रविवार, 28 अक्तूबर 2012

तुम भी कब तक खैर मनाते फैज़ाबाद - अशोक कुमार पाण्डेय



                                अशोक कुमार पाण्डेय 




कुछ घाव हमारे मुल्क के सीने पर इस गहराई के साथ दर्ज हैं , कि अपनी तमाम कोशिशो के बावजूद भी हम उन्हें जड़ से नहीं मिटा पाए हैं | और जब कभी वे मिटते हुए या भरते हुए दिखाई देने लगते हैं , उनके जनक उन्हें फिर से कुरेद जाते हैं | ‘साम्प्रदायिक वैमनस्य ’ एक ऐसा ही घाव है , जिसे गत दिनों फैजाबाद में फिर से कुरेदा गया है , और जिसकी आग में अमन-चैन की वह नगरी जल उठी है | अशोक कुमार पाण्डेय की यह कविता उस नासूर की शिनाख्त तो करती ही है , साथ ही साथ आधुनिक दौर के ‘गोएबल्स’ और उनके बरक्स सभ्य समाज की भूमिका को भी रेखांकित करती है |
                        
            
           तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर अशोक कुमार पाण्डेय की
                   उद्वेलित करने वाली यह सामयिक कविता     

                
             तुम भी कब तक खैर मनाते फैज़ाबाद !


(एक )

सारी किताबों के मुक़ाबिल बस एक खंजर है
हमारे मुस्तकबिल के बरक्स माज़ी है एक घाईल

वे सवाल नहीं पूछते
वे सवालों का जवाब नहीं देते
वे तर्कों के बदले चुप्पियाँ परोसते हैं
वे झूठ को फैसलाकुन आत्मविश्वास से कहते हैं

और हम?
बस चुप
बस सवाल
बस जवाब
बस तर्क
बस सच

ये सच है कि साफ़ पानी में कमल कभी नहीं खिलते
पर हमारे सच को भी  तो तुम्हारे होठ कभी नहीं मिलते


(दो)

हमारी आलमारियाँ किताबों से भरी हैं
और हमारी जिंदगियां सवालों से 

हम हर ह्त्या के बाद खड़े हुए काले झंडे लिए
हम हर हत्या के पहले  शांति जुलूसों में चले
हमने हर वारदात के पहले किया सावधान
हम हर मुसीबत का लिए फिरते रहे समाधान

बस जब चली गोली हम नहीं थे वहां
बस जब जहर बरसा हम किये गए अनसुने
बस जब शहर जला हमें कर दिया गया शहर-ब-दर

हम अपनी खामोशियों के गुनाहगार रहे
वे जूनून बनके सबके सर पे सवार रहे



(तीन)

कहाँ है फैजाबाद?
दिल्ली से कितना दूर?
कितना दूर अहमदाबाद से?
रामलीला मैदान से कितना दूर?
फार्मूला वन रेस के मैदान से कितना दूर?
संसद भवन से तो खैर हर चीज हजार प्रकाश वर्ष की दूरी पर है....

टीवी चैनल पर दंगो की खबर नहीं है
वहां लिखा है कल बस कुर्सी बदल रही है



(चार)

यह किसका लहू है कौन मरा?
(सवाल पूछ-पूछ के दिल अभी नहीं भरा?)

यह मियाँ का लहू है और यह बगल वाला हिन्दू का
डाक्टर से नहीं जिन्ना और सावरकर से पूछो
दोनों पहचानते थे अपना-अपना लहू
हम पागल थे जो कहते थे
लाल हैं दोनों

हम? पागल थे?

लहू लाल है एक रंग का कहने वाले पागल थे ?
बासंती चोले में फांसी पर चढ़ने वाले पागल थे?



(पांच)

कविता से बस उम्मीदों की उम्मीद किये बैठे न रहो

हम तो हैं अभिशप्त गवैये
गीत अमन के गायेंगे ही
चाहे काट दो हाथ हमारे 
सच का ढोल बजायेंगे ही

तुम कब सच को सच कहके चीख उठोगे बोलो तो..

हम तो पाश की मौत मरेंगे
हम तो अदम के शेर कहेंगे
हम तो इस शमशान में भी
जीवन का आह्वान करेंगे

तुम कब मुर्दों वाले खेल के बीच खड़े हो हूट करोगे..बोलो तो....





