बुधवार, 28 मई 2014

'उपासना' की दो कवितायें





युवा कथाकार ‘उपासना’ को हम लोग उनकी बेहतरीन संवेदनशील कहानियो के कारण जानते हैं | उन कहानियों के लिए, जिनमें भाषा का कमाल तो है ही, गँवई समाज की अद्भुत समझ भी है | लेकिन आज उनकी इन कविताओं को पढ़कर कह सकता हूँ कि वे एक संवेदनशील कवयित्री भी हैं | ‘उम्मीद करता हूँ कि माफीनामा’ कविता पढ़कर आप भी मुझसे सहमत होंगे | इन कविताओं ने उनसे हमारी उम्मीदों का विस्तार और व्यापक कर दिया है |   


          आईये पढ़ते हैं, सिताब दियारा ब्लॉग पर युवा साहित्यकार      
                       ‘उपासना’ की दो कवितायें



एक ...


माफ़ीनामा 



सुनो न सौरभ,
हर रात जब मैं,
सुबह उठने के लिए,
सोने जाती हूँ,
तब याद आती है मुझे,
तुम्हारी पानी सी मुस्कुराहट!
तुम्हारी टेढ़ी-तिरछी लिखावट,
तुम्हारे उल्टे-पुल्टे क...ख...ग.
तुम्हारी चार लाइन की पटरी से,
उतरी हुई ए...बी...सी.
और इन सबसे ज्यादा,
याद आती है,
तुम्हारी आँखों में पसरी हुई हैरानी,
जब तुम्हें हमेशा दुलारने वाली मिस ने,
सटाक से जमाई थी छड़ी,
तुम्हारी नन्हीं-नन्हीं गुलाबी हथेलियों पर,
तुम रोये नहीं थे जरा भी,
बस भकर-भकर ताकने लगे थे मेरा मुंह,
अम्मा कहती हैं कि-
हाथ के पाँचों अंगुरी ना होखे बराबर,
“लेकिन महतारी के सबसे होखेला बराबर प्रेम”,
लेकिन अब,
लगता है मुझे कि-  
अब तक फुसलाती रही हैं अम्मा हमें.
किसी न किसी संतान से,
माँ को हो ही जाता है विशेष प्रेम.
हाँ, मैं तुम्हें सबसे अधिक प्रेम करती हूँ,
इसलिए नहीं कि...
तुम गोलू-मोलू से बड़े प्यारे,
और चलते हो तुलमुल-तुलमुल.
इसलिए कि...
तुम्हारी चुप्पी से भी ज्यादा,
बातूनी है तुम्हारी मुस्कुराहट,
मैं जब वाटर बौटल की ओर,
देखती हूँ उम्मीद से,
और सोचती हूँ कि किस बच्चे से कहूं,
तब तक पता नहीं कैसे,
तुम पहचान जाते हो वह उम्मीद,
और आखिरी टेबल से लाकर,
थमा देते हो मुझे मेरी बौटल.
कोई बच्चा जब अपनी रबर भूल जाता है,
और गलती के बाद,
उलझा हुआ इधर-उधर देखता है,
तुम बिन कहे फ़ुदक कर...
थमा देते हो उसे अपनी रबर,
अपनी प्यारी मुस्कुराहट के साथ.
लेकिन सौरभ,
आज मुझे ये सारी बातें नहीं करनी हैं,
मुझे तुमसे मांगनी है माफ़ी,
हालाँकि मैं शत प्रतिशत आश्वस्त हूँ,
कि मुझे मिल ही जायेगी माफ़ी!
क्योंकि मैं हूँ शातिर...
दुलार कर अपने खाते में जोड़ लूंगी माफ़ी,
और तुम हो इतने मासूम, कोमल...
कि दुलार से पिघल कर कर ही दोगे मुझे माफ़!
सुनो...
तुम्हारे शिक्षकों के पास हैं,
ढेरों नाकामियां, निराशाएं, उपेक्षाएं,
अधजगे रातों की कतरने,
जब इनका बोझ हमारी आत्माओं पर,
तुम्हारे मुस्कुराहट से,
पड़ने लगता है भारी,
तब एक जबर,
बड़ी बेहयायी से हावी हो जाता है,
तुम्हारी कोमल पीठ पर,
या नन्हीं-नन्हीं गुलाबी हथेलियों पर.
ठीक वैसे ही...
जैसे हमारे नामी विद्यालय में,
एडमिशन्स कम होने का बोझ बढ़ा दिया जाता है,
शिक्षकों की झुकी हुई पीठ पर!
तुम्हारा बस्ता मेरे बस्ते से,
बहुत है हल्का.
इस अश्लील वज़ाहात की नज़र ही सही,
तुम कर देना मुझे माफ़.




दो ....

सारे बिहारी मित्रों के लिए...  



