अरविन्द
युवा कवि अरविन्द इन दिनों
कहानियां लिख रहे हैं | और कहूं तो बखूबी लिख रहे हैं | लोक की गहरी समझ रखने वाले
अरविन्द के पास कविता जितनी ही प्रांजल और साफ़ सुथरी भाषा है , और अच्छी बात यह है कि उसे कहानियों में
पिरोने का हुनर भी | परम्परागत शिल्प और विधान पर चलती हुयी उनकी कहानियां धीरे-धीरे कैसे आधुनिक
मंजिल की तरफ बढ़ने लगती है , यहाँ देखा सकता है |
आईये पढ़ते है सिताब दियारा ब्लॉग पर युवा
लेखक अरविन्द यह कहानी
चिट्ठी
कायदे से यह कहानी एक ऐसी भौजी के बारे में है जिसका मुझे नाम तक पता
नहीं, लेकिन इसमे नमक की तरह
मैं और चिट्ठियां भी घुली हुई हैं
चिट्ठी लिखना मुझे इसलिए पसंद हुआ कि इसके कागज का रंग नीला-आसमानी
था। इसे निर्धारित पृष्ठों से मोड़ना मेरे लिए एक रोमांचक खेल था। उसे पढ़ कर
मोड़ना होता था और कोई ऐरा गैरा इसे तब तक नहीं कर सकता था जब तक मुझे करते हुए
देख न ले। यह पढ़ाई वाली बढ़त मुझे औरों की नजर में राजा बाबू बना चुकी थी।
मैं बहुत जल्दी और कम उम्र में पढ़ना-लिखना सीख गया था। गाँव में यह
चमत्कार की तरह था। मुझसे बड़े लडके अभी तक ककहरा सिख रहे थे। मुझे याद है कि मैं
इतना छोटा था कि कुंवे पर नंगे नहाता था , कोई रोक टोक नहीं। गाँव की भौजाइयों का
मजाक मैं नहीं समझ पाता था।बस इतना याद है की जब भी शकुन्तला भाभी आती और कुछ कहती
तो जगत पर पानी भर रही रही सारी औरते हहाने लगती थींण्शकुंतला भौजी क्या कहती थीं
मुझे एकदम याद नहीं।
लेकिन उन दिनों की मेरी स्कूली यादाश्त अद्भुत थी। मुझे पूरी किताब याद
होती थी। गणित के सवाल मैं मुंह जबानी लगाता था। तब जब कभी मासिक परीक्षाएं होती
थीं। मैं सबसे अलग बैठाया जाता था। इसलिए कि कोई नकल न कर सके। मैं मास्टरों का भी
दुलारा हो चुका था। एक थे सुद्धू मास्टर वे अपने लिए पांच पैसे वाली टाफी लाते थे।
कभी कभी मध्यावकाश में बुलाकर वे एकाध टाफी मुझे भी दे देते थें। यहाँ तक दुलारा
कि लड़कियां अपनी गोद में बैठाकर पराठें और नीबू के आचार या मसाले वाले चने या फिर
दही खिलाती थीं। अन्य खाने वाली चीजें तो मुझे प्रिय थी पर मुझे यह गोद में बैठना
बिलकुल पसंद नहीं था। मैं बार बार उनके गोद से सरक जाता था। मैं एक झटके से बड़ा
हो जाना चाहता था। माँ उन दिनों इतना मोटा काजल लगा देती थी कि क्या बताऊँ! उन
दिनों लडके चिढाते भी थे। पर मैं बता चुका हूँ कि उनके गंदे इरादों को समझ पाने
वाली अक्ल पैदा नहीं हुई थी। इसी स्कूल में मेरे चाचा भी पढ़ाते थें। सो उनके
सायकिल पर बैठ के मैं घर लौटता था।
अंतर्देशीय चार आने में मिलती थी।
जब पहली बार मैंने इसे खरीदी तो एक रोमांच से भर गया। मैंने चाचा को इसपर लिखते
देखा था। कई बार तो वे चिट्ठी लिखने के लिए वे गाँव के कई टोले में घूम आते थे। कई
बार वे काम छोड़ कर चले जाते थें। जैसे
गोरुओं के लिए चारा .पानी मल रहें हो और कोई आ जाता था कि चिट्ठी लिखनी है।
या खाना खा रहे हों तभी कोई आए कि चिट्ठी लिखनी है! या चाची के साथ कहीं बैठे गप्प
हांक रहे हों की चिट्ठी लिखनी है। या सायकिल से कहीं जा रहे हो कि चिठ्ठी लिखनी
है। धत्त तेरी की ससुरी !!! कि चिट्ठी लिखनी है। वे इस काम से अंतिम हद तक उब चुके
थें। कभी कभी तो वे छुप जाते थें। और कहलवा देते थें कि घर पर वे नहीं हैं। और कई
लोग तो गाल फुला चुके थें। पलिहार बाबा ने एक बार इसी रंजिश में हमारे खेतों में
पानी देने से मना कर दिया था।
वह तो अम्मा ने एक दिन जाकर पिताजी के एहसानों को गिन कर बताना शुरू किया
तो बात बनी। पलिहार बाबा थोड़ा लज्जित हुए थे। माँ कहती है की एक बार पलिहार बाबा
इतना बीमार पड़े थे कि पिता जी ने उन्हें खून देकर बचाया था। उस वक्त के बाद ही
पिता जी बीमार पड़े थे। और एक दिन मर गए थें। पिता जी और पलिहर बाबा दोस्त थे।
लेकिन ऐसी दोस्ती किस काम की है। माँ कहती है की यह सब अर्थात पिता जी की मौत खून
देने से हुई थी। और यह हरामी पानी देने से मना कर रहा है। ऐसी नमकहरामी! बस चिट्ठी
न लिखने पर बहाने बना रहा है।और हमे भूखों मारना चाहता है।
पहली बार मैंने बस यूँ ही चिट्ठी लिखी थी। नरकट के खत कटे कलम से सितारों
वाली चमकती स्याही में डुबोकर एक सुन्दर सुलेख तैयार किया। अंतर्देशीय थोड़ा-सा नम
हो गयी थी। और ‘‘कृपया
पहला मोड यहाँ से मोड़ें’’ से अंतिम तक आते आते एक उस कागजी
शक्ल ने झुरझुरी पैदा कर दी। स्कूल जाते वक्त मैंने उसे बिना पते के डाक वाले लाल
डब्बे में छोड़ दिया था। मेरा हाँथ पतला था सो वह उस छोटे से छेद में पूरा घुस
गया। लेकिन छोटा था सो वह तली तक नहीं पहुच सका था। मैं जानना चाहता था कि कैसे
चिट्ठियाँ इस छोटे से डिब्बे से हो कर पूरी दुनिया तक निकल जाती थी।
सुघरी भौजी एकदम नयी आई थीं ।उनका मुंह मैंने भी नहीं देखा था ।और न ही
देखने कि कोई इच्छा थी। वे हमेशा घूंघट में रहती थीं। बस कमर का आठ इंच के बराबर
वह गोरा हिस्सा दिखता था जो साड़ी के हकबंदी में नहीं आता था। उनके पति बम्बई में
किसी मिल में काम करते थे। बाद में जाना की वे फोरमैन थें। उनका नाम बालेसर था।
अर्थात बालेश्वर। वे एक पैर से भचाके थें।
सुघरी भौजी के
सुघड़ता की चर्चा गाँव में, हाँथ की मुट्ठी से छूट कर छितरा गए सरसों की तरह दूर तक फैल गयी थी। मुँह
दिखाई के वक्त घर से जाते हुए आजी को हमारी अम्मा ने टोक दिया। कहा था कि बताइए
कितने पैसे ली हैं। आजी ने कुछ कहा। अम्मा ने अपना संदूक खोला और कुछ पैसे और हाँथ
पर धर दिए। और कहा कि बालेषर की बहु चाँद है। और इतने में तो कोयला भी नहीं आता।
आजी नबर एक की कंजूस थीं। वे जब भरसाय जाती तो भार को लेकर बड़ी चिकचिक करती थीं।
सुघरी भौजी
का असली नाम क्या था। मुझे क्या किसी को नहीं मालुम था। न ही किसी को कोई दिलचस्पी
थी। सुघरी भौजी सुन्दर थीं इसलिए उनका नाम सुघरी पड़ा। उनकी ही तरह गाँव में कई और
नामकरण थें। जैसे एक भौजी का नाम गुडहिया भौजी था। उनका नैहर गुड के लिए अधिक
प्रसिद्द था। एक भौजी लिट्टी.चोखा बहुत लजीज बनाती थीं सो उनका नाम लिटिया भौजी
पड़ी थी। एक भौजी काजल बहुत लगाती थी सो वे गाँव वालों के लिए पद के हिसाब से
कजराहिया भौजी, चाची,
बहिन आदि लगती थी।
बियाह के
बाद बालेसर बस पखवारे भर रहें। और एक भोर सुबह वाली गाडी से निकल गए। घर में बस
सुघरी भौजी बची और उनकी अंधी हो चुकी सासु माँ। बालेषर कहते थें कि उन्होंने अपने
लिए बियाह नहीं किया है। अपनी आंधर माता के लिए किया है। सुघरी रहेगी और सेवा
करेगी। पुन्य कमाएगी। तो हमें लगेगा। बालेसर चाचा की अम्मा की नाक पर माछी नहीं
बैठने देती थीं। उनके पिछवाड़े एक बेर का पेड़ था। जब हम तोड़ने जाते थें तब वे
