विमलचन्द्र पाण्डेय |
पिछली किश्त में आपने पढ़ा कि यू.एन.आई.की नौकरी विमल के लिए मानसिक के साथ साथ आर्थिक रूप से भी भारी पड़ रही होती है | मानसिक खुराक के लिए तो वे साहित्य , फिल्मों और अपने दोस्तों की शरण में जाते हैं , लेकिन आर्थिक दिक्कतों से कैसे निपटा जाए , समझ में नहीं आता | उन्हें आकाशवाणी इलाहाबाद में अपनी कहानी के प्रसारण के जरिये इस परेशानी से निकलने का एक रास्ता दिखाई देता है | वे वहाँ जाते हैं और उनकी कहानी वहाँ से प्रसारित भी हो जाती है , लेकिन वहाँ का गलीज वातावरण उन्हें राहत देने के बजाय कुल मिलाकर उन्हें कष्ट पहुंचाने वाला ही साबित होता है |
पिछले दस हफ्तों से , जब से विमल का यह संस्मरण 'सिताब दियारा' ब्लाग पर चल रहा है , बतौर ब्लागर इसका मैं पहला पाठक होता हूँ | हालाकि मैं यह जानता हूँ कि इस संस्मरण में आगे मैं कहीं नहीं आने वाला , लेकिन रविवार की प्रत्येक सुबह , मेरे भीतर एक अजीब सी हलचल , उत्सुकता और रोमांच रहता है , कि आज यह संस्मरण मेरे भीतर से गुजरेगा .|..इसमें विमल जिस तटस्थता के साथ अपने दिनों को याद करते हुए हम सबके जीवन के पन्नों को उलट रहे होते हैं , वह वाकई इसे दिल के बहुत करीब ले आता है ...| बतौर माडरेटर मेरे लिए यह गर्व का विषय है कि विमल का यह संस्मरण 'सिताब दियारा' पर छप रहा है ...|
तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लाग पर विमलचन्द्र पाण्डेय के संस्मरण
ई इलाहाबाद है भईया की
ग्यारहवीं किश्त
17...
चूँकि मेरा कहीं कोई ऑफिस नहीं था, मैंने दुर्गेश के ऑफिस में ही
बैठना शुरू कर दिया था. दिन भर हम वहाँ बैठे दुनिया जहान की बातें करते रहते और
कोई खबर मिलती तो मैं दुर्गेश के कंप्यूटर और इन्टरनेट कनेक्शन का प्रयोग करता
जिससे मेरे साइबर कैफे के पैसे बच जाते. इस पर दुर्गेश का कहना था की मुझे उसे चाय
वाय पिलानी चाहिए लेकिन चाय पिलाने के मामले में दुर्गेश ज़रा भी कंजूस नहीं था और
उसके पास पैसे होते तो वह ज़रूर खर्च करता था.
उसका कहना था कि उसके पास नॉलेज बहुत है लेकिन उसका मुँह छोटा है
((((({मुहावरा वाला छोटा मुँह नहीं } इसलिए अक्सर लोग उसे सीरियसली नहीं लेते. दुर्गेश
से ज़्यादा स्पष्टवादी इंसान मैंने सिर्फ़ हिंदी सिनेमा के परदे पर देखा था इसलिए
उसकी कुछ बातें पचाने में मुझे तब तक बड़ी दिक्कत होती थी जब तक मैंने उसे ठीक से
समझा नहीं था. वह संघ से जुड़ा हुआ था और जब मैंने इस पर एकाध बार कुछ फिकरेबाजी की
तो उसने मुझे साफ़ शब्दों में समझाया कि मैं बाहर यानि फील्ड में इस बात को न कहूँ
क्योंकि बहुत से बेवकूफ लोग हैं जो संघ कि महत्ता नहीं समझते. मैंने कहा कि आखिर
ऐसी जगह से जुड़ के क्या फायदा कि कहीं खुल के बताया भी न जा सके. मेरी ऐसी बातों
पर अक्सर वह चिढ़ कर पूछ बैठता, “ई बताओ बिमल भाई, तुम कम्युनिस्ट हो का ?” मैं
उसके इस आरोप का खंडन करता और मैं जितना खंडन करता उतना ही उसका शक पुख्ता होता
जाता. मेरा डर ये था कि कहीं वो मुझसे नाराज़ हो गया तो मुझे इलाहाबाद कि सड़कें
पैदल नापनी पड़ेंगीं. मैं उससे स्थानीय चीज़ों पर बात करना चाहता और वह भारत
पाकिस्तान संबंधों या फिर अर्थ नीति जैसी चीज़ों में रूचि दिखाता. कहीं पढ़े हुए लेख
