विमल चन्द्र पाण्डेय
पिछले चौदह सप्ताहों से 'सिताब दियारा' ब्लाग पर विमलचन्द्र पाण्डेय का यह रोचक संस्मरण चल रहा है | इलाहाबाद के दिनों को याद करते हुए विमल ने न सिर्फ अपनी यादों को खंगाला है , वरन उस दौर के समय को भी जांचा और परखा है | हमारी और पाठकों की ईच्छा तो यह थी , कि यह कभी समाप्त ही न हो , लेकिन ऐसी इच्छाएं न तो आज तक पूरी हुई हैं , और न हो सकती हैं | अगली कुछ किश्तों में यह संस्मरण समाप्त हो जाएगा | लेकिन हम आशावादी लोग इस बात मे सदा से जीते आये हैं , कि जब तक जीवन है , ऐसे संस्मरण भी बनते ही रहेंगे | ये दिन इलाहाबाद के थे , अगले दिन कही और के होंगे | तो विमल भाई से यही कहना है , कि जिस तरह से आपने उन दिनों को याद रखा , अपने वर्तमान और भविष्य पर भी वही पैनी दृष्टि रखियेगा | खैर.....
यात्रा में रहने के कारण पिछली किश्त को विमल पूरा नहीं लिख पाए थे | इस बार संदर्भो को जोड़ने के लिए पिछली किश्त की कुछ बातों से शुरुआत की जा रही है | बात उनके मित्र दुर्गेश और संघ के समर्पित कार्यकर्ता नीरेन जी की चल रही थी |
तो पढ़िए सिताब दियारा ब्लाग पर विमल चन्द्र पाण्डेय के संस्मरण
ई इलाहाब्बाद है भईया की
पंद्रहवीं किश्त
23...
नीरेन जी दुर्गेश की तरह कच्चे संघी नहीं
थे जो किसी लल्लू पंजू के समझाने और उसकी बहसों से उसका मन बदल जाता. वह जीवन भर
शादी न करने वाले और पूरे नियम से शाखा जाने वाले जवान थे जो अब संघ की इस समाचार
एजेंसी में बतौर संवाददाता आ गए थे जिसके बारे में दुर्गेश हमेशा कहता रहता था,
“बिमल भाई एके संघ से कौनो मतलब नै न, उ अलग चीज़ है और इ अलग.” दुर्गेश की
स्पष्टवादिता को हम सब बहुत मिस कर रहे थे. अब कोई नहीं था जो समोसे की दुकान पर
समोसा खाते हुए हलवाई की तरफ ऊँगली उठा कर कहें, “सड़ा आलू डालत है इ समोसा में
तब्बे तो एकर दुकान नै चलत.” या किसी कांफ्रेस के बाद पत्रकारों के बीच नाश्ता
करता हुआ कहें, “हम्म ई लोकल चैनल वाले तो खाली खाए आवत हैं हियाँ.”
नीरेन जी नियमों के मामले में वह बहुत
पक्के थे और उनका चेहरा देख कर उनका इतना सम्मान करने का मन होता था कि मैं सम्मान
करना सीखने का कोई कोर्स ज्वाइन करना चाहता था. वह बाहर का पानी नहीं पीते थे और न
चाय के अलावा कुछ बाहर खाते थे. पैदल वह इतना चलते थे कि अगर ओलम्पिक में पैदल
चलने की प्रतियोगिता होती तो वह निसंदेह स्वर्ण पदक ले आते. उनके मित्र संतोष और
वह दोनों लोग नियम से मृत्युंजय महादेव का दर्शन करते और दुनिया से खुश रहते.
