शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

शिक्षा की असफलता - महेशचन्द्र पुनेठा

                                  महेशचन्द्र पुनेठा 



युवा कवि महेशचन्द्र पुनेठा शिक्षा की स्थिति पर लगातार लिखते रहे हैं | अपने इस नए लेख में उन्होंने अन्धविश्वास से जकड़े हुए समाज में शिक्षा की आवश्यकता को रेखांकित किया है |



                          शिक्षा की असफलता
                                              

शिक्षा की उपलब्धि केवल आंकड़ों से ही नहीं आंकी जाती है। आंकड़े तो बताते हैं कि आज देश की साक्षारता दर पिचहत्तर प्रतिशत से ऊपर चली गई लेकिन मूल्यों के स्तर पर हम पहले से भी पीछे गए हैं। आज भी हमारा समाज तमाम प्रकार की कट्टरताओं,पाखंडों,प्रदर्शनों,अंधविश्वासों,रूढि़वादिताओं और अवैज्ञानिक मान्यताओं से ग्रसित है।यदि ऐसा नहीं होता तो आज दाभोलकरोंकी हत्या नहीं होती और आसारामोंके बचाव में लोग आगे नहीं आते। केदारनाथ की आपदा को धारी देवी की मूर्ति हटाए जाने या केदारनाथ धाम तक विधर्मी और छोटी जाति के लोगों के जाने से नहीं जोड़ा जाता। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के विभिन्न इलाकों में औरतों को डायन मानकर उनकी हत्या नहीं की जाती। मास हिस्टिरिया का इलाज झाड़-फूंक या पूजा-हवन से नहीं किया जाता। बारिश न होने पर यज्ञ नहीं किए जाते।  चर्चित विज्ञान लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी का यह कथन उल्लेखनीय है,’’ हम एक भी गांव या कस्बा ऐसा नहीं बना पाए हैं जो ग्रहण,पशुबलि और डायन जैसे अंधविश्वासों से मुक्त हो,लोग ऐसी दशा में धकेल दिए हैं जहाँ अपने जीवन की हर उपलब्धि का श्रेय बाबाओं को दे रहे हैं।’’गाँव तो छोडि़ए दिल्ली जैसे महानगरों में लोग बीमारी का इलाज गणतुवा-ओझाओं से करवा रहे हैं। इस स्थिति को देखकर कभी-कभी तो यह लगता है कि भौतिक उन्नति की दृष्टि से भले हम 21वीं सदी में जी रहे हैं ,विज्ञान की अत्याधुनिक खोजों का लाभ उठा रहे हैं लेकिन मानसिक रूप से अभी भी 19वीं सदी में ही हैं।

चिंता की बात यह है कि पढ़े-लिखे लोग इस मानसिकता के अधिक शिकार हैं। अशिक्षित और गरीब लोगों का जादू-टोना,झाड़-फूंक पर अंधविश्वास के कारण समझ आते हैं। उनकी आर्थिक स्थिति इसके लिए जिम्मेदार है। आधुनिक सुविधाएं और प्रौद्योगिकी प्राप्त कर पाने की क्षमता उनके पास नहीं होती है जिसके चलते वे इनका सहारा लेते हैं। यदि एक बीमार व्यक्ति के इलाज के लिए अस्पताल उपलब्ध नहीं होगा तो उसे झाड़-फूंक का ही सहारा ही लेना उसकी मजबूरी है। लेकिन पढ़े-लिखे मध्यवर्ग के बारे में क्या कहा जाएगा? पहले यदि कोई व्यक्ति किसी विचार या व्यक्ति पर अंधआस्था रखता था तो उसके पीछे उसकी अज्ञानता मूल कारण थी। उसे सत्य का पता नहीं रहता था लेकिन आज तो सबकुछ जानते हुए भी उसे नहीं मानने की एक शातिराना जिद है। एक नकारवादी भाव है। विज्ञान ने जिन प्राकृतिक घटनाओं के कारणों से रहस्य उठा भी लिया है वे उन कारणों को भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। बल्कि अपनी बात के पक्ष में नए-नए कुतर्क गढ़ते हैं। पिछले दो दशकों में इसकी गति और तेज हुई है। कैसी विडंबना है कि लोकतंत्र में रहते हुए भी हमारी जीवन शैली लोकतांत्रिक नहीं हो पायी है। स्वतंत्रता ,समानता ,बंधुत्व तथा धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्य किताबी होकर रह गए हैं। यह स्थिति हमारी शिक्षा पर बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न है क्योंकि शिक्षा को ही मनुष्य के व्यवहार और मानसिकता में परिवर्तन का माध्यम माना जाता है।मूल्यों के निर्माण में शिक्षा की मुख्य भूमिका होती है।शिक्षा का स्वरूप जैसा होता है उसी तरह का समाज बनता है। जर्मनी में नात्सी और सोवियत संघ में साम्यवादी समाज बनाने में वहाँ की शिक्षा की भूमिका प्रमुख रही। हमारी शिक्षा वैज्ञानिक चेतना और लोकतांत्रिक मूल्यों का विकास करने में पूर्णतया असफल रही है। खुद सोचो, खुद समझो और ठीक लगे तो उसे मानोका विवेक नहीं पैदा कर पाई है। छःदशक बीत जाने के बाद भी हमारी शिक्षा ऐसी पीढ़ी नहीं तैयार कर पाई है जो दाभोलकर के अंधविश्वास विरोधी आंदोलनों को असहमति के बावजूद सहज रूप से स्वीकार कर सके और आसाराम के कुकर्मों के खिलाफ खड़ी हो सके। कैसी विडंबना है कि अभी भी लोगों को अंधविश्वासों और रूढि़यों का विरोध पच नहीं पा रहा है जबकि हम एक  लोकतांत्रिक व्यवस्था में रह रहे हैं। जिसमें संविधान ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना नागरिक का मूल कत्र्तव्य माना है।