में से कुछ तथ्यों में अपने विचार जोड़ कर वह अक्सर ऊँची आवाज़ में कुछ भाषण टाइप का
खुलेआम देता और मेरी ओर देख कर मुस्कराता हुआ कहता, “देखे बिमल भाई, है पूरे
इलाहाबाद में कोई के पास एतना नॉलेज ?” मैं कहता कि नहीं और अगर होगा भी तो हमें
कैसे पता चलेगा जब तक वह चौराहे पर खड़ा होकर उस नॉलेज को उगलने न लगे. वह हँसता और
इसे अपनी तारीफ समझता. उसका सेंस ऑफ ह्यूमर काफ़ी खराब था और मैंने शुरू से देखा है
कि मेरी दोस्ती उन्हीं लोगों से अच्छी और लंबी चलती है जो किताबें पढ़ते हों या
नहीं, फिल्मे देखते हों या नहीं, किसी भी कला के प्रति उनमे कोई जागरूकता हो या
नहीं, उनका सेंस ऑफ ह्यूमर ज़रूर अच्छा होना चाहिए. मेरे कुछ मित्रों का कहना है कि
मेरे भीतर गंभीरता का किंचित अभाव है जिसके कारण मुझे साहित्य में गंभीरता से नहीं
लिया जा रहा जबकि मेरे बाद आये कई होनहार लेखक कितने ही पुरस्कार पा चुके हैं और
किताबें छपवा चुके हैं जबकि मैं अभी तक उसी एक किताब को थामे बैठा हूँ जिसकी
पाण्डुलिपि कई दोस्तों के कहने पर एक प्रतियोगिता के लिए भेजी थी. मैं उनकी बातों
को गंभीर हास्य की श्रेणी में रखता हूँ और मुस्करा देता हूँ. शुरू-शुरू में एक
अच्छे मित्र की तरह मैंने दुर्गेश को समझाने की बहुत कोशिशें की थीं कि उसे हर जगह
बिना पूछे डींगें नहीं हांकनी चाहिए या छोटे अख़बारों के पत्रकारों को अपनी पढ़ाई से
नहीं हडकाना चाहिए. इस पर उसका कहना था कि मैं चूँकि इलाहाबाद का नहीं हूँ इसलिए
मुझे नहीं पता कि यहाँ मूतना कम और हिलाना ज़्यादा पड़ता है. मैं कहता कि मैं बनारस
का हूँ और वहाँ इलाहाबाद से कुछ भी अलग नहीं है. मैं दोस्तों को अपनी सीमा तक
समझाने की कोशिश करता था और रचनाकार दोस्तों की रचनाओं की कमियां निकालते वक्त
मुखातिब के दिए संस्कारों का प्रयोग करता था लेकिन मैंने पाया कि आम ज़िंदगी और
साहित्य, दोनों ही जगह जाहिलों की एक जैसी ही भीड़ है जो अपनी सकारात्मक आलोचना पर
भी मारने चढ़ बैठते हैं. कई साहित्यकार मित्रों के साथ मेरा अनुभव यह रहा है कि वे
अपनी तारीफ तो बड़े धैर्य से ‘अच्छा, अरे वाह’ करके सुनते हैं लेकिन कोई कमी
निकालने पर सामने वाले की समझ पर ही ऊँगली उठाने लगते है और हद तो ये कि बुरा मान
जाते हैं. ऐसे लोग सच्ची प्रतिक्रियाएं डिजर्व नहीं करते और मैं झूठ बोलना पसंद
नहीं करता. अब मैंने बुरी और औसत चीज़ों पर बिना मांगे प्रतिक्रिया देने की अपनी
जानलेवा गन्दी आदत छोड़ दी है और उन्ही चीज़ों पर प्रतिक्रिया देता हूँ जो मुझे
अच्छी लगती हैं.
खैर, दुर्गेश इलाहाबाद छोड़ने के कारण और उद्देश्य खोजने लगा था.
शेषनाथ तैयारी के समय को साहित्य पढ़ने में बिता कर अब किसी भी तरह की रूटीन तैयारी
के लिए अयोग्य हो चुका था. साहित्य उसका नशा बन चुका था और इलाहाबाद उसकी आदत.
तैयारी के लिए आने वाले नए रंगरूटों को वह दुख भरी आवाज़ में समझाया करता, “देख
बबुआ, जदी कवनो कम्पटीसन निकाले के बा नू त ई कुल कहानी कविता से दूरे रहीह जनल
नाहीं त एकर नसा बड़ा बाउर होला.” वह भी अब इलाहाबाद से बोरिया-बिस्तर उठा कर आरा
शिफ्ट होने की तैयारी में था. मगर इन सबके बीच मुझे इलाहाबाद में मजा आने लगा था.
