रविवार, 5 अगस्त 2012

विमलचंद्र पाण्डेय का संस्मरण - चौदहवीं किश्त

विमलचन्द्र पाण्डेय 



पिछली किश्त में आपने पढ़ा कि यू.एन.आई. की नौकरी को निबाहते हुए विमलचन्द्र पाण्डेय अपने भीतर की दोनों मुख्य इच्छाओं को भी पूरा करने का समय निकाल लेते हैं | एक साहित्य और दूसरा फिल्म | साहित्य से जुड़े रहने के लिए 'मुखातिब' की गोष्ठियां हैं , जबकि फिल्मों के शौक को पूरा करने के लिए गाहे-बगाहे आयोजित होने वाले फिल्म समारोह | लेकिन पिछली किश्त में आपने यह भी पढ़ा कि इन दोनों से जुड़ी उनकी यादें कुल मिलाकर कष्ट ही देने वाली साबित होती हैं | वे जान लेते हैं , कि इन विधाओं से प्रेम करने के लिए अपने भीतर की आग ही काम आ सकती है , क्योंकि बाहर की दुनिया तो उसे बुझाने का कोई भी अवसर नहीं छोडती | और फिर आगे.....             

            तो प्रस्तुत है 'सिताब दियारा' ब्लाग पर विमलचन्द्र पाण्डेय के संस्मरण 
                              ई इलाहब्बाद है भईया की 
                                  चौदहवीं किश्त 
                        
                                                  23.

दुर्गेश धीरे-धीरे अपनी एजेंसी की कम तनख्वाह और इलाहाबाद के खराब वर्क कल्चर से तंग आ गया था और उसका कहना था कि उसके अन्दर पत्रकारिता की जो आग है, उस हिसाब से उसे दिल्ली निकल जाना चाहिए. दिल्ली में ही असली पत्रकारिता होती है और प्रतिभा की असली क़द्र भी . मैं अपना घर छोड़ कर सबसे पहले दिल्ली ही गया था और वहाँ की पत्रकारिता से लेकर बाकी चीज़ों की क़द्र से बहुत अच्छी तरह परिचित था. मैंने उसे समझाने की कोशिश की वह जो ढोल बजा रहा है वो सिर्फ़ और सिर्फ़ इसीलिए सुहावने लग रहे हैं कि वो दूर के हैं. समझाने की कोशिश के बावजूद मैं जानता था कि किसी के समझाने और दूसरी की गलतियों से अगर लोग सीखने लगते तो दुनिया में गलतियाँ बहुत कम होतीं. यहाँ ज़िंदगी में इतना मज़ा इसीलिए है कि हर इंसान बार-बार वही गलतियाँ करेगा और वही पुराने घिसे-पिटे सबक सीख कर सामने वाले को ऐसे राज़खोलू अंदाज़ में बताएगा जैसे उसने कोई बहुत बड़ा और अनूठा सबक सीखा है. मैंने भी सारी गलतियाँ खुद कीं और सबक सीखे या कम से कम ऐसा मुझे लगता तो है ही कि मैंने कुछ सबक सीखे हैं.

