बुधवार, 30 मई 2012

विपिन चौधरी की कवितायें





                                  विपिन चौधरी 

युवा हिंदी कविता का स्त्री स्वर आज पूरी मुखरता के साथ साहित्यिक परिदृश्य पर जगमगाता  दिखाई देता है | उनके पास सवालों की एक लंबी सूची है , जिसको वह इस पुरुष वर्चस्व वाले समाज से पूछना चाहती हैं | और जाहिर है कि ये सवाल सिर्फ उस समाज को कोसने या उसे मलामत भेजने के लिए नहीं वरन उस समाज को वास्तविक अर्थों में न्यायपूर्ण और जनतांत्रिक बनाने के लिए उठाये जाते हैं | हाशिए पर सदियों से दोयम दर्जे का जीवन जीती हुई स्त्री  पहले जिन सवालों और मुद्दों को जानते और झेलते हुए भी चुप्पी की कोटर में अपने मनोभावों को छिपाए रखती थी , उसके उलट, आज वह इन प्रश्नों को पूरी बेबाकी और साहसिकता के साथ हमारे सामने रखने लगी  है |                                                      
लेकिन सिर्फ इसी खांचे में रखकर इस स्वर को देखना और समझना भी एकांगी नजरिया ही कहा जाएगा | यदि वह दुनिया की आधी आबादी के लिए संघर्षशील है , तो उसकी नज़रें देश दुनिया की हर उन छोटी और महत्वपूर्ण घटनाओं की तरफ भी है , जिस पर किसी भी संवेदनशील और जागरूक व्यक्ति की नजर होनी चाहिए | यहाँ प्रस्तुत कवितायें उपरोक्त बात की गवाही देती हैं और यह आश्वस्ति भी , कि न्याय और जनतंत्र की अवधारणा में कुछ भी एकांगी नहीं होता , और दूसरे के लिए किया गया संघर्ष ही अंततः हमारे अपने संघर्ष को चटकदार और जवान करता है | 

          तो प्रस्तुत है, आज 'सिताब दियारा' ब्लाग पर इन्ही स्वरों में से एक युवा कवयित्री       
                           विपिन चौधरी की पाँच कवितायें                           


1...        आदिवासी औरत और पेप्सी

बाज़ार की चमचमाती आंखे
सड़क पर चलते हाथों में सिमटी
दमड़ी को टटोल रही हैं

समाज की आंखे इंसान की 
पीठ पर नज़र गड़ा कर 
उसका लहू पीने की तैयारी में हैं

तभी एक आदिवासी औरत के हाथ में पेप्सी देख
समाज का चेहरा कठोर हो
तन जाता है 
अपनी सूजी हुई आँखों से
समाज देख रहा है
आदिवासी महिला का काला-कलूटा रंग
खनिज की प्रकृति से मेल खाता हुआ उसका
दरदर्राया हुआ कठोर और नुकीला चेहरा 

समाज को आदिवासी औरत के
आदि पन से परेशानी नहीं है
परहेज़ है तो
माथे तक सिन्दूर पोते
चटक लाल सस्ती साड़ी पहने
छम-छम करती मेट्रो में चढ़ आई
आदिवासी महिला के हाथ में पकड़ी हुई
उस चिल्लड पेप्सी’ से

इस बीच आदिवासी महिला
समाज की नजरों की ठीक सिधाई में बैठ
बिना साँस लिए पूरी की पूरी
पेप्सी  उतार लेती है
अपने हलक के नीचें

यह  देख  समाज का गला अचानक से सूखने लगता है   




2...              शरीर की भीतरी दशा


मरने से पहले जिन्दा रहना जरूरी है

लेकिन जीनें का एक बहाना तो शिराओं में बहते रक्त
के पास है
जो एकबारगी  
भीतर के एक उन्नत रास्ते को देख थम गया है

