जनपथ के युवा-कविता
विशेषांक में मेरी यह कविता ‘सूत्र की तलाश’ छपी है ..| आप सबके लिए इसे सिताब
दियारा ब्लॉग पर भी पोस्ट कर रहा हूँ | कैसी है ....जानने की उम्मीद के साथ ..|
सूत्र की तलाश
चेहरे का सूरज दिन को तानता हुआ
सिर पर चढ़ने वाला
है,
पथराने लगी हैं
आँखें
साफ कपड़े वालों
को निहारती हुयी
तीन घंटे से ठन
ठन गोपाला है ,
चार बासी रोटियाँ, एक प्याज और दो मिर्च तो बच जायेंगी
लेकिन रात की
तरकारी चली है
किस्मत की राह अरुआने
को
आह ..! उसे कौन बचाने वाला
है ..?
भटकती है माँ
मोतियाबिन्द के साथ उसकी आँखों में
बलगम के बीच बाबू
के फंसे फेफड़े
एक सांस खातिर
भूँकते हैं ,
किस रंग का है
लुगाई का लुगा
पेवनों से पता
नहीं चलता
और अक्षरों की
जगह
खिचड़ियाँ खाते
बच्चों का खयाल आते ही
उसके उठे हुए चौड़े
पुष्ट कन्धे
कमान की तरह झुकते
हैं |
सिर तीर जैसा छूटता
प्रतीत होता है,
अपनी ही परछाई को बौनी
होते देखते हुए
सिहरन पुरे बदन
में जैसे कोई बोता है |
जी में आता है इतना रोये
कि यह चौराहा
उसके आँसूओं में डूब जाए,
इतना चिल्लाए कि इस शहर की नींद टूट जाए।
सामने मन्दिर की
सीढ़ियाँ उतरते भक्तजन
बन्दकर ले जा रहे
हैं ईश्वर को
डिब्बों में
मिठाई के बहाने ,
बीमार , जो अब चल फिर
नहीं सकता
ना पहुंचे
व्यवस्था के सड़न की बदबू उस तक
सजा दिया गया है फूलों को
इसीलिए उसके
सिरहानें |
एक गाड़ी के रूकते
ही कानाफूसी बढ़ती है
खिल जाती हैं बाँछे , उम्मीद परवान चढती है |
कभी नहीं रखे
उसने चोटी और टोपी के सवाल
अपने प्रश्न पत्र
में,
वरन इतनी सी
गुजारिश ‘ काम मिलेगा बाबूजी ?’
किसी भी साईत किसी भी
नक्षत्र में |
इस लुँगी और कमीज में वह
धूसर हो गये हैं जिनके रंग उसके जीवन जैसे ही
अपनी किस्मत
गोदता है ,
इस लेबर चौराहे
पर
पानी पीने के लिए
प्रतिदिन कुआँ खोदता है ।
मैं देखता हूँ सभ्यता के
आकाओं को
सूट-बूट में सजते ऐंठते गुजरते
इस चौराहे से
निसदिन
काम करना जिनके
लिए पाप हो गया हो ,
वातानुकूलित
कार्यालयों की सारी कुर्सियाँ
मुँह उठाये करती
है इन्तजार
और साथ ही यह
कामना भी
कि मांस के इस
पिलपिले ढेर का पेट
आज साफ हो गया हो
।
कैसी विडम्बनाएं
ये
झुक जाए कंधें जिनके काम के नाम से
विश्वास है
व्यवस्था को उन्ही पर ,
जो टूट जाए इनके अभाव में
भटकते फिरें वे
दर-ब-दर ।
सारी रोटियाँ
उनके सामने सजी
जिनकी भट्ठियों
की आग को
चर्बियों ने राख
बना डाला
लहकी हुई है आग जिनमें
उनकी रोटियों को झपटकर बिला गये
शिकारी कुत्ते न जाने किस ब्रह्माण्ड
में
हाय..! उन्हें
किसने राख बना डाला |
जिन आँखों की
पुतलियाँ
नींद की गोलियों
का बाट जोहती
मिली है
जिम्मेदारी संजोने की उन्हें सपनें,
अपनी ईच्छाओं के
बण्डल में
नींद की चादर
लपेटकर चलने वालों को
मनाही है देखने
तक की
ऊंह..! दो कौड़ी
के लोग
चले हैं उन्हें
सोचने समझनें |
नंगापन उनका शौक
हो
जिनकी
फैक्ट्रियों की चुम्बकों में
खिंची चली आए सारी दुनिया
की कपास ,
उगी थी जिनके खेतों में
बनें रहें वे
आदिमानव
बजाता रहे तराना
हर मौसम
उनके बदन पर
गर मिले भी तो
उतनी ही
बन जाए जितने में
गले की फांस |
आलीशान कोठियों
की दीवारें
दो जोड़ी पथराई
आखें वालों को
नौकरों के हवाले
देखती हुई भाँय-भाँय रोयें ,
और तीन पीढ़ियों
के साथ रहने वाले
बिष्ठा से
बजबजाती नालियों पर
तख्ते की धरती और
पालिथीन का आसमान
तानकर सोयें ।
तलाशू सूत्र मैं इस धुँधलके में
विडम्बना की इन श्रृंखलाओं
का ,
कभी कभी तो आ भी
जाए सिरा हाथ में
खोलने लगूं गाँठ
उलझावों का |
ओह..! अब समझ में
आया
एक चमकीली सुबह
की तलाश ,
निराशाओं के भंवर
में जरुर उठती है
कोई न कोई आस |
खोली जा चुकी
होती गांठ पहले ही
गर वे इतनी सरल
होतीं ,
उठो, जगो, कमर
कसो
होने ही वाली है
वह सुबह
क्योकि कोई भी
रात इतनी लम्बी नहीं होती |
परिचय और संपर्क
रामजी
तिवारी
बलिया
, उ.प्र.
मो
न. 09450546312
नमस्कार !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति की चर्चा कल सोमवार [11.11.2013]
चर्चामंच 1426 पर
कृपया पधार कर अनुग्रहित करें |
सादर
सरिता भाटिया
दिल के अंदर उठाने वाली सवेदना को आपने बखूबी कागज पर उतार... साधुवाद ... मेरे भी ब्लॉग पर आयें
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंबहुत खूब लगी यह कविता. एक साथ तमाम सारी विद्रूपताओं—विडंबनाओं को अपने में समेटे हुए शानदार कविता लिखने के लिए बधाई.