संक्षिप्त परिचय ....

लेखक अशोक कुमार पाण्डेय सुपरिचित युवा कवि हैं |
राजनीतिक , सामाजिक और सांस्कृतिक वाम जन-आन्दोलनों में
आप छात्र जीवन से ही सक्रिय भागीदारी निभाते रहे हैं |
कई पुस्तकों के लेखक अशोक कुमार पाण्डेय का कविता संकलन
लगभग अनामंत्रित’ गत वर्ष शिल्पायन प्रकाशन से छपा है
और काफी चर्चित भी हुआ है |
आप ‘जनपक्ष’ (http://jantakapaksh.blogspot.in/ )
और ‘असुविधा’ (http://asuvidha.blogspot.in/ )
जैसे महत्वपूर्ण ब्लॉगों का संचालन भी करते हैं |




रविवार, 21 अक्तूबर 2012

'इस देश की अमर कहानी-भूख,प्यास और दानी' ---अमित उपमन्यु


                                    अमित उपमन्यु    
  
युवा कवि अमित उपमन्यु अपनी कविताओं में प्रकृति को नए और समकालीन तरीके से परिभाषित करते हैं | उनके पास प्रकृति की , जिसमे बाढ़ , सागर , जंगल और बर्फ जैसे विषय शामिल हैं , टटकी और वैश्विक चिंताओं से उपजी नयी व्याख्यायें हैं , जिसमें विज्ञान के तर्कों के साथ समाज विज्ञान का विश्लेषण भी गुथा हुआ मिलता है | खंडित होते सरोकारों के दौर में इस युवा कवि की ये कवितायें हमें आश्वस्ति प्रदान करती हैं , कि आने वाले दौर में भी साहित्य , न सिर्फ अपनी जिम्मेदारियों को समझता है , वरन उसे निभाने के लिए प्रयास भी करता दिखाई देता है |   

 प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर अमित उपमन्यु की कवितायें 


1...     बाढ़

एक बेहद ज़रुरी खोज युद्धस्तर पर चल रही है!
कालाहारी के हर संभव कोने में
बहुत लंबे समय से
चटकी धरती की दरारों में झांककर,
मृगमरीचिका तक सबसे पहले पहुंचने की दौड़ लगाकर,
और कहीं गज-दो गज बचे गाढ़े कीचड़ को चाटकर,
हर शाकाहारी और मांसाहारी
अपनी ज़िन्दगी खोज रहा है.

लंबे समय से संपादित हो रही इस खोज में
कई चरित्र विदा हो चुके हैं
और बाकी, अभियान के अंत तक
कहानी में अपने महत्त्व को साबित करने में
अनवरत हैं.
प्यासी पलकें सूखे पत्तों की तरह झड़ चुकी हैं तकते हुए
एक ऊंचे सूखे ठूंठ पर चढ़ तेंदुए ने की
एक भटके काले बादल को चाटने की पुरज़ोर आख़िरी कोशिश!

बस एक दिशा है इनकी तलाश की
दूसरी तरफ से लपटें उठ रही हैं सूखी घास के मैदान में.

अंधेरी रातें हैं लपटों से रोशन
और चकाचौंध आसमान
तारों के किरदार भी मिटे हुए हैं
दिशाबोध की तरह

बादलों का आना शुरू होता है
कहानी के अंत की आश्वस्ति की तरह
पर किरदार खत्म होते रहते हैं जब-तब
और कहानियाँ करती रहती हैं सूरज की अनवरत परिक्रमा.

विशाल मैदान के सुदूर दूसरी ओर शुरू होता है कहानी में ट्विस्ट
इंद्र छोड़ता जाता है अपनी मूसलाधार कुटिल मुस्कान दिन-रात लगातार
और बाढ़ चली आ रही है फैलाए हुए अपनी बाहें अग्निदग्धा की तरफ.

यह इस देश की प्राचीन कहानी
“आग, मौत और पानी!”

संधिकाल से अनभिज्ञ अभागे
ढूंढ रहे हैं पानी
देख रहे हैं इंद्र की ओर याचना भरी आँखों से
अनभिज्ञ अर्थशास्त्र से भी यूं
कि होने वाली है उनकी नज़रों में प्यास की कीमत कम
अति-उत्पाद की वजह से
और भूख की ज्यादा
जली घास कि वजह से!