मेरी हर तरह की थकान दूर करने के लिए दुनिया की ढेरो किताबें और ढेरों फ़िल्में थीं
जिनपर मैं विवेक से बिना थके घंटों बातें कर सकता था. ज़िंदगी में रोमांच के कई
कारण थे. एक तरफ पत्रकारिता का असंतोष भरा माहौल था जो कई बार ऐसे हैरतअंगेज झटके
दिया करता था जिनसे निकलने में महीनों लग जाते थे तो दूसरी तरफ एक साहित्यिक
दुनिया थी जिसके बारे में मेरे कई भरम छंटते जा रहे थे.
एक दिन अचानक कैलाश जी की तरफ से सन्देश आया. उन्होंने कहा कि उनके एक
मित्र के यहाँ ममफोर्डगंज में पार्टी है और मैं विवेक को लेकर चला आऊँ. विवेक
वरिष्ठ और गरिष्ठ टाइप के लोगों से बहुत घबराता था और उसका कहना था कि जहाँ बहुत
अधिक साहित्य चर्चाएँ होने लगती हैं वहाँ वह घबराने लगता है. वह बुरा मान जाता था
कि साहित्य के लोग हमेशा ये बताने में क्यों लगे रहते हैं कि उन्होंने क्या-क्या और कितना पढ़ा हुआ है. कैलाश जी ने मुरलीधर
जी, हिमांशु जी और देवेन्द्र जी को भी आमंत्रित किया था और देवेन्द्र जी से ये
इसरार किया था कि वो अपनी ग़ज़लों वाली डायरी लेकर आयें. हमें ये नहीं पता था कि
वहाँ अंशुल त्रिपाठी को भी आमंत्रित किया गया है. मैं विवेक के साथ फव्वारा चौराहा
पहुंचा और वहाँ से कैलाश जी ने हमें रिसीव किया और अपने दोस्त बुद्धिसागर के कमरे
पर ले आये. बुद्धिसागर बहुत प्यारे इंसान थे और उनकी नयी नयी नौकरी लगी थी . मेरी
याद्दाश्त के मुताबिक ये पार्टी इसी उपलक्ष्य में थी. धीरे धीरे सारे मेहमान पहुँच
गए और बारिश का सामना करते हुए अंशुल भाई भी वहाँ पहुँच गए. उन्हें देख कर हम सबको
काफ़ी खुशी हुई क्योंकि वह कम जगहों पर पहुंचा करते थे. मुझे उनकी कवितायेँ पसंद
थीं और मैं चाहता था कि आज उनकी भी कवितायेँ सुनी जाएँ. मुझे नहीं पता था कि
श्रोताओं ने ये मांग अंशुल से पहले ही कर रखी थी और वह अपनी कुछ कवितायेँ लेकर आये
भी थे.
तीसरे पैग के बाद कैलाश जी को अचानक देवेन्द्र जी की डायरी याद आई और
उन्होंने उनसे निवेदन किया कि वे लेकर आयें और अपनी गज़लें सुनाएँ. तब तक किसी ने
कहा कि पहले अंशुल की कवितायेँ सुन ली जाएँ लेकिन कैलाश जी ने पहले देवेन्द्र जी
की ग़ज़लों के प्रस्ताव पर जोर दिया. देवेन्द्र जी डायरी लेकर आये और उन्होंने गज़लें
सुनानी शुरू कीं. मुझे उस गज़ल में सिर्फ़ ‘शाम होती है’ याद है, जब फूलों की
पंखुडियां झुक जाएँ (जैसा कुछ) तो शाम होती है, इंतजार करती आंखें थम जाएँ (जैसा
कुछ) तो शाम होती है.... हर लाइन में देवेन्द्र जी के ’शाम होती है’ कहने से पहले
ही अंशुल तेज़ आवाज़ में कह उठते, “शाम होती है”. देवेन्द्र जी ने उस एक गज़ल के बाद
गुस्से के मारे अपनी डायरी बंद कर ली और अपना नया पैग बनवाने लगे. थोड़ी देर तक
सन्नाटा रहा जिसे तोड़ने की पहल करते हुए अंशुल को अपनी कविता सुनने का आग्रह किया
गया. अंशुल ने फटाफट अपना चौथा पैग खत्म किया और एक पत्रिका खोली, भूमिका में
उन्होंने बताया कि इस कविता का रूसी भाषा में अनुवाद हो चुका है और एकाध और भाषाओँ
में होने वाला है. यहाँ पर एक और आंख खोलने वाली घटना का ज़िक्र करता चलूँ. मेरी एक
कहानी का पंजाबी में और दो कहानियों का तेलुगु और उड़िया में अनुवाद उस समय तक हो
चुका था और जब मैंने पहले-पहल इसे एक खुशखबरी की तरह अपने बचपन के दोस्त आनंद को
फोन करके बताया था तो उसकी प्रतिक्रिया कुछ यूँ थी, “अनुवाद तुम किये हो?”
