सोमवार, 28 अप्रैल 2014

राजीव रंजन प्रसाद की कवितायें




आम चुनाव के कुछ कम चर्चित और अज्ञात पक्षों को कविताओं के माध्यम से देखने का प्रयास ‘राजीव रंजन’ ने किया है | आईये इन्हें पढ़ते हैं |
       
  

        प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर आज राजीव रंजन प्रसाद की कुछ कवितायें



1.

चुनाव

...........

हमारे आदत-व्यवहार की
एक सामान्य क्रिया है चुनना
आचरण-स्वभाव में घुला-मिला
एकदम साधारण शब्द है यह
यह एक कामकाजी शब्द है
जिसका रिश्ता हमारे होने से है
वह भी इतना गाढ़ा कि
हम सिर्फ चुनने का बहाना लिए
बचपन से बुढ़ापे में दाखिले हो जाते हैं
बाल सफेद, बात भुलक्कड़, कमर टेढ़ी
और आँख में अनुभव का
आदी-अंत और अनन्त विस्तार

चुनना आमआदमी के करीब का
सबसे सलोना शब्द है
अपने चुने हर चीज पर अधिकार जताते हैं हम
अपने चुनाव पर सीना चौड़ा करते हैं
मूँछों में तेल चुभोड़ते हैं
गर्वीली मुसकान संग
बार-बार उन पर हाथ फेरते हैं

हम जानते हैं
यह चुनना किसिम-किसिम का है
जैसे हम चुनते हैं
अपने बच्चों के लिए स्कूल
सब्जियों की ढेरी से आलू और टमाटर
अपने लड़के-लड़कियों के लिए
चुन लेते हैं कोई सुघड़-सा रिश्ता
ज़िन्दगी के आखिरी मोड़ आते ही
हम अपनी सुविधानुसार चुन लेते हैं
एक ठिकाना, ठौर या थाह
जहाँ बैठकर तका जा सके
आसमान को हीक भर या भर नज़र

इसी तरह ज़िन्दगी का राहगीर बने हम
चुनते हैं कोई एक रास्ता
और चल पड़ते हैं उस पर
इस विश्वास से कि हमारा यह चुनाव
कुछ और दे या न दे
इतना मौका मयस्सर तो कराएगा ही कि
हम और हमारा परिवार
हमारे आस-पड़ोस, इतर-पितर, देवता-देवी,
जवार-समाज, देश-दुनिया सब के सब
खुश हों, संतुष्ट और आह्लादित हों
इंडिया गेट और स्टेच्यू आॅफ लिबर्टी
हम  नहीं जानते हैं तब भी
दुआ में ऊपर उठे हमारे हाथ
उनकी सलामती के लिए चुनते हैं
मानवता के कल्याणकारी शब्द

दरअसल, इस इक छोटे-से शब्द पर
टिका है-हमारा अपना होना
अपनों के साथ होना
अपनों के बीच होना
यानी हमारा चुनाव सही हो या ग़लत
उस पर अधिकार अंततः
हमारा ही है
यह अटल विश्वास होता है
चुनाव करते हम जैसे लोगों का

लेकिन, आम-चुनाव की राजनीति में
हमारा चुनना हमारे होने को नहीं करता सार्थक
हमारे मनसा-वाचा-कर्मणाको नहीं बनाता है
शुद्ध, निर्मल और पवित्र
हम राजनीतिक मतदान में जब भी चुनते हैं आदमी
वह चुनते ही बन जाता है जानवर
या फिर हिंस्र पशु
जंगली दानव, राक्षस अथवा घोर आताताई
और बनाने एवं पैदा करने लगता है
अपने ही जैसे लोग
हिंसक,खंुखार और अमानवीय जन

क्या लोकतंत्र में चुनाव का अर्थ
हमारे आलू-टमाटर बराने/बिनने की तरह नहीं है
एक लड़का और लड़की के लिए ताउम्र
ससुराल और मायके का रस्म निबाहने की तरह नहीं है
हमारे बच्चे की स्मुति में टंके
उसके शिशु विद्यालय की तरह नहीं है
आखिर लोकतंत्र में चुनाव का अर्थ
हमारे और हमारे समाज की तरह
पूर्णतया अर्थपूर्ण, आश्वस्तीपूर्ण और अवश्यंभावी क्यों नहीं है...!!



2.

पार्टी कार्यकर्ता

.................

