रांगेय राघव
हिंदी साहित्य की कुछ विडंबनाएं पूरे साहित्यिक परिदृश्य पर बहुत भारी पड़ी हैं | मसलन कि इसके तमाम प्रतिभाशाली रचनाकारों को काल ने हमसे असमय ही छीन लिया , और उनका अवदान उसी काल की अंधेरी गुफा में सदा-सदा के लिए दफ़न हो गया | और दूसरा यह भी कि तमाम प्रतिभाशाली और अपने समय के खांचे को तोड़ने वाले रचनाकारों के अवदान का हिंदी साहित्य की आलोचना ने उपेक्षात्मक उपहास उड़ाया | और जब यह दोनों विडंबनाएं किसी एक लेखक के साथ जुड़ जाएँ , तो फिर सोचकर सिहरन ही पैदा होती है , कि इससे हिंदी साहित्य जगत का कितना बड़ा नुकसान होता आया है और आगे हो सकता है | 'रांगेय राघव' हिंदी के एक ऐसे ही मसीजीवी रचनाकार रहे हैं , जिन पर यह मार दो-तरफ़ा पड़ी है | यहाँ प्रतुत इस लेख में युवा कवि 'अशोक कुमार पाण्डेय' इन विडंबनाओं के साथ साथ उस महान रचनाकार के साहित्यिक अवदान को भी शिद्दत के साथ याद कर रहे हैं ...|
प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर युवा कवि अशोक कुमार पाण्डेय द्वारा
'रांगेय राघव' पर लिखा गया आलेख
मैं
पूछता हूँ सबसे गर्दिश कहाँ थमेगी[1]
(रांगेय
राघव पर कुछ फुटकर नोट्स)
- ..... अशोक कुमार पाण्डेय
हो
कितनी अनजान राह यह भूल न जाना
ओ
मेरे जीवन के यात्री चलते जाना
हर
बंजर के लिए मेघ को चलो बुलाते
हर
पीड़ित के लिए चलो तुम हृदय रुलाते
मन
की धरती कभी न सूखे करो कामना
सारी
भूमि हरी कर देगी यही साधना
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(एक)
रांगेय राघव से मेरा पहला परिचय उनकी बहुचर्चित कहानी ‘गदल’ के माध्यम से हुआ था. 1991-92 की
गर्मियों की कोई दोपहर रही होगी जब माँ की बी ए के पाठ्यक्रम की कहानियों का संकलन
मेरे हाथ लगा. उसमें कोई दस या बारह कहानियाँ रही होंगी, लेकिन जो मुझे याद रह
गयीं हैं, वे हैं चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की ‘उसने कहा था’ अमरकांत की ‘डिप्टी कलक्टरी’, अज्ञेय की ‘गैंग्रीन’ और रांगेय राघव की ‘गदल’. एक बिलकुल भिन्न परिवेश की इस कहानी
ने मेरे किशोर मन को बेहद उद्वेलित किया था लेकिन उस छोटी सी जगह पर उनका लिखा कुछ
और न मिल सका. गोरखपुर आने पर जो दूसरी चीज़ उनकी दिखी, वह मित्र स्वदेश कुमार की
साहित्यिक पुस्तकों की दुकान ‘अक्षरा’ पर उनके द्वारा किये गए शेक्सपीयर के
अनुवाद थे. उस समय तक शेक्सपीयर के कई नाटक मूल में पढ़ चुका था लेकिन फिर भी
रांगेय राघव के नाम का प्रभाव ही था कि उनमें से कई को पढ़ने के लिए ले गया. लेकिन
गदल को पढकर जितना उद्वेलित हुआ था इन अनुवादों को पढ़कर उतना ही निराश. बाद में
जैसे-जैसे उन्हें पढ़ता गया, इन दो छोरों के बीच का सेतु जोड़ने की कोशिश करता रहा.
