रविवार, 16 दिसंबर 2012

विद्यापीठ के आवारे - नवनीत



                                    नवनीत 

नवनीत से मेरा परिचय इन कविताओं के द्वारा ही है | जिस बनारस को मैं जानता हूँ , उसी बनारस को नवनीत की ये कवितायें कुछ अलग तरह से बताती हैं , और प्रकारांतर से युवा पीढ़ी की सोच को भी , जिसके बारे में हमारा यह भ्रम रहता है , कि वह इस दौर की बारीकियों से नितांत अपरिचित एक बदहवास दुनिया में दौड़ रही है | नवनीत के सहारे इस पीढ़ी को देखना- समझना मुझे बहुत अच्छा लगा | उम्मीद है , कि यह युवा आपको भी निराश नहीं करेगा , और साथ ही साथ अपनी जिम्मेदारियों को आगे भी निभाएगा |

      
      प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर प्रतिभाशाली युवा कवि नवनीत की कविताएँ  
               

1...  विद्यापीठ के आवारे

विद्यापीठ के आवारो से,
बनारस की लङकिया प्रेम नही करती,
वो जानती है उनका भविष्य,
जो उनके जेब मे पड़े पर्स की तरह ही
हल्का होता है,
साथ मे एक भय भी,
कपडे की तरह बदल दिये जाने पर,
कहाँ मुह छिपायेगीँ,

कुछ संस्कार तो इनमे बचा ही है,
वे जानते है धार्मिक जगहो पर प्रेम नही किया जाता,
यह काम उन्होने छोड़ रखा है,
बीएचयू वालो के लिये,
जो निभाते हुये दिख जाते है पूरे मनोयोग से,
कभी-कभी विश्वनाथ मंदिर की छतो पर,

यूँ तो कुछ आवारे यूपी कालेज से भी आये है,
जिनकी आँखो मे अस्सी की लस्सी नही,
भोजूबीर के पेड़े तैरते नजर आते है,
जहाँ सुधार की गुजांईश स्वाद को बिगाङ देती है,

कभी कभी अपनी आवारगियो को छोङ,
वे शरीफ बन जाते है,
छोङ देते है बस की सीट किसी बुर्जुग के लिये,
कूद जाते है बेवजह नये दोस्त के झगङे मे,
बिना किसी डर के,फोङवा लेते है सिर,
बाईक से गिरने के बहाने को गढते हुये,
पहुचते है अपने घरो मे,

इनके बाप साधारण होते है,
स्कूटर की तरह,
अपने बच्चो की आवारगियो पर गर्व करना,
इन्हे अख्खङ बनारसी बनाता है,
"
जियो शेर जियो, जा बचवा पिटाय के मत अईहा "
जैसे भोजपुरी शब्दो से सिखा देते है,
जिदंगी के उतार-चढाव व घबराहटो से लङना,

ये ढोते है अपने मजबूत कन्धो पर,
माँ-बाप की नाउम्मीदियाँ,
उनके आँखो से आँसू टपकने से पहले ही,
अक्सर कर देते है कुछ न कुछ चमत्कार,
कन्डक्टर से कलक्टर बनने के सफर मे,
नही भूलते अपने पुराने मित्र पुराने यार
और कैँट के सामने की चिखने की दुकान,


2...  सफलतायेँ जरूरी न थी

सफल बनने के कुछ उलजलूल तरीके,
जो तुमने सिखाये थे कुछ इस तरह,
कि लङकी पटाने के लिये प्रेम का होना जरूरी नही,
बिना वजहो के प्रेम भी होता है अब,
जेब मे पैसे न हो तो शहर मे एटीएम का होना काफी था,
कुछ ही मिनटो मे खरीद लेते ढेर सारा प्रेम थोक के भाव,
लेकिन कैसे,?
बनारस की दालमंडियों मे अब प्रेम नही,
कपङे बिकते है सस्ती दरो पर,

बनारस की विरक्तियाँ मुझे ज्ञान बाँटती रही,
दिल्ली की तटस्थताओ ने तुम्हे कायर बनाया,
जीवन से कभी लड़ नही पाया तब,
आर्थिक स्थिति का कमजोर होना एक अच्छा बहाना था,
बहुत दिनो तक चूसता रहा माँ-बाप का खून,
कभी किताबे,कभी फीस,कभी साईकिल और न जाने कितने कारणो से,
फिर भी खुश था अपनी समझदारियो पर,
कि नही लिये कभी खिलौने और पटाखो के लिये पैसे,

