गुरुवार, 9 मई 2013

शैलजा पाठक की डायरी


                                  शैलजा पाठक 




शैलजा पाठक कवितायें लिखती हैं , फेसबुक के किसी पाठक को बताने की आवश्यकता नहीं है | और फेसबुक ही क्यों , देश की तमाम बड़ी साहित्यिक पत्रिकाएं भी इस सच को बयान करती दिखाई देती हैं | लेकिन अपनी कविताओं जितनी ही सम्वेदनशीलता के साथ ही गद्य भी लिखती हैं , यह बहुत कम लोगों को पता है | खुद वे भी इस तथ्य से अनजान बने रहना चाहती हैं , कि मैंने कुछ गद्य भी लिखा है | जैसे कि डायरी के ये पन्ने , जिन्हें बहुत झिझकते हुए उन्होंने सिताब दियारा ब्लॉग को दिया है |


  तो प्रस्तुत है सिताब दियारा ब्लॉग पर शैलजा पाठक की डायरी के कुछ संवेदनशील पन्ने  
                                            


                              एक ....


मुझे अकेला छोड़ दो ....उस अकेलेपन में मेरी यादें पिजती है ..बड़े कोमल से फाहे उड़ते है... आँखे एक नर्म बिस्तर पर सो सी जाती हैं ..मुझे अकेला छोड़ दो कि पहचान कर लूँ मैं अपनी अपने साथ ..आईने के उलझे बालों को सुलझा लूँ ..पर घात लगी यादों का क्या करूँ ..किसी न किसी रास्ते आ कर टकरा जाती ही है ..मेरे आहत होते मन पर तुम जाने अनजाने ही कीलें ठोकते हो ..मेरे दर्द को अकेला रहने दो ..वे रिसने के रास्ते तलाश कर लेंगे ......मुस्कराहटों में दबी चीख मुझे सोने नही देती .


                        दो .... 


यार ने मुझको मैंने यार को सोने ना दिया ......इसी गाने को सुनते रहे कैसेट पलट पलट कर ..रात को रोक लेने की जिद्द में ..नही रुकी ..फिर उजास था ..मेरा जाना तय .तुम्हारा उदास होना भी ..जिंदगी का सबसे स्वार्थी समय होता है ना ..जब आप प्यार में हैं और पूरी दुनिया आपके खिलाफ साजिश करती सी जान पड़ती है ...जरा कम भूख लगती है ..गुस्सा तो आता ही नही ..हम खाना खाते हुए भी मुस्कराते हैं ..ऐसे ही अपने आप में ...तुम मुझे जाने देना भी नही चाहते थे और टिकिट भी ले आये ..तुम्हारे कस्बाई शहर में बसें समय पर चलती है ?

तुम सामान उठाते हो और मुझे लेकर चल पड़ते हो ..बात भी करो ..पर नही तुम अपनी चुप्पी में ना जाने कितनी उदासी घोल रहे थे ...अब मैं बस में थी और तुम बाहर ..मैं कुछ कहना चाहती थी ..तुम मुझे देख कर भी अनदेखा कर रहे थे ....बस एक झटके के साथ चल पड़ती है .

.सुनो !तुमने गहरी पलके झपकाते हुए मुझे एक कागज़ थमा दिया ..हुह ..कई बार बसों का सही समय पर चलना भी खलता है ..उस रंगीन से कागज में लिखा था ..मेरी हथेलियों में उभरता है तुम्हारा चेहरा ...मैं इतनी गहरी बातें नही समझती थी ..सामने थी तो सीधे क्यों नही कहा ?प्यार करते हो ..अब भरे बस में खाली मन लिए ..मैं रोना चाहती थी ...रात ने कैसेट बदल कर फिर सुना दिया...आप कहते थे कि रोने से ना बदलेंगे नसीब ..उम्र भर आपकी इस बात ने रोने न दिया....



                                तीन .....


पुराने मुहल्ले में नयी इमारतें बन गई ..सहज था..पर असहज लगा ..गली का रास्ता दब गया उसके निचे ..मुस्कराते बचपन की यादें भी ....शोख बच्चो की टोली छतों पर खेल रही है ...मैदान ऊपर चले गए सारे ...अतीत पुकारता है तो किताब के पन्ने फडफडाते हैं ..हाँ क्या ? हाँ ना ..जैसे कोई याद करे तो बाई आँख ....हाँ याद आया ..बाबा बोलते थे ..एक समय से दुसरे में जाने की प्रक्रिया लम्बी होती है ..गोलगप्पे सा बचपन ..समय के मुँह में गया ..खतम ..अब लो ..बड़े हो गये ..आज पुरानी गलियों में खोजने निकले तो लगा ..हमारे अन्दर ही है दबा दबा सा खिलखिलाओ तो पहचान जाओगे ...समय नही ना ...भारी जिम्मेवारियों से दुखते कंधे पर बचपने की सवारी नही होती ..जाओ तुम्हें पीछे छोड़ आये ..यादों में आंधी के जोर से भागती मेरे ही चेहरे वाली लड़की मुझसे चिपक जाती है ...मैं अपने बेटे को कलेजे से लगा कर सुनाती हूँ किस्से ..खिलखिलाती गलियों में रंगबिरंगे पतंग गिरते है ..