इस पर विचार करने का समय आ गया है कि आखिर ऐसी स्थिति क्यों पैदा हुई हम आगे जाने की अपेक्षा पीछे की ओर क्यों जा रहे हैं?किताबों में बड़ी-बड़ी बातें लिखी होने के बावजूद वे जीवन से क्यों नदारत होती जा रही हैं?वह कौनसी ताकतें हैं जिन्होंने समाज में इस प्रतिगामिता को बढ़ाने व पालने-पोसने का काम किया है?यह विचारणीय है कि आखिर ऐसे लोग कैसे तैयार हो जाते हैं जो अंधश्रद्धा के चलते हुए अपनी धन-संपत्ति भी बाबाओं को दे देते हैं?उनके कुकर्मों का बचाव करने लग जाते हैं?अपने जैसे ही किसी दूसरे मानव को ईश्वर स्वीकार करने लग जाते हैं?यह कैसी मानसिकता है?आखिर आदमी इतना अंधा कैसे हो जाता है? आखिर शिक्षा विवेकशीलता क्यों नहीं पैदा कर पा रही है?

दरअसल यह उन ताकतों की जीत है जो समाज में लगातार धर्माधंता ,सांप्रदायिकता,कट्टरता,मिथकीयता ,अंधश्रद्धा जैसे प्रतिगामी मूल्यों को बढ़ाना चाहते हैं। वर्षों से बोई जा रही उनकी यह फसल आज लहलहा रही है। धार्मिक संस्थाओं द्वारा दी जाने वाली शिक्षा बच्चों में मानवीय मूल्य तो नहीं विकसित कर पाई लेकिन अंधश्रद्धा ,भावुकता,अवैज्ञानिकता तथा कट्टरपन बढ़ाने में जरूर सहायक हुई हैं। इन संस्थाओं द्वारा बच्चों के मन-मस्तिष्क में बचपन से ही एक अंधआस्था बोई जाती है जिसमें तर्क और विश्लेषण के लिए कोई जगह नहीं होती है। प्रश्न पूछना यहाँ घोर अनुशासनहीनता समझा जाता है। गुरूवाणी ही अंतिम सत्य होती है।भाषा हो या गणित या कोई अन्य विषय उन्हें उनके द्वारा अपनी संस्था की विचारधारा को थोपने का माध्यम बनाया जाता है। कुछ संस्थाएं तो दूसरे धर्म या संप्रदाय के प्रति घृणा फैलाने का काम करती हैं। जैसा कभी हिटलर ने जर्मनी में यहूदियों के खिलाफ किया था। अगर आप इन संस्थाओं द्वारा तैयार पाठ्यपुस्तकों का अवलोकन करेंगे तो पता चल जाएगा कि ये अपनी विचारधारा और सद्गुर के महिमामंडन करने हेतु कितनी सुनियोजित तरीके से काम करती हैं जिममें ये पूरी तरह सफल भी हुई हैं। दरअसल इन संस्थाओं का मुख्य लक्ष्य शिक्षा का प्रचार-प्रसार न होकर अपनी विचारधारा को फैलाना होता है। दूसरे धर्म या संप्रदाय के खिलाफ विषवमन करना होता है। एकतरफा और अतिरंजित तथ्यों को प्रस्तुत करते हैं। एक काल्पनिक भय पैदा कर असुरक्षा का भाव पैदा करते हैं। आलोचनात्मक विवेक से इन्हें सख्त परहेज होता है। विश्लेषण करना नहीं बल्कि आस्था रखना सिखाया जाता है। ऐसी ताकतों को हमें पहचानना होगा और उन्हें एक्सपोज करना होगा। अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब हम एक बार फिर ऐसे बर्बर युग में पहुँच जाएंगे जहाँ धर्म-संस्कृति के नाम पर मार-काट,हत्या-बलात्कारऔर संकीर्णता का कारोबार फलता-फूलता रहेगा।

