रविवार, 8 जुलाई 2012

विमलचन्द्र पाण्डेय का संस्मरण - दसवीं किश्त

विमलचन्द्र पाण्डेय 

                                                         पिछली किश्त में आपने पढ़ा कि विमल चन्द्र पाण्डेय को कहानी के लिए ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार मिलता है | उनके साथी दोस्तों के लिए इसकी अहमियत और चाहें कुछ भी हो या न हो , एक पार्टी लेने की तो बनती ही है | तो पार्टी भी होती है और जमकर मस्ती भी | लेकिन विमल के साथ-साथ उनके दोस्तों के जीवन में भी इस तरह की मस्ती के क्षण यदा-कदा ही आते हैं , अन्यथा उनकी परिस्थितियां कुल मिलाकर उनके मित्र कैलाश जी जैसी ही बनी रहती हैं , जिसमे एक विपत्ति को आने वाली दूसरी और उससे बड़ी विपत्ति ही स्थानांतरित कर पाती है , न कि उनका कोई समाधान | 
                   

                            तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर विमल चन्द्र पाण्डेय के संस्मरण
                                                            ई इलाहाब्बाद है भईया 
                                                                  की दसवीं किश्त

                             
                           16 ...

कंपनी घाटे में चल रही है, सब्स्क्राईबर कम हो रहे हैं, पुराने कर्मचारी वीआरएस नहीं ले रहे हैं, नए सब्स्क्राईबर मिल नहीं रहे आदि-आदि. ये वो कारण थे जो उस सवाल के जवाब में आते थे जो एक नौकरीपेशा इंसान के लिए सबसे ज़रूरी होता है. तनख्वाह इतनी लेट क्यों आ रही है, ये सवाल पहले तो मैं जियालाल जी से पूछ लिया करता था लेकिन जब वह मुझे इलाहाबाद का तथाकथित पत्रकारिता का साम्राज्य देकर स्थानांतरित होकर वाराणसी चले गए तो मैं इस ज्वलंत सवाल के साथ अकेला रह गया. ये सवाल मैं विवेक के साथ गोरा कब्रिस्तान में अंग्रेजों की कब्र पर बैठा सिगरेट पीता हुआ पूछता था और वह कहता कि जितने पैसे मुझे तनख्वाह के रूप में मिलते हैं उतने में मैं अगर ठीक से खर्च करूँ तो महीने भर से अधिक चला सकता हूँ. मैं हर बार तनख्वाह आने से पहले खाली जेब और खाली हाथ मिंटो पार्क में या सड़कों पर टहलता हुआ बडबडाता, कि ज़िंदगी कुत्ते जैसी हो गयी है . मैं ज़्यादा दिन इस नौकरी में रुकूँगा नहीं जिसमें हर महीने तनख्वाह का इतना इंतजार करना पड़ता है. इस बात पर वहाँ घूम रहे कुत्ते भौंकने लगते और पत्रकार की ज़िंदगी से अपनी ज़िंदगी की तुलना किये जाने पर नाराज़ होते. ऐसे में एक दिन मुखातिब की गोष्ठी के खत्म होने के बाद मैंने वहाँ अपनी समस्या का ज़िक्र किया तो मुरलीधर जी ने मुझे आकाशवाणी में अपनी कहानियां लेकर जाने को कहा. उन्होंने यह भी कहा कि वहाँ जो रामजी मिश्रा नाम के कार्यक्रम अधिशासी हैं, उनसे मैं उनका ज़िक्र ना करूँ क्योंकि उन दोनों की बनती नहीं. सत्यकेतु जी ने भी अपनी कहानी के प्रसारण के लिए जाने को कहा था और मैंने उनसे कहा कि मैं भी उनके साथ ही चलूँगा.