इस देश की यह अमर कहानी
“भूख, प्यास और दानी!”




2...      मौसम

फिर बदल रही है घास के मैदानों की रंगत
कहीं दूर से पैदल-पैदल चला आ रहा है
भूख का मौसम |

नीलगायों के झुण्ड असमंजस में हैं!
हज़ारों-लाखों नीलगाय!
हाय!
विडंबना ही है कि नीलगाय की याददाश्त हाथियों जैसी नहीं होती!
एक विडंबना यह भी
कि उनकी कब्र पर कोई स्मारक नहीं होते!
और सबसे बड़ी विडंबना यह
कि नदी बहा ले जाती है पानी के साथ रक्तरंजित इतिहास भी|

सुदूर हरी घास के मैदान का रास्ता जा रहा है
मगरमच्छों वाली नदी से होकर|
नदी में दूर से बहा चला आ रहा है
दावत का मौसम

नीलगाय तो शाश्वत ग्रास है
पर मगरमच्छ हत्यारे नहीं
फसाद की जड़ तो यह मौसम हैं
जो आने के लिए करते हैं-
भूख के जानलेवा होने तक का इन्तज़ार|

शान्तिदूत वहाँ होते हैं जहां हत्या आनंद है
यहाँ सफ़ेद झण्डों का कोई मौसम नहीं|


3...     सागर

सृजन की लालसा में “समुद्री घोड़ा”
हो पहुँचता है अर्धनारीश्वर
शक्ति की आकांक्षी “ईल”
बनती है इंद्र का वज्र 
और अप्सराओं सी लुभाती हैं नाविकों को
हिमनदों के किनारों पर अठखेलियाँ करते हुए
प्रणय के प्राचीन वाद्य बजाती
दूर से जलपरी सी लगती  “सील”.

जल की सतह के ऊपर उड़ते
पंछियों की आँख पर कर वार
बना अस्त्र पानी की धार को
धनुर्धर मछलियाँ करतीं हैं अपनी विद्या का
पारलौकिक प्रयोग.

मगरमच्छ अब भी है क्रूरतम अविजित राक्षस
सृष्टि के प्रारम्भ से ही,
टपकाता अप्सराओं पर लार
तोड़ता देवों का एकाधिकार
मदांध यूँ
कि लड़ जीते हैं कई प्रलयकाल
जिनमें मिटी हैं देवों की कई पीढियां!

तैरते हैं गहरे अंदर विशालकाय कछुए
छुपाये अपने अविजित कवच में
कई दशकों का इतिहास,
उधर, बनता जा रहा है मोती
सीप का ह्रदय!

दमकते प्रवाल
और चकाचौंधतीं सितारा मछलियाँ
मारते दिन के छींटे रात के सागर पर
जो सोखता नभ की अग्नी
बनाए रखने पृथ्वी पर जीवन सा तापमान
संग अंदर बसे लहलहाते शैवाल
चूसते सूर्य-किरण में से
हिंसा के षड्यंत्र.

व्हेल भेजती हैं मीलों दूर तक मूक इशारे;
ज़मीन किनारे
डॉल्फिन खेलती हैं मनुष्य संग
समझने को यत्न करतीं दुनियावी भाषाएँ
करतीं परभाषागमन 
धरा और स्वर्ग का सेतु बन.

कई हिमालय जितनी गहरी पर्वतश्रंखलाएं
जिनकी जड़ें छूती हैं स्वर्ग तले लपलपाती नर्क की आग
जो देती है मृत्युलोक के लहू को रवानी
उलटाती हुई वो प्राचीन कहानी
कि हमसे ऊपर स्वर्ग है
हमसे नीचे नर्क!

बीचोंबीच तपती दुपहर
ज़मीन से मीलों दूर समंदर में
खुद सी जर्जर नौका को तट की ओर खींचते वक्त
उस अकेले बूढ़े नाविक द्वारा फंसाई गई
नौका के साथ बंधी विशालकाय मछली को
हिंसक शार्कों का एक झुण्ड
अपने पूरे जंगलीपन से नोंच-खसोटकर
रख छोड़ता है कंकाल मात्र.