झतेहरा खीच कर मारती थीं। उनको दिखता कुछ नहीं था। बस डंडा चला देती थीं। और उनका
मुंह गालियों का खदान था।ख् ाोल देती। वे कई बार सुघरी भौजी को भी मार चुकी थीं। कहती की हम समझे कौनो कुकूर है।
लेकिन हमको मालूम था। बुधिया जान बूझकर मारती थी। नहीं तो उसके पेट का पानी ही
नहीं पचता। आदत की मारी थी।
सच कहूँ तो मुझे न तो बालेसर से लेना देना था, न ही सुघरी भौजी से। मुझे
बस उनके बियाह के बाद पाहुर में आये हुए
बताशे और खाजे से मतलब था जिसे मैं खा चुका था। और अपनी पढाइ, लिखाई और खेल में मगन हो चुका था। लेकिन एक दिन की बात है जब मैं
बैठे.बैठे चिट्ठी लिखने की रिहर्सल कर रहा था तब चाचा ने मुझे देख लिया और
सार्वजनिक रूप से घोषणा कर दी कि मैंने चिट्ठी लिखने लायक योग्यता हासिल कर ली है।
उन्होंने कुछ टिप्स दिए कि शुरुआत कैसे की जाए। जैसे कि शुरू शुरू में यह लिखना
कि श्री सर्व सती उपमा जोग पात्र लिखा। या
कुशल पूर्वक रहते हुए आशा करता हूँ। और अंत में यह लिखना कि कम लिखा ज्यादा समझना।
उन्होंने मुझे कुछ चिट्ठियाँ भी दी जिसका मैंने एक ही रात में लालटेन की रोशनी में
गहरा अध्ययन कर लिया। उस सुबह, रात में देर तक जागने से आँख
जल रही थी। कुछ और टेस्ट हुए और मैं चाचा की संभावित आशा के उतरोत्तर जाकर सफल
हुआ। चाचा ने मुझे चूम लिया था। उस दिन मुझे पता चला की चिट्ठी लिखने के लिए सबसे
जरुरी चीज न तो कलम होती है और न ही कागज। सबसे अहम् और महान चीज होता है पता ...
| बिना पते के चिट्ठियाँ कटी पतंग की तरह होती हैं।
पहले जब
मैं इस मैदान में उतारा गया था तो किसी को विश्वास ही नहीं हुआ कि मैं यह काम कर
लूंगा। लोगों ने कहा कि चाचा ने बहाने की यह कौन सी तकनीक निकाली है। लेकिन जब बार
बार उन्होंने गंभीरता से कहना शुरू किया तो लोगों ने मान लिया था। कुछ विशवास तो
मैंने अपने आला दर्जे के पढाई से ही हासिल
कर रखी थी। इस तरह से मैं लांच हुआ और लोगों ने हांथों .हाँथ लिया। पहली चिट्ठी तो
मैंने खुद के पैसे से खरीदी गयी अंतर्देशीय पर लिखी थी। मैं पहले से तैयार था।
यहाँ तक कि उस दिन जो भी आता उसके लिए यह छूट भी रखी जाती थी कि मुन्ना अंतर्देशीय तक देने के लिए
तैयार है। आप लोग लिखवायें तो !!!
चाचा की
जान एक तरह से बच गई थी।मुझे मजा आने लगा था। पहली चिट्ठी पर मुझे अच्छी शाबासी
मिली थी। बम्बई से आई चिट्ठी में मेरी लिखावट की खूब तारीफ हुई थी। मुझे आशीषों से
नवाजा गया था। मैं एक उमंग में भर गया था। और उस दिन मुझे भूख ही नही लगी।यह सोचना
कि बम्बई में मेरे लिए बाते की जा रही है। एक उछाल में भर देता था। बम्बई उन दिनों
मेरे लिए एक ऐसी दुनिया थी जो मेरे लिए स्वर्ग थी। जहाँ जाना मेरे लिए एक स्वपन
था। उन दिनों मैंने रेलगाड़ी भी नहीं देखी थी। और रेलगाड़ी को लेकर उन दिनों मेरे
मन में अनेक किस्म की कल्पनाएँ उधम मचाती थी। उस दिन मैं पोखरे की और निकल गया।
तैरना तो जन्मजात जानता था भिटे की उचाई वाले सिरे पर चढ़कर नगें धडाम.धडाम कूदता
रहा। देर तक उलटवान तैरता रहा। आवेश में उस दिन चड्ढी मैंने पता नहीं कहाँ फेंक दी
थी। घर आदमजाद ही लौटाना पडा था। कोई हलचल नहीं हुई। मैं बता चुका हूँ इस बारे
में। बहुत छोटा था।
शाम के सूरज का सुनहला समय था। धान के पकने के दिन थे। मैं सुघरी भौजी के
पिछवाड़े के लगे बेरों को साध रहा था। मेरा चलाया पत्थर कभी-कदा सुघरी भौजी के
कच्चे घरों के खपरैलों पर गिरता था। वहां लौकी की कुछ लतरें लटकी हुई थीं। उसमे
पत्थर फंस जाता। और दो एक खपरैलों की हड्डियां चटका देता। बुढिया नहीं थी। नहीं तो
उसी वक्त हमारी औकात का कीमा बना देती। भौजी निकली।और सारे लडके झर्र से भाग गए
थें। मैं एकला रह गया था। भौजी आई और सर पर हाँथ फेरते हुए कहा था कि सुना है कि चिट्ठियाँ
लिखते हो लल्ला!! मुझे समझ में नहीं आया क्या कहूँ बस मुंडी स्वीकार के दिशा में
रेग गयी थी। वे अपने घर में ले आई थीं। उन्होंने लड्डू दिया था। खाते हुए मुझे एक
बार लगा था की शायद यह उनके दोंगा में आये हुए झपोलियों से हैं। उनके लड्डुओं से
एक पुरानी गमक आ रही थी। यह वैसी ही महक थी जब हम पुरानी स्मृतियों को कहीं सहेज
कर रख देते हैं और एक दिन अचानक खोलने पर वे हमें एक नशे में ला देती हैं। उनके घर
में रंगीन हीरो-हिरोइन की तस्वीरें लगी हुई थीं। उन्होंने एक पोस्टर दिया। चमकीला
और हाँथ फेरो तो खुद सरकता चला चला जाता था। भौजी के कमरे में बेहद सुगन्धित
अगरबत्ती थी। उन्होंने मेरे सर पर हाँथ फेरा और मुझसे एक चिट्ठी लिखने के लिए कहा
था। मेरे पास न तो कलम थी और न ही अंतर्देशी। मैंने कहा की अगले दिन आउंगा।
उन्होंने अपने बक्से के संदूक से एक रुपये का नोट निकाला और मेरे हाँथ पर रख दिया
था। यह सब मेरा था। मैं उसे लेकर आनद में डूब गया। मैंने निश्चय किया की भौजी कि
मैं ऐसी चिट्ठी लिखूंगा जिसमे मेरी सारी प्रतिभा का बूंद बूंद इस्तेमाल हो जितनी
भौजी खुबसूरत थी उसके आगे तो मेरे शब्द और लिखावट घुटने टेक देगी फिर भी! यह इसे
एक चुनौती की तरह मैंने लिया था।घर से बाहर आते हुए मैंने आगन में एक बाल्टी देखी
थी। बाल्टी अभी अभी नहाई भौजी ने रखी थी। उसके सिरे पर एक बिंदी लाल.सी सटी हुई
थी। मैंने उसे लपक लिया था। घर आकर मैंने उनके दिए हुए पोस्टर को अपने दीवाल पर
चिपका दिया था। और उस बिंदी को हिरोइन के माथे पर लगा दिया। दूर से देखने पर वह
सचमुच की बिंदी नहीं दिखती थी। तस्वीर की ही लगती थी।
अगले दिन जब मैं स्कूल जब गया तब नंबर दो का बहाना कर के बाजार की और चला
गया। भौजी के लिए मैंने एक अंतर्देशीय ली। उसी वक्त मुझे पता चला कि सचमुच
अंतर्देशीय कितनी छोटी होती है। भौजी को कुछ और लिखाने का मन हुआ तब मैं क्या
करूंगा इसलिए एक और ले ली। एक पकैट अगरबत्ती ले ली। लौटते वक्त समोसे वाली ताजे
दूकान की ओर चला गया था। मैंने वहा एक समोसा लिया। कुछ खाया-कुछ बाद में खाने के
लिए बचा कर जेब में रख लिया। लौटते वक्त गाँव के ही एक चुडि़हारिन की दूकान थी। वे
औरतों की कलाइयों को खूब सहला सहला कर चूडि़याँ पहना रही थी। मैं थोड़ी देर तक
देखता रहा, फिर
अचानक ख्याल का एक आभास आया था कि बिंदी
का एक पैकेट ले लिया जाये। पर बस जैसे ही यह ख्याल आया था वैसे ही सरक गया। मेरे
उस दिन को भौजी के लगाव ने गुलाम बना के रख दिया था।
कुल
मिलाकर मैं एक छोटा बच्चा ही तो था। इसका बेजा फायदा लोगों ने उठाया था। अक्सर घर
की औरतें ही चिट्ठी लिखवाती थीं। मर्द या तो बाहर थें या थे भी तो लिखवाते समय
उनसे पूछ लिया जाता था। जाकर बब्बा से या आजी से पूछ आओ की कुछ लिखवाना है क्या !!