आकाशवाणी इलाहाबाद में वैसे तो मैं कई बार मुरलीधर जी से मिलने जाता रहता था लेकिन उस दिन हम दूसरी ईमारत में गए. वहाँ पहली मंजिल पर मिश्रा जी का कमरा था. मैं सत्यकेतु जी के साथ घुसा तो वह किसी से बातें कर रहे थे. हमने उनके खाली हो जाने का इंतजार किया. वह माथे पर लाल गोल टीका लगाये हुए थे और क्लीन शेव उनके चेहरे से अध्यात्मिक टाइप का तेज टपक रहा था. अपने होमवर्क के तहत जब मैंने कुछ जानकारियां बाद में जुटायीं तो मुझे पता चला कि यह तेज इसलिए है कि उन्होंने ने अध्यात्म पर अच्छा खासा काम किया है जिसमें सबसे महत्वपूर्ण काम है करपात्री जी महाराज पर लिखी उनकी पुस्तकें. उनकी उपलब्धियां इतनी चमकदार थीं कि उनके चेहरे पर चिपकी रहती थीं. तेज की बारिश होती थी और ज़रूरतमंदों को उसमें नहाना होता था. हम दोनों भी उसी में नहाने गए थे. सत्यकेतु जी के पास एक औजार था जिसका नाम अमर उजाला था. उन्होंने उसका प्रयोग किया, वह मिश्रा जी से एक बार फोन पर बात कर चुके थे. वह करपात्री जी पर लिखी गयी किसी किताब की समीक्षा अमर उजाला के ‘आखर’ यानि साहित्य कला के पृष्ठ पर छपवाने की बात करने लगे तो मिश्रा जी तन्मय होकर उनकी बात सुनने लगे. उन्होंने जल्दी ही वह पुस्तक भिजवाने का वायदा किया और जब हम मुद्दे पर आये तो वह सत्यकेतु जी से उनकी कहानियों के बारे में चर्चा करने लगे. उन्होंने रणविजय सिंह ‘सत्यकेतु’ को बताया कि रेडियो में पढ़ने के लिए कहानी की अवधि लगभग १२ मिनट की होनी चाहिए, एकता और अखंडता की बातें होनी चाहिए, कहानी में कोई सन्देश होना चाहिए और भाषा शालीन होनी चाहिए. सत्यकेतु जी उधर ध्यान से शर्तों को सुन रहे थे , और इधर मेरा मन बैठता जा रहा था , कि कुछ कहानियों के माध्यम से जो चार पैसे अतिरिक्त कमाई के रूप में मिलने की उम्मीद थी वह धूमिल दिखाई देने लगी थी ,क्योंकि मैं कितनी भी शालीनता ओढ़ कर चलूँ, जल्दी ही पता चल जाता है कि तथाकथित शालीनता की मेरी ज़्यादातर कहानियों में भी वैसी ही कमी है जैसी मुझमें. सत्यकेतु जी ने इसके बाद मेरा परिचय कराया, “ये विमल हैं, ये भी कहानियां लिखते हैं. यूएनआई में हैं.” शुक्र है मिश्रा जी को यूएनआई का मतलब पता था. यह ज़ाहिर करने के बाद उनके कुछ सवाल रैपिड फायर जैसे थे.

“कहाँ से हैं विमल जी ?”

“जी मूलतः तो मैं बलिया से हूँ लेकिन पैदाइश और पढ़ाई लिखाई बनारस की है.”

“अरे वाह, बनारस में कहाँ?”

“जी लहरतारा....”

“वही कहीं कबीरदास भी पैदा हुए थे न?”

“जी मेरे घर के पास ही वो तालाब है.”

“बहुत बढ़िया, पूरा नाम क्या बताया आपने?” हालाँकि मैंने अभी बताया नहीं था पूरा नाम लेकिन उन्होंने किसी ज़रूरी सवाल की तरह पूछा तो मैंने बता दिया.

“विमल चन्द्र पाण्डेय.” वह अपनी गद्देदार कुर्सी पर सीधे हो गए.

“अरे, पांडे हैं आप ?” उनकी आवाज़ में आश्चर्यमिश्रित खुशी थी. मैं थोड़ा हैरान था उनकी आवाज़ का उत्साह और उनकी भाव भंगिमा देखकर. सत्यकेतु आश्चर्य में नहीं थे, आखिर उम्र और अनुभव का कोई विकल्प थोड़े ही है.

