महेश चन्द्र पुनेठा
प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर युवा कवि और समीक्षक महेश
चन्द्र पुनेठा द्वारा हरभगवान चावला के कविता संग्रह ‘कुम्भ में छूटी औरतें’ पर लिखा यह समीक्षात्मक लेख ......
प्रश्नों की श्रृंखला पैदा करती हुई
कविताएं
यह
कैसा विजय-उत्सव है युधिष्ठिर !
क्या यह उन योद्धाओं की मृत्यु
का उत्सव है
जो यदि बचे रहे होते तो धरती
को उन पर गर्व होता?
क्या संसार के मरघट बनने का
उत्सव है?
क्या यह विधवाओं के विलाप का
उत्सव है?
तुम्हारे चशकों में मदिरा है
या तरल अहंकार?
तुम्हारी प्रजा का विवश रुदन तुम्हारे लिए
अट्टहास क्यों?
ये प्रश्न जिस वाचक ने युधिष्ठिर से पूछे थे उस
को जीते जी अग्निदाह का दंड दिया गया। यह इस बात का उदाहरण है कि प्रश्न करने वाले
को किसी भी काल में पसंद नहीं किया जाता था। जबकि जीवन की गति निरंतर बनी रहे और
उसमें नई ताजगी पैदा हो सके इसमें प्रश्नों की भूमिका महत्वपूर्ण है। प्रश्न पूछना
जानने-सोचने-समझने का पर्याय है। प्रश्न वही पूछता है जो यथास्थिति से असंतुष्ट
हो। प्रश्नों से जीवन में नई दिशाएँ भी फूटती हैं। पर प्रश्न पूछना व्यवस्था के
खिलाफ जाना माना जाता है। प्रश्न से व्यवस्था को हमेशा डर लगता है इसलिए व्यवस्था प्रश्न
पूछने वालों को पसंद नहीं करती है। प्रश्न पूछने वाले ’लोकायत या वेद निंदक’ कहलाते रहे हैं। उन्हें हमेशा दंड दिया
गया।
बावजूद इसके प्रश्न खड़े करना हरभगवान चावला के
सद्य प्रकाशित कविता संग्रह ’कुंभ
में छूटी औरतें’ में संकलित कविताओं की सबसे बड़ी खासियत
है जो उनकी कविता को व्यवस्था पोशक कविता के करतबी व्यवहार से अलगाती है। उनके
कवि-प्रश्नों में गहरी संवेदनषीलता ,सजगता
और प्रतिबद्धता के दर्शन होते हैं जो पाठक के मन में गहरा प्रभाव पैदा करते हैं और
उसे भीतर तक झकझोरते हैं। उनकी कविताओं को पढ़ने के बाद पाठक के भीतर एक उथल-पुथल
निरंतर चलती रहती है। वह वैसा नहीं रह पाता है जैसा उससे पहले था। उसके भीतर प्रश्न-दर-प्रश्न
पैदा होने लगते हैं। ब्लर्व में लिखी यह बात बिल्कुल सही है कि कवि की बेचैनी व
मुकम्मल इंसानियत के प्रति कविता की सजगता का संबंध गहरे स्तरों पर पूरे संग्रह
में नजर आता है। निश्चित रूप से उनकी कविता पालकी पर सवार होकर चलने वाली
सुंदर-सुकोमल कविता नहीं है बल्कि खुरदुरेपन को सहेजने व टेड़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर
चलने वाली कविता है। उनकी कविताएं व्यवस्था के पोषकों और शोषकों को असहज और
तिलमिलाने के लिए मजबूर कर देती हैं। स्त्री जीवन की विडंबना ,प्रकृति के साथ होने वाला खिलवाड़ , बुढ़ापे की उपेक्षा ईश्वर का अस्तित्व और उसके नाम पर होने वाला पाखंड
उनकी कविताओं के केंद्र में है। वे इस जीवन की विसंगति-विडंबना-पाखंड को उभारते भी
हैं और साथ ही उन पर करारी चोट भी करते हैं। इस तरह सत्ता के खिलाफ खड़े हो जाते
हैं।