पार्टी का राजतंत्र
जिस किसी को चुन लेता है
वास्तविक चुनाव वही है

पार्टी का आलाकमान
जिस किसी को कर देता है नामित
असली चुनाव वही है

उम्मीदवार चुनने में
जनता का मत स्वीकृत नहीं है
अधिकार तो उन टोपीदारों को भी नहीं है
जो सालो भर पार्टी का झण्डा-बैनर ढोते हैं
किसी आयोजन में
कुर्सीया बिछाते, पोंछते और बटोरते हैं
पार्टी-आवाज़ पर बिन खाए-पीए रेंकते हैं
दौड़ते, भागते और धुँआधार खटते हैं

जबकि उनका अपना घर टूटा है
छत लम्बा-लम्बा चूता है
सीढ़ियाँ जर्जर है
खेत बंजर है
बिटिया सयानी है
बिटवा जवान है
तब भी ज़बान पर
पार्टी नेताका ही नाम है

इस बार फिर
चुनावी रस्म निभाना है
गीतगउनी बन पार्टी गीतगाना है
फँलानेको जिताना है
चिलानेको हराना है
अपनी टूटही साईकिल छोड़
चरचकिया पर आँख नचाना है

इस बार फिर
हूमचना है, गरियाना है
सरउ तेरी त...कहते हुए
विपक्षी से लपटना है
बतचप्पों में निपटना है

वे पार्टी कार्यकर्ता हैं
उन्हें ताज़िदगी यही सब करना है!!


3.

आपदा

........

आपदा पर गीत लिखा
गाने लगी मुर्गियाँ

आपदा पर लोरी लिखा
सुनाने लगी गाय अपने बच्चे को

आपदा पर कविता लिखी
कुतों ने ठोंक दिया ताल

आपदा पर कहानी लिखी
बकरियाँ भरने लगी हुंकारी

आपदा पर लिखता रहा कुछ न कुछ
सभी जानवर मनाते रहे उत्सव रोज-रोज

लोग कह रहे हैं
ये सभी आपदा में मृत उन जानवरों की आत्माएँ हैं....
जिन्होंने आपदा-प्रबंधन का चुनाव करना नहीं सीखा था।
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परिचय और संपर्क



राजीव रंजन प्रसाद

मीडिया शोधार्थी, हिन्दी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी-221 005
मो0- 07376491068
ई-मेल: 
rajeev5march@gmail.com



शनिवार, 26 अप्रैल 2014

'शिक्षा, भाषा और प्रशासन' पुस्तक की समीक्षा






वरिष्ठ कथाकार व शिक्षाविद प्रेमपाल शर्मा से युवा लेखक अनुराग ने लंबी बातचीत की है | इसे ‘लेखक मंच प्रकाशन’ ने पुस्तकाकर प्रकाशित किया है | युवा लेखक ‘महेश चन्द्र पुनेठा’ इस आलेख में इस पुस्तक को समझने की कोशिश की है | आईये ....सिताब दियारा ब्लॉग पर इसे पढ़ते हैं ...|  
       

          अपनी भाषा और समान शिक्षा के पक्ष में एक महत्वपूर्ण पहल
                                                      

शिक्षा ,भाषा और प्रशासनवरिष्ठ कथाकार व शिक्षाविद प्रेमपाल शर्मा से युवा लेखक अनुराग की लंबी बातचीत की एक महत्वपूर्ण किताब है जो लेखक मंच प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। इस किताब में शिक्षा और भाषा के विविध पहलुओं पर विस्तार से बातचीत की गई है। अच्छी बात यह है कि बातचीत एक निष्कर्ष तक भी पहुँचाती है। शिक्षा की दिशा-दशा व बदलाव और हिंदी भाषा की स्थिति , उसके कारण और सुधार के उपायों को लेकर पाठक का एक विजन बनाने में सफल रहती है। अनुराग ने शिक्षा के मूल उद्देश्य से लेकर शिक्षा के बदलाव तक  तथा भाषा और ज्ञान के संबंध से लेकर भाषा को बचाने तक के तमाम ज्वलंत प्रश्न पूछे हैं जिनके प्रेमपाल शर्मा ने बड़ी साफगोई और सहजता से उत्तर दिए हैं। उन्होंने अपनी बात को समझाने के लिए यत्र-तत्र देश-विदेश की शिक्षा के उदाहरण दिए हैं।उदाहरणों से बातचीत जहाँ रोचक तो हुई है वहीं बहुत सारी जानकारी बढ़ाने वाली सिद्ध हुई है। शिक्षा और भाषा को लेकर आम शिक्षक-अभिभावक के मन में समय-समय पर उठने वाले प्रश्नों के उत्तर यहाँ मिलते हैं। इस किताब को पढ़ने के पश्चात शिक्षा की एक समग्र समझ बनती है जो शिक्षा से जुड़े हर व्यक्ति के लिए जरूरी है।
   