संतोष इलाहाबाद उच्च न्यायालय में बतौर अधिवक्ता प्रेक्टिस करते थे और गाजीपुर के
निवासी थे. गाजीपुर बलिया के मूल और खांटी निवासियों की तरह संतोष जी भी हिंदी के
फॉण्ट पर बहुत अभ्यस्त नहीं थे. हिंदी फॉण्ट में बोलते-बोलते अचानक उनका फॉण्ट बदल
जाता और वह बलियाटिक भोजपुरी में आ जाते. दो से तीन पंक्तियाँ अगर उन्हें लगातार
हिंदी में बोलनी होतीं तो वह ज़्यादा से ज़्यादा दूसरी पंक्ति के बाद अपना फॉण्ट
चेंज कर देते. हम अचानक बदलने वाले फोंट्स का कारण नहीं समझ पाते. मैं भी मूल रूप
से बलिया का हूँ और अपने दोस्तों और घर के बाहर भले बनारसी भोजपुरी बोलूँ, घर में
माँ और पापा से आज भी बलियाटिक भोजपुरी में बात की जाती है. संतोष जी के फॉण्ट
बदलने पर मैं भी फॉण्ट बदल लेता और हम जिस फॉण्ट में बात करते वह विवेक के सिस्टम
में इंस्टाल नहीं था जिसके कारण वह नाराज़ हो जाता और उसने संतोष का नाम ही फॉण्ट
रख दिया था जिस नाम से उन्हें आज भी पुकारा जाता है. संतोष और नीरेन दोनों मित्र
अक्सर साथ साथ रहते और खाने को लेकर ढेरों संस्मरण सुनाया करते. जैसे संतोष के
गांव में कोई था जो पानी से पूड़ी छान देता था, नीरेन जी के गांव में एक आदमी था जो
डेढ़ सौ पूड़ियाँ खा जाया करता था.
“बै मरदे, एतने ? हमरी गांव में एगोड़ा बा
जवन एक बेर में दु सौ पूड़ी आ बीस किलो दही खा जाला.”
मैं समझ नहीं पाता कि आखिर इन लोगों को
ऐसी बातें करने के लिए कौन सी भावना काम करती है. भोजन शब्द उनकी बातचीत में हर
बीस मिनट के बाद आता एयर इसका कतई ये मतलब नहीं कि वे बहुत खाते थे. हाँ, उनकी बातचीत में ‘भोजन’, ‘पकवान’ और
‘खाना’ टाइप की चीज़ें बड़े उत्तेजक ढंग से आती थीं. खाने के बारे में बात करते हुए
वे खासे रूमानी हो जाते और बताने लगते कि कब उन्होंने अपनी ज़िंदगी की सबसे यादगार
खीर खायी थी. मैं शुरू-शुरू में बड़ा परेशान रहता कि उनकी बातों में न लड़कियों का
ज़िक्र होता, न साहित्य समाज की कोई बात होती और न ही फिल्मों को वे चर्चा करने
लायक विषय मानते. वे किसी गांव में अपने प्रवास के बारे में बताते कि कैसे एक बार
भोजन के वक्त उन्हें एन वक्त पर पता चल गया कि जिस घर में वे खाने जा रहे हैं वहाँ
के लोग मांस मछली (छी छी) खाते हैं और उन्होंने वहाँ से भाग कर अपना धर्म बचाया.
वो धर्म पर बहस करने लायक आदमी नहीं थे क्योंकि उनके यहाँ धर्म कोई बहस वाला नहीं
बल्कि मानने वाला विषय था और मैं बहस करने वाला आदमी था. मैं थोड़ी ही देर में उठ
जाता और अड्डेबाजी करने के लिए कोई और अड्डा तलाशने लगता. नीरेन जी को उनके दोस्त
शादी करने के लिए दबाव देते, घेरते और वह शादी न कर अपना जीवन देश की सेवा (ज़ाहिर
है संघी गतिविधियों के ज़रिये) करने की रूचि ज़ाहिर करते. एक बार कई दोस्तों से घिरे
नीरेन जी ने सबको ख़ामोश करने के लिए खुल कर बताया कि वह दरअसल शादी न करके अपना
जीवन देश के विकास और संस्कृति की रक्षा के लिए देना चाहते हैं. वह विवेकानंद के
रास्ते पर चलना चाहते हैं. मैं उनका वह आत्मविश्वास और उस आत्मविश्वास से कही गयी
वह बात नहीं भूल सकता जब विवेकानंद के बारे में अपने एक मित्र की टिपण्णी के विरोध
में उन्होंने कहा, “मैं विवेकानंद से अपनी तुलना नहीं कर रहा लेकिन काम वैसे ही
करना चाहता हूँ.” विवेकानंद से अपनी तुलना किये जाने का वाक्य अपने आप यह बताता था
कि वह खुद को विवेकानंद का मिनी संस्करण समझ रहे हैं और इसके बाद मैंने कभी उनके
दोस्तों के समर्थन में भी उन्हें शादी के लिए नहीं समझाया.
