भरत प्रसाद |
युवा हिंदी आलोचना में भरत प्रसाद का नाम जाना-पहचाना है , और इसके लिए वे पुरस्कृत भी हो चुके हैं | हालाकि उन्होंने अपनी रचनात्मकता के दायरे को आलोचना के साथ-साथ हिंदी की अन्य विधाओं - 'यथा कविता और कहानी' - में भी विस्तारित किया है , लेकिन अभी इन विधाओं में उनका वास्तविक मूल्यांकन होना शेष है | उम्मीद की जानी चाहिए कि युवा स्वरों के रचनात्मक विविधता वाले दौर में भरत प्रसाद की विविधताओं का भी युक्तिसंगत मूल्यांकन होगा |
कविताओं के माध्यम से पहले भी आप उनकी विविधताओं को 'सिताब दियारा' ब्लाग पर परख चुके हैं, और आज उसी कड़ी को विस्तारित करते हुए उनकी एक कहानी 'गुलाबी गैंग' यहाँ प्रस्तुत की जा रही है | इस कहानी में भरत प्रसाद उस साहस को रचने की कोशिश कर रहे हैं , जो भले ही आज सामान्यतया अनुपस्थित दिखाई दे रहा हो , लेकिन जिसके भविष्य में फलीभूत हो सकने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता |
तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर भरत प्रसाद की कहानी
'गुलाबी गैंग'
गुलाबी गैंग
‘मैं अकेली हूँ, पोषक भी हूँ और आक्रामक भी, रचयिता हूँ तो विनाशक भी। मैं शोषित नहीं हूँ- सन्त नहीं हूँ - जो दोस्तों के लिए
स्नेहमयी और शत्रुओं के लिए खतरनाक।’
नाओमीवुल्फ (फायर विद फायर)
मार तो फिर मार ही होती है। वह चाहे तलवारी
आँखों की हो, नफरत भरी चुप्पी की हो, जहरीली जुबान की हो,
तिरछी मुस्कान की हो
या फिर किसी और शातिर अदा की! हर मार का अलग‘-अलग स्वाद,
अलग-अलग आनन्द और दर्द
होता है। लात की मार को बात की मार से कैसे एक कर सकते हैं ? गाल पर छपे हुए थप्पड़
का स्वाद क्या वैसा ही होगा, जैसा किसी की आँखों से फूटते धिक्कार का होता है ? ‘फर्क’ शब्द जिन्दा ही इसीलिए
है कि हर फर्क में फर्क होता है! पास-पास के फर्क को भी एक नहीं कर सकते, उसे मिटा नहीं सकते।
इसीलिए तय मानिए कि हर मार का अपना-अपना असर है, अपना-अपना मकसद है।
मार सामने से भी होती है और पीछे से भी। प्यार से भी की जाती है और प्यार न होने के
कारण भी। उसे साक्षात् देख सकते हैं, सुन सकते हैं, महसूस कर सकते हैं।
सौ की सीधी बात यही कि मार की सत्ता असीम है। असंख्य हैं उसके रूप। वह कहाँ,
कब, कैसे, किसको अपने आगोश में
ले ले, कह पाना मुश्किल है। अब इस मार को किस खाते में डालेंगे, जो किसी की विषबुझी
जुबान से मिलती है, और तिल-तिल तड़पाने के बावजूद मृत्युपर्यन्त पीछा नहीं छोड़ती
। इसमें न हाथ-पैर टूटा, न आँख फूटी, न अंग-भंग हुआ, न ही खून बहा। मगर................... असर
कुछ इस कदर गहरा और बेअंदाज कि इंसान टूट-फूट जाता है अंदर से। संज्ञाशून्य हो जाता
है मारे चोट के। वह खून के ऐसे आँसू रोता है, जो भीतर-भीतर ही आत्मा
में टपकता रहता है।
उत्तर प्रदेश का अंचल
- बुंदेलखण्ड। किसने नहीं सुनी है - रानी झाँसी की वीरगाथा ? किसकी हिम्मत है जो
बुंदेलखण्ड के अमर गौरव को इंकार कर सके। मगर नहीं, इतिहास ने जैसे ही
करवट बदली, जैसे ही देश को जकड़ी हुई गुलामी की बेड़ियाँ झनझना कर टूटीं, खण्ड-खण्ड हुईं,
देश स्वतंत्र हो गया।
आजाद होने का जो सिलसिला सन् 47 में शुरू हुआ था, वह आज भी बढ़-बढ़कर, उछल-मचलकर बेतरह जारी
है। देश दिन-प्रतिदिन आजाद हो रहा है। अपने अतीत से, वर्तमान से,
भविष्य से,
दायित्व से,
पहचान से, मान से, सम्मान से,
अन्दर से, बाहर से, सम्पन्नता और विपन्नता
से............. न जाने किस-किस से। हमारा देश वाकई आजाद हो रहा है। तो बुंदेलखण्ड