ईश्वर की सत्ता हमारे समाज में सबसे मजबूत मानी जाती है। बड़े-बडे़ उसकी सत्ता से भय खाते हैं। लेकिन कवि उसकी सत्ता पर चोट करता हुआ कहता है-
ईश्वर गरीब के सीने में
खूँटे सा गड़ा है
खूँटे से बँधा गरीब
औंधे मुँह पड़ा है |
‘ईश्वर’ नाम
से लिखी चावला की यह छोटी सी कविता ईश्वर को लेकर उनकी अवधारणा को स्पष्ट कर देती
है।ईश्वर की सत्ता का सबसे बड़ा आतंक गरीब पर ही है और उसकी गरीबी का एक बड़ा कारण
भी यही ईश्वर है। विज्ञान ’गाड पार्टिकल’ तक पहुँच चुका है पर समाज का एक बड़ा
तबका ‘गाड’ के अस्तित्व को लेकर अभी तक उलझा ही है। कवि का यह कहना गलत नहीं है कि
‘ईश्वर’ संसार की चेतना में धुंध सा छाया हुआ है’। फलस्वरूप हम जीवन की ओर जाते रास्ते
और पगडंडियाँ ठीक-ठीक देख नहीं पाते और सही-गलत का निर्णय नहीं कर पाते। जो है उसे
देख नहीं पाते और जो नहीं है उसके पीछे भागते रहते हैं। आज यह धुंध पहले से अधिक बढ़ गई है। हर जगह उसकी ’मौजूदगी’ है जिसके चलते उसे बेदखल करना आसान नहीं है। ईश्वर और धर्म के नाम पर नए-नए पाखंड सामने आ
रहे हैं। धर्म ईश्वर से बहुत ऊपर स्थापित हो चुका है। पर हरभगवान चावला इस बात पर स्पष्ट
हैं-
धुंध छँटे , तू हटे
तो दिखे कोई रास्ता
ओ ईश्वर !
धर्म ही तो हैं जिनके
चलते-जितने पाप,
उससे ज्यादा पाप से मुक्ति
के उपाय
पाप जितना जघन्य
मुक्ति का रास्ता उतना
सरल
फिर पापों से भय कैसा?
कवि ’व्यापार’ कविता में इस बात को दिखाता है कि कैसे
नए देवता ढूँढ लिए जाते है ,कैसे
भव्य देव-प्रतिमाएं स्थापित की जाती है ,कैसे
उनका इतिहास गढ़ा जाता है ,
कैसे उसे जन-जन के मन में बिठाया जाता
है और फिर कैसे बाजार द्वारा भक्ति और आस्था
को भी मुनाफे के व्यापार में बदल दिया जाता है। यह कविता धर्म-आस्था और भक्ति के नाम पर हमारे चारों ओर
व्याप्त छल-छद्म और ढोंग को उघाड़ कर रख देती है। ’साध्वी’ कविता में इस बात को और आगे बढ़ाया गया
है। कौन लोग हैं ये जो धर्म का व्यापार करते हैं ?यह कविता उनकी भी पहचान बताती है-
उनमें से कोई श्रमिकों
का हत्यारा है
तो किसी ने पुत्रवधू को
मारा है
किसी ने गरीबों की जमीन
हड़पी है
तो किसी ने दंगों की आग
लगाई है |
इन लोगों के शातिराना चरित्र को चावला आगे और
साफ करते हैं कि ये लोग –
अहिंसा को भी मेमना
समझते हैं
सत्य ,न्याय और ईमानदारी की
तरह
वे हर रोज मेमनों की
मुलायम चमड़ी पर हाथ
फिराते हैं
उनकी मासूमियत पर मुग्ध
होते हैं
और उनकी बोटी-बोटी चबा
जाते हैं।
धर्म के नाम पर विधवाओं का किस तरह शोषण किया
जाता है इसे ’वृंदावन’ कविता में देखा जा सकता है-
विधवाओं को जीना है
और जीने के लिए चाहिए अन्न
उनके लिए मोक्ष का साधन
नहीं
कृष्ण के नाम का जाप
यह भी एक काम है
गेहूँ काटने जैसा या
पत्थर कूटने जैसा
कीर्तन समाप्त होने के
बाद
विधवाओं को मिलेगी मजदूरी
थोड़े से चावल और कुछ
रुपये
वे अपना पेट भरेंगी
और शाम को
फिर इसी काम को करने के
