विवेक मिश्र
हमारे समय के महत्वपूर्ण युवा कथाकार विवेक मिश्र का जन्मदिन इसी 15 अगस्त को है | इस अवसर पर हम सब उन्हें ढेर सारी शुभकामनाये प्रदान करते हैं , और उम्मीद व्यक्त करते हैं , कि वे रचनात्मकता के उच्च मानदंडों को स्थापित करते हुए लगातार आगे बढ़ते रहेंगे | इस अवसर पर पढ़ते हैं उनकी वागर्थ के अगस्त-2012 अंक में प्रकाशित हुई कहानी ' गुब्बारा ' |
गुब्बारा .....
अगस्त का आख़िरी हफ़ता था। बारिश बहुत कम हुई
थी। बादल आसमान पर ठहरे थे। बरसने के लिए उन्हें किसी ख़ास चीज़ की तलाश थी,
जो शायद ज़मीन पर नहीं थी। हम
उन्हें बरसने पर मजबूर नहीं कर सके थे। हाँ, उन्हीं बादलों से होती हुई
कोई सूचना हमारे मोबाईल तक पहुँच सकती थी। मैं दिल्ली में था। मोबाईल की
घण्टी बजी। झाँसी से भईया का फोन था। पिताजी को दिल का दौरा पड़ा था।
भईया ने बताया था पिताजी कराह रहे थे, छाती पर कई मन बोझ बता रहे
थे। उनके फेफड़ों में हवा नहीं जा रही थी और रह-रहकर आँखें फैल रहीं थीं।
छाती फट पड़ने को थी जब उन्होंने मुझे ख़बर करने को कहा था। इतने दर्द
में भी उनकी स्मृति में, मैं था।
ख़बर सुनकर मेरा शरीर सूखे पत्ते-सा हवा में
तैरने लगा था। शरीर का भार जाता रहा था। ज़मीन मुझे अपनी ओर नहीं खींच पा रही थी। मेरे
भीतर का तरल पलभर में सूख गया था। पिताजी की गर्म लाल हथेलियाँ स्मृति
से निकलकर मुझे पकड़ने को बढ़ीं , पर मुझे न छू सकीं।
मेरे फेफड़ों में भी हवा नहीं घुस रही थी।
मैं उसी दिन जान सका था, मेरे भीतर कितने भार
में पिताजी थे, जो मेरे शरीर से निकल कर स्मृति में घुल रहे थे। मैं ख़ाली हो रहा
था। बहुत हल्का, पर मैं अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पा रहा था। अनायास ही,
दूर घर की चैखट से बँधी डोर
टूटती-सी लग रही थी। मैं कटी पतंग-सा आसमान में गोते खा रहा था,
डूब रहा था। पिताजी
डोर समेट कर जा रहे थे। मुश्किल से खींची साँसों में, सफ़ेद बाँहदार बनियान
से उठती पिताजी के पसीने की गन्ध घुल रही थी, कभी पत्थर के कोयले की अँगीठी पर, लोहे की कढ़ाई में पकता कटहल महकने लगता था,
पिताजी कटहल बहुत अच्छा
बनाते थे। वे कभी तादान पर रखा तबला उतार कर झाड़ते और बजाने लगते। कभी बाँसरी
बजाते। कभी आफ़िस से लाया हुआ काम, लालटेन की रोशनी में
करने लगते। कभी किसी पेपर के पीछे बालपेन से राम का स्कैच बना देते। रामायण
के राम। बिलकुल सजीव। कभी छत पर बैठे गमलों की गुड़ाई करते, घण्टों। पता नहीं वे पौधों के बहुत क़रीब
थे या ऐसा सिर्फ़ लोगों से दूर रहने के लिए करते। पर हर समय अपने में
डूबे। बाहर की दुनिया से कटे, पिताजी।
पिताजी नास्तिक नहीं थे, पर पूरे आस्तिक भी
नहीं थे। गाँधी जी की कई बातें बताते थे, पर काँग्रेसी नहीं थे। हिन्दू उत्थान की बातें
करते, पर जन-संघी नहीं थे। दुर्गा पूजा में शामिल होते थे, पर प्याज और अण्डे
