शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

'फाँस' उपन्यास एक सामूहिक सुसाइड नोट है .... विवेक मिश्र






कथाकार संजीव अपने शोधपूर्ण लेखन के लिए हिंदी साहित्य में विख्यात रहे हैं | ‘सूत्रधार’, ‘जंगल जहाँ से शुरू होता है’ और ‘रह गई दिशाएं इसी पार’ जैसी अन्य कृतियां इस बात की गवाह हैं कि उनके लिए लिखना महज कागजों पर स्याही रंगना या कि टंकण करना मात्र नहीं है | वरन लिखना एक सामाजिक जिम्मेदारी भी है, जिसमें न सिर्फ लेखक का पक्ष ही दिखाई देता है, वरन उसकी शोधपूर्ण तैयारी भी दिखाई देती है |

किसानों की आत्महत्या को केंद्र में रखते हुए गत वर्ष उन्होंने हिंदी साहित्य को ‘फ़ांस’ उपन्यास के रूप में एक और बड़ी कृति दी है | इसी उपन्यास की पड़ताल कर रहे हैं, युवा कथाकार विवेक मिश्र |
                               

                                 ‘फाँस’ उपन्यास
                     आत्महत्या करने वाले किसानों का
                       व्यवस्था के नाम लिखा गया
                       एक सामूहिक सुसाइड नोट है
                                                 ...................विवेक मिश्र  


    ‘‘ऐसा क्यों होता है साहेब राव?
     ऐसा क्यों होता है?
     क्यों मेरे हाथ मुझे बाघ के पंजों जैसे दिखाई देते है?
     तुमने आत्महत्या नहीं की!
     हमने ही तुम्हारा खून किया...
     तुम्हारा और तुम्हारे बीबी बच्चों का...
     .....तुम हमें माफ़ न करना
     कभी न माफ़ करना साहेब राव....’’

मराठी के सुविख्यात कवि विट्ठल बाघ की ये पंक्तियाँ विदर्भ के सुखाड़ से देश के संसद तक गूजंनी चाहिए थीं पर फांसी लगाकर पेड़ से झूलते शेतकारी की घुटी हुई चीख की तरह ये पंक्तियाँ भी वीरान खेतों के बियावान में कहीं बिला गईं.किसानों की आत्महत्याओं पर उठीं तमाम तरह की आवाजें, रुदन, शोर, नारे सब कहीं किसी खोह में, किसी अंधेरी गुफा में समा गए और वे कभी वापस न आ सकें इसके लिए उन गुफाओं, खोहों के मुँह पर कभी न हिलाई जा सकने वाली बड़ी-बड़ी योजनाओं और आयोगों की चट्टानें धर दी गईं.
  
आज जबकि खेती-किसानी एक डर, एक बीमारी, एक मजबूरी और एक संभावित मौत का नाम है. अब जबकि ये एक ऐसा रास्ता बन चुका है जिसपर कोई विकल्पहीनता की स्थिति में चले तो चले,पर स्वेक्षा से कोई इस पर चलना नहीं चाहता. तब भी इस देश में विकल्पहीन किसानों की कमी नहीं. अभी भी ऐसे बहुत से लोग हैं जिनके पास इस दर के सिवा और कोई दर नहीं. वे ऐसी जगह खड़े हैं जहाँ न तो हालात ही बदलते हैं, न उनसे खेती ही छूटती है, न सरकारों की नींद ही टूटती है और न हीइन आत्महत्याओं का सिलसिला ही रुकता है. आज सूचना क्रांतिके इस समय में जहाँ चीजें कुछ ही क्षणों में वायरल होकर कहाँ से कहा पहुँच जाती हैं. जब देश का मीडिया चौबीसों घंटे चीख चीखकर लोगों तक दुनियाभर के समाचार पहुंचाने का दम भरता है. वहाँ इन आत्महत्याओं पर कोई शोधपरक, सिलसिलेवार, कायदे से इनकी पड़ताल करती हुई रिपोर्ट तो छोडिए, सही-सही आंकड़ों के साथ इनकी खबर भी प्राइम टाइमऔर मुख्यपृष्ट से नदारद दिखती है. उसेआपको अखबार के सातवें-आठवें पन्ने के किसी हाशिए पर, या आधी रात के बाद के न बिकने वाले टाइम स्लॉट में कहीं खोजना होगा. ऐसे में कथाकार संजीव पाँच साल के गहन शोध और अपनी तमाम निजी समस्याओं और सीमाओं से पार पाते हुए, अपने अथक परिश्रम से सच्चे सरोकारों और संवेदनाओं की आंच में तपा, देश के किसानों की समस्याओं पर, आत्महत्याओं की इस सतत त्रासदी पर ‘फाँस’ जैसा उपन्यास लेकर हमारे सामने आते हैं.