लिए
जुटाएंगी ऊर्जा |
ये सब क्यों किया जाता है इसका उत्तर ’तुम्हारे लिए’ कविता में मिलता है-धनहीन,बलहीन ,भाग्यहीन सभी आएं/देव-चरणों में माथा रगड़ें ,गिड़गिड़ायें......सब संतोष से जीना
सीखें...ताकि लोग सारे शोषण-उत्पीड़न-अत्याचार को भूल जाएं। कवि इस छल-प्रपंच से
अलग रहते हुए अपनी तरह जीने का अधिकार चाहता है-संसार में जो मुक्त है /स्वर्ग और
मोक्ष के लोभ से/उन्हें भी जीने दें शांति से/कृपया इस संसार को नरक न बनाएं। कवि
के अनुसार ऐसा संसार जहाँ हर व्यक्ति को अपने तरह जीने का अधिकार नहीं है वही ’नरक’ है।इसलिए वह चाहते हैं .........नष्ट कर दो सृश्टि के सारे धर्म / और सारे अश्त्र-शश्त्र
।
ईश्वर
मानव पुत्र है पर आज उसने मानव को ही बेदखल कर दिया है। इस बात को चावला ’ईश्वर के लिए सब कुछ’ कविता में बहुत खूबसूरती से व्यक्त
करते हैं-
हमने ईश्वर को दिया
सबसे सुंदर चेहरा , निरोग
देह
सबसे तेज दिमाग , असंख्य
हाथ
और बहुत सी चमत्कारी शक्तियाँ........
इतना संपूर्ण बनाया हमने
ईश्वर
कि धरती पर कोई
साबूत मनुष्य नहीं बचा |
यह वास्तविकता भी है। यहाँ कोई हिंदू है ,कोई मुसलमान है ,कोई सिख है ,कोई इसाई है ,कोई ब्राह्मण है , कोई क्षत्रिय है पर कोई ’साबूत मनुष्य ’ नहीं है। हर एक को किसी धर्म या जाति
में जन्म लेने पर गर्व है। सभी अपने-अपने
होने के गर्व में चूर हैं। एक कवि ही है जो कहता है- धर्म और जाति पर गर्व करना
मुझे मंजूर नहीं। उसे अपने मानव होने पर गर्व है।’गर्व’ कविता में हरभगवान गर्ववादियों पर सटीक चोट करते हैं। भारतीय होने पर
गर्व करना उन्हें कुछ हद तक निरापद सा
लगता है पर इसके औचित्य को लेकर भी उनके मन में सवाल उठते हैं जो विचारणीय हैं-
जिस देश में हजारों भूख
और ठंड से मरते हों
जहाँ करोड़ों हाथों के
पास करने को काम न हो
जहाँ किसी का कहीं भी
कत्ल हो सकता हो
जहाँ हर कोने में गंदगी
के ढेर लगे हों
जिस देष के कर्णधारों के
खरबों रुपये विदेशी बैंकों में हों
और देश का गुजारा कर्ज
और अनुदान से चलता हो
जहाँ गर्वीले सिपाही
कन्याओं को गर्भ में मार देते हों
जहाँ पग-पग पर अराजकता
और मक्कारी हो
उस देश का वासी होना
गर्व की बात कैसे है |
प्रस्तुत संग्रह में स्त्री विषयक बहुत सारी
कविताएं हैं जिनमें औरत के भीतर-बाहर की दुनिया के मार्मिक आख्यान हैं। अतीत से
लेकर वर्तमान तक की यात्रा है। उन्हें-हुलस,उमंग,आह्लाद,मस्ती/वेदना और समर्पण के सूत्रों से बने/सृष्टि के हर सुंदरतम दृष्य
में/औरत अनिवार्यतः नजर आती है। उनके भीतर औरत की ताकत का अहसास बहुत गहरे तक धँसा
हुआ है। कवि की नजर में औरत का स्थान बहुत ऊँचा है। बेटी विरोधी समय में उनका
मानना है-घास और बेटियाँ ही जीवन में/हरियाली फैलाती हैं। दुनिया को ’बनाने
और बचाने’ में उसकी भूमिका अहम है। तभी तो वह
कहते हैं-
औरत ने जिंदा रखी है
उपलों में आग.....
बचाए रखा है पानी
.......