                                चार ....


तुम हमे छोड़ कर नही जा सकती .....

खाली पड़ी देंह पर विलाप की सफ़ेद चादर परत दर परत पड़ती जाती है ...एक समय ऐसा भी की वियोग में हम रोते नही ..घर की सबसे सूनी दीवार की आग तापते है ..चौखट के आर पार होते दिन रात के सिरे पकड़ने की कोशिश करते है ..हाथ खाली ...अपने सबसे रंगीन कपड़ों को उदासी में सान कर घर के परदे लगा देते हैं ...

शोक में सबके अन्दर एक चीख जिन्दा है पर सब उसे मारते है ...सबसे दुखते कंधे पर हाथ धरते ही एक दर्द कच्चे मटके सा फूट पड़ता है ...वेदना से दुखती है धरती की छाती ...आसमान की बाहों में सिसकती है आधी रात की असहाय देंह ...
तुम क्यों चली गई के समवेत स्वर की लकड़ी पर बिन कुछ कहे जल रही हो तुम ....


                                
                                  पांच .....


हरे हुए खेत ..पिली हुई सरसों सा ..महकता बहकता सा प्यार ..गाँव की रेशमी पगडण्डी ..आम के बगीचे में निर्भीक तुम्हारा हाथ थामे ..छोटे से गाँव की सीमाओं को बार बार छूते..हमारी मुस्कराहटे कितनी खरी थी ना ..जीने के लिए एक नौकरी ..घर तो बस बन ही जाना था ...हमने बरसो अपने आप को छला ...
हमने अपनी नादानी में बड़ी बातें सोची ..घर वालो ने समझदारी से हमारी नादानी को ख़ारिज कर दिया ..छोटे सपने थे बस गिरे टूटे बिखर गए ..मुस्कराता रहता है सरसों का खेत बेअसर ...गाँव की अंतिम छोर तक डूबते सूरज को भगा आता हूँ ...

मन की उन् हरी भरी पहाड़ियों पर भूरी पड गई है घास ..कूकती कोयल हूक सी जगा जाती है ..साथ की यादों से लिपापुता है घर का आँगन ..मुंडेर की गौरैय्या रुला जाती है ...तेरी लम्बी पतली अंगुली कपूर सी महकते हाथों ने अभी अभी मेरी आखों पर पर्दा किया ....पता है तू है .. 




                                छः  ...


सुई लगाने पर आँख बंद रखते थे ..दर्द देने वाले को देखा नही ..सहा तब ..और अब ..आज भी ..आँख खोल लूँ तो देख लूँ तुम्हें ..धर लूँ हाथ ..की बस ..कुछ कहना है मुझे ..बिंधने से पहले सुनो तुम ..बचपन के कुछ सबक ही सही नही ..कोई बात नही सब ठीक हो जायेगा...नही कुछ ठीक नही होगा..ठीक करना होगा ..आँखें खोलनी होगी ....कान छिदवाते समय जीभ काटना...जय राम जय राम बोलने की बेवकूफी आज भी ..दर्द तब भी होता था ..बहला दिया जाता ..आज भी ..परिवार शर्मिंदा हो जायेगा के खौफ से ..सहते जाने के रिवाज को निभाते जाने का जुल्म....बस भी करो..बोलने दो ..सुनो तुम भी ..जहाँ जरुरत है चीखो पूरी ताकत से ..कुछ सड़ी रीतियों के ..बदतर सोच ..जंग लगी प्रथा ..के जंग लगे तालों को खोलने के लिए ..आवाज बुलंद करनी होगी 


                                  सात ....