यह पुस्तक भविष्य की शिक्षा का सपना भी प्रस्तुत करती है। अपनी भाषा और समान शिक्षा के पक्ष में एक माहौल बनाती है। शिक्षा के बढ़ते निजीकरण के खिलाफ संघर्ष को बल प्रदान करती है।इस बात को समझाने में सफल रहती है कि शिक्षा का निजीकरण हमारे समाज के लिए किस तरह घातक है? तथा उसको रोकने में आम आदमी की क्या भूमिका होनी चाहिए? प्रेमपाल शर्मा अपनी बातचीत में कनाडा का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि दसएक साल पहले की बात है-कनाडा में एक दिन लोग अचानक सड़कों पर आ गए। इसका कारण यह था कि तब तक जा 99 प्रतिशत शिक्षा समान थी, उसके कुछ अंश का सरकार निजीकरण करने जा रही थी। लोग सड़कों पर आ गए कि हम ऐसा नहीं करने देंगे।यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत में ऐसी जागरूकता नहीं दिखाई देती है।   
 
सरकारी शिक्षा की गुणवत्ता में लगातार कमी आती जा रही है। इसके लिए समान्यतः सरकारी शिक्षकों की कामचोरी को जिम्मेदार मान लिया जाता है लेकिन प्रेमपाल शर्मा ऐसा नहीं मानते हैं।वह इसकी गहराई में जाते हुए उसके कारणों को सामने रखते हैं तथा उसके समाधान के उपाय बताते हैं। इस बारे में उनका दृष्टिकोण शासकवर्गीय नहीं है। वह कहते हैं कि सरकारी स्कूल उतने खराब नहीं हुए हैं ,जितना उन्हें बताया जा रहा है। उनके खिलाफ प्रचार की भी एक राजनीति है। राजनीति यह है कि केंद्र और राज्य दोनों जगहों की सत्ताएं विश्व बैंक, अमरीका आदि विभिन्न दबाबों में निजी-प्राइवेट स्कूलों को बढ़ावा देना चाहते हैं।

बच्चों में रचनाशीलता और वैज्ञानिक सोच कैसे विकसित की जाय? सीखने-सिखाने की प्रक्रिया के दौरान शिक्षक को किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? अंग्रेजी भाषा बच्चे के मानसिक विकास और रचनात्मकता को कैसे बाधित करती है?बढ़ती धार्मिकता और धर्मांधता को रोकने के क्या उपाय हैं?एनसीईआरटी की पुस्तकें क्यों अच्छी हैं? आदि प्रश्नों के उत्तर हमें इस किताब में मिलते हैं।
  
प्रस्तुत पुस्तक में लेखक मंचबेबसाइट के संपादक अनुराग ने अपनी बातचीत की शुरूआत  शिक्षा के मूल उद्देश्य को लेकर  की है जिसके उत्तर में प्रेमपाल शर्मा कहते हैं कि एक बेहतर नागरिक बनाना जो अपनी मेहनत और काबिलियत के बूते खा-कमा सके, जिसके जीवन और आचरण में सबके लिए बराबरी का भाव हो,जो जाति,धर्म व क्षेत्र से ऊपर उठकर समाज की बेहतरी के बारे में सोचने में समर्थ हो,संवेदनशील हो,तर्कशील हो,वैज्ञानिक सोच रखता हो। उनका यह कहना शिक्षा के मौजूदा उद्देश्य हो गया है उस पर प्रकाश डालता है  कि हमारी शिक्षा एक अच्छा नागरिक बनाने के बजाय सिर्फ कुछ कक्षाएं पास करने का जरिया भर है,अपने आसपास के जीवन से सीखने की बातों से एकदम दूर।.....और तो और ,हमारी शिक्षा बच्चों को एक स्वस्थ नागरिक भी नहीं बनने दे रही है।वे यह बात भी विस्तार से बताते हैं कि कैसे हमारी शिक्षा हमें शारीरिक श्रम से दूर ले जाती है और शारीरिक श्रम करने वाले के प्रति हिकारत करना सिखाती है?
 
भारत की ही नहीं बल्कि  पाश्चात्य देशों की शिक्षा के बारे में भी इस बातचीत से बहुत कुछ जानने-समझने को मिलता है। पता चलता है कि पूँजीवादी देशों में भी कैसे प्राथमिक शिक्षा को सार्वजनिक क्षेत्र में ही रखा गया है। प्रेमपाल शर्मा समान शिक्षा का समर्थन करते हुए कहते हैं कि हमारी शिक्षा असमानता पैदा कर रही है।  इसको दूर करने करने के लिए उनका सुझाव है कि अब वक्त आ गया है कि हम निजी स्कूलों के दरवाजों पर धरने देें और शिक्षा-नीति के नियंताओं पर सरकारी स्कूलों में व्यवस्थाएं ठीक करने का दबाव डालें। निजी स्कूलों के बारे में उनकी स्पष्ट और सटीक राय है कि निजी स्कूल शिक्षा में किसी समाजिक बदलाव की भावना से प्रेरित नहीं हैं।यह उनके संचालकों के लिए एक और मुनाफे का धंधा है।...शिक्षा की बुनियादी बातें वे कभी भी नहीं करते ,न सिखाते हैं। .....निजी स्कूल पैमाना बन गए हैं मान-प्रतिष्ठा के और बच्चे उसके मोहरे हैं।नाम,मार्केटिंग,सुविधाओं की चकाचैंध में हम भूलते जा रहे हैं कि बच्चे आखिर क्या सीख रहे हैं और उन्हें क्या सीखन चाहिए।
  
