विमल चन्द्र पाण्डेय |
पिछली किश्त में आपने पढ़ा कि विमलचन्द्र पाण्डेय यु.एन.आई. की अपनी नौकरी में किसी तरह से घिसट रहे होते हैं | वह तो भला हो 'मुखातिब' की उन गोष्ठियों का , जो उन्हें इन कठिन और उबाऊ दिनों में भी सकारात्मक सोचने और करने की प्रेरणा देने वाली साबित होती हैं | इसी समय उनके जीवन में कैलाश जी का आगमन होता है | जीवन के फक्कड़पन के बीच अदम्य जिजीविषा और प्रेरणा के श्रोत कैलाश जी का सानिध्य विमलचन्द्र पाण्डेय को खूब भाता है | और अब आगे .....
तो प्रस्तुत है विमल चन्द्र पाण्डेय के संस्मरण
ई इलाहाब्बाद है भईया की
नौवीं किश्त
ई इलाहाब्बाद है भईया की
नौवीं किश्त
15...
कैलाश जी और मुझमें एक कॉमन बात थी जिसकी वजह से हम एक दूसरे के साथ
इतना वक्त बिताने लगे थे. हालाँकि हमने इस पर बहुत कम बार ही बात की है लेकिन वह
बात इतनी गहरे पैठी थी कि हम एक दूसरे को काफ़ी अच्छी तरह समझने लगे. वह कॉमन बात
थी ज़िंदगी को लेकर हमारा नज़रिया. हम दोनों कहीं ना कहीं बहुत आशावादी आदमी थे और
ज़िंदगी के सकारात्मक पहलुओं पर ध्यान देते थे यानि गिलास को आधा भरा देखते थे.
लेकिन जैसे ज़िंदगी से प्यार करने वाले हर इंसान के भीतर कहीं गहरे से एक अँधेरा
अकेलापन छुपा होता है वह कहीं ना कहीं हमारे भीतर था. इसलिए मैं हमेशा अपने प्रिय
लोगों के साथ होने के बहाने खोजता हूँ और समय का सबसे अच्छा उपयोग मुझे वही लगता
है जब हम अपने चाहने वालों की संगत में बैठ कुछ दिल की बातें कहें बनिस्पत हम कुछ
और पैसे जुटा लें या फिर अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए कोई काम करें. गौर से देखा
जाए तो हम दोनों ही थोड़े अध्यात्मिक टाइप के थे और कैलाश जी में मुझे ये बात अच्छी
लगी कि व्यवहार में कई जगह सामंती अवशिष्ट बचे रहने के बावजूद वह धर्म और ईश्वर
जैसी अफवाहों को लेकर बड़े प्रेक्टिकल और तार्किक थे. बनारस में मेरे बचपन के
दोस्तों में ज़्यादातर इस अफवाह की चपेट में आकर ज़िंदगी बिताने वाले हैं और मज़ेदार
तो तब होता है जब वे इस कांसेप्ट को बड़ी मासूमियत से खाने-पीने और नाखून काटने तक
से उसी तरह जोड़ देते हैं, जैसा उनके दिमाग में भरा गया है. चिकन खाने वाले दोस्त
भी मंगलवार और गुरुवार को अण्डों तक को हाथ नहीं लगाते. आनंद अब भी मंगलवार की रात
चिकन या अंडा करी बनने पर देर होने का इंतजार करता है और जैसे ही बारह बजते हैं,
उसके प्रिय हनुमान जी अपना बोरिया बिस्तर समेट कर पेड़ की किसी डाल पर जा बैठते हैं
क्योंकि दिन मंगलवार से बुधवार हो चुका होता है. जब आनंद देखता है कि हनुमान जी
अपनी गदा वदा समेट कर जा चुके हैं तो वह आराम से आकर बैठता है और अंग्रेज़ी कैलेंडर
के हिसाब से मंगलवार की रात बुधवार की सुबह का भोजन करता है.