लाल रक्त की कोशिकाएं धीरे-धीरे
एक मृत ढेर में तब्दील हो रही हैं

गुदा, लहू साफ़ करने के अपने पाक धर्म से
विचलित सी जान पड़ रही है  

बाहर की व्यवस्था पर मैं अपना पाँव रख कर खड़ी हूँ
पर भीतर की व्यवस्था मुझसे बगावत करने को बेतरह आतुर है

आंखे सही अक्स उतारने में आना-कानी कर रही हैं 
एक औंस रक्त साफ़ करने में
ह्रदय को पसीना आने लगा है

दिमाग को भेजे गए सन्देश
अपना परम्परागत रास्ता भटक चुके हैं
सांस, एक कराह के साथ बाहर का रास्ता खोज रही है

पशोपेश में हूं कि
पहले तन साथ छोडेगा या मन

तन पहले चला जाये तो ठीक
मन के बिना एक पल की गुज़र  बेमानी  है


३...               नजरबंद तस्वीर
                                            (सरबजीत के लिये)

सभी चौराहे की गोल दीवार पर चिपकी एक तस्वीर
हर नुक्कड़ हर मोड़ पर आपका पीछा करती तस्वीर
हुकुमरानों की कुर्सी के चारों पायों ने नीचें दबी
हुई वही तस्वीर

आप कितने ही जरूरी काम में व्यस्त हों
यह तस्वीर आपके आगे कर दी जाती है
और आप लाख बहाने कर आगे निकल जाते हैं  

इस तस्वीर में कैद
नज़रबंद चेहरे की उम्र एक मोड पर आ ठहर गयी है
तस्वीर के बाहर
इस तन्दरुस्त चेहरे की साँझ कहीं पहले ढल चुकी है
अब तो इस तस्वीर वाला शख्स
बिना सहारे के एक कदम भी नहीं चल सकता

अच्छे बुरे का माप तौल हमने
उस दिन से छोड दिया जब हमारे ही कारिंदे
अपने साथियों के खिलाफ गुटबाजी में लिप्त पाए गए
और हुकुमरानो ने सह्रदयता दिखाते हुए उन्हें माफ कर दिया

पर इस तस्वीर के
पक्ष में उठी माफ़ीनामें की आवाजों को
बेशकीमती कालीन के नीचें छुपा दिया गया 

सरहद की मजबूती के आगे
नतमस्तक हैं 
दोनों ओर की फौजें
और इस तस्वीर के आगे बेबस हैं
चारों सेनाएं और दो लाजवाब देश 

लोकतंत्र में सरकार की मजबूती
इस तस्वीर की मार्फ़त
अच्छी तरह से देख ली हैं
आगे से हम
इस सरकार की तरफ पीठ करके सोने वाले हैं   



4....          पीड़ा का फलसफा

दर्द को मुठ्ठी में कैद कर उसके फलसफे का पाठ

फिर चार- पांच दिन अपने हाल पर जीना
अपने तरीके से जूझना 
अभ्यास  करना
सहजता से चाक-चौबंद रहने के लिए  
और  सजगता भी ऐसी जो
धूनी की तरह सिर से पाँव तक अपना पसारा जमा ले 


पीड़ा को अपनी गोदी में सुलाने के ये दिन
पीड़ा जो पीठ की तरफ से आती   
या कभी तलवे से उठान भरती  


हर बार दर्द का चेहरा बहुत अलग होता है 
हर बार उससे जूझने का तरीका वही


हर दिलासा का दूत एक तरफ से या
नज़दीक आये बिना पल में हवा हो गया


मानीखेज़ चीजें  गोल दिशा में डूब कर यी
दुःख, प्रेम, ख़ुशी
फिर ख़ुशी, प्रेम, दुःख
सात राग बारी बारी से जीवन में आये
पर चार दिन वाली  इस सनातन पीड़ा
ने चारों दिशाओं से अपनी बर्छियां  चलायी