बहुत बाद में उनके उपन्यास “कब
तक पुकारूं” में आये एक प्रसंग
ने मेरी इस गुत्थी को सुलझाया जहाँ एक राजा ने नटी से वादा किया था कि वह अगर एक
पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी के बीच बंधी रस्सी पर चलकर जाए तो उसे आधा राजपाट दे देगा.
नटी जब आधे रस्ते पर पहुँची तो राजा को लगा कि कहीं वह सचमुच उस पार तक न चली जाय.
राजा के इशारे पर रस्सी काट दी गयी और नटी गिरकर मर गयी!
1948 में पी एच डी कर लेने के बाद लेखन पर पूरी तरह से
केंद्रित होने के लिए विश्विद्यालय की
नौकरी और प्रगतिशील जीवन मूल्यों के स्वीकार के बाद वैर गाँव के मंदिर से जुड़ा परिवार
का पुरोहिताई का परम्परागत पेशा और उससे जुड़ी जागीर ठुकराने वाले रांगेय राघव ने
मसिजीवी बने रहने के अपने निर्णय का मोल चुकाया. अपनी तमाम रचनाओं का कापीराईट
कौडियों के मोल बेच दिया, प्रकाशकों की मांग पर अंग्रेजी से तमाम कृतियों का ‘रूपांतरण’ किया, लेख लिखे, कोर्स की किताबों के
लिए लिखा...और भी क्या-क्या. लेकिन इस तनी रस्सी पर संतुलन बनाकर इस छोर से उस छोर
तक जा पाना भी उनके लिए संभव नहीं हुआ. साहित्य के घोर सामंती गठजोड़ों वाले समाज
में वह आलोचकों और मठाधीशों के बीच अपने जीवनकाल में भी उपेक्षित ही रहे. हाँ,
पाठकों के बीच उनकी लोकप्रियता असंदिग्ध तब भी थी, अब भी है.
(दो)
उपन्यास, कहानी, रिपोर्ताज, कविता सहित तमाम विधाओं में सामान
अधिकार से लिखने वाले रांगेय राघव न केवल अपने समय और समाज की बेहद गहरी जानकारी
रखने वाले और उसकी विडंबनाओं को तह में जाकर रेशा-रेशा अलग करने वाले रचनाकार हैं
बल्कि इससे आगे जाकर उनसे दो-दो हाथ कर साहित्य को एक बेहतर भविष्य के निर्माण के
ज़रूरी औजार की तरह उपयोग करने वाले भी. मात्र २३ वर्ष की उम्र में उनका पहला उपन्यास ‘घरौंदा’ प्रकाशित हुआ था. इसका जिक्र करते हुए
उनकी पत्नी सुलोचना रांगेय राघव ने लिखा है ‘वैसे पढ़ने में अच्छे थे, परन्तु बी.ए.
में अर्थशास्त्र में कम्पार्टमेंट आया. उनके पिता को इस असफलता का कारण बाद में
पता चला, जब ‘घरौंदा’ तैयार हो गया. कालेज के प्रांगड में
उगे पेड़ की छाया में बैठ, अर्थशास्त्र की क्लास में जाने की बजाय ‘घरौंदा’ लिखने में तल्लीन रहते. यह उनका पहला
मौलिक उपन्यास है, जिसे उन्होंने 18 साल की आयु में लिखा था.’[3] इस उपन्यास की विषय-वस्तु भी कालेज के
इर्द-गिर्द ही है जहाँ गाँव का एक मेधावी छात्र भगवती शहर के एक कालेज में दाखिला
लेता है और वहाँ की चकाचौंध से रू-ब-रू होता है. उतार-चढावों से भरे कोई ढाई सौ
पन्नों के इस उपन्यास में रांगेय राघव की रचनात्मक प्रतिभा के साथ प्रगतिशील
