रविशंकर उपाध्याय
रविशंकर से
मेरा परिचय कोई दो साल पुराना है | इस अवधि में मैं उन्हें उतना जानता हूँ , जितना
किसी भी आदमी को जानकर अच्छा लगना चाहिए | वे मृदुभाषी हैं , समझदार हैं , साहित्य
के अच्छे अध्येता हैं , कुशल आयोजक हैं , अच्छा लिखते हैं और उस लिखे को लेकर
हमेशा पीछे ही रहना चाहते हैं | बनारस के केंद्र में रहते हुए भी वे ,हमेशा उसकी चकल्लस
की परिधि से बाहर रहने की साधना करते रहते हैं | उन्हें देखकर मन में संतोष होता
है , कि इस दौर में भी कुछ सुन्दर चीजें बची हुयी हैं | एक लम्बे आग्रह के बाद
उनकी ये कवितायें मैं हासिल कर सका हूँ , और ब्लाग के हिसाब से एक लम्बे अंतराल तक
अपने पास रखने के बाद आज प्रकाशित कर रहा हूँ | जाहिर है , इस सौम्यता की कुछ कीमत
तो हम जैसे लोग भी वसूलते ही हैं | खैर ....
प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर युवा कवि
रविशंकर उपाध्याय की कवितायें ...
रविशंकर उपाध्याय की कवितायें ...
1... भ्रम
तुम्हारी धुरी पर
घूम रहा है
समय
तुम्हें भ्रम है कि
तुम्हारी धुरी पर
घूम रही है
पृथ्वी।
2 ... भूख
तुम भूखे हो
लूटने के लिए
हम भूखें है
क्योंकि
लुट चुके।
3... निःशब्द
ध्वनि चित्र
ढलती रात में आसमान के नीचे
ध्रुवतारे को निहारती
मेरी आँखें सप्तर्षियों पर जा टिकी
जो चारपाई के पाये से जुड़े
एक डंडे की तरह चुपचाप टिके हुए थे
हवा बार-बार आकर झकझोरती
और चाहती कि मेरा निहारना बंद हो जाए
मगर मेरी आँखें अडिग थीं
लेकिन इसकी भी तो सीमा है
जैसे इस असीम में हर किसी की सीमा है
पता नहीं कब मैं नींद में डूब गया
मगर आँखे बंद नहीं हुईं
(कहते है आँखें तो
एक ही बार बंद होती हैं
वो हमेशा खुली रहती हैं
कभी बाहर तो कभी भीतर की ओर)
इसे पता नहीं कब हमारे पूर्वजों ने
सपने की संज्ञा दे दी
आज वही सपना मेरा दोस्त था
और मैं उसके साथ निरूद्देश्य चला जा रहा था
कि अचानक नदी किनारे पहुँच गया
मेरे और सपने के बीच कोई बात
नहीं हो रही थी
वातावरण बिल्कुल शांत था
नदी का पानी भी शांत ही था
हाँ! कभी-कभी हलचल होती
जब नदी के अरार से
मिट्टी टूटकर छपाक-छपाक गिरती
और नदी में समा जाती
जैसे कोई पुराना रिश्ता हो उससे।
मैं इस दृश्य को देखने लगा
उस पल यह नदी मेरे लिए अनजानी थी
बस मेरा परिचय
उस नदी के साथ
बह रहे रेत कणों से था
और टूट-टूट कर गिरने वाली इस मिट्टी से
जो अब मुझसे ओझल हो रही थी
लेकिन इस ओझल हो रहे पल में भी
मिट्टी के टूट-टूट कर गिरने का दृश्य
मेरे भीतर अटका हुआ था
कि मेरी आँखे बाहर की ओर खुल गईं
और मेरा मित्र सपना
मुझसे विदा लेकर जा चुका था
कि ठीक इसी वक्त ऊपर से एक तारा
टूटकर गिर रहा था
इसी समय-गिर रही थी
चाँदनी, ओंस की बूँदे और पेड़ से पत्ते
इन सबको गिरते देखते हुए
मैं उस मिट्टी के गिरने को
देखना चाह रहा था
जो अब भी अँटकी थी मेरे भीतर।
4... मुगलसराय ज़क्शन का सर्वोदय बुक स्टाल
पटरियों पर दौड़ती रेल और उसकी
सीटियों के बीच
अलसुबह, प्रकाश खड़ा हो जाता है
किताबों के साथ
उस स्टेशन पर जिसे लोग ट्रेनों का मायका कहते है
मैं जब भी कहीं से लौटता हूँ
अपने गृह जनपद से सटे सबसे बड़े रेलवे स्टेशन पर
लौटता हूँ
जैसे माँ लौटती है अपने मायके
दीदी लौटती है जैसे अपने गाँव
मेरे जनपद का हर बंदा लौटता है परदेश से
उसी तरह
इस स्टेशन पर
यहाँ लौटते ही लगता है हर सुर-लय-ताल
सम पर आ गये है
रेल की कर्कश ध्वनि यहाँ संगीत में बदल जाती है
और सर्वोदय बुक स्टाल में चलती बहस
एक तान में
किताबों के पन्नों की फड़फड़ाहट
और ट्रेन के पहियों के बीच शुरू हो जाती है जुगलबंदी
प्रकाश का हर ग्राहक उसके लिए महज एक ग्राहक
नहीं होता
वह होता है, मुहिम का एक साथी
और हर किताब एक नारा
जिसे थमाकर वह अपने आन्दोलन को
और विस्तृत करता है
हर ग्राहक की स्मृति को संजो लेता है
अपनी डायरी में
और खुद बन जाता है स्मृति का हिस्सा
इस शहर के हर छोटे-बड़े लिखने-पढ़ने वालों की यह अड़ी है
जहाँ हर कोई करता है जुगाली
और धीरे-धीरे ज्ञान उसके भीतर
रिसने लगता है
मैं जब बढ़ता हूँ आगे
स्मृतियाँ भी होती है साथ
याद आती है माँ की वो बात
कि जब वह जाती है अपने मायके
वहाँ के धूल और फूल के साथ बंध जाती है
वाणी थोड़ी और मुखर हो उठती है
पाँव थिरकने लगते है
मन कुलाचें भरने लगता है
पूरी प्रकृति पंचम स्वर में लगती है गाने
उस संगीत के मिठास में, मैं चुपके से घुल जाता हूँ
जैसे सब्जी में घुल जाता है नमक!
