बुधवार, 28 जनवरी 2015

सोनी पाण्डेय की कहानी - परिवर्तन



    

      


       आज सिताब दियारा ब्लॉग पर सोनी पाण्डेय की कहानी 

                

             ===   परिवर्तन    ===



आसमान काले मेघोँ से पट गया था . बारिश किसी भी वक्त शुरु हो सकती थी ।

मैँ तेजी से कदम बढाते हुए किसी तरह मुख्य मार्ग तक पहुँचना चाहती थी .

अचानक किसी ने पीछे से आवाज दी . . . ....  मैडम जी....


मैँने पीछे मुड कर देखा तो लक्ष्मीना भागी आ रही थी. हल्की फुहारे पडने

लगी, मैँने छाता खोल लिया । वह हाँफती हुयी मेरे निकट पहुँच चुकी थी ,

झट से छाते के नीचे आते हुए मेरा हाथ जोर से पकड लिया . भरभराऐ हुए गले

से कहा - मैडम जी अब आपे बचा सकती हैँ ।


क्या हुआ ? मैँने आश्चर्य से पूछा । मैडम जी तहसीलदार को दरखास डालनी है,

हमारा सबसे अच्छा रोड पर खेत परधान अपने चक मेँ ले गया , बुढिया कुछ करती

नहीँ ,घर के दुनोँ मरद बेकार , उनका होना न होना दोनोँ बराबर है । आँचल

के कोर से बार -बार आँसू पोँछती , मैँने ढांढस बधाया । मैडम जी मरद घर

मेँ चुडी पहने परधान के डर से बैठा है. आपे बताऐँ हम क्या करेँ , खेत हाथ

से निकले जाता है , लेखपाल परधान की परती हमेँ थोपता है । वो काफी बेचैन

थी , बडी दृढता से कहा - मैडम जी हार नहीँ मानुँगी . जो बन पडेगा आखिरी

दम तक करुँगी । अब तक हम एक किलोमीटर का पैदल रास्ता पार कर मुख्य मार्ग

तक पहुँचुके थे । हम आटो मेँ बैठ अपने - अपने गनत्व्य को रवाना हुऐ और

बात आयी गयी, मैँ भूल गयी ।


दो माह बाद विद्यालय के गेट पर देखा तो लक्ष्मीना की सास माथा धुन धुन रो

रही थी । पूछने पर एक ग्रामीण वृद्धा ने मुँह बिचका कर कहा . भ ईल क

कलजुग मेँ पतोह सास के मारत हयीँ बहिन जी । जन समूह की सहानुभूति सास के

साथ थी , सभी बहू को धिक्कार रहे थे । मैँ भीड से कटकर आगे बढी ,ये इनके

आये दिन की कहानी थी अन्तर आज केवल इतना था आज बहू की जगह सास पिटी थी ।

आगे बढते ही लक्ष्मीना सामने पड गयी . तमक कर बोली - जिनगी भर हमके थुरली

तौ . तौ त केहू ना आईल , आज मजलिस लागल ह ।


क्रोध मेँ हाँफते आज वह साक्षात रणचण्डी बनी थी . मैँने चुपचाप हटना उचित समझा ।

अगले दिन विद्यालय के नल पर लक्ष्मीना नित्य की भाँति पानी लेने आयी ,

मेरी कक्षा गर्मी के कारण वहीँ आम के पेड के नीचे लगी थी , वह बाल्टी

छोडकर मेरे कुर्सी के पास आकर बैठ गयी, आँखोँ मेँ अपराधबोध का भाव स्पष्ट

था ।कुछ देर चुप रहने के बाद बोली -मैडम जी का करेँ, बुढिया मानती ही

नहीँ, घूम घूम कर कहती है , लेखपलवा नचा रहा है ,रण्डी हो गयी है .

हाकिमोँ संग सो रही है ।


मैँने बात को काटते हुए पूछा - तुम्हारे खेत का क्या हुआ ?


लक्ष्मीना ने मुस्कुराते हुए कहा - मैडम जी तहसीलदार साहब के दखल से

परधान की दाल नहीँ गली ।लेखपाल पीछे हट गया । ज़मीन पुरखोँ से हमारी है .

कागज पत्तर देखकर साहेब बहुत डांटे लेखपाल को ।बर्खासगी को कहते थे .

लेखपाल की हिक्की पिक्की हेरायी थी । मैडम जी बहुत दौडी तहसील से लेके

जिला तक , इधर परधान दिन रात बुढिया का कान भरता था - एक दिन छानी मेँ से

सुने थे - कहता था ढेला की माई . अईसे हाकिम लोग सुनते हैँ . अरे कुछ

देती होगी तब कुछ लेती होगी ससुरी ।


मैनेँ फिर टोका


बाद मेँ बात करुँगीँ , अभी कुछ पढा लूँ । वह अनमनी सी उठ कर पानी लेकर

चली गयी । मुझे लगा वह अभी भी कुछ कहने को बेचैन है ।


छुट्टी मेँ मेरे गेट से निकलते ही भागती हुई आके मुझे छेँक लिया , उसकी

आँखोँ मेँ कुछ कहने की आतुरता थी । मैँने मुस्कुराते हुए कहा , अब क्या

हुआ ।


मेरा हाथ पकड कर अपनी चाय की दुकान जो स्कूल के बाहर मडयी मेँ चलती थी

लेगयी । चौकी पर बिठाते हुए बडे प्यार से एक चुक्कड चाय केतली से ढारते

हुए बडे स्थिर मन से बोली - का करेँ मैडम जी , मरद को दिन भर पीने से

फुर्सत नहीँ ,ससुर दिन रात चम्पावा के चकले पर . अब आप ही बताऐँ चार चार

बच्चोँ को भूखा मरते . हक मराते तो नहीँ देख सकती ह मैडम जी । आँखोँ से

आँसू बह चले थे . मेरा मन भर आया । हाँ हमने किया है बहत्तर करम अपने जाऐ

के लिए । जिसको जो कहना है कह ले परवा नहीँ ।पल्लु सम्भालती हुई चाय का

भगोना आग पर चढाने लगी । मेरे हाथ मेँ खाली चुक्कड अभी भी था , उसकी

साफगोई पर मैँ मुग्ध उसे एक टक निहारती रही । मेरे हाथ से चुक्कड लेकर

फेंकते वक्त वो मुस्कुरा रही थी ।


जाडे की आहट से गाँव का सिवान सिमट रहा था । किसान खेतोँ से लौट रहे थे ,

उसकी बातोँ मेँ समय का खयाल ही नहीँ रहा । मैँ तेज कदमोँ से चली जा रही

थी . वो पीछे खडी मुझे निहार रही थी . अचानक मैँने पीछे मुडकर आज फिर

देखा , वो दूर से हाथ हिला रही थी . मैँने मन ही मन एक माँ की जिवटता को सलाम किया ।अब 

वो केवल एक माँ थी ।



परिचय और संपर्क

डा. सोनी पाण्डेय

जन्मस्थान – मऊनाथ भंजन, उत्तर प्रदेश

पेशा – अध्यापन


साहित्यिक पत्रिका ‘गाथांतर’ का संपादन