दृष्टि भी स्पष्ट तौर पर लक्षित की जा सकती है. सुगठित कथा-वस्तु, प्रवाहमयी भाषा,
स्त्री पात्रों के प्रति उनकी सहानुभूति, सत्ताशाली वर्ग के प्रति तीक्ष्ण आलोचनात्मक
दृष्टि और वंचित वर्ग के प्रति स्पष्ट पक्षधरता के कारण यह उपन्यास आज भी
प्रासंगिक और पठनीय लगता है. उपन्यास के आरम्भ में ही जब सेक्रेटरी हर वर्ष कालेज
में दाखिला लेने वाली लड़कियों की संख्या में बढ़ोत्तरी की बात को अफ़सोस के साथ कहता
है तो लेखक की टिप्पणी है- ‘जैसे
जब से लड़कियाँ आने लगीं इनकी जबान पर एक-एक घाव होता गया और आज एक सौ बीस पूरे हो
गए.’[4] गाँव और शहर के बीच का जो द्वंद्व उनकी
रचनाओं में अंत तक दिखाई देता है उसके स्रोत भी इस उपन्यास में ही दिखाई देने लगते
हैं. एक सन्दर्भ में वह लिखते हैं- ‘शहर में रूप होता है-साम्राज्यों का वैभव उनकी उच्च
अट्टालिकाओं में छिपा रहता है; लेकिन नीचे ही तीव्र अन्धकार कोनों में गुर्राया
करता है. दूर-दूर तक फैलती छाया- गाँवों में मनुष्य केवल जीवित रहता है. वृद्ध
अपने जीवन से बेजार हो जाते हैं, युवक अपनी भूख और वासनाओं को मिटाने की ही इच्छा
में झुक जाते हैं, औरतों की छाती नाज करने से पहले ही ढल जाती है और बच्चे गंदे,
घिनौने से राह पर कुत्तों के साथ खेला करते हैं. मध्यवर्ग इस गाँव की झूठी सादगी
पर मरता है. रईस वहाँ प्रकृति का सौंदर्य देखने जाते हैं. पर्वत का मनोरम दृश्य
कौन नहीं जानता? किन्तु जो पशु प्रकृति की कठोर दया पर गुफाओं में पलता है, वह कभी
सुखी नहीं होता.’[5] और ध्यान रखिये कि ग्रामीण जीवन का यह क्रूर
यथार्थ वह चालीस के दशक के उस दौर में ला रहे थे जब प्रेमचंद सहित हिन्दी के तमाम
रचनाकार शहर की तुलना में ग्रामीण जीवन को महान बताते हुए उसके द्वंदहीण चित्रण
में लगे थे.‘अहा
ग्राम्य जीवन भी क्या है’
के मोहक गीतों से साहित्य की दुनिया गुंजायमान थी. वैसे ग्रामीण जीवन का यह
आदर्शवादी और रूमानी चित्रण बाद में भी लगातार चलता ही रहा और बम्बईया फिल्मों की
तरह साहित्य में भी ग्रामीण जीवन की विडम्बनाओं को अपने कल्पित आदर्श लोक की
सुनहरी परत में दबाया जाता रहा. लेकिन रांगेय राघव, जिन्होंने ग्रामीण जीवन को ही
नहीं, मुख्यधारा से बाहर कर दिए गए जन-समुदायों के जीवन को भी बेहद करीब से और
संबद्ध होकर देखा था तो उनके परवर्ती साहित्य में इस विडंबना का चित्रण और भी अधिक
स्पष्टता से हुआ है. प्रेमचंद की बहुचर्चित कहानी ‘पञ्च परमेश्वर’ के ही शीर्षक से लिखी अपनी एक कहानी की
भूमिका में वह लिखते हैं- ‘जन-जीवन