इलाहाबाद छूटने के कुछ समय बाद मैंने कैलाश जी को लेकर एक कहानी ‘बड़े
सज्जन आदमी हैं लेकिन...’ शुरू की थी लेकिन इसलिए छोड़ दिया कि कहीं वो ‘बाबा एगो
हईये हउयें’ जैसी ना हो जाए क्योंकि दोनों का अन्त एक जैसा होना तय था. हालाँकि उस
पर काम करता रहता था और सोचता था कि एक बार पूरी कर लूं फिर देखी जायेगी. कैलाश जी
की हीरो होंडा उन्हीं के जैसी बिंदास चलती है और थोड़ा पीने के बाद उनकी मोटरसाईकिल
हेलिकोप्टर बन जाती है. उनकी मोटरसाईकिल अपने आप में एक किरदार है और उसके बारे
में बात करने से पहले मैं एकाध घटनायें याद करना चाहता हूँ.
ज्ञानपीठ में नए लेखकों की पांडुलिपियां आमंत्रित की गयी थीं और मैंने
एक-एक करके अपनी सारी कहानियां टाइप की थीं और भेज दी थीं. मेरे साथ ही सत्यकेतु
जी ने भी अपनी पाण्डुलिपि भेजी थी और मेरे कमरे में बैठ कर हम दोनों ने एक दूसरे
की कहानियों के इंडेक्स देखे थे. शेषनाथ के साथ कहानियों के क्रम निर्धारित किये
थे और उसने मेरी दो कहानियों के अच्छे नाम सुझाये थे जिनके नाम मैं बदलना चाहता
था. सत्यकेतु ने अपने कहानी संग्रह का नाम ‘अकथ’ रखा था और मैंने ‘डर’. मुझे
विश्वास था कि मेरी कहानियां औसत से तो अच्छी हैं ही और ये संग्रह छपने के लिए
अनुशंसित होना चाहिए. मैं कहानियां लिखने तक उनके लिए परेशान रहता हूँ और उनके छप
जाने के बाद पता नहीं क्यों उन्हें नापसंद करने लगता हूँ. मुझे अपनी कोई भी कहानी
इतनी अच्छी नहीं लगती कि मैं उसके बारे में यहाँ एक पैराग्राफ लिख सकूँ. मेरे कुछ
दोस्तों और समकालीनों का कहना है कि मैं अपने साहित्य को लेकर गंभीर नहीं हूँ. मैं
अपने लिखने को लेकर बहुत सजग और गंभीर हूँ लेकिन उसे लेकर किसी साहित्यिक सौदेबाजी
और आत्मप्रचार जैसा कभी मन में नहीं आता. फेसबुक पर आने के बाद से तो दोस्तों के
सिखाए पर कुछ अमल भी करने लगा हूँ वरना मेरे कमरे में रहने वाले लोगों को भी पता
नहीं चला करता था कि आज मैंने एक कहानी पूरी की है और कमरे पर मेरे पैसों की जो
दारू पी रहे हैं वह इसी खुशी में है. कभी जो मेरे कई शुभचिंतक ये सलाहें दिया करते
थे कि मुझे अपने लिखे को लेकर थोड़ा गंभीर होना चाहिए, मुझे बाद में उनकी मंशा समझ
में आई कि उनके तईं गंभीर होने का उनका अर्थ हमेशा अपनी कहानियों और उनकी रचना
प्रक्रिया के बारे में बात करने से था जिसकी तुलना में मैंने नैचुरल रूप से अगंभीर
होने का विकल्प चुना है और मैं इसमें बहुत खुश हूँ.
मैं विवेक के साथ बैठा कमरे में कुछ बातें कर रहा था कि अचानक कथाकार
मित्र मनोज कुमार पाण्डेय का फोन आया कि मुझे ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार दिए
जाने की घोषणा की गयी है. मैंने इसे मजाक में लिया और फोन कटने के बाद फिर से
विवेक से बातों में मशगूल हो गया. इसके बाद जो फोन आया उसने मुझे विश्वास दिलाया
कि ये घटना सच है. मुझे ज्ञानपीठ से आधिकारिक रूप से रवीन्द्र कालिया ने फोन किया
और पुरस्कार दिए जाने कि सूचना दी. मैंने विवेक को बताया और उसने मुझे बधाई दी.