.................. प्रकृति यहाँ आकर खुद भी उन्मुक्त हो गयी है, अपने व्यापक दायित्व
से। उसने बुंदेलखण्ड को छुट्टा छोड़ रखा है - जलने-बुझने के लिए, आबाद-बर्बाद होने के
लिए। यहाँ धरती मइया न बांझ है - न अन्नदार, न रसमय है न पत्थर-दिल,
न हरी चूनर वाली है
न विधवा जैसी। यह बुंदेलखण्ड............... निचला, पठारी, बंजर, चट्टानी और बादलों
की कृपा का भूखा अंचल। किसान उठते हैं - झोपड़ी से, लपक चलते हैं - खेतों
की ओर। माथे पर हथेली देकर दूर क्षितिज में निहारते हैं घण्टों तक। कहीं बादल तो नहीं
उठ रहे हैं ? ऐसा कहाँ अहोभाग्य ? कि इन्द्र देवता के
दर्शन हों। बुंदेलखण्ड की धरती अभिशप्त है अकाल मौत मरती बेटीनुमा फसलों को अपनी सूनी-सूखी
गोद में दफना देने के लिए।
सिर्फ इंसान ही इंसान
से नहीं, प्रकृति भी अपनी हार का बदला लेती है। सूद-ब्याज सहित, एक सौ एक प्रतिशत,
बिना माँफ किए। लूटो
उसे, लूट लेगी तुम्हें। मारो उसे, खत्म कर देगी। मजाक बनाओ उसका, वह तुम्हारे अस्तित्व
को ही मजाक बना देगी। इंसान हो या प्रकृति,बर्दाश्त की एक सीमा तक ही सीधे-सज्जन रह
पाते हैं। इतिहास के पन्नों पर गौरव के साथ उपस्थित यह बुंदेलखण्ड अपनी मौजूदा नियति
पर ऐसा रोता है कि आँसू नहीं निकलते। जिले के मालिक, तहसील के प्रधान,
थाना के यमराज,
सुपरिंटेण्डेंट आफ
पुलिस, ब्लाक-प्रमुख कौन बचा है - बुंदेलखण्ड को नोंचने-खसोटने से। तीन साल की नियुक्ति
में तीस साल तक मस्त जीने का जुगाड़। आफिस में कुर्सी पर बैठते ही खुजली शुरू हो जाती
है। गरीब-गुरबा, अनपढ़, अजनबी, दबा-सताया, कोई भी कैसा भी, कहीं का भी मुवक्किल हाथ लग जाय, पाई-पाई चूस डालते
हैं ये। यह सुविधा-शुल्क ही है जो इन्हें कल सुबह भी उठने की ख्वाइश जगाता है,
नौकरी करने की लालसा
पैदा करता है, ड्यूटी करने को उकसाता है। पके सेब की तरह मुखमंडल को स्वस्थ
रखने का टानिक है यह सुविधा-शुल्क। कहिए तो आफीसर आपके लिए क्या न कर डाले ?
नियम-कायदे-कानून उसके
लिए फुटबाल से ज्यादे मतलब नहीं रखते। उसके साथ वह अक्सर पैरों से पेश आता है। न जाने
कब से लूटने का यह मैच चल रहा है। हार गयी है बुंदेलखण्ड की धरती - इन सरकारी लुटेरों
से। सुन सकते हों तो सुनिए कान लगाकर - सैकड़ों दिशाओ से उसके अहकने की आवाजें सुनाई
दे रही हैं।
गैंग अर्थात् गुट्ट,
गिरोह, लश्कर। इसे टोली,
समूह, समुदाय या टीम पुकारने
की कोई जुर्रत न करे। यह ठेठ भाषा में, खुलेआम, ताली ठोंककर गैंग है
- ‘गुलाबी गैंग’। चोर, डकैत, गिरहकट्ट, अवारा, कसाई या सुपारी लेने वालों का नहीं, आदमियों का भी नहीं।
बुंदेलखण्ड की बंजर धरती में पैदा होने वाली बेनाम औरतों का गैंग, जिसमें एक नहीं,
दस नहीं, चालीस भी नहीं। कुल
सौ के आसपास गिनती बैठेगी ‘गुलाबी गैंग’ में सक्रिय इन सिपाहिनियों की। समूचे बुंदेलखण्ड
में ‘गुलाबी गैंग’ का मतलब चलता-फिरता भूचाल, साक्षात् नाचता बवण्डर,
रूह कहाँ देनी वाली
बिजली। ‘गुलाबी गैंग’ नाम सुनते ही मजलूम, असहाय, लावारिश चेहरों पर
खुशी थिरक उठती है और सरकारी बाबुओं से लेकर आला अधिकारियों की बुस्शर्ट के नीचे मुलायम बोटी थर-थर
काँपने लगती है। भूमिहीन, बेरोजगार, अल्पशिक्षित, गरीब निचले तबकों की औरतें ही लक्ष्मीबाई
हैं गुलाबी - गैंग में ; जिन्हें वर्षों तक थाना, कचहरी, अदालत, आफिस के बन्द कमरे
में लूटा गया है। जिनके चोट खाए हाथ-पैर और चेहरे के सूखे घाव सरकारी जुलुम की खुलेआम
गवाही देते हैं। शरीर, सम्पत्ति, जमीन क्या कुछ नहीं लूटा गया है इनका ? मरता क्या न करता ?