कभी कभी किसी के बब्बा .आजी खेतों में काम कर रहे होते थें। लोग कोस भर दौड़ कर
पूछने जाते थें कि चिट्ठी लिखी जा रही है कुछ लिखवाना है क्या? इससे मुझे उबन होती थी।
शायद इसलिए चाचा ने इस नेक काम को छोड़ दिया था। लेकिन मेरे लिए एक फायदा था इन
खाली वक्तों में मुझे खाने के लिए कुछ न कुछ मिल जता था। चाहे वह दाना हो या फिर
परदेश से आये हुए बिस्कुट दो एक या फिर खाना ही। चाचा को ऐसा करना नामंजूर रहा
होगा।
मुझे चिट्ठियाँ शब्दशः याद होती थी। बोले जा रहे भोजपुरी का मैं अनुवाद
करता था हिंदी में दिमाग पर जोर लगता था। इस जोर से चीजे याद रहती थीं। कभी कभी
कोई औरत कुछ कहते कहते रोने लगती थी। इस बिंदु पर मेरा दिमाग बैठ जता था। आखिरकार
रोने का अनुवाद कोई कैसे करे! या फिर कोई फटी हुई ब्लाउज दिखने लगती थी। कहती थी
लिख दो ब्लाउज फट गया है। और हाँथ ऊपर करके दिखा देती थी। एक बार क्या हुआ कि ऐसा
करते हुए एक औरत के बगल के बाल झाकने लगे। उस छोटी उम्र में मैं सनाका खा गया।
मुझे पहली बार पता चला की वहां भी बाल होते हैं। तब तक तो मैं यही जानता था कि
कंखौरी के इस अवांछनीय घटना पर केवल मर्दों का एकाधिकार है। खैर !जैसे जैसे उम्र
फफनती गयी वैसे वैसे मैं कई दुनियावी राजो के बारे में जान गया था। लेकिन उस वक्त
नहीं जानता था। कभी कभी कोई कहती कि लिख दो सातवाँ चल रहा है। अब सातवाँ क्या है? जब मैं सातवाँ के बारे
में जिज्ञासा प्रकट करता तो वे कहती ‘‘तू बस लिख द सातवाँ
चलत हौवे आउर घरे में खाये बदे कुछो खोराकी नइखे बाटे पुशैया के बाबू!!’’ सातवे अंक से खाने का क्या तालुकात !! मैं सोचता था। मेरा छोटा दिमाग एक निर्णय
निकालता था शायद यह शुदखोरी वाली बात चल रही है। गाँव में कई ऐसे धनपशु थें जो शूद
पर पैसे चलाते थें। मेरा चाचा ने खुद खपरैलों के लिए पैसे शूद पर लिए थे।
मुझे चिढ उस वकत होती थी। जब चिट्ठी अपने अंतिम रूप में आ चुकी होती थी। और
लिखवाने वाली दौड़ते हुए आती थी और कहती थी कि फलां बात तो छूट गयी। मैं झल्ला
जाता था। और कभी-कभी वह बात इतनी गंभीर होती थी कि सटी चिट्ठियाँ मुझे फिर से
खोलनी पड़ती थी। या कभी-कभी जब पन्ने भरे जा चुके होते थें और मैं यह लिख चुका
होता था कि कम लिखा ज्यादा समझना तब। उस
वक्त मुझे पृष्ठ के अगल बगल छूट चुके थोड़े से जगह में छोटी और बारीक लिखावट से
काम निकालना होता था। चिट्ठी चिपकाने के लिए आटें की लेई, मांड, भात या फिर अगर थोड़ी बहुत कहीं से चीनी मिल जाती तो उसकी चिपचिपाहट से
काम चलाया जता था।
एक बार क्या हुआ कि चिट्ठी लिखी जा चुकी थी। पते और प्रेषक लिखे जा चुके
थे। तभी दौड़ते हुए लिखवाने वाली आई और कहने लगी की फलां बात छुट गयी है। देखो
लिखा है कि नहीं। मेरी स्मृति बहुत धारदार थी। मैंने कहा कि नहीं मुझे याद है।
मैंने लिखा है।नहीं जरा देख तो लो। उस रोज मुझे फिर चिट्ठी खोलनी पड़ी थी। और जहाँ
लिखा था वहां अंगुली रखकर दिखाया कहा कि ये देखो लिखा है कि नहीं। पढ़ लो। वह क्या
और काहे पढ़ती! जानती तब न। और जानती तो मुझसे क्यों लिखवाती। मुंह ताकने लगीण्
कहने लगी बचवा मैं कहा जानती हूँ। गंवार हूँ। करिया आखर भइस बरोबर। मैं नाराज हो
गया। नाराज होने वाली बात ही थी। मैंने वह सारी बात धारा प्रवाह बता दी थी। जो भी
लिखा था। सुनकर कहने लगी .कितना तेज है रे मुना तू!! तेरे को अभी तक सारी बात याद
है! और जिस बात के लिए वह दिक् कर रही थी वह थी यह थी की इस जेठ में उसकी बहन
अर्थात उसके साली की शादी है। आना जरुरी
है। और आते हुए ये ये साडि़याँ लानी है। उस दिन मेरा माथा जले हुए हांड़ी
की तरह हो गया था।
बालेसर जब से गए थे तब से कोई चिट्ठी नहीं आई थी सुघरी भौजी की। तब तक
बुढिया कई बार कुकुर के भेल से सुघरी भौजी को ठोक चुकी थी। तीन महीने के ऊपर हो
आये थे। कोई सन्देश नहीं। यहाँ तक कि कई लोग इस समय में बम्बई से आ जा चुके थे।
सुघरी भी औरों की तरह ढूंडा और दाने भेज चुकी थीं। आते हुए लोग कहते कि बालेसर ने
कोई दूसरी औरत रख ली है। ससुरी काली कलूटी और बेशर्म है। पता नहीं कैसे फंस गया
इतनी चाँद सी बहु को छोड़कर। ये सब बातें गाँव की औरतें कभी.कभी सांय.सांय की आवाज
में नीम के पेड़ के नीचे बैठी करती थीं। उनकी आवाज हवा की छलनी से छनकर मेरी तरफ
भी आ जाती थीं। मैं इसलिए सुन लेता था कि वे मेरी उपस्थिति को नगण्य मानकर बतियाती
थीं। मैं सुनता और पोखरे में नहाने चला जाता था। या फिर कहीं खेलने।मुझसे इससे कुछ
मतलब नहीं था। लेकिन उस बेर वाली भेट के बाद मेरे मन के कोने में भौजी ने एक
मीठा-सा एहसास वाला स्थान बना लिया था। बिलकुल उस दिन के मिले हुए लड्डू की तरह।
जब अम्मा को मालूम चला कि आज मैं सुघरी भौजी की चिट्ठी लिखने जा रहा हूँ तब
उन्होंने कहा था कि जरा ध्यान लगाकर लिख देना। बेचारी बड़ी दुखियारी है। जाने किस
जन्म का पाप है कि ऐसे घर में चली आई। फूटे भाग वाली है। अम्मा ने आज तक मुझसे कभी
पढाई की बात नहीं की थी। पता नहीं क्यों उसे ऐसे लगा था कि मेरे लिखने से उसके भाग
जग जायेंगे। मैं उसे तार दूंगा। जो भी हो उसके मन में कोई बड़ी गंभीर बात ही चल
रही थी। अन्यथा वह ऐसा न कहती। अम्मा ने आगन में उगे पपीते से एक फल तोड़कर झोले
में दिया था। कहा था कि वह इसकी सब्जी बना लेगी। मैंने उस झोले को पीठ पर लटका
लिया। और यह भी कहा था की लौकी और पपीते की सब्जी एक में मिलाकर मत बना देना। नहीं
तो जहर हो जाएगा।
मैं दोनों अंतर्देशीय को हाँथ में लिए किसी उड़ रहे पक्षी की जा रहा था। मेरा मन था कि चिल्लाता जाऊं कि आज
सुघरी भौजी की चिट्ठी लिखने जा रहा हूँ। कुछ लड़कों ने बीच में पूछा भी था कि
मुन्ना कहाँ जा रहे हो चलो पोखरे नहाने चलते हैं। मैंने जोर से चिल्लाकर कहा कि आज
मैं भौजी की चिट्ठी लिखने जा रहा हूँ। तुम सब जाओ चिल्लाते हुए मैंने इतना जोर लगा
दिया था की बात हवा में दूर दूर तक घुल
गयी थी। यहं तक की अगर कोई न भी सुने तो वह सुगंध से इस बात का पता लगा ले। उस दिन
मैंने साफ शफ्फाक शर्ट और हाफ पैंट पहन रखी थी।
सुघरी भौजी उस वक्त लौकी तोड़ रही