फिर मैंने एकाध और दोस्तों को भी फोन करके बताया. दिल्ली में मुझे सिर्फ़ बिभव को
सूचित करने की ज़रूरत होती है और वह सबसे तेज चैनल की तरह पूरी दिल्ली में ये बात
फैला देता है. मैंने बेदिका और मुरारी को फोन पर ये खुशखबरी दी. मेरे दोस्तों की
रेंज बहुत बड़ी है और दोनों तरह के दोस्त मेरे बहुत अजीज़ हैं. मुझे उस समय की
मुख्यतः दो तरह की प्रतिक्रियाएं याद हैं. दोस्तों के एक समूह ने पूछा, “पैसा भी
मिलेगा ?”
मैंने कहा, “हाँ, पचीस हजार रुपये मिलेंगे और मेरी पहली किताब भारतीय
ज्ञानपीठ से छप के आयेगी.”
प्रतिक्रिया – “अबे किताब जाए गांड मराने, पचीस हजार रूपया....! सोचो
कितने दिन तुम पार्टी दे सकते हो...बहुत सही गुरु.”
एक समूह ने पूछा, “किताब भी छपेगी ना ?”
मैंने कहा, “हाँ किताब भी छपेगी और पचीस हजार रुपये भी मिलेंगे.”
प्रतिक्रिया – “अरे महाराज, पैसे वैसे को गोली मारिये, ज्ञानपीठ से
पहली किताब का मतलब समझ रहे हैं ? बहुत बधाई हो.”
मैंने दोनों तरह की प्रतिक्रियाओं को माथे से लगाया और जब फोनों के
सिलसिले से निकल स्वघोषित, स्वपोषित, स्वयंभू सेलेब्रिटी होकर विवेक की ओर पलटा तो
उसका एक मासूम सा सवाल सामने था.
“कबे तुम तो कहे थे कि ई सब पुरस्कार बिना तेल लगाये नहीं मिलता है.
बहुत रगड़ना पड़ता है और तगड़ा जोगाड़ लगाना पड़ता है. कहाँ से लगवायो आपन जोगाड़ ?”
मैं कभी अपने ही दिए बयानों के जाल में फंस चुका था और मैंने उसे
समझाने की कोशिश की कि कभी-कभी डिजर्विंग लेखकों को भी पुरस्कार दे दिए जाते हैं.
“अच्छा ! अपने के त डिजर्विंग दुनिया कहत है में, एमें कवन नयी बात है
?” मैंने उसे एकाध बार और विश्वास दिलाने की कोशिशें कीं और फिर चुप बैठ गया. एकाध
दिन बाद वही शोध करके ये सूचना ले आया कि मुझे पुरस्कार इसलिए मिला है कि
पांडुलिपियाँ कम गयी थीं और जिन लेखकों की गयी थीं उन अन्धों में मैं काना राजा
था. मैंने इसका प्रतिवाद करना ज़रूरी नहीं समझा.
तो बात कैलाश जी की मोटरसाईकिल की होने वाली थी. मेरे पास पुरस्कार के
पैसे अभी आये नहीं थे लेकिन बधाई देने वालों से ज़्यादा पार्टी मांगने वालों का
तांता लग गया था. मैं भी इस सम्मान से खुश था और पहले सबको ये कह के टरकाने के बाद
कि ‘पैसा मिलने पर पार्टी होगी’, मैंने पार्टी के लिए हामी भर दी. कैलाश जी ने
अपने अध्यापन का फायदा उठाते हुए फाफामऊ के एक निजी स्कूल में रात को पार्टी
आयोजित कर दी. हिमांशु जी, मुरलीधर जी, कैलाश जी और देवेन्द्र जी के साथ कैलाश जी
के कुछेक और मित्रों को आमंत्रित किया गया. आमंत्रित तो युवा कवि अंशुल त्रिपाठी
को भी किया गया लेकिन वादा करके और ऐन वक्त पर न आना उनकी एक ख़ास अदा है जिसपर मैं
फ़िदा रहता हूँ. तो उस दिन भी निकलते-निकलते उन्हें कुछ ज़रूरी काम आ गया और वह नहीं
आ पाए. पार्टी बड़ी हंगामाखेज रही और और कैलाश जी ने पीने के बाद मुरलीधर जी और
हिमांशु जी समेत सबकी खटिया खड़ी कर दी. मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की तो
उन्होंने मुझ समेत युवा पीढ़ी के सभी लेखकों को गालियाँ दीं कि हम फैशन वाला लेखन
कर रहे हैं और रेणु, प्रेमचंद और मुक्तिबोध जैसा लेखन नहीं हो रहा. विवेक ने कुछ
कहने की कोशिश की तो उन्होंने विवेक को ये कहकर चुप करा दिया कि वह साहित्य में
आउटसाईडर है इसलिए चुपचाप सुने सिर्फ़, बोले नहीं. उन्हें दरअसल रेणु और मुक्तिबोध
की इतनी याद आ रही थी कि वह हाय रेणु हाय प्रेमचंद कहते हुए बाकायदा रो पड़े थे.