बच्चों की रचनाशीलता बढ़ाने के सवाल पर वह एक महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि रचनात्मकता के लिए बच्चों की शिक्षा उनकी अपनी मातृभाषा में दी जाए।कम से कम प्राइमरी स्तर तक उनकी अपनी भाषा में शिक्षा न देने से आप बचपन में ही बच्चे की रचनात्मकता खत्म कर देते हैं। उन्हें पाठ्यक्रम से इतर फील्ड विजिट,कला,संगीत,साहित्य,विज्ञान जैसी रचनात्मक गतिविधियों को व्यावहारिक पक्षों से जोड़ना होगा। 
 
एनसीईआरटी की अद्यतन किताबों की प्रसंशा करते हुए वह कहते हैं कि ये किताबें बहुत चुपके से समानता का दर्शन सिखाती हैं ,जाति तथा धर्म के भेद को नकारती हैं और तर्क क्षमता बढ़ाकर वैज्ञानिक सोच पैदा करती हैं। एनसीएफ 2005 के आलोक में तैयार एनसीईआरटी की पुस्तकों के बारे मंे उनकी राय से शायद ही किसी की असहमति हो। निश्चित रूप से यह किताबें अब तक कि सबसे बेहतरीन किताबें हैं जिनमें बच्चों की रूचियों का विशेष ध्यान रखा गया है। शर्मा जी का यह मानना युक्तिसंगत है कि हर सरकारी व निजी स्कूल में यदि ये किताबें लगाई जाएं तो शिक्षा का परिदृश्य बदला जा सकता है। पर सवाल उठता है परिदृश्य तो तब बदलेगा जब शिक्षक इनके पीछे छुपे विजन को समझें । वे इन किताबों को पढ़ाना जाने। अभी तक तो आम शिक्षक इन पुस्तकों को गरियाने में ही हैं। उनकी नजर में ये पुस्तकें बकवास हैं।  
          
इस बातचीत में कहीं-कहीं प्रेमपाल शर्मा जी के अंतर्विरोध भी सामने आए हैं जैसे- एक ओर      जहाँ वह शिक्षा के परीक्षा का पर्याय बन जाने की आलोचना करते हैं  वहीं दूसरी ओर शिक्षा अधिनियम 2009 में प्रारम्भिक शिक्षा पूरी न होने तक बच्चे को फेल नहीं करने के प्रावधान पर पुनर्विचार करने जरूरत मानते हैं।खैर, कुल मिलाकर यह पुस्तक शिक्षा में रूचि रखने वालों के लिए बड़ी रोचक एवं उपयोगी बन पड़ी है। लेखक मंच का यह पहला ही प्रयास सराहनीय है। आगे अन्य शिक्षाविदों से भी इसी तरह की बातचीत की एक श्रृंखला प्रकाशित की जानी चाहिए। बातचीत विधा में इस तरह की पुस्तकें न पढ़ने वालों को भी अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रह सकती हैं। अंत में ,मैं इस बात के लिए भी लेखक मंच प्रकाशन की प्रशंसा करना चाहुंगा कि उन्होंने कम मूल्य पर शिक्षा और साहित्य की किताबें उपलब्ध कराने को जो संकल्प लिया है वह अनुकरणीय है। ऐसा सामाजिक प्रतिबद्धता से लैस व्यक्ति ही कर सकता है। 

    

समीक्षित पुस्तक

शिक्षा ,भाषा और प्रशासन( बातचीत) --- प्रेमपाल शर्मा और अनुराग
प्रकाशन -लेखक मंच प्रकाशन 433,
नीतिखंड-3इंदिरापुरम,गाजियाबाद-202014
मूल्य-पचास रुपए।



समीक्षक
महेश चन्द्र पुनेठा

पिथौरागढ़ , उत्तराखंड 














गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

'दक्खिन का भी अपना पूरब होता है' - संतोष चतुर्वेदी





युवा कवि संतोष कुमार चतुर्वेदी का दूसरा कविता संग्रह “दक्खिन का भी अपना पूरब होता है” हाल ही में साहित्य भंडार इलाहाबाद से छपकर आया है | इस संग्रह पर युवा आलोचक ‘अजय पाण्डेय’ ने एक निगाह डाली है | आईये पढ़ते है ....