खा लिया करते थे। समाज के सभी वर्गों में समानता को बढ़ावा देता । किसी भी
गरीब की मदद
को तैयार रहते, पर कम्यूनिस्टों से
चिढ़ते थे। ब्राह्मणों में जन्म लेकर भी चतुर, चालाक और पैने नहीं
थे, पिताजी। सदा ब्राह्मण विमर्श से दूर अपनी रिक्तता में मुस्कराते। अपनी
सत्तासी साल की माँ की मौत पर फूट-फूट कर रोने वाले एक भावुक इन्सान,
इस घनघोर सदी में बहुत,
मिसफ़िट। पर अपने में
मस्त।
असहनीय पीड़ा झेलते नर्सिंग होम पहुँचे पिताजी
के मन में क्या रहा होगा? ज़रूर उनके मन में, माँ रहीं होंगीं...या फिर दफ़तर जाते समय,
साथ ले जाने वाला चमड़े
का चेन लगा थैला, जिसे वह हमेशा अपने पास रखते थे, जिसमें रखी डायरी में
कभी-कभी कुछ लिख लिया करते थे। हो सकता है उन्हें अपने पिताजी की याद
आई हो, जो उनके बचपन में ही दिल का दौरा पड़ने से गुज़र गए थे। उनकी मौत महोबा में हुई थी, सन् पचास में उन्होंने
रेलवे अस्पताल में दम तोड़ा था। उससे पहले पिताजी की तरह उन्हें भी कभी दिल का दौरा नहीं पड़ा था।
उस समय छोटे शहरों के सरकारी अस्पतालों में सुविधाएँ नहीं थी। तिरेपन साल बाद आज पिताजी को दिल
का दौरा पड़ा था, झाँसी में। आज भी, बुंदेलखण्ड की राजधानी बनने का सपना संजोने वाले, पर्यटन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण
ऐतिहासिक शहर में एंजियोग्राफी, एंजियोप्लास्टी और हार्ट सर्जरी के लिए कोई
जगह नहीं थी। शहर के हर मोड़, चौराहे पर नर्सिंग होम कुकुरमुत्तों की तरह उग आए थे, पर उनमें बैठे डाक्टर-नर्सें
और स्टाफ़ किसी की जान बचाने को तत्पर स्वास्थ्य कर्मचारी कम और मुसीबत में
फसे किसी मरीज़ और उसके परिवार को हलाल करने की फ़िराक में बैठे कसाई ज़्यादा लगते थे।
मैं रात ट्रेन से उतरकर सीधा थ्री व्हीलर
में बैठकर नर्सिंग होम की ओर चल पड़ा। दिल्ली से झाँसी छः घण्टे का सफ़र बहुत बेचैनी से कटा
था। अब जबकि मैं झाँसी पहुँच चुका था और थ्री-व्हीलर पैनी चुभने वाली
आवाज़ के साथ मुझे स्टेशन से इलाहाबाद बैंक होता हुआ, कानपुर रोड पर बने
डा. मिश्रा के नर्सिंग होम की ओर ले जा रहा था। मैं वहाँ पहुँचना नहीं चाहता
था। इसी बीच कई बार मैंने उनका हाल फ़ोन पर पूछा था। उनकी स्थिति गम्भीर
थी...अभी कुछ कहा नहीं जा सकता था। जो प्राथमिक उपचार सम्भव था, दे दिया गया था। मैं उन्हें
दर्द में असहाय, तड़पता हुआ देखना नहीं चाहता था। मेजर हार्ट अटैक था।
मैं नर्सिंग होम पहुँचकर अपने को संयत करता
हुआ आई. सी. यू. की ओर बढ़ रहा था। आई. सी. यू. के दरवाजे पर पहुँचकर मैं ठिठक गया
था। अब उनके और मेरे बीच में शीशे का दरवाज़ा था। जिसके खुलते ही
उस बच्चे के मन की वह दीवार ढह जाने वाली थी, जो पिताजी की लाल हथेलियों
से बनी थी, जिसे तोड़कर कोई उस निश्चिन्त सोते बच्चे को सपनों में भी डरा नहीं सकता था। वह हथेलियाँ
बहुत मज़बूत थीं। उनकी उँगलियों में दिशा थी, और मेरे मन के किसी
कोने में पिताजी के अजेय होने का बचकाना विश्वास। आई. सी. यू. के बाहर
