मनोज कुमार झा
युवा
कवियों में मनोज कुमार झा का नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है | और अच्छी बात यह है , कि मनोज अपनी कविताओं में उस
आदर और सम्मान की रक्षा भी करते हैं | वे न सिर्फ युवा कविता के भूगोल का विस्तार
करते हैं , वरन उसके आंतरिक सौन्दर्य को भी नयी ऊँचाई प्रदान करते हैं | अपने को कटघरे
में रखते हुए प्रकारांतर से उनकी कवितायें अपने दौर के सामने आईना रखने का काम उसी
महीनता के साथ करती हैं , जैसी कि कविता की भाषा हुआ करती है |
प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर
युवा कवि मनोज कुमार झा की कवितायें
युवा कवि मनोज कुमार झा की कवितायें
1 ..... विकल्प
बटलोइ पर जमता तो
अन्न भीतर खौलता मैं झुराता
मिलता साथ आग की बड़ी
राशि का
सहता ज्वाला का
प्रवल प्रहार
यहाँ एक स्त्री की आशा हूँ
मेरे भविष्य को हिलोरता क्षीणकटि प्रकाश-पुंज
जब जम जाउँगा कजरौटे के खुले गर्भ में
और बसूँगा आँख के तीरे
तब देखना मुझे कि सीझ रहे अन्न भी सौंपेंगे भाप ।
2 .... मुझे मेरी काट का नरक हो
मुझे इन पाप-पिंडों के साथ मत रखो
सोने के दाँत लगाता था यह जो मेरे बाएं
इसकी माँ के शरीर का
सारा जल सोख लिया अंधेरे ने
और यह नोटों का
मिलान करता रहा
यह जो दाएं इसके सर पर बुने बाल थे
और यह उसको पीठ में
छुरी घोंपी जिसने
शरण दिया इसे हिंस्र
जंगली रात में
इस भीड़ में कोई मेरा अपना नहीं
यह तो नहीं दर्ज थी
यातनाओं की फेहरिश्त में
समझा प्रभो, तुम बूढ़े गड़ेरिया हो काम निबटाने को व्याकुल
कोई तेरा वारिस नहीं समकालीन को समझे अजब जल थल हमारे
तुम में वो हुनर कहाँ कि सबकी उसकी काट का दंड दो
3 ....
किसी उम्मीद में
सखि, तुम मुझे अग्नि देना
और फिर नहा लेना
तुम्हारी आग में मैं जलूँ और मेरे जल में तुम भीगो
या कब्रगाह से सटा जो हरसिंगार का पेड़ है
उसके नीचे गाड़ देना
और जब बरसे हरसिंगार तो मेरे अभागे दुश्मनों में बाँट देना
मैं उनसे मिलता मगर वे अपने पैर के चक्कों के दास रहे
गर्के-ए-दरिया के लिए नहीं कहूँगा
बड़ा विकट है नदियों का अपना जीवन
मैं जानता हँ तुम उस पर नहीं डालोगी अतिरिक्त भार
या किसी अस्पताल को दे देना
और कहना बहुत खेले हो इस देह के जीवन से
अब इसे बाँट दो अंग-विकलों में, थोड़ा बदलो अपना खेल
मैं अपना दान खुद नहीं कर रहा
तुम पे छोड़ता कि यह अंतिम विनय मेरी कि यह देह तुम्हारी
ये सब कह रहा कि मुझे अब भी लगता है
तेरे सुंदर देह को मिलेगा कुछ अधिक वक्त
तुम सँभाल सकती हो मृत्यु के बाद का जीवन मेरा
मैं तो ढ़ह जाऊँगा
इस देह ने नमक बहुत खाया है और उपजाया बहुत कम लोहा।
4 .....
अंतःरंग
सब कुछ तो सौंप दिया तुमको
सारे चेहरे और सभी मुखौटे
अब जिद तेरी अजब कि खेल दिखाओ जिसमें हो प्रवीण
इसके लिए जरूरी चेहरे और मुखौटे अनेक
तुम ही कहो अगर धर भी लूँ ये सारे
तो भी क्या कर सकता वह लीला
जो रचाता कोई है उन चेहरों और मुखौटों से
जिसे देखा न हो देखनेवाले ने
परिचय और संपर्क
मनोज कुमार झा
जन्म - 07
सितम्बर 1976 ई0 |
बिहार के दरभंगा जिले के शंकरपुर-माँऊबेहट गाँव में।
शिक्षा - विज्ञान में स्नातकोत्तर
विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में
कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित |
चाम्सकी , जेमसन, ईगलटन, फूको, जिजेक
इत्यादि बौद्धिकों के लेखों का अनुवाद प्रकाशित |
एजाज अहमद की किताब ‘रिफ्लेक्शन
आन आवर टाइम्स’ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित |
सराय / सी. एस. डी. एस. के लिए ‘विक्षिप्तों
की दिखन’
पर शोध |
2008 का भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार
से सम्मानित |
मनोज कुमार झा,
मार्फत- श्री सुरेश मिश्र
दिवानी तकिया, कटहलवाड़ी, दरभंगा
- 846004
मो0- 099734-10548
सदा की तरह अद्भत मनोज की कविताएं ।रामजी तिवारी और सिताब दियारा को बधाई ।
जवाब देंहटाएंभाई मनोज, दिल को छू लेने वाली कविताएँ हैं. बधाई.
जवाब देंहटाएंहेमधर शर्मा
मनोज झा की इन कुछ मर्मस्पर्शी कविताओं के लिये उन्हें हार्दिक बधाई. अभी उनका कविता - संग्रह पढते हुए यह लगा था कि कविता के युवा -परिदृश्य में वे एक सर्वाधिक मौलिक व सम्भावनाशील स्वर हैं.
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