उनके घर जिसे ‘आवास’ कहना ठीक होगा, पर
संघी मित्रों का अक्सर जमावड़ा लगा रहता और जिस दिन वहाँ बैठक होती उस दिन जो ‘भोजन’
बनता उसे खाना कतई नहीं कहा जा सकता. मैं संघ की कार्यप्रणाली और विचारधारा का भले
विरोधी होऊं, वहाँ का स्वादिष्ट भोजन नहीं भूल सकता. जब भोजन सामने आता तो मेरे
आसपास के सभी लोग श्रद्धा से हाथ जोड़कर कोई मंत्र पढ़ते और मैं कोई मंत्र न जानने
वाला मूढ़ बन कर बैठा उनके चेहरे निहारता रहता. भोजन की थाली में पतली-पतली गरम
रोटियाँ रखी होतीं जिनसे भाप निकलती रहती, एक कटोरी में दाल होती जिसके ऊपर घी की
हल्की सी परत होती, एक तरफ बिना लहसुन प्याज की सात्विक सी सब्जी होती जिसे देखने
में कतई पता नहीं चलता (और न ही खाने में) कि इसमें लहसन प्याज की कमी है, एक
प्लेट में सलाद इतने सलीके से रखा होता कि उसे खाने से ज़्यादा देखने का मन होता.
यह भोजन मंत्र पढ़ा जाना डिजर्व करता था और जब वे लोग मंत्र पढ़ते तो मैं भी उनका
देखा देखी बुदबुदा लेता ताकि उन्हें मेरे मंत्र न आने और खाने पर मंत्रमुग्ध हो
जाने का पता न चले. “बहुत सही खाना मिला है आज बहुत दिनों के बाद” बुदबुदाने के
बाद मैं उनका देखा देखी खाने को संयम से खाता और मौका मिलते ही अपनी बगल में बैठे
विवेक से कहता, “साला, खाने की इतना इच्छा तो चिकन भी नहीं जगाता जितना ये सात्विक
खाना जगा रहा है.” विवेक फुसफुसा कर डपट देता, “साले ये सब शब्द न बोलो नहीं तो
अगली बार से तुमको भगा दिया जायेगा.” मैं चुपचाप खाने लगता. मैंने एकाध बैठकें भी
आधी-अधूरी अटेंड कीं लेकिन मुझे कुछ ख़ास पता नहीं चला कि वे लोग मोटा-मोटी किस
मुद्दे पर चर्चा करना चाहते हैं. देश पर बात करते करते बात भोजन पर आ जाती और हर
बार की बैठक में यही तय होता कि अगली बैठक का समय क्या होगा. मैंने इस बात कि
चर्चा वहाँ के लोगों से की और कहा कि आप लोग सिर्फ़ टाइम पास करते हैं तो किसी संघी
ने मुझे एक दोहा सुनाया जो उनके हिसाब से संघ के बारे में बताता था. मुझे किसने
बताया ये तो याद नहीं है लेकिन दोहा कुछ यूँ था,
“संघ के हैं तीन
आयाम
भोजन, बैठक और विश्राम.”
मैं संघ के बारे में पहली बार किसी बात से
शत-प्रतिशत सहमत हुआ.
२४-
नया ज्ञानोदय में मेरी कहानी ‘एक शून्य
शाश्वत’ प्रकाशित हुई थी जो मेरी तब तक सबसे लंबी कहानी थी और उसकी तारीफ बहुत से
वरिष्ठ साहित्यकारों और आलोचकों ने भी की थी. ये एक महत्वाकांक्षी कहानी थी जिसे
कम से कम आठ बार लिखना शुरू कर छोड़ चुकने के बाद मैंने चार साल में पूरा किया था.