महीनें के इन चार दिनों वाली अबूझ पहेली से पहले पहल
परिचय विज्ञान की कक्षा ने करवाया   
जब सर झुकाए
मिस लीला को सुनाते और 
सोचते,
 ‘क्या ही अच्छा होता
कि आज  कक्षा में बैठे ये सारे के सारे लडके लोप हो जाते


फिर एक दिन स्वयं साक्षात्कार हुआ 
कई हिदायतों से बचते बचाते 
सिर छुपाते
कहर के पंजों के लडते रहने वाले इन दिनों से


खुदा, खुद
औरत की जुर्रत से भय खाता था
सो औरत को औरत ही बनाए रखने की यह जुगत उसकी थी 


हम औरतों  के ये चार दिन अपनी देह की प्रकृति से लडते बीतते 
तभी जाकर एक जंगली खुनी समुंदर को अपने भीतर जगह देने का साहस
इस आधी आबादी के नाम पर लिखा जा सका 


इन चार दिनों में औरत का चेहरा भी
हव्वा का चेहरा के बिलकुल  करीब जाता है
हालाँकि  हव्वा भी अब बूढ़ी हो गयी है 
इस चार दिनों वाली परेशानी से जूझने वालेउसके दिन अब लद गए हैं 


इन्हीं भावज दिनों में अपनी भावनाओं को खोलने के लिए  
किसी चाबी का सहारा लेना पड़ता है
कभी ना कभी हर औरत कह उठती है   
माहिलाओं  के साथ  इस व्यवाहरिक  मजाक  को क्यों अंजाम दिया गया 
फिर एक मुस्कुराते बच्चे की तस्वीर को देख कर
खुद ही वह अपनी सोच वापिस ले लेती है 


हर महीने जब  प्रकृति का यह तोहफा  द्वार खटखाता है
तब योनी गुपचुप एक आतंरिक योग में व्यस्त हो जाती है
अपरिहार्य कारणों से
पीड़ा की इस स्तिथी  में भी महिलाओं की उँगलियाँ  मिली  हुई (crossed ) रहती   हैं 
जिनकी बीच कस कर एक उम्मीद बेपनाह ठाठे मारती है

यो प्रक्रति का पीड़ादायक रुदन
सहज तरीके से सुरक्षित बना रहता है
संसार की हर औरत  के पास
जब एक स्त्री पांचवे दिन नहा धो कर
आँगन में चमेली की महक के बराबर खड़ी होती हैं तो
प्रकृति  उसका  हाथ और भी मजबूती  थाम  लेती है 


5...             चन्द्रो  
                  (स्तन कैंसर से जूझती महिलाओं को समर्पित)

चन्द्रो,
यानी फलाने की बहु
धिम्काने की पत्नी
पहली बार तुम्हें चाचा के हाथ में पकड़ी एक तस्वीर में देखा
अमरबेल सी गर्दन पर चमेली के फूल सी तुम्हारी सूरत


फिर देखी
श्रम के मजबूत सांचे में ढली तुम्हारी आकृति
कुए से पानी लाती
खड़ी दोपहर में खेतों से बाड़ी चुगती
तीस किलों की भरोटी को सिर पर धरे लौटती अपनी चौखट   
ढोर-डंगरों के लिए सुबह-शाम हारे में चाट रांधने में जुटी 
किसी भी लोच से तत्काल इंकार करती तुम्हारी देह


इसी खूबसूरती ने तुम्हें अकारण ही गांव की दिलफेंक बहु बनाया
फाग में अपने जवान देवरों को उचक-उचक कोडे मारती तुम
तो गाँव की सूख चली बूढ़ी चौपाल
हरी हो लहलहा उठती
गांव के पुरुष स्वांग सा मीठा आनंद लेते
स्त्रियाँ पल्लू मुहँ में दबा भौचक हो तुम्हारी चपलता को एकटक देखती
                                                                       

अफवाओं के पंख कुछ ज्यादा  ही चोडे हुआ करते हैं
अफवाहें तुम्हे देख
आहें भर बार- बार दोहराती
फलाने की दिलफेंक बहु
धिम्काने की दिलफेंक स्त्री