बैन्च पर माँ बैठी थीं। वह सुबह ग्यारह बजे पिताजी की छाती मलती हुईं,
बदहवास भईया के साथ
नर्सिंग होम में दाखिल हुई थीं। अब अन्धेरा हो गया था। कोरीडोर में लटके पीले बल्ब अन्धेरे से
लड़ रहे थे। इन्हीं आठ-नौ घण्टों में माँ कई साल बूढ़ी हो गईं थीं। चेहरा
दिनभर में दुख और मौत के भय से तपकर काला हो गया था। आँखें किसी गहरे कुएँ
में डूबी थीं। मुझे देख कर उनके होंठ कुछ कहने को हिले थे। पर शब्द गले
में घुँट गए थे। होंठो से एक फुसफुसाहट के साथ हवा निकली थी। जिससे दर्द निकलकर पीले बल्बों
की रोशनी के साथ, कौरीडोर में तैरने लगा था। अगस्त की नमी हवा में घुलकर
दुख को और भारी कर रही थी। मैं कुछ कहना चाहता था, उन्हें ढाँढस बँधाना
चाहता था, पर मैं उनके गले लगकर फफक कर रो पड़ा था।
कमरे में ख़ामोशी थी। पँखे की सरसराहट ख़ामोशी
में धीरे-धीरे मिल रही थी। कमरे की हवा में दवाओं और अस्पताल की गन्ध के साथ पिताजी
की पसीने की गन्ध भी घुली थी। जिसे सूँघ कर मैं बचपन में निश्चिन्त,
खुले आसमान के नीचे,
खरारी खाट पर भूत,
जिन्न, राक्षस, चोर-डाकू, मंगलवासियों और हर उस चीज़ के डर
से, जो बचपन में हो सकता है, निडर होकर सो जाया करता था। उनकी हाथ की नसों में नीडल्स धँसी हुईं थीं जिनसे बूँद-बूँद
द्रव उनके शरीर में जा रहा था।
अगले सत्तर घण्टे कुछ नहीं कहा जा सकता था,
हिलना-डुलना,
खाना-पीना बोलना सब बन्द। दिल
की हर धड़कन एक बीप के साथ ई. सी. जी. मानीटर पर उछल रही थी। हर
उछाल में धड़कते रहने की एक घायल कोशिश थी। हर एक बीप में एक कमज़ोर
याचना थी। प्राणों की याचना। मुँह पर आक्सीजन लगी थी, फिर भी कठिनाई से साँस
जा रही थी। दवाओं के असर से आँखें बोझिल थीं, पर कोशिश करके जब खुलतीं तो एक बार पूरे कक्ष में घूम जाती.........कुछ तलाशती हुई।
इस बार, उनकी आँखों ने मुझे
देख लिया था। ये वही आँखें थीं, जिनके पीछे खड़ा होकर मैं दुनिया देखने की कोशिश करता था। उन आँखों
को पहनते ही, मैं खुद पिताजी बन जाता था। उन्हीं आँखों से आँसू ढलक गए थे।
भीषण पीड़ा के बाद मिले आराम की विश्रान्ति थी, उन आँखों में। मैंने
उनका हाथ पकड़ा तो उन्होंने अपनी गर्म हथेली से मेरा हाथ हल्के से दबाया
था, यह एहसास वैसा ही था, जैसे परीक्षा से पहले, वह मेरा कन्धा दबाते
थे।
दो दिन और दो रातें बीत चुकी थीं। हम सब थोड़ी
राहत महसूस कर रहे थे। पिताजी के मुँह से आक्सीजन हटा दी गई थी। सुबह उन्होंने
दो चम्मच सेब का रस पिया था। लगता था, ख़तरा टल गया था। सत्तर घण्टे पूरे होने में, एक ही घण्टा बाकी था।
रात तेज़ बारिश हुई थी, पर सुबह बादल छट गए थे, चमकदार धूप खिली थी,
हवा में सावन की नमी
के साथ नर्सिंग होम की क्यारियों में खिले फूलों की खुनकी मिली थी। वह रविवार था। माँ
ने भईया से कहकर घर से अपना चश्मा मंगा लिया था, वह पल्लू से पोंछ कर