अपने नेस्तनाबूद अस्तित्व
को बचाने के लिए ये निकल पड़ी हैं चौखट से। इनकी साड़ी का पल्लू सर ढँकने के नहीं,
कमर कसने के काम आता
है। पैरेां में चट्ट-चट्ट बजती हवाई चप्पल, हाथों में अपने कद
के बराबर ठिगनी लाठी - तेल खा-खाकर चमकती हुई। दूर से सुनाई देती इनके चप्पलों की आहट
बड़े-बड़े अफसरों के सिर पर बजते हुए घन के माॅफिक लगती है।
आज बुंदेलखण्ड के एक
थाने के दरोगा ‘आजाद चौहान’ का नम्बर है। चढ़ गया है वह गुलाबी गैंग के हत्थे। थाने में न्याय
की फरियाद करने आयी गाँव की मुन्नी देवी पर नियत गन्दी कर ली। एफ. आई. आर. लिखवाने
के बहाने बुलाया एकांत कमरे में। कल-बल-छल से लगा पटाने मुन्नी को। मुन्नी भाँप गयी
लार चुआते भेड़िए का असली चेहरा। बात से बात न बनती देख दरोगा बत्तमीजी पर उतर आया और
मुन्नी की शरीर पर लगा हाथ फेरने............. मुन्नी घण्टे भर बाद थाने के बाहर निकली।
रोती, सुबकती, तन ढँकती। इसीलिए पिछले तीन सालों से आजाद चैहान ‘गुलाबी गैंग’
की आँखों की किर-किरी
बना हुआ था। मवालियों, लफंगों, गुण्डों से सांठ-गांठ के लिए बदनाम, देहाती फरियादियों
से पैसा चूसने में उस्ताद, डण्डे के जोर से औरतों की इज्जत-आबरू बर्बाद करने में सिद्धहस्त
आजाद चैहान आज आ गया गुलाबी गैंग के निशाने पर। ठीक सुबह का वक्त, दारोगा शर्ट-लुंगी
सैंडिल पहनकर निकला था रोड पर पान खाने। अचानक गुलाबी गैंग की आँधी देखकर वापस दौड़
पड़ा थाने। शराब पी-पीकर फूली हुई थुल-थुल शरीर और भीतर चुपचाप जमे हुए अंधे अपराध-बोध
ने उसे निहायत कमजोर बना दिया था। पचास कदम मुश्किल से वापस दौड़ा होगा कि लाठी लेकर
टूट ही तो पड़ा ‘गुलाबी गैंग-। दे दनादन। पीठ, कमर, हाथ-पैर, जंघा नितम्ब............
दारोगा के सारे अंगों ने आज जमकर लाठियों का स्वाद चखा। पन्द्रह मिनट में तेल खाई लाठियों
के प्रहार और सिर पर ओला बनकर टूटती चप्पलों की झड़ी ने अन्ततः हाथ जोड़कर प्राण की भीख
मांगने पर मजबूर कर दिया आजाद चौहान को। गुलाबी गैंग ने बख्श दो जान,फटी बण्डी और तार-तार
हो चुके पट्टीदार जंघिया के साथ जमीन पर छितराए दरोगा को मुक्त कर दिया तेलिया लाठियों
के आतंक से। गुलाबी गैंग ने चलते-चलते बिना किसी खौफ, जल्दबाजी या हड़बड़ी
के, मार में टूटी हुई चप्पलों की माला पहनाई, आगे सुधर जाने की नसीहत
दी और पलक झपकते दृश्य से ओझल हो गईं।
जीवन में पहली बार, हाँ, हाँ, पहली बार दारोगा साहेब
की ऐसी बेजोड़ खातिरदारी हुई। लगभग बेहोशी छा उठी बदन में। जमीन पर हाथ देकर उठने की
कोशिश की तो गश आ गया। धम्म से बैठ गये जमीन पर। दुर्घटना की खबर लगते ही चार-पाँच
सिपाही लपक आये इधर। थाना इंचार्ज साहेब पहचान में नहीं आ रहे थे। घुँघराले बाल ऐसे
बिखरे थे, जैसे उजड़े चमन की झाड़ियाँ। लाठियों का प्रसाद खाकर थुल-थुल शरीर और फूल उठी। मार
खाते वक्त ससुरी सैंडिल ने भी साथ छोड़ दिया, सड़क के एक किनारे दुबकी
पड़ी थीं। सिपाहियों ने लपककर संभाला मालिक को, गले में लटकते स्वर्णहार
को निकाल कर फेंका नाली में, और दोनों ओर से कंधा देकर ले चले थाने की ओर। न जाने कब से उमड़ते-घुमड़ते-नाचते
क्रोध को सीने में जज्ब किए बैठे थे - दरोगा साहेब - ‘साले, सब सुबह-सुबह कहाँ
मर गये ? देखते हैं कि यहाँ अकेले पिटा पड़ा हूँ और आकर मुझे बचाते तक नहीं। पड़े रहो साले
बिस्तर पर। आ जाने दो चैकी देखता हूँ एक-एक को।’ पैरों पर लगी चोट की
कसक इसी दबे क्रोध में घुल-मिलकर बोल रही थी। कंधे देने वाले सिपाहियेां को दी एक-बीस
गालियाँ और अगिया बैताली मुद्रा में पूछा - ‘कमीनों, तुम सब कहाँ थे ?