इस बार युवा अफवाह ने सच का चेहरा चिपका
एक  बुरी खबर दी
लौटी हो तुम अपना एक स्तन
कैंसर की चपेट में गँवा कर
शहर से गाँव  
डॉक्टर की हजारों सलाहों के साथ
 
अपने उसी पहले से रूप में
उसी सूरजमुखी ताप में


इस काली खबर से गाँव के पुरूषों पर क्या बीती
यह तो ठीक-ठीक मालुम नहीं
उनके भीतर एक सुखा पोखर तो अपना आकार ले ही गया होगा
महिलाओं पर हमेशा के तरह इस खबर का असर भी
फुसफुसाहट के रूप में ही बहार निकला

चन्द्रो हारी-बीमारी में भी
अपने कामचोर पति के हिस्से की मेहनत कर
डटी रही हर चौमासे की सीली रातों में
अपने दोनो बच्चों को छाती से सटाए


निकल आती है
आज भी   बुढी चन्द्रो
रात को टोर्च ले कर
खेतों की रखवाली के लिए 
अमावस्या के जंगली लकडबग्घे अँधेरे में    | 


                                                                                               विपिन  चौधरी 

रविवार, 27 मई 2012

विमल चन्द्र पाण्डेय का संस्मरण --चौथी किश्त



                               विमल चन्द्र पाण्डेय 

पिछली किश्त में आपने पढ़ा कि विमल समाचार एजेंसी 'यू.एन.आई.' में नौकरी ज्वाईन करने के लिए उत्साहपूर्वक दिल्ली से इलाहाबाद तो पहुंचते हैं, लेकिन यह उत्साह उस समय जाता रहता है , जब उनका सामना वहाँ की जमीनी विपरीत परिथितियों से होता है | उन्हें लग जाता है , कि जीवन में कठिन संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ है , वरन अभी तो इसकी शुरुआत हुई है | वे अपने लिए एक अलग ठिकाना तलाश करते हैं, और पत्रकारिता के नाम पर पैदा हुए इस अजीबोगरीब दलदल में अपनी छटपटाहट के साथ दाखिल हो जाते हैं |...और फिर आगे ........
                 

                        प्रस्तुत है विमल चन्द्र पाण्डेय के संस्मरण 
              शहरों से प्यार वाया इलाहाबाद - मेरी जिंदगी के सबसे उपजाऊ साल 
                                की चौथी किश्त 


                                    5.