उसे पहन रही थीं, मैं बाहर बरामदे में खड़ा था। माँ ने चश्मे के पार से देखा था,
पिताजी की आँखें बड़ी होकर,
ऊपर उठ रहीं थी,
चेहरा सख़्त और लाल
हो गया था। उनकी साँस में ऐसी आवाज़ थी, जैसे खिलाड़ी छूटती
साँस बचाकर, अपना पाला छूने की कोशिश कर रहा हो, पर कई हाथ उसे खींचकर
उसे, उसके पाले से दूर लिए जा रहे हों। उनकी साँस के इस स्वर में, माँ की चीख़ भी शामिल थी, जिससे मेरे नाम के
जैसा कोई शब्द बना था। भईया डाक्टर को बुलाने दौड़ गए। मैंने दोनों हाथों
से उनकी छाती को दबाना शुरू कर दिया।
पिताजी ने फिर ज़ोर से साँस ली। उन्होंने पूरा
ज़ोर लगाया, वापस अपने पाले में आने के लिए, अपने संसार में लौटने
के लिए, पर उनकी कोशिश कमज़ोर थी, उन्हें कई हाथ अनजाने अन्धकार में खींच रहे थे। डाक्टर आ गया था। उसने मुझे धकेलकर,
पिताजी की छाती को
दोनों हाथों से दबाया। मुझे उनके मुँह में साँस देने को कहा, मैंने अपने मुँह से
अपनी साँस उनके मुँह में छोड़ी, डाक्टर ने छाती दबाई। पिताजी ने ज़ोर से साँस छोड़ी। मैंने फिर
उनके मुँह में साँस छोड़ने के लिए अपना मुँह झुकाया। मैं इस बार उन्हें
साँस दे पाता, उन्होंने अपनी साँस छोड़ दी। उनकी आँखें स्थिर हो गईं। चेहरे
पर आए पीड़ा के निशान मिट गए। उनकी आख़री साँस मेरे भीतर चली गई। उनकी और मेरी आँखें एक हो गई
थीं। उनकी साँस मेरे भीतर जाते ही, मैं एक गुब्बारे-सा ऊपर उठने लगा था। पिताजी पलंग पर लेटे एक टक मुझे देख रहे थे।
मैं कमरे में उठती आवाज़े नहीं सुन पा रहा था, लोग अन्दर-बाहर दौड़
रहे थे। किसी का ध्यान मेरी ओर नहीं था। मैं छत से टकराता हुआ,
किसी गुब्बारे-सा रोशनदान से बाहर उड़
गया था। मेरे चेहरे ने पिताजी की आँखें पहन ली थीं। अब मुझमें पिताजी रहने
लगे थे। अब मुझे किसी से शिकायत नहीं थी। मैं घण्टों गमलों की गुड़ाई
करने लगा था।
सबसे कटा, अकेला।
परिचय और संपर्क ....
विवेक मिश्र ....
सुपरिचित युवा कथाकार
'हनियां और अन्य कहानिया' नामक संग्रह 'शिल्पायन से प्रकाशित
123 सी , पाकेट - सी , मयूर विहार
फेज- 2, दिल्ली , 110091
मो. न. - 09810853128
samvednaaon se bhari bahut hi shaandaar abhivyakti
जवाब देंहटाएंdhanyavad tithi dani ji..,
हटाएंविवेक की कविता की सबसे बड़ी खूबी है की यह आज के समय में छीजते जा रहे रिश्तों के दौर में भी पिता-पुत्र के रिश्ते को बड़े मार्मिक तरीके से हमारे सामने रखती है. कहानी आद्योपांत हमें बाधे रखती है और कहीं भी उबाऊं नहीं लगती. बढ़िया कहानी के लिए बधाई.
जवाब देंहटाएंdhanyavd..,
हटाएंअत्यंत मार्मिक किन्तु जीवंत चित्रण, जीवन के शायद कठिनतम क्षणों का....साधुवाद।
जवाब देंहटाएंबिना लाग लपेट के शानदार कथावस्तु के साथ लिखी गई बेहद मार्मिर्क कहानी। जीवन के हिचकोले और अपनों के जुदा होने का एहसास बहुत खूबी से उकेरा है। मिश्रा जी बधाई स्वीकार करे।
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