इन रण्डियों ने मार-मारकर
कचूमर निकाल लिया और तुम लोग बिस्तर तोड़ रहे थे ,’ अपनी शरीर की वैशाखी
देकर ले चलते घायल दरोगा से वे इस वक्त क्या बोलें ? हाँ, यह जरूर हुआ कि सिपाहियों
के चेहरे पर न जाने क्यों दबी-दबी सी प्रसन्नता खिल रही थी। अब इसमें क्या शक-सुबहा
कि थाना-पुलिस हाथ-मुँह धोकर गुलाबी गैंग के पीछे पड़ेगा। चोट खाए चूहों की माफिक छान
मारेगा पूरा इलाका। थाने में गुमनाम, अदृश्य और सूचनाबाज भेदियों को बुला-बुलाकर
एक लिस्ट तैयार की जाएगी कि किस गाँव की कौन सी औरत इस गैंग में शामिल है, दर्ज करो उसका नाम,
पता, ठिकाना। आजाद चौहान
की मार्मिक खातिरदारी के बाद ऐन पन्द्रह दिन के भीतर गाँव-गाँव से पकड़ा गया तकरीबन
एक दर्जन औरतों को जबरन लाया गया थाने, और डराने, धमकाने, लालच देने वाली शैली
में शुरू हुई पूछताछ -
‘क्या नाम है तेरा ?’
‘गुलाबी गैंग’ - एक बंदी औरत।
‘क्या ? यह कौन सा नाम है रे
?’
‘मेरा नाम, पता, ठिकाना सब कुछ यही
है।’
‘बेवकूफ बनाने चली है हमको। जो पूछ रहा हूँ,
इज्जत से बता दे
वरना...............।’
‘गुलाबी गैंग............।’ एक साथ सभी औरतें।
बार-बार एक ही वाक्य
सुन-सुनकर झल्ला उठा डिप्टी दरोगा मार्तण्ड कुमार। पैर पटकते हुए बुलाया दो सिपाहियों
को और आदेशात्मक तेवर में बोला - ‘लगाओ वाट इन देवियों को ; चखाओ मजा कानून तोड़ने
का। जरा पता तो चले - थाना से बैर मोल लेने का क्या इनाम होता है ?’
आगे बढ़ आए दो सिपाही।
काँख में रूल दबाए त्रिभंगी मुद्रा में खड़े हो गए। चुनौटी से सुर्ती निकाली,
बायीं हथेली पर रखा, चूना मिलाया और लगे
मसलने - ‘क्या सा’ब ! आप भी...........
इतना क्यों मूड खराब करते हैं अपना ? लीजिए थोड़ा,
(सुर्ती आगे बढ़ाते हुए)।
आपको तो नहीं मारा-पीटा न ! आप अभी नये-नये आए हैं ? हम सब यहाँ छः साल
से सड़ रहे हैं। भीतर-बाहर की सारी असलियत पता है हमें। माना कि पद में आप एक ओहदा ऊपर
हैं, मगर उम्र में आप से दस साल बड़े हैं हम। आप पढ़े-लिखे, खानदानी और इज्जतदार
अफसर हैं। आजाद सा’ब के पचड़े में न मत उलझिए। जब ऊ दुबारा चार्ज में आएंगे,
तो इनका जो करेंगे,
सो करेंगे।’
‘तो क्या इनको ऐसे ही जाने दूँ ?’ डिप्टी दरोगा नरम पड़कर
बोला।
थाने में क्या करेंगे इनका ? अँचार तो नहीं डालेंगे
न !’