इलाहाबाद में पत्रकारों की जो प्रजातियां थीं वैसी हर छोटे शहरों में होती होंगी लेकिन मेरा ऐसा पहला अनुभव था और मैं कई बार आश्चर्य में पड़ जाया करता था। एक दिन तंदूर रेस्टोरेंट में किसी नेता की प्रेस कांफ्रेंस में एक लम्बे तगड़े नौजवान ने आकर मुझसे हाथ मिलाया और मेरा परिचय पूछा। मैंने संकोच करते हुये बताया, ``यूएनआई।´´ यह बोल कर मैं यूएनआई के बारे में उसे बताने ही वाला था कि उसने मुझसे हाथ मिलाते हुये टोक दिया, ``मायसेल्फ रिंकू फ्रॉम द न्यूज क्रिटिक टाइम्स।´´ मैं पहले संकोच करने वाली बात का स्पष्टीकरण दे दूं। जब भी कोई मुझसे मेरे बैनर का नाम पूछता तो पहले तो मैं गर्व से बताया करता था, ``यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया।´´ लोग माथा सिकोड़ते, खूब सोचते कि ये नाम कहां सुना है, फिर हार कर मुझसे पूछते, ``ये छपता कहां से है ?´´ मैं उनका सामान्य ज्ञान बढ़ाता, ``ये न्यूज एजेंसी है। अखबारों में खबरें देती है। जो खबरें आप अखबारों में देखते हैं जिनके ऊपर या नीचे कोष्ठक में लिखा होता है एजेंसी, वह हम जैसे एजेंसी वाले ही देते हैं।´´ अगला कन्विंस तो नहीं होता लेकिन मेरे चेहरे की ईमानदारी का सम्मान करते हुये मान जाता कि ऐसा ही होता होगा हालांकि उनके मन में कई ईमानदार सवाल ज़रूर उठा करते थे, ``अरे जब अखबार के आपन रिपोर्टर होई तो कोई तुम्हार खबर काहे लेई ?´´ मैं फिर से समझाता। तरीका काफी कठिन था लेकिन बाद में मैंने देखा कि मेरे सीनियर श्री जियालाल जी एक बड़ा अच्छा तरीका अपनाते हैं तो मैं भी बाद में वही तरीका अपनाने लगा और वह काफी आरामदायक तरीका था भी। वह किसी को यूएनआई या यूनीवार्ता बताते और अगले के चेहरे पर प्रश्नवाचक चिन्ह बनने के साथ ही पूछ लेते, ``पीटीआई जानते हो न ?´´ अगला चहक कर कहता, ``हां हां, पीटीआई भाषा न ?´´ ``बस त वही, उसी तरह यूएनआई भी एजेंसी है एक ठो।´´ ये तरीका बहुत मारक था और इसमें पीटीआई का पिछलग्गू होने का कोई अपराधबोध अगर कभी रहा भी होगा , तो अब पूरी तरह खत्म हो चुका था। एक ज़माने में पीटीआई से आगे रही यूएनआई को पहचानने के लिये अब पीटीआई के नाम का सहारा लेना पड़ रहा था जिसके बारे में पूरी बेशर्मी से कहा जाता था कि ये हमारी राइवल एजेंसी है। हम अब पीटीआई के राइवल होने के कहीं से भी योग्य नहीं थे लेकिन एक ज़माने में रही राइवलरी को हम पूरी निर्लज्जता से ढो रहे थे।

मैं रिंकू की बात कर रहा था। उसने हाथ मिलाने के तुरंत बाद अपने अखबार का नाम बताया और मेरी एजेंसी का नाम सुनते ही बोला, ``वहां तो कोई और था न ?´´ मैं खुश हुआ कि इसे अपनी एजेंसी का काम नहीं बताना पड़ा। मैंने उससे पूछा कि उसका अखबार कहां से निकलता है और वह क्या कवर करता है। उसने बताया कि वह सब कुछ कवर करता है। मैंने शक से उसकी तरफ देखा और पूछा कि उसका अखबार किस भाषा का है। उसने `द न्यूज क्रिटिक टाइम्स´ अपनी जेब से निकाला। देवनागरी में लिखा हुआ यह नाम द टाइम्स ऑफ इंडिया को मात दे रहा था और सब कुछ कवर करने वाले इस पत्रकार ने चार पन्ने के अपने अखबार को चार बार मोड़ कर अपनी पिछली जेब में रखा था।

मुख्य तौर पर दो तरह के पत्रकार होते थे। एक तो चार पन्ने वाले अखबारों और लोकल न्यूज चैनलों के, जिनमें से ज्यादातर की ईमेल आईडी भी नहीं थी और ईमेल वगैरह जैसी फालतू चीज़ों के बारे में उनका रवैया तन्नी गुरू वाला हुआ करता था कि जिसको गरज होगी खुदै आयेगा। सभी तो नहीं, लेकिन इनमें से ज़्यादा पत्रकार पत्रकार-वार्ताओं में मिलने वाले गिफ्ट पर अपनी नज़रें गड़ाये रहते। कुछ लोग खाने के मेन्यू को लेकर भी बड़े चिंतित रहते। जब किसी बड़ी कंपनी की प्रेस कांफ्रेंस में नामों के आगे हस्ताक्षर कराकर सिर्फ बड़े अखबारों या सेटेलाइट चैनलों के पत्रकारों को ही गिफ्ट दिये जाते , और इन पत्रकारों के कार्ड देखने के बाद उनसे माफ़ी मांग कर निकाल दिया जाता, तो ये पत्रकार वह पूरा दिन सुभाष चौराहे (जिसे पत्रकार चौराहा भी कहा जाता था) पर यह चर्चा करते हुये निकाल देते कि देश में अविश्वास का जो माहौल बन रहा है वह इसकी एकता और अखंडता के लिये भारी खतरा है।