“जी...” मैंने कहा. मैं उनकी मेज़ की ओर झुक आया था क्योंकि उधर से वह मेरी ओर जिस प्यार से झुकते आ रहे थे मुझे लगा वह मुझे जल्दी ही गले ना लगा लें.

“क्या हैं आप....कान्यकुब्ज या सरयूपारीण ?” उनका अगला सवाल था. मैंने मेज़ पर अपनी हथेलियाँ रखी थीं और उन्होंने अपनेपन से मेरी हथेली पकड़ ली. मैं सोच ही रहा था कि क्या बताऊँ कि मेरी कहानियों के स्वीकृत होने के चांस बढ़ जाएँ कि उन्होंने खुद ही बोला, “सरयूपारीण ना ?...हम पहले ही समझ गए थे पाण्डेय जी. चलिए अपनी कहानियां लेकर अगले बुधवार को आ जाईये. पहले आपकी लगा देते हैं फिर सत्यकेतु जी की लगा देंगे.” हम उन्हें नमस्कार करके विदा हुए. ब्राह्मण होने का सामाजिक फायदा तो मैंने कई बार देखा था लेकिन इसका आर्थिक फायदा भी हो सकता है, यह पहली बार जाना था. मेरा मन हुआ कि मैं दिल्ली फोन लगा कर अपने बचपन के दोस्त टीटू से पूछूं कि हमने आज के आठ-दस साल पहले बौद्ध धर्म धारण करने का जो फैसला लिया था और जिसपे इसलिए अमल नहीं हो पाया कि टीटू जिस दिन सारनाथ बौद्ध धर्म ग्रहण करने गया, उस दिन धर्म परिवर्तन कारण वाले लामा बाहर गए हुए थे, वह आखिर क्यों था. बौद्ध धर्म के प्रति जो अनुराग मन में था वो अब भी है लेकिन बाद में शायद मेरे और टीटू (विवेक सिंह) दोनों के मन में ये आया कि जब हमें किसी धर्म को मानना ही नहीं तो फिर इसे छोड़ने या उसे अपनाने का क्या अर्थ. जब धर्म का उपयोग यही रह गया है तो हम क्यों इसका उपयोग करें, क्यों न हम इसे छोड़कर अपने हिसाब से चीज़ें बरतें. टीटू ने तो अपने नाम के आगे बोधिसत्व लगा कर बुद्ध को अपनी पहचान के साथ जोड़ लिया है लेकिन मैं चाहकर भी पाण्डेय नहीं हटा पाया हूँ. कुछ कोशिशें कीं लेकिन कुछ कागजी मामलों की वजह से फिर इसे छोड़ दिया. मेरी पहली कहानी साहित्य अमृत में जुलाई २००४ में छपी थी और इसमें मैंने बड़े गर्व से अपना नाम विमल चन्द्र छपवाया था लेकिन इस कहानी के बदले में जो १०० रुपये का मानदेय आया, उस चेक को भंजाने में मुझे कितने पापड़ बेलने पड़े ये मैं ही जानता हूँ. इसके बाद मर्चेंट नेवी वाली दिक्कतें और फिर कंप्यूटर की पढ़ाई के दौरान वजीफे की दिक्कतें आदि आदि.

मैंने ये घटना अपने कमरे पर आकर दूसरे विवेक यानि इलाहाबादी विवेक को सुनाई. उसने कहा कि मैं कुछ अच्छी कहानियां लेकर जाऊं और वहाँ जाकर सुना दूं जिससे एक हफ्ते का खाने पीने का खर्च निकले.