खून का रंग पानी है
भूख का रंग नीला है
स्वर्ग का रंग मौत है


·     नोट    --- मादा  समुद्री घोड़ा (सी हॉर्स) नर के शरीर में पाए जाने वाले एक थैले में अंडे स्थानांतरित करती है, जिससे नर गर्भवती होते हैं और निश्चित समय के बाद अंडे देते हैं.
·         “इलेक्ट्रिक ईल” ऐसी समुद्री मछली है जिसके शरीर से विद्युत तरंगें निकलती हैं और हमलावर या शिकार को 600 वोल्ट्स तक का झटका लगता है 
·         समुद्री शैवाल और वनस्पति एक बड़ी मात्रा में हानिकारक  कार्बन यौगिकों को अवशोषित रखते हैं
·         समुद्र के भीतर कई हिमालय से भी ऊंची पर्वत श्रंखलाएं उपस्थित हैं




4...       मसाईमारा


“न काहू से दोस्ती न काहू से बैर!
नोबडी इज़’एन एनिमी, नोबडी’ज़ अ फ्रेंड!”

प्रवेश द्वार पर लगे इस चेतावनी पटल के साथ
आपका मसाईमारा में स्वागत किया जाता है!
इस प्रवासियों के स्वर्ग में जहाँ लाखों की संख्या में भूखे
बुरे मौसम से अच्छे मौसम की तरफ आते हैं.
तंजानिया से केन्या तक,
या यूँ कहें
सेरेंगेटी से मसाईमारा तक,
जिंदगी और मौत का यह स्वर और व्यंजन की तरह अटूट सम्बन्ध
एक-दूजे के साथ सहवासी-प्रवासी होकर
इस मैदान को आत्मा देता है.

यहाँ सरकारें भूख से लिखे संविधान के अधीन कार्यरत हैं
और शब्दकोष में दया का पर्यायवाची है आत्महत्या.
यहाँ भोजन श्रंखला नहीं भोजन चक्र होते हैं
जो हैं अनादिअनंत.

यहाँ तीनों लोकों में घात की चादर ओढ़े भय नामक सम्राट
अपनी प्रजा का हाल देखने दिन-रात चक्कर काटता है.
पहले आम चुनावों में संशय को यहाँ का प्रथम नागरिक चुना गया
जो वास्तव में शातिर उचक्का था
उसने जल की पलकें, थल की नींद और नभ से आराम नोंच लिया.

सिर्फ मैदान और मौत मिल जाने से कोई मसाईमारा नहीं हो जाता बाबू मोशाईईईई
जंगल में आग होती है
नदियों में बाढ़ होती है
शतरंज की चालें होती हैं
और होते हैं
हाथी, घोड़ा, ऊँट, सिपाही|
और ये सिपाही इंसान नहीं होते,
क्यूँकी इंसान जहां होते हैं वहाँ जंगल जंगल नहीं रह जाता मेरे भाईईईई!

तो ये सिपाही आखिर कौन हैं?
सिपाही वे हैं
जो सबसे कमज़ोर होते हैं
वे ज़ेब्रा भी हैं, हिरन भी, ब्लैक बक भी, नीलगाय भी
पर वे वास्तव में कुछ भी नहीं 
केवल सिपाही हैं!

ये सिपाही हैं
जो बलिदान के रंग की वर्दी पहन
बनाते हैं सुरक्षा की पहली दीवार,
आठ वज़ीरों की सपनीली आख़िरी दीवार
और बीच में फैला है अथाह अनंत
हरा-हरा, खून भरा मसाईमारा.....


      (नोट ---    मसाईमारा केन्या के दक्षिण-पश्चिम में स्थित अफ्रिका का सबसे प्रमुख वन्यजीव अभयारण्य है.
·         सेरेंगेटी नेशनल पार्क मसाईमारा से लगा हुआ है और तंजानिया में स्थित है. यहाँ से हर वर्ष लाखों ज़ेबरा और अन्य जानवर मसाईमारा की तरफ प्रवास करते हैं.


5...      जंगल

भेड़ीये पूनम के चाँद की ओर मुंह उठाये रो रहे हैं
विषहीन साँपों को उनके चटख लाल-पीले रंगों ने बचाया रखा है अब तक
अँधेरी रातें ही भूख मिटाती हैं यहाँ
यहाँ ज़हर ही जीवन है.