..
मन की स्लेट पर जो चाहे लिखो मिटा दो ..फिर दूसरा लिखो ...चाहो तो बार बार एक ही बात ..एक बार ऐसा भी होगा जब तुम कुछ नही लिखते ..काले स्लेट पर फिर भी कुछ बाते उभरेंगी ..मन की आँखें सफ़ेद पन्नो की इबारते भी पढ़ लेती हैं .
.हम ठहरे होते हैं कई बार ..रात होती है तो कहते है..अरे रात हो गई ..क्यों की हम शाम के साथ इतना थे की रात का इन्तजार ही नही किया ..समय के साथ रहो न रहो समय आपके हाथ कुछ नाइ तारीखे थमा कर आगे चला जाता है ..देखो दिन बदल गया ...

अतीत की तिजोरी में मेरा बचपन है ..मेरी फ्रोक पर बना मोर ..गुमसुम बीमार सा है ..तह लगे कपड़ों में मुदा तुड़ा ..ऐसे कपड़ों को कभी न कभी झटक लेना चाहिए ...कपड़ों की तह खुलते ही मोर के पंख खुलेंगे ..अतीत नाच उठेगा ..

.समय हो तो खाली को पढो ...मौन सुनों ..यादों की पुरानी गलियों में घूम आओ ...बड़ी उर्जा है वहां ..राख में चिंगारी ...घुप्प अँधेरे में जुगनू जैसे ..टिमटिम यादें ...काली स्लेट पर देखो ..लिखा दिखा न बहुत कुछ .....


                        
                                    आठ ...


शब्द खंडहर बन गए ..इमारतों की ईटों में दबी कहानियां ..सफ़ेद दिवार पर धब्बे सी दिखाई देने लगी ..भागने की होड़ में सब हरा रहे है हार रहे हैं ..पुरखों की लाशों पर हमारे बनाये नियम दौड़ रहे हैं ..दबी आवाजों को सुनता भी कौन है..बूढ़े अपनी गहरी आखों में आप ही मर रहे हैं ..अकेले ..उनके चरमराते करवट पर घर अशांत हो जाता है ..वो चुप चाप मरेंगे ..

समय कम है ..हासिल करना है ...हमें जीना है हमारे शानदार जीवन के लिए मरना होगा किसी न किसी को ...गर्त में जा रही सोच ...किसे पड़ी है ..बढ़ते नाख़ून को नही काटते लोग ..वहाशिपने को उगा रहे है ..बच्चे डरते हैं ..न जाने कौन सी गली में दबोच लिए जाएँ ..छोटी लड़कियों से उम्र नही पूछते ..देंह को देंह चाहिए ...बिगड़ते समय की धार पर लाचार पौधे बिना पानी के सुखते है खतम हो जाते हैं .. 

पुरानी सोच को किलों से ठोककर हमने सबसे उपेक्छित दिवार पर लटका दिया..नये युग में नइ सोच के साथ हम खेल रहे हैं वही पुराना खेल ..अपने आप को बचाना है तो मारो खाओ और बचा लो अपनी सांसें ..


                                      नौ ....


पुराने रास्तो पर नए पेड़ थे ..पुराने भी टूटे टूटे से दिखे ...अतीत साथ बह रहा था ..अबोले समन्दर ने देर तक हाथ नही छोड़ा ..भरी आँखों से विदा ली ...कुछ दीवारों के खंडहर में कुछ सुनहरे पल ताक झांक करते मिले ..दूरियों में बंधी रहती है कुछ बातें यादें ...नइ कोपलों में जिन्दा था छोटा सा शहर 

...एक पांच साल का लड़का जो कभी कुछ नही बोल पाया ..वो बड़ा हो गया था...उसके पिता जो बेटे को बोलना सिखाते सिखाते अब खुद गूंगे हो गए है ..

कुछ परिचित आँखें में अनजानी परछाइयां दिखी ...शरर नही छूटते ..हम छोड़ आते है उन्हें ..वो तो वही अपलक देखते है हमारे आने की राह ..शहर को गले लगाने का कोई तरीका है क्या ?

समन्दर के साथ पास गुजारे समय को जीते हुए ..मैं फिर मिलूंगी के वादे के साथ ...नदियों को जाना भी कहाँ है ....जरुर आउंगी मिलने ..मिल जाउंगी ...इन्तजार धडकता रहे बस..



परिचय ...