            

          सहज और सुग्राह्य भाषा में सम्प्रेष्णीय कविताएं 
                                                           


दुनिया के किसी भी कोने में जब कोई कवि कविता लिख रहा होता है , तो वह उस समय मौजूदा व्यवस्था से असमति दर्ज कर रहा होता है। यानि वह एक समानान्तर वैकल्पिक दुनिया रचने की प्रक्रिया में लगा होता है। इस तरह से देखा जाए तो असहमतियां वैकल्पिक दुनिया रचने की अनिवार्य शर्तें होती हैं जो एक समय पर जाकर राजनीतिक ताकत में रूपायित हो जाती हैं | इसलिए कविता लिखना एक राजनीतिक और सामाजिक जवाबदेही है।संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविताएं इसी जवाबदेही का परिणाम हैं;जो समाज के विभिन्न हिस्सों में छितराये हुए संधर्षरत और दमित लोगों के साथ मोर्चा संभाले मजबूती से खडी हैं।ये वे कविताएं हैं जिन्हें मात्र मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि संबल के लिए हम अपने जीवन-युद्ध में शामिल कर सकते हैं। ये कविताए हताशा, मूल्यहीनता और उद्देश्यहीनता के इस दौर में व्यक्ति को गिरने से बचाती है, संभालती है और तैयार कर युद्ध -मोर्चे पर विदा करती हैं। आज लगातार भीड़ तो बढ़ती जा रही है किन्तु इस बढती हुई भीड़ में व्यक्ति अकेला पड़ता जा रहा है और निराशा की स्थिति में जी रहा है। लोग हारी हुई मनःस्थिति में जी रहे हैं ।दूर- दूर तक कोई उम्मीद नहीं दिखाई दे रही है अगर कुछ थोड़ा बहुत दिखाई भी कहीं दे रहा है तो कह रहे हैं लोग कि इससे क्या होने को?लेकिन संतोष चतुर्वेदी कहते हैं,छोटे-छोटे प्रयास भी महत्वपूर्ण होते हैंऔर बदलाव की पृष्ठभूमि रचते हैं।उनकी एक कविता की कुछ पंक्तियां हैं,


वे कहते हैं
अकेले चना भाड़ नहीं फोड़ता सकता
मुहावरे सच हाते हैं    
क्योंकि ये बनते हैं   
सदियों की अनुभवों की  चाशनी में पक कर ही
मैं बताता हूँ
उन्हें मुहावरे ही अन्तिम सत्य नहीं हुआ करते
साबित किया है इसे समय ने ही बार-बार
                                   (फर्क तो पड़ता है साथी) पृष्ठ-96


कविता की इन प्रारंभिक पंक्तियों के बाद कवि ने कई उदाहरण हैं, जो साबित करते हैं कि अकेले का भी अपना वजूद होता है।मायने होता है।उसे हटा देने से वह कितना बड़ा फर्क डालसकता है और उसका कहीं होना कितना बड़ा निहितार्थ हो सकता है-


कोरे कागज पर
एक बच्चे अभी-अभी खींची है एक रेखा
और कागज एक नये नवेले अर्थ में भीग गया है
अब देखिए ना
इसी रेखा से कहीं बन रहा वृत्त
इसी रेखा से कहीं संवर रहीं हैं आकृतियाँ
सी रेखा से  कहीं उभर रही हैं लिपियां
जिससे बनती है हमारे अनुभवों की वर्णमाला       
फर्क तो पड़ता ही है साथी
देखो न जाने कहाँ हुई बारिस
और तर हो गयी है
हमारे पास से गुजरने वाली हवा
खुशगवार हो गया है
अपने यहाँ का मौसम            (पृष्ठ-98)


ये पंक्तिया समाज में अकेले और हाशिये पर पड़े व्यक्ति के जीवन को एक सकारात्मक अर्थ-बोध से भर देती हैंऔर उसका जीवन अर्थ-गांभीर्य से भर उठता है।ये विश्वास बहाली की कविताए जो व्यक्ति के जीवन को अर्थ प्रदान करती हैं।
                 
स्ंतोष चतुर्वेदी समाज की अलग-थलग पड़ी चीजों को जहां  किसी की नजर नहीं जाती, उन्हें अपनी कविताओं के केन्द्र में लाते हैं ।उन पर कविताए लिखते हैं और उनके महत्व  को रेखांकित करते हैं।इस लिहाज से उनकी कई कविताए उनके हाल के प्रकाशित दूसरे कविता -संग्रह दक्खिन का भी अपना पूरब होता हैमें देखी जा सकती हैं।इस तरह की कविताओं के क्रम में इस संग्रह-संग्रह की एक कविता ड.की चर्चा कर सकते हैं।देवनागरी लिपि के वर्णमाला-क वर्ग का अंतिम वर्ण है-ड.।वर्णमाला के प्रायः सारे वर्णों से बने शब्द मिलते हैं।गाव के विद्यालयों में जब बच्चे पढ़ने के लिए जाते हैं तो उन्हें वर्णमाला की जानकारी कराने के लिए पढ़ाने का सामान्य तरीका है कि क से कबूतर, ख  से खरगोश आदि और अंत में बताया जाता है,‘ड.मायने कुछ नहीं। बच्चों को पढ़ाये जाने वाले इस एक सामान्य से वाक्य को संतोष चतुर्वेदी ने एक नया अर्थ दे दिया है। यह सामान्य सा वाक्य इस कविता के जरिए एक नया मुहावरा गढ़ लेता हैकि ड.मायने कुछ नहीं की जगह ड़ मायने बहुत कुछ।इस कविता की कुछ पंक्तिया हैं-