“नहीं यार, हम कैसे करेंगे, अनुवादकों ने किया है हमसे इजाज़त लेकर..”
“तो साले इसमें तुम्हारी क्या अचीवमेंट है ?”
मैं बोलने में कतई अच्छा नहीं हूँ. बहुत सारे आक्षेपों और बकवास
आरोपों के मुंहतोड़ जवाब मुझे बाद में सूझते हैं लेकिन अक्सर मैं त्वरित
प्रतिक्रियाएं तर्कों के साथ नहीं दे पाता. हालाँकि अच्छी नीयत वाले दोस्तों को
क्या जवाब देना.
“साले एक ही कहानी के लिए कए बार मुबारकबाद लोगे ? अनुवाद हो गया तो
इसमें तुम्हारा क्या अचीवमेंट है बे ? अच्छा लिखे थे इसका मुबारकबाद तुमको पहिले
ही मिल चुका है काम खतम, अब अगली कहानी पे काम करो जम के.”
तो मुझे लगता है कि अनुवाद होना कोई इतनी बड़ी घटना नहीं है जितनी एक
अच्छी रचना पूरी करना जिससे लिखने वाला संतुष्ट हो. आपको मानना है तो अनुवाद और
पुरस्कार जैसी चीज़ों को बाद में इसका
प्रोत्साहन मान सकते हैं लेकिन उपलब्धि नहीं.
अंशुल ने अपनी कविता सुनानी शुरू की और सभी लोग शांत होकर सुनने में
लग गए. कविता सुनाकर उन्होंने श्रोताओं की ओर प्रतिक्रिया पाने के लिए देखा. सबने
एक स्वर में तारीफ की और मैंने दो कदम आगे बढ़कर क्योंकि मुझे कविता बहुत अच्छी लगी
थी. हिमांशु जी ने भी न्यूनतम शब्दों का प्रयोग किया और उस कविता को बुरा नहीं
बताया. अगर किसी रचना में हिमांशु जी कोई कमी न निकालें तो इसका साफ़ मतलब होता है
कि वह बहुत ही बेहतरीन रचना है. जब मुरलीधर की बोलने की बारी आई तो उन्होंने शांत
और स्पष्ट आवाज़ में कुछ यूँ कहा, “कवितायें आप अच्छी लिखते हैं और ये कविता भी
मुझे अच्छी लगी लेकिन इसमें जिस राग का ज़िक्र आपने किया है वह उस समय का का राग
नहीं है जिस समय का आपने कविता में बताया है.”
कुल मिला कर ये कि कविता में एक राग का ज़िक्र आया था जिसे कवि ने एक
समय का राग बताकर उस समय से जोड़ा था लेकिन मुरलीधर का कहना था कि ये उस समय का राग
है ही नहीं. अंशुल ने थोड़ी देर के लिए उनसे बहस की फिर अपनी बात पर अड़ गए.
उन्होंने मीर और ग़ालिब की कुछ बातों और एकाध शेरों का ज़िक्र किया और मुरलीधर फिर
भी ना माने तो वह कविता में अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात करते हुए ज़िंदगी में
अभिव्यक्ति की आज़ादी का फायदा उठने लगे. मुरलीधर जी फिर भी राग के समय से समझौता
करने के लिए तैयार न हुए तो अंशुल भड़क गए.
“कौन भोसड़ी वाला कहता है कि ये सुबह का राग है, मैं इस कुर्सी को
कुर्सी नहीं मेज़ कहूँगा तो मेरा कोई क्या उखाड़ लेगा. मैं इस दरवाज़े को आलमारी
कहूँगा और इस किताब को कंप्यूटर तो कोई क्या कर लेगा..मैं जो चाहे वो कहूँगा.”
कविता पाठ समाप्त हो चुका था. पार्टी भी समाप्त हो चुकी थी. बारिश तो
कब की रुक गयी थी. सबके घर जाने का वक्त हो गया था.
18...