थीं। एक लग्घी से। वह लौकी बार-बार उनकी पकड़ से दूर चली जा रही थी। जैसे ही मैं
पहुंचा उन्होंने कहा कि मुन्ना जरा खपरैल पर चढ़ जाओ। और तोड़ दो। मैंने पपीता
वाला झोला उनके हाँथ में थमा दिया। और कहा कि इसकी सब्जी बना लेना। अम्मा ने कहा
है कि पपीते और लौकी की सब्जी एक में मत बनाना नहीं तो जहर हो जायेगा। भौजी ने कहा
कि नहीं इसे कच्चे ही खाया जायेगा, जिंदगी से बढकर जहर कुछ है लाला! मैं उनका मुंह ताकने
लगा था भौजी हँसाने लगी और बोली कि आज केवल लौकी की सब्जी बनेगी। बहुत हलके वजन का
रहा होउंगा मैं। उन्होंने कमर से पकड़ कर मुझे खपरैलों पर चढाने में मदद की थी।मैं
चाहता नहीं था। मैं वैसे ही चढ़ जाता। हलके वजन के कारण खपरैल के फूटने की
सम्भावना एकदम कम थी। मैंने वहां से कई छिपे हुए लौकियों को तोड़कर नीच फेंका।
भौजी आँचल का फंदा बना कर उसे लोक रही थीं। और देखते देखते ही आँगन में कई लौकियां
हो गयी थीं। खपरैल से उतरते हुए मैं सीधे उनके गोद में उतर गया था।
भौजी मुझे उसी रंगीन कमरे में ले गई थीं। उन्होंने अपने संदूक में से एक
तस्वीर निकाली। तस्वीर श्वेत-श्याम । एक तो भाभी थी दूसरा कौन था, मुझे पता नहीं। शायद उनका
भाई रहा हो। वे हाँथ में हाँथ डालकर कड़ी थीं। शेष दोनों हांथों में उन्होंने कोई
गुलदस्ता लिए हुआ था। भौजी तस्वीर को देर
तक एकटक देखती रहीं। देर तक देखने से उनके
आँखों के कोर जरा-सा गीले हो गए थें। लेकिन यह तो एक खेल था। पलक झपकाने का जिसे
हम खेलते। होता यह था कि हम किसी की आँखों में देर तक देखते रहते थें। और जैसे ही
सामने वाले की आंख झपकती थी। जीत हो जाती थी। इसे मैंने कई बार खेला था। देर तक
अपलक देखने से आँखे डबडबा जाती थी। वही खेल तो भौजी खेल रही थीं। लेकिन तस्वीर से यह खेलना मुझे
नहीं समझ में आ रहा था। मुझसे खेल लेना चाहिए था। और मैं तो पक्का उन्हें जीत जाने
देता।
अब मैंने कलम पकड़ लिया था। कमरे में अन्धेरा था। मैंने कहा कि यहाँ
अन्धेरा है। ध्यान से देखना पड़ रहा है। चलिए आँगन में बैठ जाते है। भौजी ने मना
कर दिया। कहा कि नहीं यही लिखो। पहले तो वे देर तक रोती रहीं। मैंने रोने दिया। इस
बीच के वक्त में मैं हीरो हीरोइन की तस्वीरों को ध्यान से देखने लगा था। इसके बाद
उन्होंने जो भी बताया लिखने लगा था। भौजी कुछ भी कहने में ज्यादा वक्त ले रही थीं।
जो भी कहती कुछ ऐसे कहती की लगता कुछ पत्थर-सा उनके गले में अटक गया है। मुझे बार
बार शब्द काटने पड़ते थे। और कोई अच्छा सा शब्द ढूढने में मैंने अपनी सारी ऊर्जा
लगा देता था। मुझे पहली बार लगा था कि मेरी भाषा पिछड़ी हुई है। आखिर रोने का
अनुवाद तक नहीं कर सकती है! मैं वैसे लिखना चाहता था कि जहाँ यह चिट्ठी पहुंचे
भौजी की आवाज, रुलाई,
भारी गले और हिचकियों के साथ पहुंचे। उनके बोलने के घनत्व से या पता
नहीं कैसे अन्धेरा और गाढ़ा होता जा रहा था। मुझे दिखना बंद होता जा रहा था। मेरा
पूरा प्रयास था कि यह अन्धेरा भी इस चिट्ठी में वैसे ही आये जैसे और जिस अनुपात
में यह घिरता जा रहा है। अंत तक आते आते मैंने कुछ नहीं किया मैंने अगरबत्ती वाले
जगह से माचिस उठाई और पास ही पड़ी ढिबरी को जला दिया था। मैंने देखा की भौजी का
चेहरा उस अँधेरे में बेतरह पिघल चुका था। ऐसा लगा कि उनका अस्तित्व टपक-टपक कर
जमीं पर गिर रहा है।मैंने जल्दी से चिट्ठी खत्म कर भौजी को बचा लेना चाहता था।
चिट्ठी खत्म होने के बाद मैंने पाया कि मैं पसीने से भीगा हुआ हूँ। जल्दी से मैं
भागना चाहता था। वहां पर भौजी वह नहीं थी वह कुछ दूसरे किस्म की थी। मैं उन्हें
पहचान नहीं पा रहा था। उनकी आँखे बेहद लाल थीं। चेहरा पत्थर की तरह था। और रोने की
वजह से अपनी नाक बार बार सिनक रही थीं। जहाँ उन्होंने तस्वीर निकाली थी वही से
उन्होंने पता निकाला था। और उस पते में बम्बई का ब तक नहीं था।
चिट्ठी लिखी जा चुकी थी।हम और भौजी बाहर आ गए।भौजी फिर से भौजी हो गयी
थीं।वही वाली जिसे मैं बखूबी जानता था।मुझे लगा कि शायद यह घर में हुए अँधेरे का
असर था कि उनका चेहरा ऐसे हो गया।मैंने
बाहर उजाले में चिट्ठी देखी।उसमे में गजब की गलतियाँ और कट.पिट थी।सारा स्याही
पन्ने के ऊपर फैला था।ऐसा शायद मेरे लगातार पसीने की वजह से हुआ हो लिखावट भी एक
के ऊपर एक चढ़ी थी।शायद यह कमरे में फैले बेतरह अँधेरे की वजह से हुआ हो।इतनी बुरी
चिट्ठी मैंने आज तक नहीं लिखी थी।भौजी के आँखों का काजल पसरकर उनके चेहरे की रंगत
पर चढ़ गया था।इस वजह से उनकी आँखे और बड़ी बड़ी लग रही थी।अँधेरे में वहां एक डर
सा लग रहा था।
उस चिट्ठी को मैं फिर से
लिखने के लिए घर ले आया था। भौजी ने किसी को दिखाने से मना किया था। मैंने तुरंत
माँ कसम खा ली थी। मेरा इरादा भौजी को ऐसी चिट्ठी लिख कर देना था जिसमे एक दाग तक
न हो। भौजी ने अपने घर में लगे सारे पोस्टर उखड कर मुझे दे दिए थे। मैंने उससे
अपनी दीवाल सजा ली थी। रात के वक्त मैंने धीरे से सादी अंतरदेशीय निकाली और लिखने
लगा। लालटेन के बहुत धीमे आलोक में मैं एक एक शब्द तह-तह कर के लिख रहा था। उस
दूसरी अंतरदेशीय में मुझे किसी किस्म की कोई गलती नहीं करनी थी। माँ उस दिन बार बार
सो जाने के लिए कहती रही। मैं बार बार दूसरे कमरे की और आवाज लगाता। बस माँ मैं आ
रहा हूँ। भौजी का चेहरा एक बार फिर नजरों के सामने था। वे बार.बार रो रही थीं।
मैंने उस दृश्य को जेहन में बार.बार ला रहा था। इस तरह करते हुए मैंने उस दृश्य को
जमीं पर बिखेर दिया था। अब मैं वहां से उनकी हिचिकियांएरोने की आवाज, उनके गुथ्थम्गुथ्था होते
शब्दों को अपनी कलम की धार से विलगा रहा
था। मैंने उनके चेहरे पर पसर आये काजल को
भी चुनकर चिट्ठी में टांक दिया था। वहां से अँधेरे को लेकर मैंने उस पन्ने पर फैला
दिया था। मैंने उनके आंसुओं को बड़ी बारीकी से चुना और पन्ने के नीलेपन में इस
बारीकी से रखा था कि वे जरा से भी नम नहीं हुए थे। इस लिखने के क्रम में मुझे लगा
था कि मैं पिघलकर बस एक नाम भर रह गया हूँ। मेरी देह वहां से अदृश्य होती जा रही
थी जहाँ मैं बैठा था। और बस! हो गया। इतना डूबकर मैंने आज तक नहीं लिखा था। लिखने