का कौन सा रूप है जो आज हमें खींचता है. समस्या का हल या यथार्थ का चित्रण! मैं इन
दोनों को युगपरक सत्य मानता हूँ, परन्तु इन्हें साहित्य का सब कुछ नहीं मानता
क्योंकि साहित्य का सृजन एक और भी व्यापक तत्व चाहता है. वह तत्व है
भाव-चित्रण-प्राचीन शास्त्रियों के शब्दों में, और मेरी व्याख्या में मानवीयता का
व्यापक रूप. इसी तत्व को मैंने निरंतर विकसित किया है. प्रेमचंद में इसका अभाव था.’[6] ‘कब तक पुकारूँ’ की भूमिका में उन्होंने इसे और स्पष्ट
तरीके से लिखा है- ‘प्रेमचंद
के समय में राष्ट्रीय आंदोलन विदेशी के विरुद्ध था, अतः उस समय राष्ट्रीयता का ही महत्व उनके उपन्यासों
में मिलता है. प्रेमचंद आदर्शवादी भी थे. गाँव की बहुत सी असलियत भी वे
इसी से स्पष्ट नहीं लिख सके थे क्योंकि उस समय समस्या राष्ट्रीय आंदोलन
को बल देने की थी. किन्तु अब युग प्रेमचंद से आगे का है और केवल शोषण का
आर्थिक पहलू ही देखना काफी नहीं है. शहरों में बैठने वाले आधुनिकता के
नजरिये से सबकुछ देख डालते हैं. पर असली भारत गाँव में है, जो अब भी मध्यकालीन विश्वासों से ग्रस्त
है. ये विश्वास मध्यकालीन आर्थिक व्यवस्था से नियंत्रित हैं’[7]. ग्रामीण जीवन की इन विडंबनाओं का
चित्रण और उत्पीड़क सामाजिक संरचनाओं को बेपर्द करने की उनकी यह मुहिम जीवनपर्यंत
चलती रही.
(तीन)
यह महज संयोग नहीं है कि उनके सबसे चर्चित उपन्यास ‘कब तक पुकारूँ’ और सबसे चर्चित कहानी ‘गदल’ का कथानक वर्ण-व्यवस्था और लैंगिक
मतभेद जैसी इन्हीं उत्पीड़क सामाजिक संरचनाओं के शिकार दो जन-समुदायों के जीवन के
इर्द-गिर्द घूमता है. उनका एक और चर्चित उपन्यास “'धरती मेरा घर” भी ऐसे ही एक समुदाय गाडिया लोहारों पर
है. अब तक लगभग क्लासिक का दर्जा पा चुके अपने उपन्यास ‘कब तक पुकारूँ’ में उन्होंने राजस्थान और पश्चिमी
उत्तर प्रदेश की करनट जाति के जनजीवन को केन्द्र में रखा है. इस आदिम जनजाति की
जीवन-शैली, मूल्य मान्यताओं, इनके सतत उत्पीड़न और बदलते सामाजिक-राजनीतिक परिवेश
के उन पर प्रभावों को रांगेय राघव ने इतनी गहराई और इतनी संबद्धता से चित्रित किया
है कि यह उपन्यास, जिसके एक रोमांचक ऐतिहासिक आख्यान भर बन कर रह जाने, या फिर
आंचलिक जैसा कुछ बन जाने की पूरी संभावना थी, आधुनिक तथा वैज्ञानिक जीवन मूल्यों
का उद्घोषक बन जाता है. उनके स्त्री आधुनिक स्त्री के स्वतंत्रता के उद्घोष से स्वर
मिलाते लगते हैं तो चंदा और नरेश के प्रसंग में तो उन्होंने अंतरजातीय प्रेम विवाह
जैसे सवाल पर बेहद खुल कर बात की है और स्पष्ट पक्षधरता के साथ सामने आये हैं. एक प्रसंग में लेखक कहता है – ‘यह बुराई नहीं है. यह जात-पात सब आदमी