उसी ने रोका रेगिस्तान
का फैलाव.....
आँसुओं की सुई से सिलती
रही
उधड़ रहे रिश्तों की सीवन
औरत ने जिंदा रखा दुनिया
में प्यार।
कवि बिल्कुल सही कहता है कि बनाने-बचाने की इसी
उधेड़बुन में उसने रचे ’संसार के सबसे करुण गीत। कवि को औरत की
ताकत ही नहीं उसके दुःखों का भी अहसास है। वे जानते हैं-
औरतों के पास दुखों का
खजाना होता है
इन दुःखों का कोई नाम
नहीं होता
दुःखों का यह खजाना कभी
खाली नहीं होता
हर मौसम में ,हर दिन इस खजाने में
जमा होते रहते हैं नए-नए
दुःख |
औरत के इन दुःखों का सिलसिला बहुत पुराना है।
इन्हें दिखाने के लिए चावला हमें इतिहास में ले जाते हैं। राम, कृष्ण ,सिद्धार्थ ऐसे इतिहास पुरुष हैं जो अपने कालखंड से बाहर भी उसी श्रद्धा
और सम्मान से याद किए जाते हैं जितने अपने कालखंड में। साथ ही अपने समय के सत्ता
के प्रतीक पुरुष भी माने जाते हैं। उनसे प्रश्न करने का मतलब उस समय की सत्ता से प्रश्न करना और उसको चुनौती देना है। इनको कटघरे में खड़े करने का मतलब उस पूरे
इतिहास और धर्म को कटघरे में खड़ा करना है जो स्त्री के खिलाफ रहा। हरभगवान चावला पुरुष
वर्चस्ववाद को लेकर सीधे राम ,कृष्ण ,सिद्धार्थ से संवाद करते हैं। वे इनसे
संवाद के बहाने हमारे समाज में
स्त्री और पुरुषों के लिए अलग-अलग मानदंड
अपनाए जाने को लेकर उस पर प्रहार करते
हैं। उनके प्रश्न किसी भी पुरुष मानसिकता वाले व्यक्ति को तिलमिला कर रख देते हैं।
वह निरुत्तर होकर रह जाता है। ऐसा क्यों
होता है कि एक पुरुष पत्नी-पुत्र को सोता छोड़कर ज्ञान की खोज में जाता है महात्मा
बुद्ध कहलाता है। एक दूसरा पुरुष सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ रखता है योगेश्वर कहलाता है यही काम एक स्त्री करती तो उसका नाम गाली का पर्याय हो जाता है। स्त्री
के साथ ’बरुथा के कब्रिस्तान’ में दफनायी गयी स्त्रियों का सा
व्यवहार किया जाता है। उनके सर कलम कर दिए जाते हैं। कौन होती हैं ये
औरतें-जिन्होंने मर्दों के सामने जबान खोली होती हैं.....जिन्होंने जायदाद में
हिस्सा माँगा होता है....जिन्होंने प्यार किया होता है। कितनी अफसोसजनक बात है....
कोई खुदा इन मासूमों को
बचाने नहीं आता
कोई फ़रिश्ता बेरहम
कातिलों के हाथ नहीं पकड़ता
कोई कानून कत्ल की तफ्तीश
नहीं करता
कितना दर्दनाक है यह
वाकिया-
इन औरतों को कतई इल्म
नहीं था
कि मारी जाएंगी उन्हीं
के हाथों
जिन्हें वे सबसे ज्यादा
प्यार करती थीं |
हमारे समाज की ये कैसी विडंबना है जो स्त्री के
लिए सम्मानजनक माना जाता उसे पुरुष के लिए निषिद्ध और गर्हित। कवि ’राम से’ प्रश्न करता है-
यह कैसा रामराज है कि
जिसमें
जो-जो कर्म नारी के लिए
गौरव का विषय हैं
और जिन्हें वह निभाती
हैं
आह्लाद कर्तव्य की तरह
वही-वही कर्म
नर के लिए निषिद्ध और
गर्हित हैं
और हैं लज्जा के विषय |
इसी
तरह से एक अन्य प्रश्न कवि , ’अहिल्या’ के बहाने राम से पूछता है-
एक प्रश्न पूँछू विष्णु अवतार
मेरा अपराध क्या था
कि मैंने युगों तक भोगा
शिला होने का अभिषाप
मैं तो छलित थी
दलित ,दमित ,बलात्कृत
फिर मैं ही क्यों हुई अभिशप्त ?