मैं तय समय पर अपनी कुछ कहानियां लेकर पहुँच गया जिसमे मेरी मोटी बुद्धि के अनुसार कोई सन्देश छिपा था और वो कुछ शालीन भी थी. मिश्रा जी ने मेरी कहानियां ले लीं और मुझसे पूछा कि मैं कौन सी कहानी सुनाना चाहता हूँ. मैंने बताया कि स्वेटर नाम की एक कहानी है जिसमें एक लड़का पढ़ाई के लिए विदेश जा रहा है और उसकी प्रेमिका उसे छोड़ने एअरपोर्ट पर आने वाली है. वह लड़की उसके लिए एक स्वेटर बुन रही है जो उसे कूरियर से विदेश के पते पर भेजेगी. लड़के के पिता लड़के के लिए एक स्वेटर नेपाल से बड़े प्यार से लाए थे लेकिन वह उस स्वेटर को अपने साथ विदेश नहीं ले जाना चाहता. वह उस स्वेटर को तकिये के नीचे छुपा देता है. पिता जब एअरपोर्ट छोड़ने जाते हैं तो लड़का उन्हें मना कर देता है क्योंकि उसके दोस्त वहाँ उसे छोड़ने जायेंगे और फिर वह लड़की भी वहाँ उसे विदाई देने आने वाली है. यह कहानी युवा पीढ़ी और अपने अभिभावकों से उनके संबंधों में आ रही उदासीनता को दिखाती है और साथ ही उन सपनों की उड़ान को भी....

मैं बोलता जा रहा था कि उन्होंने मुझे रोक दिया, “बाकी सब तो ठीक है लेकिन उसे लड़की से मत मिलाइए, ये ठीक नहीं है. पिता जी को एअरपोर्ट पे जाना चाहिए. इस तरह से खुलेआम सड़क पे बेटे का सिगरेट पीना भी ठीक नहीं है.”

आकाशवाणी में मेरा एक छोटा अनुभव बनारस का भी है और इलाहाबाद में तो आकाशवाणी ने मुझे कई बार आर्थिक मदद की. मेरी कई कहानियां वहाँ से प्रसारित हुईं लेकिन मैं उन्हें कभी अपनी मामूली उपलब्धि भी नहीं मान सकता. मुझे आश्चर्य होता है जब मैं बहुत सारे लेखकों के परिचय में इस बात का उल्लेख बड़े गर्व के साथ देखता हूँ कि उनकी कई कहानियां रेडियो से प्रसारित हुई हैं. मैंने इस बात को अपने कुछ ख़ास दोस्तों के अलावा सबसे छुपा के रखा है कि मेरी कई कहानियां आकाशवाणी से प्रसारित हुई हैं. फिर मैं सोचता हूँ कि आखिर सब जगह एक जैसे माहौल नहीं होते, जो लेखक इसे उपलब्धि मानते हैं क्या पता वहाँ माहौल अलग हों.

मैंने रेडियो का फोर्मेट कुछ ही दिनों में समझ लिया. जब मेरी एक कहानी से मिश्रा जी को बहुत आपत्ति थी क्योंकि उसमें मैंने एक हिंदू और एक मुसलमान दोस्त के बारे में कुछ मामूली सी बातें कही थीं और उन्होंने मुझे बीच रिकॉर्डिंग में रुकवा दिया. “नहीं पाण्डेय जी, ये रेडियो में नहीं चलेगा.” अचानक मुझे ज्ञान की प्राप्ति हो गयी. मैंने उन्हें कहा कि मेरे पास एक और कहानी है जो मेरे दोस्त के पास है, मैं उसे लेकर १५ मिनट में आता हूँ. उन्होंने कहा कि ठीक है तब तक वे कुछ काम निपटा लेंगे. मैं आकाशवाणी के बाहर चाय की दुकान पर गया, एक चाय का ऑर्डर किया और जितनी देर में चाय खत्म होती उतनी देर में एक कहानी लिख दी जिसकी अवधि १२ मिनट के आसपास ठहरती थी. मैं वापस गया और कहानी उन्हें सुनाई. पहली बार उनका एक्सप्रेशन था, “वाह पाण्डेय जी, मुझे पहले से मालूम था आप प्रतिभाशाली कथाकार हैं.” कहानी खूब लाउड थी और उसे जो कहना था वो इतना चीख चीख कर कह रही थी कि बहरों को भी सुनाई दे जाए. लेकिन उसकी भाषा निहायत ही शालीन थी और उसमें एक अश्लील सा सन्देश छिपा था कि चाहे गरीबी आपको कितना भी परेशान करे, आप उसे बर्दाश्त करते रहिये और कानून को हाथ में मत लीजिए. सरकार का मतलब है धरती पे भगवान और ऊपर वाले भगवान के साथ नीचे वाले भगवान पे भी भरोसा रखना इंसान का फ़र्ज़ है जहाँ देर है लेकिन अंधेर नहीं. ये सरकारी कहानी वहाँ से स्वीकृत कराने के बाद मुझे खुद पर बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई और मैंने रात को विवेक के सामने इसे स्वीकार किया. विवेक ने कहा कि इसे मैं उसी तरह लूं जैसे कोई भाजपाई विचारधारा का पेंटर गरीबी में कांग्रेस के स्लोगन पेंट करता है.