के बनाए बंधन हैं. दुनिया में एक मुल्क अमरीका है. वहाँ काले हब्शी रहते हैं. उन
पर अत्याचार होता है, क्योंकि वहाँ के बाक़ी हुकूमत करने वाले लोग गोरे रंग के
हैं....बुरा धन है, धन की गुलामी बुरी है”[8]. यहाँ यह जिक्र भी प्रासंगिक होगा कि
अपने बिलकुल अंतिम दौर के उपन्यास ‘पतझर’ में भी एक मनोवैज्ञानिक के माध्यम से
उन्होंने अंतरजातीय प्रेम विवाह के सवाल को भी उठाया है और उसे यांत्रिक तरीके से
हल करने की जगह विभिन्न समाज-शास्त्रीय तथा मनोवैज्ञानिक अवधारणाओं की गहन विवेचना
के साथ वह अंतरजातीय विवाह के पक्ष में खड़े हुए हैं. इस उपन्यास में वह आधुनिकता
के नाम पर पश्चिम के अंधानुकरण के साथ-साथ वामपंथी देशों के भीतर व्यक्तिगत
स्वातंत्र्य पर जबरन लगाई जा रही बंदिशों पर भी सवाल खड़ा करते हैं- ‘ चीन वाले व्यक्तिगत संपत्ति हटाने के
लिए परिवार तोड़ रहे हैं, जबरदस्ती. मैं जबरदस्ती पर विश्वास नहीं करता. और परिवार
का अंत मैं इसलिए कह रहा था कि मनुष्य का चरम लक्ष्य अपना बौद्धिक विकास करना है,
जो उसके मष्तिष्क पर निर्भर है. वह योग के विकास से हो सकता है और इन जातीय बंधनों
से योग का विकास रुकता है. इसलिए परिवार नाम की चीज़ टूट जायेगी. मैं जानता हूँ आप
इस बात को सुनकर हँसेंगे. मैं एक तरफ परिवार तोड़ने की बात कर रहा हूँ और दूसरी तरफ
स्वतन्त्र प्रेम की बातें कर रहा हूँ.[9]
इस उपन्यास में उन्होंने जिस तरह आदिम कबीलाई युग से लेकर आधुनिक युग तक के समाज
में विवाह संस्था में अन्तर्निहित बर्बरता को चित्रित किया है वह राहुल
सांकृत्यायन के प्रसिद्ध उपन्यास ‘वोल्गा
से गंगा’ की याद दिलाता है.
‘कब तक पुकारूँ’
का विशद विवेचन तो अलग से एक लंबे आलेख की मांग करता है, लेकिन संक्षेप में यह कहा
जा सकता है कि ‘कब
तक पुकारूँ’ में रांगेय राघव ने
जितना बड़ा कैनवास रचा है, जिसमें वह पूरब-पश्चिम, औपनिवेशिक मानसिकता के
अंतर्द्वंद्व, जाति-व्यवस्था के भीतर स्त्री यौनिकता के नियंत्रण, आदिवासी समुदाय
के भीतर स्त्री की यौनिकता की स्वतंत्रता के बहाने स्त्री प्रश्नों पर गहन विमर्श
और सामंती उत्पीडन की विभिन्न तहों की पड़ताल जैसे महत्वपूर्ण कार्य कर पाते हैं,
वह अन्यत्र दुर्लभ दिखाई देता है. यह एक विचारक और एक रचनाकार के रूप में उनके
विराट व्यक्तित्व का पता देता है तो उनकी संवेदनाओं और पक्षधरता का भी. समकालीन
अस्मिता विमर्शों से कोई पांच दशक पहले इन विषयों पर इतना स्पष्ट और इतना खरा
लिखने वाला लेखक विमर्शों के समकालीन शोर में क्यूं याद नहीं किया जाता, यह कोई
मुश्किल सवाल नहीं है.
