विपिन चौधरी
युवा हिंदी कविता का स्त्री स्वर आज पूरी मुखरता के साथ साहित्यिक परिदृश्य पर जगमगाता दिखाई देता है | उनके पास सवालों की एक लंबी सूची है , जिसको वह इस पुरुष वर्चस्व वाले समाज से पूछना चाहती हैं | और जाहिर है कि ये सवाल सिर्फ उस समाज को कोसने या उसे मलामत भेजने के लिए नहीं वरन उस समाज को वास्तविक अर्थों में न्यायपूर्ण और जनतांत्रिक बनाने के लिए उठाये जाते हैं | हाशिए पर सदियों से दोयम दर्जे का जीवन जीती हुई स्त्री पहले जिन सवालों और मुद्दों को जानते और झेलते हुए भी चुप्पी की कोटर में अपने मनोभावों को छिपाए रखती थी , उसके उलट, आज वह इन प्रश्नों को पूरी बेबाकी और साहसिकता के साथ हमारे सामने रखने लगी है |
लेकिन सिर्फ इसी खांचे में रखकर इस स्वर को देखना और समझना भी एकांगी नजरिया ही कहा जाएगा | यदि वह दुनिया की आधी आबादी के लिए संघर्षशील है , तो उसकी नज़रें देश दुनिया की हर उन छोटी और महत्वपूर्ण घटनाओं की तरफ भी है , जिस पर किसी भी संवेदनशील और जागरूक व्यक्ति की नजर होनी चाहिए | यहाँ प्रस्तुत कवितायें उपरोक्त बात की गवाही देती हैं और यह आश्वस्ति भी , कि न्याय और जनतंत्र की अवधारणा में कुछ भी एकांगी नहीं होता , और दूसरे के लिए किया गया संघर्ष ही अंततः हमारे अपने संघर्ष को चटकदार और जवान करता है |
लेकिन सिर्फ इसी खांचे में रखकर इस स्वर को देखना और समझना भी एकांगी नजरिया ही कहा जाएगा | यदि वह दुनिया की आधी आबादी के लिए संघर्षशील है , तो उसकी नज़रें देश दुनिया की हर उन छोटी और महत्वपूर्ण घटनाओं की तरफ भी है , जिस पर किसी भी संवेदनशील और जागरूक व्यक्ति की नजर होनी चाहिए | यहाँ प्रस्तुत कवितायें उपरोक्त बात की गवाही देती हैं और यह आश्वस्ति भी , कि न्याय और जनतंत्र की अवधारणा में कुछ भी एकांगी नहीं होता , और दूसरे के लिए किया गया संघर्ष ही अंततः हमारे अपने संघर्ष को चटकदार और जवान करता है |
तो प्रस्तुत है, आज 'सिताब दियारा' ब्लाग पर इन्ही स्वरों में से एक युवा कवयित्री
विपिन चौधरी की पाँच कवितायें
विपिन चौधरी की पाँच कवितायें
1... आदिवासी
औरत और पेप्सी
बाज़ार की चमचमाती आंखे
सड़क पर चलते हाथों में सिमटी
दमड़ी को टटोल रही हैं
समाज की आंखे इंसान की
पीठ पर नज़र गड़ा कर
उसका लहू पीने की तैयारी में हैं
तभी एक आदिवासी औरत के हाथ में पेप्सी देख
समाज का चेहरा कठोर हो
तन जाता है
अपनी सूजी हुई आँखों से
समाज देख रहा है
आदिवासी महिला का काला-कलूटा रंग
खनिज की प्रकृति से मेल खाता हुआ उसका
दरदर्राया हुआ कठोर और नुकीला चेहरा
समाज को आदिवासी औरत के
आदि पन से परेशानी नहीं है
परहेज़ है तो
माथे तक सिन्दूर पोते
चटक लाल सस्ती साड़ी पहने
छम-छम करती मेट्रो में चढ़ आई
आदिवासी महिला के हाथ में पकड़ी हुई
उस ‘चिल्लड पेप्सी’ से
इस बीच आदिवासी महिला
समाज की नजरों की ठीक सिधाई में बैठ
बिना साँस लिए पूरी की पूरी
पेप्सी उतार लेती है
अपने हलक के नीचें
यह
देख
समाज का गला अचानक से सूखने लगता है
2... शरीर की भीतरी दशा
मरने से पहले जिन्दा रहना जरूरी है
लेकिन जीनें का एक बहाना तो शिराओं में बहते रक्त
के पास है
जो एकबारगी
भीतर के एक उन्नत रास्ते को देख थम गया है
लाल रक्त की कोशिकाएं धीरे-धीरे
एक मृत ढेर में तब्दील हो रही हैं
गुदा, लहू साफ़ करने के अपने पाक धर्म से
विचलित सी जान पड़ रही है
बाहर की व्यवस्था पर मैं अपना
