहन मेरी 

·        बशीर सखावर्ज़

दूरियों के विस्तार से 
पर्वत शिखरों की दीवारों से 
समुद्रों की गहराइयों से 
पिछली रात छुआ मैंने तुम्हें 
मैंने छुए तुम्हारे दर्द 
वे मेरे हो गए

कोई अर्थ नहीं है बच्चों के मुस्कुराने का 
फूल खिलते हैं, लेकिन क्या वे फूल हैं? 
बच्चे मुस्कुराते हैं, लेकिन क्या वे मुस्कुरा रहे हैं?
तुम्हारे बच्चों के बिना 
तुम्हारे बागीचे के बिना 
फूल और मुस्कानें नहीं खिलतीं 

तुम्हारे हाथों के बिना 
ख़ाली ख़ाली है ज़िन्दगी

वक़्त ए रुखसत  
तुमने धीमी सी आवाज़ में कहा "ख़याल रखना"
तुमने रखा अपना ख़याल?
तुमने देखा कोई ख़्वाब?
क्या तुमने नहीं देखीं आहत उम्मीदें?
तुम टाल सकीं बर्बादियों को?
हवा में हैं बर्बादियाँ 
वे तुम्हारे बगीचे में पनपती हैं
और झरती हैं पेड़ों से.






अनुवाद  ……

अशोक कुमार पाण्डेय
                
संपर्क : ऍफ़ 215, बाटला अपार्टमेंट,
43 आई पी एक्सटेंशन, पटपडगंज
दिल्ली – 92

मोबाइल : +91 83 750 72473 

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