महात्मा गाँधी की हत्या करने वाली प्रतिगामी ताकतें आज भी हमारे समाज में ज्यों की त्यों मौजूद हैं बल्कि उनका दबदबा और आक्रामकता पहले से अधिक बढ़ी है। इसके प्रमाण केवल महाराष्ट्र राज्य में पिछले तीन सालों में सतीशसेट्टी,अरुणसावंत,विट्ठलगीते,दत्तात्रेयपाटील,रामदासघडगेगांवकर, यशवंत सोनवणे ,प्रेमनाथ झा ,डे जैसे व्यक्तियों की हत्या जो समाज में फैली मानसिक जड़ता के खिलाफ संघर्ष थे। यह बढ़ती अलोकतांत्रिकता और अंधश्रद्धा का परिचायक है।

यह बात सही है कि इसके लिए अकेले शिक्षण संस्थाएं जिम्मेदार नहीं है।परिवार,समाज, मीडिया भी इसके लिए बराबर के उत्तरदायी हैं। लेकिन इस बात को मानना ही पड़ेगा कि शिक्षण संस्था वह स्थान है जहाँ परिवार सहित तमाम सामाजिक संस्थाओं से प्राप्त संस्कार और मूल्य परिमार्जित और परिष्कृत होकर स्थायी रूप ग्रहण करते हैं। वहीं बच्चे के भीतर गलत-सही में अंतर करने का विवेक पैदा होता है। शैक्षणिक संस्थाएं ही उनके बारे में सोचने-समझने को प्रेरित करती हैं। संस्कारों और मूल्यों को बदलती या सुदृढ़ करती हैं। शिक्षकों के आचरण और बातों का विद्यार्थियों पर सबसे अधिक प्रभाव होता है। प्रारंभिक कक्षाओं के बच्चे तो शिक्षकों की बात को पत्थर की लकीर मानते हैं। इसलिए मूल्यों के निर्माण में शिक्षण संस्थाओं की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है। इस संदर्भ में वरिष्ठ वैज्ञानिक सुबोध मोहंती का यह सुझाव महत्वपूर्ण है कि चमत्कार और अंधविश्वास के खिलाफ शुरू से ही स्कूलों में पढ़ाई हो। प्रश्न और तर्क करने का माहौल बनाया जाय। निश्चित रूप यदि विद्यालयांे में वैज्ञानिक चेतना के विकास और आलोचनात्मक विवेक पैदा करने पर विशेष ध्यान दिया जाएगा तो स्थितियां वैसी नहीं रहेंगी जैसी आज हैं।हाँ, यह सही है कि इसको गति प्रदान करने के लिए  मीडिया सहित समाजिक-राजनीतिक संस्थाओं को भी आगे आना होगा जिसके लिए प्रगतिशील ताकतों को विशेष प्रयास करने होंगे।


परिचय और संपर्क

महेशचन्द्र पुनेठा

जोशी भवन , निकट लीड बैंक
पिथौरागढ़ , उत्तराखंड

मो.न. – 09411707470    

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपने काफ़ी सतर्क कर दिया !आपकी ही कुछ बातें -"मूल्यों के निर्माण में शिक्षा की मुख्य भूमिका होती है ",शिक्षकों के आचरण और बातों का विद्यार्थियों पर सबसे अधिक प्रभाव होता है |"बहुत अच्छा लेख वास्तव में हमारा शिक्षक समाज ही इन तमाम बुराइयों से ग्रस्त है तो भला समाज क्यों न हो साथ ही जो पाठ्य पुस्तकें है वे भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परिपूर्ण नहीं है |