खैर, वहाँ जाने से पहले मैंने और विवेक ने तय किया था कि हम नशे में
रात को बाईक चलाते हुए लौटने का जोखिम नहीं मोल लेंगे और वहीँ सो जायेंगे लेकिन
पीने के बाद हमेशा की तरह आत्मविश्वास बढ़ गया था और मैंने अपनी डिस्कवर चलाने के
लिए किक मारना शुरू कर दिया. जब कई किक के बाद भी वह स्टार्ट नहीं हुई तो विवेक ने
मुझसे चाभी ली, उसे लगाया और मुझे दो बातें बताईं. “एक तो बाबा ई गाड़ी के पहिले
चाबी लगाके ऑन करे पडत है और ओके बाद दूसर बात कि ई तुम्हार गाड़ी बटनस्टार्ट है.”
ये पते की बात समझाने के बाद उसे लगा कि वह बहुत होश में है और उसने मुझे बिठा कर
चलाना शुरू किया. हिमांशु जी मुरलीधर जी के स्कूटर पे थे और देवेन्द्र जी कैलाश जी
की मोटरसाईकिल पर.
फाफामऊ वाली उस सड़क पर ट्रकों का आवागमन शुरू हो चुका था और हमारे
एकदम पास से ट्रकें सन्न की आवाज़ करती गुज़र रही थीं. कुछ ट्रकों के ड्राईवर, जो
पिए हुए थे और पीकर रात को गाड़ी चलाना अपना एकाधिकार समझते थे, हमें डगमगाती चाल
में बाईक चलाते देख क्रोधित हो रहे थे और वो अपने ट्रक को हमारे वाहन के बिलकुल
करीब लाते हुए धक्का मारने की इच्छा जताते. विवेक घबरा कर सड़क के किनारे गाड़ी उतर
देता और गाड़ी और तेजी से डगमगाने लगती. जब भी गाड़ी डगमगाती, मैं नशे की झोंक में
बडबडाता, “दो हम चलायें, साले तुमको नहीं आता चलाने.” विवेक भी बडबडाता, “चुपचाप
बैठे रहो बे.”
तब तक हमने देखा कि एक मोटरसाईकिल हमारे बगल से हवा की रफ़्तार से
गुज़री. गाड़ी की गति से घबरा कर हम नशे में जितना देख पाए, उसमें यही दिखा कि कैलाश
जी मुकद्दर का सिकंदर के अमिताभ की तरह उचक-उचक के गाड़ी उड़ा रहे हैं और पीछे बैठे देवेन्द्र
जी अलगनी पर टंगे सूखे कपड़े की तरह हाथ-पांव उठा कर हवा में उड़ रहे हैं. हमारी बगल
से गुज़रने पर जो अस्पष्ट आवाज़ हम सुन पाए थे वो भी कुछ ऐसी ही थी, “अरे रोकिये
कैलाश जी, हम मर जायेंगे.”
“अबे उ तो कैलाश जी लग रहे हैं, पीछे थे क्या अभी तक?” विवेक ने फालतू
सा सवाल पूछा जिसका जवाब देने की मैंने ज़रूरत नहीं समझी और एक बार आंख खोल कर
देखने के बाद फिर से उसके कंधे पर सो गया. विवेक ने गाड़ी की स्पीड बढ़ाई और कैलाश
जी की मोटरसाईकिल का पीछा किया. इसमें समय तो काफ़ी लगा लेकिन आखिर हम पहुँच ही गए.