हावड़ा अमृतसर मेल,
शाम के ठीक सात बजे,
छूटती थी एक स्टेशन से,
और भिनसहरे पहुंचा देती थी,
बक्सर स्टेशन पर,
बक्सर स्टेशन के बाहर,
बलिया-बलिया चिकरते,
ट्रेकरों की भीड़ थी,
थोड़ी दूर पर पाकड़ का पेड़ था,
कुहरे में छिपे कउड़ फूंकते लोग थे,
और नज़ाकत से जागती हुई भोर थी,
तब लालू यादव रेल मंत्री नहीं हुए थे,
और न ही चलती थी सियालदह बलिया,
तब...जब,
बलिया आने के लिए,
नापनी होती थी,
पटना, आरा, बक्सर की दूरियां,
आरा सरकते-सरकते,
रेल की खिड़की के फांकों से,
चिपक जाती थी,
दो जोड़ी टुकुर-टुकुर आँखें...
एक मासूम सवाल,
बड़ीअदा से उछलता था,
“हइजो भोजपुरी में बोलल जाला”
लम्बी रेलगाड़ी की गति से,
ताल मिलाकर खैनी ठोंकते,
तबके काले बालों वाले बाबूजी,
शाइस्तगी से मुंडी हिला देते थे...”हाँ”!
चितरंजन के बाद,
पहला स्टेशन जामताड़ा आता था,
जो कि,
ढेर नागीचा था चितरंजन से,
सो अपना तो था ही!
झाझा के हुए ललन चाचा...
पटना के जे० सिंह, आरा के डिस्को पंडित,
और डुमरांव के बोका दुबे...
यानि की कुल हिसाब इतना,
कि सारा बिहार चिन्हा परिचित है,
छठ नहर थी दो घाटों के बीच,
सो दूर एक परदेश के कारखाने में,
जहाँ अट्ठाईस राज्य और सात केन्द्रशासित प्रदेशों से,
खुदरा पैसे लोग अपने-अपने कुएँ भरने आते थे,
ऐसे में बिहारी मित्रों के एकवट जाने पर,
उस एकवटेपन में अंट जाने की,
तमाम बेतहाशा वजहें थीं हमारे पास,
जैसे कि लेलो हमारी माँ,
जिसने भी बस ‘हाँ नु’ और‘हाँ न’ का अंतर होता था,
हम सबकुछ बच्चे थे जो ‘हाँ नु’ का अभ्यास साधते थे,
हमने मैट्रिक की परीक्षा फर्स्ट डिवीजन से पास की थी,
और हम दुर्गापुर एन०आई०टी० से बी० टेक० कर रहे थे,
वर्द्धमान विश्विद्यालय से अंग्रेजी साहित्य पढ़ रहे थे,
और खोज रहे थे ब्रह्मांड में,
दुनिया जैसी सचमुच की कोई चीज,
जो कि सुनने में आता था कि-
कहीं हेरा गई है!
उस दुनिया में,
अभी भी पटरियों पर,
दौड़ती होगी,
हावड़ा अमृतसर एक्प्रेस,
जहाँ सेकेण्ड क्लास की पटरी वाली सीट पर,
खिड़की में मुंह गड़ाए,
बच्चे स्टेशन अगोरते थे,
और निहारते थे दो खम्भों को जोड़ती हाई वोल्टेज वाली तार!
या खेतों में दौड़ते अपने जैसे बच्चों को,
जो खूब लम्बी ट्रेन को,
टाटा,बाय-बाय करते थे,
खीरे वाला खच्च-खच्च खीरा काटता था,
और काला नून बुरक कर,
हमें खीरा थमा देता था,
घर पर,
एक दूसरे के खून के प्यासे हम जंगली बच्चे,
ट्रेनमें बक्सर की प्रतीक्षा में,
आराम से बाँट कर खा लेते थे खीरा,
और रोते भी नहीं थे,
कि“अम्मा कोरा”!
स्मृतियाँ भगजोगनी हैं,
भुकभुकाएं...
तो अंजोर कर देती हैं भादो की रात,
पर जानते हैं?
हमने, भूगोल भी पढ़ा था,
और हम जानते हैं,
कि धरती गोल है,
और गोल धरती पर,
बड़े क्षेत्रफल वाला एक महान देश भी था,
और बक्सर से दिल्ली की दूरी,
नौ सौ पचास किलोमीटर थी,
और अब उस दुनिया से खबरें आ रही थीं,
कि ट्रेन को दिल्ली से ही वापस लौटा देने की साजिश हो रही थी.
क्योंकि...
पूरब से आने वाली ट्रेनों में,
एक संक्रमण भी आता है,
जो मचाता है उत्पात,
और बजबजाता है महानगरों की सड़कों पर,
टिड्डियों की तरह!
जो सोता है ठेले पर,
और सपनियता है कि,
घर पर पैसे भेजने हैं,
और ठाढ़े मू जाता है.
फिर सपनों के देश में,
पहुँचते हैं पैसे एक लाश समेत,
सरकार हमारी अर्जी है,
कि हमें अच्छी अंग्रेजी आती है,
थोड़ी बहुत हिंदी भी,
हमारे पास प्रबन्धन की खूब भारी डिग्री है,
और हमें आरक्षण का लाभ भी मिलना चाहिए...
क्योंकि,
पुरबिया हम दुअन्नी भर नहीं हैं,
और बिहारी माइनस में हैं.




परिचय और संपर्क

उपासना  

जन्म-स्थान – बलिया, उ.प्र.
शिक्षा-दीक्षा -- चितरंजन , बंगाल से
चर्चित युवा कथाकार
सम्प्रति बलिया में शिक्षण कार्य