के बाद मैं इतना हल्का लग रहा था कि चाहे तो मुझे तितलियाँ तक ढो सकती थीं। सच में
वह चिट्ठी अद्भुत बन पड़ी थी। मैं देर तक उसे देखता रहा।कमरे की जमीं से वे
सारी चीजें गायब होती चली गयी थी। धीरे
धीरे सामने से भौजी भी हट गयी थीं। बस केवल मेरे पास चिट्ठी बच गयी थी, जिसे ले जाकर अगली सुबह मैंने उसे बक्से में डाल
दी थी।
उस सुबह मैं जल्दी पोखरे में नहाने चला गया था।और देर तक तैरता रहा। मैं
डूबकर निकलता था। कई मीटर की दुरी पर।मैं खूब नीचे तक गोता लगाता था और वहां से
सीपियाँ और बेहद पतले शंख मुट्ठी में भर कर ला देता था। उस दिन मैं इतना खुश था कि
नहाने के बाद सीधे मैं भौजी के पिछवाड़े लगे बेर पर चढ़ गया था। लेकिन उस दिन मेरे
हिस्से में बदकिस्मती का सूरज चमक रहा था।उस रोज बुढिया थी। वह डंडा लेकर भागते
हुए आ रही थी। मैं तेजी से उतर रहा था और फिसल कर गिर गया था। मेरे सर पर हलकी.सी
चोट आई। मैं घर की और भागा। और बुढिया के डंडे से बच गया था।
चिट्ठी छोड़ते और ले आते हुए मेरी दोस्ती डाकिये से हो चुकी थी।वह मेरे
गाँव की चिठ्ठी मुझे देता था। इस तरह से वह गाँव आने की मेहनत से बच जाता था। जब
भी परदेश से पैसे आते थे, वह सैकडे के हिसाब से पैसे लेता था।यह मुझे बुरा लगता था। टोकने पर कहता
था की इत्ती दूर धुप में खून जलाकर आता हूँ। कुछ तो बख्शीश हमारी भी बनती ही है।
जिस दिन भी किसी के रुपये आते थें उस दिन उसके घर में जरुर कोई अच्छी चीज बनती
थी।और बता दूँ की तब मुझे भी बुला लिया जाता था। या गर मैं नहीं रहता तो मेरा
हिस्सा लोग घर तक पहुचा देते थें। सुघरी भौजी के घर भी कुछ पूरी.पकवान बनता तो वे
बुढिया की आँख बचाकर जरुर हमारे यहाँ पहुचाती थीं। अम्मा भी उन्हें हिंग, बासमती के चावल, और ननिहाल से आये मक्के के दाने
भिजवाती थीं। अम्मा का यह लगाव मुझे अच्छा लगता था। कभी.कदार अम्मा उनके घर भी
जाती थीं। और देर तक बतियाती थीं।सुघरी भौजी अभी दुल्हिन थीं। सो घर से यदा-कदा ही
निकलती थीं।
उस दिन जब बुढिया के डंडे से बच गया था।
उसके कुछ दिनों के बाद की बात है। मैं खेल कर घर आया था। माँ ने कहा था कि जाओ साव
जी की दूकान से जाकर सौदा ले आओ। कल कोई त्यौहार था। सरसों के तेल की खाली शीशी दी
और कुछ रुपये दिए थे। उन्होंने कुल दस बीस सामानों के नाम गिनाये थे। मैं शीशी को
हवा में उछालते हुए दौड़ा चला जा रहा था। साव की
दूकान पर पहुचने पर पता चला कि मुझे वे सारे नाम भूल गए है जो सौदे मैं
खरीदना चाहता था। वल शीशी हाँथ में रहने की वजह से इतना याद था कि मुझे तेल लेना
है। उन दस-बीस नामों में से मुझे सटीक कोई नाम नहीं याद आ रहा था। सामने दूकान में
तो रसोई के कई सामान दिख रहे थे लेकिन माँ ने ठीक ठीक क्या कहा था, मुझे याद नहीं आ रहा था।
साव ने टोका कि मुन्ना! क्या सोच रहे हो? क्या लेना है?
बताओ? मैं वही उनकी चैकी पर धम्म से बैठ गया
था। ऐसा कैसे हो सकता है? मुझे दस क्या बीसियों नाम
मुंहजबानी याद रहते है आज तक। यहाँ तक कि मैंने कभी उन नामों को कागज पर लिख के
नहीं लाया था। जैसा कि कुछ लोग कभी कभी
लाते थें। मेरे चाचा को ही कोई सामान बाजार से लाना होता था तो वे बाकायदा एक पुर्जी
पर लिख लेते थें।
घर बेहद उदास मन से
लौटा। और माँ से पूछा कि तुमने क्या कया खरीदने को कहा था मैं तो भूल गया। चावल
पछोरती माँ के हाँथ रुक गए। उसे एक बार विशवस ही नहीं हुआ की ऐसा हुआ होगा। पहले
तो उसे मजाक लगा था। मुझे सचमुच गंभीर देखकर उसने पास बुलाया और मेरा मुंह सूंघते
हुए कहने लगी कि तुम्हारा दिमाग तो ठीक है न? कुछ खा पी के तो नहीं आया है। मैंने नकार में सर
हिलाया। उस दिन पहली बार मैं कोई चीज भूला था। इतनी धारदार स्मृति इतनी जल्दी और
ऐसे कैसे कुंद हो सकती है? यह मेरे लिए बहुत बड़े धोखे की
बात थी। पहली बार मेरी आत्मविशवास जड़ से हिल गया था। उस रात माँ देर तक मेरे माथे
पर सरसों का तेल मलती रही। बेर के पेड़ से गिरने की बात मैंने उसे नहीं बतायी थी।
इसके
कुछ दिनों बाद तक मेरे जीवन में ऐसी घटनाएं
घटती रही जिसने मुझे आसमान से जमीं पर पटक दिया था। चिट्ठी लिखते हुए मुझे
एक ही बात बार बार पूछनी पड़ रही थी। एक बार तो बहुत भरी भूल हो गयी जहाँ मुझ पता
लिखना चाहिए था वहां मैंने प्रेषक का नाम लिख दिया था। मुझसे ठीक .ठीक अनुवाद नहीं
हो रहे थे। लिखते हुए कई बार कट-पिट करनी पड़ रही थी। घर में पढ़ते वक्त मैं अपनी
कलम कहीं रखकर भूल जाता था। या कोई किताब स्कूल जाते वक्त ले जाना भूलने था। एक
बार मैंने अपनी किताब दुसरे को दे दी थी और उससे लेना भूल गया था। और बार बार घर
के सारे कोनो को खंगाल रहा था। शुक्र है जिसे मैंने दिया था उसने मुझे दो दिन बाद
लौटा दिया। मुझे यह तक याद नहीं पड़ रहा था कि उसे मैंने कब किताब दी थी। यहाँ तक
कि उसने याद दिलाया फिर भी मैं नहीं पकड़ पाया था।
एक बार तो गजब का हुआ गणित के सवाल लगाते हुए मैं उस प्रश्नावली में गलती
कर गया था जो मुझे सर्वाधिक प्रिय था। गुरूजी ने सोचा की छोरा मजाक कर रहा है। मैं
उनके पास वाली जगह पर बैठा था। वे मेरी कापी पर देख रहे थे। पहले तो उन्हें
विश्वास ही नहीं हुआ ण्फिर पूछा कि मुन्ना क्या तुम्हारी तबियत खराब है। मुझे कुछ
अपमान में एकुछ स्मृति के धोखे पर इतना
गुस्सा आ रहा था कि चक्कर जैसा आ गया। मैंने कहा था कि गुरु जी मेरा सर घूम रहा
है। कुछ देर सोच कर वे मुझे नल पर ले गए और देर तक मेरे सर पर पानी गिराते रहे।
फिर तो चाचा जी आ गये थे। वे मुझे घर ले आये।मैं आते ही सो गया था। माँ उन दिनों
रोज मेरे सर पर तेल की मालिश कर रही थीं।
इसके कई
प्रभाव पड़े थे। सबसे बुरा तो यह था कि कुछ दिनों के बाद मुझे उस चिट्ठी लिखने से
उबन पैदा होने लगी थी। कोई मुझे बुलाने आता तो मैं छिप जाता था। या फिर कलम की
स्याही खत्म हो गयी है। या बाजार में अंतर्देशी खत्म हो गयी। या आज तबियत ठीक नहीं
है। या कल लिखूंगा या हाँथ कट गया है। ऐसे ही कई किस्म के बहाने बनाने लगा था। माँ
बेहद चिंतित थीं। अब घर से कम निकलता था। मुझे समझ में नहीं आ रहा था मुझे क्या