रास्ते में हमें एक थका हुआ आदमी धीरे-धीरे चलता हुआ दिखा जिसने शायद हमें आवाज़ भी
दी लेकिन हमने ध्यान नहीं दिया. हमने कैलाश जी को ओवरटेक किया तो वह अकेले थे और
बुरी तरह से हंस रहे थे.
“आप अकेले? देवेन्द्र जी कहाँ हैं?” विवेक ने पूछा.
“अरे मैं उनको डरा रहा था ट्रक को ओवरटेक करके....वो कुछ ज़्यादा ही डर
गए और मुझे गालियाँ देकर कहने लगे कि यही उतार दो मुझे...” कैलाश जी हँसे जा रहे
थे लेकिन मैं गंभीर हो गया था.
“और आपने इतनी रात को उनको इस सुनसान सड़क पर उतर दिया ? दिमाग सही
नहीं है क्या आपका?” मेरी डांट से वह थोड़े सामान्य हुए और उन्हें अपने किये पर
पछतावा हुआ. “मैं तो सिर्फ़ एक पहिये पर गाड़ी चला कर उनसे मजाक कर रहा था बंधु...”
उन्होंने अपराधी की तरह कहा, उन्हें अपनी गलती का बोध हो गया था. हम फिर से पीछे
जाकर देवेन्द्र जी को रिसीव करने के लिए पीछे मुड़ने ही वाले थे कि देवेन्द्र जी एक
वाहन पर लिफ्ट लेकर बगल से चिल्लाते हुए गुज़रे.
“कैलाश तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है. मर जाओगे ऐसे ही.....” उनकी
आवाज़ में गुस्सा था और उन्होंने कैलाश जी से ज़्यादा उनकी मोटरसाईकिल को जलती नज़रों
से घूरा था.
अगले दिन सुबह-सुबह मेरे पास कैलाश जी का फोन आया. रात के हंगामे के
बाद वह सबसे फोन करके माफ़ी मांगते थे और उनकी माफ़ी की स्क्रिप्ट इतनी तय थी कि
सबको ज़बानी याद थी.
“मुझे इत्ती शर्म आ रही है विमल जी.....मैं आपके सामने अब कैसे आऊंगा
हिमांशु सर....ये मदिरा इतनी गन्दी चीज है मुरलीधर भाई साहब....अब मैं पागल हूँ जो
फिर से इसे हाथ लगाऊं......आपके ये बोलने से मुझे इतना संतोष हुआ है कि क्या
कहूँ...बहुत बहुत धन्यवाद आदि आदि.”
कैलाश जी की ज़िंदगी कहानियों जैसी है और उसमें बहुत से विरोधाभास हैं.
सबसे पहली बात तो है उनकी ज़िंदगी में अनवरत बनी रहने वाली परेशानियां. उनके परिवार
में हमेशा कोई ना कोई बीमार रहता है और सब ठीक चले तो गांव से कोई इलाज कराने चला
आता है जिसकी पूरी ज़िम्मेदारी उन पर ही आती है. संस्मरण का यह अंक लिखे जाने से
पहले आज सुबह उनसे बात हुई है और पता चला है की अस्पताल में उनकी बहन भर्ती है जो
छत से गिर गयी है हड्डियां टूट गयी हैं. उनके बहनोई उन्हें भर्ती कराकर वापस चले
गए और दूसरे भाई आकार देख कर वापस गांव चले गए. अब आगे की ज़िम्मेदारी कैलाश जी को
निभानी है जो अपने दो बेटों के साथ-साथ दो भतीजों की पढ़ाई का खर्च भी उठा रहे हैं.
वह लगतार किसी ना किसी परेशानी में घिरे होते हैं और जब सब कुछ सही चल रहा होता है
तो वह खुद बीमार हो जाते हैं. शायद उनकी कुंडली को परेशानियों की आदत हो गयी है.
लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि वह इन चीज़ों के बारे में बात करने से अधिकतर बचना
चाहते हैं. शराब को उन्होंने बहुत पहले से अपना साथी और राजदार बनाया था जो अब
उनकी किडनियों को धोखा दे रही है.