किसी के हिस्से में कबूतर आया
किसी ने धीरे से खरगोश हुलकाया
घड़ी टिक-टिक करती रही      
अपने होने के पहले से ले कर अब तक निरंतर
मगर क्या बात थी कि कुछ भी नहीं आया ड.के हिस्से में’’


इस कविता में कवि संवादरत होते  हुए पूछता है


अक्षरों की गहमागहमी में हमें विस्मृत कर/
रची जा सकती है क्या कोई वर्णमाला/
बनाया जा सकता है क्या कोई भविष्य/
उपेक्षित रख कर अपना समय
(ड.’,पृष्ठ-87)
                        

इसी कविता में आगे पंक्तिया आती हैं,
                            
शब्दकोश भी साध गए चुप्पी
ड. की बारी आने पर
बारहखड़ी ने भी किया इसे दरकिनार
बात करते-करते अचानक ही उठ खड़ा हुआ ड.
और चल पड़ा तेज कदमों से अपनी वर्णमाला की ओर
मैंने पूछा क्या बात है
अचानक ही जा रहे हो कहा
बातों की डोर तोड़ कर
कि जब से तुम से बातों में उलझा हुआ हूँ
तब से ही एक बच्चा
बार-बार अटक जा रहा हैपर
चाह कर भी नहीं बुला पा रहा हैउसे अपनी ओर
बच्चा नहीं बढ़ पा रहा एक भी डग आगे
पसीने-पसीने हुए जा रहे हैं अक्षरविद
लिपिवेता भी जता रहे हैं यह अनुमान
कि यहाँ होनी ही चाहिए कोई कण्ठ ध्वनि
जिससे बना रहे तारतम्य सृष्टि का                
इसलिए जाना ही होगा हमें
तुरंत इसी वक्त
अपनी वर्णमाला को सजाने-संवारने
आगे की राह बनाने
अपने मायने के रूप में
बच्चे के मुंह से
कुछ नहीं वाला मतलब सुनने        (पृष्ठ-91)


यह कविता सिर्फ वर्णमाला में ड.' का स्थान निर्धारण नहीं करती बल्कि गाव की पाठशालाओं में बच्चों को पढ़ाये जाने वाले एक सामान्य से  वाक्य ड.मायने में कुछ नहींको अर्थविस्तार देते हुए ड.मायने ड.मायने बहुत कुछबना देती है तथा इसका संदर्भ समाज में हाशिये पर पड़े उपेक्षित व महत्वहीन से जुड़ कर जनपक्षर रचना बन जाती है।संतोष चतुर्वेदी बात को कविता में रुपायित करने की खासियत रखनेवाले कवि हैं और रामान्य बात भी इनके यहाॅं कविता का शक्ल लेकर एक बड़ा अर्थबोध लिए प्रस्तुत होती है।पूरे समाज के एक सवालिया निशान बनकर खड़ी होती है।चर्चा के इस क्रम में हम बात कर सकते हैं इस संग्रह की एक कविता माॅं का धर।यहकविता लिखी तो गई है मा पर परन्तु एक व्यापक फलक पर स्त्री-सवाल को खड़ा करती है कि कोई ऐसा घर भी है जिसे वह अपना कह सके ?कहा है वह-ससुराल या मायके में? ससुराल में तो उसका घर रहने रहा  अगर संयोग से कोई स्त्री अपने मायके भी रह जाए तो वहा का घर  भी उसकंा नहीं होता।उस घर की पहचान भी वहा पुरुष सदस्यों से होती है और वहा भी स्त्रिया विस्थापित ही रहती हैं।समाज में वे न जाने कहा-कहा किस-किस  रूप् में खटती-खपती रहती हैं।इसके बावजूद भी किसी घर की पहचान में वे शामिल नहीं होतीं। इसके लिए संतोष चतुर्वेदी एक कविता कुछ पंक्तियाँ देख सकते हैं-


न जाने कहा सुना मैंने एक लोकगीत
जिसमें माँ बदल जाती है
कभी नदी की धारा में कभी पेड़ की छाया में
कभी बारिस की बूंदों से
कभी घर की नींव में होते हुए
माँ बदल जाती है फिर माली में
बड़े जतन से परवरिश करती हुई अपने पैाधों की
फिर बन जाती है वह मिट्टी
जिसमें बेखौफ उगते अठखेलिया करते
दिख जाती है पत्तियों में
डालियों में फूलों में    
फिर धीमे से पहुँच जाती हमारे सपनों में
धान रोपती बनिहारिने गा रही हैं
कि जिस तरह अपने बियराड़ से बिलग हो कर
धान का बेहन दूसरी  धूल -मिट्टी में गड़ कर
लहलहाने लगता है फूलने-फलने लगता है
उसी तरह गुलजार कर देती हैं अपनी विस्थापित उपस्थिति से
किसी भी घर को महिलाए
खुद को मिटा कर                    
और जहा तक माँ के घर की बात है
मैं हरेक से पूछता फिर रहा हॅूं
अब  भी अपना यह सवाल               (पृष्ठ19-20)