होता जा रहा है। यहाँ तक कि स्कूल जाना मुझे प्रिय था। लेकिन अब बहाने गढ़ने लगा
था। घर रहकर कमरे में सोया रहता था। दीवार पर चिपकाएँ पोस्टर को देखते हुए मुझे कब
नीद आ जाती थी पता ही नहीं चलता था। जब जागता था तो शाम घिर आती थी। उन वक्तों में
मेरा सर पृथ्वी के गति की तरह भारी और घूमता रहता था।
इसी तरह जीवन में उमस भर रही थी कि एकाध
महीनो के बाद वह हुआ जो मैं क्या कोई सोच नहीं सकता था। इस घटना ने तो मेरे जीवन
की भीत हिलाकर रख दिया। एकदम सुबह की बात थी मैं सोकर उठा था। दुआर पर शोरगुल हो
रहा था। भौजी कल शाम दवाई लेने कसबे में गयी तो फिर लौटी ही नहीं थी। वे अपना
संदूक समेत भाग गयी थीं। लोगों ने उनके नैहर में पता करवाया तो वहां भी नहीं थीं।
भौजी की जो भी दूर की रिश्तेदारियां थीं वहां भी खबर भिजवा दी गयी थी। नतीजा नगण्य
था। उनकी सहेलिओं के गाँवों में भी पता किया गया था। गाँव के कई आदमी सायकिल पैदल टोर्च
गोजी और अन्य संभव साधनों से उन्हें खोज रहे थें। यहाँ तक की ताल-पोखर खेत-खलिहान, गदही-गुच्ची सभी जगह खोज
ली गयी। कुछ नौजवान गाँव के दूर पास के ईख-अरहर के खेतों में पड़ताल कर रहे थें।
लेकिन सुबह तक भौजी का कहीं पता नहीं चला था। बलेसर को तार दे दिया गया। तार चाचा
ने लिखा था। तार में लिखा था जितनी जल्दी हो घर चले आओ। आने पर पता चला था कि बालेसर समझ रहे थें कि उनकी बुधिया अम्मा मर
गयी। जब पता चला कि नहीं सुघरी भागी है तब एकदम वज्र सा परभाव हुआ था उनपर। वे
भूसे वाले घर में गए वहां से वे गंडासा निकाल लाये थे। कह रहे थे कि साली रंडी बस
एक बार मिल जाए तो बोटी बोटी कर के मांस कौवों को अपने हांथों से खिलाउंगा। और
बुढिया अपनी शारीरिक क्षमता से अधिक जोर लगाकर गालियाँ बक रही थीं। पहले तो मुझे
समझ में नहीं आया कि हो क्या गया है। लेकिन आगे जो कुछ हुआ था उसका सीधा प्रभाव
मुझपर पड़ने वाला था।
भौजी के भागने के बाद सारे लोग मेरे पास आये थें। वे कह रहे थें कि मुन्ना
से कुछ सुराग मिल सकता है। साथ में बालेसर भी थें। उन्हें मेरी पढ़ाकू स्मृति पर
भरोसा था। मेरे चिट्ठी लिखने के कुछ दिनों के बाद भौजी भागी थीं। सो वे चाहते थें
कि मैं अपनी याददाश्त का प्रयोग करके उन्हें बस चुटकी भर सुराग दे दूँ तो वे उसे
ढूढ़ निकालेंगे। कहते हुए अतिशय आवेग में भचक कर गिर गिर जा रहे थे। साथ में
पैदाईशी सीखी गयी गालियाँ भी बक रहे थें। और मेरी स्मृति की हालत हालत अब फटे हुए
जेब की तरह थी। जिसमे कुछ भी डालो सरक जाता था। लेकिन उन्हें यह बात कहाँ से मालूम
होती। मुझे यहाँ तक याद नहीं था उन्हें मैंने भौजी की चिट्ठी लिखी है कि नहीं।
जबकि लोग चिल्ला रहे थें कि मुन्ना ने पिछले महीनो भौजी की चिट्ठी लिखी थी। लेकिन
सच में मैं कुछ नहीं जानता था। इसलिए मैं मुकर गया कि मैंने कभी चिट्ठी लिखी है
सुघरी भौजी की। वह गाँव वाले जिनका मैं आज तक दुलारा था एक झटके में उनके लिए
खलनायक बन गया था। वे सीधे सीधे मुझ पर आक्षेप लगा रहा थें कि मैं झूठ बोल रहा हूँ।
घोडा अपनी घुड़सवारी भूल जाये ,कोयल अपनी कुंक भूल जाए और कुत्ता की पूंछ भले सीधी हो जाए लेकिन ऐसा कैसे हो
सकता है कि मुन्ना की याद्दाश्त में किसी की लिखी चिट्ठी का एक भी शब्द बाकी न रहे
जाए। वह भी ऐसी चिट्ठी जिसे लिखे मुझे महीने भर भी नहीं बीते हों। बालेसर मुझे एक
कोने में ले गए और मेरी जेब में दस का नोट
डाल दिए। और बम्बई से लाए बिस्किट और टाफी डालते हुए और अपनी आँखों में दुनिया की
सारी लाचारी उतारने के बाद बोले कि मुन्ना बता दो उस चिट्ठी में क्या लिखा था कुछ
भी बता दो। दस का नोट मैंने देखा तक नहीं था। मुझे झुरझुरी हुई। लेकिन जब कुछ याद
ही नहीं था तो क्या बताता। पहले तो मुझे यह भी पता नहीं था कि चिट्ठी और भौजी के
भागने से क्या समबन्ध है। अगर है भी तो मैं उन्हें बस ऐसे ही बता सकता था। मुझे
रुपयों और अन्य चटोरी लालचो की जरुरत तक नहीं थी। मैं भी चाहता था कि भौजी लौट
आयें। लेकिन बालेसर ने अपने हाँथ में गंडासा क्यों लिया था। मैं नहीं समझ पा रहा
था। बुढिया ने अपनी बहू को गाली देते हुए जैसे ही मुझे लपेटे में लिया वैसे ही
अम्मा गरज उठी। कहा कि खबरदार किसी ने मुन्ना को कुछ कहा तो। मेरे बच्चे की तबियत
महीनो से नासाज चल रही है। अम्मा ने खुद बुढिया को लपेट में ले लिया कहा कि तू खुद
ही चुड़ैल है तेरे डंडों की वजह से भागी होगी और बालेसर की ओर देखते हुए कहा था कि जब जानते थें कि बहु को आये दो
दिन भी नहीं हुआ तब बम्बई क्या लूटने चले गए। उस कलूटी में क्या रखा था। जो सुघरी
में नहीं रखा था। अब जब चिडि़या चुग के उड़ गयी है तो हमारे घर आके कहे कपार फोड़
रहे हो। इसके बाद वे मुझे अपने गोद में लेकर रोने लगी।
गाँव के सारे वे लोग भौजी के प्रति कठोर हो चुके थे जो उनके गुणों का बखान
करते हुए नहीं थकते थें। वे सभी भौजी के नाम पर थूक रहे थें। नजदीकी स्टेशन पर पता
कर आये थें लोग। केवल मैं ही एक भरोसा था। जिसपर से उनका विश्वास उठ चला था। वे
आड़ में मेरे नाम से गालियाँ दे रहे थें। मेरी अम्मा को कोस रहे थें। कहने वाले
यहाँ तक कह रहे थें कि मैं और मेरी अम्मा ने उसे भगा दिया है। कैसी घुल-मिल का बात
करती थी। सब्जियां हिंगदाने और पता नही क्या क्या पहुचाती थी। अब जा के पूछ लो तो
उनके नाम से एक बकार तक नहीं निकल रही है। अम्मा भी मेरी वजह से चपेट में आ चुकी
थी। मुझे लोग गाली दे रहे थें। कह रहे थें साला कमीना बहुत पढ़ाकू बनाता फिरता है।
और कहता है कुछ भी याद नहीं। अभी कोई कान के नीचे दस चमेट लगा के देख ले पक्का बकर
देगा।
कुछ दिनों तक
अम्मा से और मुझसे किसी ने नहीं बोला। लोग मुंह फेरने लगे थें। मेरा तो ठीक था। पर
मेरे चिट्ठी लिखने के इस कर्म में अम्मा बेवजह पिस गयीं थीं। लोग हमारे रास्तों से
हट कर अपना रास्ता बदल ले रहे थें। गाँव में यह प्रचलित कर दिया गया था कि भौजी के
भागने की योजना में हमने मदद की है। मुझे मालुम था कि ऐसा मेरे दुश्मनों ने किया
है। पर घटनाएं ही कुछ ऐसी थीं वे लोग भी अन्दर अन्दर सही मान बैठे थें जिनका हमसे