तुम्हारी चरण-रज में
पाषाण में प्राण फूंकने
का बल है
पापियों को दंड देने का
बल क्यों नहीं?
इंद्र आज भी क्यों जीवित
है देवराज बनकर?
अविवेकी गौतम क्यों नहीं
हुए पाषाण ?
उक्त कविताओं के प्रसंग भले रामायण काल
के हैं पर आज भी हू-ब-हू लागू होते हैं। आज भी परिस्थितियाँ कमोबश वैसी ही हैं।
आज भी स्त्रियों के खाते में डाले गए बहुत से कामों को करने में पुरुष को लज्जा
महसूस होती है। आज भी बलात्कृत स्त्री बदनामी के लिए अभिशप्त है और ’इन्द्र’ छुट्टे घूमते हैं। यहाँ पूछे गए प्रश्न बहुत सटीक और तर्कसंगत हैं।
साथ ही दैवीय न्याय को कटघरे में खड़ा करते हैं। यहाँ ’अहिल्या’ को एक अलग रूप में प्रस्तुत कर यह कहने की कोशिश की गई है स्त्री की
मुक्ति पुरुष की कृपा से संभव नहीं है। वह उसकी कृपा का अहसान लेना भी नहीं चाहती
है-मुझे वांछित नहीं तुम्हारी चरण-धूलि/लौटा लो अपना कृपापूर्ण उपकार/तुम्हारा
वरदान मुझे जीवन दे/इसे मैं षिला ही भली विष्णु अवतार! इन कविताओं में जिस तरह से
मुखरित रूप में स्त्री पक्ष आया है उसे देखकर यह लगता है कि ये कविताएं जैसे किसी
स्त्री ने लिखी हों। विरले पुरुष ही स्त्री के इतने भीतर तक उतर पाते हैं। पुरुश
मानसिकता से पूरी तरह मुक्त होकर ही यह संभव है। हरभगवान चावला की स्त्री पात्र
चुप-चुप रहने या ना-नुकर किए बिना पुरुष की बात स्वीकार करने वाली नहीं हैं। वे
पुरुश से प्रश्न-प्रतिप्रश्न कर उसे निरुत्तर करने वाली हैं। काश ! इतनी ही मुखर
होती ये स्त्रियाँ अपने समय में जैसे ’गोत्र’ कविता में
जाबाली-सबने भोगा मुझे
सचमुच मुझे नहीं पता
किसका पुत्र है जाबाल
आपने भी तो मेरे साथ
रमण किया था ऋषि
क्या आप देंगे
जाबाल को अपना गोत्र?
कवि की जमीन कवि के रक्त में बसी हुई है। उसे
बार-बार बुलाती रहती है। उसके अंतस को झिंझोड़ती है। सपनों में आती है। उनकी
मान्यता है जिनके-पास अपनी मिट्टी नहीं होती ,इसलिए
जड़ें भी नहीं होतीं/ये अक्सर समाज में छायी रहती हैं अमरबेल की तरह। उनकी कविताओं
में उनके गाँव के बहुत सारे चित्र दिखाई देते हैं। गाँव से वह कितना लगाव रखते हैं
भूमिका के रूप में लिखे उनके इन शब्दों से पता चलता है,’’ मेरे रचनाकर्म में पूरा गाँव शामिल है।
गाँव के बिना न मैं अपनी जिंदगी की कल्पना कर सकता हूँ ,न कविता की।’’ ’मरुस्थल’ कविता में अपने गाँव से कुछ इस तरह परिचय कराते हैं -
दौलतः खेत की
आमदनीः रेत की
उपजः झाड़ियों की
साथः आँधियों का
प्यासः पानी की
आसः बादलों की
सपनाः नदी का |
’अभिसार’ कविता में बादलों से अभिसार की
