गुरुवार, 30 मई 2013

संदीप रावत की कवितायें

                           संदीप रावत 


संदीप रावत की कवितायें एक तरह से पीड़ा और उससे मुक्ति की छटपटाहट की कवितायें हैं |  इनमे देश-काल और आस-पड़ोस तो आता ही है , अमानवीयता का विरोध और बेहतर समाज बनाने का सपना भी दिखाई देता है | अभी कुछ ही समय पहले इनकी कवितायें मैं ‘अनुनाद’ ब्लॉग पर पढ़ चुका हूँ | मुझे ख़ुशी है , कि वे अब ‘सिताब दियारा’ ब्लॉग पर भी छप रही हैं |
                       

       तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर युवा कवि ‘संदीप रावत’ की कवितायें  
                


1   ....  बीडी बनाने वाले घर !!
    
बीड़ी बनाने वालों के छप्पर पे
बना रहता है
कड़क धुँआ
उठती रहती है हूक ... !
 
तेंदू के पातो पर
घूमती हैं नन्ही अंगुलियाँ ...
लिखती हैं -
कुछ भैंस बराबर
काले अक्षर !!
साल भर में एक बार आकर
कोई फेंक जाता है
राजधानी की ठुकराई हुई
चवन्नियां -अठन्नियां ...!!
मगर
हाथों पे निवाला देख लें
तो झपट पड़ती हैं चीलें ....!!
 
अपनी हथेलियों की मर चुकी खाल पर
सीना पीटती हैं
दिन-ब -दिन गरीब होती हुई आखें ...
तेंदू के पत्तों पर
गिरते हैं कसैले आंसू ...सूख जाते हैं ...
 
बीड़ियाँ यूँ ही कड़क नही होतीं !!

2-    औरत और सपना   


औरतें जी लेती हैं ख़्वाबों में
और
उनकी ताबीरों में भी !!
वो खामोश जागती रहती हैं
कि
उनकी आखों पर बनी रहती है
किसी दुस्वप्न की आहट ...!!
 
भीगी पलकों पर
उलझाये आँचल...
औरतें जी जाती हैं सपनों को !!


3 ....     आशा

बारिश के बाद
जब हरियाली ओढ़ लेंगे रस्ते ...
परिंदे बैठे होंगे
पानी के चहबच्चों को घेरे हुए ...
चरागाह में पसरा होगा
सुस्त दुधिया कोहरा ...
दूर खेतों से आती होगी
चैती के गीतों की सौंधी सी सरगम
भीगे बांज के पत्तों पर
फिसलेंगे -संभलेंगे गाय बकरियों के खुर
टप्प ..टप्प ...टक्करर ....टप ..टप ...
मेरे बच्चे
मेरे नन्हे चरवाहे
तुझे मैं ले चलूंगी अपने संग चरागाहों पर
सीखाउंगी तुझे चिरई की कूजें
तोडूंगी तेरे लिए बुरांश
तेरी पोरों पर रखूंगी ओस की बूंदें
और दिखाउंगी तुझे
घाटियों में डूब कर उड़ते पंछी ...!!
 
बस कुछ दिन और कर ले इंतज़ार
कि अभी पहाड़ो पर तपते घाम का पहरा है !
ये रूखे -सूखे दिन हमसे दूर चले जाने हैं बच्चे
बस ज़रा सा सब्र...
मैं तुझे ले जाउंगी अपने संग चरागाहों पर !!
    

4 ....     देखो वे चीख न पाए ..

खेद प्रकट करते हुए
आखरी सजदे में
एक दिन
कोई मजदूर
उड़ा देगा
चीखकर ...
पीपल की डाल से
आस्था और विश्वास के सारे पंछी
सदा के लिए ...!!


6-    धान बोने वाली औरतें -1  

धान बोने वाली औरतें
चौमासी बरसातों में
जंगली धाराओं सी बह निकलती हैं
पहाड़ो में !
छलछलाती हुई गुज़र जाती हैं
खेतों -मेड़ो -जंगलो -बाखलियों से होकर ..
धान के खेतों में घुटनों
तक डूबी वो तैरती जाती है
हरियाने सूने खेतों को " हुड़किया " की थापों के साथ !
अपनी सलवारों -धोतियों के पायंचों
को निचोड़ती हुई
वो दौड़ती हैं यहाँ वहां बारिश में !
भीगे आँचल से छूटती हैं
ठंडी बौछारें...
चहक उठते हैं पंछी ...!
 
धान बोने वाली औरतों के लिये ही उगती है
पहाड़ो पे हरियाली ... घने कोहरे में बैठी रहती है ओस ...
उनके आँचल और केशों को सुखाने बड़ी दूर से आती हैं हवाएं ...
 
