मंगलवार, 26 नवंबर 2013

वंदना शुक्ला की कवितायेँ

                                    वंदना शुक्ला 



चर्चित युवा कथाकार-कवयित्री वंदना शुक्ला को आप पहले भी सिताब दियारा ब्लॉग पर पढ़ चुके हैं ...कुछ नयी कविताओं के साथ वे फिर उपस्थित हैं ...|
                    

       प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर वंदना शुक्ला की कवितायें



एक ......

बाज़ार 

बाज़ार से बड़ा कोई बाजीगर नहीं
इतिहास के अंधेरों से अंधा कर
विकास की रोशनी से चौन्धियाकर
अदृश्य कर दिया उसने तमाम संवेदनाओं को 
लिहाज़ा अब चेहरे नहीं दिखाई देते धड़ों पर  
ना ही सपनों को लिखती आँखें
चेहरे की जगह
दिखाई पड़ते हैं सिर्फ हाथ और कभी कभी पाँव   
गुलाबी हल्की लकीरों वाले नन्हे नन्हे हाथ
रंगीन गुब्बारों को आकाश में छोड़ते हुए
या
सूखे खुरदुरे हाथ पत्थर तोड़ते हुए
या
हरहराती शिराओं वाले हाथ मुट्ठियाँ ताने  
या
झुर्रियां उभरी नसों वाले हाथ
चश्मे के धुंधले कांच पर से
आंसुओं की भाप पोंछते
और कभी इन हाथों के साथ 
दौड़ते वक़्त के मज़बूत पैर
कोशिश हो कि तोड़ा जाये बाज़ार के तिलिस्म को 
और पहुंचा जाय फिर चेहरों तक
भरे जाएँ सपने फिर सिक्त आँखों में
नींद की जगह ...
कहा जाए आसमान के पार उड़ते हुए रंगीन गुब्बारों से
कि...रुक जाओ...मत जाओ धरती छोड़कर 
सुनो ...
चेहरों का मतलब सिर्फ रोष नहीं होता
पीड़ा या खुशी भी नहीं
एक सर और सर उठाकर जीना भी तो होता है
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दो ....

होना  

हो रही है फिजूलखर्ची शब्दों की 
उनके द्वारा ,जिनके पास
सिवाय शब्दों के
कुछ नहीं फिजूलखर्च करने को
फिजूल तो छोडो
खर्च करने को ही क्या बचा है अब उनके पास ?
आत्मा तक तो गिरवीं रख छोडी है उन्होंने
चंद भ्रमों के बदले
जीवन ,उम्मीदें,ऊर्जा ,युग, पुश्तें,खुशियां   
जिन्हें बचा सकते थे  
धन की जगह
सब तो खर्च कर चुके हैं वो
इस होनेके जतन में
कि सब कुछ हो जाये वैसा
जैसा वो चाहते हैं  
कि नहीं होना चाहिए वैसा
जो हो रहा है
होनेको होना चाहिए
एक सीधी साफ़ सडक की मानिंद  
इस धरती पर हवा में मौसम में
और दिलों में ...
धमनियों की जगह  
अफ़सोस ,
घिसे हुए शब्दों में अब वो तासीर नहीं रही
जो बचा सके तमाम होने’’ के बीच
मनुष्य का मनुष्य होना
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तीन ....

शब्द


शब्द
जुबां से निकलने के बाद
अब शब्द नहीं रहते
वो बन जाते हैं छल, कपट और
झूठ
मोतियों से चमचमाते शब्द
बदल सकते हैं मुल्क का जायजा
पलट सकते हैं अपनी ही जुबां से
मुझे सहसा याद आती है वो औरत
जिसकी ऑंखें उसके शब्दों से ज्यादा बोलती थी  
वो औरत मेरी माँ थी |
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चार ......