दरअसल जहा तक माँ के घर की बात हैयह वह सवाल है जो पूरी स्त्रीजाति का सवाल है और इसका सिर्फ एक ही उत्तर है माँ पर भी रहती है वह/वहीं बस जाता है उसका घर/वहीं बन जाती है उसकी दुनियापृष्ठ-20। इस तरह माँ पर लिखी गई यह कविता एक बड़े संदर्भ से जुड़ कर संपूर्ण स्त्रीजाति की अस्मिता को संदर्भित करती है और स्त्री विमर्श की जमीन तैयार करती है।
                

विगत सदी में नब्बे के दशक के बाद पूरी दुनिया में पॅंजीवाद के लिए अनुकूल माहौल तैयार हुआ।भारत भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। पॅंजीवाद ने भारतीय राजनीति को भ्रष्ट बनाया और साहित्य को भी गहरे प्रभावित किया ।साहित्य के प्रति़़बद्ध राजनीनिक मिजाज में विचलन सा आया।राजनीति साहित्य का मुख्य स्व्र न हो कर कविताओं में आइटम सांग्ससी हो गई।आज गिनती के ही युवा रचना बच्चे हैं जिनके काव्य-कर्म की अन्तर्वस्तु राजनीति हो।इस दृष्टि से संतोष चतुर्वेदी प्रतिबद्ध राजनीतिक रचनाकार हैं।राजनीति उनकी कविताओं की अन्तर्वस्तु एवं अंतरस्वर है।अपनी रचनाओं में वे देश के मौजूदा हालात और राजनीति की दशा-दिशा पर बात करते नजन आते हैं।वे राजनीतिक चेतना संपन्न राजनीतिक संभावना की तलाश के कवि हैं। इसलिए उनकी कविताओं में मौजूदा राजनीनिक व्यवस्था के समानांतर एक वैकल्पिक का आह्वान होता है। यह प्रवृत्ति उनकी अधिसंख्य कविताओं में देखी जा सकती है।राजनीनित उनकी रचनाओं का एक प्रबल पक्ष है।उनकी कविताओं में इस समय का एक सजग राजनीतिक कवि बोलता है इसके किसी कविता की पंक्तियों का उल्लेख आवश्यक नहीं बल्कि  उनकी कोई भी कविता देखी जा सकती है।संतोष चतुर्वेदी राजनीेतिक कवि होते हुए भी उनकी कविताओं में एक खास तरह की रूमानी क्रान्तिकारिता का आक्रोश न होकर एक सुचिंतित प्रौढ़ राजनीतिक की उपस्थिति मिलती है।
             

संतोष चतुर्वेदी के इस कविता -संग्रह दक्खिन का भी अपना पूरब होता हैकी कविताएँ एक खास की जनपदीयता लिए हुए लोकधर्मी हैं।पूर्वी उत्तर प्रदेश का भोजपुरी का जनपद काफी मुखर रहता है।वास्तव में यह कवि रहता भले ही है इलाहाबाद में, लेकिन अपने गाव से कच्ची मिट्टी ले कर गया है और कविताए रा मैटिरियलसे नहीं बल्कि कच्ची मिट्टी से गढ़ता है।इस कविता-संग्रह की कविताए एक अलग मिजाज की कविताए हैं।संतोष चतुर्वेदी अपनी कविताओं का विषय -वस्तु सामान्य जनजीवन से उठातें हैं और उनकी कविताए उनसे प्रतिष्ठित होती हैं।इन कविताओं में अपने समय का कोलाज उपस्थित मिलता है और ये कविताएँ हमारे समय व समाज की छायाप्रति सी जान पड़ती हैं।इसकी बानगी हम मोछू नेटुआ’,‘पेन ड्र्ाइव’,‘राग नींद’,‘हाशियाऔर वे अकेला कर देना चाहते हैंआदि उनकी कविताओं में देख सकते है।
            

इस संग्रह की कवितायों केा पढ़ने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि कवि को अपने समय की भयावहता पूरा ज्ञान है।वह हमारे संकट को पहचानता भी हैऔर उनसे लोगों को खबरदार भी करता है।इस निराशापूर्ण स्थिति में भी इस संग्रह की कविताएॅं निराश नहीं करतीं,यह विश्वास दिलातीं हैं कि दुनिया में जबतक