मैं जब अपनी पहली कहानी रिकॉर्ड कराके आया तो दूबे जी ने मुझे घेर लिया. उन्हें विवेक ने बताया था कि मेरी कहानी की रिकॉर्डिंग है. उन्होंने मुझसे पूछा कि ये कहानी कब और कितने मेगाहर्ट्ज पर प्रसारित होगी. मैंने अपनी आधी अधूरी जानकारी में उन्हें समय बताया जो उन्होंने नोट कर लिया. एक हफ्ते बाद जब मैं शाम की चाय पीकर यूँ ही कमरे में अनमना सा लेटा था कि विवेक आ गया. मेरी ज़िंदगी में प्यार की आमद हो रही थी और मैं हमेशा एक नशे में रहता था. विवेक के साथ थोड़ी देर बातें करने के बाद मुझे नींद आने लगी. मैं यूँ ही सो गया और मुझे सोया देख विवेक हेडफोन लगा कर कंप्यूटर पर गाने सुनने लगा. अचानक मेरे मोबाइल पर फ़ोन आया, मैंने दुबेजी का नंबर देखा. मैं प्यार में था और उस समय मेरा मन उदास होने का कर रहा था, मैं किसी से बात करने के मूड में नहीं था. फ़ोन फिर आया और मैंने फिर नहीं उठाया. लेकिन वह कोई साधारण योद्धा नहीं दुबेजी थे. उन्होंने तब तक रिंग किया जब तक मैंने उठा नहीं लिया, “अरे मान्यवर सुन रहे हैं कि नहीं अपनी कहानी ? हम यहाँ बैठे हैं एक मित्र के यहाँ, कई लोग सुन रहे हैं. यहाँ भी आपके प्रशंसकों की संख्या बढ़ा दिए हैं हम.” मैंने उन्हें टालना चाहा यह कहके कि मैंने ही वो कहानी पढ़ी है और मुझे पता है कि आगे क्या होगा लेकिन वो निराश होने वालों में से नहीं थे. उन्होंने कहा कि मैं बेकार में कहता हूँ कि मेरी आवाज़ अच्छी नहीं है, रेडियो पे तो मेरी आवाज़ खासी सेक्सी सुनाई दे रही है. वह मेरी आवाज़ सुनकर जिस मूड में आये थे मैं उससे एकदम अलग मूड में था लेकिन यही दूबे जी कि ताकत है कि उन्होंने तब तक ऐसे फालतू के मजाक किये जब तक मेरा मूड उदासी से गुस्से वाला नहीं हो गया. मैं उन्हें डांटने के मूड में आ गया कि मुझे ये कहानी सिर्फ़ पैसों के लिए लिखनी पड़ी है और मैं इसे सुनने में कतई इंट्रेस्टेड नहीं हूँ और वो भी न सुनें लेकिन तब तक उन्होंने फ़ोन यह कहकर काट दिया कि विज्ञापन का ब्रेक खत्म हो गया और कहानी फिर शुरू हो रही है. मैं झल्लाया हुआ सा फिर से चाय पीने शोले की दुकान पर आ गया. विवेक को बुलाने पर उसने कहा कि उसने दोहरा खाया हुआ है और वह चाय पीने के लिए इसे थूक नहीं सकता. ‘शोले’ का नाम दरअसल ‘सोले’ था लेकिन लोकप्रिय सिनेमा की पहुँच इतनी थी कि लोगों के नाम बदल जाते थे. हम नशे की पिनक में चाहे जितने बजे मोहल्ले में टहलने निकलें, सोले अक्सर जोगिंग करता दिख जाता था और हम हैरान होते थे कि कब से कब तक आखिर ये जोगिंग करता है. हमने जो अंदाज़ा लगाया था, उस हिसाब से उसके माँ बाप उसे कहते रहे होंगे कि ‘सो ले बेटा सो ले’ और वह जोगिंग करता रहा होगा. मैं जब तक कीडगंज में रहा मेरी सुबह सोले की चाय से ही हुई, इसलिए जब तक कीडगंज की घटनाएँ जारी रहेंगी सोले का ज़िक्र भी आता रहेगा |
         