‘फाँस’ को पढ़ना आज के समय में देश की सबसे अवसादपूर्ण घटना से, हादसों की एक लम्बी श्रंखला से गुजरना, उससे रूबरू होना है. ये एक ऐसे विषय को हमारे सामने ला खडा करता है जिससे हम लगातार मुँह छुपाते आए हैं और वह लगातार किसी प्रेतछाया सा हमारे अतीत-वर्तमान और भविष्य पर मंडराता रहा है.‘फाँस’ किसी एक किसान, किसी एक खेतीहर परिवार, किसी एक गाँव याफिर किसी एक प्रांत की खेती और किसानी की समस्याओं की कथाभर नहीं है, बल्कि यह उस घाव के नासूर बनने की कथा है जिसमें कई दशकों से, कहें की आज़ादी के बहुत पहले से- धर्म, अंधविश्वास, जटिलजातीय संरचना, शोषण के सामंती सामाजिक ढांचे के कीड़े बिलबिला रहे हैं और अब उसमें राजनैतिक उपेक्षा और भ्रष्टाचार का संक्रमण भी बुरी तरह फैल गया है.येखेती(जिसे देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहा जाता था)के कैंसर जैसे असाध्य रोग से पीड़ित हो जाने की कथा है.

विदर्भ के यवतमाल जिले के बनगाँव के एक शेतकारी(किसान) शिबू और शकुन और उनकी दो मुल्गियों(बेटियों)–छोटी(कलावती) और बड़ी(सरस्वती) के तमाम मुश्किलों, दुख-तकलीफों के बीच भी अपनी दुनिया, अपने सपनों में रमे परिवार के जीवन के किसी एक आम दिन से शुरू होने वाली यह कथा धीरे-धीरे किसानों के जीवन के कई अँधेरे-उजाले कोनों में झांकती हुई आगे बढ़ती है. और एक किसान, एक घर, एक खेत, एक दुस्वप्न, एक आत्महत्या से शुरू होने वाली कहानी में कई किसान, कई घर, कई खेत, अनगिनत नष्ट फसलें और अनगिनत टूटे सपने, अनगिनत आत्महत्याओं की कहानियां जुड़ते-जुड़ते यह देश भर के लिए अन्न उपजाने वाले किसानों की हत्याओं और उनके साथ की जाने वाली साजिशों कीमहागाथा बन जाती है. छोटी-छोटी दिखने वाली समस्याएँ धीरे-धीरे जटिल  होकर देशभर के किसानों के सामने उसे और उसके परिवार को लील जाने को तैयार खड़ी वर्तमान समय की बड़ी त्रासदी में बदल जाती है. इसे पढ़ते हुए‘भारत एक कृषि प्रधान देश है/था’ आज का सबसे त्रासद, विद्रूप पैदाकरने वाला और विडंबनाओं से भरा हुआ वाक्य लगने लगता है. यह उपन्यास शुरू से लेकर अंत तक हमें किसान जीवन की दुश्वारियों से, त्रासदियों से, विद्रूपताओं और विडंबनाओं से रूबरू कराता है.‘इतनी मुश्किल है तोखेती छोड़ क्यों नहीं देते’ जैसे जुमलों के जवाब में यह बताता है कि आज भी भारत में खेती-किसानी मात्रएक जीविका का साधन नहीं है बल्कि एक जीवन पद्धति है जिससे अधिसंख्य किसान चाहकर भी मुँह नहीं मोड़ सकते. यह किसान परिवार का बच्चा-बच्चा जानता है. कथा की शुरुआत में ही छोटी शिबू को आगाह करती है, ‘शेती(खेती) कोई धंधा नहीं, बल्कि एक लाइफ स्टाइल है-जीने का तरीका, जिसे किसान अन्य किसी भी धंधे के चलते नहीं छोड़ सकता. सो तुम बाबा लाख कहो की शेती छोड़ दोगे, नहीं छोड़ सकते. किसानी तुम्हारे खून में है.’