देर में ही सही डिप्टी दरोगा को समझ में आ
गया कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं। नियम तोड़ने वाला भी दिशा देता है कि नियम
को किधर जाना चाहिए। वह कानून का व्याकरण दुरूस्त करता है और कई बार नियम को तोड़कर
ही सही काम को अंजाम दिया जा सकता है। मार्तण्ड कुमार ने आगे एहतियात के तौर पर लिख
लिया एफ. आइ. आर. और आइंदा ऐसी वारदात न करने की सख्त-सूखी-खोखली चेतावनी देकर मुक्त
कर दिया सभी औरतों को, जो ‘गुलाबी गैंग’ के सिवाय कुछ सोचना ही नहीं सीखी थीं।
समय केवल हवा की तरह अदृश्य रहकर निरंतर बहता
हुआ अस्तित्व ही नहीं है। वह डेस्टर है, जो पुरानी चीजें मिटाता है। पर्दा है,
जो ढँक देता है झूठ
और सच। नींद की घुट्टी है वह, जिसे पीकर हम चैन से सो जाते हैं। समय जितना कमजोर और समय जितना
बलवान किसे माना जाय ? समय सब कुछ दे सकता है और सब कुछ छीन सकता है। वह बीत कर भी
बीता नहीं हैं। समय कभी खत्म हो ही नहीं सकता। समय की मृत्यु असम्भव है। मानव जीवन
में एक बार अपनी उपस्थिति दर्ज करा लेने के बाद समय अमर हो उठता है। समूची सृष्टि अभिशप्त
है मरने के लिए - समय के सिवा। घटनाएँ-दर-घटनाएँ, उत्थान और पतन,
दोस्ती और दुश्मनी,
विनाश और विकास,
लगाव और दुराव,
सन्धि और बगावत परिभाषा
रचते हैं समय की। लंगोटिया यार जानी दुश्मन बन जाता है - समय का फेर। लाखों की नजरों
में चढ़ जाने वाला - एक दिन लाखेां निगाहों में गिर जाता है - समय का फेर।
थाने के दरोगा को सूद-ब्याद सहित मिल गया
अपनी करनी का फल। ‘गुलाबी गैंग’ की दुस्साहसी औरतें गिरफ्तार हुईं और छूटीं।
महीने-दो-महीने यह घटना बुंदेलखण्ड का माहौल गरमाए रही। आखिर कब तक ज्वार चढ़ा रहता
? छः-सात महीने बाद वातावरण सतह पर कुछ इस तरह शान्त और स्वाभाविक दिखने लगा जैसे
कुछ हुआ ही न हो। गुलाबी गैंग शान्त, तो समझिए दुनिया शान्त। बीत गए पूरे नौ महीने। बुंदेलखण्ड का
थाना कचहरी, ब्लाक, जिला सौ सालों से निरन्तर जिस ठसाठस्स कीचड़ में तैरता,
डूबता आ रहा था,
दृश्य पुनः वहीं का
वहीं। कहाँ है गुलाबी गैंग ? अपने नाम मात्र से भ्रष्ट अधिकारियों की बोटी-बोटी कँपा देने
वाली योद्धा महिलाएँ कहाँ छिप गयीं ? कहीं यह तूफान के पहले की असाधारण शान्ति
तो नहीं ? शायद !
सदर तहसील - बुंदेलखण्ड। रोज की तरह घना होता
जन सैलाब। तहसील 10 बजे खुल जाती है, मगर तहसीलदार, कुर्सी पर विराजमान
होते हैं - तकरीबन 12 बजे, वो भी सप्ताह में ज्यादा से ज्यादा दो-तीन बार। कई बार तो श्वेत
पर्दे से ढँकी एंबेसडर में आते हैं- भूरा चश्मा चढ़ाए सधे कदमों से हाजिर होते हैं,
और कड़क लाभ का अंदाजा
लगाकर रफू-चक्कर हो लेते हैं। जानना चाहेंगे नाम ? अवध बिहारी नाम है।
यहाँ बिहारी का मतलब- बिहार का करने वाला नहीं ; विहार का मतलब जैसे
- नौका विहार-मौका विहार, जल विहार-मल विहार, वन विहार-धन विहार इत्यादि। थोड़ा और विस्तार
से तहसीलदार साहब का बायोडाटा जान लीजिए। इन्होंने तीर्थराज प्रयाग अर्थात् इलाहाबाद
विश्वविद्यालय से बी. ए., एम. ए. करके उस विश्वविद्यालय को अपना ऋणी बनाया है। पी-एच.