हर रोज़ देश के कोने-कोने से फोन आते थे और ज़्यादातर लोग नम आवाज़ में फोन करते और
ज़्यादा कुछ न कह पाते. कई पाठकों ने बाकायदा रोते हुए फोन किया और कहा कि इस कहानी
के बाद अब मैं कुछ न भी लिखूं तो कोई बात नहीं. कोलकाता से मोहन किशोर दीवान जी ने
कहा कि उन्हें अब भी विश्वास नहीं हो रहा कि इस कहानी के लेखक की उम्र सिर्फ़ २६-२७
वर्ष है, उनकी तरह बहुत से वरिष्ठ रचनाकारों ने कहा कि मैं अपनी पीढ़ी के सभी
रचनाकारों से अलग हूँ. ज़ाहिर है मैंने उनकी बातों को बहुत गंभीरता से नहीं लिया और
अपनी अगली कहानी में लग गया जो मैं आरा से निकलने वाली पत्रिका ‘जनपथ’ के लिए लिख
रहा था. मुरलीधर और मुखातिब जैसी संज्ञाओं ने मुझे इस लायक बनाने में कोई कसर नहीं
छोड़ी थी कि मैं लिखने के बाद अक्सर समझ ही जाता था कि कहानी में कहाँ-कहाँ कमियां
छूट गयी थीं और वे कमियां चाह कर भी मुझे खुश नहीं होने देती थीं. प्रतिक्रियाएं
इतना ही करती थीं कि कहानी की स्वीकार्यता को लेकर मन में एक खाका बना देती थीं कि
इसे मोटा-मोटी इस तरीके से लिया जा रहा है. ऐसे में ही एक दिन मेरे मोबाइल पर एक
फोन आया.
“विमल बोल रहे हो ?”
“जी हाँ, बोल रहा हूँ.”
“ज्ञानोदय में जो कहानी आई है ‘सुन्य
सास्वत’, वो तुम्हारी ही लिखी हुई है?”
“जी हाँ.” मैंने स्वीकृति दी और अब तक की
आई प्रतिक्रियाओं के मद्देजज़र इसे भी कान रोप के सुनने लगा कि कहानी के किस पहलू
की तारीफ की जाती है. पाठक लेकिन अभी और जानकारियां लेने के पक्ष में था.
“ब्राह्मण हो ?”
“जी पैदा तो ब्राह्मण के ही घर में हुआ
हूँ.”
“बनारस के रहने वाले हो ?”
“हाँ...कहानी कैसी लगी आपको?” मैं अब
रैपिड फायर टाइप सवालों से उबने लगा था.
“ये कहानी है भोसड़ी वाले ? मारेंगे
माधरचोद होस में आ जाओगे.”
“कौन बोल रहा है ?”
“तुम्हारे बाप बोल रहे हैं, ई सब का कचरा
लिखे हो साले ? सही में पंडित हो कि मलेच्छ हो?”
उधर से उत्तेजित और क्रुद्ध आवाज़
आई. टोन मुझे इलाहाबाद का ही लगा. लेकिन मैं शक करता भी तो किस पर ? संघ में जो
मेरे परिचित लोग थे, उनमें से कहानी कविताएँ पढ़ने वाला कोई नहीं था. अगर वहाँ का
कोई मुझे गरियाता तो मैं खुश ही होता कि चलो कम से कम इसीलिए सही, ये लोग पढ़ तो
रहे हैं. खैर, मैंने एक बनारसी होने के नाते गालियों का जवाब गालियों से दिया और
अगले से दो कदम आगे बढ़ कर गालियाँ दीं जिससे सामने वाला थोड़ा हैरत में आ गया और
तभी उसका फोन किसी और द्वारा छीन लिया गया.
“तुमने जो कहानी लिखी है वो दुनिया की
सबसे झान्टू कहानी है. अध्यात्म के महत्व को न समझते हो तुम न धर्म के. तुम्हारे
जैसे चूतिये लोगों की वजह से हमारा धर्म बदनाम है.”