पाँव रख कर खड़ी हूँ
पर भीतर की व्यवस्था मुझसे बगावत करने को बेतरह आतुर है
आंखे सही अक्स उतारने में आना-कानी कर रही हैं
एक औंस रक्त साफ़ करने में
ह्रदय को पसीना आने लगा है
दिमाग को भेजे गए सन्देश
अपना परम्परागत रास्ता भटक चुके हैं
सांस, एक कराह के साथ बाहर का रास्ता खोज रही है
पशोपेश में हूं कि
पहले तन साथ छोडेगा या मन
तन पहले चला जाये तो ठीक
मन के बिना एक पल की गुज़र बेमानी
है
३... नजरबंद तस्वीर
(सरबजीत के लिये)
सभी चौराहे की गोल दीवार पर चिपकी एक तस्वीर
हर नुक्कड़ हर मोड़ पर आपका पीछा करती तस्वीर
हुकुमरानों की कुर्सी के चारों पायों ने नीचें दबी
हुई वही तस्वीर
आप कितने ही जरूरी काम में व्यस्त हों
यह तस्वीर आपके आगे कर दी जाती है
और आप लाख बहाने कर आगे निकल जाते हैं
इस तस्वीर में कैद
नज़रबंद चेहरे की उम्र एक मोड पर आ ठहर गयी है
तस्वीर के बाहर
इस तन्दरुस्त चेहरे की साँझ कहीं पहले ढल चुकी है
अब तो इस तस्वीर वाला शख्स
बिना सहारे के एक कदम भी नहीं चल सकता
अच्छे बुरे का माप तौल हमने
उस दिन से छोड दिया जब हमारे ही कारिंदे
अपने साथियों के खिलाफ गुटबाजी में लिप्त पाए गए
और हुकुमरानो ने सह्रदयता दिखाते हुए उन्हें माफ कर दिया
पर इस तस्वीर के
पक्ष में उठी माफ़ीनामें की आवाजों को
बेशकीमती कालीन के नीचें छुपा दिया गया
सरहद की मजबूती के आगे
नतमस्तक हैं
दोनों ओर की फौजें
और इस तस्वीर के आगे बेबस हैं
चारों सेनाएं और दो लाजवाब देश
लोकतंत्र में सरकार की मजबूती
इस तस्वीर की मार्फ़त
अच्छी तरह से देख ली हैं
आगे से हम
इस सरकार की तरफ पीठ करके सोने वाले हैं
4.... पीड़ा
का
फलसफा
दर्द को मुठ्ठी
में कैद कर उसके फलसफे का पाठ
फिर चार- पांच दिन अपने हाल पर जीना
अपने तरीके से जूझना
अभ्यास करना
सहजता से चाक-चौबंद रहने के लिए
और सजगता भी ऐसी जो
सहजता से चाक-चौबंद रहने के लिए
और सजगता भी ऐसी जो
धूनी की
तरह
सिर से पाँव तक अपना पसारा जमा ले
पीड़ा को अपनी गोदी में सुलाने के ये दिन
पीड़ा जो पीठ की तरफ से आती
या कभी तलवे से उठान भरती
हर बार दर्द का चेहरा बहुत अलग होता है
हर बार उससे जूझने का तरीका वही
हर बार उससे जूझने का तरीका वही
हर दिलासा का दूत एक तरफ से आया
नज़दीक आये बिना पल में हवा हो गया
मानीखेज़ चीजें गोल दिशा में
डूब
कर
आयी
दुःख, प्रेम, ख़ुशी
फिर ख़ुशी, प्रेम, दुःख
सात राग बारी बारी से जीवन में आये
पर चार दिन वाली इस सनातन पीड़ा
दुःख, प्रेम, ख़ुशी
फिर ख़ुशी, प्रेम, दुःख
सात राग बारी बारी से जीवन में आये
पर चार दिन वाली इस सनातन पीड़ा
ने चारों दिशाओं से अपनी बर्छियां
चलायी
महीनें के इन
चार दिनों वाली अबूझ पहेली
से
पहले
पहल
परिचय विज्ञान की कक्षा ने करवाया
परिचय विज्ञान की कक्षा ने करवाया
जब
सर झुकाए
मिस लीला को सुनाते और
सोचते,
‘क्या ही अच्छा होता
कि आज कक्षा में बैठे ये सारे के सारे लडके लोप हो जाते’
फिर एक
दिन
स्वयं साक्षात्कार हुआ
कई हिदायतों से बचते बचाते
सिर छुपाते
कहर
के
पंजों
के
लडते
रहने
वाले
इन
दिनों
से
खुदा, खुद
औरत की जुर्रत से भय खाता था
सो औरत को औरत ही बनाए रखने की यह जुगत उसकी थी
हम औरतों के ये चार दिन अपनी देह की प्रकृति
से लडते बीतते
तभी
जाकर
एक जंगली खुनी समुंदर को अपने भीतर जगह देने का साहस
इस आधी
आबादी
के
नाम पर
लिखा
जा
सका
इन चार दिनों में औरत का चेहरा भी