दूसरे तरह के पत्रकार अमर उजाला, दैनिक जागरण और हिंदुस्तान जैसे अखबारों के हुआ करते थे जिनमें से ज़्यादातर खाने के प्रति कोई रुचि नहीं दिखाते थे , चाहे मेन्यू कितना भी अच्छा क्यों न हो। इनके दोस्त तय थे, हाय हेलो करने वाले चेहरे तय थे और यहां तक कि इनके सवाल भी तय थे। कुछ सेटेलाइट चैनलों के लोग भी खुद को पुण्य प्रसून बाजपेयी और रवीश कुमार का स्थानीय संस्करण समझते। ये लोग स्वघोषित,  स्वपोषित और स्वयंभू सेलेब्रिटी थे जो रेवती रमण सिंह जैसे पुराने और अनुभवी नेताओं या नन्द गोपाल गुप्ता ‘नंदी’ जैसे नये खिलाड़ियों से एक ही गूढ़ सवाल पूछते, ``केत्ती सीट जीत रहे हैं इस बार ?´´ अपने इस धारदार प्रश्न के बाद वह बाकी पत्रकारों के चेहरे हिकारत से देखते और फिर जवाब नोट करने में मशगूल हो जाते , जिसमें वह नया या पुराना नेता कह रहा होता कि उसकी पार्टी इस बार सारी सीटें जीतने वाली है। ऐसे सवाल का इससे अच्छा जवाब कोई हो भी सकता है क्या ?  ये लोग कांफ्रेंस खत्म होते ही उठते और उस दरवाजे़ से बाहर निकलते जिधर खाने के आइटम रखे होते। रेस्टोरेंट का वेटर जिसे उस नेता का सख्त निर्देश होता कि कोई बिना खाए न निकले, गिड़गिड़ाता हुआ उनके पीछे भागता, ``सर कुछ खा लीजिये प्लीज़।´´ वे लोग अपना दाहिना हाथ ऊपर उठा कर मना करते जिसमें एक पतला सा लेटरपैड होता और बिना कुछ कहे इस ठसक के साथ बाहर निकल जाते कि उनके लिये काम ही पूजा है और वे फ्री के खाने को ठेंगे पर रखते हैं। मैंने ऐसे एकाध पत्रकारों से बात करने की कोशिश की थी , लेकिन मेरा फिजिकल अपीयरेंस कुछ ऐसा था कि मैं बहुत ध्यान दिये जाने लायक आदमी नहीं दिखायी देता था और वे आमतौर पर पहली राय फिजिकल अपीयरेंस को देखकर ही बनाते थे।
                            
                                                              6.         

