ओमप्रकाश बाल्मीकि
पिछले कुछ दिनों में हिंदी साहित्य ने अपने कई मूर्धन्य विद्वानों
को खोया है | युवा कवि और ब्लॉगर अशोक कुमार पाण्डेय अपने इस लेख में उन सब महान
विभूतियों को याद कर रहे हैं | आप सब की तरह सिताब दियारा ब्लॉग भी अपने आपको इस
स्मृति लेख में शामिल करता है |
प्रस्तुत
है यह स्मृति लेख ‘हिंदी का शोककाल’
हंस के सम्पादक और नई कहानी की त्रयी के
सदस्य रहे राजेन्द्र यादव के अवसान के बाद से ही मानो हिंदी का शोककाल चल रहा है. गोरखपुर से
ख्यात कवि और आलोचक परमानंद श्रीवास्तव जी के जाने की ख़बर आई फिर लखनऊ से प्रख्यात व्यंग्यकार के पी सक्सेना जी के. अभी हम इस आघात से उबर भी नहीं
पाए थे कि हिंदी-राजस्थानी के अत्यंत सम्मानित लेखक विजयदान देथा ने अपने गाँव बोरुन्दा में अपनी आख़िरी
साँस ली. जीवन भर बच्चों के लिए उत्कृष्ट साहित्य का सृजन करने वाले हरिकृष्ण देवसरे का बाल दिवस वाले दिन ही चले जाना जैसे
एक बड़ी विडंबना रच गया तो उसके तीन दिन बाद ही वरिष्ठ कवि और लेखक ओम प्रकाश वाल्मीकि जी के निधन की खबर देहरादून से आई. महीने भर से कम समय में अपने परिवार के इतने
सदस्यों को खोकर हिंदी का साहित्य समाज जिस शोक और संताप में डूबा है उसे शब्दों
में तो कोई क्या व्यक्त कर पाएगा. बस जैसे कि एक युग अपने बीतने की घोषणा कर रहा
हो, जैसे नाटक के एक दृश्य के दुखांत के बाद यवनिका के पतन के साथ कोई शोकाकुल
संगीत बज रहा हो, जैसे नई पीढ़ी के कन्धों पर जिम्मेदारियाँ इस शोक के साथ चुपचाप
आकर बैठ गई हों.
राजेन्द्र यादव
युग समाप्त हो जाने वाली बात मैं किसी
अतिरिक्त भावुकता में नहीं कह रहा. जिन रचनाकारों को हमने खोया है वे सभी अपने
अपने क्षेत्रों के बड़े लेखक ही नहीं बल्कि ट्रेंड सेटर जैसे थे. राजेन्द्र यादव
कमलेश्वर और मोहन राकेश के साथ नई कहानी के प्रवर्तक थे. यह स्वाधीनोत्तर भारत के
मध्यवर्गीय जीवन के संत्रास की तीव्रतम अभिव्यक्ति वाला दौर था. ‘जहाँ लक्ष्मी क़ैद
है’ जैसी कहानियों और ‘सारा आकाश’ जैसे उपन्यास ने जैसे इस नए भारतीय समाज के
अंतर्विरोधों को एकदम से सामने ला दिया. साथ ही, अक्सर सामूहिकता का दावा करते
लेकिन व्यक्तिगत परिक्षेत्र में संचालित होते साहित्य कार्य से आगे बढ़कर उन्होंने
हंस जैसी पत्रिका निकाली और अक्षर प्रकाशन की नींव डाली. हंस सिर्फ पत्रिका नहीं
एक आन्दोलन में तब्दील हुई. सहमति-असहमति अलग बात है पर हिंदी साहित्य में स्त्री
और दलित आवाजों के लिए जगह तलाशने और उन्हें सम्मान सहित मुख्यधारा में लाने का जो
ज़रूरी काम हंस ने किया उसने हिंदी साहित्य की परिधि का महत्त्वपूर्ण विस्तार किया.
यही नहीं, हंस अपनी लोकतांत्रिकता और सम्पादकीयों की प्रखर पक्षधरता के साथ साथ इस
बात के लिए भी याद किया जाएगा कि इसके सम्पादक ने एक लघु पत्रिका के लिए यह ज़रूरी
मानक स्थापित किया कि पत्रिका सम्पादक के आत्मप्रचार के लिए नहीं होती. राजेन्द्र
जी शायद ही कभी सम्पादकीय के इतर दिखाई देते थे. बाद में पहल जैसी पत्रिका में
ज्ञानरंजन जी ने यही किया और कुछ अन्य पत्रिकाओं ने. राजेन्द्र जी की बीमारी के
बाद हंस ने अपनी चमक धीरे धीरे खो दी थी और अब कम से कम मुझे तो उन लोगों से कोई
उम्मीद नहीं दिखती जिनके हाथों में इसकी विरासत है वह हंस की परम्परा को समृद्ध कर
पाएंगे.
विजयदान देथा
विजयदान देथा, जिन्हें उनके आत्मीय बिज्जी
कहा करते थे, लोक साहित्य के दुर्लभ अध्येता और साधक थे. भारतीय मानस और मेधा का
उत्कृष्ट उदाहरण, जिन्होंने लोककथाओं को अपने विशिष्ट
अंदाज़ में प्रस्तुत किया.
