मनोज पाण्डेय
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सिताब दियारा ब्लाग पर युवा लेखक मनोज पाण्डेय का
यह विचारोत्तेजक लेख
उच्च
शिक्षा के निजी प्रतिष्ठानों में नामकरण की परम्परा
दीपनारायण,
नरसिंह प्रसाद, ठाकुर प्रसाद, सुखी
सिंह, दुख हरन सिंह, रामकोमल, प्यारी देवी, द्रौपदी देवी, बच्ची
देवी, प्रभा देवी, प्रेमलता आदि-आदि।
इन नामों में से आप ने किनका किनका नाम सुन रखा है । आपका रिश्ता किसी न किसी रूप
में अगर उच्च शिक्षा से होगा तो जरूर सुन रखा होगा
।इलाकाई प्रभाव के कारण इन नामों में थोड़ी हेर फेर हो
सकती है । अब तक आपको समझ में न आया हो तो मैं एक हिंट दे सकता हूँ ।आप इन सारे
नामों के साथ डिग्री कालेज या महाविद्यालय या पी जी कालेज जोड़ ले । इनको जोड़ने के
बाद आपको लगेगा कि आपने सारे नामों को अच्छी तरह सुन रखा है ।
प्रसिद्ध भारतीय मान्यता है कि नाम से गुण का भी पता चलता है । कई बार यह
मान्यता अपने उदाहरण भी प्रस्तुत करती है यद्यपि ये उदाहरण सामान्यतया नकारात्मक
ज्यादा ही होते है ।शायद इसी प्रभाव में गरीब आदमी अपने बच्चे का नाम करोड़ीमल रख
देता है । अगर ध्यान दिया जाये तो साफ हो जाता है कि नाम रखने की भी एक विशेष
किस्म की आर्थिकी-सामाजिकी होती है । आपने कभी भी निजी दुकानों या व्यावसायिक प्रतिष्ठानों
के नाम को किसी सार्वजनिक महत्त्व से जुडा हुआ नहीं पढ़ा होगा ।क्या आपने पढ़ा है “सुभाष चन्द्र बोस किराना भंडार” । अगर ऐसा
पढ़ा भी होगा तो अपवाद के तौर पर ही शायद हो । यह सामान्य भारतीय मनोवृति है
जो कस्बे के छोटे से दुकानदार से लगायत “टाटा-बिड़ला-डालमिया” तक में पाया जाता है । अब “रिलायंस-मोर-हीरो” जैसे व्यावसायिक नाम बाहरी प्रभावों के कारण रखे जाने लगे
है ।
उपर लिखे गए नामों पर पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक विश्वविद्यालय की मान्यता के
साथ बड़ी संख्या में उच्च शिक्षा संस्थान खोले गये है । यहाँ तर्क किया जा सकता है
कि इसमें बुराई क्या है ? शिक्षा सहित तमाम संस्थानों के नाम रखने की परम्परा मात्र से उस धारा की
पहचान हो जाती है.जो व्यक्ति थोड़ा बहुत भारतीय इतिहास
की जानकारी रखता हो (खास कर स्वाधीनता संघर्ष वाले दौर की ) वह इस बात से
जरूर सहमत होगा कि उस दौर में और उस दौर के बाद देश के सुदूर इलाकों में भी शिक्षा
संस्थानों का नाम किसी न किसी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय व्यक्तित्व के नाम पर ही
रखने की परम्परा कमोवेश बनी हुयी थी. इसका एक बड़ा कारण यह था कि शिक्षण संस्थानों
को खोलने चलाने की जिम्मेदारी सामूहिक मानी जाती थी.सामूहिक भागीदारी वाले इस काम
में नाम का निजीकरण नही हो पाता था. यद्यपि इस दौर में भी जिन शिक्षण संस्थानों की
नीव में स्थानीय या बड़े व्यावसायिक लोगों का धन धर्म शामिल था उन संस्थानों के
नाम “हीरालाल-रामनिवास या जमुनादास-भगवानदास” आदि के व्यावसायिक स्वरुप में ही तब भी
थे.इसके साथ इस बात से इंकार नही किया जा सकता है कि यह प्रवृति बहुत सीमित और दबी
हुयी थी. साथ ही इस तरह के संस्थानों के संस्थापक घरानों को अपना चेहरा कुछ
सामाजिक छवि के साथ बनाये रखने में सहायता मिलती थी.बाद में जब सरकार ने इन शिक्षण
संस्थानों को सरकारी अनुदान पर ले लिया तो इन घरानों का हस्तक्षेप लगभग खत्म हो
गया था.