दुर्गेश ने जिस विवेक से मेरा परिचय कराया था , वह इलाहाबाद की मेरी इंसानी उपलब्धियों में से एक साबित हुआ। मैंने उससे कहा कि मैं एक कमरा खोज रहा हूं जो सुलेम सराय से दूर हो और जहाँ आजादी से रहा जा सके। वह भी गाहे-बगाहे पीने वाला आदमी था और उसने मेरी आज़ादी का बिल्कुल सही मतलब निकाला। उसने एक कमरा खोज निकाला जो कीडगंज में ही था और एक लोहे के सामान्य दिखते शटर के पीछे अपने पूरे रंगरूप में आबाद था। वह एक लॉज था ,जिसके मालिक के रूप में मुझे शिशु भैया मिले जो हाईकोर्ट में वकालत करने के साथ-साथ साहित्य में भी रुचि रखते थे। मेरा कमरा नं 110 था जिसके एक तरफ राजन और उसके समस्याग्रस्त बड़े भाई रहते थे, तो दूसरी तरफ अतीव उत्साही, साहित्य अध्येता, परम पूज्यनीय और प्रात: स्मरणीय श्री श्री 1008 श्री अजय दूबे जी रहते थे। वह पहले इतने शाकाहारी आदमी थे, जिसे मैंने अपनी याद्दाश्त में देखा था। इसे आप मेरा कम अनुभव या कुछ और भी मान सकते हैं, लेकिन उनके जैसी शख्शियत से मैं पहली बार दो चार हो रहा था। लॉज तीनमंज़िला था और वह पूरे लॉज में ‘दूबे जी’ के नाम से जाने जाते थे। वह कभी भी किसी भी कमरे में जाकर उसका हालचाल ले सकते थे और उनके शब्दकोश में प्राइवेसी नाम का कोई शब्द नहीं था। मेरी वेशभूशा देखकर लॉज के बच्चे (ज्यादातर वहां सीए या आईएएस की तैयारी कर रहे बच्चे ही थे) मुझसे बात करने में रुचि नहीं दिखाते थे और शुरू-शुरू में दूबेजी भी मुझसे दूर-दूर रहा करते । बुरा हो सत्यकेतु जी का कि हिंदी दिवस के दिन उन्होंने मुझे अपने ऑफिस मिलने के लिये बुलाया और हिंदी दिवस की फिजूलखर्ची जैसे किसी विषय पर मेरे विचार के साथ मेरी फोटो भी छाप दी,  जिसे शिशु भैया ने भी अमर उजाला में देखा। विमल चन्द्र पाण्डेय, युवा कथाकार लिखे होने के कारण शिशु भैया की नज़रों में मेरा कद काफी बढ़ गया और उन्होंने यह बढ़ोत्तरी अपने तक ही नहीं रखी बल्कि अपने शुभचिंतकों को भी बांट दी। अब ‘दूबेजी’ भी मेरे शुभचिंतक होने की प्रबल इच्छा लिये घूम रहे थे , और मैं था कि अपने कमरे में घुसते ही दरवाज़ा बंद कर लेता था। लॉज में किसी से बात करने की जगह मैं अपने कंप्यूटर पर फिल्में या गाने देखता रहता या फिर नयी खरीदी कोई पत्रिका पढ़ता रहता। एक दिन दूबेजी ने मेरा दरवाज़ा खटखटाया और अखबार में मेरी तस्वीर प्रकाशित होने की बाबत पूछा। मैंने जैसे ही हामी भरी ,उन्होंने मुझे लगभग गले लगा लिया, और बताया कि वह भी कभी-कभी कविताएं लिखते हैं | मैं सोचने लगा कि अब कहां जाऊं।

वैसे दूबेजी थे बड़े प्यारे इंसान। पूरे लॉज के लोगों का हालचाल लेते और किसी भी ,कैसी भी समस्या में जान लेकर हाज़िर रहते। मेरी मदद करने के लिये भी वह बहुत कोशिशें कर रहे थे और मुझे मदद की दरकार ही नहीं हो रही थी। उनका मेरे कमरे में आना जाना बढ़ता जा रहा था और अब तो ये होने लगा था कि मैं विवेक के साथ पीते हुये किसी मुद्दे पर बात करता रहता कि वह आकर उस मुद्दे का कोई ऐसा पहलू बताने लगते कि वह बात , बात करने लायक ही नहीं बचती। एक दिन तो हद ही हो गयी जब मैं और विवेक रात के दो बजे तक धीमी गति से इसलिये पीते रहे कि शुद्ध शाकाहारी इस पड़ोसी के जाने के बाद चिकेन की हांडी खोली जाये और वह दो बजे तक बैठे हमारी बातचीत में हिस्सा लेते रहे। आखिरकार थक कर विवेक ने पोटली खोली और उनके सामने चिकेन थाली में परोसता हुआ बोला, ``चलिये भोग लगाइये मान्यवर।´´ दूबे जी थोड़ा दूर छिटक गये और हमारे चेहरे के भाव पढ़ते हुये बोले, ``मान्यवर, आप लोग गलत न समझें, अगर मेरी वजह से आप खाने में देरी कर रहे थे तो ये एकदम गलत बात है। मैं शाकाहारी अवश्य हूं परंतु आपके मांसाहार से मुझे कोई आपत्ति नहीं है। आप आराम से खांए।´´ जो ऐसी स्थिति में नहीं पड़ा वो नहीं जानता कि हमने उनके सामने शराब पीकर मांस खाते हुये कितनी शर्मिंदगी महसूस की। वो नहीं करते तो कम से कम हम तो करें, शायद ये हमारे मन में रहा हो।