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  2. महेश जी ,बहुत सही लिखा है आपने |दरअसल शिक्षा एक ऐसा मुद्दा है जो जातिवादिता, धर्म, आर्थिक गणित,गरीबी ,वर्ग इत्यादि जैसे ज्वलंत और तात्कालीन विषयों से अलग है |शायद इसलिए क्यूँ कि इसमें प्रत्यक्षतः तथाकथित राष्ट्र भक्तों /उद्धारकों को लाभ हानि का गणित नज़र नहीं आता | अतः ये उन सभी मुद्दों जो चुनावों /सरकारों और नेताओं के ‘’अल्पकालीन मुद्दों ‘’(चुनावी हथकंडों ) के लिए ज़रूरी हैं ,से परे है | यदि सूक्ष्म विश्लेषण करें तो पायेंगे कि कहीं न कहीं ये अशिक्षित और अन्धविश्वासी वर्ग ही सबसे बड़ा वोट बेंक का रक्षक है |इनको बहला फुसला कर कहीं अंगूठा लगवा लो,अपने चुनावी प्रचार को आसानी से इनके भोले मस्तिष्क में बिठा दो ,नारे बाज़ी करवा लो ,इनके साथ नाइंसाफी या धोखा धडी कर लो | ये सब कमोबेश सही है बावजूद इसके हम पूरा का पूरा दोष सरकार को नहीं दे सकते | कही न कहीं कमी यहाँ भी है |साक्षरता अभियान के तहत एक बार मैं सर्वेक्षण के लिए कुछ ऐसे क्षर्त्रों में गई थी जो गरीब थे निरक्षर थे |मुझे वहां जानकर बेहद आश्चर्य और अफ़सोस हुआ की वे न तो स्वयं प्रौढ़ शिक्षा केंद्र (मुफ्त) में आना चाहते हैं और ना ही अपने घर की कम उम्र विवाहिताओं /बेटियों को पढने भेजना चाहते थे |हमसे यहाँ तक कहा गया कि पढने से लड़कियां आज़ाद ख्यालों की हो जाती हैं हम ये नहीं चाहते |ये किसी एक घर की बात नहीं बल्कि पूरा इलाका ही शिक्षा के खिलाफ था |स्वयं सेवी संस्थाओं अथवा सरकारी शिक्षा योजनाओं के तहत दी जाने वाली सुविधाओं के बाद भी घरों में काम करने या मजूरी करने वाली महिलाओं /बच्चों को पढने इसलिए नहीं भेजा जाता क्यूँ की वो घर में आर्थिक मदद कर रहे हैं |इस तरह की तमाम चीज़ें हैं और पहल इस मानसिकता को बदलने से होनी चाहिए ,मुझे लगता है |

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    1. वंदना जी , आपकी बात अपनी जगह बिलकुल सही है कि पहल इस मानसिकता को बदलने की होनी चाहिए ....लेकिन क्या आपको लगता है कि आर्थिक सवाल को हल किये बिना यह संभव है ?

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  3. अंधविश्वास और पाखंड तब भी फैलते हैं जब नेतृत्वकारी व्यक्ति जो कहता है ,उस पर आचरण नहीं करता । राजनीति, समाज पर अपना वर्चस्व बनाकर उसे जिधर चाहती है उधर धकेलती है । अर्थ और राजनीति का गहरा गठजोड़ होता है ।यह तथ्य है कि व्यक्ति वही पढ़ना चाहता है जो उसे अर्थ-समृद्ध बनाये ।अंगरेजी माध्यम का प्रचलन तेजी से इसी वजह से बढ़ा है । जब लोग अपनी भाषा में नहीं पढ़ेंगे तो बात की गहराई को कैसे समझ पाएंगे ?आज जो शिक्षा दी जा रही है वह व्यक्ति को बाज़ार के अंधे कुए में धकेलने वाली है । बाज़ार और शिक्षा का ऐसा गठजोड़ बनाया जा रहा है कि व्यक्ति महानायक और भगवान् के रूप में या तो फ़िल्मी अभिनेताओं को देखे-माने या क्रिकेट के खिलाड़ियों को ।जो असली मुक्तिदाता हैं उनको भुला दिया जाए । बाज़ार को विज्ञापन करने वाले लोग चाहिए जिन्हे वह मीडिया के माध्यम से पैदा करने की कला जान गया है । इसलिए जरूरी यह है कि व्यक्ति का राजनीतिक प्रशिक्षण बहुत गहराई से हो । राजनीति को जाने बिना अपने समय की सचाई तक पहुँच पाना मुश्किल होता है । राजनीति में संस्कृति के नाम पर साम्प्रदायिकता को केंद्र में स्थापित करने की कोशिशें की जाती हैं जिसके साथ अंधविश्वास और पाखण्ड सिमटे चले आते हैं ।साम्प्रदायिक ताकतें सबसे पहले शिक्षा तंत्र पर कब्जा इसीलिये करती हैं कि बौद्धिकता के नाम पर एक काल्पनिक-मिथ्या इतिहास गढ़कर निरंतर पढ़ाया जाय । इन सारे पहलुओं पर समग्रता में सोचने की जरूरत है ।शिक्षा तंत्र का संचालन राज्यसत्ता के हाथ में होता है । जब एन डी ए की सरकार आयी थी तब पाठ्यक्रम में वैदिक ज्योतिष और गणित आ गए थे ।

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  4. Mahesh bhai alakh jagaye rakhen... Main uch shiksha mein padhaate hue dekh raha hun ki shikshk poori tarha se andhvishvaason aur dhaarmik andhshraddhaon ke pujaari hain... Rahi sahi kasar bekaar paathyakramon ne poori kar dee hai.. Saarthk aalekh...

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