शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

कृष्णकांत की कवितायें

                                      कृष्णकांत 





युवा कवि कृष्णकांत की कविताओं को पहले भी आप सिताब दियारा ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं | इनकी कवितायें सामाजिक और राजनीतिक सन्दर्भों से तो दो-दो हाथ करती ही हैं , इनमें व्यवस्था के सामने कुछ असहज सवाल खड़ा करने का माद्दा भी दिखाई देता है | जिस दौर की कविता में बीच-बचाकर लिखने का चलन बढ़ रहा हो , उस दौर में ऐसे युवाओं का होना आश्वस्ति प्रदान करता है | उम्मीद करता हूँ कि मेरी तरह आप भी उन्हें बार-बार पढ़ना चाहेंगे |  

 
     प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर युवा कवि कृष्णकांत की कवितायें    



1.        अपने-अपने युद्ध  
             
रोज एक शांत युद्ध पर निकलना होता है मुझे
अपने पांव के नीचे की जमीन बचाने
और अपना पेट जिंदा रखने को 
सबसे दिलचस्प तो यह
कि हमेशा इस युद्ध में अकेला पड़ता हूं मैं
हालांकि, पड़ोस वाले दरवाजे से ही
निकलते हो तुम भी
लेकिन तुम साथ नहीं लेना चाहते मुझे
और इस तरह
दोनों अकेले लड़तें हैं अपने-अपने नाकाम युद्ध
जबकि हम दोनों को पता है
अकेले लड़े गए युद्ध
हम कभी नहीं जीतेंगे
न जिंदा रह सकेंगे हमारे पेट
क्योंकि उनके हाथ लैश हैं परमाणु बमों से
और हमारे हंसुए-कुदाल
घोषित कर दिए हैं गैरकानूनी
दोनों ही रोज हार रहे हैं
एक समानधर्मा युद्ध



2...  रियाया सब जानती है  


तुमने मेरी कनपटी पर
तानकर बंदूक
छीनी हैं भूखे बच्चों के हाथ से
अधपकी अधजली रोटियां
और खा खाकर मलाई
हो गए हो मधुमेह के मरीज
तुमने लूट ली हैं हमारी टूटी झोपड़ियां
और बनाए हैं अपने अय्याशी के अड्डे
तुमने घेर ली हैं हमारी जमीनें
और दे दी हैं दलालों को दान में
तुमने फुसलाकर बच्चों को
हड़प लिए उनके चंद सिक्कों वाले गुल्लक
और भर लिए करोड़ों के काले खजाने

संतोष यही है
कि तुम्हारी रियाया
यह सब जानती है
तुम्हारा लुटेरा होना
साबित होता है इसी से
कि तुम्हारे बंदूकों वाले हाथ
कांपते हैं बच्चों के बनाए
आड़े तरछे कार्टूनों और
कुछ सादा दिल कविताओं की अनुगूंज से





3.        मैं तुम्हें प्यार करता हूं




तमाम शोरगुल के बीच
भन्नाते मस्तक को सम्हाले
तमाम अराजकताओं से घिरा हुआ
बिलबिलाती आंखों में झांकते हुए
लरजती जबान से गीत कोई गाते
कंपकंपाते हाथों से तुमको सम्हाले हुए
मैं तुम्हें प्यार करता हूं

बलत्कृत होती औरतों की चीख
विदर्भ में कलपते नरमुंडों की आह
घरों से उजड़े लोगों के विलाप
सूखी छाती वाली मांओं का खामोश क्रंदन
लाखों भूखी बच्चों की बजती आंतें
सुन-सुन कर सिहरते हुए
मैं तुम्हें प्यार करता हूं

गोलियों की सनसनाती आवाजें
सैनिक अड्डों से उड़ते धमाके
कोने-कोने में लड़े जा रहे
पागलपन से भरे युद्ध
साम्राज्य बढ़ाने को उड़ते लड़ाकू विमान
और उजड़ते देशों को देखते हुए
मैं तुम्हें प्यार करता हूं

हां, सच सहमी हुई
तुम्हारी आंखों को थामे हुए
मैं तुम्हें प्यार करता हूं




4.        प्रजा सुखी है



धर्मनिरपेक्षता के नारे लगाने वाले लोग
सर पर बांधें रामनामी
निकले हैं गलियों में खंजर लेकर
सूरज डरा हुआ है
प्राणों की भीख मांगता है
कांपता है
वह दुनिया को रोशन करने के लिए
दोषी ठहराया गया है
आकाश में मौजूद हवाएं
लठैतों की बंधक हैं
गर्भवती महिलाएं नधी हैं
रानी की पालकी में
गलियों में भीख मांगते बच्चे
भारत के असली नागरिक हैं
सवाल पूछने वाले छात्र
पहुंच गए हैं जेलों में
कतर दी गई हैं
अधिकार मांगने वालों की जबानें
बधिया कर दिए गए हैं
बच्चों का सपना पालने वाले जोड़े
लाशों के ढेर ढो ले गए हैं सैनिक वाहन
हर तरफ बंदूकें तनी हैं
प्रजा सुखी है