एक पुरानी घटना का ज़िक्र लाजिमी सा लगता है क्योंकि उसका सम्बन्ध दिल्ली से ही है. दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग में हमारे साक्षात्कार हो रहे थे और हम कुछ लड़के लड़कियां ‘रिटेन’ (लिखित) निकल चुकने के बाद सहमे से अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे. हमारे सीनियरों ने आकर बताया कि जो पूछा जाए उसका जवाब एकदम बिंदास होकर देना है. मुझे भी मेरे सीनियर संजीव जी, जो सबकी बहुत मदद करने के लिए कुख्यात थे, ने आकर कहा कि जो मेरे मन में आये मैं वही बोलूँ. मैंने मासूमियत से उन्हें विश्वास दिलाया कि मैं वही बोलता ही हूँ. एक सवाल उस समय बहुत पूछा जा रहा था कि क्या अयोध्या में राम मंदिर बनना चाहिए. वह सवाल पिछले साल यानि उनके इंटरव्यू में भी पूछा गया था. वह माथे पर लाल टीका लगा कर अन्दर गए थे और इस सवाल का वही जवाब उन्होंने दिया था जो उनके मन में आया, “राम मंदिर अयोध्या में नहीं तो क्या मक्का मदीना में बनेगा ?” साक्षात्कार लेने वाले हडक गए होंगे और उन्हें प्रवेश मिल गया होगा. कुल मिलाकर उन्होंने बताया कि अन्दर बैठे ज़्यादातर लोग वामपंथी हैं लेकिन उन्हें कन्विंस करने के लिए झूठ बोलने कि ज़रूरत नहीं. बोलो वही जो तुम्हारा विचार हो. मुझसे भीतर जाने पर पूछा गया कि क्या शादी में दहेज लेना चाहिए. मैंने कहा ये तो डिपेंड करता है कि शादी किस परिस्थिति में हो रही है. साक्षात्कार लेने वाले चौकन्ने होकर मेरी ओर झुक आये. “मतलब ?” मैंने आराम से जवाब दिया, “अगर लड़का बेरोजगार हो तो थोड़ा बहुत दहेज ले लेना चाहिए और उसीसे कुछ बिजनेस वगैरह करना चाहिए और अगर नौकरी में हो तो फिर दहेज लेना गलत बात है.” मेरे तर्क से वे लोग कुछ प्रभावित हुए फिर मुझसे पूछा, “आप अपनी शादी में दहेज लेंगे या नहीं ?” मैंने जवाब दिया, “नहीं क्योंकि मैं तब तक शादी ही नहीं करूँगा जब तक नौकरी नहीं लग जाती.” मेरे जवाबों से वे कितने इम्प्रेस हुए ये तो नहीं पता लेकिन मेरा एडमिशन वहाँ हो गया जिससे मैंने सीखा कि हमेशा अपनी बात कही जाए चाहे वो गलत हो या सही, क्योंकि आपने पास सबसे अच्छे तर्क अपनी ही बातों के होते हैं.

दुर्गेश को मैंने दिल्ली के लिए न पगलाने के तर्क दिए तो उसने मुझे दिल्ली के लिए दीवाना होने के तर्क देकर मेरे तर्कों को काटने की कोशिश की. इलाहाबाद के विज्ञापन लाने वाले और गिफ्ट की ताक में प्रेस कांफ्रेंस में जाने वाले पत्रकारों को वह दिन भर गरियाता और गणेश शंकर विद्यार्थी या कम से कम प्रभाष जोशी बनने की इच्छा व्यक्त करता. संघ से उसका मोहभंग हो चला था और मैं इसमें अपना कोई क्रेडिट नहीं लेना चाहता कि मेरे कोसने और अक्सर संघ विरोधी बहसें करने से ऐसा हुआ था. अचानक एक दिन पता चला कि वह दिल्ली जा रहा है. विश्व हिंदू परिषद के अंतर्राष्ट्रीय (?) अध्यक्ष अशोक सिंघल के करीबी रहे मनीष मंजुल ने विहिप छोड़ कर एक ट्रस्ट बनाया था और दुर्गेश उसका कुछ बनाया गया था ,जिसके लिए कुछ दिन इलाहाबाद से काम कर चुकने के बाद वह दिल्ली जा रहा था. बाद में उसने मुझे बताया कि वह अपनी एजेंसी में ही ट्रांसफर लेकर दिल्ली जा रहा है. दिल्ली जाकर उसने ट्रस्ट ज्वाइन किया या फिर ज्वाइन करके वहाँ से गया, ये मुझे साफ़ याद नहीं है.