5... तुम्हारा
आना
तुम्हारा आना
ठीक उसी तरह है
जैसे रोहिणी में वर्षा की बूँदें
धरा पर आती हैं पहली बार
जैसे रेड़ा के बाद फूटते हैं धान
और समा जाती है एक गंध मेरे भीतर।
तुम्हारा आना महज आना नहीं है
बल्कि एक मंजिल की यात्रा है
जिसमें होते है हम साथ
वहाँ कभी फिसलना होता है तो
कभी संभलना भी
उठना होता है तो कभी गिरना भी।
तुम्हारे होने की वजह से
शान्त जल में उठती रहती है लहरें
घुप्प अंधेरे में भी कहीं चमकती है एक रोशनी
तुम्हारा होना महज होना नहीं है
तुम्हारा आना सिर्फ आना भी नहीं है
और न आकर रूक जाना है
बस,
चलना है, चलते जाना है।
6 ... आवाज़
धूसर काली स्लेट पर
खड़िया से अंकित थी एक आवाज़
जिसे हमारे पूर्वजों ने संजो रखा था
गोड़ाने की खेत में
आज वहाँ शिलान्यास का उत्सव था
और चरनी पर बुलडोजर चलने की बारी
एक घुँघराले बालों वाला महामानव
फैला रहा था अपनी बांहें
घने होने लगे थे काले बादल
मैं उस आवाज को पकड़ना चाहता हूँ
जो अब मुझसे दूर जा रही है।
परिचय और संपर्क
रविशंकर उपाध्याय
शोध छात्र
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
मो.न. 09415571570
कवितायें तो सभी अच्छी हैं , लेकिन आवाज कविता विशेष अच्छी लगी | रविशंकर को बधाई ....| केशव तिवारी
जवाब देंहटाएंकवितायें अच्छी लगीं ...बधाई | ...
जवाब देंहटाएंत्रिजुगी कौशिक
ravishankar upadhyay ki kavitao se gujarte hue ham aapne yug ke yatharth se gujarte hai.ek taraf jana nishchhal jivan ka svar sunai deta hai vahi vadalte samay ka yatharth bai.aaj jaha bajar ke chapet me aakar gramid sanskriti murjha rahi hai vahi kvi ne apni kavita me us sanskriti ko bakhubi uske lok muhabaro ke dvara pakadne ka pryas kiya hai.
हटाएंकविता बाकई बहुत अचछी है ... मेरे ओर रविशंकर भैया को अशेष बधाई ...!
जवाब देंहटाएंसंग-साथ लिखती-पढ़ती पीढ़ी में रविशंकर उपाध्याय मेरे अन्यतम अग्रज हैं। उनकी कविताएँ हित-मित्रों के लिए हमेशा रचनात्मक मार्गदर्शन का पर्याय रही है। उनकी कविता की कहनशैली सुघड़ है, तो बिम्ब प्रायः चिर-परिचित। और भाव नएपन का हिलोर लिए हुए। मुझे कम ही सुनने का सुअवसर मिला है, लेकिन सुनकर असीम प्रसन्नता हुई है। टोली में आचार्य की उपाधि बहुश्रुत है, लेकिन यह उनके खासमखास ही कहते हैं जो खुद आचार्य परम्परा के अवलम्ब हैं या फिर हिन्दी विभाग के भावी रचनाशील आथ-अलम। यहाँ इस ब्लाॅग में उनकी कविताएँ देख रामजी जी की सदाशयता और उदारमना व्यक्तित्व को साधुवाद कहने के लिए आग्रही हो चला हँू। मेरी ओर से आप साधुवाद! स्वीकारें।
जवाब देंहटाएं