डी. दर्शनशास्त्र से किया है। दर्शन के दुर्लभ, कठिन तत्वों को घोंट-पीसकर
किस कदर अपनी आत्मा में पचाया है - यह उनके चंडुल माथे पर खिलती हुई चमक से तत्काल
ही लगाया जा सकता है। महोदय कम बोलते हैं,कम हँसते हैं, कम दिखते हैं,
कम उलझते हैं,
कम भोजन करते है। गोरी,
चिकनी, रोएँदार सागौन के पेड़
की तरह सीधी तनी काया सिर्फ चावल-दाल भकोसकर थोड़े ही खड़ी है। पक्के फलाहारी देवता हैं।
तहसील के गेट के अन्दर जैसे ही अम्बेस्डर
घुसी - सामने साड़ियों से ढँकी एक दीवार नजर आयी। दीवार के पीछे एक और दीवार,
उसके पीछे........।
अवध बिहारी इस वक्त खुद को वध बिहारी जैसा महसूस करने लगे। गाड़ी के अंदर सीट पर शरीर
ढाले हुए महाशय अकबका गये। रोक दी गाड़ी। समझ गये कि आज उनकी नौकरी का सबसे ‘सुनहरा’ दिन है। चश्मा चढ़ाया,
धीरे से दरवाजा खोला
और कमर की ढीली बेल्ट ऊपर उठाते हुए बाहर खड़े हो गए। यह दीवार और कोई नहीं ‘गुलाबी गैंग’
ही था, जो कंधे से कंधा सटाए,
एक दूसरे का पंजा कसकर
जकड़े लौह दीवार बनकर खड़ा था। अच्छे-अच्छों को नानी-नाना ही नहीं, नाती-पोता तक याद दिला
देने वाले गुलाबी गैंग की औरतों के किस्से तहसीलदार सा’ब ने कई बार सुन रखे
थे। अब उन्हें क्या पता था, आज वे खुद किस्सा बन जाएँगे। खैर ! प्रशासक थे, रोब-दाब दिखाना जानते
थे। सहज लहजे में पूछा - ‘कौन हो तुम लोग ? क्या करने आयी हो यहाँ!’
‘आपका इस्तीफा। हम इस्तीफा लेने आयी हैं।’
गुलाबी गैंग एक स्वर
में बोल उठा।
‘क्या ? इस्, इस्, इस्तीफा ?,
तुम सब सनक तो नहीं
गयी हो ?’
‘हाँ, हाँ, हम सऽब सनक गयी हैं।
क्योंकि आप लोग बहुत ज्यादा समझदार हो गये हो। और
जरूरत से ज्यादा बुद्धिमानी दिखाने वालों
को होश में लाने के लिए पागल बनना ही पड़ता है।’
छोड़ो ये बेकार की बातें। अपना काम बताओ।’
‘आपका इस्तीफा।’ गुलाबी गैंग का पुनः
समवेत स्वर।
‘ऐसा कहने वाली तुम लोग होती कौन हो ?
क्यों दूँ इस्तीफा
? मैंने किसकी हत्या की है ?
किसको लूटा है ? मेरे खिलाफ तुम्हारे
पास है कोई सबूत ?’
‘सिर्फ सबूत ही नहीं, गवाह भी है मेरे साथ
- जो नियम की आड़ में खेली जा रही तुम्हारी घिनौनी, बेहया करतूतों का कच्चा
चिट्ठा खोलेगा।’
‘तो देर किस बात की ? दिखाओ सबूत,
लाओ न गवाह।’
बगल में खड़ी भीड़ में
से एक पच्चीस साल का नौजवान निकल आया, जिसके हाथ में पालीथीन की थैली लटक रही थंी
उसमें से नौजवान ने निकाली एक फाइल, जो कि उसके गाँव में वर्षो से मचे हुए जमीनी
विवाद से संबंधित थी। वह युवक गुलाबी गैंग आौर तहसीलदार के ठीक बीच में आकर खड़ा हो
गया और लगा दुखड़ा रोने - ‘पिछले तीन सालों से मैं तहसील का चक्कर लगा रहा हूँ। एक अप्लीकेशन
पर तहसीलदार की दस्तखत चाहिए, मेरे केस की सुनवाई तभी आगे बढ़ पाएगी। गाँव पर मेरे विरोधी मेरी
पुश्तैनी जमीन हड़पते जा रहे हैं। घर पर बूढ़ी माँ की अकेली संतान हूँ। इस दादागिरी के
खिलाफ मुकदमा भी नहीं लड़ सकता। आपकी एक दस्तखत से मेरी जमीन बच जाती, जिसको आप भी समझ रहे
हैं। मैंने सूद पर कर्जा लेकर 2000 रुपया दिया भी, आपकी दस्तखत पाने के लिए। मगर अपने चपरासी
से आपने ही कहलवा दिया कि दो और चाहिए, तब आप अपनी दस्तखत करेंगे।’
युवक का दो टूक आरोप सुनते ही बिफर पड़े तहसीलदार
- ‘बंद करो ये बकवास। क्या सबूत है तुम्हारे पास ?’