प्रश्नवाचक चिन्हरहेंगे तबतक संभावनाए भी रहेंगी
क्योंकि जवाब की जद्दोजहद में
जीवन को तलाशते
न जाने कब से अनवरत
प्रतीक्षा में खड़े
बेचैन सी आत्मा वाले
ये प्रश्नवाचक चिन्ह
कभी नहीं बैठ पाते
पालथी मार करप्रश्नवाचक चिन्ह,              (पृष्ठ-122)
                                

इधर हाल के वर्षों में काफी कुछ बदला है।वैश्विकरण और बाजारवाद के इस दौर में जहा सारी चीजेंा की कीमतें लग चुकी हैं और लोग अपने तक को बेचने के लिए खड़े हैं।ऐसे में यह कहना किकुछ लोगों ने भी नहीं अभी तक/अपनी कोई कीमत कीमतों की दौड़ से बाहर, पृष्ठ-118 ये पंक्तिया एक बड़ी संभावना बहाल करती हैं और जगाती हैं। किन्तु जहा तक कविता की विषय-वस्तु का सवाल है लो इस लिहाज से संतोष चतुर्वेदी काफी सावधानी बरतते हैं। विषयों का चयन प्रायः मौलिक होता है।इस संग्रह में तो कुछ विषय ऐसे हैं जिन पर कविताए पहली बार यहीं देखने को मिल रहीं हैं जैसे,सांप पकड़ने वाले पर कविता मोछू नेटुआ’,‘दशमलव’, ‘ओलार’,पानी के रंग पर लिखी गई कविता पानी का रंग’, ‘पेनड्र्ाइव समय’ ,‘विषम संख्याएं’, ‘हाशिया’, ‘ड.’, गाँव के गप्पियों परलिखी गई कविता गप्प की तरकीब से ही,’ चारपाई बुनने वालों कविता खाट बुनने वाले’, लालटेन के भभकने पर कविता भभकना’, और पूर्वी उत्तर प्रदेश के गावों की दक्षिण तरफ अधितर बसायी गईं बस्तियों को केन्द्र में रखकर लिखी कविता ,जिसके शीर्षक पर ही इस संग्रह का नामकरएा किया गया है, ‘दक्खिन का भी अपना पूरब होता है।ये कुछ उदाहरण हैं जिन विषयों पर कविताए पहली बार यहीं देखने  को मिल रही हैं। इस संग्रह में कुछ छोटी कविताए भी जो भाषा ,शिल्प और कथ्य की दृष्टि से काफी असदार साबित होती हैं-

अक्सर यही होता है
कि टहनी पर जहा दिखती हैं खुरदुरी गाठें
वहीं से फूटती हैं नयी राहें
जहाँ बिल्कुल सीधी सुरहुर दिखती हैं
किसी बांस बल्लरी की टहनी
वहां से उम्मीद का कोई कल्ला
नहीं फूटता कभी                 (वहीं से फूटती हैं राहें,पृष्ठ-123 )


इसी शिल्प में रची गई एक छोटी सी कविता की पंक्तियाँ हैं,‘


अतल गहराइयों में राह बना लेने वाला
समुन्द्र के सीने को चीर देने वाला
पानी को बेरहमी से हलकोर देने वाला
भीमकाय जहाज
डरता आया है हमेशा से
महीन से सुराख से                  (सुराख,पृष्ठ-116 )


इस तरह से ये छोटी कविताए भी मन-मस्तिष्क पर प्रभावकारी अचूक कविताए हैं।कवि ने इस संग्रह की कतिाओं में मनुष्य -स्मृति से प्रायः बाहर हो चले भेजपुरी के शब्दों जैसे,खपड़ा,नरिया, धरनि ,बियराड़,नधा,फिरकी,जइसा,सुरहुर,ओलार आदि का प्रयोग अपनी कविताओं करके उन्हें संरक्षित किया है। अगर कुछ खामियों की बात  करें तो असावधानीवश छपाई में कुछ गिन्नी-चुन्नी वर्तनी संबंधी गलतिया रह गईं हैं हालाकि कविताओं पठनीयता की  पर इसका असर नहीं पड़ता है।अंततः ये कविताए इस बात का प्रमाण हैं कि वाग्विलास और पांडित्य अलग सहज व सुग्राह्य भाषा में भी असरकारी संप्रेष्णीय कविताए लिखी जा सकती हैं। 
           


समीक्षित संग्रह

“दक्खिन का भी अपना पूरब होता है”

कविता-संग्रह
संतोष कुमार चतुर्वेदी,
साहित्य भंडार ,50,चाहचंद,
इलाहाबाद-221003    
                              


समीक्षक
                                               
अजय कुमार पाण्डेय   
                                               
ग्राम+पोस्ट- देवकली
                                               
होकर से- नवानगर
                                              
जनपद-बलिया, पिन-221717, उ. प्र.
                                             

मो.न.-07398159483