शैलजा पाठक

बनारस से पढ़ी-लिखी
आजकल मुंबई में रहती हैं
लिखने के साथ गाने का भी शौक है
कई पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित


10 टिप्‍पणियां:

  1. ये कविताये बड़ी मोहक हैं .... छोटे छोटे पलों को शब्दों में गूथ कर बहुत अच्छा लिखा गया है ...
    यूँ भी जब शब्दों में बनारसी अल्हडपन और मुम्बई की बेफिक्री मिल जाएँ तो कविता बन ही जानी है…

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  2. बेनामी10:58 am, मई 09, 2013

    शैलजा की लेखनी का अपना रंग है.एक अलग पहचान के साथ शैल उभर रही है.गंभीर... मार्मिक... चित्र.. अनुभव... संस्मरण... रिपोर्ताज ... डायरी.... कविता..... जिस पर भी कलम उठती है ... पाठक को गहरे सोचने पर विवश कर देती है. आने वाला कल शैल जैसे रचनाकारों का है इस में किंचित भी संदेह नहीं हैं.शुभाशीष......(malik rajkumar)

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  3. shailajaa kee dayari ke panne sanvedansheelata se aapoorit hain. ek kavi ki yah dayari padhe jaane yogya hai. badhaee evam shubhkamanye.

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  4. शैलजा पाठक की डायरी से गाँव की महक आती है.किशोरावस्था का प्रेम और एक मृत्यु का प्रसंग बहुत जाने पहचाने से लगते हैं. यह गद्य लेखिका उज्जवल भविष्य की आशा जगाता है.

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  5. मूलतः कवि की ये गद्य रचनाएँ भी कविता का आस्वाद देती हैं । शैलजा की रचनाएँ पाठक से कुछ ही क्षणों में आत्मीयता स्थापित कर लेती हैं और यह उनके लेखन की खूबी भी है और ताकत भी । वे अपने लेखन से निरंतर प्रभावित कर रही हैं ,लोगों का ध्यान खींच रही हैं । मुझे खुशी है कि वे अब 'सिताब दियारा' जैसे प्रतिष्ठित ब्लॉगों में स्थान पा रही हैं । शैलजा को मेरी शुभकामनाये और बध

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  6. सर्वोत्त्कृष्ट, अत्युत्तम बहुत ही सुन्‍दर संकलन है
    हिन्‍दी तकनीकी क्षेत्र कुछ नया और रोचक पढने और जानने की इच्‍छा है तो इसे एक बार अवश्‍य देखें,
    लेख पसंद आने पर टिप्‍प्‍णी द्वारा अपनी बहुमूल्‍य राय से अवगत करायें, अनुसरण कर सहयोग भी प्रदान करें
    MY BIG GUIDE

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  7. गद्य और कविता के बीच की दूरियां नापती ये पंक्तियाँ एक सतत प्रतीक्षा के ठहराव में थमे कम्पन को छूने की कोशिश करती लगती हैं. अतीत यहाँ कहीं रुका हुआ नहीं बल्कि और आँखों की तरलता के साथ बूँद-बूँद टपक रहा है. तपती दोपहर में जैसे किसी घनी छाँव में बैठे आँखें मुंद जाएँ और उस ठंढे-से दायरे के बाहर तड़पती लू को पलकों पर महसूस किया जा रहा हो. अमराई से समंदर तक सोच की यात्रा उसी पलक की झपक में तय हो जाती है उनके यहां. पीले सरसों के खेत रंग बदल कर भूरे पहाड़ों में तब्दील हो जाते हैं और अचानक फुहारों के बीच एक अपना सा स्पर्श उन्हें अतीत से खींच लाता है. ये शब्दातीत भाव बिखरे हुए सम्बोधन-विहीन संवाद के रूप में अभिव्यक्त होते हैं.

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  8. शैलजा को पढ़ना अपने बचपन ,कैशोर्य से एक बार फिर गुजरने जैसा होता है ....कविताओं में रूपकों उपमानों के एक विशिष्ट शैली के चयन ने स्वाभाविक रूप से ध्यान खींचा था पहली बार जब शैलजा की किसी कविता से आँखें गुजरी थीं ........ अब वही बात बल्कि उसका एक विस्तार यहाँ दीख रहा हैं इस मुलायमियत और ईमानदार संवेदना से लिखे गए इस अचूक गद्य में भी ... बहुत उम्दा लिख रही हैं और बेहद संभावनाशील रचना संसार है इस रचनाकार का .... मेरी बधाई शैलजा को भी और आभार अपने परम मित्र रामजी का जिन्होंने यह सुन्दर गद्य पढ़ने का अवसर उपलब्ध कराया

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  9. hari kopalon mein ek naya shahar, kya baat hai, bahut khoobsoorat bhav, ehsaas. Badhai Shailja ji. Kisi ko bus mein vida kehne ka varnan bhi adbhut, sabhi aise palon ki yaad dila de, jab ek man kahe ruk jayo, ek kahe jaana hai.

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  10. Pyaar, ahankaar, uske shahar, mere shahar ki baareek rekhayein khichti hain panktiyan yeh. Pyaar mein mere uske ke batware ki bhi.

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