अभी दो महीने पहले मैं अपनी पत्नी को विदा कराने अपनी ससुराल गोरखपुर
गया था. मैं सुबह जगा ही था कि मेरे मोबाइल पर इलाहाबाद से दुर्गेश का फोन आया और
उसने हँसते हुए बताया कि अभी-अभी उसने दैनिक जागरण अखबार में पढ़ा है कि कैलाश जी
कि मोटरसाईकिल चोरी हो गयी. उसे ना जाने क्यों ये खबर पढ़के बड़ा मजा आया था और उसने
मुझे भी पढ़के सुनाया जिसका सारांश था कि एक अध्यापक डॉक्टर कैलाश मिश्रा की
मोटरसाईकिल शोहदों ने तब पार कर दी जब वह अपने एक मित्र से मिलने गए थे. डॉक्टर
मिश्रा चित्रकूट के एक गांव में अध्यापक हैं और उनका परिवार इलाहाबाद में रहता है.
मेरे अन्दर का स्वार्थी लेखक जाग गया और मेरी लंबी कहानी जो एक मोड़ पर लंबे समय से
अटकी थी, उसे अचानक एक अन्त मिलने का आभास होने लगा. मैंने ये फोन काटने के बाद
फिर कैलाश जी को फोन मिलाया. वह ज्ञानवाणी में सुबह की ड्यूटी पर थे. क्या हुआ भाई
साहब, मैंने पूछा.
“अरे बंधु, एक मित्र के साथ मैंने एक पार्क में थोड़ी सी वोदका पी और
उसके बाद वो घर चला गया. मेरा मन नहीं भरा तो मैं एक बार में चला गया और बाईक बाहर
खड़ी करके भीतर पीने लगा. जब बाहर निकला तो देखा गाड़ी है ही नहीं. बंधु आप तो जानते
ही हैं की मेरी गाड़ी में ताला ही नहीं है. किसी माधरचोद हेरोइनबाज़ ने देख लिया
होगा कि इसे खोलने के लिए चाभी की ज़रूरत नहीं है और ले गया.”
मेरे दिमाग में साल-डेढ़ साल पहले का वह दृश्य कौंध गया जब मेरे छोटे
भाई की शादी के रिसेप्शन में कैलाश जी और विवेक इलाहाबाद से शामिल होने गए थे और
विवेक को बहुत बड़ा आश्चर्य हुआ था कि कैलाश जी ने रात भर के लिए अपनी बिना चाभी के
चल पड़ने वाली मोटरसाईकिल रामबाग रेलवे स्टेशन के सामने खड़ी कर दी थी और आराम से
ट्रेन पकड़ बनारस चले आये थे. वह गाड़ी रात भर रामबाग स्टेशन पर भगवान भरोसे खड़ी रही
थी.
“लेकिन आपको कैसे पता चला ?” उन्होंने पूछा.
“अरे दैनिक जागरण में निकला है. दुर्गेश ने बताया.”
“ओह, मैंने रात में अपने एक मित्र को बताई थी ये घटना जो जागरण में
है, उसी ने छापी होगी.”
“आपको पुलिस में रिपोर्ट करनी चाहिए थी कैलाश जी, की या नहीं ?”
“मैं गया था मुठ्ठीगंज थाने बंधु लेकिन रिपोर्ट लिखीं नहीं दुष्ट
पुलिसवालों ने.”
“ऐसा क्यों?” मैंने पूछा.
“पता नहीं, मैं धड़धड़ाते हुए एसओ के केबिन में घुस गया और मैंने कहा कि
मेरी रिपोर्ट लिखिए तो मुझे भगा दिया उसने.” उनकी आवाज़ में बच्चों जैसी नाराज़गी
थी.
“आखिर क्यों ?”
“कहने लगा मास्टर साहब कल होश में आइयेगा, अभी धीरे से निकल लीजिए
यहाँ से नहीं तो अन्दर कर दूँगा. कानून व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है बंधु.” मैंने
उनकी बात में हामी भरी और उन्हें समझाया कि ज्ञानवाणी से निकल कर वह ज़रूर जाकर
रिपोर्ट लिखवाएं. उन्होंने हामी भरी.