पुराने समय के व्यावसायिक घरानों या लोगों द्वारा स्थापित संस्थानों के सम्बंध
में यह भी माना जा सकता है कि इनसे किसी तरह के मुनाफे या आर्थिक लाभ की स्थिति ना तो थी और
ना ही व्यापक स्तर पर मान्य थी. इसके पीछे शायद कारण कुछ बचे-खुचे आदर्श ही
थे.तत्कालीन समय और समाज में शिक्षा का “संसाधनी करण” की प्रक्रिया पूरी नहीं हुयी थी.अब यह प्रक्रिया पूरी हो चुकी है साथ ही
भूमंडलीकरण और निजीकरण की चरम प्रभावी समय में बड़े बड़े आदर्श ढहते जा रहे है..अब
जब शिक्षा-क्षेत्र को मुनाफे का सबसे उर्वर ‘सेक्टर’ के तौर पर पहचान लिया गया है.इस क्षेत्र की उभरती हुयी संभावनाओ
का अधिकतम दोहन में पी पी पी माडल को सरकारी ही नहीं बल्कि
सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर भी मान्यता मिलती जा रही है.
उच्च शिक्षा के संस्थानों के नामकरण की इस प्रवृति से यह पता चलता है कि हमारे समाज के मुनाफाखोर वर्ग
की मानसिकता कितनी संकुचित और डरी हुई है.वह इन
संस्थानों के किसी भी हिस्से से “अपना” कब्जा कमजोर नहीं होने देना चाहता
है.यह वर्ग के निजीकरण के बहुआयामी स्वरूप में “नाम” के महत्त्व को अच्छी तरह जानता है. किसी संस्था का नाम
सार्वजानिक व्यक्तित्वों पर होता है तो आम जनता का मानसिक और सांस्कृतिक जुडाव का
सदेश प्रतिबिम्बत होता है और इसी सदेश को किसी भी हालत में हावी होना मुनाफाखोर
वर्ग को भीतर तक डरा देता है.
खैर.. बहुत पहले हरिशंकर परसाई ने अपने एक व्यंग्य लेख में कस्बे या छोटे शहर
में उच्च शिक्षा प्रदान करने कालेज बनने की कहानी कही है।कस्बे का व्यापारी जिसके पास अपनी
दुकानदारी से इतना पैसा आ गया है कि वह एक ‘नयी दुकान’
डाल सकता है।उसकी नयी दुकान इलाके के लङको को उच्च शिक्षा की
सुविधा मुहैया कराने वाले कालेज के रुप में सामने आता है।इस कालेज के नाम और उसके
दुकान के नाम पूरी तरह मिलता है। कालेज के प्रिंसिपल नियमित तौर पर
रोजाना कालेज के मालिक सेठ के यहाँ हाजिरी लगता है | मिल जाये तो लगे हाथ
इसे भी पढ़ा जाये।
परिचय और संपर्क
मनोज पाण्डेय
साहित्यिक ,
सांस्कृतिक गतिविधियों में गहरी दिलचस्पी
विभिन्न
पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें और लेख प्रकाशित
सम्प्रति –
दिल्ली में अध्यापन
मो.न. -
09868000221
सोचने का पूरा अवकाश है.. मैं कई बार सोचता था कि ये नाम अपने पूर्वजों को याद करने का बहाना है. लेकिन इसके सामाजिक-आर्थिक आस्पेक्ट हो सकते हैं...यह वाकई काबिल-ए-गौर है.. हालाँकि थोडा और विश्लेषण मांगता था..
जवाब देंहटाएंमनोज जी का यह आलेख वाकई विचारोत्तेजक है। यह एक बड़ा सवाल है की जिनके नामों पर हम उच्च शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना कर रहे हैं उनका सामाजिक या शैक्षणिक क्षेत्र में क्या अवदान रहा है। लेकिन यह सोचने का अवकाश किसके पास है। अगर गौर से देखा जाय तो एक प्रश्न यह भी आपके समक्ष खड़ा होगा की ये शिक्षण संस्थायें हैं भी या नहीं। वस्तुतः इनमें से 99% दुकाने हैं जिनका शिक्षा से कोइ वास्ता ही नहीं है। और अगर दूकान है तो यह घूरहू प्रसाद, गजानंद महराज आदि से लेकर किसी के नाम पर भी खुल सकता है। किसी को इसमें भला क्या आपत्ति हो सकती है। विचारोत्तेजक आलेख के लिए बधाई एवं सिताबदियारा का आभार।
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