माँ के आँचल मे गठियाये हुये रूपये,
मुझे ईदगाह के हमीद की तरह प्रौढ बनाते रहे,
ये बङकपन टूटता रहा असफलता के दिनो मे,
नकारात्मक होने की हद तक,
आरक्षण के बहाने गरियाता रहा अम्बेडकर को संविधान को,
भूखे नंगो की बस्तियो मे घूमने के बाद
पछताता रहा,शर्माता रहा अपनी गलतियो पर,
शुक्र है प्रेमचन्द जीवित नही है वरना,
फूँक देते अपने साहित्य को मिट्टी का तेल छिड़क कर,

सफलताओँ ने तुम्हे स्वार्थी बनाया,असफलताओ ने मुझे डरपोक,
तुम्हारे भूलने की बीमारी नयी नही थी दोस्त,
याद करो वे दिन,
जब एक अचार मे हमने खायी थी कई रोटियां
कई दिनो तक,
एक ही चादर मे ढकते रहे उम्मीदो के सपने,
जरुरी नही थी मेरी सफलतायेँ
मै माँग लेता तुमसे अपने हिस्से का अचार,
तोड़ लेता बेझिझक जूठी रोटियों से,
दो चार निवाले उस पुराने अधिकार के साथ!




3.... निराश पलों मे

मेरा पथ,मेरा नीङ और मेरी आकाँक्षायेँ,
प्रबलताओ के आकंठ मे डूबी,
निराशाओ के बीच,
भूल चुके है पुराने जख्म,
फिर से हरा होने के आशय,

क्रिया-प्रतिक्रिया के नियम गलत हुये थे,
जब घृणा के बदले घृणा,ईर्ष्या के बदले ईर्ष्या,
और प्रेम के बदले प्रेम नही स्वार्थ मिला था,

जीने के लिये सबसे जरूरी थी चापलूसियाँ,
कुछ इस तरह
जैसे मृत्यु के लिये बना था स्वाभिमान,
दरकते किले की दीवारो मे,
जीवित बचे है कुछ अवशेष,

योग्यताये जीतने की मापदण्ड नही थी,
जीतने के लिये जरूरी था जुगाड़
जिसके दम पर अन्धे भी मारने लगे थे बटेर (एक चिङिया)

मेरी असन्तुष्टियाँ पुछल्ले रचनाकारो की तरह,
अपनी हदे पहचानने लगी है,
जिनके लिये जरूरी नही है रोटी,कपङा और मकान,
वे बुद्ध है,
धन,वैभव सुख,समृद्धि को ठुकराते हुये,
तलाशने लगे है केवल और केवल ज्ञान,

गाय के दूध ने मुझे काफिर बनाया,
उसी के मांस को खा के तुम बने थे मुसलमान,
पूछना चाहूँगा तुम्हारी पीढ़ियों से,
झटका,हलाल के चक्कर मे,
कैसे बचेगी मानवता की जान?



नवनीत सिंह

20 जनवरी 1988
उत्तर प्रदेश के चंदौली में जन्म
अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर
अब कविता के समाजशास्त्र से जूझना
युवा पीढ़ी के लेखकों को पढ़ने में अधिक उत्सुक
                                 


4 टिप्‍पणियां:

  1. पहली कविता किसी और स्रोत से पहले ही पढ़ रखी थी... बाकी दोनों कविताएं पहीली बार पढ़ीं... कवि के पास अच्‍छी दृष्टि है और मुहारेदार भाषा है। कवि के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।

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  2. यह बिलकुल सही शुरूआत जैसी शुरूआत है...प्रेम भाई ने सही लिखा.... नवनीत को हम सब स्‍वागत कहते हैं...उनमें कवि-सामर्थ्‍य भरपूर दिख रहा है...

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  3. नवनीत आपकी कविताओं मैं ( अपना ) एक निम्न मध्यम वर्गीय युवा का आज देखता हूँ .. आपकी कविताओं में एक सतत प्रवाह हैं ..अब तक आपको जितना भी पढ़ पाया हूँ उसके बाद यह कह सकता हूँ की भावों के स्तर पर आप गहन से गहन होते गए हैं .. " जैसे मृत्युं के लिए बना था स्वाभिमान" वाह ... यह पंक्ति उसका जीताजागता सबूत हैं .. आपके लिए मेरी अशेष शुभकामनाएँ ..!

    -Aharnishsagar

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  4. बहुत ही अच्छी कविताएं । बधाई नवनीत जी

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