ज़िंदगी के नए सबक सीखता मैं यूएनआई में अपने प्रोबेशन के दस महीने
पूरे कर चुका था और अब कन्फर्मेशन के लिए मुझे लखनऊ जाकर एक परीक्षा देनी थी. मैं
लखनऊ गया और मनोज के घर पर ठहरा. मैंने मनोज से वादा किया था कि मैं परीक्षा देकर
वापस उसके कमरे पर आऊंगा लेकिन वहाँ मेरी इतनी क्लास ली गयी कि मेरा कहीं भी जाने
का मूड खत्म हो गया और मैं बस पकड़ कर वापस इलाहाबाद चला आया. क्लास लेने वाले अपनी
जगह बिलकुल सही थे मेरा काम में मन नहीं लगता, मैं आलसी हो गया हूँ और अगर ऐसा ही
रहा तो वे मेरा ट्रान्सफर करा देंगे आदि आदि. चूँकि वे सारी बातें सच बोल रहे थे
इसलिए मैं दुखी तो हुआ लेकिन उनका प्रतिवाद करना मैंने ठीक नहीं समझा.
अगले कुछ महीनों बाद मेरा कन्फर्मेशन हो गया और मुझसे पार्टी की मांग
की गयी. इलाहाबाद के पार्टीप्रेमी लोगों से मिलने से पहले दिल्ली में मैं सिर्फ़
शशि शेखर को जानता था जो किसी भी मौके को पार्टी के लिए मुफीद बता कर तुरंत पार्टी
की मांग कर बैठता था, जैसे अगर आपकी शादी हो रही हो तो, “पार्टी दो शादी करने जा
रहे हो.” या फिर आपका तलाक हो रहा हो तो, “पार्टी दो गुलामी से आज़ाद हो रहे हो.”
किसी के घर में बच्चा पैदा हुआ हो तो, “बधाई हो, दुनिया की सबसे बड़ी नेमत मिली है
पार्टी दो.” या फिर किसी के घर में कोई मर गया हो तो, “चलो इस झांटू दुनिया से
मुक्ति मिली, उनकी आत्मा की शांति के लिए एक छोटी सी पार्टी होनी चाहिए.”
मैंने पार्टी दी और मेरी तनख्वाह बढ़ जाने के बाद मैं सोचने लगा कि अब
ये एक कमरे वाला सिस्टम छोड़कर कोई दो कमरों वाला सेट लेना चाहिए जिसमें दोस्त
मित्र आयें तो आराम से बैठें. मैंने विवेक से कहा कि मेरे लिए कोई दो कमरे का सेट
देखे जो ढाई हजार के आसपास में मिल जाए. विवेक ने कई कमरे मुझे दिखाए और आखिरकार
मैंने पिकेट चौराहे पर एक कमरा पसंद किया. अलग-अलग समय पर इंसान के दिमाग में क्या
फितूर भरा रहता है, यह कुछ वक्त बाद बताना कितना असंभव हो जाता है. उस कमरे का
पूरा जुगराफिया चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था कि इसमें कोई नॉर्मल इंसान नहीं रह
सकता लेकिन मुझे पता नहीं उस कमरे में क्या बात दिखी कि मैंने उसे किराये पर ले
लिया. कीडगंज की उस पतलियेस्ट (उससे पतली गालियाँ मैंने विश्वनाथ मंदिर (वाराणसी) गली
में भी कम ही देखीं थी ) गली में एक छोटा सा दरवाज़ा था जिससे अपनी बाईक निकलने पर
उसका पिछला टायर सामने वाले घर के चबूतरे पर चढ़ जाता था. अन्दर घुसने पर अचानक आप
खुद को एक घुप्प अँधेरे में पाते थे और ये सोचकर दिल दहल जाता था कि अभी एकदम काले
अँधेरे से भरी पतली पतली सीढ़ियों वाली दो मंजिलें ऊपर चढ़ने के बाद आपका कमरा
आयेगा. जब इस तरह जान पर खेल कर ऊपर पहुंचे तो इस बात से ही क्या फर्क पड़ जायेगा
कि ये दो नहीं तीन कमरों का सेट है. दरअसल प्राप्त जानकारी के अनुसार यह एक कायदे
का मकान था लेकिन बँटवारे के बाद दो भाइयों ने इसे स्केल से नापकर इसके बीचोंबीच
एक दीवार उठा दी थी. इस दीवार ने उस पूरे मकान की ख़ूबसूरती को लील लिया था और
दीवारों के दोनों तरफ वाले घरों में दिन भी रात जैसी होती थी. बँटवारे के नुकसान
पर किसी को कुछ लिखना या शोध करना हो तो वह सिर्फ़ इस मकान को देख ले. इस घर के
मालिक के रूप में विवेक को सुशील भईया मिले थे जिनके लिए हर दिन होली और हर रात
दीवाली हुआ करती थी. वह उठने के साथ ही पहले रात के हैंगओवर को कम करने के लिए दो
चार पैग लगाते थे और फिर दोपहर के खाने को (अगर खाते तो) पचाने या भुलाने के लिए
तीन चार पैग लगाते, शाम होते ही उन्हें लगने लगता कि शाम का नशा जो होता है वैसा
मजा सुबह या दोपहर में पीने से नहीं आता. फिर वो रात में पीते और कुछ ज़्यादा हो
जाने पर अक्सर बिना खाए सो जाते. लब्बोलुआब ये कि वह महीने के तीसों दिन चौबीस
घंटे नशे में रहते थे. कहने को तो वे अपने परिवार सहित ममफोर्डगंज में अपने दूसरे
घर में रहते थे लेकिन उनकी रातें और लगभग दिन अक्सर यहीं बीतते. दिन में कुछ घंटों
के लिए अगर वे अपने ऑफिस जाते (जैसा वो कहते थे) तो वहाँ थक जाने के कारण सीधे
यहीं आ जाते और पीने के कार्यक्रम का शुभारंभ कर देते. अनवरत नशे में रहने के कारण
वह चीज़ों में जल्दी फर्क नहीं कर पाते थे जिसके कारण वह बहुत दुखी रहा करते थे और
उन्हें लगता था कि दुनिया में सब उल्टा-पुल्टा हो चुका है. इस दुनिया के बनिस्पत
उन्हें अपनी दुनिया बहुत अच्छी लगती थी ,जिसका दरवाज़ा खोलने के लिए ही वह पीया
करते थे.