अस्तित्व


किस कदर दृढ हो गई है
अपने वजूद को बचाए रखने की ख्वाहिश  
जब से बनी है ये ज़रुरत,
 साँसों की तरह ...
कितनी देर टिक पायेंगे वो शब्द ,तस्वीरें और उपलब्धियां
शोक,अच्छी और बुरी ख़बरें
बहाने त्योहारों ,अवसरों के
लोगों की स्मृति पटल पर आखिर ?
साधारण को असाधारण बनाने की तरकीबों
शब्दों को एक एक जमा जमा कर  
दरपेश किया जाना   
अपनी अनिश्चित आशा के साथ  
 फ़िक्र ये भी कि कहीं और कोई तो नहीं हमारे आसपास?
सच ,कितना कठिन होता जा रहा है  
उनके लिए ये सपना
जो बचाना चाहते हैं अपनी कहानी
अपने से पहले....
अपने बाद तक....  
अपने से ज्यादा ...
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पांच .....

अहिंसक  

बहुत छोटी बातों पर खौलता है हमारा खून 
बहुत बड़ी बातों पर हम सिर्फ
आँखें बंद कर लेते हैं
कानों को खुला रखना एहतियात है
हम अहिंसक हैं ...
नेताओं के उल जुलूल व्यक्तत्वों जैसी
बड़ी बातोंपर हम
बड़े बड़े गड्डों नालियों भरी सडक से निकाल सकते हैं
विरोधी जुलूस,
 रक्षकों के भक्षण को दे रखी है हमने
मोहलत अपनी चुप्पी से
मुक्ति-शक्ति के दौरों के बीच
कहीं कुछ है जो छूट रहा है जीवन से
लोकतंत्र एक बड़ी आड़ है
हमारे इस दोगलेपन की 
देश -भक्ति की कहानियाँ अब 
हमारी सांस्कृतिक साज सज्जा की चीज़ें हैं
भक्ति हमारी धरोहर
भक्ति और व्यक्ति अब पड़ोसी शब्द हैं
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छः ....

औरत

एक लडकी को
पराया बनाये जाने की तैयारी शुरू हो जाती है
उसके अपने घर से ही  
सिखाये जाते हैं तमाम हुनर
दी जाती है उच्च शिक्षा
सिखाया जाता है खुशियों पर
अटूट विशवास करना
सपनों से खेलना
भविष्य से हजारों उम्मीदें पालना
मान लिया जाता है योग्यता को
सुखों की गारंटी
सुखों की इन चेष्टाओं में  
घर की औरतों द्वारा सफाई से
बचा ली जाती हैं अपनी कहानियां
अपशगुन की तरह
नहीं सिखाये जाते दुःख झेलने के गुर,संघर्षों से निपटने के तरीके
और फिर दुःख ,संघर्षों के आते ही वो  
बन जाती है पूरी
औरत
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सात ....

आत्ममुग्धता

कल्पना में बाज़.बख्त
बीती ज़िंदगी को
च्युंगम की तरह चूसते रस लेते हुए
जीना पूरी की पूरी
धीमे धीमे उतरना अतीत की सीढियां
उन जगहों पर घड़ी भर ठहरते हुए
जहाँ लगे थे उसमे पेच (थेगडे)
ताकि छिपाया जा सके उसका फटा होना
उन्हें सहलाते दुलारते मैं
पहुँच जाती हूँ बचपन तक
ये कुछ वैसा ही है जैसे
किसी पेड़ पर उल्टा लटक कर
सीधे को देखना
लौटते बखत फिर धीरे धीरे बची हुई स्म्रतियों के कोने  
छूती हुई चलती हूँ ताकि वो
बुरा न मान जाएँ
कई मुगालतों में एक साथ होते हुए
लौटती हूँ वापस अपनी उम्र में
छूती हूँ अपनी उँगलियों से अपना चेहरा
डालती हूँ चेहरे पर ठन्डे पानी के छींटे
कितना तो अद्भुत है ये
जीवन जीने और
जीते चले जाने का तरीका |
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परिचय और संपर्क

वंदना शुक्ला  

भोपाल में रहती हैं
कथाकार और कवयित्री
संगीत और रंगमंच में गहरी रूचि
देश की सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित
कहानी संग्रह और उपन्यास प्रकाशित    




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