इलाहाबाद में मैं जितने ठिकानों पर रहा उनमे सबसे अच्छा वक्त इसी लाज़ में गुज़रा | विवेक का कमरा मेरे कमरे से थोड़ी दूरी पर ही था और हमारी रूचियाँ काफ़ी हद तक मिलती थीं | हम दोनों अच्छी फिल्मों को देखने और घूमने-फिरने के शौक़ीन थे | पढ़ना मेरा जूनून था और जो अच्छी चीज़ें मैं पढ़ता उसे विवेक को भी अनुशंसित करता | कीडगंज में ही अर्बेन्द्र रहता था जिससे पत्रकारिता के दौरान फील्ड में मुलाकात हुई थी और वह भी हमारा अच्छा साथी बन गया था | उसका गांव शंकरगढ़ था और उसका पूरा नाम अर्बेन्द्र प्रताप सिंह राणा था जिसे वह बड़ी जतन से छिपा कर रखता था , लेकिन बदकिस्मती से एक दिन हमने उसके कमरे में रखी उसकी एक किताब पर यह नाम पढ़ लिया और काफ़ी दिन तक उसे राणा साहब पुकारते रहे , जिस पर उसकी भृकुटी तन जाती | उसके पास एक हैंडीकैम था जिससे वह ए टीवी में पत्रकारिता किया करता था. ए टीवी, बी टीवी, सी टीवी से लेकर छी टीवी तक वहाँ पाया जाना असंभव नहीं था | लोकल चैनलों की भरमार थी और विज्ञापनों के अलावा इनके पत्रकार कुछ चाहते थे तो सिर्फ़ प्रशासन का भ्रष्टाचार हटाना ताकि अपना भ्रष्टाचार फैला सकें | किसी ट्रैफिक पुलिस वाले से थोड़ी दूर छिप कर बैठना और कैमरा तैयार रखना इनकी पत्रकारिता का सबसे प्रमुख अंग था , जिसमे किसी ट्रकवाले से पैसे वसूल रहे पुलिसकर्मियों से फुटेज को ना प्रसारित करने की शर्त पर वे उनसे १०० या ५० रुपये झटक लेते | मैं ऐसे पत्रकारों के बीच खुद को बड़ा अप्रासंगिक महसूस करता | मेरा मन घबराने लगता और घबरा कर भाग जाने को कोई ठिकाना था तो सिर्फ़ और सिर्फ़ शेषनाथ का कमरा जहाँ वो अपने एक रिश्ते के भाई के साथ तैयारी के नाम पर रहकर साहित्य की किताबों और ख़बरों के बीच समय बिता रहा था.

                                                    क्रमशः .....
                                              
                                             प्रत्येक रविवार को नयी किश्त 

संपर्क - 

विमल चन्द्र पाण्डेय 
प्लाट न. 130 - 131 
मिसिरपुरा , लहरतारा 
वाराणसी , उ.प्र. 221002

फोन न. - 09820813904
         09451887246

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