जब मैं वहाँ शिफ्ट कर गया तो मुझे बड़ी शिद्दत से एहसास होने लगा कि
मैंने गलती की है. सुशील भईया, जब तक मैं वहाँ रहा, तब तक कन्फ्यूज रहे कि उनसे
कमरे की बात किसने की और रहता कौन है. वह अपने कमरे में रहते और मुझे या विवेक को
फोन करके परेशान करते रहते. एक दिन मुझसे मिलने आ रहे विवेक को उन्होंने पहली
मंजिल यानि अपने कमरे के पास रोक लिया.
“कहाँ थे दो दिन आये ही नहीं ?”
“हाँ जरा बाहर चले गए थे इलाहाबाद के.”
“अरे बाहर ? लेकिन कमरे की बत्ती तो जल रही थी.”
“हाँ तो जल रही होगी. विमल तो था ही यहाँ.”
“अच्छा विमल को रहने के लिए बोल के गए थे क्या ?”
“नहीं, बोलना क्या है, वो तो रहता ही हैं यहीं तो...?”
“तो फिर तुम कौन हो ?”
“मैं विवेक हूँ भईया, विमल का दोस्त.”
“कमरे की बात तुमने ही की थी ना...?”
“हाँ मैंने ही की थी आपने दोस्त विमल के लिए...”
विवेक ने आकर मुझे बताया तो मैंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया क्योंकि वो
मुझसे पहले भी ऐसी बहकी-बहकी बातें कर चुके थे और मैं उनसे सुहानुभूति रखता था.
लेकिन दिक्कत तब होने लगी जब मैं एक रात बाहर से खाना खाकर आ रहा था और वह लड़खड़ाते
हुए अपने कमरे से निकाल कर बाथरूम की तरफ जा रहे थे. उन्होंने मुझे रुकने का इशारा
किया. वह इत्मीनान से पेशाब करते रहे और गुनगुनाते रहे, “लोग कहते हैं मैं शराबी
हूँ.” मैं खड़ा उनका इंतजार करता रहा. पूरे
पांच मिनट तक गुनगुनाते हुए पेशाब करने के बाद वे मेरे पास आये . उन्होंने गंभीर
आवाज़ में मुझसे पूछा, “और भाई इतनी रात को ?”
“खाना खाने गए थे भईया.”
“अकेले ? विमल कहाँ है?”
मैंने आपने चारों तरफ देखा. वह मुझसे ही मुखातिब थे.
“भईया हम ही विमल हैं, आपको बताये तो थे...”
“हाँ हाँ याद आया विमल हो तुम, तुम उधर थाने वाली सड़क पे रहते हो ना
?”
“नहीं भईया वो तो विवेक है.”
“विवेक ही रहता है ना ऊपर?”
“नहीं भईया ऊपर हम रहते हैं.”
“अच्छा तो विवेक कहाँ रहता है ?”
“विवेक थाने वाली सड़क पे रहता है.”
“अच्छा ! मगर कमरे की बात जिसने की थी उसका नाम तो विमल था.”
“नहीं भईया मेरा नाम विमल है और जिसने आपसे कमरे की बात की थी, जो
थाने वाली सड़क पर रहता है और जो मुझसे अधिक मोटा, लंबा और गोरा है उस इंसान का नाम
विवेक है.”