मेरा कोई ऑफिस न होने की वजह से मैं दुर्गेश के ऑफिस में ही बैठता था और अब मुझे ये डर सताने लगा था कि अब मैं कहाँ बैठ कर अड्डेबाजी करूँगा. शुक्र है उसके जाने के बाद नीरेन जी वहाँ के इंचार्ज बने जो और लिबरल और अड्डेबाजी के मामले में आदर्श टाइप के आदमी थे.
दुर्गेश का कहना था कि मैं काम का आदमी नहीं हूँ और यूएनआई जैसी एजेंसी में होकर भी उसका भला तो नहीं ही करवा रहा, उसकी दाढ़ी मूँछो के बाबत भी चुप्पी साधे हुए हूँ. दुर्गेश की उम्र मुझे कुछ साल कम थी लेकिन वह दाढ़ी और मूंछों के मामले में ज़रा दुर्भाग्यशाली था. मूँछो की जगह पर सिर्फ़ कुछ रोयें थे और दाढ़ी की जगह सिर्फ़ कुछ उम्मीदें. मैं जानता हूँ , इस भाषा में बात करना किसी व्यक्ति की उन कमियों का उपहास करना है जो उसके बस में ही नहीं लेकिन यकीन मानिये दुर्गेश यही चाहता था. वह चाहता था कि उसकी चर्चा हो, चाहे सकारात्मक तरीके से या फिर नकारात्मक तरीके से और इसके लिए वह कुछ भी करता था. मैंने उसे किसी की सुनी सुनाई बात बोल दी कि कोई क्रीम आती है जिसे लगाने से दाढ़ी मूंछे आ जाती हैं और उसने मुझसे कहा कि इस बार मैं बनारस जाऊं तो वह क्रीम ज़रूर ले आऊँ. मैंने उसे कई बार झूठ बोलकर झांसा दिया कि मैं खोज रहा हूँ और मुझे पूरा यकीन है कि जल्दी ही मिल जायेगा. मैंने खोजने की कुछ ही कोशिशों के बाद जान लिया था कि ऐसी कोई क्रीम नहीं होती, लेकिन फिर भी मैं दुर्गेश से मजे लेने के उस लालच को छोड़ नहीं पाया. इन पंक्तियों के ज़रिये मैं दुर्गेश से अपनी इस घटिया हरकत के लिए माफ़ी मांगना चाहूँगा. कई बार हम अपनी कुछ हरकतों से अपनी नज़रों में बहुत छोटे हो जाते हैं. ज़िंदगी बजाप्ते बहुत छोटी है और मैं चाहता हूँ कि मेरी पूरी ज़िंदगी का ये हासिल हो कि , जाने अनजाने मैंने किसी ऐसे इंसान का दिल कभी न दुखाया हो जिसके दिल में मासूमियत किसी भी रूप में हो.

नीरेन जी दुर्गेश की तरह कच्चे संघी नहीं थे जो किसी लल्लू पंजू के समझाने और उसकी बहसों से उसका मन बदल जाता. वह जीवन भर शादी न करने वाले और पूरे नियम से शाखा जाने वाले जवान थे, जो अब संघ की इस समाचार एजेंसी में बतौर संवाददाता आ गए थे, जिसके बारे में दुर्गेश हमेशा कहता रहता था, “बिमल भाई एके संघ से कौनो मतलब नै न, उ अलग चीज़ है और इ अलग.” दुर्गेश की स्पष्टवादिता को हम सब बहुत मिस कर रहे थे. अब कोई नहीं था जो समोसे की दुकान पर समोसा खाते हुए हलवाई की तरफ ऊँगली उठा कर कहें, “सड़ा आलू डालत है इ समोसा में तब्बे तो एकर दुकान नै चलत.” या किसी कांफ्रेस के बाद पत्रकारों के बीच नाश्ता करता हुआ कहें, “हम्म ई लोकल चैनल वाले तो खाली खाए आवत हैं हियाँ.”