पारम्परिक तथा हिन्दी में परिचित ग्रामीण जीवन से इतर हमारी
सामाजिक व्यवस्था के हाशिए पर स्थित इन
आदिम घुमंतू समुदायों पर जितना रांगेय राघव ने लिखा है, मेरी सीमित जानकारी में
हिन्दी के किसी अन्य लेखक ने नहीं लिखा है. यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि एक तरफ
तो आमतौर पर मुख्यधारा से बाहर माने जाने वाले इन समाजों की तमाम मूल्य-मान्यताएं
पारंपरिक समाजों की सामंती मूल्य-मान्यताओं से अधिक खुली और मानवीय नजर आती हैं,
तो दूसरी तरफ साहित्य जगत में सामान्यतः इन सभी समाजों के गहन मानवविज्ञानी तथा
समाजशास्त्रीय अध्ययन की मुश्किल राह अपनाने की जगह इन्हें किसी रहस्यमय मोनोलिथ
में तब्दील कर उपेक्षित रखा जाता है, और गाँव की एक ‘मानक’ संरचना के विभिन्न ‘टोलों’ के बीच की आवाजाही को ही सम्पूर्ण
ग्रामीण समाज की आवाजाही मान कर काम चला लिया जाता है. इसके साथ-साथ पूर्वोद्धरित तथा
अन्य उपन्यासों में भी रांगेय राघव ने आर्थिक शोषण के तिलिस्मों को भी बखूबी भेदा
है. ग्रामीण जीवन पर केंद्रित एक उपन्यास ‘पथ का पाप’
में वह लिखते हैं- ‘किसान
की कमाई बड़ी गाढ़ी मेहनत की. तावड़ा की धमक में गोरी काली पड़ जाए खाल. अब हल चलाओ,
फिर बोओ, फिर नरावा करो, फिर काटो, फिर दांय करो, फिर बरसाओ, तब कहीं नाज घर आये.
तिसमें आंधी, पाला, बिजली, कड़क, टिड्डी, टिड्डा, पचास जोखों हैं.’[10] इन पंक्तियों में ब्रज भाषा पर उनका
असाधारण अधिकार और उसका सौष्ठव भी देखते ही बनता है.
(चार)
एक रचनाकार के रूप में उनकी बहुआयामिता और विषय के विवेचन की
अद्भुत क्षमता के पीछे उनका विराट अध्ययन भी था. न केवल वह हिन्दी, संस्कृत, तमिल,
अंग्रेजी और ब्रज जैसी भाषाओं के प्रकांड विद्वान थे, अपितु इतिहास, दर्शन,
राजनीति, समाज शास्त्र, धर्म शास्त्र, अर्थशास्त्र आदि के भी गहन अध्येता थे.
उन्होंने मायकोवस्की, चौसर, होमर, यूरिपीडीज, राबर्ट लुई स्टीवेंसन और लाओत्सु
जैसे कवियों पर किताबें तैयार की थीं (जो अप्रकाशित ही रह गयीं) तो समाज शास्त्र,
अपराध शास्त्र, संस्कृति और मानवशास्त्र जैसे विषयों पर अधिकार पूर्वक लिखने के
साथ-साथ मध्यकालीन मुस्लिम इतिहास पर भी किताब लिखी थी (इसका एक खंड उन्होंने लिखा
था, असमय मृत्यु के कारण इसे आगे नहीं लिख सके). 1946 में उन्होंने ‘भारतीय पुनर्जागरण की भूमिका’ लिखी तो आलोचना के भी दस से अधिक
ग्रन्थ लिखे. इन सब का असर उनके उपन्यासों में दिखता है. उनका बहुचर्चित उपन्यास ‘मुर्दों का टीला’ मोहनजोदड़ो पर लिखा गया मेरी जानकारी
में पहला उपन्यास है. इसके पहले मुल्कराज आनंद ने इसी विषय पर एक कहानी लिखी थी.
यह उपन्यास मोहनजोदड़ो की खुदाई से पहले लिखा गया था. गौरतलब बात यह है कि इस
उपन्यास में वहाँ के जनजीवन और उनके रहन-सहन के बारे में दी गयी अनेक प्रस्थापनाएँ
राखाल दास बनर्जी द्वारा इसकी खुदाई के उपरांत दिए गए निष्कर्षों के बिलकुल अनुरूप
है. इस रूप में वह एक उपन्यासकार के रूप में अपने समय से आगे निकल जाते हैं. इसके
अलावा हिन्दी में रिपोर्ताज शैली में लेखन करने वाले भी वह पहले ही लेखक हैं.
बंगाल के अकाल के दौर में वहाँ का दौरा करने गयी प्रगतिशील लेखक संघ की टीम के
सदस्य रहे रांगेय राघव ने वहाँ से लौटकर ‘तूफानों के बीच’
नाम से जो रिपोर्ताज लिखा है वह इस शैली की बुनियाद भी है और बुलंदी भी.