मैंने उसी की भाषा में उसे धमकाया कि यह
नंबर मैं डीआईजी को देकर सर्विलांस में लगवा दूँगा और उसके एक नाज़ुक स्थान पर
पुलिस जब डंडे का उपयोग करेगी तो उसे अपनी अभद्रता का फल मिलेगा. अगला ज़रा भी
अर्दब में नहीं आया जिससे मैं समझ गया कि मामला लोकल है और सामने वाला मुझे जानता
है.
“कान खोल कर सुनो, पुलिस वुलिस की धमकी
हियाँ देना मत. पत्रिका के अगले अंक में एक स्पष्टीकरण लिख कर भेजो कि ये कहानी जो
तुमने लिखी है उसके लिए बहुत शर्मिंदा हो और लिख कर माफ़ी मांगो नहीं तो बेटा
कीडगंज में रहते हो न, निकलो बाहर और थूर दिया जाईगा तुमका बल भर.”
मैं ऐसा कैसे करूँ, इसके लिए उसके पास एक
पूरी रणनीति थी कि मैं उस पत्र में लिखूं कि मुझे सपना आया और सपने में एक भगवान
आये. उसकी रणनीति खत्म होने से पहले ही मेरी प्रेमिका का फोन आ गया और मैंने यह
कहते हुए फोन काट दिया कि भाई साहब मेरी होने वाली पत्नी का फ़ोन आ रहा है, आप पूरी
योजना बना कर थोड़ी देर बाद फिर से फ़ोन करें. मैंने अपनी प्रेमिका को बताया कि मुझे
आज मेरे लेखन कैरियर में पहला धमकी भरा फ़ोन आया है और अब मुझे भीतर से बड़े लेखक
जैसा महसूस हो रहा है, जी चाहता है इसे अखबार में दे दूं. उसने मुझे मना किया और
कहा कि बड़े लेखक होने का लक्षण ये होना चाहिए कि मैं इसे रत्ती भर तूल न दूं और एक
बेवकूफ की बेवकूफी समझ कर भूल जाऊं.
उस समय की मेरी मनःस्थिति में मैं वाकई
बड़ा लेखक बनना चाहता था. मैं इस घटना को तुरंत भूल गया. उसके बाद भी मैं अपनी
कहानियों पर धमकी भरे फोनों का इंतजार करता रहा पर उसके बाद कोई ऐसा फ़ोन नहीं आया.
शायद बड़ा लेखक बनने का अब कोई चांस नहीं.
संतोष प्रधान जी दिल्ली विश्वविद्यालय में
पत्रकारिता के दौरान मेरे गुरु रहे मेरे पसंदीदा व्यक्तित्वों में से एक आनंद
प्रधान के परिवार से ताल्लुक रखते थे और राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय से
पत्रकारिता में शोध करने के इच्छुक थे. आनंद जी की बात आते ही वे श्रद्धा से भर
जाते थे और कहते, “चाचा के हम बहुत आदर करीला.”
मैं कहता, “एम्मे कवन नया बात बा. उ तोहार
चाचा हवें तब तुं करेल. हम आ अउर बाकी लोग त एहितरे बिना भतीजा भईले उनकर आदर
करींला जा.”
मेरी याद्दाश्त के अनुसार संतोष जी जब हम
दोस्तों से शोध के लिए टॉपिक चुनवा कर संतुष्ट नहीं हुए तो उन्होंने अपने चाचा से
मदद मांगी और कुछ दिन बाद जो टॉपिक लेकर आये वह कुछ ऐसा था- ‘भूमंडलीकरण के दौर
में मीडिया कानूनों की प्रासंगिकता’. टॉपिक अच्छा था लेकिन इसमें क्या-क्या आयेगा,
यह उन्हें ठीक से समझ में नहीं आ रहा था. पहले उन्होंने भूमंडलीकरण को ठीक से
समझने की सोची. नीरेन जी के कंप्यूटर पर बैठ कर वह दिन भर भूमंडलीकरण पर लेख खोजते
रहते और उनकी योजना थी कि इसपर ढेर सारे आलेख जुटा लेने के बाद वह मीडिया कानूनों
पर आलेख जुटाएंगे. इन दोनों मुख्य विषयों पर सामग्री चुनने के बाद आराम से समझा
जायेगा कि इन दोनों का प्रासंगिकता से क्या लेना देना है. दिक्कत यह रही कि वह जब
भी अगली सुबह मिलते, बताते कि कल जो सामग्री डाउनलोड की है उसमे कुछ स्पष्ट नहीं
है.