“हाँ यार, याद आया वो हीरो जैसा लगता है ना ? अब याद रहेगा, जो गोरा
चिट्टा लंबा है वो विवेक है और जो लपूझन्ना जैसा है उ विमल है. ठीक है ना ?”
“हाँ भईया बिलकुल ठीक.”
मुझे लगा मैंने उन्हें अच्छी तरह से समझा दिया है और वह समझ गए हैं
लेकिन इसके हफ्ते भर बाद उन्होंने मुझे फिर अविश्वसनीय तरीके से रोक लिया और कहने
लगे, “क्या बात है विवेक, कल तुम बत्ती बुझाये बिना ही चले गए थे.?”
“नहीं भईया बंद तो किये थे.”
“अरे जली हुई थी. अच्छा रहते तुम ही हो ना ऊपर ?”
“जी हाँ मैं ही रहता हूँ ऊपर. मैं विमल हूँ और मैं हमेशा निकलने से
पहले बत्ती बुझा देता हूँ.”
“ठीक करते हो विमल लेकिन तुम पहले बहुत मोटे लंबे थे, अब क्यों
दुबराते जा रहे हो उस लपूझन्ने विवेक की तरह....?”
मैं समझ गया कि अब जल्दी से जल्दी इस रूम को छोड़ देने का वक्त आ गया
है. मैंने फिर से विवेक के कन्धों पर ये ज़िम्मेदारी डाली कि वह मेरे लिए जो कमरा
खोजे उसमें कुछ भी ना हो लेकिन रोशनी ढेर सारी हो.
सुशील भईया रात को अचानक मुझे फोन करते और पूछते, “कहाँ हो विवेक ?”
मैं कहता, “अभी आने में दो घंटे लगेंगे भईया.”
इसके बाद वह मेरे सामने बैठे विवेक को फ़ोन करते और पूछते, “विमल, कहाँ
हो, कितनी देर में आओगे ?”
“भईया मैं तो अपने घर पर हूँ और वहाँ विमल रहता है मैं नहीं.”
वह कहते, “विमल ने अभी फ़ोन किया था कि आने वाला है दस पन्द्रह मिनट
में. तुम भी आ जाओ, दोस्त से मिलना हो जायेगा.”
हमने बाद में समझा कि वह अपने अकेलेपन से बहुत परेशान थे. मुझे
कभी-कभी ये भी लगता कि कहीं ये शराबी हमसे मजा तो नहीं ले रहा लेकिन बाद में विवेक
ने बताया कि उन्हें कन्फ्यूज करने में उसका भी हाथ था. वह शुरू में कई बार अपने
नंबर पर विमल बनकर बात कर लिया करता था. शराब ने उन्हें दुनिया से काट दिया था और
शराब के साइड इफेक्ट्स ने अपने परिवार से. वह मेरी या विवेक की मौजूदगी में उस भूत
बंगले जैसे घर में खुद को सुरक्षित महसूस करते थे. जिस भी दिन मुझे देर हो जाती,
वह फोन करके इधर उधर की बातें करते और फोन करने का कारण जताते हुए कहते, “एक बीस
रुपये का वोडा लेते आना.”
वह बीस रुपये से ज़्यादा रिचार्ज नहीं कराते थे. मैंने और विवेक ने
उनके लिए कितने ही बीस रुपये के वोडाफोन के रिचार्ज वाउचर लाकर दिए जिनमें से कई
के पैसे विवेक को आज तक वापस नहीं मिले.
क्रमशः .......
प्रत्येक रविवार को नयी किश्त ....
संपर्क -
विमल चन्द्र पाण्डेय
प्लाट न. 130 - 131
मिसिरपुरा , लहरतारा
वाराणसी , उ.प्र. 221002
फोन न. - 09820813904
09451887246
फिल्मो में विशेष रूचि
फिल्मो में विशेष रूचि
मजा आ गया, बहुत बढ़िया लिखे हो विवेक भाई... :-)
जवाब देंहटाएंमेरे कुछ मित्रों का कहना है कि मेरे भीतर गंभीरता का किंचित भाव है.....इसे किंचित अभाव पढ़ें. (टाइपिंग की गलतियों को क्षमा करते चलें) ;-)
जवाब देंहटाएंवाह विमल भाई आनंद आ गया...
जवाब देंहटाएंभाव-अभाव को कौन देखता है यहाँ ...जब विमल विवेक हो सकते हैं (क्यों मनोज भाई ..?), तो अभाव भी भाव क्यों नहीं हो सकता है (वैसे मैंने उसे सुधार दिया है ) ....