उपन्यास का विषय और उससे जुड़ा कथानक, उसके उपजीव्य और उसमें जीते, जागते, सांस लेते, बोलते-बतियाते, हरदिन जिंदगी से दो दो हाथ करते पात्र यथार्थ की जिस कठोर ज़मीन से उठकरजिस सहजता से कथामें प्रवेश करते हैं, कि वे बिना किसी बड़े आख्यान के खुद अपनी बोली वाणी से अपना वातावरण निर्मित करते हुए, न केवल विश्वसनीयता के साथ खुद अपने सुख-दुःख पाठक के सामने रखते हैं बल्कि अपनी कथा का एक अलग ही,बहुत खुरदुरा सा शिल्प भी गढ़ने लगते हैं. उन्हें पढ़ते हुए साहित्यालोचना में की जानेवाली भाषा, शिल्प और कलात्मकता की बातें बेमानी लगने लगती हैं. और शायदयही कारण है कि संजीव जैसे एक सिद्धहस्त कथाकार ने एक कड़वे,कठोर और झुलसा देनेवाले सच को पाठकों के सामने रखने के लिए भाषा और शिल्प भी सीधा, मारक और भेद के रख देने वाला चुना है. उपन्यास में बहुतायत में प्रयुक्त मराठी शब्द जैसे- मुलगा, मुलगी, बड़ील, आई, नवरा, बायको, कणीक, लुगड़ा, पोला, हल्या जैसे शब्द अंत तक आते आते हिन्दी के साथ हिलमिलकर आपके अपने हो चुके होते हैं.

इधर के कुछ वर्षों मेंहिन्दी ही क्या अन्य भारतीय भाषाओं में भी इस तरह के शोधपरक यथार्थवादी उपन्यास कम ही पढ़ने में आए हैं. कथाकार संजीव हिन्दी साहित्यमें पहले से ही अपने शोधपरक एवं वैज्ञानिकदृष्टि सपन्न लेखन केलिए जाने जाते हैं. ‘सूत्रधार’ से लेकर यहाँ उनके पिछले सालों में आए उपन्यास ‘आकाशचंपा’, ‘रह गई दिशाएं इसी पार’ आदि उनके गहन शोध और सत्य के अपने तरह के अन्वेषण के कारण ही विशिष्ट हैं. इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया के दौरान भी वे खुद प्रभावित क्षेत्रों में गए, वहाँ रुके और कई ऐसे परिवारोंसे मिलेजिनके परिजन ने आत्महत्या की थी. इसी कारण जितने भी पात्र मिलकर इस कथा मेंकिसानों की समस्याओं का कोलाज बनाकर सामने रखते हैं, उनमे से अधिकाँश पात्रों की शिनाख्त कथा से बाहर अभी भीजारी संघर्ष में मौके पर जाकर की जा सकतीहै. हम कह सकते हैं कि वे मात्र लेखक की कल्पनाओं के पुतले नहीं हैं वे जीते, जागते, संघर्ष करते चरित्र हैं जो एक लेखक की उंगली पकड़कर अपनी कथा कहनेके लिए उपन्यास में चले आए हैं.

इसमें जहाँ एकओर सीमित साधनों में अपनी लड़ाई लड़ता शिबू है, तो व्यवस्था से लोहा लेता सबके सामने एक आदर्श स्थापित करता सुनील भी है, एक बैल के साथ खुद को जोतकर हल खींचते हुए मानुस के साथ मानुस और बैल के साथ बैल बन जाने वाले मोहन दादा हैं,तो समय को ठेंगा दिखाता नाना भी है जो चारों तरफ मंडराती मौत को भांपकर भी खिलंदड़े अंदाज़ में ज़िदगी जी रहा है. पर हैं सब कठिन समय की भंवर में उससे बाहर कोई नहीं.
 