सुलोचना रांगेय राघव ने पूर्वोद्धरित पुस्तक में उनके जीवन और
विश्वासों के बारे में तमाम रोचक जानकारियाँ दी हैं. मेरे लिए इनमें एक जो बेहद
महत्वपूर्ण बात है वह है उनका कवि रूप. मेरी पीढ़ी के तमाम लोग इस बात से अपरिचित
हैं कि रांगेय राघव ने न केवल एक रचनाकार के रूप में अपनी शुरुआत कवि के रूप में
की थी अपितु बाद में एक उपन्यासकार और कहानीकार के रूप में पहचान पा लेने के बाद
भी उन्होंने कविताओं का क्रम लगातार जारी रखा. सुलोचना जी ने अपनी किताब में छह
प्रकाशित और सात अप्रकाशित कविता-संग्रहों की सूची देने के साथ-साथ उनकी कुछ
कविताओं को भी जगह-जगह कोट किया है. तमाम कोशिशों के बाद उनके संकलन न मिल पाने के
कारण इस लेख में उन पर विस्तार से बात करना संभव नहीं हो पा रहा. इसी संस्मरण में
वह एक जगह बताती हैं कि रांगेय राघव ने कभी कहा था कि “वह चाहते हैं कि लोग उन्हें कवि के रूप
में जानें.”
लेकिन जिस अर्थाभाव में वह लगातार संघर्ष करते रहे उनमें शायद
गद्य ही उनकी मुसीबतों का कुछ हद तक निदान कर पाता था. यही वजह थी कि कई बार उनके
उपन्यास जल्दबाजी में लिखे हुए लगते हैं. कई बार ऐसा लगता है कि बस इनका पहला
ड्राफ्ट तैयार किया गया और प्रकाशक को दे दिया गया. एक मसिजीवी लेखक की हिन्दी में
यह दुर्दशा कोई अकेली नहीं है. लेकिन खलने वाली बात है हिन्दी की संस्थागत आलोचना
द्वारा उनकी उपेक्षा. जिस कद और जिस रेंज के वह लेखक थे, हिन्दी की आलोचना से उस
गंभीरता से उन पर काम नहीं किया. कुछ उबाऊ शोध प्रबंधों के अलावा उनके रचनात्मक
अवदान की गंभीर विवेचना करने वाली कोई किताब आज भी बाज़ार में दिखाई नहीं देती. 39
साल के अल्प जीवन काल में साठ से अधिक महत्वपूर्ण मौलिक किताबें लिखने वाले इस अद्वितीय प्रतिभाशाली
लेखक के रचनासंसार की पड़ताल का काम न केवल उनके महत्व को समझने में मददगार होगा
बल्कि स्वतंत्रता के तुरत बाद की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितियों और हाशिए
के समाज के साथ उनके अंतर्संबंधों और द्वंद्वों को समझने के उस ज़रूरी काम का
हिस्सा भी बनेगा जो वर्तमान हालात में एक वैकल्पिक सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक
व्यवस्था के निर्माण के काम में लगे लोगों को भविष्य का माडल तैयार करने के लिए
ज़रूरी खाद-पानी का काम करेगा.