आकांक्षा में उनके गाँव की रोती धरती का प्रलाप सुना जा सकता है। इस कविता में
बादल प्रवास में गए पुरुष और धरती गाँव की महिला का रूपक भी प्रस्तुत करती है।
इसमें कहन का अंदाज निराला है। अपने गाँव से अकूत प्रेम करने के साथ ही कवि दुनिया
से भी खुद को अलग नहीं मानता है वह कहता है-दुनिया से ही हैं मेरे सुख/मेरे दुःख।
........हमें ही बचानी होगी सृश्टि/और इसके लिए/हमें जल बचाना होगा/हमें बचाने
होंगे जंगल और जमीन/और प्यार/और बेटियाँ। यहाँ कवि का सामूहिकता का भाव भी दिखता
है और साथ ही दुनिया को समझने की यथार्थपरक दृष्टि भी। ये पंक्तियाँ बताती हैं कि
कवि में सामूहिकता की भावना कितनी गहरी है। इसी सामूहिकता की भावना के चलते जब कवि
अपने परिजनों में से किसी के लिए शैम्पू ,किसी
के लिए दवा ,किसी के लिए फीस व किताब और किसी के
लिए पतलून ,जूते ,कमीज भिजवाने की बात कहता है तो उसके मन में सवाल उठता है-पर गाँव भर
के चेहरे पर पुती/उदासी के लिए क्या भेजूँगा?/कैसे
सँवारूँगा गाँव के लोगों की जिंदगानी?/कैसे
जुटाऊँगा सूखे खेत के लिए पानी? आम
जन से लगाव रखने वाला कवि ही ऐसा लिख सकता है। अन्यथा आज तो ’मैं और मेरा परिवार’ से बाहर तो आदमी देख ही नहीं पा रहा
है। ऐसे में कवि अपना पता बताता है-कभी मुझसे मिलना चाहो तोर्/छटपटाते पानी से,छलनी धरती से/तरसते पानी से मेरा पता
पूछना। पानी की कमी का अहसास उनकी बहुत
सारी कविताओं में झलक जाता है। अपने गाँव में पानी की कमी उनके भीतर ’चाहत’ पैदा करती है-
सुनते हैं वहाँ झूले पड़े
हैं
मोर नाचते हैं ,मेढक टर्राते हैं
लड़कियाँ हँसती हैं
बेसाख्ता
बच्चे भीगे हुए घर आते
हैं
मन होता है वहाँ जाकर
देख जाएं बादल
अमृत की बूँदों को बदन
से छुआ आएं
देखें तो सही कैसा दिखता
है सावन
हो सके तो थोड़ी पुरवाई
ही लिवा लाएं |
पानी को लेकर बूढ़ों की चिंता को रेखांकित करते
हुए वह लिखते हैं-
जब भूमि से निकलता है
थोड़ा सा कड़वा पानी
तो जल विहीन दुनिया की
कल्पना से काँप जाते हैं
बूढ़े
सिंचाई की तो छोड़ो
उनके पोते-पड़पोते
पीने के लिए कहाँ से
लायेंगे पानी |
गाँव के साथ-साथ हरभगवान चावला को बूढ़े भी बहुत
याद आते हैं। आज गाँव और बूढ़े ,दोनों
लगभग एक दूसरे के पर्याय हो चुके हैं। नई अर्थव्यवस्था की मार दोनों पर ही पड़ी है।
’कुंभ में छूटी औरतें’ ’बूढे़’ ’हरे चने’,’प्रतीक्षा’ कविताओं में बूढ़ों की मनोदशा और उनके
प्रति नई पीढ़ी के व्यवहार को चित्रित किया गया है। इन कविताओं में बुढ़ापे का
दुःख-दर्द ,उपेक्षा ,अपनों की प्रतीक्षा ,उनसे दूर रहने की पीड़ा व एकाकीपन बहुत
मार्मिक तरीके से अभिव्यक्त हुआ है-