लगाव था। लोग कहते थें कि मेरी अम्मा ने ही सुघरी को बिगाड़ दिया था। और बेटे ने
उसके यार को चिट्ठी लिखी थी।लोग राह चलते बोली बोलते थें।मेरा खून खौल जाता था।
मैंने अपना अंतिम निर्णय लिया और चिट्ठी
लिखनी एकदम से बंद कर दिया। चाचा ने भी अब यह काम बंद कर दिया। लोग अब दुसरे गाँव
से जो कोस भर ही था चले जाते थें। और शाम तक लौटते थें। पता नहीं उनकी चिट्ठियाँ
कैसे लिखी जाती थीं। कितनी सुन्दर लिखावट और किस स्तर के अनुवाद होते थे। जानने का
मन होता था।पर देखने के लिए मैं किसी से मांगता नहीं था। और मागता भी तो पता नहीं
कोई देता कि नहीं। कह नहीं सकता। उन दिनों हमारी हालत खराब हो गयी थी।
मेरे संग गाँव
के लडके अब नहीं खेलते थें। मैं टूट चुका सितारा हो गया था। अम्मा जिसके बारे में
लोग कहते थें कि उसकी संगत ठीक नही। बुढिया बीते रात तक मुझे और घर वालों को खूब
श्रापति थी। बालेसर कुछ ही दिनों में बम्बई चले गए थें। मैंने अपनी लगातार गुम
होती स्मृति के कारण स्कूल जाना बंद कर दिया था। इस कक्षा में मैं अनुतीर्ण हो गया
था। किसी दूसरे गाँव का महेशवर शाहू का लड़का सर्वाधिक नंबरों से उतीर्ण हुआ था।
जो शुद देता था। और उसकी दूकान भी थी। एक बार जब मैं उसकी दूकान पर गया था तो उसने
ऐठते हुए कहा था कि क्या बे दल्ले स्कूल कहे नहीं आता घर मैं वैसे ही खाली हाँथ लौट आया था। माँ से
बताया तो वे रोने लगी। रात में मुझे डर लगने लगा था। कभी-कदा लालटेन जलाता पर
थोड़ी देर तक पढ़ते ही सर चक्कर करने लगता था।कभी-कभी लगता था कि पास ही कोई जीव
आकर खड़ा हो गया है। मैं लालटेन उठकर उसे ध्यान से देखने की कोशिश करता था। पर
लालटेन की मुट्ठी भर रोशनी कुछ दूर के बाद ही जाके दम तोड़ देती थी। मैं डर जाता
था। जल्दी लालटेन बुझाता और अम्मा के बिस्तर पर चला आता था। अम्मा पूछती क्या हुआ
मुन्ना? बदले में मुझे रोना आता
था। उनके ऊपर वैसे ही दुखों का पहाड़ था। मैं उन्हें कुछ नहीं बताना चाहता था। मै
उनसे कहता कि बस ऐसी ही अम्मा अकेले मन नहीं लग रहा है। और उनसे चिपक जाता था। वे
खटिया से उतर कर जाती और तेल की एक शीशी लाती जिसे पहले से ही वे बाल्टी में ठंडा
होने के लिए डाल कर रखती थीं। देर तक मेरे सर की मालिश करती रहती थीं। मुझे पिता
जी की बहुत याद आती थी। मैंने उन्हें नहीं देखा था पर मैं सोचता कि अगर वे होते तो
शायद हमारी यह दुर्दशा नहीं होती। आजकल आजी ने भी दाना भुजाते समय भार को लेकर
कीच. कीच नहीं करती थीं। भुजाने वाली जो भी मांगती दे देती।
कुछ
दिनों बाद गाँव का कोई सालाना मेला था। सभी बच्चे जा रहे थें। धान के खेत कुछ कट
रहे थें। कुछ दो चार दिन में बस कटने ही वाले थे। बच्चे खेतों के बीच से सुनहली
धुप में नहाते हुए दौड़ते हुए जा रहे थें। मेरा मन नहीं था। मैं बस ऐसे ही खाट पर
आँगन में लेता आसमान के बादलों को देख रहा था। माँ बाहर से आई और कहा कि मेला
देखने नहीं जा रहे हो मुन्ना। मैंने जवाब नहीं दिया और दुसरे करवट हो गया। कच्चे
घरों की दीवारों पर चढ़ रही ननुआ की लतरों के घुमाव को देखने लगा था। माँ ने मुझे
उठाया और बाल्टी के पास ले जाकर मेरा हाँथ मुंह धुलाया। मेरी नयी शर्ट निकाली और
पहना दिया। उसने मुझे दो रुपये भी दिए थे। अपना तो नही पर अम्मा का मन रखने के लिए
मैं बाहर निकल आया। और उस और जाने लगा था जिधर मेला लगा था। गाँव से तीन कोस की
दुरी पर।अगर तिक्खे जाओ तब। खेत-खलिहान। टीले-पोखर से होते हुए तब।
कुछ दूर तक जाने के बाद मेरा मन नहीं हुआ। और पोखरे की और मुड़ गया था।
वहां मैं भिटे पर देर तक बैठा रहा। दूर से आ रही धुप सीधे पानी को भेद रही थीं।
पानी के अन्दर भाग रही मछलियाँ चमक जाती थीं। मेरा मन एकदम नहीं लग रहा था। मैं
टीले के एकदम ऊपर चढ़ गया। और जैसे ही कूदने वाला था कि हल्का. सा चक्कर आया और
मेरा पैर लडखडा गया। मैं पानी में नहीं गिरा। थोड़ा किनारे, जहाँ पानी उथला था वहां
गिरा था। मेरे सर पर ठीक वहीँ चोट आई थी। जहां उस वक्त बेर के पेड़ से गिरते वक्त
आई थी। मैं देर तक उसी पानी में लेता रहा। पानी थीर पड़ गया था। मछलियाँ बिलकुल
मेरे पास से होकर निकल रही थीं।
थोड़ी देर के बाद मैं फिर खडा हुआ और वहीँ से कूदा। मैं ठीक बीच पानी में
गिरा था।अब मैं तैर रहा था। मैंने अपने को डूबा दिया। मैं सीधे तली की और जा रहा
था। वहां सीपिया थीं। घोंघे थे। झिंगें थें। छोटी-बड़ी मछलिया थीं। सेवार थें। हरी
वनस्पतियाँ थीं जिसके नाम तक मैं नहीं जानता था। कुछ जलपत्तियाँ थीं। मैं ऊपर नहीं
आना चाहता था। मैं इन्ही सब चीजों के बीच
में हमेशा के लिए रह जाना चाहता था। लेकिन इसके लिए मुझे सांस लेना भूलना होगा। और
सांस लेने को भूलना भी चाहूँ तो नही भूल सकता था।मैं सोच रहा था कि यह कला मछलियों
ने कैसे सीखी होगी। मैं पोखर के बीच में था और एकदम नीचे जा रहा था कि अचानक मेरी
जेब से एक कागज का टुकड़ा निकला था।आसमानी रंगों वाला। वही अंतरदेशीय जिसपर मैंने
भौजी की पहली चिट्ठी लिखी थी। वह चिट्ठी मेरे जेब से निकालकर मेरे साथ तैरने लगी
थी। उसके शब्द बेहद साफ-साफ मेरे साथ तिरने लगे थे। वे चिट्ठी के पन्ने से साथ
छोड़ रहे थें। उन शब्दों को मैंने पकड़ना शुरू किया।वे हू ब हू पकड़ में आ रहे थे।
एक तरह से मुझे सब याद आ रहा था। भौजी का रोना। उसके फैलते हुए काजल।उसकी हंसी वह
अन्धेरा। सब उस तली में बिखरने लगे थे। मैंने उन्हें बटोरना शुरू किया। वैसे ही
जैसे जब मैंने घर आकर चिट्ठियाँ लिखने के लिए उन सारी यादों को जमीं पर बिखेर दिया
था। मुझे सारी चीजें याद आ रही थी। ये मैं दौड़ता हुआ जा रहा हूँ। दोनों हांथों
में चिट्ठियाँ को पंख की तरह था। ये मैं लिख रहा हूँ। ये सब पोस्टर। और यहाँ तक कि
भौजी का भागना दिख रहा है। भौजी स्टेशन पर भोर की गाड़ी पकड़ रही हैं। साथ में वही
लड़का है। जो तसवीर में उस दिन उनके साथ था। उस लड़के के हाँथ में मेरी चिट्ठी है।
वह मेरे लिखावट की तारीफ कर रहा है। अब मेरे जेहन में सब पानी की तरह साफ होता जा