“एगो त अंग्रेजी में बा आ दूसर भूमंडलीकरण
के माने बतवलहीं नइखे आ लागल बा एन्ने ओन्ने के बात बतावे.”
मैं जब तक इलाहाबाद में रहा, वो
भूमंडलीकरण के पहलुओं पर शोध करते रहे. उसके बात उन्होंने मीडिया कानूनों पर भी
इतना ही शोध किया होगा. उनकी पीएचडी होने के बाद मैं उनसे एक शानदार पार्टी लूँगा,
जिसमें वो मुझे और नीरेन जी को ग्रीन स्वीट हाउस, बैरहना में दही जलेबी के साथ रसमलाई
खिलाएंगे और चाय पिलाएँगे, ऐसा मैंने सोच रखा है.
नीरेन जी बहुत आज़ाद किस्म के आदमी थे और
काम करने के उनके अपने तरीके थे. उन्हें मैंने न कभी बाहर का कुछ खाते पीते देखा
और न ही कभी किसी को कोसते हुए. ख़बरें भेजने के लिए जब दबाव आता, वह खुद को दूसरी
चर्चाओं में मसरूफ कर लेते और दबाव हद से बढ़ने पर किसी फ़िल्मी हीरो की तरह कहते,
“मैं नौकरी को जूते की नोक पर रखता हूँ.” आज के नुकीले समय में ऐसे बयान
अविश्वसनीय ढंग से अच्छे लगते लेकिन इनका साइड इफेक्ट ये हुआ कि कुछ ही समय बाद
उन्हें अपने जूते झटकने पड़े और जूते की नोक पर रखी ये नौकरी उन्हें छोड़नी पड़ी.
वैसे वह अक्सर चप्पलें ही पहना करते थे.
मेरे घर वाले मेरी शादी के लिए तब से
घेराघारी कर रहे थे जब मैं २३-२४ का था. मैंने उन्हें अपने करियर की दुहाई देकर
टाल रखा था. यूएनआई में मेरी नौकरी लगने के बाद जब फिर से वह घेरेबंदी शुरू हुई तो
मैंने कहा कि अभी नौकरी अस्थायी है और मैं कन्फर्मेशन हो जाने के बाद कुछ सोचूंगा.
कन्फर्मेशन हो गया और घर वालों ने शादी के लिए आ रहे फोटोग्राफ्स को इकठ्ठा करना
शुरू कर दिया. मैं जब भी बनारस जाता, मेरे सामने छह-सात तस्वीरें रख दी जातीं और
सबके बायोडाटा मेरी माताजी पढ़ कर सुनाने लगतीं. मेरी कहानियों पर
प्रतिक्रियास्वरूप पाठकों के जो फोन आते, उनमें आश्चर्यजनक रूप से एक बड़ी संख्या
लड़कियों की थीं और लड़कों की तरह ज़्यादातर लड़कियाँ भी मेरी अच्छी दोस्त बन जातीं.
मेरे लिए ये सब नया-नया था और मुझे भी इसमें बहुत मज़ा आता. मैं बनारस भी जाता तो
पाठिकाओं के फ़ोन भारी मात्रा में आया करते और मैं उनके साथ साहित्य चर्चा के
साथ-साथ व्यक्तिगत बातें भी करता. वो अगर थोड़ी छूट भी ले लेतीं तो मैं मना नहीं कर
पाता. एक लड़की मुझे देर से फोन उठाने पर इस तरह डांटतीं गोया वो मेरी गर्लफ्रेंड
हों. एक कहती कि मैं और लड़कियों से बातें ना किया करूँ. मैं इन बकवासों के विरोध
में ज़्यादा मुखर होकर उस समय नहीं बोल पाता था क्योंकि यह शुरुआत थी और कहीं न
कहीं मैं इस स्थिति को एन्जॉय करता था. इस विषय में विवेक का मत था कि लड़के हों या
लड़कियाँ, मुझे हमेशा नमूने ही मिलते हैं क्योंकि मैं दुनिया के सब नमूनों को ऊपर
से अपनी किस्मत में लिखवा के लाया हूँ. मेरी माताजी इतनी अलग-अलग लड़कियों से मुझे
बात करता देख दुखी हो जातीं.