उनकी पत्थर सी जड़ हो गई
जिंदगी से
फूटता रहता है खामोश
झरना
आँखों की कोरों में हर
वक्त
अटकी रहती हैं झरने की
धारा
जिसे कभी कोई नहीं देखता
|
कवि इस
’झरने की धारा’ को देखने के लिए प्रेरित करता है। वह
बूढ़ों की इस आकांक्षा को भी जानता है-
बूढ़े फिर से इंसान होकर
पैदा होना चाहते हैं
पर इस बार थोड़े और
खूबसूरत
थोड़े और तंदुरस्त
थोड़े और.....थोडे और
....थोड़े और अमीर होकर।
कुछ अटपटे प्रयोग भी उनकी कविताओं में
यत्र-तत्र दिख जाते हैं जैसे ’चुरुण्डा-1’ कविता में इस पंक्ति को देखा जा सकता
है-’इस गाँव में हादसे/मेहमानों की तरह आते
हैं।’ यह प्रयोग सटीक नहीं लगता है। यह ठीक
है कि हादसे मेहमानों की तरह किसी भी समय आ सकते हैं पर मेहमानों के आने से दुःख नहीं पहुँचता है जबकि
हादसे दुःख देते हैं। कहीं-कहीं कवि अधिक व्याख्या करने लग जाता है। जिससे
काव्यात्मकता में कुछ कमी आ जाती है। कहीं-कहीं कविताओं में भावुकता भी हावी हो
जाती है जैसे ’शाप’ कविता में देखा जा सकता है। कवि उन लोगों को शाप देता है जो गाँव
छोड़कर चले गए हैं और अपने गाँव को भूल गए हैं और बुढ़ापे में लौट आते हैं-
गाँव का कोई आदमी न
पहचाने
तेरे खेत में ककड़ियाँ न
उगें
बाँझ हो जाएं तेरे खेत
की बेरियाँ
तेरे कुँए का पानी खारा
हो जाए
तेरी घरवाली भूल जाए
अंगारों पर रोटी सेंकना
|
यहाँ पर ऐसा प्रतीत होता है कि कवि गाँव छोड़कर
जाने के कारणों पर द्वंद्वात्मक तरीके से न सोचकर भावुकता में किसी निष्कर्ष पर
पहुँच जाता है। कोई भी व्यक्ति ख़ुशी-ख़ुशी अपने गाँव-बिरादरी को नहीं छोड़ता है।
सुविधाओं और आवश्यक आवश्यकताओं का अभाव उसे मजबूर करती हैं। बेहतर सुख-सुविधाएं
उसे अपनी ओर आकर्शित करती हैं। हर मनुष्य बेहतर जिंदगी जीना चाहता है। ऐसी चाह
अस्वाभाविक और गलत भी नहीं कही जा सकती हैं। शायद मनुष्य की यही चाह है जिसने उसे आगे बढ़ने को प्रेरित किया है। विकास के जिस
मुकाम पर आज समाज खड़ा है उसकी इसी चाह का प्रतिफल है। मुझे लगता है यदि शाप ही
दिया जाना है तो उसे दिए जाने की जरूरत है जिसने गाँवों को इन सुख-सुविधाओं से
वंचित किया है। यदि शहर जैसी सुख-सुविधाएं गाँव में मिलने लगें तब भला कोई क्यों
गाँव छोड़े? जबकि गाँव की स्थिति कैसी है यह तो ’मुसाफिर’ कविता में स्वयं कवि व्यक्त करता है-
कहो मुसाफिर!
कुछ बदली या अब भी वैसी
हाड़-तोड़ती भूख की रानी ?.......
तुम चुप हो और आँख में
पानी
तुम्हें देख हम पानी-पानी
समझे फिर से वही कहानी ।
जब तक गाँव की यह कहानी नहीं बदलेगी तब तक भला
पलायन कैसे रुकेगा?