                                                                                                                     क्रमशः ..........

                                                                                                    प्रत्येक रविवार को नयी किश्त .....



संपर्क - 

विमल चन्द्र पाण्डेय 
प्लाट न. 130 - 131 
मिसिरपुरा , लहरतारा 
वाराणसी , उ.प्र. 221002

फोन न. - 09820813904
         09451887246


फिल्मो में विशेष रूचि 


8 टिप्‍पणियां:

  1. इंतज़ार कर रहा था इस किस्त का. मजा आया फिर से और यह भी पता चला कि आप चाय पीते-पीते भी कहानी लिख डालते हैं. :)

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह भाई... रविवार सार्थक हुआ... फिर इंतजार के दिन आ गये...

    जवाब देंहटाएं
  3. विमल जी, आकाशवाणी इलाहाबाद में जब रामजी मिश्रा मुझे भी कविता करने के ढंग के बारे में बताने लगा था तो मुझे लगा यहाँ अपनी खैर नहीं. जिसका साहित्य से दूर दूर का भी नाता न हो वही जब महामहोपाध्याय की शैली में बात करने लगे तो दिक्कत होती है. बहरहाल मैंने यह तय किया कि जब तक ये मिश्रा यहाँ साहित्य का कार्यक्रम देखेगा तब तक हमें यहाँ पर नहीं आना है. युवा कवि मित्र विजय प्रताप सिंह भी हमारे इस बहिष्कार में शामिल हो गए. आकाशवाणी इलाहाबाद के साहित्य विभाग की एक समय जो तूती बोलती थी आज अगर वह फटेहाल नजर आ रही है तो इसमें मिश्रा जैसे लोगों का बड़ा हाथ है.
    आपका संस्मरण रोचक तरीके से आगे बढ़ रहा है. बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  4. maja aa gaya ...sahi hai lekin jaldi khatm ho gaya

    जवाब देंहटाएं
  5. बढ़िया ..गजब बाँध रहे हैं आप ..बहुत बधाई विमल

    जवाब देंहटाएं
  6. ब्राह्मण होने का सामाजिक फायदा तो मैंने कई बार देखा था लेकिन इसका आर्थिक फायदा भी हो सकता है, यह पहली बार जाना था.
    vimal shandar yaden jandar vishleshan ke sath. achcha laga padhkar.

    जवाब देंहटाएं
  7. ...टीटू ने तो अपने नाम के आगे बोधिसत्व लगा कर बुद्ध को अपनी पहचान के साथ जोड़ लिया है लेकिन मैं चाहकर भी पाण्डेय नहीं हटा पाया हूँ....

    chalo achha hai..main bhi amar ho gaya tumhare sansmaran ke karan ! :-) !!! sach me wo ek bachkani harkat lagti hai ab....na to tum kabi 'Pandey' the na main kabhi 'Singh' tha...hum to dummies the jin par alag-alag lable laga tha....to maine ab apni pasand ka lable laga diya !!! kam se kam Facebook par to itna kar sakte hain..waha sarkar aur bank pareshan nahi karta......'banaras ke dosto ke sath party' wale scene ka wait kar raha hu !! :-) !!! aur fir tumhari shadi ke sansmaran ka bhi :-)

    जवाब देंहटाएं
  8. sole bhaiya ki jai........ek cutting dena....,,,,

    studebt life me v month ki last 5 din kafi jimmedariya sikha deti hai

    जवाब देंहटाएं