धान बोने वाली औरतों के भीतर फिर नयी उम्मीद उगाते हैं पहाड़ !!

7......     धान बोने वाली औरतें -2

धान बोने वाली औरतें
सांझ तलक खेतों में रहकर
लौटती हैं
बच्चे झूलते हैं कंधो पे ..ठीक कानों पर बोलते हैं
उनके गिलास से छलक उठती है चाय !!
 
वो गाय के लिए बनाती हैं चारा -काटती हैं सब्जी - गूंथती हैं आटा
रात घिरे चूल्हे पर
जम्हाईयों के बीच करती हैं बातें
बेसुध झपकियाँ लेती हुई
सेकती हैं " छापड़ " भर रोटियाँ ...
 
जली पोरों पे फिर लगाती हैं नमक !
नींद की लाल खरोंचे आँखों में लिए
वो मांझती हैं बर्तन , उठाती हैं झूठा , लीपती हैं चौका ...!
आधी रात जब रोते हैं बच्चे ...वो देर तक नहीं करातीं चुप उन्हें
या कोसती हुई मारती हैं झिड़कती देती हैं धक्के !
 
बडबडाता हुआ
करवट बदलता है आदमी और गाली बकता हुआ उठता है -
 
सबकी सुनते -करते बेहिस बेजान हो जाती हैं
धान बोने वाली औरतें ...!!


परिचय और संपर्क

नाम - संदीप रावत  
उम्र - २४ वर्ष
शिक्षा - बी.एस.सी ( गणित ) ( नैनीताल डी.एस.बी कैंपस )
पता - ग्राम सुरना , पोस्ट आफिस बिन्ता
जिला अल्मोड़ा , रानीखेत (उत्तराखंड





रविवार, 26 मई 2013

पंकज मिश्र की कवितायें

                           पंकज मिश्र 



पंकज मिश्र की कुछ कवितायें मैंने फेसबुक पर पढ़ी हैं , और जहाँ तक याद आ रहा है , एक बार ‘असुविधा’ ब्लॉग पर भी | वे कम लिखते हैं , और उससे भी कम छपना चाहते हैं | सिताब दियारा ब्लॉग यह दोनों नहीं चाहता | मुझे लगता है , कि इन कविताओं को पढने के बाद आप भी शायद यही राय रखेंगे | इनकी कविताओं में रिश्ते कुछ इस तरह से आते हैं , जैसे उन्हें जीवन में भी आना चाहिए | इस तरह से नहीं , जैसे कि वे आजकल कार्य-व्यापार की तरह निभाये जाने लगे हैं |


          तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर ‘पंकज मिश्र’ की तीन कवितायें  
            

एक .....   

माँ   

माँ ! तुम्हारी छवि
एक कुहासा है
पार इस के
कोई कहाँ जा पाता है
मैं आ रहीं हूँ
कुहासे के उस पार
जहां तुम होगी
और मैं
खुल कर बातें करेंगे
जैसे बात करती है
एक स्त्री दूसरी से
बेपर्दा .......

माँ
देखना है
तुम्हारा घूंघट
तुम्हारा वास्तव
शाश्वत छवि उलट
जानना है
किस धातु का बना है
तुम्हारा कंगन ,तुम्हारा बिछुवा
तुम्हारे सारे आभूषण
तुम्हारे स्वेद अश्रु के सान्द्र विलयन में
सब घुलता आया है अद्यतन
तुम्हारे रक्त मांस का
एक हिस्सा हूँ मैं ....
तब इतनी
अघुलन शील क्यों
अपने स्त्री रूप में ...
क्यों नहीं घुल पाती
इस खारे विलयन में
क्यों फांस सी अटक जाती हूँ
तुम्हारे मन में
त्याग और ममता का आवरण भी
अब तो अक्सर
उतर जाता है
कोई अनजाना अनचीन्हा भयानक
चेहरा नज़र आता है
तुम्हारी अँगुलियों के नाखून भी
कितने बड़े हैं
मेरे कलेजे पे भी तो
फफोले पड़े हैं
आखिर किस धातु के गहने
फिर मुझे सौंप रही हो
इस बोझ को ढोना नहीं चाहती
अब और रोना नहीं चाहती 
किन युगों में
धातु कर्म की किस जटिल रासायनिक क्रिया ने
इन् धातुओं का निर्माण किया 
जिसका गलनांक
तर्क और विवेक के ताप से परे है

मैं
उस शास्त्र को
उन शास्त्रियों को
प्रणाम करना चाहती हूँ
और उनकी इजादों को भी
अंतिम प्रणाम ......