कवि-कथाकार हरभगवान चावला को कविता की ताकत पर
बहुत विश्वास है। वह केवल यशप्रार्थी होकर कविता नहीं लिखते हैं बल्कि वह इसे
प्रेम के हत्यारों के खिलाफ युद्ध का हथियार मानते हैं- यह न पूछें / कि युद्ध में
कौन जीता / बस इतना बता सकता हूँ / कि कविता ने अभी हार नहीं मानी है। कवि की चाह
है कि संसार के सब प्राणियों को इतना भर मिल जाय कि वे सम्मान से जी सकें। दुनिया
में अमन और प्यार हो। उनका मानना है ,जिस
कविता में जीवन नहीं होता है,वह
प्राणहीन कविता होती है। वह पैदा होते ही मर जाती है। चावला उस सुंदर ,सुकोमल अलौकिक कविता के पक्ष में नहीं
हैं जो पालकी में सवार होकर आती है ,जो
साफ-सुथरी ओस धुली और छूते ही मैली हो जाए तथा जो उन दुःखों से बची हुई हो जिनसे
आदमी का कभी छुटकारा नहीं होता। उनकी मान्यता है-जो कागज पर उतरी है/वह मात्र छाया
है कविता की। कविता शब्दों से अधिक जीवन में होती है जिसको पूरा-पूरा शब्दों में
बाँध पाना संभव नहीं है। हरभगवान चावला के लिए कविता एक सपना है जहाँ वह खुद को
खोलते हैं और उन लोगों से संवाद करते हैं जिनसे वह बहुत प्यार करते हैं। उनका विश्वास है-कविता हमारे भीतर के गहनतम और निविड़तम कोनों को स्पंदित करती है। वह
हमारी संवेदना के अणुओं पर से दुनियादारी की धूल मिटा देती है,फिर उन अणुओं से सोते फूटते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि एक हद तक उनकी कविता उनके विश्वास में खरी उतरती है। यह संग्रह
हमारे हृदय को स्पंदित भी करता है और उस पर चढ़ी दुनियादारी की धूल को भी मिटा देता
है। पूरा विश्वास है कि उनका रचनाकर्म अपनी इस चमक को हमेशा बनाए रखेगा।
'कुंभ में छूटी औरतें '
हरभगवान चावला
प्रकाशक .. आधार प्रकाशन
पंचकूला हरियाणा
मूल्यः 150 रुपए।
समीक्षक
महेश चन्द्र पुनेठा
संपर्क-
जोशी भवन निकट लीड बैंक
पिथौरागढ़
.. मो0 9411707470
बहुत बढिया समीक्षा-आलेख है. बधाई. हरभगवान चावला मेरे प्रिय कवियों में से हैं. जिन कविताओं को तुमने रेखांकित किया है, उनमें से अधिकांश को मैंने अपनी दीवार पर साझा किया था. बहुत सारे मित्रों ने इन्हें पसंद किया था. इनकी कविता के महत्व को रेखांकित करके तुमने अपना दायित्व बखूबी निभाया है.
जवाब देंहटाएंbahut hi achi sameeksha likhi hai mahesh ji.badhai.
जवाब देंहटाएंसंकलन अभी नहीं पढ़ सका हूँ पर महेश भाई जिस आत्मीयता और सघनता के साथ लिखते हैं वह दुर्लभ सा है. यह संकलन पढ़ा जाएगा बहुत जल्द...
जवाब देंहटाएंआलोचना वही है जो पुस्तक पढ़ने के लिए प्रेरित कर दे... महेश जी ने वाही काम किया है.. यह पुस्तक जरुर पढूंगा.. फिर जिस आत्मीयता और आलोचनात्मकता से पुस्तक को परखा गया है वह प्रशंशनीय है | कवि के साथ आलोचक की पक्षधरता भी सामने आ जाती है-- चाहे वह इश्वर के नाम पर छल हो, या झूठे गर्व लिए फिरता सर.., आलोचक ने उसे रेखांकित कर अपना मंतव्य भी रख दिया है.. फिर गाँव या बुजुर्ग के प्रति संवेदना आलोचक को सच्ची आलोचना करने को बल देती है.. यही पर पता चलता ही कि आलोचक सिर्फ सकारात्मक पक्ष को ही नहीं उठा रहा है बल्कि अपनी आपत्तियां भी दर्ज करा रहा है... बधाई!!
जवाब देंहटाएंमहेश पुनेठा कविता को खूब *समझ* कर पढ़ते है. यह संग्रह पढ़ना होगा .इधर बहुत कम कविता पढ़ी है मै ने . कुछ नया खोजने के चक्कर ( आग्रह) मे कई बार हम बहुत सहज और बहुत ज़रूरी कविताएं मिस कर जाते हैं .
जवाब देंहटाएंमहेश पुनेठा जी ,प्रो.हरभगवान चावला के काव्यसंग्रह 'कुम्भ में छूटी औरतें 'पर सारगर्भित समीक्षात्मक आलेख प्रस्तुत करके आपने वास्तव में अपने आलोचकीय दायित्व का निर्वहन किया है .आज के दौर में जब साहित्य में भी गिरोह बन गए हैं बहुत बिरले हैं जो स्वयं किसी रचना का 'नोटिस 'लेते हैं .आपके गंभीर प्रयास को सलाम .
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