सबसे पहले बात अशिक्षा, अंधविश्वास, सामन्ती कहर, सरकारीतंत्र और व्यवस्था के शोषण के बीच अपनी ज़मीन, अपनी खेती बचाए रखते हुए अपनी लड़कियों को पढ़ा लिखाकर अच्छे घर में व्याह देने के सपनों के साथ तमामतरह के द्वंद्वों और दबावों में फंसे शिबूकी, जो लाख जतनकर अपनी बायको(पत्नी) की मदद से गले में पड़े कर्जे के फंदे को निकाल फेंकने के बाद भी समय की मार के आगे एक दिन घुटने टेक देता है, औरकुँए में कूदकर जान दे देता है. जिसके पीछे रह जाती हैं दो जवान बेटियाँ और रोती बिलखती पत्नी जिसने गले की हंसुली निकाल कर बेची और बैंक के बढते ब्याज को रोककर कर्जे की रकम पूरी कर दी - “कहता था-‘रानी, ये कर्ज़ गले की फाँस है, निकाल फेंको’और जिस दिन मैंने निकाल फेका वह निहाल हो गया, गाँव भर में लड्डू बटे, गीतगाते हुए बरसात में भीगते हुए नाचता रहा.’’ परयहाँ एक बार कर्ज़ा चुकाना ही दुखों से पार पाना नहीं है.

दूसरा सुनील,आस-पास के इलाकों में सबका सलाहकार, सबका आदर्श पर बड़ी खेती तो बड़ा नुकसान.बड़ी महत्वाकांक्षी योजनातो असफल होने पर बड़ी निराशा. पीछे कोई बीमा नहीं. कोई सुरक्षा नहीं.‘बुत बन गया सुनील- इन सबका दोषी मैं हूँ, सबकी हिम्मत बंधाने वाला खुद ही हिम्मत हार बैठा. हवा में फिकरे उड़ रहे थे-कभी कर्ज, कभी मर्ज, कभी सूखा, कभीडूब. दूसरा फिकरा- भूत से शादी करोगे तो अपना घर चिता पर ही बनाना पड़ेगा. सो, सुनील आज भूत बन चुका था. जो खुद भी डूबा औरों को भी ले डूबा.’’ पीछे छोड़ गया पत्नी, बेटियाँ, बेटा विजयेन्द्र अपनी पढ़ाई जोअपना काम, पढ़ाई सब छोड़ के लौट आया उसी चक्की में पिसने, उससे जूझने.

तीसरे मोहनदास इगतदास बाघमारे (मोहन दादा) जिन्होंने कर्जा लेलेके बेटों को पढ़ाया और बेटों ने शहर जाकर माँ-बाप से मुँह मोड़ लिया. निचाट बियाबान में एक ही साथी है, उनका बैल जिसे भाई कहके बुलाते हैं. अपने दुःख दर्द उसी से कहते हैं. एक दिन हाट में उसी भाई को बेच आए किसी कसाई को. पर घर लौट कर अपराधबोध ने पलभर चैन से बैठने नहीं दिया. पंडित के कहने पर गले में बैल की घंटी बांधकर घों घों करते भाई की हत्या का प्रायश्चित करने निकले तो खुद को ही खो दिया. पाप-पुन्य के बियाबान में ऐसे बिला गए कि फिर किसी को मिले ही नहीं.पीछे छूट गए खाली खेत, पत्नी सिंधू ताई और एक बैल की हत्या का कभी न धुलने वाला कलंक.
  