रहा है। भौजी ने कलकत्ते वाली रेलगाड़ी पकड़ी है। और इसी के साथ रेलगाड़ी देखने की
मेरी तम्मना पूरी हो गयी है। मुझे सचमुच मालूम हो गया है रेलगाड़ी कैसी होती है।
मेरी सांस थमने लगी है। मैं एक झटके से ऊपर की और बढ़ रहा हूँ। ऊपर आकर मैंने खूब
खूब जोर जोर से सांस लेना शुरू कर दिया है। वह चिट्ठी अपने सारे शब्द उस पोखर में
खो चुकी है। अब बस वहां धब्बे बचे हैं। मैंने उसे वही छोड़ दिया।
उस
दिन मैं दौड़ते हुए घर आया था। गाँव मेले के कारण पूरा खाली था। आँगन में माँ
पपीते के पेड़ को पानी दे रही थी। सीधे माँ के गले लिपट गया था। मैं भींगे कपड़ों
में ही था। माँ को सारी बाते बताने लगा था। मेरी स्मृति लौट चुकी थी। मुझे एक एक
बात याद आ गयी थी। वे मेरी बातें ध्यान से सुनती रही थी। मैं फिर से धरापरावाह बोलने
लगा था। यह माँ के लिए बेहद खुशी की बात थी। कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने कहा था
कि बेटा अगर सचमुच तू मेरा बेटा है तो ये सब बातें किसी को मत बताना। वैसे ही हम
लोगों की भद्दा पिट चुकी है। अब और मैं नहीं सह पाउंगी। और यह भी बात कही कि मुझे
तो याद ही था कि सुघरी की चिट्ठी तूने लिखी थी। और उस दिन मैंने तुम्हें पपीते भी
दिए थे। याद करो उस दिन सुघरी ने उस खाली झोले में लौकी भरकर भेजा था। पर बेटे जब
तुझे कुछ याद ही नहीं आ रहा था तब मुझे सांप थोड़े ही काटा था कि कुछ कहूँ। उस दिन
को सोचकर मैं अन्दर तक भींग गया था। कुछ भी कह लें माँ उस दिन अपने बीमार बेटे के
पक्ष में तनकर खड़ी थीं। मैंने माँ से वादा किया की अब मैं आपको कभी नहीं सताउंगा।
मैं देर तक उससे लिपटा रहा। मुझे नया जीवन मिल रहा था।
बस अब कहानी खत्म ही समझिये। अगले साल मैं स्कूल जाने लगा था। मैं फिर से दुलारा हो चुका था।
मैंने चिट्ठी लिखनी छोड़ दी थी। गाँव में रिश्ते जिस गति से बिगड़ते थें। उसी
त्वरण से अच्छे भी हो जाते हैं।अब अंतर्देशीय देखते ही मुझे सुख. दुःख एक साथ याद
आने लगते थें। मैं एक साल इसी वजह से पिछड़ भी गया था। बुढिया अगले साल मर गयी थी।
बालेसर उसके क्रिया करम में आये थे। साथ में वह भी आई थी। काली औरत। उसके नैहर के
लिए एक चिट्ठी लिखनी दी थी। मैंने मना कर दिया। मैंने एक निर्णय तो बहुत पहले ले
लिया था जो मेरे जीवन और मेरे परिवार के लिए था कि कुछ भी कर लो पर चिट्ठी कभी
नहीं लिखनी है।
अचानक एक दिन की बात है। लगभग दो साल बीत चुके थे। मैं दो कक्षा और बढ़ गया
था। बाजार से लौटते हुए डाकिये ने मुझे टोका। उसने मुझे एक चिट्ठी दी थी। वह एक
लिफाफा था। लिफाफे को मैंने घर आके खोला था। और खोलते ही चौंक गया था। उसमे भौजी
की एक फोटो थी। साथ में वही आदमी था।वह थोड़ा मोटा हो गया था और भौजी के भी गाल
बाहर निकल आये थे। उस आदमी ने मूछ भी रखनी शुरू कर दी थी। भौजी के हाँथ में कोई
गुलदस्ता नहीं था। एक छोटी सी बच्ची थी। बच्ची हंस रही थी। साथ में भौजी भी हंस
रही थी।वह लड़का भी हंस रहा था। पर उसकी मुसकान उसके मुछो में छिप गयी थी। मैंने
उस तस्वीर को माँ को दिखाया। कुछ देर तक देखती रही फिर उसके चेहरे पर एक दुर्लभ
किस्म की कोमलता फैलती गयी। उसने बस इतना कहा कि कभी किसी को मत दिखाना।हो सके तो
फाड़ कर फेंक दो। लेकिन कई बार के प्रयास के बाद भी मैं ऐसा नहीं कर पाया था। मैंने उस तस्वीर को अपने
कमरे के पोस्टर के नीचे रख दिया। मैंने लिफाफे को पलट कर देखा। भेजने वाले का कहीं
पता नहीं था। मेरे पते में मेरा नाम किसी नौसिखिये ने ‘‘मुन्ना’’ लिखा था। शायद भौजी ने ही लिखा हो। अगले दिन मैंने एक अंतर्देशीय खरीदी
थी। दुआर पर बैठे बैठे उस पर मैं एक तितली का चित्र बना रहा था कि किसी ने टोका
मुन्ना ने फिर से चिट्ठी लिखना शुरू कर दिया है। मैंने देखा।कोई नहीं था। अगले दिन
मैंने उस तितली बने चित्र को बिना पते के ;जैसे पहली बार छोड़ा
था , जाकर डाक में छोड़ दिया था। पता नहीं क्यों मुझे विश्वास हो चला था कि कुछ
चिट्ठियाँ बिना पते की भी होती है और वे कटी पतंग की तरह नहीं होती हैं। वे वही
पहुचती हैं जहाँ उन्हें जाना होता है।
परिचय और संपर्क
अरविन्द
बी.एच.यू. से पढाई-लिखाई
प्रतिभाशाली युवा कवि
फिल्मों में गहरी रूचि
आजकल कहानियां भी लिख रहे
हैं
बीते हुए एक भावुक समय और उस यथार्थ की कुरूपता की यात्रा में ले जाती यह कहानी सुघरी भौजी की सफलता (जीवन जीने की) पर खत्म हो कर राहत देती है. अच्छी कहानी. बधाई अरविन्द को.
जवाब देंहटाएंबधाई अरबिंद जी आपको एसे लिखते रहिये , सच मानिये आज दीवली है सुबह से ही अगर कुछ अच्छा महसूस कर रहा हु तो आपकी ये कहानी पढ़कर .तहे दिल से सुक्रिया
जवाब देंहटाएंयार... प्यारी और पूरी सी कहानी लिखी हैं अरविन्द... अच्छा लग रहा हैं. सुन्दर.
जवाब देंहटाएंकहानी में भी कविता का अंदाज बना हुआ है. कहन का ढंग बहुत विशिष्ट है. सुघरी भौजी की उद्दाम लालसाओं को जिस तरह व्यक्त किया है वह अनूठा है. मुन्ना उस उद्दाम बहाव में सुध-बुध खो बैठता है. मजेदार कहानी.
जवाब देंहटाएंरमाकांत जी की टिप्पणी को पढ़कर मेरा ध्यान इस बेहतरीन कहानी की ओर गया, रमाकांत जी को हार्दिक धन्यवाद और अरविंद जी को बधाई तथा ढेर सारी शुभकामनाएं. कहानी मन को छू गई. गांव का वातावरण कब अपने गांव में खींच ले गया यह पता भी नहीं चला. अरविंद जी इसी तरह शानदार कहानियां लिखते रहें इसके लिये मेरी अशेष शुभकामनाएं!!!!!
जवाब देंहटाएंBHOJPURI BOLI KI BOLCHAL WALI LAY,BHOJPURI SAMAJ KI ANTARLAY,BIDESIYA KI SI SAMVEDNA,SIMPATHI KIJAGAH APATHI WALI STHITI YA SWANUBHUTI KA GAHARA RANG,BITE HUYE CHITTHIRASI-SAMAJ KA MARMIK CHITRAD......KUL-JAMA BEHTARIN KAHANI
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर !कहानी अंत तक आते आते नयी सी लगी ...खूबसूरत !
जवाब देंहटाएंशानदार कहानी.
जवाब देंहटाएंकहा जाता है कहानी वही सुन्दर होती है जिसे जिसे पढना न पड़े वह ख़ुद पढवा ले जाय इस दृष्टि से भी अरविन्द जी की कहानी खरी उतरती है कथानक् सुगठित है अपने उद्देश्य में भी पूर्ण है
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