[1]
रांगेय राघव की मृत्यु शैया पर लिखी
अंतिम कविता की एक पंक्ति. देखें, रांगेय राघव: एक अतरंग परिचय, सुलोचना रांगेय
राघव, पेज-60, राजपाल एंड सन्ज, दिल्ली, 1997
[2]
देखें, वही, पेज-8, राजपाल एंड सन्ज,
दिल्ली, 1997
[3]
देखें, वही, पेज- 14
[4]
देखें, घरौंदा, रांगेय राघव, पेज-5,
राजपाल एंड सन्ज, दिल्ली, 2008
[5]
देखें,वही, पेज-109
[6]
देखें, मेरी प्रिय कहानियाँ, रांगेय
राघव, राजपाल एंड सन्ज, दिल्ली, 2011
[7]
देखें, कब तक पुकारूँ, रांगेय राघव,
भूमिका, राजपाल एंड सन्ज, दिल्ली, 2009
[8]
देखें, कब तक पुकारूँ, रांगेय राघव,
पेज-349, राजपाल एंड सन्ज, दिल्ली, 2009
[9]
देखें, पतझर, रांगेय राघव, पेज-99,
राजपाल एंड सन्ज, दिल्ली, 2011
[10]
देखें, पथ का पाप, रांगेय राघव, पेज-74,
राजपाल एंड सन्ज, दिल्ली, 2009
अशोक कुमार पाण्डेय |
लेखक परिचय ....
लेखक अशोक कुमार पाण्डेय सुपरिचित युवा
कवि हैं | राजनीतिक , सामाजिक और सांस्कृतिक वाम जन आन्दोलनों में आप छात्र जीवन से ही सक्रिय भागीदारी निभाते रहे है | कई पुस्तकों के लेखक अशोक कुमार पाण्डेय का कविता संकलन 'लगभग अनामंत्रित' हाल ही में शिल्पायन प्रकाशन से छपा है , और काफी चर्चित हुआ है | आप 'जनपक्ष' और 'असुविधा' जैसे महत्वपूर्ण ब्लागों का संचालन भी करते हैं ........
बहुत मन से लिखा गया एक ज़रूरी आलेख। यह सच है कि रांगेय राघव के साथ आलोचना ने न्याय नहीं किया... पाठकों ने ही रांगेय राघव को प्यार दिया। ... हिंदी आलोचना के बहुत से अन्यायों में रांगेय राघव के साथ किया गया बर्ताव ऐतिहासिक गलती है। इसे नई पीढियां ही ठीक करेंगी।
जवाब देंहटाएंअशोक जी को बहुत बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएंप्रेमचन्द भाई की बात से सहमत....हिंदी में हुई ऐसी हिंसाओं की पड़ताल का समय आ पहुंचा है। बहुत ज़रूरी काम किया है अशोक ने....दुआ ये किताब लिखे जाने तक पह़ुचे।
जवाब देंहटाएंरांगेय राघव को अब कौन याद करता है ..? 'कब तक पुकारूँ' उनकी एक कालजयी कृति है |अशोक पाण्डेय को धन्यवाद इस महत्वपूर्ण आलेख के लिए | और सिताब दियारा का भी आभार .....केशव तिवारी
जवाब देंहटाएंबहुत बारीक पड़ताल करता आलेख. इस लेख में म्हणत स्पष्ट दिख रही है. रांगेय राघव द्वारा ग्राम्य जीवन की वास्तविक परिस्तिथियों का ईमानदार चित्रण करते लेखन का यहाँ उल्लेख करना वास्तव में एक सराहनीय और लीक तोड़ कर किया गया वास्तविक प्रगतिशील कर्म है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंBahut sarthak!Agre walon ki or se vishesh abhar!
हटाएंजितेन्द्र भाई, आपकी यह टीप मेरे लिए आशीर्वाद जैसी है
हटाएंअमित भाई से सहमत हूँ .....जानकारी से परिपूर्ण ये लेख खुद बा खुद इसके पीछे की मेहनत को बयां करता है ....हम जैसे नए लोगो के लिए रांगेय राघव जी के लिखे के बारे में एकमुश्त इतनी जानकारी मिलना काफी महत्वपूर्ण है ...बहुत बहुत शुक्रिया !....कुलदीप अंजुम
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आप सबका. शिरीष भाई, लगता है आप मित्रता में मेरी औकात कुछ अधिक ही बढाते जा रहे हैं :)
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंपाण्डेय जी
हटाएंइस महत्वपूर्ण आलेख के लिए धन्यवाद. हम लोग क्लीव चरित्र के कारण बहुत से महत्वपूर्ण लेखको से मुह मोड़ते रहे हैं.