एक नहीं, दो नहीं ऐसी कई मौतों के अनगिन किस्से. सबके मरने के अलग अलग तरीके पर अंत एक. उसके बाद शुरु होती हैं पात्र-अपात्र की बहसें. मरने वाला किसान था, या नहीं था, मरने का कारण खेती,उससे जुड़ा कर्ज था या नहीं था, मरने वाला अपनी पात्रता कैसेसिद्ध करे कि वह खेती के इस भंवर मेंफंस के मरा या किसी और कारण से. लाश मुआबजे के लिए पात्र है या अपात्र. ये सारी बहसें बड़े ध्यान से देखती हैं प्राणहीन आँखें.पर न बहसें ख़त्म होती हैं, न समस्याएँ, एक से निकले तो दूसरी समस्यामुंह बाए खडी है. किसी को नौकरी के लिए लाखों की घूस देनी है, तो किसीको बेटियोंके ब्याह में लाखों का दहेज और चमकती मोटर साइकिल देने के लिए फिर से कर्जा लेना है, किसी को बीज का चुकता करना है, तो किसीको छप्पर चढ़वाना है,तो किसी कर्ज़ में डूबकर आत्महत्या करने वाले कीआत्मा की शांति के लिए तेरहवीं पर ब्राहमणभोज कराने के लिए फिर से कर्ज लेना है.कदम कदम पर जाल बिछा है. इधर बचे तो उधर फंसे. किसी की मजबूरी किसीके लिए कमाने का मौका है. दूर दूर से सूदखोर साहूकार, छोटी-मोटी फाइनेंस कम्पनियों के दलाल ज्यादा ब्याज पर कर्जादेने के लिए गाँवों के चारों तरफ चील-कौवों से मंडरा रहे हैं. उसी में धर्म अपना शिकंजा कस रहा है तो राजनीति अपने दाव खेल रही है. रहनुमा एअरकंडीशनड कमरों में बैठकर विदेशी आकड़ों और शोधों पर किसानों कीमदद की योजनाएं बना रहे हैं. किसी तक मदद पहुंचे न पहुचे वे आंकड़ों में अपनी पीठ थपथपा रहे हैं.ऐसे कांईयां समयमें कौन बच सकता है, कोई नहीं जानता, कोई नहीं जानता.
 
पर यहाँ आकर,‘फाँस’ किसानोंकी आत्महत्याओं के भयावह दृश्य दिखाकर,समाप्त नहीं होता बल्कि यह खेती-किसानी और उससे जुड़े समाज के आर्थिक, सामाजिक तथा वैज्ञानिक पहलुओं का,क्षेत्र विशेष में प्रयुक्त फसलों की विभिन्न किस्मों का, खेती कीविधियों का, प्रयुक्त बीजों का, कीटनाशकों के प्रयोग आदि का गहन विश्लेषण करते हुए किसानों की समस्याओं के राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक कारणों की पड़ताल भी करता है और समाधान भी खोजता है. और यही कारण है कि उपन्यास दो भागों में बटा दिखाई देता है. पहलाकिसानोंके दुःख-दर्द, उनके संघर्षों, असफलताओं और उनकी आत्महत्याओं की केस स्टडी की तरह सामने आता है जो समस्याओं के कारणों की शिनाख्त करता है जिससे यह विदर्भ से शुरू होकर पूरे देश के किसानों की समस्याओं को समेटता हुआ उन सबकी करुनगाथा बनकरउभरता है.