नीरेन जी नियमों के मामले में वह बहुत पक्के थे और उनका चेहरा देख कर उनका इतना सम्मान करने का मन होता था कि मैं सम्मान करना सीखने का कोई कोर्स ज्वाइन करना चाहता था. वह बाहर का पानी नहीं पीते थे और न चाय के अलावा कुछ बाहर खाते थे. पैदल वह इतना चलते थे कि अगर ओलम्पिक में पैदल चलने की प्रतियोगिता होती तो वह निसंदेह स्वर्ण पदक ले आते. उनके मित्र संतोष और वह दोनों लोग नियम से मृत्युंजय महादेव का दर्शन करते और दुनिया से खुश रहते. संतोष इलाहाबाद उच्च न्यायालय में बतौर अधिवक्ता प्रेक्टिस करते थे और गाजीपुर के निवासी थे. गाजीपुर बलिया के मूल और खांटी निवासियों की तरह संतोष जी भी हिंदी के फॉण्ट पर बहुत अभ्यस्त नहीं थे. हिंदी फॉण्ट में बोलते-बोलते अचानक उनका फॉण्ट बदल जाता और वह बलियाटिक भोजपुरी में आ जाते. दो से तीन पंक्तियाँ अगर उन्हें लगातार हिंदी में बोलनी होतीं तो वह ज़्यादा से ज़्यादा दूसरी पंक्ति के बाद अपना फॉण्ट चेंज कर देते. हम अचानक बदलने वाले फोंट्स का कारण नहीं समझ पाते. मैं भी मूल रूप से बलिया का हूँ और अपने दोस्तों और घर के बाहर भले बनारसी भोजपुरी बोलूँ, घर में माँ और पापा से आज भी बलियाटिक भोजपुरी में बात करता हूँ . संतोष जी के फॉण्ट बदलने पर मैं भी फॉण्ट बदल लेता और हम जिस फॉण्ट में बात करते, वह विवेक के सिस्टम में इंस्टाल नहीं था , जिसके कारण वह नाराज़ हो जाता और उसने संतोष का नाम ही फॉण्ट रख दिया था , जिस नाम से उन्हें आज भी पुकारा जाता है. संतोष और नीरेन दोनों मित्र अक्सर साथ साथ रहते और खाने को लेकर ढेरों संस्मरण सुनाया करते. जैसे संतोष के गांव में कोई था जो पानी से पूड़ी छान देता था और नीरेन जी के गांव में एक आदमी था जो डेढ़ सौ पूड़ियाँ खा जाया करता था.

“बै मरदे, एतने ? हमरी गांव में एगोड़ा बा जवन एक बेर में दु सौ पूड़ी आ बीस किलो दही खा जाला.”

मैं समझ नहीं पाता कि आखिर इन लोगों में ऐसी बातें करने के लिए कौन सी भावना काम करती है. भोजन शब्द उनकी बातचीत में हर बीस मिनट के बाद आता ,लेकिन इसका कतई ये मतलब नहीं कि वे बहुत खाते थे.  


                                                                                                                  क्रमशः .....

                                                                                               प्रत्येक रविवार को नयी किश्त ...


संपर्क - 

विमल चन्द्र पाण्डेय 
प्लाट न. 130 - 131 
मिसिरपुरा , लहरतारा 
वाराणसी , उ.प्र. 221002

फोन न. - 09820813904
         09451887246


फिल्मो में विशेष रूचि 
 

4 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ कम रह गया शायद! इस बार रस वर्षा नहीं हो पायी. जब तक आनंद आता तब तक खतम हो चुकी थी आज की किश्त!
    वैसे बलियाटिक और गाजीपुर की भाषाई प्रवृत्ति को खूब पकड़ा है और दुर्गेश के मामले में भावुक कर गई आपकी बात!

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  2. ladki ke chakkar me chhota rah gaya kya?

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  3. haan Ramakant bhai, 3-4 din se safar me hoon aur kal rat 2 baje neend ka mara hone ke karan sirf ek chapter hi likh paya...agli baar shikayat dor hogi :-)
    @Vinay : haan usi ke chakkar me, hamko pahchan hi nahi rahi hai apne nana nani ke pas rah li ek mahina to....ab isko patane ke liye subah sham ghumana padega isko pure mohalle me...aao to dekhoge gazab ziddi ho gayi hai

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  4. खरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित है जो कि खमाज
    थाट का सांध्यकालीन राग है, स्वरों में कोमल निशाद और
    बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं, पंचम इसमें
    वर्जित है, पर हमने इसमें अंत में पंचम का प्रयोग भी किया है,
    जिससे इसमें राग बागेश्री भी झलकता है.
    ..

    हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने दिया है.

    .. वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल में चिड़ियों कि चहचाहट से मिलती है.
    ..
    My blog ; खरगोश

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