उन्होंने राजस्थान की लोककथाओं का
चौदह खंडों में ग्रंथमाला ‘बातां री
फुलवारी’ का पुनर्लेखन
और संग्रहण
किया. उलझन’ व ‘अलेखूं हिटलर’ उनके राजस्थानी कहानी संकलन हैं। इसके अलावा भी हिंदी और
राजस्थानी में उनके अनेक कहानी संग्रह और उपन्यास आए, उन पर नाटक खेले गए, फ़िल्में
बनीं
और दोनों भाषाओं में वह सम्मानित हुए. जीवनपर्यंत अपने गाँव में ही रहने वाले
बिज्जी लोक के
अनूठे चितेरे होते हुए भी उन्हें अपने समय और समाज के आईने में
देखने के हामी थे. निरन्तर
लालच और मुनाफे की होड़ में क्षत-विक्षत होती मानवता और
बिखरते सामाजिक ताने बाने उनकी
चिंता के केंद्र में थे.
परमानन्द श्रीवास्तव
परमानंद श्रीवास्तव मेरे गोरखपुर
विश्वविद्यालय के दिनों में हिंदी विभाग में थे. हिंदी कविता के साथ साथ विश्व
साहित्य के उनके गहन अध्ययन और समझ का मैं व्यक्तिगत रूप से गवाह हूँ. एक आलोचक के
रूप में उन्होंने हिंदी को ‘प्रतिबद्ध कविता’ जैसा पद ही नहीं दिया बल्कि जिस
उदारता और सम्बद्धता के साथ उन्होंने नए से नए लोगों की रचनाओं को पढ़ा और उन पर
लिखा, वह दुर्लभ है. अंतिम समय तक सक्रिय रहे परमानंद जी मनुष्य के तौर पर जितने
सहज और सरल थे एक आलोचक के रूप में उतने ही गंभीर और नीर क्षीर विवेकी. हिंदी की
बेहद तोल मोल वाली आलोचना की दुनिया में उनकी उपस्थिति आश्वस्त करने वाली थी. के
पी सक्सेना व्यंग्य की दुनिया के एक अत्यंत सुपरिचित हस्ताक्षर थे तो हरिकृष्ण
देवसरे ने बच्चों के लिए किये जाने वाले बचकाने लेखन के बरक्स रोचक और अर्थपूर्ण
लेखन से हिंदी की कई पीढियों के बचपन को समृद्ध किया.
के पी सक्सेना
ओम प्रकाश वाल्मीकि हिंदी के दलित साहित्य
के एकदम आरम्भिक झंडाबरदारों में से थे. उनकी आत्मकथा ‘जूठन’ हमारे सामाजिक ढाँचे
के मनुष्यविरोधी जातिवादी उत्पीडन का ज़िंदा दस्तावेज़ है. एक कवि, कहानीकार और
विचारक के रूप में उन्होंने आजीवन इस शोषण और उत्पीडन के खिलाफ आवाज़ बुलंद की.
उनकी आवाज़ आथेंन्टिक भी थी और पुरअसर भी जिसकी गूँज हिंदी साहित्य ही नहीं समाज
में भी साफ़ सुनाई दी. उत्तर भारत में मज़बूती से उभरे दलित आन्दोलन में वाल्मीकि जी
जैसे साहित्यकारों की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.
हरिकृष्ण देवसरे
ज़ाहिर है ऐसे साहित्यकारों को खोकर हम
थोड़े और निर्धन हुए हैं और वे ख़ाली जगहें कभी भरी न जा सकेंगी, लेकिन उनका लिखा अब
भी हमारे साथ है. वह अमर्त्य है, लाईट हाऊस की तरह तूफानों में भी हमें रास्ता
दिखाता. बस उन राहों पर चलना और उन्हें
आने वाली पीढ़ी के लिए और स्पष्ट कर देना, यही उनकी यादों का सही तरीका हो सकता है
और श्रद्धांजलि का असल मानी.
हिंदी का शोक काल!
जवाब देंहटाएंyah sach me hindi ka shok kaal hai... aage hindi sahitya me is tarah ke trends ban payenge ya nahi, jis tarah ke hamare in purkhon ne banaye the, pata nahi... baharhaal ye wo samay hai jab ghar me koi hadsa ho jaane par bigdail ladka bhi jimmedaari mahsoos karne lagta hai...
जवाब देंहटाएंएक व्यापक स्मृतिहीनता के समय में अपने मूर्धन्यों का यह स्मरण,यह श्रद्धांजलि और यह कृतज्ञता-ज्ञापन सर्वथा प्रासंगिक और उचित लगा . उम्मीद करते हैं कि लेखकों की नई पीढ़ी इनसे प्रेरणा लेगी और बेहतर काम करेगी .
जवाब देंहटाएंसभी को विनम्र श्रद्धांजलि....
जवाब देंहटाएंये सभी एक युग कि तरह थे...अपूरणीय क्षति...श्रद्धांजलि...
जवाब देंहटाएंसच...बेहद दुखद....
जवाब देंहटाएंश्रद्धासुमन...
अनु
ek saath etne sahityekaro ka jana apurnye haani he. sabhi ko naman. manisha jain
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