तो वहीं दूसरा हिस्सा वो है जो समस्याओं के समाधान की खोज में आगे बढ़ता है. इसमें वे पात्र प्रमुखता पाते हैं जो मृतकों के जाने के बाद समय और समस्याओं से जूझने केलिए बचे रह गए हैं जो जान गए हैं कि जान देने से कुछ बदलने वाला नहीं. बदलना है तोजीना होगा, लड़ना होगा. सुनील का बेटाविजयेन्द्र, शिबू और शकुन की बेटी कलावती (छोटी), बड़ी बेटी सरस्वती, खुद शकुन, सिंधु ताई, कलावती का बचपन का साथी अशोक, मंगल मिशन पर जाने वाला मल्लेश, इन सबको एक सूत्र में पिरोने वाला, कुछ कुछ कथा का सूत्रधार फक्कड़ नाना और किसानों के लिए आदर्श दादाजी खोबरागड़े. ये सभी पात्र निराशा और टूटन के वातावरण के बीच कथा का प्रतिपक्ष रचते हैं. ये विचार के लिए ‘मंथन’ जैसा मंच खड़ाकर किसानों को और उनकी मदद करने वालों को एक जगह एकजुट करते हैं. उन्हें खेती करते हुए भी पैसे जुटाने, फसलों के अच्छे परिणाम प्राप्त करने के वैकल्पिक रास्ते सुझाते हैं. वे बतातेहैं किजहाँ हालात के आगे घुटने टेकते, आत्महत्या करते किसान हैं वहीँ हालात से जूझने वाले, धान की नई किस्में विकसित करने वाले, समाज में एक विशेष स्थान रखने वाले होने वाले, बड़े से बड़े दुख के आगे घुटने न टेकने वाले दादाजी खोबरागाड़े भी हैं. वे बताते हैं की यदि विदर्भ में ‘बनगाँव’ है तो आदर्श गाँव ‘मेडालेखा’ भी है.इस तरह ‘फाँस’ अपनी कथा में तो संतुलन और सामंजस्य पा लेता है पर ‘मंथन’ में उठने वाले प्रश्न कथा से बाहर शून्य में टंगे रह जाते हैं. पेड़ों से झूलती लाशें केवल देश की व्यवस्था से, सरकारों से सवाल नहीं करतीं बल्कि वह हम सबकों सवालों के घेरे में खींच के खडा कर देती हैं.  
 
‘फाँस’ तमाम जरूरी सवालों के साथ हमें सोचने पर विवश कर देता है कि आज एक तरफ जहाँ एक बड़ा नव धनाड्य औरखुद को प्रबुद्ध तथा शहरी समझने वाला वर्ग जोलगभग पूरे देश की रूचि-अरुचि को तयकर रहा है, जो बाज़ार में आए हर उत्पाद का पहला संभावित उपभोक्ता है, जिसकी जरूरतों के लिए निरंतर बाज़ार विस्तार पारहा है, वही उपभोक्ताकिसी उत्पाद की यात्रा के उस सिरे कोजहाँ से वह उपजता है, लगभग पूरी तरह बिसरा चुका है. आज कसबों, शहरों, महानगरों में एक ऐसी पीढ़ी हमारे सामने है जिसने अपने जीवन में खेत, किसान, हल या कृषि के उपकरण तो क्या गेहूँ, ज्वार, बाजरा, धान, तिलहन या दाल आदि के दानों को न कभी देखा है, न छुआ. वे इन सबको  रंगीनडिब्बों, पैकिटों उनके ब्रांड के नामों से जानते हैं.वे जिस देश-दुनिया में रह रहे हैं वहाँ किसानों की समस्याएँ, उनके संघर्ष, उनकी मौतें कोई मुद्दा नहीं. उनकी सोच, उनके चिंतन, उनकी दृष्टि से खेत और किसान सिरे से गायब है. उसका दर्द, उसकी चीखें सब नेपथ्य में धकेल कर.देश के विशाल रंगमंच पर प्रगति और विकास का उत्सव चल रहा है.ऐसे में निश्चय ही संजीव का यह उपन्यास उन तमाम आत्महत्याओं का हल्फिया बयान है, एक मौत के बाद पीछे छूटे परिजनों का खेती से तौबा करता हुआ इकरारनामा है और साथ ही भविष्य में होनेवाली आत्महत्याओं की चेतावनी भी है. इस चेतावानी में अप्रत्यक्ष रूप से यह भी ध्वनित हो रहा है कि यदि हालात न बदले तो ऐसा समय भीआएगा जब दुनिया का हर आदमी उपभोक्ता होगा, वहअपने मनपसन्द उत्पाद कोखरीदाने की कोई भी कीमत देने को तैयार होगा पर पैदा करने, उपजाने वाला कोई न होगा.


समीक्षित पुस्तक – फाँस (उपन्यास)
लेखक – संजीव
प्रकाशक – वाणी प्रकाशन
पृष्ठ संख्या – 255 (हार्ड बाउंड)
मूल्य- 395     
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समीक्षक ........

परिचय और संपर्क

विवेक मिश्र

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