“हमरा बुझात रहल हा कि अब तुं धीर गंभीर
हो गईल बाड़े बाकी अब्बो.....”
उनका दुख वाजिब था. लड़कियों से मेरी
दोस्ती बचपन से ही लड़कों की बनिस्पत जल्दी हो जाया करती थी और मेरी माँ को विभिन्न
मामलों में मेरी शिकायतें तब तक सुननी पड़ी थीं जब तक मैं बारहवीं का छात्र था.
इसके बाद मैंने नाज़ुक मसलों को घर के बाहर सुलझाना सीख लिया था. अपने बचपन के दोस्तों
में मैं शायद सबसे औसत दिखने वाला लड़का था पर लड़कियाँ सबसे अच्छी खासी मेरी दोस्त
होतीं (अगर दोनों बातों का कोई सम्बन्ध होता हो). दोस्तों को तब और आश्चर्य होता
कि मैं लड़कों और लड़कियों से एक ही भाषा में बात किया करता था और कई बार कोई गाली
निकल जाने के बाद मुझे अंदाज़ा होता कि मैंने एक लड़की के सामने ऐसी गाली दे दी है.
बहरहाल, माँ को लगने लगा कि मैंने कोई लड़की पसंद कर रखी है और इसीलिए मैं शादी को
टाल रहा हूँ. उन्होंने पूछना तब से शुरू किया था जब मेरी ज़िंदगी में कोई नहीं था
और अब उसके मेरी ज़िंदगी में आने के बाद मुझे शादी करने की इच्छा होने लगी थी, तब
तक जब तक उसने मुझे शादी के लिए मना नहीं किया था. घर से दबाव बहुत था और मैं शादी
के लिए रज़ामंदी दे चुका था. इसके पहले पिछले चार पांच सालों से मैं अकेला अपने माँ
और पापा से अपने छोटे भाई के प्रेम विवाह के लिए लड़ रहा था और उन्हें लगातार
कन्विंस करने की कोशिश कर रहा था. वो लोग कतई तैयार नहीं थे और लगातार सालों
समझाने के बाद अब धीरे-धीरे पॉजिटिव हो रहे थे. माँ ने कहा कि मैं कम से कम उनकी
मर्ज़ी से शादी करूँ ताकि उनके सब अरमान निकलें और मैंने क़ुरबानी वाले अंदाज़ में
सहमति दे दी थी. वह भी यही चाहती थी कि मैं जल्दी से शादी कर लूं.
देर रात तक आने वाले फ़ोन कुछ समय बाद
परेशान करने लगे थे और विवेक का कहना सही लगने लगा था कि आदत मत बिगाड़ो आपन, सही
से रहो. मैंने धीरे-धीरे विवेक की बात पर अमल करना शुरू किया |
क्रमशः......
प्रत्येक रविवार को नयी किश्त ....
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फिल्मो में विशेष रूचि
मज़ा आया. हर रविवार इंतज़ार रहता है कि विमल भाई की अगली किश्त मिलेगी पढ़ने को. आज के प्रसंग में कहानी पर आया प्रसंग खांटी इलाहाबादी रहा. अक्सर यह तेवर इलाहाबाद में छात्रावासों में मिल जाया करता है.
जवाब देंहटाएंबधाई देने का मन कर रहा है...
रामजी भाई आपने यह बता कर थोड़ा दुखी किया है कि यह श्रंखला जल्दी ही समाप्त हो जायेगी..
IS BAAR KA BHI KAM HAI.....
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