‘बकवास तुम बंद करो। बड़े-बड़े चोर कभी सबूत
नहीं छोड़ा करते। बताओ इस्तीफा देते हो या नहीं?’ गुलाबी गैंग उस युवक
को पीछे हटाता हुआ तहसीलदार की नाम पर चढ़ आया।
‘हटो, हटो, पीछे हटो। खेल-तमाशा
है क्या ? नहीं दूँगा इस्तीफा, क्या कर लोगी तुम सब ?’ तहसीलदार की जुबान
से मानो कायरता चू रही हो।
‘दस्तखत की बात छोड़ो,वो तो मामूली पाप है
तुम्हारा। 21 साल की शादी-शुदा आरती को हक दिलाने का झाँसा देकर साल-साल
भर अपनी बंद कार में किसने घुमाया ? मजदूरों की बस्तियाँ उजाड़ कर चमकौवा बाजार
खोलने की इजाजत ठेकेदारों को किसने दी ? और....... और पिछले ही साल 12 साल की मासूम बच्ची
के साथ............ । तुम्हें इस्तीफा देना ही पड़ेगा- तहसीलदार।’ तैश खाकर गुलाबी गैंग
की एक महिला ने धर ही तो लिया अवध बिहारी का कालर। बाकी ने न आव देखा न ताव। लगीं थप्पड़
बरसाने। गाल तो सबसे प्राचीन और निरापद जगह है थप्पड़ के लिए। उसमें कुछ नयी बात नहीं।
यहाँ तहसीलदार की नाक को घूसा मिला,सिर को चाटा, दोनों कानों को ऐंठन और गर्दन को बारी-बारी
से कई पंजे हासिल हुए। जाने-अनजाने, सायास या अनायास कुछ औरतों ने लात भी जमा
दिया हो, तो गारंटी नहीं। क्योंकि गुलाबी गैंग के चले जाने के बाद तहसीलदार साहब ;
नहीं-नहीं,
अवध बिहारी कमर के
पीछे हाथ रखकर आह-ऊह करते हुए जमीन पर बैठ गये और ब्लैकबेरी मोबाइल निकाल कर पुलिस
स्टेशन का नम्बर लगाने लगे।
गुलाबी गैंग ने इस
बार किसी छोटे-मोटे नहीं, बड़े खिलाड़ी पर धावा बोला था, इसलिए प्रतिक्रिया
भी जोरदार मिलनी थी। किसी पत्थर पर पैर मारो और चोट न लगे - असंभव। सफाई की सनक में
झाड़ियों से उलझ जाओ, और अंग-प्रत्यंग छलनी न हो - नामुमकिन। दहकती आग को छेड़ो और
चिंगारी छिटक कर शरीर पर न पड़े - हो ही नहीं सकता। गुलाबी गैंग ने दरोगा को डण्डों
से पीटा, जैसे-तैसे मामला थम गया, इस बार तहसीलदार को पीट दिया........... जिला प्रशासन के एक
रहनुमा को, पूरी तहसील के मालिक को ? जिससे दो बातें करते हुए अच्छे-अच्छों की पैंट ढीली हो जाती
है, गुलाबी गैंग ने आज उसी को ढीला कर दिया ? तीन दिन के अन्दर बुंदेलखण्ड
के आसपास के गाँव सुर्खियों में छा गये। किस गाँव से गुलाबी गैंग कितने सदस्य धरे गये,
आए दिन अखबार की अहम्
खबर होती थी। हफ्ते भर के अंदर करीब पचास औरतें पुलिस गाड़ियों में भर-भरकर जेलखाने
में ठूँस दी गयीं। उनमें दर्जन भर ऐसी स्त्रियाँ थीं - जो ढंग से ‘गुलाबी गैंग’
का उच्चारण भी नहीं
कर सकती थीं, जिन्हें दूसरे पर हाथ छोड़ने की कल्पना मात्र से कंपकपी छूटती
थी। सारी औरतों को पुलिस वैन में लादकर ले आया गया जिला मुख्यालय, और गर्दन पकड़-पकड़कर
धक्का देते हुए नजरबंद कर दिया जिला कारागार में। कुछ औरतें ऐसी भी घसीट कर लाई गयीं
थी, जिनकी गोंद में साल-डेढ़ साल के दुधमुँहे बच्चे थे। वे बच्चों को गाँव पर छोड़कर
आयी थीं। जेलखाने में बेटों के लिए तड़पती रोती माँओं ने जेल निरीक्षक से गिड़गिड़ाकर
फरियाद की ‘मैं बेकसूर हूँ - मुझे छोड़ दो’। मगर सत्ता के कान न जाने कितने बहरे होते हैं। हजार सौ प्रतिशत
व्यर्थ गयी उन औरतों की फरियाद। तीन दिन, तीन रात, तीन सुबह, तीन शाम जेल प्रशासन
की ओर से उन्हें वह आघात मिला, जिसके बारे में उन्होंने जानना तो बहुत दूर कभी कल्पना तक नहीं