हव्वा का चेहरा के बिलकुल करीब आ जाता है
हालाँकि हव्वा भी अब बूढ़ी हो गयी है
इस चार दिनों वाली परेशानी से जूझने वालेउसके दिन अब लद गए हैं
इन्हीं भावज दिनों में अपनी भावनाओं को खोलने के लिए
हालाँकि हव्वा भी अब बूढ़ी हो गयी है
इस चार दिनों वाली परेशानी से जूझने वालेउसके दिन अब लद गए हैं
इन्हीं भावज दिनों में अपनी भावनाओं को खोलने के लिए
किसी चाबी का सहारा लेना पड़ता है
कभी ना कभी हर औरत कह उठती है
’माहिलाओं के साथ इस व्यवाहरिक मजाक को क्यों अंजाम दिया गया’
फिर एक मुस्कुराते बच्चे की तस्वीर को देख कर
कभी ना कभी हर औरत कह उठती है
’माहिलाओं के साथ इस व्यवाहरिक मजाक को क्यों अंजाम दिया गया’
फिर एक मुस्कुराते बच्चे की तस्वीर को देख कर
खुद ही वह
अपनी
सोच
वापिस
ले
लेती
है
हर महीने जब प्रकृति का यह तोहफा द्वार खटखाता है
तब योनी गुपचुप एक आतंरिक योग में व्यस्त हो जाती है
अपरिहार्य कारणों से
पीड़ा की इस स्तिथी में भी महिलाओं की उँगलियाँ मिली हुई (crossed ) रहती हैं
हर महीने जब प्रकृति का यह तोहफा द्वार खटखाता है
तब योनी गुपचुप एक आतंरिक योग में व्यस्त हो जाती है
अपरिहार्य कारणों से
पीड़ा की इस स्तिथी में भी महिलाओं की उँगलियाँ मिली हुई (crossed ) रहती हैं
जिनकी बीच कस कर एक उम्मीद बेपनाह ठाठे मारती है
यो प्रक्रति
का
पीड़ादायक रुदन
सहज तरीके से सुरक्षित बना रहता है
संसार की हर औरत के पास
जब एक स्त्री पांचवे दिन नहा धो कर
आँगन में चमेली की महक के बराबर खड़ी होती हैं तो
प्रकृति उसका हाथ
और
भी
मजबूती थाम लेती
है
5... चन्द्रो
(स्तन कैंसर से जूझती महिलाओं को
समर्पित)
चन्द्रो,
यानी फलाने की बहु
धिम्काने की पत्नी
पहली बार तुम्हें चाचा के हाथ में पकड़ी
एक तस्वीर में देखा
अमरबेल सी गर्दन पर चमेली के फूल सी तुम्हारी
सूरत
फिर देखी
श्रम के मजबूत सांचे में ढली तुम्हारी
आकृति
कुए से पानी लाती
खड़ी दोपहर में खेतों से बाड़ी चुगती
तीस किलों की भरोटी को सिर पर धरे लौटती
अपनी चौखट
ढोर-डंगरों के लिए सुबह-शाम हारे में
चाट रांधने में जुटी
किसी भी लोच से तत्काल इंकार करती
तुम्हारी देह
इसी खूबसूरती ने तुम्हें अकारण ही गांव
की दिलफेंक बहु बनाया
फाग में अपने जवान देवरों को उचक-उचक
कोडे मारती तुम
तो गाँव की सूख चली बूढ़ी चौपाल
हरी हो लहलहा उठती
गांव के पुरुष स्वांग सा मीठा आनंद लेते
स्त्रियाँ पल्लू मुहँ में दबा भौचक हो
तुम्हारी चपलता को एकटक देखती
अफवाओं के पंख कुछ ज्यादा ही चोडे हुआ करते हैं
अफवाहें तुम्हे देख
आहें भर बार- बार दोहराती
फलाने की दिलफेंक बहु
धिम्काने की दिलफेंक स्त्री
इस बार युवा अफवाह ने सच का चेहरा चिपका
एक बुरी
खबर दी
लौटी हो तुम अपना एक स्तन
कैंसर की चपेट में गँवा कर
शहर से गाँव
डॉक्टर की हजारों सलाहों के साथ
अपने उसी पहले से रूप में
उसी सूरजमुखी ताप में
इस काली खबर से गाँव के पुरूषों पर क्या
बीती
यह तो ठीक-ठीक मालुम नहीं
उनके भीतर एक सुखा पोखर तो अपना आकार ले
ही गया होगा
महिलाओं पर हमेशा के तरह इस खबर का असर
भी
फुसफुसाहट के रूप में ही बहार निकला
चन्द्रो हारी-बीमारी में भी
अपने कामचोर पति के हिस्से की मेहनत कर
डटी रही हर चौमासे की सीली रातों में
अपने दोनो बच्चों को छाती से सटाए
निकल आती है
आज भी
बुढी चन्द्रो
रात को टोर्च ले कर
खेतों की रखवाली के लिए
अमावस्या के जंगली लकडबग्घे अँधेरे में |
विपिन चौधरी