5.. . दादा जी मर गए



दादा जी कल मर गए
जब हम लोग सो कर उठे
तो वे मरे पड़े थे
उनके बगल में एक एक ख़त पड़ा था
१९४७ का था
जुम्मन ने लिखा था
पाकिस्तान से

ख़त पुराना होकर फटने लगा
तो दादा जी ने
उस पर पन्नी चढ़ा ली थी
ऊपर से धुंधले धुंधले अक्षर दिखते थे
कई बार देखा था दादा को
आंख बिदोर कर
वह ख़त पढ़ते
हमें आते देख उसे छुपा देते थे
मोड़कर तकिये के नीचे
कई बार भीगे थे उस ख़त के हर्फ़
दादा के आंसुओं से

इस ख़त का राज़ जानने में
कई साल लग गए
आख़िर जब दादा हमें सयाना मानने लगे
तब बताया
कि यह ख़त जुम्मन का है
यहीं बगल में रहता था
अपनी मां जुगरा के साथ
जुगरा मेरी भी मां थी
हमको पंद्रह की उम्र तक
हगाती-सौंचाती रही थी
हर मोहर्रम पर मेरे लिए
सुघर बहुरिया मांगती थी
हर किसी से लड़ जाती थी
मुझे अपना लाल कहती थी
जुम्मन से और हमसे
बराबर का नेह रखती थी
जब हम बड़े हुए
अपने पांव पर खड़े हुए
कि उनको कुछ दे पाते
वह पकिस्तान चली गयी
गयी नहीं, ले जाई गयी
जाते वकत घर द्वार सब
डुबो गयी थी आंसुओं से
साथ जुम्मन भी गया
जाते समय उसके सर पर
जो गठरी थी
उसी में बंधकर मेरा
लड़कपन भी चला गया

एक बार होली के रोज़
दादा को भुनभुनाते सुना था
बजर परे पाकिस्तान पर
ऐसे जुल्मी जहान पर
बसा हुआ घर तोड़ दिया
होली का रंग चला गया

वहां से एक बार
बस एक ही बार
वही जुम्मन का ख़त आया था
उर्दू में लिखा हुआ
जुम्मन और दादा
दोनों बराबर दर्जा तक पढ़े थे साथ साथ
दादा मर गए
जुम्मन भी मर गए हों शायद



परिचय और संपर्क

कृष्णकांत 

उत्तर प्रदेश के गोंडा में जन्म
इलाहाबाद विवि से पढ़ाई लिखाई
दिल्ली में रहकर पत्रकारिता
फिलहाल दैनिक जागरण में बतौर सीनियर सबएडीटर कार्यरत
विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में कविताएं, कहानियां और लेख प्रकाशित
                    
एफ—89, गली नंबर तीन, ​पश्चिमी विनोद नगर, नई दिल्ली—92

मोबाइल09718821664

6 टिप्‍पणियां:

  1. ye kavitayen achchi hai samajik sarokaar se judi hai hume ek pal ruk kar sochane ko majbur karati hain..krishana aap khub achcha likha rhe ho..likhate raho..badhaiii aapko n ramji bhai ko bhi

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  2. सधी हुई नजर की सीधी कवितायें। सामाजिक-सांस्कृतिक राजनीति की भीतरी प्रक्रिया को दिखाती हुई।
    बिम्ब की बजाय एक किस्सागोई है इनके भीतर। शायद यही इनकी ताकत और यही कमजोरी भी।

    खैर, शुक्रिया कृष्णकान्त और रामजी भाई ...

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  3. बेहतरीन कविताएं ,
    -नित्यानंद

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  4. आपकी हर कविता चौंकाती है ,हमसे कई- कई सवाल पूछती है ,पढ़ते हुए आपकी कवितायेँ आँखें गीली हो गयी हैं और काँप रही है जबान ,बस इतना ही कहूँगी ,आपका लिखा देश के हर कोने तक पहुंचना चाहिए ..
    अनु

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  5. मानवीय अनुभूतियों को कृष्ण कान्त जी ने जीतनी सहजता से लिखा है वहीं सामाजिक एवं राजनीतिक विडम्बनाओ पर प्रहार भी करते है |तुम्हें प्यार करता हूँ की आखिरी पंक्ति बेजोड़ है |दादा जी मर गए कविता अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहती |हर तरफ बंदूके तनी है और प्रजा सुखी है .........

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  6. सुन्दर कविताओं का संसार

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