पक्षियों और बंदरों का जो शोर देता है तालाब पर पानी पीते हिरणों को शेर के आने की आहट-
वही चुपके-चुपके शिकारियों से शेर की भी चुगली कर रहा है;
यहाँ किरदार समझना बहुत मुश्किल है.

गिरगिट तेज़ी से रंग बदल रहे हैं
पर चीज़ें रंग छोड़ने लगी हैं.
एक जंगली सूअर के शिकार पर
लक्कड़बग्घों के झुण्ड दौड़े चले आ रहे हैं;
आज तो दावत है!
यहाँ मृत्यु ही एकमात्र उत्सव है.

यहाँ सब सुखी हैं
कोई विद्रोह नहीं करता 
क्यूंकि यहाँ कोई नियम नहीं|

मृत्यु पर दुःख यहाँ भी है
पर शोकसभाएं नहीं
विलाप नहीं
आंसू नहीं;
यहाँ दुख का अर्थ केवल सन्नाटा है
क्यूंकि यहाँ सभ्य लोग नहीं रहते,
यहां कोई शहर नहीं|

6 ... बर्फ

यह वो देश है जिसे स्वर्ग कहा जा सकता है
बशर्ते यह भ्रम न पाला जाए
कि स्वर्ग में सब अमर होते हैं.
यहाँ शांति की सफ़ेद चादर के नीचे
ज़िंदगियाँ न्यूनतम गतिज जीवन के साथ
ऊर्जा संरक्षण के नियमों की जीवित स्मारक होती हैं.

हिमालय की सबसे ऊंची चोटियों पर
प्रकृति माँ ने अपने बच्चों के साथ रंगभेद किया.
एक श्वेत हिमतेंदुआ
अदृश्यता से भीगा हुआ,
एकाएक उठ खड़ा होता है
झाडियों से कोमल पत्तियाँ चबाती रंगबिरंगी बकरी के सामने
और छुपाछुपी के पहले दौर में ही उसकी मुठभेड़ हो जाती है
अपनी पूर्वनिर्धारित हार से.

शिकारियों को यहाँ कफ़न के रंग में रंगा गया
और शिकार भद्दे धब्बों की तरह रेंगते रहते हैं
मौत की आँख की सफेदी में काले तिल की तरह.

कहते हैं यहाँ कोई अनजाना नियम है
जिसके टूटने पर हिमस्खलन होता है
और बहुत कुछ दफ़न हो जाता है इस बर्फीले सन्नाटे की गोद में
ममीकृत होकर मैमथ सा
कभी तो डायनोसॉर के आश्चर्य भरे अण्डों की तरह,
और कभी रहस्य नहीं छोड़ता कोई निशाँ तक
येती के पंजों जितने भी!

ये बर्फ पिघलने का मौसम था
जब एक-दूसरे से लिपटी हुईं दो लाशें
दो पत्थरों के बीच की खोखली जगह में से दिखाई देने लगीं|
शीतनिद्रा से उठे सफ़ेद भालू अपनी नाक हवा में लहराते हुए
उनकी ओर दौड़े चले आ रहे थे...
कदम दर कदम उनके बीच की दूरी कम होने लगी...

यहाँ के निवासी गर्वित हैं
विश्व के सबसे ऊंचे “टॉवर ऑफ साइलेंस” की नागरिकता पाकर!

·     नोट--- मैमथ जिसे “वूली मैमथ” या ऊनी हाथी के नाम से भी जाना जाता है, हाथी की एक प्राचीन विलुप्त प्रजाति है जिसके बर्फ में ठीक-ठाक संरक्षित अवशेष अभी कुछ ही वर्ष पूर्व खोजे गए.
·         
   येती एक विशालकाय मानव जैसा दिखने वाला कोई रहस्मयी वनमानुष जैसा प्राणी है जिसे देखे जाने के कई दावे हिमालय पर्वत के इलाकों में लंबे समय से किये जाते रहे हैं. वैज्ञानिकों को सुबूत के रूप में उसके विशालकाय पंजों के निशान कई बार प्राप्त हुए हैं और कुछ अस्पष्ट विडीओ भी कुछेक बार पाए गए हैं.) 



परिचय 

अमित उपमन्यु  

इंजीनियरिंग में स्नातक 
ग्वालियर में रहते हैं 
साहित्य में गहरी दिलचस्पी