की होगी। शरीर का वह कौन सा हिस्सा था, जहाँ पुलिसिया मार के काले-नीले निशान न पड़े
हों ? पीठ , पेट और पैर पर सबसे ज्यादा। कोई औरत इस काबिल नहीं रही कि ढंग से चल-फिर सके,
सांस ले सके,
दो शब्द बोल सके,
हँसना तो दूर,
दो बूँद आँसू रो सके। पुलिस की चैकसी में
उन्हें बाहर लाया जाता था, जो चार कदम चलते
ही दर्द के मारे जमीन पर बैठ जाती थीं। पुलिस
ने अधमरा कर डाला सबको। पाँच दिन गुजर गये, छः दिन गुजर गये,
सप्ताह भी गुजरने लगा।
वे औरतें जो अबोध बच्चों से बिछुड़कर जेलखाना आ गयी थीं - विक्षिप्त होने लगीं,
और पागलों जैसी हरकतें
करने लगीं- ‘हे ! हे ! कोई मेरे बच्चे को मत छूना, मार डालूँगी,
काट डालूँगी,
नोंच डालूँगी। आ,
आ, मार मुझे और मार,
और.........। नहीं
बताऊँगी, आ रही हूँ मैं। अरे, अरे, कोई मेरे बच्चे बच्चे को दूध क्यों नहीं पिलाता ?’ इसी तरह जेल में रोते-चिल्लाते,
पछाड़ खाकर विलाप करते
वे औरतें बेहोश होकर टूटे-फूटे फर्श पर गिर पड़तीं।
दसवें दिन की सुबह
10 बजे जिला मुख्यालय का आकाश नारों की गूँज से काँपने लगा। एक साथ बच्चे,
बूढ़े, नौजवान, अमीर, गरीब, अनपढ़,शिक्षित, बेरोजगार, नौकरीशुदा सब समुद्री
जन सैलाब में शामिल होकर सरकार, प्रशासन, पुलिस और राजनेताओं के खिलाफ दुस्साहसिक नारे लगा रहे थे। सैकड़ों
गाँवों के आम, गुमनाम, बेनाम, बेजान चेहरे चल उठे थे गुलाबी गैंग का साथ देने। ‘पुलिस प्रशासन मुर्दाबाद’,
‘जिलाधिकारी होश में
आओ-, ‘अब तो यह खुलेआम है - तहसीलदार बदनाम है।’ जैसे नारों को सम्भाल
पाने के लिए दसों दिशाएँ कम पड़ रही थीं। जुलूस के आगे-आगे गुलाबी गैंग की सैकड़ों स्त्रियाँ
और पीछे-पीछे बाढ़ के मानिंद उमड़ता हुआ जनसमूह। एक साथ नारा उठता - ‘गुलाबी गैंग जिन्दाबाद।’
समूचा पुलिस-तन्त्र
अवाक, मुँह में जुबान नहीं, हाथों में हिम्मत नहीं, कलम में दम नहीं कि
इस ‘जनगण’ के खिलाफ रत्ती भर भी जाने को सोच सके। जिला प्रशासन लाचार, हताश, अपराधी सा चुपचाप मामूली
चेहरों की यह असाधारण ताकत खड़े-खड़े देख रहा था |
भरत प्रसाद
सहायक प्रोफ़ेसर
हिंदी विभाग
पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय
शिलांग , मेघालय ...793022
मो.न. 09863076138
भरत ने गुलाबी गैंग को केंद्र में रखकर यह कथा बुनी है |ये मेरी जमीन का सच है | गैंग के मुखिया संपत पाल अब विदेशों में भी चर्चित हैं और कई मुल्क घूम चुकी हैं |फ्रेंच में भी उन पर एक उपन्यास आया है |अच्छा लगा कि भरत जी ने भी उनके संघर्ष को समझा ...| केशव तिवारी
जवाब देंहटाएंलेखक का काम यथास्थितिवाद को रखना मात्र नहीं है ..
जवाब देंहटाएंसमाज में परिवर्तन की संभावना और उचित समाधान को भी दर्शाना है ..
समाज की घटनाओं पर सूक्ष्म दृष्टि रखने के बाद ही ऐसी रचनाएं लिखी जा सकती हैं ..
बधाई उन्हें और आभार आपका ..
समग्र गत्यात्मक ज्योतिष
गुलाबी गैंग बुंदेलखंड की धरती की एक सच्ची कहानी है. बुंदेलखंड अंचल मेरी कर्मभूमि है. यहाँ अधिकारियों, नेताओं और ठेकेदारों की त्रिमूर्ति द्वारा एक अरसे से जो शोषण उत्पीडन अबाध रूप से किया जा रहा था उसके खिलाफ में आवाज तो उठनी ही थी. भरत भाई ने इसी आवाज को अपनी कहानी का विषय बनाया है और भलीभांति निर्वहन किया है. भरत भाई को बधाई एवं रामजी भाई का आभार.
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