मैं,
आ रही हूँ.. माँ
तुम्हारे कंगन उतार
कुहासे से पार
जा रही हूँ .......माँ






दो ....  


मैं, तुम्हारा बाप हूँ 
हाँ ,तो ....?
मैंने, तुम्हे पैदा किया है 
जानता हूँ ,तो...
मैंने, तुम्हे पाला पोसा,बड़ा किया है
सच है ,तो.....?
बुढ़ापे में, मैं और तुम्हारी माँ 
कहाँ जायेंगे ,कैसे रहेंगे 
क्या, इसी दिन के लिए,
तुम्हे, पैदा किया 
पाला ...पोसा.....बड़ा किया 
शायद...
मतलब ?
मतलब कि,
आप यही रहेंगे
कही नहीं जायेंगे
मैं भी यही रहूँगा ,
आपके साथ
आप भी यही रहेंगे ,
मेरे साथ 
मैं ,
ये इसलिए नहीं कह रहा
कि,आपने वो सब किया 
जो एक बाप को करना चाहिए 
कि, ये कोई क़र्ज़ है
जो उतरना चाहिए  
कि ये कोई एहसान है
जिसके बोझ तले
मैं दबा हूँ,
जिससे निकलना चाहिए 
मुझे तो, ये करना ही है
कि, ये मेरे लिए
इंसानियत कि शर्त है
कि,ये कोई सौदा नहीं है
और
न ही कोई उधारी......

सिर्फ, इंसानियत ....!
कंपकपाया,पिता का स्वर यन्त्र 

सिर्फ, इंसानियत ....!
कंठ से फूटा हो जैसे मंत्र

सिर्फ, इंसानियत ....!

मैंने सर उठाया
पिता के नेत्रों से 
झर रहा,
ज्यों मंत्र - निर्झर 
झर झर झर 
झर झर झर 
काल कुंठित, प्रौढ़ प्रेत से, पिता लगे 
संबंधों के निर्वात से झांकते, पिता लगे

निष्प्राण निर्वासन झेलता 
बरस बीता ,दशक बीता 
आज भी ,उसी प्रेत बाधा से ग्रस्त
जीवन जी रहा  
मिला पाता आँख 
,अपने आप से 
, अपने ही सद्यः जात से
कदाचित, मिल ही गयीं कभी 
देखता हूँ, ज्यों 
काल कुंठित प्रौढ़ प्रेत का
वो मंत्र--निर्झर झर रहा है
और मेरे भीतर कोई बाप
धीरे धीरे मर रहा है .... 



तीन   

एक वक्ती सच मात्र होता है 
किसी का कहीं होना 
या फिर 
कही चले जाना,
फिर भी 
कभी -कभी 
किसी के जाने के बाद भी 
बाकी रह जाती है खुश्क हवाओं में 
उसके अहसास की नमी
ठन्डे जिस्म के गिर्द 
उसके आगोश कि गर्मी 
दूर तक ,रहती है 
सूनी ,सर्द ,स्याह रातों में 
लिहाफ के भीतर 
दबे पाँव आकर 
देर तक ,कुछ कहती है
कैसे और कब 
बनता जाता है 
ऐसा रिश्ता 
रिश्ता ,
जो फितरतन होता है 
किसी बेवफा माशूक कि तरह 
और फिसल सकता है 
बंद मुट्ठी से
रेत की तरह 
रिश्ता ,
जो किसी के चाहने भर से ही 
बन तो नही सकता 
हाँ !
टूट जरूर सकता है 
किसी के चाहने भर से ही |
इन बेवफा ,बेमुरव्वत,रिश्तों के दौर में 
कोई क्यों ??
जाने के बाद भी 
कभी पूरा नहीं जाता 
क्यों थोड़ा वहीँ रह जाता है 
जिस्म के भीतर 
कोई काँटा 
जैसे 
टूट जाए 
और 
दर्द रह जाए |
ये , कैसा रिश्ता तुम से है 
कौन हो तुम ?
मेरी धमनियों में 
रक्त कि तरह
क्यूँ बहते हो ?
मेरे अशक्त फेफड़ों में 
ये सांस सा
क्या भरते हो  ?
मेरी नींदों में 
खवाब सा 
मेरे गीतों में 
राग सा 
मेरे अंधेरों में 
उजास सा 
क्या रचते हो ??
     



परिचय और संपर्क       

पंकज मिश्र    
             
वाम छात्र आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी
फिलहाल गोरखपुर में रहते हैं