जवाब देंहटाएंमनोज भाई हम विमल हैं और हम लिखे हैं ये
जवाब देंहटाएं"मैं इस कुर्सी को कुर्सी नहीं मेज़ कहूँगा तो मेरा कोई क्या उखाड़ लेगा. मैं इस दरवाज़े को आलमारी कहूँगा और इस किताब को कंप्यूटर तो कोई क्या कर लेगा..मैं जो चाहे वो कहूँगा.”
जवाब देंहटाएंतो इस हिसाब से मनोज भाई का भी तो कुछ हक बनता ही है ...मन करे तो विमल और मन करे तो विवेक ....क्यों ..?
vimal bhai aapka likhna shuru se hi mujhe bahut achha lagta hai.maine saari kishten padhi,aisa lagta raha ki ghatnaye mere samne ghatit ho rahi hain,ya ki mai bhi unme shamil hun,ya sab kuchh mere samanantar chal raha ho'mukhatib' ki ek goshthi me maine aapki kahani ki ek pandulipi dekhi, waha se wapas aakar maine santosh bhaiya se zikra kiya ki vimal achha likh rahe hain,unse 'katha' ke liye ek kahani lijiye.baharhal.. jab aap gyanpeeth se puraskrit hue to mujhe bahut khushi hui,ek to isliye ki aapko puraskar mila,dusre isliye ki mujhe yakin ho chala ki kahaniyo ki meri samajh bhi buri nahi hai. aapko bahut shubhkaamnayen.
जवाब देंहटाएंmaja aa gaya ....jai ho sashi bhaiya ki aur sushil bhaiya ki bhi
जवाब देंहटाएंबँटवारे के नुकसान पर किसी को कुछ लिखना या शोध करना हो तो वह सिर्फ़ इस मकान को देख ले.
जवाब देंहटाएंhum apki kahani ke saath jud gaya hi
जवाब देंहटाएंapka sansmaran bahut badhiya h
जवाब देंहटाएंaou usme kailash ji ka jikr to usme char chnad lagta h
सतत हर कड़ी बहुत मजेदार लिख रहे हैं.
जवाब देंहटाएंइस संस्मरण से एक बात समझ मे आयी कि सारे लेखक दारु पीते है! हाँ हाँ
जवाब देंहटाएंविमल जी, आपका संस्मरण बढ़िया तरीके से आगे बढ़ रहा है. इलाहाबाद से जुड़े इन संस्मरणों में जैसे अपना भी जुड़ाव लग रहा है. आभार आपका. आपने संस्मरण की इस किश्त में लिखा है कि अंशुल त्रिपाठी ने चौथा पैग ख़त्म किया. आप शायद पहले किसी किस्त में यह लिख चुके हैं कि अंशुल दारू नहीं पीते. अंशुल को जहां तक मैं जानता हूँ वह शराब नहीं पीता. हो सकता है मैं ही गलत होऊँ. या इलाही माजरा क्या है?
जवाब देंहटाएंसभी दोस्तों का शुक्रिया...मैंने लिखा है संतोष जी कि अंशुल भाई पीने वाली जगहों पर वादा करके भी नहीं पहुँचते. ना पीने वाली बात मैंने कहीं नहीं लिखी, उनके साथ पीने का मेरा वही पहला और आखिरी अनुभव था और जहाँ तक उन्हें आप जानते हैं वह वहीँ तक है जहाँ तक वो जनवाना चाहते हैं. :-)
जवाब देंहटाएंमेरे कुछ मित्रों का कहना है कि मेरे भीतर गंभीरता का किंचित अभाव है जिसके कारण मुझे साहित्य में गंभीरता से नहीं लिया जा रहा जबकि मेरे बाद आये कई होनहार लेखक कितने ही पुरस्कार पा चुके हैं और किताबें छपवा चुके हैं जबकि मैं अभी तक उसी एक किताब को थामे बैठा हूँ जिसकी पाण्डुलिपि कई दोस्तों के कहने पर एक प्रतियोगिता के लिए भेजी थी. मैं उनकी बातों को गंभीर हास्य की श्रेणी में रखता हूँ और मुस्करा देता हूँ....this muskarahat is ur biggest strength and this differs you from the writers of ur age who are cursed to be in an aura of their writing whether they are writing good average or bad. u deserves kudos and clapping not only for ur language but for ur courage too.
जवाब देंहटाएं“साले एक ही कहानी के लिए कए बार मुबारकबाद लोगे ? अनुवाद हो गया तो इसमें तुम्हारा क्या अचीवमेंट है बे ? अच्छा लिखे थे इसका मुबारकबाद तुमको पहिले ही मिल चुका है काम खतम, अब अगली कहानी पे काम करो जम के.”
जवाब देंहटाएंmazedaar rahi........
lapujhanna........
hahahaha.........bahut khub,,