“अभी देखिये सुबह छह बजे से ड्यूटी थी तो बेटे कि साईकिल लेकर आया हूँ
यहाँ. निकलूंगा तो लिखवा दूँगा रिपोर्ट.”
मैं अभी नहा धोकर खाना
खाने जा ही रहा था कि एक घंटे के भीतर ही विवेक का मैसेज आया, “अबे चोरवा के फट
गयी, अइसन आदमी के गाड़ी चोरायेस कि कोतवाली ले जाके वापस कर दिहिस.”
मैंने खुश होकर कैलाश जी को फोन लगाया तो उठाते ही वह आह्लादित आवाज़
में बोले, “तो आपको पता चल गया बंधु कि मेरी गाड़ी मिल गयी ? अभी थाने से फोन आया
था कि कोतवाली के सामने इस नंबर की गाड़ी खड़ी है, आप कागज दिखाकर ले जाएँ. मुझे
लगता है विमल जी ये पुलिस वाले खुद तो नहीं...?” मैंने उनकी पूरी बात नहीं सुनी.
मुझे अच्छा लग रहा था. मैंने खाना छोड़कर अपनी कहानी पर काम करना शुरू कर दिया.
बहुत जीवंत कहानी बन रही थी और मुझे लिखने में भी मज़ा आ रहा था लेकिन क्लाईमैक्स
पर आते आते ना जाने क्यों मेरा मन उसे पूरा करने का नहीं हुआ.
वह कहानी अब भी अधूरी पड़ी है.
कुछ लोग किसी भी तरह के किस्से कहानियों से बड़े होते हैं. कैलाश जी
उनमें से एक हैं.
क्रमशः .......
प्रत्येक रविवार को नयी किश्त .....
संपर्क -
विमल चन्द्र पाण्डेय
प्लाट न. 130 - 131
मिसिरपुरा , लहरतारा
वाराणसी , उ.प्र. 221002
फोन न. - 09820813904
09451887246
फिल्मो में विशेष रूचि
फिल्मो में विशेष रूचि
हमेशा की तरह मजेदार. वैसे पुरस्कार कभी-कभी 'डिजर्विंग लोगों' को मिल जाते हैं, पर विश्वास करने का मन करता है...:)
जवाब देंहटाएंKailash ji wali kahani poori kariye....maja aa gaya
जवाब देंहटाएंवाह भाई, बहुत आनंद आया आज... पुरस्कार प्रसंग के बहाने कई किरदारों के भीतर पैठने का अवसर मिला... बधाई। अगले रविवार का इंतजार है।
जवाब देंहटाएंमजेदार तव बाय मुला पीये के बाद गड़ीया जिन चलावा करा भयवा.
जवाब देंहटाएं'कहानी' अभी बाक़ी है दोस्त!!
इलाहाबादी दौर को करीब से देखना अच्छा लगा. खासकर रात के बारह बजे के बाद वाली घटना.. ;)
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है कि इलाहाबाद में कुछ ऐसा जरूर है जो कहानियाँ खुद ब खुद बना दे और हमें सिर्फ उन्हें शब्द देने होते हैं.. :) :)
बिन चाबी वाली गाड़ी का यह सफर जारी रहे.
जवाब देंहटाएं“कहने लगा मास्टर साहब कल होश में आइयेगा, अभी धीरे से निकल लीजिए यहाँ से नहीं तो अन्दर कर दूँगा. कानून व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है बंधु.” मैंने उनकी बात में हामी भरी और उन्हें समझाया कि ज्ञानवाणी से निकल कर वह ज़रूर जाकर रिपोर्ट लिखवाएं. उन्होंने हामी भरी.
जवाब देंहटाएंbahut hi interesting tarike se jivanbodh khul rahi hai, samvedna bah rahi hai. asha hai vimal da aage bhi ye flow barkaraar rahega...
मैं हमेशा अपने प्रिय लोगों के साथ होने के बहाने खोजता हूँ और समय का सबसे अच्छा उपयोग मुझे वही लगता है जब हम अपने चाहने वालों की संगत में बैठ कुछ दिल की बातें कहें बनिस्पत हम कुछ और पैसे जुटा लें या फिर अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए कोई काम करें.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंye puri kist cocktail type ki rahi mazaa aaya...............
जवाब देंहटाएं